क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा - अनुरंजनी | Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram

प्रभात रंजन के हाल ही में प्रकाशित, चर्चित उपन्यास 'क़िस्साग्राम' का एक अंश आप पढ़ चुके हैं (लिंक) अब पढ़ें उपन्यास पर युवा समीक्षक अनुरंजनी  की बेहतर कलम! ~ सं०


Prabhat Ranjan Upanyas Kissagram


क़िस्साग्राम: अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा

~ अनुरंजनी 

एम.ए में स्वर्ण-पदक विजेता, फिलहाल यूजीसी द्वारा ‘जेआरएफ’ पा कर दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया के‘भारतीय भाषा विभाग’ में शोधार्थी। anuranjanee06@gmail.com

 
शौक़ बहराइची का मशहूर शेर है – 
   बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक  ही उल्लू  काफ़ी था
   हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा

जिसकी याद ‘क़िस्साग्राम’ अनायास ही दिला देती है। ‘क़िस्साग्राम’ प्रभात रंजन का हाल ही में प्रकाशित उपन्यास है जिसकी बुनियाद इतनी है कि 90 दशक के किसी रोज़ स्कूल की ‘फील्ड’ के एक कोने में एक छोटी सी मूर्ति आ गई, किसी के ध्यान जाने से पहले ही स्कूल के चौकीदार ने ईंट का एक चौतरा बनाकर उसके ऊपर दीवार से सटाकर मूर्ति को बिठाया और मूर्ति के माथे में लाल सिंदूर लगा दिया और रोज़ सुबह वहाँ आकर अगरबत्ती जलाने लगा। धीरे-धीरे और लोग उसकी पूजा करने लगे और उसी में एक छकौरी नामक पहलवान का प्रवेश होता है जिसने अपने को स्थापित करने के लिए एक महत्त्वपूर्ण दंगल में जाने से पहले उसी चौतरे वाले हनुमान जी के पैर के पास की मिट्टी उठाकर उसने अपने माथे पर लपेटी थी और चार नामी पहलवानों को धूल चटाकर सबके लिए छकौरी पहलवान के नाम से प्रसिद्ध हो गया। प्रत्येक दंगल में जाने से पूर्व वह उस मंदिर में आता रहा, हनुमान जी के चरण-धूल अपने माथे लगाता रहा और लगातार 56 दंगल जीतता रहा। फिर किसी रोज़ ऐसा हुआ कि नेपाल में सीता-जयंती पर आयोजित दंगल में वह हार गया और फिर तभी से वह गायब हो गया और उसी रात किसी ने वह मूर्ति तोड़ डाली। इसके बाद केवल किस्से ही किस्से हैं। किस्से उन तमाम राजनीतिक परिदृश्य के जहाँ सब कुछ गौण हो जाता है और मुख्य रहती है राजनीति।

हम बचपन से पढ़ते-सुनते आ रहे हैं कि लोकतंत्र जनता की, जनता के द्वारा और जनता के लिए है लेकिन जैसे-जैसे हम सचेत होते जाते हैं वैसे-वैसे यह वास्तविकता दिखने लगती है कि लोकतंत्र की परिभाषा जो हमने पढ़ी, जिसपर विश्वास किया वह तो खोखली लगती है। असल में लोकतंत्र हो या कोई भी तंत्र सब अपनी सत्ता कायम रखना चाहते हैं और उसके लिए ‘लोक’ का इस्तेमाल हर तरह से करना जानते हैं। यह उपन्यास एक तरह से इसी के इर्द-गिर्द है जहाँ लेखक स्पष्ट लिखते भी हैं कि – 
जो सत्ता में होता है वह बात तो अपनों की करता है लेकिन विकास अपना करता है। उसके लिए अपने उसके अपने परिजन होते हैं। बाकी किसी की वह परवाह नहीं करता।
अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए राजनीति जिन-जिन बातों का, जिन-जिन तरीकों का इस्तेमाल कर सकती है, बल्कि कहें कि करती है उन सबके किस्से बहुत ही दिलचस्प तरीके से यह किताब बयान करती है। 

राजनीति में धर्म अब तक एक बेहद ही प्रभावशाली ज़रिया साबित होते रहा है जिससे जनता आसानी से सत्ताधारियों के बहकावे में आ जाती है। उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, ताज़ा उदाहरण का बृहत् रूप बीते महीने भर पहले ही बीता है। ऐसे में लियो टॅालस्टॅाय का यह कथन प्रासंगिक लगता है कि “किसी देश को बर्बाद करना हो तो वहाँ के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ा दो, देश अपने आप बर्बाद हो जाएगा।” हालाँकि इस उपन्यास में धर्म के नाम पर लड़ाने का उल्लेख तो नहीं है लेकिन धर्म के नाम पर भोली-भाली जनता का इस्तेमाल करना प्रमुखता से है। जिस रोज़ मूर्ति टूटी, उसी रोज़ से छकौरी पहलवान गायब हो गया था लेकिन उसके बाद हर जगह उसकी उपस्थिति है। उपस्थिति इसलिए क्योंकि सबलोग उसके नाम पर अपना फायदा चाहते हैं। कब धीरे से राजनीति इसमें प्रवेश कर जाती है और अन्त-अन्त तक वही हावी रहती है यह पता भी नहीं चलता। सबसे पहले माँग होती है छकौरी पहलवान के गायब होने की जाँच की जिसके प्रतिउत्तर में एक दूसरी पार्टी के नेता द्वारा यह घोषणा कर दी जाती है कि 
अन्हारी गाँव में जनता के सहयोग से हनुमान जी के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया जाएगा। लोग आएँ और स्वेच्छा से इसके लिए दान दें। भगवान की मूर्ति का टूटना बहुत बड़ा अपशकुन है और इसके प्रायश्चित के लिए ज़रूरी है कि मन्दिर बनाकर भगवान को धूमधाम से उसमें स्थापित कर दिया जाए।
इसके अलावा समाज के किसी वर्ग-विशेष द्वारा यह कहा जाना कि 
अदृश्य सत्ता इसी तरह संकेत देती है। कोई बड़ी विपदा न आ जाए कहीं। ईश्वर स्कूल के पास प्रकट हुए थे। नई उमर की नई फ़सलों के लिए कोई संदेश रहा होगा इसमें। क्या पता आने वाली संततियों को क्या भुगतना पड़ जाये। प्रकोप के आने का कोई निश्चित समय तो होता है नहीं। लेकिन उसकी शांति के उपाय तो किये ही जा सकते हैं। देवताओं के कोप को दूर करने के काम तो किये ही जा सकते हैं !
यह जनमानस को डराने के लिए काफ़ी है। जिस देश की आर्थिक स्थिति ऐसी हो जहाँ कितनों के हिस्से सम्मानित ज़िंदगी नहीं है, जहाँ की सामाजिक स्थिति ऐसी कि हर कदम पर ऊँच-नीच का एहसास होता हो वहाँ अपशकुन के नाम से डरना-डराना कितना सरल हो जाता है ! ऐसे में स्वाभाविक ही है कि जनता भगवान से उम्मीद लगाएगी, प्रार्थना करेगी अपने जीवन की बेहतरी के लिए। इसके लिए निश्चित रूप से वह मानेगी कि हम ईश्वर को रुष्ट न करें वरना वे हमसे नाराज़ हुए तो हमारी आगे की ज़िंदगी और बेकार हो जाएगी। इसलिए तो जनमानस जीवन की जो मूलभूत ज़रूरतें हैं, अपने भविष्य को, अपनी बाद की पीढ़ी के भविष्य की बेहतरी के लिए जो अनिवार्य है उसपर ध्यान न देकर मन्दिर पर सारा ध्यान दे रहा है। हम अपने आसपास भी यह स्थिति देखते हैं कि कभी भी ऐसा न हुआ कि किसी स्कूल, कॉलेज में पढ़ाई ढंग से न हो रही हो तो उसमें पढ़ने वालों के माता-पिता या अन्य जनता भी किसी प्रकार का कोई आंदोलन करे, सुव्यवस्था की माँग करे लेकिन जहाँ कहीं धर्म की बात आ जाए तो हजारों-लाखों लोग जुट जाएंगे। इस विडंबनापूर्ण स्थिति पर लेखक बेहद ही कुशलता से संकेत में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं – 
मन्दिर की दीवार पक्की हो गई थी। सड़क के पोल से खींचकर किसी भक्त ने वहाँ बिजली का भी इंतज़ाम कर दिया था, किसी ने ठंडे पानी के लिए कूलर भी लगवा दिया। स्कूल में पीने के पानी का कोई इंतज़ाम नहीं था इसलिए स्कूल के बच्चे भी पानी पीने उधर जाने लगे।
आगे भी इसका उल्लेख आता है जहाँ यह प्रमाणित करता है कि हमारे समाज में शिक्षा से ऊपर धर्म का ही महत्व है। उदाहरण स्वरूप यह देखा जा सकता है – “ रामसेवक सिंह उच्च विद्यालय की बात कोई नहीं कर रहा था। बस हनुमान मन्दिर। साह जी ने घोषणा कर दी थी कि मन्दिर वहीं बनेगा। वह भी टूटने वाले मन्दिर की तरह छोटा मन्दिर नहीं उससे बहुत बड़ा मन्दिर बनेगा। स्कूल का क्या होगा कोई नहीं कह रहा था। उस पूरे इलाके में अकेला हाई स्कूल था। उस स्कूल की चर्चा कोई नहीं कर रहा था। सब मन्दिर-मन्दिर कर रहे थे।” आगे भी यह आता है कि – “महावीरी झंडे से, चमन के घर भभूति दर्शन से इतना धन जमा हो गया था कि उससे गाँव में स्कूल का भवन नया बनाया जा सकता था, स्वास्थ्य केंद्र चलाया जा सकता था लेकिन लोगों को खटिया पर लदकर अस्पताल जाना मंजूर था, पढ़ने के लिए नदी पारकर शहर जाना मंजूर था लेकिन वे नहीं चाहते थे कि धर्म काज में किसी तरह की कमी आए।” 

यह उपन्यास इस ओर भी संकेत करता है कि धर्म के मामले में तर्क प्रायः पीछे छूट जाता है, और जिन्हें स्थिति समझ आती है वे सब समझते हुए भी चुप रहना चुनते हैं – 
लेकिन उस समय गाँव का माहौल ऐसा था कि कोई कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं था। सच सब समझते थे लेकिन जाने क्या हो गया था कि सब झूठ के साथ हो गए थे। आस्था सहज बुद्धि के ऊपर ऐसी हावी हो गई थी कि उससे अलग कुछ भी बोलने मे खतरा महसूस होता था। यहाँ तक कि सोचने में भी।” 
यह पढ़ते हुए राजेश जोशी की कविता ‘मारे जाएँगे’ पर सहज ही ध्यान जाता है। उसकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ बिल्कुल सटीक बैठती हैं –

 जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे 
 मारे जाएँगे 
 कटघरे में खड़े कर दिए जाएँगे, जो विरोध में बोलेंगे 
 जो सच-सच बोलेंगे मारे जाएँगे
 ...

 धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएँगे जुलूस में 
 गोलियाँ भून डालेंगी उन्हें, काफ़िर करार दिए जाएँगे”
 

इन सब के बाद भी यह उपन्यास कहीं न कहीं विश्वास भी दिलाता है कि कभी तो ‘वो सुबह आएगी’ – 
एक दिन समय आएगा जब सबको समझ में आ जाएगा। सच क्या है और झूठ क्या है, इसका अंतर साफ़ दिखाई देने लगेगा। लेकिन वह दिन आज नहीं है। कभी-कभी जनवरी की बात दिसंबर में जाकर समझ आती है। समझ लो अभी जनवरी चल रहा है। इंतज़ार करना है हमें अपने दिसंबर का। हो सकता है ग्यारह महीने के बाद आ जाये, हो सकता है ग्यारह साल के बाद भी आये। अभी जनमत एक तरफ़ है इसलिए मनमत को रोके रखने में ही समझदारी है।

धर्म के अलावा जाति भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जिसका इस्तेमाल राजनेता बखूबी करते हैं। इस ओर भी यह उपन्यास पर्याप्त संकेत करता है। बतौर उदाहरण यह पंक्ति – “नेता लोग काम के बल पर नहीं जीतते थे अपनी जाति के बल पर जीतते थे।” भले जनता भी अपनी जाति के नेता को वोट देती हो लेकिन उपन्यास में इस बात का उल्लेख होना कि युवा पीढ़ी जाति से उठकर एक ऐसे नेता को पसंद कर रही है जो किसी एक जाति के लिए काम नहीं कर के सबके हित में काम कर रहा था, यह भी एक सकारात्मक बदलाव की ओर उम्मीद है। 

इस उपन्यास में जितने भी नेतागण आये हैं, चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के हों या निम्न, हिन्दू हों या मुस्लिम, वे सब अपने-अपने तरीके से चुनाव जीतने की होड़ में लगे रहते हैं, सबकी बस एक ही ख्वाहिश, कि इस बार हम चुनाव जीत जाएँ। इसमें कितने ऐसे लोग रहे जो कई वर्षों से इस क्षेत्र में प्रयासरत रहे लेकिन उनके हाथ असफलता ही लगी रही। लेकिन अन्त में एक ऐसा व्यक्ति आता है, गाँव का एक सामान्य युवक चमन, जो धर्म के नाम पर ही झूठी कहानी सुना कर ग्रामवासियों का भरोसा जीत लेता है, बड़े नेताओं की नज़र में आता है और चुनाव लड़ता है। उसकी यह रणनीति बिल्कुल अन्त में जाकर खुलती है जब चक्र छाप के नेता द्वारा उसे बुलाया जाता है और उनकी आपसी बातचीत में चमन जिस प्रकार, जिस चालाकी से जवाब देता है वही उसकी पूरी रणनीति की ओर संकेत कर देता है। 

इन सबके अलावा भी यह उपन्यास बहुत कुछ कहता है जिसकी शैली भी किस्सागोई ही रही है। बातों-बातों में बहुत ही गहरी स्थिति की ओर हमारा ध्यान चल जाता है, मसलन वर्तमान में इतिहास को लेकर जो भी चलाया जा रहा है, उस पर यह एकदम सटीक लिखा है लेखक ने – 
अब तो ऐसा समय आ गया है कि इतिहास के नाम पर कोई भी किस्सा-कहानी सुना देता है। जिस मन्दिर को पच्चीस-पचास साल से पहले कोई जानता तक नहीं था उसको भी प्राचीन बताया जाने लगा है। कुछ साल पुराने तालाब को भी प्राचीन नदी की सुप्त धारा के स्रोत से बना बताया जाने लगा है। पावन दिनों में लोग वहाँ स्नान करते भी दिखाई दे जाते।
आगे वे यह भी लिखते हैं – 
इतिहास-पुस्तकों को पढ़ने वाले कम होते जा रहे थे लेकिन इतिहासकारों के लिखे इतिहास ग्रंथों को झूठा बताने वाले बढ़ते जा रहे थे। जिन्होंने इतिहास बनाया था उनको इतिहास से मिटाने की कोशिशें हो रही थीं।

यह उपन्यास सवाल करने के लिए विनम्र निवेदन भी करता है – 
सब खत्म हो जाएगा। वर्तमान को बचाने के लिए भविष्य को नष्ट मत होने दीजिए। उठिये और सवाल पूछना शुरू कीजिए। आप जैसे ही सवाल पूछना शुरू करेंगे तो जवाब आपको अपने आप मिलने लगेंगे। नहीं तो धूल-पानी की तरह हम मिट जाएँगे और हमारी मिटने की कोई निशानी भी नहीं बचेगी।

समय के साथ हमारे समाज में अविश्वसनीयता बढ़ी है, हमारा एक-दूसरे के प्रति सन्देह बढ़ गया है इस दुखद पहलू को भी यह उपन्यास दर्ज़ करता है। चमन छकौरी पहलवान का अंतिम दंगल देख कर आया था और वह जो भी कह रहा था लोग उसे ही सही मान रहे थे। लेकिन आज की स्थिति ऐसी नहीं रह गई है इसलिए यह पंक्ति आती है कि “ज़माना और था। कोई भी किसी की बात पर बिना पूर्वा साखी के भरोसा कर लेता था। लोग एक-दूसरे पर विश्वास करते थे और उसी विश्वास के सहारे समाज चल रहा था।” यहाँ समकालीन कवि अमित तिवारी की कविता ‘बहुत अच्छा समय है’ याद आती है जिसके शुरुआती हिस्से में वे कहते हैं – 

 “बहुत अच्छा समय है
 देखने, सुनने और चीन्हने का 
 निहितार्थों को समझने का 
 शालीनता के शक्ति परीक्षण का 
 यह जान लेने का कि आप बेवजह आशावादी थे 
 और संदिग्ध होना अब एक काव्यात्मक टिप्पणी भर नहीं है” 

उपन्यास में जिस गाँव का उल्लेख है वह नाम भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है। ‘अन्हारी’ गाँव। नाम कुछ भी हो सकता था लेकिन अन्हारी देख कर बिहार में बोली जाने वाली भाषा के एक शब्द पर ध्यान जाता है। बिहार में अंधेरा को अन्हार भी कहते हैं। चूँकि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बिहार ही है और भाषा में भी वह बिहारी ‘टोन’ भरपूर शामिल है इसलिए अन्हारी से एक ध्यान इस ओर भी जाता है कि जहाँ सबलोग धर्म के नाम पर अंधेरे में जी रहे हैं, (अंधेरा इस मायने में कि यहाँ सवाल की रोशनी नहीं है) ऐसी जगह के लिए ‘अन्हारी’ नाम एक प्रतीक की तरह उभरता है। इसलिए भी यह सन्देह की स्थिति जायज़ लगती है – अंजाम-ए- गुलिस्ताँ क्या होगा

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
क़िस्साग्राम
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