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अजय नावरि‍या: कहानी 'यह आम रास्‍ता नहीं है' Hindi Kahani: Ajay Navaria - Ye Aam Rasta Nahi Hai

 यह आम रास्‍ता नहीं है

अजय नावरि‍या

                                                                  

अशोक इस तरह की मुस्‍कुराहटों का काफी अभ्‍यस्‍त हो गया है । उस ने इसे नज़रअंदाज कर दि‍या। हर जगह ऐसे मूर्खो से लड़ना व्‍यर्थ होता है, जब ये हारने लगते हैं तो इसी कुटि‍ल मुस्‍कुराहट से मारने की कोशि‍श करते हैं।

उस का पूरा शरीर खून से तर बतर था..... देह पर जगह जगह मि‍ट्टी से भरे चोट के गहरे नि‍शान..... पत्‍थरों और लाठि‍यों से उकेरे गए चि‍ह्न .....स्‍मृति‍ चि‍ह्न..... उखड़ती सॉंस को उस ने भरसक संभाला ताकि‍ उसके हॉंफने की आवाज कोई बाहर सुन न सके....जि‍स जगह वह छि‍पा, वह गॉंव का ऐसा उजाड़ महलनुमा मकान था, जि‍सके बारे में अफवाह थी कि‍ वह प्रेतबाधि‍त है और इसी लि‍ए वहॉं कोई न जाता, दि‍न में भी.....उस का ध्‍यान अपने घुटनों की तरफ गया, जहां से मांस छि‍लकर लटक गया था एक तरफ को, उस ने फि‍र एक मुट्ठी मि‍ट्टी भरी और घाव पर पूर दी, दर्द की लपलपाती लहर पूरे बदन में दौड़ गई.....आहहहहह, कातर स्‍वर रोकते रोकते भी फूट नि‍कला ..... खोजो उसे यहीं कहीं होगा ... एक आवाज उठी...छोड़ना नहीं है उस नीच को ...दूसरी आवाज ने साथ दि‍या...आज मार ही देंगे, उसकी बोटी-बोटी काट देंगे हम, उस की हि‍म्‍मत कैसे हुई गॉंव में हमारे रास्‍ते पर आने की, वह भी सूरज उगने के बाद..... वह उन हि‍न्‍सक आवाजों को सुनकर दहल गया और कानों पर हाथ रख लि‍ए, लेकि‍न आवाजें उसे घेरे खड़ी थीं जैसे वो बाहर से नहीं कहीं मन के तहखानों में बज रही हो.....अचानक दो परछाईयॉं उस की तरफ बढ़ी आईं, वह सि‍कुड़ गया, सॉंस रूक गई, प्राण कंठ को आ लगे..... एक गौरवर्णा स्‍त्री, ऊंचा कद, ऊंची नाक, उभरा हुआ माथा और मॉंग में ढेर सारा सि‍न्‍दूर, बड़ी-बड़ी बि‍ल्‍लौरी ऑंखे, वह बि‍ल्‍कुल सामने खड़ी थी और उस के साथ था लगभग एक सात साल का बच्‍चा.....उस स्‍त्री को देख भय से खुद ब खुद याचना में हाथ जुड़ गए उस के...चांडाल हूँ मैं...उस स्‍त्री की आंखों में उसे देखते ही एकाएक भयानक घृणा घि‍र आई...अरे चाण्‍डाल तू यहॉं कैसे...जैसे उस स्‍त्री की आंखों ने कहा, तभी उस स्‍त्री का ध्‍यान उस के शरीर से फूटते घावों और उधड़ी खाल पर गया, उस की आंखें करूणा से भर गई ... उस ने हाथ में पकड़े पूजा के थाल को दूसरे हाथ में संभाला और बाहर की तरफ लौट गई, जि‍स तरफ से पुरूषों और लड़कों की आवाजें आ रही थी.....देवी क्‍या आप ने कि‍सी नीच चाण्‍डाल युवक को इस तरफ आते देखा....उस खूंखार भीड़ में से एक युवक आगे बढ़ा..... नहीं-नहीं इस तरफ नहीं, उस तरफ जाते देखा... उस स्‍त्री ने वि‍परीत दि‍शा का इशारा... चलो भाईयों, आज उसे जान से मार ही देंगे ताकि‍ फि‍र कोई हमारे इलाके में घुसने की हि‍म्‍मत न कर सके... यह बोलने वाला व्‍यक्‍ति‍, सबसे आगे खड़ा था, जैसे इस भीड़ का नेतृत्‍व वही कर रहा हो... उसकी नीली आंखों और ऊंची नाक के बीच घृणा तमतमा रही थी... कोठरी में छि‍पे उस युवक ने भी यह सब सुना... कुछ देर वह दम साधे कोठरी में छि‍पा रहा और सब तरफ शांति‍ देख बाहर नि‍कला... उस ने चारों ओर देखा, कोई न था दूर तक, वह अंधाधुंध अपने जाने पहचाने रास्‍ते की तरफ भागने लगा, ... आवाजें अब भी पीछा कर रही थी, मारो मारो मारो...बच कर जाने न पाएं... उस ने पलभर को पलटकर भी देखा, पर वहॉं कोई न  था... उस के कान बज रहे थे जैसे... अचानक पेड़ की उभरी जड़ से उस का पैर उलझा और वह धम्‍म से गि‍र पड़ा..... बचाओ..... झटके से अशोक की नींद टूट गई। वह डर के मारे बि‍स्‍तर पर ही लेटा रहा...सन्‍न। कुछ देर तक जैसे वह तय ही नहीं कर पाया कि‍ वह कहॉं है, कि‍ यह ख्‍वाब है या हकीकत। दुस्‍वप्‍न टूट चुका था परंतु अशोक का मन अब भी उसी की भुजाओं के बंधन में था। टयूबलाइट ऑन करते हुए उस ने कि‍सी तरह अपनी चेतना को व्‍यवस्‍थि‍त कि‍या। टयूबलाइट में कोई हरकत ही न हुई पहले तो, फि‍र वह दो-तीन बार खांसी और पीली बलगम सी बेरौनक रोशनी कमरे में फैल गई। उस ने घड़ी देखी, सुबह के चार बज रहे थे। उस को धीरे-धीरे समझ आया कि‍ वह वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हॉस्‍टल के अपने कमरे में ही है और पूरी तरह सुरक्षि‍त। 

       आशंकाओं का धुंआ छंटने लगा ।अशोक की नज़र सि‍रहाने लगी मेज पर पड़ी, जहॉं कई कि‍ताबें रखी थीं। डा. सी.एल. सोनकर द्वारा लि‍खि‍त ‘भारत में अस्‍पृश्‍यता- एक ऐति‍हासि‍क अध्‍ययन’, के. दामोदरन की ‘भारतीय चि‍न्‍तन परंपरा’ और आर.एस. शर्मा का ग्रंथ ‘शूद्रों का प्राचीन इति‍हास’। अब उसे ध्‍यान आया कि‍ रात वह डा. सोनकर की पुस्‍तक ही पढ़ रहा था और जाने कब नींद आ लगी। हाथ बढ़ाकर उस ने कि‍ताब खींच ली। कि‍ताब में बुकमार्क अटका हुआ था। कि‍ताब खोली तो वह बुकमार्क वहीं था, जहां वह रात सोने से पहले लगाया था। स्‍मृति‍ पर ज़ोर देने के बाद भी याद नहीं आया कि‍ कब बुकमार्क लगाया था उस ने। यह उस की पुरानी आदत है। क्‍या वाकई आदतें, अवचेतन अवस्‍था में भी जाग्रत रहती हैं?

       कि‍ताब का यह पांचवा अध्‍याय था- ‘मानव समुदायों में अस्‍पृश्‍य मानने की भावना का वि‍कास एवं वि‍स्‍तार( लगभग छठवीं शताब्‍दी से बारहवीं शताब्‍दी तक)’ – इसी को रात को पढ़ने मे तल्‍लीन था वह। जाने कि‍स अनचीन्‍ही सुरंग से यह सब उस के सपनों में कई बदरंग धब्‍बों में फैल गया, जैसे आसमान में काले-काले बादल फैल जाएं और अंधकार घि‍र जाए। ख्‍वाब जाने कि‍न पाताली सुरंगों से जुड़े होते हैं कि‍ जाने कब कि‍स सुरंग का मुंह खुलेगा और कौन ख्‍वाब में रूप बदल कर पहुँच जाएगा। कौन जान पाता है इसे? कि‍ कब और कि‍स राह पर चल कर कि‍स सुरंग में खो जाएगीं कामना, भीति‍, स्‍मृति‍यॉं और उमंग।  

       उसे पि‍ता याद आए1 उन की बातें याद आईं। तब वह लगभग सात वर्ष का ही था और पि‍ता लम्‍बे-लम्‍बे डग भर कर चलते हुए उसे अनेक तरह की कहानि‍यॉं सुनाते। कहानी के आखि‍र में उस का संदेश भी समझाते। लब्‍बोलुआब यही रहता कि‍ खूब परि‍श्रम करो, शि‍क्षि‍त बनो, धन अर्जि‍त करो और न्‍याय तथा सम्‍मान के लि‍ए संघर्ष करते रहो, परंतु ऐसे गहरे कभी न धंसों कि‍ सत्‍य का एक ही पक्ष दि‍खे। अपनी क्षमता के अनुसार ही पैठना। अपनी कमर का माप खुद को पता होना चाहि‍ए। अपने नाथ स्‍वयं बनो। वे बताते कि‍ डा. आम्‍बेडकर कहते थे कि‍ वीर पूजा पतन का मार्ग है। अशोक सुनता था बस, उस के पि‍ता अक्‍सर कहते और वह सि‍र्फ सुनता रहता, परंतु अर्थ की कुण्‍डली बहुत बाद में खुली और खुलती ही चली गई । मन की ये सुरंगे, कब, कैसे और कहॉं ख्‍वाबों से जाकर गठबंधन करती हैं,कोई नहीं जान पाता। बड़े से बड़ा ज्ञानी भी सि‍र्फ अटकलों में डूबता उतराता रह जाता है। 

       अशोक ने सोने की बहुत कोशि‍श की परंतु नींद जैसे कोसों दूर नि‍कल गई। वह जाने क्‍या-क्‍या सोचता रहा और एक घंटा जाने कब बि‍ना शोर के सरक गया, उठकर कमरे की बॉलकनी में गया । बाल्‍कनी पूरब की तरफ थी। पौ फटने को थी और आकाश में एक-दो जगह सूर्य के आने की पदचाप प्रकट होने लगी थी। अंधेरे की चादर के मुंह कई जगह से खुल गए और उन से रोशनि‍यॉं झांकने लगी।

       हॉस्‍टल में इस समय सोता पड़ा हुआ था। रात-रात भर पढ़ने वाले वि‍द्यार्थि‍यों का यही समय होता सोने का। अशोक भी शायद दो ही घंटे सो सका, रात के ड़ेढ़  बजने का तो उसे खूब अच्‍छे से ध्‍यान है। बाल्‍कनी में पन्‍द्रह-बीस मि‍नट वह बैठा रहा। इस बीच, उस ने एक लीटर के लगभग पानी यह सोचकर पी लि‍या कि‍ कम सोने की भरपाई ज्‍यादा पानी पीकर ही हो सकती है। हॉस्‍टल के कमरे में ताला लगाकर, वह कैम्‍पस में टहलने नि‍कल गया। छह बजे के आस-पास उस के मोबाइल फोन पर संदेश चमका- ‘सर के यहॉं मि‍लना पक्‍का है न, ठीक साढे सात, वहीं से साथ-साथ नि‍कलेंगे।‘ संदेश सुबोध सि‍हं का था। अशोक को अच्‍छे से याद था कि‍ आज उन्‍हें अपने शोध नि‍र्देशक के साथ उन के गॉंव जाना है परंतु वह क्‍या करे, गॉंव उसे बि‍ल्‍कुल अच्‍छे नहीं लगते। इस के बावजूद उस ने तुरंत जवाब लि‍खा- ‘बि‍ल्‍कुल’ । अपने माइक्रोमैक्‍स फोन को देखकर वह मुस्‍कुराया- ‘ गरीबों का ब्‍लैकबेरी।’ जब सुबोध सि‍हं ने एच टी सी कम्‍पनी का डि‍ज़ायर वन वी मॉडल लि‍या था, तब अशोक के फोन के लि‍ए यही कहा था उस ने हंसते हुए। 

       कमरे पर लौटकर वह जल्‍दी जल्‍दी नहाया। मैस से चाय लेकर कमरे में आया और आपातकाल के लि‍ए सुरक्षि‍त मठरि‍यों का भोग लगाया। ठीक साढ़े सात बजे वह अपने शोध नि‍र्देशक प्रो. अमर प्रताप सि‍हं के नि‍वास पर पहुँचा। सुबोध उस से भी पन्‍द्रह मि‍नट पहले आ चुका था। इति‍हास वि‍भाग का एक और वि‍द्यार्थी वहॉं उपस्‍थि‍त था।

       प्रो. सि‍हं को प्रणाम कर अशोक भी सोफे में धंस गया। कभी कि‍सी से पॉंव नहीं छुआते प्रो. सि‍हं, यह बात सभी को पता थी। वे वि‍ख्‍यात समाजवादी थे। उन्‍होंने जे.पी. के आंदोलन में हि‍स्‍सा लि‍या था, अपनी युवावस्‍था में। 

       अशोक की जि‍ज्ञासा को भांपते हुए सुबोध ने परि‍चय देते हुए कहा- ‘अशोक, ये धीरेन्‍द्र सि‍हं हैं, इति‍हास वि‍भाग में शोधार्थी हैं।’ फि‍र धीरेन्‍द्र की ओर मुखाति‍ब होते हुए कहा- ‘धीरेन्‍द्र जी, ये अशोक हैं, हमारे साथी, बहुत अच्‍छे कवि‍ और कहानीकार ।‘ कहकर पलभर सुबोध रूका, जैसे कुछ उठा-धर रहा हो, फि‍र बोला –‘ इधर इन की कहानि‍यों का भी एक संग्रह आ गया है... हि‍न्‍दी के सबसे बड़े प्रकाशन से, सत्‍ताईस साल की उम्र के तो ये पहले लेखक हैं जो वहॉं से छपे हैं।‘ 

       अशोक इस प्रशंसा से फूला नहीं समा रहा था परंतु उस ने गंभीर मुद्रा में कहा- ‘सुबोध तुम क्‍या कुछ कम अच्‍छे कहानीकार हो।‘ यह कहते हुए उस ने गुरूवर की ओर देखा तो पाया कि‍ उन की मुखमुद्रा कुछ असहज है। ‘यह सब तो सर के आर्शीवाद से मि‍ला है...इस में मेरा क्‍या है।‘ अशोक ने तुरंत जोड़ा । ‘ सर जि‍से चाहें, उसे बना दें, जहॉं से छपाना चाहें, वहॉं से छपा दें।‘ उस ने गुरू वंदना की और पाया कि‍ गुरूवर वापस अपने सहज और सौम्‍य व्‍यक्‍ति‍त्‍व में वि‍न्‍यस्‍त हो गए। उन्‍होंने पास पड़ी शेर छाप बीड़ी का बंडल उठाया और एक बीड़ी सुलगाकर होंठो में दबा ली। प्रो. सि‍हं घर पर होते हैं, तब वे शेर छाप बीड़ी ही पीते हैं। उन्‍हें कि‍सी और छाप की बीड़ी पीते, कभी कि‍सी वि‍द्यार्थी ने नहीं देखा। घर में उन की शेर छाप बीड़ी रहती और बाहर कमांडर की बि‍ना फि‍ल्‍टर की सि‍गरेट। इन्‍हें खरीदने के लि‍ए उन्‍हें कभी अपनी पेंट की जेब में हाथ नहीं डालना पड़ता। कोई न कोई छात्र आते वक्‍त इसे खरीद लाता और जो शोधार्थी कभी कुछ न लाते थे, उन ‘ढीठ’ और ‘कृतघ्‍न’ छात्रों को एक दो बार मौका देकर गुरू जी खुद कहते - ‘जाओ, पॉंच पेकेट बीड़ी और सि‍गरेट के ले आओ।’  इतना कह कर वे अपनी सारी जेबे खंगालने लगते, इतनी देर में छात्र खुद ही बोल उठता – ‘रहने दीजि‍ये सर, मैं ले आता हूँ।’ इस तरह वे पि‍छला हि‍साब वसूल करते।

       अशोक की गुरू वंदना अब भी चल रही थी। गुरूवर आराम से कश खींच रहे थे। एक नि‍श्‍चि‍त अंतराल के बाद उन्‍होंने अशोक को रोक दि‍या- ‘नहीं यह सब तो तुमने लि‍खा है... तुम्‍हारी जगह मैंने तो लि‍खा नहीं, तुम न लि‍खते तो मैं कि‍स से कहता कि‍ छाप दो।’ उन्‍होंने एक कश लि‍या और धीरेन्‍द्र की तरफ देखकर कहा-  ‘ दलि‍त लेखन में अशोक ने अपनी अच्‍छी जगह बनाई है।’  प्रो. सि‍हं ने जैसे अपना इलाका अलग कर लि‍या। इस के बाद गुरूवर एक शब्‍द न बोले। 

       ठीक इसी समय ड्राईवर ने कमरे में घुसते हुए प्रो. अमर प्रताप सि‍हं को सूचना दी- ‘ कार तैयार है।’ 

       ‘चलें।’ प्रो. सि‍हं ने सुबोध की तरफ देखा।

       यह सुन कर तीनों शोधार्थी सावधान मुद्रा में खड़े हो गए। 

       अंदर के कमरे की ओर मुंह कर के प्रो. सि‍हं ने अपनी पत्‍नी को नि‍कलने की सूचना दी- ‘ हम चल रहे हैं अब।’  उनकी हां-हूं या आने का इंतजार कि‍ए बगैर वे लम्‍बे-लम्‍बे कदम रखते हुए दरवाजे की ओर बढ़ गए। सुबोध ने झट से बढ़ कर सोफे पर रखा उन का बैग उठा लि‍या।

       बाहर गेट पर फॉक्‍सवेगन कम्‍पनी की सुनहरे रंग की वेन्‍टो कार खड़ी थी। दरवाजा खोले ड्राईवर उन का इंतजार कर रहा था । प्रो. अमरप्रताप सि‍हं, ड्राईवर के साथ वाली सीट पर आगे बैठ गए । तीनों शोधार्थी पीछे वाली सीट पर बैठ गए। प्रो. सि‍हं जब अकेले होते, तब ही कार की पि‍छली सीट पर बैठते। ’भगतसि‍हं जी हम कब तक गॉंव पहुँच जाएंगे।’  ड्राईवर का नाम लेकर धीरेन्‍द्र सि‍हं ने पूछा। 

       ‘अभी तो सुबह का वक्‍त है, रोड़ खाली मि‍लेगा, तीन घंटे में पहुंच जाएंगे।’ ड्राईवर ने संक्षि‍प्‍त सा जवाब दि‍या।

       तीनों शोधार्थी पहली बार प्रो. अमर प्रताप सि‍हं के गॉव जा रहे थे। काफी उत्‍साह में भी थे, तरह- तरह के वि‍षयों पर बातें होती रहीं। ’आप का वि‍षय क्‍या है अशोक जी?’ धीरेन्‍द्र ने पूछा। 

       ‘समकालीन उपन्‍यास में शहरी और ग्रामीण जीवन की वि‍संगति‍यॉं...’ 

       ‘अच्‍छा वि‍षय लि‍या आप ने पर आजकल तो दलि‍त वि‍मर्श का हल्‍ला है हर तरफ।’  धीरेन्‍द्र ने तपाक से कहा। ‘हॉं ...पर मेरी रूचि‍ इस में अधि‍क थी और रही बात हल्‍ला होने की तो वह तो अन्‍य दूसरे वि‍षयों का भी है।’  अशोक ने सावधान होते हुए जवाब दि‍या। फि‍र खुद से ही पूछा कि‍ क्‍यों वह बेवजह सावधान हो रहा है। इस वि‍चार ने उसे सहजता दी। 

       ‘क्‍या अशोक भाई, एक अच्‍छा सा फोन तो रखा करि‍ये, क्‍या इसी पुराने पर टि‍के हैं।’  धीरेन्‍द्र ने बात का रूख दूसरी ओर कि‍या। धीरेन्‍द्र के हाथ में सोनी कम्‍पनी का एक्‍सपीरि‍या मॉडल चमचमा रहा था। अशोक मुस्‍कुराते हुए बोला- ‘भाई अभी मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं ।’  

       ‘क्‍यों, स्‍कॉलरशि‍प का क्‍या करते हो यार?’ इस बार सुबोध ने बीच में घुसते हुए सवाल कि‍या। ‘धीरेन्‍द्र ठीक कहते हो तुम, मैं भी कई बार कह चुका हूँ...क्‍या टि‍पि‍कल हि‍न्‍दी वाले बने रहते हो...दीन हीन और लस्‍त पस्‍त।’  

       प्रो. सि‍हं ने हस्‍तक्षेप कि‍या –‘ ठीक है, खरीद लेगा कभी ...क्‍यों उस के पीछे पड़ रहे हो?’ इस हस्‍तक्षेप ने हतोत्‍साहि‍त कि‍या दोनों को। ’सर आप के पास तो ब्‍लैकबैरी है न?’ धीरेन्‍द्र ने सीट पर आगे को खि‍सकते हुए पूछा। 

       प्रो. अमर प्रताप सि‍हं ने थोड़ी सी गर्दन मोड़ी, जि‍से सि‍हांवलोकन कहा जाता है- ‘नहीं, वह मैंने कि‍सी को दे दि‍या, दो साल पुराना हो गया था, अभी हाल ही में, सेमसंग का नोट टू मॉडल ले लि‍या।’ 

       ‘ कैसा एक्‍सपीरि‍यंस है सर आप का?’ धीरेन्‍द्र बात चाहे जो भी करता परंतु वह दि‍खता गंभीर ही था। हंसता तो वह शायद था ही नहीं। 

       प्रो. सि‍हं ने बि‍ना गर्दन मोड़े ही जवाब दि‍या- ‘ठीक है बस काम चल जाता है...अब ये हमारा क्षेत्र नहीं रहा भाई, तुम जैसे जवान बच्‍चों का है, इसे तुम संभालो ।’  

       ‘आजकल आप क्‍या पढ़ रहे हैं अशोक जी ?’  धीरेन्‍द्र ने पीछे को खि‍सकते हुए कहा। 

       अशोक अब तक समझ चुका था कि‍ धीरेन्‍द्र काफी बातूनी है। ’इधर डा. सी.एल.सोनकर की एक पुस्‍तक पढ़ रहा हूँ।’ 

       ‘कौन सी पुस्‍तक, सोनकर जी भी दलि‍त लेखक हैं।’  उस के स्‍वर में जि‍ज्ञासा थी, कोई उपेक्षा या व्‍यंग्‍य नहीं।

       ‘नहीं, ये सोनकर जी दलि‍त लेखन नहीं करते, इन्‍होंने एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण कि‍ताब लि‍खी है, इति‍हास के वि‍द्वान हैं।’  यह सब बताते हुए उस ने पुस्‍तक के नाम और वि‍षयवस्‍तु पर भी रोशनी डाली। 

       ‘कमाल है, हम इति‍हास के वि‍द्यार्थी हैं और हमें ही नहीं पता कि‍ ये महत्‍वपूर्ण कि‍ताब कब आ गई?’ कह कर वह आशयपूर्ण ढंग से मुस्‍कुराया। 

       अशोक इस तरह की मुस्‍कुराहटों का काफी अभ्‍यस्‍त हो गया है । उस ने इसे नज़रअंदाज कर दि‍या। हर जगह ऐसे मूर्खो से लड़ना व्‍यर्थ होता है, जब ये हारने लगते हैं तो इसी कुटि‍ल मुस्‍कुराहट से मारने की कोशि‍श करते हैं।

       ‘शायद आप को यह भी नहीं पता होगा कि‍ इस पुस्‍तक में न केवल रोमि‍ला जी ने बल्‍कि‍ अनेक वि‍द्वानों और न्‍यायाधीशों ने अपने वि‍चार व्‍यक्‍त कि‍ए हैं। इस क्षेत्र में उन्‍होंने इसे अभूतपूर्व काम माना है।’ 

       रोमि‍ला थापर का नाम सुन कर धीरेन्‍द्र ठंडा पड़ गया। अपनी झेंप मि‍टाने के लि‍ए वह सुबोध की तरफ लपका- ‘आजकल तुम क्‍या लि‍ख रहे हो सुबोध?’ 

       ‘एक कहानी आई है अभी हाल ही में, तापमान पत्रि‍का के युवा वि‍शेषांक में, दलि‍त वि‍षय पर है, ‘गाड़ी कब तक आएगी भाई’ नाम से । कहानी पर आलोचना की एक कि‍ताब की योजना भी दि‍माग में है।’ फि‍र सुबोध अपनी एक-एक कहानी की वि‍षयवस्‍तु के बारे में बताने लगा । जब यह समाप्‍त हो गया, तब वह कहानी और कवि‍ताओं की रचना-प्रक्रि‍या और बीजवपन के प्रसंग सुनाने लगा। 

       काफी देर तक सुनने के बाद आखि‍र प्रो. सि‍हं ने सि‍हांवलोकन करते हुए टोक ही दि‍या- ‘सुबोध, अपनी कहानि‍यों और कवि‍ताओं पर इतना मुखर होना अच्‍छा नहीं...ये लेखक की कमजोरी मानी जाती है।’ 

       इतना कह कर वे फि‍र आगे देखने लगे। 

       गाड़ी अब एक बड़ी पुरानी हवेलीनुमा संरचना के सामने आ खड़ी हुई। गाड़ी रूकते ही दो आदमी दौड़ते हुए आए और प्रो. सि‍हं के पांवों में झुक गए। एक तीसरा आदमी भी,पीछे-पीछे, धीमे कदमों से चलता हुआ आया और नमस्‍कार कर एक तरफ खड़ा हो गया। प्रो. सि‍हं ने उसी आदमी की तरफ देख कर कहा- ‘बहुत शि‍कायत आ रही हैं तुम्‍हारी मलकाराम।’ लम्‍बे-लम्‍बे कदम रखते हुए प्रो. सि‍हं हवेली के भीतर चले गए। उन दोनों आदमि‍यों में से एक ने गाड़ी में से बैग नि‍काल कर उठा लि‍या और दूसरा इन तीनों को भीतर आने का रास्‍ता दि‍खाने लगा। 

       ‘शि‍कायत आ रही है तो दूर करो हमारी शि‍कायत, हम कोई खैरात कोई मांग रहे है, अपना हक मांग रहे हैं।’ यह मलकाराम की भुनभुनाहट थी। मलकाराम सांवले रंग का गठीला अधेड़ आदमी था। उस की नाक काफी फैली हुई थी।

       ‘अबे तू मार खा के ही मानेगा क्‍या, चुप रह बस।’ रास्‍ता दि‍खाने वाले आदमी ने रूक कर मलकाराम से कहा। इस आदमी का चेहरा-मोहरा, मलकाराम से काफी मि‍लता-जुलता सा था।

       ‘तू भीतर जा कर इन के चरण चाट ...कुत्‍ता कहीं का।’ मलकाराम ने जमीन पर थूकते हुए कहा। ’आप तीनों इधर जा आइए।’ उस दूसरे आदमी ने रास्‍ता दि‍खाते हुए कहा। उन तीनों को एक कमरे तक बाइज्‍ज़त पहुँचा कर वह जरूरी बातों की जानकारी देने लगा कि‍ जैसे बाथरूम कहॉं है और खाना खाने कहॉं जाना है और कि‍तनी देर में। ‘भोजन के बाद आप लोगों को मालि‍क के साथ खेतों की तरफ जाना है, तब तक आप आराम कर लो।’ सब कह कर वह लौट गया, यंत्रवत। 

       यह कमरा काफी बड़ा था। उस में एक पलंग और दो चारपाईयॉं बि‍छाई हुई थीं। धीरेन्‍द्र बढ़कर पलंग पर लेट गया । ठीक उसी के सामने कूलर लगा था, हालांकि‍ इस सुहावने मौसम में इस की कोई जरूरत नहीं पड़नी थी। अशोक और सुबोध ने भी एक एक चारपाई पर कब्‍जा कि‍या और लम्‍बे हो गए। 

       अभी मुश्‍कि‍ल से दस-पन्‍द्रह मि‍नट ही बीते थे कि‍ दरवाजे पर खटखटाहट हुई। 

       ‘कौन है वहॉं, अंदर आ जाओ, दरवाजा खुला है।’ धीरेन्‍द्र ने कड़क आवाज में कहा। 

       ‘क्‍या मैं सुबोध सि‍हं जी से बात कर सकती हूँ।’ ये कि‍सी युवती का स्‍वर था। तीनों को जैसे बि‍जली का नंगा तार छू गया। वे झटके से उठ खडे हुए। धीरेन्‍द्र लपक कर दरवाजे पर पहुँचा और दरवाजे के पल्‍ले खोल दि‍ए। सामने एक नवयुवती खड़ी थी, गौरवर्णा, ऊंचा कद, लम्‍बी नाक और चौड़ा दि‍प-दि‍प करता माथा। 

       ‘आइए आइए, ये हैं सुबोध जी और मैं धीरेन्‍द्र सि‍हं शेखावत, मैं हि‍स्‍ट्री में पीएच- डी कर रहा हूँ, हम लोग मि‍त्र हैं, वैसे कहें तो बि‍रादरी भाई।’ धीरेन्‍द्र अपने स्‍वभाव के अनुसार बोलता ही चला गया। उस ने कमरे में साथ खड़े अशोक को जैसे भुला ही दि‍या।  

       नवयुवती ज्‍यों ही पास आई अशोक बुदबुदाया- ‘ये तो एकदम सपने वाली जैसी लड़की है। पर इस की मांग में सि‍न्‍दूर नहीं है..... और वह हमारा सुबोध भरेगा।’  सोचकर वह मुस्‍कुरा गया। ‘मैंने आप की एक कहानी ‘दि‍नचर्या’ पढ़ी थी, देशातंर पत्रि‍का में ...बहुत अच्‍छी थी। उस में जो फोटो छपा था, उस में तो काफी अलग दि‍ख रहे थे आप।’ उस ने शरमाते हुए कहा। 

       ‘क्‍या बहुत खराब ?’ सुबोध ने मज़ाक कि‍या। 

       ‘नहीं नहीं काफी बड़ी उम्र के जैसे...।’ अचकचा गई वह। 

       ‘आप ने मेरी कवि‍ताएं नहीं पढ़ी?’ सुबोध से रहा नही गया। 

       ‘नहीं कवि‍ताएं तो नहीं पढ़ी, पर कहानी पढ़कर मैं आप की फैन हो गयी।’  धीरेन्‍द्र से ये आकार लेता इन्‍द्रधनुष देखा न गया और वह कूद पड़ा समर में-     ‘आप क्‍या करती है यहॉं?’ 

       ‘मैं हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य में एम.ए. कर रही हूँ, अभी फाइनल की परीक्षाएं होनी हैं... ।’ कहते हुए उस ने दोबारा सुबोध की ओर देखा – ‘प्रो. सि‍हं हमारे मौसाजी हैं। उन्‍हीं की प्रेरणा से इस ओर बढ़ी हूँ। आजकल छुटि‍टयॉं थीं, इसलि‍ए यहॉं चली आई। अब रि‍सर्च के लि‍ए तो दि‍ल्‍ली ही आना है।आप तो जानते हैं कस्‍बाई कॉलेजों की हालत और लड़कि‍यों की जिन्‍दगी...।’ उस ने भवि‍ष्‍य की योजना स्‍पष्‍ट की। 

       ‘वाह वाह ये तो बहुत अच्‍छी बात हुई। आप को आना ही चाहि‍ए दि‍ल्‍ली ... दि‍ल्‍ली को ध्‍वस्‍त कि‍ए बि‍ना सफलता नहीं मि‍लती और आप जैसी प्रति‍भाशाली छात्रा को पाकर तो वि‍श्‍ववि‍द्यालय कृतार्थ होगा।’ धीरेन्‍द्र ने बहुत ही मुलायम स्‍वर में तान उठायी। ‘ फि‍र हम भी वहॉं हैं। मेरे पास तो अपनी कार भी है वहॉं। सुबोध मेरे छोटे भाई जैसा है, इसे मैंने कई बार समझाया कि‍ मोटर साईकि‍ल से दि‍ल्‍ली में काम नहीं चलता, बहुत तेज सर्दी, बहुत तेज गर्मी और थोड़ी सी बारि‍श में ही तर-बतर। पर इस ने अब तक अपनी खटारा मोटर साईकि‍ल को नहीं छोड़ा।’  धीरेन्‍द्र का यह रूप, अब तक के सभी रूपों से अलग और अनपेक्षि‍त था। आगंतुका की आब ने जैसे उसे धुरी से हटा दि‍या था। 

       ‘ सुबोध जी तो रचनाकार हैं, रचनाकार तो ऐसे ही होते हैं, मस्‍तमौला, रमते जोगी।’ वह चहक कर बोली। सुबोध जो अब तक धीरेन्‍द्र के वाक् कौशल के नीचे दब सा गया था, इस सहारे से उबर गया। उस ने तपाक से पूछा- ‘ आप का नाम जान सकता हूँ?’ 

       ‘अभि‍लाषा सि‍हं। वह सकुचा गई। ‘मैं तो नर्वस हो रही थी, आप से मि‍लने से पहले, परंतु आप तो बहुत सहज और सरल हैं, इतने बड़े लेखक होकर भी कोई अभि‍मान नहीं।’  

       और दि‍न होते तो कि‍सी पाठि‍का की इतनी प्रशंसा से वह पागल सा हो जाता परंतु वह अपने को यथासंभव संयत कि‍ये रहा। अभी रास्‍ते में मि‍ली गुरूवर की नसीहत उसे याद थी। 

       अशोक दोनों के अखाड़े के रास्‍ते से बाहर खडा था। यह सब दॉंवपेंच देख कर बस एक बार उस के मन में आया कि‍ आखि‍र वह बाहर क्‍यों है ?’

       ‘ये हमारे मि‍त्र हैं अशोक कुमार...।’ सुबोध ने जैसे आगे की राह पाई। ‘बहुत अच्‍छे लेखक हैं, मुझ से भी काफी पहले से लि‍ख रहे हैं।’ सुबोध ने अशोक का परि‍चय कराया। ’नमस्‍कार।’ अभि‍लाषा ने हाथ जोड़ कर कहा। ‘अच्‍छा आप भी लेखक हैं।’  

       ‘आप ने इन का कुछ नहीं पढ़ा?’ धीरेन्‍द्र ने झट आगे बढ़ कर पूछा। ‘ माफी चाहती हूँ, पढ़ाई की वजह से बहुत कम समय मि‍ल पाता है, इसलि‍ए ध्‍यान नहीं जा सका।’  

       ‘कौन-कौन सी मैगजीन पढ़ती हैं आप?’ सुबोध ने बात बदल दी और चारपाई की तरफ बैठने का इशारा कि‍या। अभि‍लाषा बि‍ना कि‍सी ना-नुकुर के बैठ गई। सुबोध अपने अनुरोध के अति‍शीघ्र अनुपालन से आश्‍वस्‍त हो गया कि‍ धीरेन्‍द्र अब कुछ नहीं बि‍गाड़ सकता और अशोक से तो कोई खतरा ही नहीं है। ‘जो आसानी से मि‍ल जाती है, जैसे देशान्‍तर, अभ्‍युदय, तापमान आदि‍।’  अभि‍लाषा ने याद करते हुए पत्रि‍काओं के नाम गि‍नाए। 

       ‘तापमान में अभी पीछे मेरी एक कहानी...।’  

       ‘पढ़ी थी, हॉं हॉं क्‍या नाम था उस का, देखि‍ए आप न बताइए, मैं बताती हूँ...1’ वह कुछ पल याद करने का अभि‍नय करने लगी।‘ मैं आप की सभी कहानि‍यॉं ढूंढ ढूंढ कर पढ़ती हूँ... हॉं ‘गाड़ी कब तक आएगी भाई’  नाम से छपी थी। दलि‍त फैशन के हि‍साब से लि‍खी गई थी परंतु बहुत मार्मि‍क कहानी थी।’  

       ‘फैशन’ शब्‍द अशोक को चुभ गया पर वह कुछ नहीं बोला। ‘आपको अच्‍छी लगी... शुक्रि‍या।’ सुबोध का मन बल्‍लि‍यों उछलने लगा पर वह प्रकटत: गंभीर ही बना रहा।  

       ‘हॉ पर मुझे आनंद ‘दि‍नचर्या’ कहानी में आया, युवावस्‍था के कस्‍बाई प्रेम का क्‍या खूब चि‍त्रण कि‍या है आप ने। पूरी दि‍नचर्या जैसे प्रेम की प्रार्थना बन गई है, एक पवि‍त्र प्रेमचर्या, कैसे सोच लेते हैं आप ऐसी छोटी छोटी बातें। दलि‍त कहानि‍यों में यह बात कहॉं, वहॉं तो हमें बस ताने, उलाहने और गालि‍यॉं ही सुनने को मि‍लती हैं। हालांकि‍ आप की कहानी में तटस्‍थता और धीरज बहुत है परंतु आमतौर पर दलि‍त लेखक भयानक अधीरता के शि‍कार हैं।’ अभि‍लाषा उत्‍साह से बोली।  यह सुनकर अशोक आवेश में आ गया और अब उस से चुप न रहा गया- ‘आप को तो कहानि‍यों में यह सब सुनने में बुरा लग रहा है परंतु दलि‍त होना तो जीवन और समाज में ही हरकदम पर गाली बना दि‍या गया है। जि‍से आप को पढ़ने में घि‍न आती है, उस जि‍न्‍दगी को वो जीते हैं। इस बारे में आप क्‍या कहेंगी?’ कहने को तो अशोक कह गया, परंतु अब सोचने लगा कि‍ क्‍यों वह कुछ देर चुप न रह गया। कम से कम ये बदमज़गी तो न पैदा होती। लेकि‍न तुरंत ही दूसरा वि‍चार मन में उठ बैठा कि‍ आखि‍र कब तक हम ही इन की बदमज़गी का खयाल करते रहेंगे? और इस वि‍चार ने प्रबलता से पहले वि‍चार को चारों खाने चि‍त्‍त कर दि‍या। ‘यह बात, तुम ठीक कहते हो अशोक, मैं तुम से शत–प्रति‍शत सहमत हूँ।’ धीरेन्‍द्र ने बढ़ कर नया पाला चुना। ‘कोई भी सहमत होगा, यह तो उचि‍त और न्‍यायसंगत बात है।’ सुबोध ने भी पैंतरा बदला। ‘और आखि‍र अशोक का एक दलि‍त लेखक के तौर पर फ़र्ज़ भी बनता है कि‍ वह हर मोर्चे पर इस की आवाज़ उठाए।’ सुबोध ने अभि‍लाषा को सूचना दी तथा अशोक और धीरेन्‍द्र के हौंसले पस्‍त कि‍ए। 
परंतु यह जरूर हुआ कि‍ इस के बाद बातचीत पटरी पर न आ सकी। चुप्‍पी उन के बीच चहलकदमी करने लगी। ‘मैं फि‍र मि‍लती हूँ सुबोधजी।’ उठकर अभि‍लाषा चलने को हुई, फि‍र पलभर को रूक कर पलटी और अशोक को ‘सॉरी’ कह कर कमरे से नि‍कल गई। सुबोध वहीं नहीं रूका । अभि‍लाषा के पीछे पीछे ही बाहर नि‍कल गया।

       ‘ देखा अशोक जी, साला लौंडि‍या देखते ही लटटू हो गया ।’ धीरेन्‍द्र ने अपनी भड़ास नि‍काली परंतु अशोक की कोई प्रति‍क्रि‍या न देख आगे जोड़ा – ‘ ये हि‍न्‍दी वाले भयानक जाति‍वादी और पुराणपंथी हैं, जब सारा भारत सुधर जाएगा, तब ये सुधार केन्‍द्र में अपना पंजीकरण कराने जाएंगे।’ कह कर उस ने ठहाका लगाया । अशोक ने इस पर भी कोई प्रत्‍युतर न दि‍या और बाथरूम में घुस गया। 

       ‘चूति‍या’... । बाथरूम में घुसते हुए उस ने धीरेन्‍द्र की भुनभुनाहट सुनी।

       अशोक सोचने लगा कि‍ आखि‍र ये लोग हमारे बारे में ऐसा क्‍यों सोचते हैं? हमारे दुखों की तरफ इनकी नज़र क्‍यों नहीं जाती?क्‍यों नहीं सोचते ये कि‍ दुनि‍या के सामने, दर्प से, इन की तरह, हम अपनी जाति‍ नहीं बता पाते? शास्‍त्रीय संगीत और नृत्‍य, अभि‍नय और गैर सरकारी संस्‍थाएं, ऐसी तमाम जगह हैं, जहॉं जाति‍ बता कर हम आगे नहीं बढ़ सकते । हमें अपनी जाति‍ छि‍पानी पड़ती है और भेद खुलने के भय से सदा आक्रांत रहना होता है, जैसे इस में हमारा कोई अपराध है। जब कि‍ हमारी कोई गलती नहीं, हम से पूछा नहीं गया कि‍ कि‍स जाति‍ या धर्म में जाओगे। यह बस एक संयोग है। मात्र इसी संयोग के कारण ये ऐसे इठलाते हैं, जब कि‍ इस में इन की कोई अर्जि‍त उपलब्‍धि‍ या योग्‍यता नहीं है। सि‍र्फ एक संयोग कि‍ हम यहॉं जन्‍मे और वे वहॉं... और इस का ऐसा मूढ़ अभि‍मान। सदा के सेवक , नि‍चले दर्जे के नौकर- बस यही छवि‍ दर्ज है इन के दि‍मागों में, पीढ़ी दर पीढ़ी, इसीलि‍ए ये अब भी वहीं से देखते हैं हमें और हमेशा वहीं देखना चाहते हैं... सूत भर भी ऊपर नहीं। इस पुरानी छवि‍ से ही ये आज भी हमें गंदा,  अयोग्‍य और असभ्‍य समझ कर तौल रहे हैं। धारा के प्रबल प्रवाह में वह पीले पत्‍ते की तरह बहता चला गया। तभी एक वि‍परीत धार ने उस की दि‍शा मोड़ दी। 

       इन का भी क्‍या दोष... इन के माता-पि‍ता, रि‍श्‍तेदार और यहॉं की राजनीति‍ चौबीसों घंटे इन्‍हें यही सब सि‍खाते हैं कि‍ उन से दूर रहो, कि‍ इन से बचो, कि‍ इन के आरक्षण ने तुम्‍हारे रोजगार खा लि‍ए हैं।  ये भी अपना वर्चस्‍व और वजूद बनाए रखना चाहते हैं। कौन नही चाहता? नहीं चाहते कि‍ इन के बाग-बगीचे, पद-पदवि‍यॉं चले जाएं और इन्‍हें इन के कल तक के नौकर-चाकर ऑंख दि‍खा कर डांटें कि‍ हम तुम से कि‍स तरह छोटे हैं। ये उन के नीचे बैठने से डरते हैं। ये यह भी अच्‍छी तरह से जानते हैं कि‍ इन की आबादी इस देश में कि‍तनी कम है और वंचि‍तों और पि‍छड़ों की कई गुना ज्‍यादा। सच ये भी तो भवि‍ष्‍य के भय से सि‍हरते हैं....पर....परन्‍तु कहीं तो कोई रास्‍ता होगा , ऐसा रास्‍ता जो आमोखास के लि‍ए बराबर हो, जहॉं न सवर्णो की पेशवाई हो और न पि‍छड़ों और वंचि‍तों की अराजकता। बहुत देर तक अशोक वि‍चारों के भंवर में डूबता-उतराता रहा। 

       भोजन के लि‍ए बुलाने वही आदमी आया। तीनों को लि‍ए, वह उस बड़े कमरे में पहुँचा, जहॉं प्रो. सि‍हं और अभि‍लाषा पहले से बैठे हुए थे। प्रो. सि‍हं अपनी वेशभूषा बदल चुके थे। अब पेंट कमीज की जगह झकाझक सफेद धोती कुर्ते ने ले ली थी । काफी भव्‍य डाइनिग टेबुल और कुर्सि‍यॉं थी। डाइनि‍ग टेबुल पर खाना खाने का अभ्‍यास अशोक को हॉस्‍टल में रहने के दौरान ही हुआ, हालांकि‍ शुरू में बहुत अटपटा लगा परंतु अच्‍छा लगता था। 

       ‘ ये भी लो अशोक, ये बटेर का गोश्‍त है।’ प्रो. सि‍हं ने सामने खड़े उस व्‍यक्‍ति‍ की तरफ देखा। उस ने बढ़कर अशोक के लि‍ए एक बड़ी कटोरी में सालन डाल दि‍या। 

       ‘क्‍या तुम ने पहले कभी खाई है बटेर?’ धीरेन्‍द्र ने रोटी का कौर तोड़ते हुए सवाल कि‍या। ‘सर, हमारे यहॉं अक्‍सर बनता है।’ सुबोध ने अशोक के जवाब का इंतजार कि‍ए बि‍ना अपनी बात घुसाई। 

       ‘काफी स्‍वादि‍ष्‍ट है।’ अशोक ने सालन खाते हुए सि‍र्फ इतना कहा। 

       ‘यहॉं आसपास कहीं नहीं मि‍लती... ये ही खरीद लाता है, जब मैं आता हूँ, बहुत महंगी है और मुश्‍कि‍ल से मि‍लती है।’ उन्‍होंने उसी व्‍यक्‍ति‍ की तरफ देखा। ‘मुझे बहुत प्रेम करता है, बचपन से यहीं है, मेरे पास ...।’ 
फि‍र अचानक ही अभि‍लाषा से मुखाति‍ब हो कर बोले-‘तुम भूखी मत रह जाना, हमारी गप्‍पों के बीच।’ एक बार फि‍र उन का पेडुलम अशोक की तरफ आया- ‘अशोक तुम दलि‍त कहानी पर आलोचना की एक पुस्‍तक संपादि‍त करो।’ हडडी पर लगे मांस को नोचकर उन्‍होंने हडडी साथ में रखी खाली कटोरी में फेंकी। ‘सुबोध के साथ मि‍ल कर इसे करो।’ 

       सुबोध ने आनाकानी के स्‍वर में तुरंत जवाब दि‍या- ‘सर मैं अभी कुछ नहीं कर पाऊंगा, मैं पहले ही शोध कार्य से दबा हूँ।’ 

       ‘इस पर नहीं करना तो युवा कहानी पर मि‍ल कर कुछ बनाओ।’ प्रो. सि‍हं ने दूसरी हड्डी भी कटोरी में फेंकी। साठ की इस उम्र में भी कि‍सी युवा व्‍यक्‍ति‍ से अच्‍छी खुराक थी, प्रो. सि‍हं की। ‘नहीं सर अभी मैं कुछ और नहीं कर सकूंगा।’ सुबोध ने उम्‍मीद के उलट, बहुत ही दृढ़ स्‍वर में अपने गुरू के आदेश को ठुकरा दि‍या। अशोक कुछ न बोला। धीरेन्‍द्र मंद मंद मुस्‍कुराता रहा। अभि‍लाषा नीचे मुंह कि‍ए खाती रही। प्रो. सि‍हं ने सि‍र्फ एक बार ऑंख उठा कर सुबोध की तरफ देखा और ‘हूं’ कर के फि‍र भोजन करने में तल्‍लीन हो गए। अशोक ने कुछ भी न कहा, परंतु उस का भोजन करना भारी हो गया। 

       भोजन करने के पश्‍चात् सब लोग खेतों की तरफ चले। अभि‍लाषा और सुबोध पीछे-पीछे चल रहे थे। दोनों इस तरह बातें करने में व्‍यस्‍त थे कि‍ जैसे बरसों पुरानी जान-पहचान हो। 

       खेत के सब कामों से नि‍पटकर प्रो. सि‍हं, वहीं बने एक दोमंज़ि‍ले मकान की खुली छत पर बैठ गए और अशोक को भी वहीं बुला लि‍या। ‘ये देखो अशोक, यहॉं से वहॉं तक सब हमारी जमीने हैं।’ अशोक की नजर दूर तक फैली सरसों के फूलों में उलझ गई। 

       ‘इस पूरे इलाके में सब हमारी ही जमीने हैं। हम ने ये जमीने अपने हलवाहों को दे रखी हैं , कई पीढ़ि‍यों से ये हमारे साथ हैं। हमारे हलवाहे खुश हैं। वे हमें खुश रखते हैं। वो कभी अपने मन में हमारी जमीनों के लि‍ए लालच नहीं लाते। हम भी उन्‍हें बच्‍चों की तरह मानते हैं।’  ’जी सर।’ अशोक ने साथ दि‍या। हालांकि‍ ‘बच्‍चों’ शब्‍द के लि‍ए उस के मन में ‘ ‘ ‘प्रजा’ शब्‍द आया। ‘पर ...वो मलकाराम..।’ दांत पीसते हुए प्रो. सि‍हं बोले- ‘उसे यहॉं की राजनीति‍ की हवा लग गई है। संयोग से, तुम्‍हारी ही जाति‍ का है, वफादारी, ईमानदारी और वि‍नम्रता सब खत्‍म ... बराबरी तो हम देते ही हैं पर लगता है कि‍ उस हरामखोर को इज्‍जत रास नहीं आई।’  

       ‘यह तो बहुत गलत बात है सर... जब सब कुछ संतुलन से चल रहा हो, तब यह सब ठीक नहीं ।’ बात को और अधि‍क गहराई से जानने के उपक्रम में उन के सुर में उस ने सुर मि‍लाया । 

       इस समर्थन का अपेक्षि‍त प्रभाव पड़ा। प्रो. सि‍हं के चेहरे पर आश्‍वस्‍ति‍ और आह्लाद पसर गया। ‘हॉं, वही तो पर अब उस मूर्ख को कौन समझाए... क्‍या तुम समझाओगे उसे, सुना है आजकल यह कहता फि‍रता है कि‍ ठाकुरों के दि‍न अब गए, वोट के राज में जनता का राज होता है, बताओ कैसी नई नई बातें सीख गया है।’ प्रो. सि‍हं की आवाज में चि‍न्‍ता थी। इस समय वे गॉंव के एक ठेठ जमींदार की ही तरह दि‍ख रहे थे। उन का प्रोफेसर व्‍यक्‍ति‍त्‍व वि‍लीन हो गया था इस रूप में । मजदूरों, कि‍सानों और अंति‍म आदमी के हकों की बात करने वाले प्रख्‍यात समाजवादी आलोचक प्रो. अमर प्रताप सि‍हं , अनपढ़ ठाकुर अमर प्रताप सि‍हं की तरह बातें कर रहे थे। क्‍या यह गॉव की मि‍टटी, पानी और हवा के कीटाणुओं का असर है?

       ‘वो भूल गया है शायद कि‍ ठकुराई क्‍या होती है। हमें हमारे नौकरों ने बताया तो हमें हैरानी हुई कि‍ चींटी के कैसे पर नि‍कल आए। वह जो लड़का बटेर पकड़ कर लाता है न, वह उस का चचेरा भाई है, उसी ने हमें आगाह कि‍या , बताओ उसे वो हमारा कुत्‍ता कहता है, वफादार होना क्‍या कुता होना होता है?’ उन के नथुने फड़क गए। ‘नमक हराम कहीं का, कमीना। सोचता है कि‍ मैं पढ़ा लि‍खा हूँ तो कायर हूँ।’ 

       अशोक ने एक भी शब्‍द नहीं कहा , न हॉं न हूँ। उस की आंखों में वह फैली नाक वाला युवक तैर गया, जि‍स का चेहरा-मोहरा मलकाराम जैसा ही था।             ‘इसीलि‍ए मैंने सोचा था कि‍ इस बार तुम्‍हें साथ लि‍या जाए ताकि‍ उस मलकाराम को तुम मेरे बारे में समझाओ। क्‍या तुम्‍हें कभी मेरे व्‍यवहार से लगा कि‍ मैं कहीं का सामंत हूँ?’ उन की आवाज में मायूसी थी। उन्‍होंने कमांडर सि‍गरेट के पैकेट से सि‍गरेट नि‍काल कर जला ली और एक लम्‍बा कश लि‍या । यह बात सही थी। अशोक अच्‍छे से जानता था कि‍ न केवल प्रो. सि‍हं बल्‍कि‍ उन के परि‍वार के अन्‍य सदस्‍य भी जाति‍ के आधार पर कि‍सी से छुआछूत नहीं करते थे। उन के घर अक्‍सर खाना पीना चला करता और अनेक दलि‍त और पि‍छड़ी जाति‍यों के अध्‍यापक और वि‍द्यार्थी शामि‍ल रहते। 

       ‘मेरे समझाने से वो मानेंगे?’ अशोक दुवि‍धा में फंस गया पर तभी उसे अपनी पीएच. डी का काम याद आ गया। 

       ‘शायद मान जाए, तुम उच्‍च शि‍क्षि‍त हो, उसी की जाति‍ के हो, दलि‍त साहि‍त्‍य में तुम्‍हारा एक नाम है, अपने कौशल का इस्‍तेमाल करो। मैं मजबूर हूँ , वो नहीं माना तो कहीं उसे।’ प्रो. सि‍हं जैसे खुद से लड़ रहे थे। ‘मैं कुछ कर नहीं पाऊंगा फि‍र, पर मैं यह चाहता नहीं। उसे जमीन चाहि‍ए क्‍योंकि‍ उसे पता चल गया है कि‍ जमीन का एक हि‍स्‍सा उस के नाम काग़जों में चढ़ा है। हमारे लोग यह बर्दाश्‍त नहीं करेंगे कि‍ उस की जमीन, उन की जमीनों के बीचोंबीच पड़े। ये गॉव है। यहॉं हर चीज मर्यादा में चलती है। मैं मलकाराम को जमीन दे देता पर बि‍रादरी के लोग मुझे चैन से नहीं रहने देगे, कायर कहेंगे, जीना मुश्‍कि‍ल कर देंगे, कल को अपने ही लोग जमीनें दबाना शुरू कर देंगे।’ प्रो. सि‍हं ने अपनी व्‍यथा कही। 

       अशोक यह सुन कर भीतर तक दहल गया। ‘वो देखते हो... ।’ उन्‍होंने खड़े होते हुए दूर इशारा कि‍या- ‘वहॉं इन खेतों से बाहर तो हम ने खुद कुछ लोगों को जमीनों के टुकड़े दि‍ए हैं पर जहॉं मलकाराम मॉंग रहा है, वहॉं ये मुमकि‍न नहीं है। ये हमारे इलाके के बीचोंबीच है। हमारे घरों के नजदीक... ।’ 

       अशोक ने दूर तक नज़र दौड़ाई। उन के दाएं हाथ की तरफ लगभग सौ मीटर की दूरी पर सुबोध सि‍हं और अभि‍लाषा सि‍हं, जाने कि‍न मुद्दों पर बातचीत में तल्‍लीन थे। अशोक के मन में सहसा एक दुष्‍ट वि‍चार उछला कि‍ अगर इस समय सुबोध की जगह, वह अभि‍लाषा के साथ होता तो क्‍या प्रो. सि‍हं इसी तटस्‍थ भाव से बैठे होते, परंतु अशोक ने अपने अरबी अश्‍व को इस इलाके में घुसने से तुरंत रोक दि‍या। 

       ‘आप ऐसा कहते हैं तो मैं जरूर समझाने की कोशि‍श करूंगा।’ अशोक को उस अनजान व्‍यक्‍ति‍ की जान की तो चि‍न्‍ता हुई ही, साथ ही प्रो. सि‍हं की मनस्‍थि‍ति‍ में आए बदलाव ने भी उसे प्रेरि‍त कि‍या। अगर वह कहानी लि‍ख रहा होता तो वह दि‍खाता कि‍ कैसे अकेले मलकाराम ने ठाकुर अमर प्रताप सि‍हं के दांत खटटे कर दि‍ए और जरूरत न पड़ने पर भी लाठी, बल्‍लम या कुल्‍हाड़ी तक चलवा देता। पाठकों का एक वर्ग यह देख कर प्रसन्‍न भी होता। साधुवाद की एकाध चि‍टठी या फोन भी उसे आता। परंतु जि‍न्‍दगी के इस भयावह और यायावर यथार्थ के सामने सारी स्‍थि‍रबुद्धि‍ साहि‍त्‍यि‍क समझ‍ धूल चाटने लगी। यह अपनेपन की कैसी हदें हैं, जो एक अपरि‍चि‍त आदमी के लि‍ए उस के मन में आत्‍मीयता पैदा कर रही हैं...सि‍र्फ बि‍रादरी के कारण ही न । क्‍या यही वे घेरेबंदि‍यॉं हैं जहॉं प्रो. सि‍हं न चाहते हुए भी कैद हैं? ये पूरा देश !!!

       इसी सब उघेड़बुन में जाने कब वह खेतों से वापस अपने कमरे पर आ गया। वह दुश्‍चि‍न्‍ताओं और दु:स्‍वप्‍नों के जाले में मामूली मकौड़े की तरह अटक गया। वहॉं वह जि‍तना ही ज्‍यादा छटपटाता, शि‍कंजा और उलझता- कसता जाता। इसी छटपटाहट में सुबह का वह सपना झि‍लमि‍लाने लगा। करूणा के काजल से भरी ऑंखों वाली वह नवयुवती दि‍खी, भवि‍ष्‍य से बलबलाता वह बालक दि‍खा। अशोक ने आंखें बंद कर ली, जैसे वह इस के अलावा अब और कुछ न देखना चाहता हो, न प्रो. सि‍हं को, न ईर्ष्‍यादग्‍ध धीरेन्‍द्र सि‍हं को, और न ही सपने की उस पगलाई भीड़ को। 

       वह मानो कि‍सी ऐसे इलाके में प्रवेश कर गया ,जहॉं सि‍र्फ फूल हैं, खुशबुएं हैं, ऊंचे पर्वत और कल-कल बहती नदी है, जि‍स की धार में मछलि‍यॉं वि‍परीत दि‍शा में भी मस्‍ती से तैर रही हैं। दूर कि‍सी जोगी के गाने का स्‍वर चला आ रहा है – ‘अवधू बे गम देस हमारा, राजा रंक फकीर बादसा , सब से कहूँ पुकारा, जो तुम चाहों परमपद को, आओ देस हमारा।’ ठीक इसी वक्‍त, पानी में छप्‍प –छप्‍प करता, तेजी से दौड़ता हुआ मलकाराम सामने आ खड़ा हुआ। उस की आंखों में भयानक क्रोध है। उस ने अपने हाथ की लाठी से जमीन को इतनी जोर से ठोका कि‍ वहॉं गहरी दरार हो गई – ‘मैं अपनी जमीन लेकर रहूँगा, तुम क्‍या मुझे संसार का कोई आदमी नहीं समझा सकता।’ प्रो. सि‍हं मोढ़े पर एक तरफ बैठे, शेर छाप बीड़ी पी रहे हैं। ‘दि‍माग से काम ले मलकाराम’ - उन्‍होंने सि‍र्फ इतना कहा और फि‍र कश लगाने लगे। सुबोध अभि‍लाषा को समझा रहा है- ‘हमें इस पर अन्‍तर्मंथन करना चाहि‍ए, यह देश सब का है’ – अभि‍लाषा का सि‍र सुबोध के कंधे पर टि‍का है। धीरेन्‍द्र सि‍हं गुस्‍से में पांव पटक रहा है – ‘ऐसा कभी नहीं रहा, इति‍हास आप झुठला नहीं सकते, हम राजा हैं, ये हमारी प्रजा है, नौकर हैं हमारे।’ मलकाराम ने लाठी का जोरदार वार धीरेन्‍द्र के सि‍र पर कि‍या- ‘तो ये ले, तेरे इस इति‍हास को मैंने पलट दि‍या, अब कर ले तू, जो कर सकता है।’ धीरेन्‍द्र कराह कर वहीं जमीन पर लुढ़क गया। खून की धार बहने लगी। सब तरफ खून के रंग के लाल लाल फूल दहक गए। 

       ‘इसे तुम मारो मत मलका ...।’ सामने बाबासाहेब आम्‍बेडकर खड़े हैं, काषाय चीवर में, हाथ में पुस्‍तक । मलकाराम लाठी फेंक उन के पॉंवों मे गि‍र पड़ा और जार जार रोने लगा। अपने आंसूओं से उन के पॉव धो दि‍ए उस ने- ‘पर... पर बाबासाहेब, ये मुझे मेरी जमीन नहीं लेने दे रहा, मुझे नौकर कहता है और ...और आप ने ही तो कहा है संघर्ष करो।’ प्रो. सि‍हं, अभि‍लाषा और सुबोध भी उन के पांवो में झुक गए। 

       ‘पर हि‍न्‍सा नहीं।‘ बाबासाहेब उस के सि‍र पर हाथ फि‍राने लगे। ‘संगठि‍त होकर करो, अहि‍न्‍सा से लड़ो, जैसे मैंने महाड़ में लड़ी थी, हमारे सि‍र भी फूटे थे पर मलका हि‍न्‍सा हमारे वोट के राज को खा जाएगी। इन्‍हें माफ करना सीखो, ये अतीत की गोद में सो रहे हैं, करूणा करो इन पर।’ उन्‍होंने अपने हाथ में पकड़ी कि‍ताब को प्‍यार से सहलाया, जैसे पि‍ता अपनी संतान को दुलारता है। ‘ये हमारी नहीं सुनेंगे बाबा।’

       ‘सुनेंगे, जरूर सुनेंगे, इन में से ही बहुत सारे लोग, जो जाग गए हैं, तुम्‍हारा साथ देंगे, जैसे मेरा साथ, मेरे श्रीधर गंगाधर ति‍लक जैसे कई ब्राह्मण मि‍त्रो के अलावा मेरे मि‍त्र नवल भथेना, बडौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़, छत्रपति‍ साहू जी महाराज और बाद में गॉंधी जी और नेहरू जी ने दि‍या था... थोड़ा समय दो इन्‍हें, हजारों वर्ष की यादें हैं इन के दि‍मागों में, धीरे-धीरे खुरच कर साफ होंगी ... पर संघर्ष करना मत छोड़ना।’ 

       डा. सी.एल. सोनकर ने खड़े होकर अपनी कि‍ताब के पॉंचवें अध्‍याय को पढ़ना शुरू कर दि‍या – ‘‘मानव मानव के बीच समुदायगत वि‍भेद व अस्‍पृश्‍यता को समाप्‍त कर, चि‍त्‍त व आत्‍मि‍क शुद्धि‍ द्वारा ही मानवीय प्रति‍ष्‍ठा स्‍थापि‍त कि‍या जाना, जीवन का वास्‍तवि‍क लक्ष्‍य होना चाहि‍ए.....।’’ अचानक बाबासाहेब अर्न्‍तधान हो गए।   

       उन को देखने के लि‍ए मलकाराम ने सभी दि‍शाओं में सि‍र घुमाया और फि‍र उठकर भागने लगा, पानी के पार, खेतों के बीच से होते हुए, गॉव की गलि‍यों और कच्‍चे मकानों को लांघता हुआ ..... वह एक जगह जा कर एकाएक ठि‍ठक गया, सामने आलीशान कोठि‍यॉं थीं, पोर्श, ऑडी, बेन्‍टली, मर्सि‍डीज़, जेगुआर और बीएमडब्‍ल्‍यू कारें, एक के बाद एक, यहॉ-वहॉं, सरकारी सड़क पर, बेतरतीब, इन्‍हीं भव्‍य अट्टालि‍काओं के बीच एक ऊंची दीवार पर एक बड़ी तख्‍ती ठुकी थी – यह आम रास्‍ता नहीं है’ – वहॉं स्‍लेटी वर्दी पहने दो मुच्‍छड़ गार्ड खड़े थे, उन के हाथ में राइफलें थीं, अचानक मलकाराम सपने वाले घायल युवक में बदल गया है, नहीं वह अशोक में बदल रहा है, बि‍ल्‍कुल अशोक..... तभी उन दोनों गार्डो में से एक मुच्‍छड़ गार्ड ने उस की तरफ रायफल उठा कर धांय से फायर कर दि‍या..... 

       अशोक की नींद झटके से टूट गई। ख्‍वाब के रास्‍ते कैसे उलझे होते हैं, हम कहॉं से शुरू करते हैं और कहॉं पहुँच जाते हैं, कुछ पता नहीं चलता। सामने की चारपाई पर सुबोध और दूसरी पर धीरेन्‍द्र सो रहा था। ‘ये दोनों चारपाई पर ही सो गए।  मैं सर को स्‍पष्‍ट कहूँगा कि‍ जमीन मलकाराम की है और उस का हक उसे मि‍लना ही चाहि‍ए। बाकी वो जाने, इसे अब कि‍तनी देर और रोक पाएंगे ये।’ वह बुदबुदाया।  

       उस ने दृढनि‍श्‍चय कि‍या और उठ कर बाहर दालान में आ गया। बाहर अभि‍लाषा पहले से टहल रही थी। उस ने अशोक को आते देख मुस्‍कुरा कर स्‍वागत कि‍या। अशोक भी मुस्‍कुरा गया। हवा में बासंती खुशबु डोल रही थी, जि‍स की कल्‍पना भी  शहरों में नहीं की जा सकती। हालांकि‍ बसंत अभी ऐसा चढ़ा भी नहीं था कि‍ खुशबु फैलती पर गॉंव में इस शुरूआत का सुख भी महसूस हो रहा था। 

       ‘अब मैं आप की कहानि‍यॉं पढूंगी और देखती हूँ कि‍ आप क्‍या लि‍खते हैं, आप की आभारी हूँ कि‍ आप ने साहि‍त्‍य को देखने का एक नया नज़रि‍या मुझे दि‍या। मैं वाकई इस से अनभि‍ज्ञ थी।आलोचना से चि‍ढ़ तो नहीं जाएंगे?’  

       अशोक ने मुस्‍कुरा कर ‘नहीं’ में गर्दन हि‍लाई। उस का नि‍श्‍चय और पक्‍का हो गया। 

डॉ० अजय नावरि‍या
असि‍स्‍टेंट प्रोफेसर, हि‍न्‍दी वि‍भाग 
जामि‍या मि‍ल्‍लि‍या इस्‍लामि‍या, नई दि‍ल्‍ली -25 
मो० : +91 99 108 27330 
ईमेल: ajay.navaria@gmail.com

कहानी: गोरिल्ला प्यार - गीताश्री | Hindi Kahani 'Gorilla Pyar' - Geetashree

गोरिल्ला प्यार  - गीताश्री




चटाक् ... इंद्र ने चांटा तो नहीं मारा, लेकिन जो किया, वह किस चांटें से कम है। इंद्र औचक उसे चाटा मारकर चला गया। आदमकद चांटा। दोनों बेड पर थे। रति को तत्पर, स्पर्श, चुम्बन और आलिंगन से देह खिल उठी थी। खिला हो ज्यों बिजली का फूल। बिना किसी भूमिका के अचानक इंद्र भडक़ उठा, ‘इटज नॉट फेयर अर्पि।’ तुम्हें अपने बॉस के साथ बार में अकेले नहीं जाना चाहिए था।

वो भी ऐसे बार में जहां सिर्फ कपल्स इंट्री होती है। कुछ तो है ना तुम्हारा उनसे..कैसे इनकार कर सकती हो..सार्वजनिक और प्राइवेट स्पेस में हम रिश्तो के हिसाब से जाते हैं ना..नहीं। तुमने मुझसे झूठ बोला..तुम वहां थी उसके साथ और मुझे मेरा दोस्त एसएमएस करके बता रहा था और तुमसे मैंने पूछा तो तुमने कहां बॉस के पास हूं..केबिन में..। 

छोटी-सी बात... ये भी कोई बात होती है। ये तो तय नहीं हुआ था कि हर छोटी छोटी बात एक दूसरे को बताएं। ये महागैर जरुरी मामला है..ये सवाल पूछना और इस पर ऐसे रिएक्ट करना ही रिश्तों की सीमा का उल्लंघन है..प्लीज..लीव इट यार..अर्पिता ने चाहा कि इगनोर कर दें। रोमांचक क्षणों में दफ्तर की बातें। बेहद बोरिंग। 
‘वह आदमी ठीक नहीं है... गोरिल्ला है...गोरिल्ला..साला खल्वाट...।’

 गीले क्षणों में ऐसी बातें।

 ‘फिजूल बातें मत करों, इंद्र... किस मी... आई वांट...’ देह धधक रही थी, शब्द बिखर रहे थे... बेतरतीब... उसे लगा इंद्र अब झुका, तब झुका...अनिर्वच आनंद...।

यह क्या? कहां है इंद्र? इंद्र उठा। पतलून पहनी। फिर टी-शर्ट, कलाई में घड़ी बांधी और बेफीता जूतों में पांव डाल अर्पिता के फ्लैट से बाहर निकल गया। कोई शब्द नहीं प्रेम क्या इतना निष्ठुर भी हो सकता है। अर्पिता के लिए आंखें खोलना कठिन था और आंखें मींचना मुश्किल। देह प्रत्यंचा-सी तनी हुई थी। बिजली का फूल अपने पूरे आभार में खिला हुआ था। मगर इंद्र चला गया, बेड पर अधखुली किताब की तरह अर्पि को आतुर, अतृप्त और फडफ़ड़ाती छोडक़र।

वह एक अजीब रात थी। और रातों सी होकर भी और रातों से भिन्न। अर्पिता इस रात को शायद कभी नहीं भूल पायेगी। हर रोज सांझ का ढलना, रात की दहलीज हुआ करता है। इस रोज भी ऐसा ही हुआ। इंद्रजीत के साथ अर्पिता को रातें सुरमई लगा करती थीं, मगर यह रात उसे यकबयक चारकोल-सी काली लगने लगी। एअर कंडीशन ऑन था, लेकिन अर्पिता की देह पसीने में नहायी हुई थी। पसीना सूख जाये। लिहाजा उसके फैन का स्विच ऑन कर दिया, मगर देह की पोरों से पसीना रिसता रहा। लगा मानो तमाम रंध्रों से पसीने का सैलाब फूट पड़ा, ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था।

इस वक्त कुछ नहीं किया जा सकता। सिवाए तड़फड़ाने के। वो जो कर गया यह भी हिंसा ही है। देह और मन क साथ जब होते हैं तो महाआनंद का पल गढा जाता है। अर्पि के लिए यही ईश्वरीय राह थी। वहां तक पहुंचने के लिए..। अभी देह सन्नाटे में और मन अधमरा। इस वक्त उसकी देह बोल रही है। वह रौंदे जाने को तैयार है। वे बांहें खो गई हैं। अपने दोनो हाथो से देह को समेटना चाहती है और अपनी ही देह समा नहीं पाती, अपनी बांहो में। जगी हुई देह को सुलाने की ताकत को चुकी अर्पि चीख चीख कर रो पड़ी। रोते हुए देह हिलती रही, जांधे रगड़ खाती रहीं..आनंद और क्रंदन साथ चलते रहे।  

न जाने कितना अर्सा गुजर गया, इंद्रजीत के साथ? उसने जिन्दगी में कभी चीजों का हिसाब-किताब नहीं रखा। अनुभूति को भी क्या कभी गिना जाता है। क्या अश्रु और स्वेद की गणना मुमकिन है? आलिंगन और स्पर्श का सुख। इंद्रजीत के साथ कितने दिन, कितनी रातें? अंग संग की चाह। लटों की तरह परस्पर गुंथे हुए दो शरीर। एक पुरुष, एक स्त्री, एक अर्पिता, एक इंद्रजीत। दोनों भिन्न होकर भी अभिन्न। हिसाब-किताब से चीजें कितनी बार रस खो देती हैं।

कितनी बार रस बरसा है। न जाने कितनी बार। इंद्रजीत के साथ वह अनगिन बार रस में सराबोर हुई है। रस की बारिश में वे दोनों भीगते रहे है। आपाद मस्तक। नंगधडग़। निश्छल बच्चों की तरह। उन क्षणों में दोनों कितने मासूम प्रतीत होते हैं। वह कैसी लगती होगी? तब वह अपने आपको नहीं देखती। आंखें मूंद लेती है। इंद्रजीत कवि है। अलग-अलग मौकें पर अलग-अलग उपमायें। स्त्री-देह न हुई एक समूची कायनात हुई। एक बारगी इंद्रजीत ने कहा था, अर्पि, जानती हो, अभिसार के लिए प्रस्तुत तुम्हारी देह कैसी लगती है?
उसके वक्षरोओं पर उंगलियां फिराते हुए अर्पिता ने कहा था,  ‘हूं... नहीं तो...।’ 

इंद्र हंसने लगा था। भेदभरी थी कि कहे चुहलभरी हंसी। 

चलो छोड़ो...। इंद्र ने उसका जूड़ा खोल दिया था। स्याह सघन केश उसके शाने पर बिखर गये थे। 

‘नहीं बताओ ना...।  उसने जिद पकड़ ली थी।’ हां बताओ, अभी... इसी वक्त अर्पि के स्वरों में कुतूहल था। जानने की उत्कंठा।

‘तुम बिजली के फूल सी लगती हो, अर्पि खिला हो ज्यों बिजली का फूल... इंद्र को समर्पित अर्पि इंद्र पर एक बार फिर निसार हो गयी थी। 

 बिजली का फूल... वाह... क्या बात है? सचमुच बेड पर वह बिजली का फूल ही तो हो जाती है... चमकती हुई ...रोशन... उत्तेजना से लबरेज। इंद्र उसे बाँहों में लेकर या गोद में उठाकर पलंग की तरफ बढ़ा नहीं कि उसकी देह में करंट बहना शुरू हो जाता है... बिजली का प्रवाह धीरे-धीरे बढ़ता, पल-पल बढ़ता हुआ बोल्टेज,  इस दैहिक वोल्ट की कोई सीमा नहीं होती। उसकी निर्वसना देह सुर्ख हो जाती।  देह नहीं मानो धधकती हुई भट्टïी हो। उत्तप्त शरीर को इंद्र प्रेम की बारिश से नहलाकर शीतल कर देते थे। प्रेम अगन बुझाने के लिए प्रेम की बरखा। रिमझिम-रिमझिम फुहारें, पुलक भरे अनिर्वच क्षण...।

ऐसे क्षणों को अर्पिता ने एक नहीं, अनेक बार जिया है। यह वह पुलक है, जो फिर-फिर जिये जाने पर भी फिर-फिर जिये जाने की ललक जगाती है।

अर्पिता ने अपने आपको देखा। निर्वसना। कोई आवरण नहीं। बेड तक के डोर और बेड के दरम्यान वह कपड़ों से मुक्त हो लिया करती हैं। इस दिलचस्प खेल में कभी कम वक्त लगता है, तो कभी ज्यादा। आज की घटना... उफ्फ... क्या ऐसा भी होता है?  वह तो सोच भी नहीं सकती थी। वह यानी अर्पिता... एक वर्किंग वूमैन... कामकाजी स्त्री। अर्पिता यानी छोटे नगर मे पैदा हुई महानगरीय सोच की स्त्री। कोई मुलम्मा नहीं, वर्जनाएं नहीं, टेबू नहीं, बस, जिंदगी को जिंदगी सा जीने में गहरा यकीन।

अर्पिता को जड़ता नहीं सुहाती। रूटीन से उस बचपने से चिढ़ है। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें रोमांच बचा रहे। कॉलेज में लड़कियां कहतीं, अर्पि को तो अलग तरह का रिश्ता चाहिये। 

कैसा रिश्ता? सहेलियां पूछती तो अर्पिता कहती... समथिंग, थ्रिलिंग... जीवन में सनसनी, उत्तेजना, रोमांच न हो तो जीवन कैसा।  होस्टल के कमरे में रात बत्तियां गुलकर अर्पिता कैसेट लगा आंखें मूंद लेती और फकत कानों से नहीं, सारी देह से सुनती... प्यार को प्यार ही रहने दो... कोई नाम न दो...। यह सिलसिला अभी तक जारी है, अलबत्ता अर्पिता अब कॉलेज गर्ल नहीं, वर्किंग वूमैन विद लॉट ऑफ लाइव एक्सपीरियंस है। अनुभव से ही तो अनुभूतियां उपजती हैं, अन्यथा सब कल्पना है खामख्याली।

इंद्रजीत से उसकी मुलाकात एक गोष्ठी में हुई थी। ऊंचा पूरा कद, सपनीली आंखें, कविता में, कोमल बातों में गजब का सलीका, लेकिन सलूक में कठोर इंद्र सचमुच यथानाम तथा गुण था। विलास को आतुर, तत्पर। गोष्ठी में इंद्र के वक्तव्य ने मोह लिया। वह बोल रहा था..ईश्वर हमारी अपूर्ण दुनिया का पूर्ण चेहरा है...। अर्पि तो लगा इंद्र उसके प्रेम, उसकी सोच का पूर्ण चेहरा है। अर्पि की तारीफ ने इंद्र को बांध लिया और अर्पि को..इंद्र के खुले विचार ने जो दुनिया को घिसे पिटे ढर्रे पर चलने के लिए फटकार रहा था। वह समझ गई थी कि इंद्र वही चेहरा है जो बिना बांधे रिश्ते निभा लेगा। अक्सर वह सोचती कि क्या हर स्त्री को वैसा ही रति-सुख मिलता होगा, जैसा उस इंद्र से मिलता है। या फिर उसकी मात्रा अलग-अलग होती है? उसने शादी नहीं की। कर सकती थी। वरों की कमी नहीं थी। और फिर अर्पिता के पास सबकुछ था। अच्छी शिक्षा, पक्की नौकरी, बैंक बैंलेंस, आकर्षक व्यक्तित्व, सुगठित देहयष्टि।

अर्पिता ने प्रेम किया। शादी नहीं की कि शादी बंधन है। पत्नी के फ्रेम में तो वह छटपटाती  रहती। घुट जाती। उसका प्रेमी दकियानूसी पति में बदल जाता। घड़ी के कांटों से दफ्तर जाना। सांझ को लौटना। कभी-कभी पिक्चर, पिकनिक और शॉपिंग। बच्चे-बच्चे, सास-ससुर, देवरानी, जेठानी, देवर और जेठ नहीं भी तो बंधी-बंधाई दिनचर्या। बंधा-बंधाया रिश्ता। कोई ऊष्मा नहीं, गर्माहट नहीं, औपचारिक प्रेम, किताबी रिश्ते, दैहिक भी, मानसिक भी। 

सोच की धुरी प्रेम। प्रेम है तो जीवन है। अंग-राग के पहले ही प्रसंग में अर्पिता ने कह दिया था... इंद्र हम एक साथ नहीं रहेंगे... एक छत के नीचे नहीं रहेंगे। हम जीवन भर मिलेंगे। फिर-फिर  मिलेंगे हर बार हम पहले प्रेमी और पहली प्रेमिका की मानिंद मिलेंगे... हम जीवन एक संग जियेंगे, लेकिन विवाह नहीं, नो फेरे... नो कोर्ट शिप... नो बंधन... और तो और लिव-इन भी नहीं।

लिव-इन भी नहीं, ताकि प्रेम बचा रहे। प्रेम ही तो स्पन्दन है। वह चला गया तो शेष क्या रहा? निस्पन्द शरीर। जड़-संबंध, आडंबर, ढोंग, रूटीनी जिंदगी, एक ऐसी जिंदगी, जो ठीक वहां खत्म हो तो जिंदगी एक ऐसी जिंदगी, जो ठीक वहां खत्म होती है, ऐन जहां से शुरू होता है रोमांच। अर्पिता ने न जाने कितने शादीशुदा जोड़ों को देखा है। नंबर ऑफ कपल्स। उसने शादी के बाद प्रेमी युगलों को कुम्हलाते देखा है। उसने व्यस्क होने के थोड़ा पहले ही तय कर लिया था कि वह जिंदगी में मर्द को उतनी ही जगह देगी, जितने में उसका अस्तित्व बचा रहे, साथ ही बचा रहे प्रेम।

इंदजीत की सोच भी लगभग वैसी ही थी। तकरीबन एक सी सोच। दो बंदे, एक ख्याल, एक मानुष, दूसरा मानुषी, जब खयालात सांझा हुए तो दोनों की खुशी का पारावार न रहा। इसके बाद तो उन्होंने सब कुछ सांझा किया। दोनों ने देह के स्फुलिंग एक साथ देखे और एक साथ चटकीलें तारे गिने... चट...चट... चटाक...।
चटाक से चांटा मारकर वहीं अनोखा प्रेम उसके जीवन से बेदखल हो गया अपने आप। 

और वह अधखुली किताब कई रातों तक ऐसी ही खुली रही। इंद्र नहीं आया सो नहीं आया। ना फोन किया ना अर्पि का फोन उठाया। कई एसएमएस भी भेजे, कोई जवाब नहीं। दस दिनों के इंतजार ने अर्पि को भीतर ही भीतर बदल दिया। कितना सोच समझ कर ऐसा रिश्ता बनाया जो सबसे अनोखा था। लिव-इन से भी आगे। कितना रोमांच, कितना नयापन और कितनी मस्ती थी। एक दूसरे के प्रति केयर का भाव भी था। रिश्तो के बीच स्पेस की गुंजाइश भी थी। सबकुछ ठीकठाक तो चल रहा था। अचानक क्या हुआ इंद्र को..वह बड़बड़ाई। उसे यकीन नहीं हुआ कि उन दोनों के रिश्ते में कभी ऐसा मोड़ भी आएगा। झगड़े पहले भी हुए लेकिन वे अलग किस्म के थे। आम पति पत्नी वाले नहीं..प्रेमी प्रेमिका वाले नहीं..एक समझदार किस्म के दो सहयात्री की तरह लड़े, भिड़े और मिले। फिर अचानक क्या हुआ..इतना समझदार मर्द भी एक मामूली मर्द की तरह व्यवहार कर सकता है..तो फिर बाकी क्या बुरे हैं। सारी कविताई घुसड़ गई कवि जी की..स्त्री स्वातंत्र्य पर लंबा भाषण देने वाला बंदे का ये चेहरा। क्या करुं..क्या करूं..मुठ्टियां भींचे अर्पि का पारा चढता चला जा रहा था। अब नहीं आएगा कभी इंद्र। उसे लगा उसने खो दिया हमेशा हमेशा के लिए..उसका अब इस दिलचस्प रिश्ते से भी भरोसा सा उठ गया। औरत मर्द के बीच कुछ अनोखा नहीं घट सकता..वे नर-मादा ही बने रहेंगे..। एक नए खेल का भाव मैदान में उठ रहा था। एक और स्त्री भीतर में जन्म ले रही थी। 

अर्पिता उठी। उठना पहली दफा उसे इतना कठिन और पीड़ादायी लगा। लैपटॉप लेकर बेड पर बैठ गयी। फेसबुक ऑन किया। हमेशा स्टेटस को अनविजिबल रखने वाली अर्पि ने पहली बार विजिवल कर दिया। हरी बत्ती जलते ही दिखने लगे, अनगिन लोग, एक नहीं, अनेक लोग, चैट...दर ...चैट का न्योता। रात गहराती रही। जैसे उन्हें देर रात किसी स्त्री से चैट का इंतजार रहा हो। फेसबुक पर देर रात चैट को उतावले लोगो की संख्या देखर एकबारगी अर्पि को हंसी आ गई। जिसे देखो, वहीं पूछ रहा है.. व्हाट आर यू डूइंग? कुछ तो वीडियो चैट के लिए उकसा रहे हैं। नो..नो वीडियो चैट प्लीज। क्या कर रही हूं..मर्द ढूंढ रही हूं..मिलेगा क्या। हाहाहाहा...

सिल्ली गर्ल..जोकिंग..

नो..म सीरियस..

क्यों...व्हाई...बिकौज, आई एम ए गर्ल..इसलिए आपको जोक लग रहा है। 

नीड ए मैन फौर टूनाइट...फ्री ऑफ कॉस्ट..ओके..

स्त्री का इतना खुला आमंत्रण देख कर कुछ हरी बत्तियां लाल हो गईं..और कुछ अनविजिवल..स्सालों..फट गई क्या..तुम ढूंढों औरते..जाल फेंको..मछली की तरह फंसने वाली औरते चाहिए..शेरदिल औरत नहीं..ये पांच हजार दोस्त मेरे..फेसबुक पर दोस्त बनने के आग्रह भेज भेज कर खून पीते रहे..आज उन्हें लग रहा है मैं मजाक कर रही हूं। गो टू हेल्ल..उफ्फ इतना वक्त हो गया। 

 घड़ी के कांटों के लिहाज से मिडनाइट। 

ओह.. यह ठीक रहेगा। वह बुदबुदायी। तभी एक चैट चमकी। 

वाउ.. लुकिंग यंग एंड हैंडसम, नाम आकाश। 

आकाश..उड़ान का शौकीन..उसका प्रोफाइल खोला। शानदार तस्वीरें। फ्लाइट के साथ, पायलट के ड्रेस में। स्वीमिंग पुल में नहाते हुए। स्टेटस सिंगल और इंटेरेस्टेड इन वीमेन वनलि। अर्पिता को पूरा प्रोफाइल भा गया। हां...ये बंदा ठीक रहेगा। इससे जमाती हूं। 

आज वह बिना घुमाए फिराए बात करना चाहती थी। बहुत हो गया।  

 हाय डियर, व्हाटस अप..आकाश चहका।

‘ क्या तुम अभी आ सकते हो, आकाश।’

कोई लागलपेट नहीं, सीधा प्रस्ताव। 

आकाश थोड़ी देर तक चुप रहा फिर पूछा..आर यू सीरियस.

यस डूड..ज्यादा सवाल नहीं..मिल कर करेंगे सारी बातें। ज्यादा मत पूछो। मेरे बारे में सबकुछ मेरे प्रोफाइल में लिखा है और मेरा ताजा अपडेट भी पढ लिया होगा...मैं इमोशनल ट्रामा में हूं..देखो, सबसे ज्यादा पुरुषो ने इसे लाइक किया है। हाहाहाहा...अर्पि का मन थोड़ा हल्का हुआ। 

‘ मुझे कहीं भी दूर ले चलो मैं तुम्हारे साथ एक रात बिताना चाहती हूं, यस तुम्हारे साथ, लेकिन अपने बेड पर नहीं, अपने फ्लैट पर नहीं कहीं और...। ’

आकाश ने आने में देर नहीं की। अर्पिता ने दरवाजा अधखुला छोड़ दिया। बेल या दस्तक की जरूरत नहीं। 

चले आओ आकाश। आई एम वेटिंग फॉर यू। आकाश आया। वह तुंरत उसके साथ हो ली। आकाश ड्राइव करता रहा। इधर-उधर की बातें। लतीफे, कुछ मौसम। कुछ म्यूजिक की बातें, गुडगांव पहुंचने में ज्यादा देर नहीं लगी। दोनों सेकेंड फ्लोर पर पहुंचे। आकाश ने बंद फ्लैट खोला। छोटा लेकिन साफ-सुथरा फ्लैट। डबल नहीं, दो सिंगल बेड, क्या फर्क पड़ता है। आकाश ने स्कॉच के दो पैग लिए। नार्मल पैग, अर्पिता ने तगड़ा पेग बनाया। आज कोई सोडा नहीं, नो आइस, औन दी रॉक्स। कमरे में स्वर लहरियां तैरती रही। दोनो थिरकते रहे। आकाश के हाथ उसके कंधों से फिसल कर वक्ष... फिर कटि...और फिर नितंबों तक आ गये। कपड़े जिस्म से कब जुदा हुए दोनों को पता ही नहीं चला। देह प्रत्यंचा-सी फिर तन गयीं। आकाश पर बिजली के फूल का नशा छा गया। देह देर तक देह को मथती रही। 

जीवन का एक नया अध्याय, प्रीतिमास, चेप्टर इज ओवर, अर्पिता ने सोचा, इंद्र अब कभी नहीं आयेगा, इंद्र से नोकझोंक पहले भी हुई थी, लेकिन इस तरह वाक ओवर, ऐसा बहिर्गमन, वो भी बेबात पर। अर्पिता ने इंद्र को जेहन से झटक दिया। जिस प्रेम को बचाने के लिए अर्पिता ने सबकुछ किया। अलग तक रही, कभी पैसा दिया तो मांगा नहीं, देकर भूल गयी। सब कुछ अर्पित कर दिया। नेह में पगी हुई देह वार दी। उसके बाद ऐसा सलूक। वह शायद रिश्तो में बंधने के लिए नहीं बनी थी या प्रेम उसे रास नहीं आता। धोखा..छल और उसके बाद अविश्वास की यह काली चादर उसे लपेट कर खाई में पटक गई थी। 

जब शहर जाग रहा था, अर्पिता आकाश के साथ उसके फ्लैट से निकल सीढिय़ां उतर रही थी। वे रातभर साथ रहे। कोई पर्सनल सवाल नहीं कि उन्हें पर्सनल नहीं होना था। यह पहली और आखिरी मुलाकात है। अर्पिता ने सोचा , इंद्रजीत... कवि इंद्रजीत वान्ट कम बैक। अब नहीं लौटेगा इंद्र। कभी नहीं, दोनों कार के समीप पहुंचें आकाश ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। अचानक अर्पिता के मोबाइल पर फोन की घंटी घनघना उठी। अरे, उधर इंद्र था। भीगी हुई पश्चाताप से भरी आवाज। 

‘मैं वापस आ रहा हूं अर्पि। मैं नहीं रह सकता तेरे बिना... मुझे माफ कर दो... अब हम साथ-साथ रहेंगे... हमेशा- हमेशा के लिए...शादी भले ना करना, लिव-इन... अलग-अलग नहीं... सुन रही हो ना अर्पि।‘‘ शब्दों में कुछ छलक रहा था तरल।

अर्पिता के गले में कुछ अटक गया। कंठ रूंध गया। बमुश्किल उसने रूलाई रोकी- कहा,  ‘‘इट इज टू लेट इंद्र। ‘‘
पता नहीं उसका कहा इंद्र तक पहुंचा या नहीं? वह आकाश के बगल की सीट पर बैठ गयी। उसके होंठ कांप रहे थे। आकाश ने उसे देखा, गाड़ी स्टार्ट की और खाली-सी सडक़ पर बढ़ा दी। गुडग़ांव-दिल्ली को जोडऩे वाली एक्सप्रेस हाईवे थोड़ी गीली थी। लगता है कि इस ओर कल रात जमकर बारिश हुई होगी। एफएम पर पुरुष आवाज में भाषण बज रहा था..आज सभ्यता का संकट सबसे ज्यादा है। यह सभ्यता शरीर का सुख खोजती है, इसलिए यह सभ्यता अधर्म है..मनुष्य की मुक्ति का रास्ता...

आकाश ने वाक्य पूरा होने से पहले रेडियो बंद कर दिया। अर्पिता की तरफ देखा। कुछ देर देखता रहा। उसके लिए मानसिक रुप से बिल्कुल अजनबी इस लडक़ी का चेहरा जलबुझ रहा था। उसने पूछा कुछ नहीं, क्योंकि पर्सनल नहीं होना था...।


गीताश्री

बहीखाता - गीताश्री Bahikhata : Geetashree

गीताश्री 


बहीखाता 

(शब्दांकन उपस्तिथि) 

कथाकार, स्त्री विमर्श, पर्यावरण, सामाजिक मुद्दों तथा अन्य सम-सामयिक विषयों की सजग एवं वरिष्ठ पत्रकार।  

मुजफ्फरपुर (बिहार) में जन्मीं गीताश्री देश की जानी-मानी युवा पत्रकार, कहानीकार तथा कवयित्री हैं। सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार (वर्ष 2008-09) के लिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार से सम्मानित गीताश्री पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी बेहद सक्रिय हैं। उनकी कहानियां अब तक हंस, नया ज्ञानोदय, इंडिया टुडे, लमही, पर्वतराग, इरावती, सृजनलोक, निकट,  संबोधन, इंडिया न्यूज, आउटलुक जैसी पत्रिकाओं में न सिर्फ सराही गई हैं बल्कि वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेंद्र यादव जैसी हस्तियों ने भी उनकी बेबाकी, स्त्री विमर्श के अनछुए पहलुओं पर उनकी पैनी नजर की खुलकर तारीफ की है। राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘गीताश्री पेशे से पत्रकार हैं इसलिए उनके पास विषयों की कमी नहीं है, उनके पास हर तरह के अनुभव हैं। हो सकता है कि पत्रकारिता की यह गंध उनकी कहानियों में भी आती हों, लेकिन वह बहुत साधकर रचना में डूबती हैं।

गीता हिंदी में बिल्कुल अलग तरह की आधुनिक कथाकार हैं क्योंकि देह को नैतिक-अनैतिक वर्जनाओं से उठाकर वह स्त्री-मुक्ति के अगले पक्षों को भी कथा-रूप देती हैं।’ चुनौतीपूर्ण राजनीतिक पत्रकारिता से लेकर साहित्य, सिनेमा, सामाजिक विषयों पर अच्छी पकड़ होने के कारण गीताश्री कई देशों की यात्रा का अनुभव और अवसर प्राप्त कर चुकी हैं। इन दिनों आउटलुक (हिंदी) पत्रिका में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत रहते हुए उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। औरत की अस्मिता पर निरंतर लेखन के लिए चर्चित हो चुकीं गीताश्री को देश के कई प्रतिष्ठित संस्थानों की ओर से फेलोशिप मिल चुके हैं जिनमें नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2008), इन्फोचेंज मीडिया फेलोशिप (2008), नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2010), सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (2010) और पैनोस साउथ एशिया मीडिया फेलोशिप प्रमुख हैं।

कार्यक्षेत्र 

संपादन-बिंदिया, महिला केंद्रित मासिक पत्रिका- (फरवरी-2013 से अब तक)
रिपोर्टिंग और संपादन : आउटलुक (हिंदी) (अगस्त 2003 से  जनवरी 2013 तक)
रिपोर्टिंग : वेबदुनिया डॉट कॉम (मई 2000 से मई 2001) में ब्यूरो चीफ
रिपोर्टिंग : दूरदर्शन समाचार में ‘रोजाना’ की प्रमुख संवाददाता (सितंबर 1999 से मार्च 2000)
रिपोर्टिंग : अक्षर भारत(साप्ताहिक न्यूज पेपर) में प्रमुख संवाददाता
स्वतंत्र भारत (अक्तूबर 94 से दिसंबर 98), दिल्ली ब्यूरो में प्रमुख संवाददाता

रचना क्षेत्र 

चुनौतीपूर्ण राजनीतिक पत्रकारिता से लेकर साहित्य, सिनेमा, कला-संस्कृति, स्त्री-विमर्श और सामाजिक मसलों पर अच्छी पकड़। पत्रकारिता से जुड़े सभी माध्यमों में काम करते हुए आदिवासी लड़कियों की तस्करी, नक्सलवाद बनाम सलवा जुडूम, जलवायु परिवर्तन और डूबता सुंदरवन, तंबाकू उत्पादों का समाज पर प्रभाव, बंधुआ मजदूरी, बीड़ी उद्योग और बीड़ी मजदूरों की व्यथा पर गहन और शोधपरक रिपोर्टिंग।

सम्मान

  1. झारखंड और छत्तीसगढ़ से आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर रिपोर्टिंग के लिए रामनाथ गोयनका सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार पुरस्कार (2008-09) 
  2. रोजगार प्रदाता एजेंसियों की आड़ में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर सर्वश्रेष्ठ खोजपरक रिपोर्टिंग के लिए यूएनएफडीए-लाडली मीडिया अवार्ड (2009-2010)
  3. छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश की आदिवासी महिलाओं की तस्करी पर शोध के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया, मीडिया फेलोशिप (2008) 
  4. तंबाकू उत्पादों पर सचित्र चेतावनी का प्रभाव पर शोध के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया, मीडिया फेलोशिप (एनएफआई) पुरस्कार (2009-2010) 
  5. छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सलवाद के प्रभाव के कारण आदिवासियों के पलायन पर शोध के लिए इन्फोचेंज मीडिया फेलोशिप (2008) 
  6. पश्चिम बंगाल के तटवर्ती इलाके सुंदरबन पर जलवायु के प्रभाव की सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की नौवीं मीडिया फेलोशिप (2010) 
  7. राजस्थान में बंधुआ मजदूरों की व्यथा पर रिपोर्टिंग के लिए ग्रासरूट फीचर अवार्ड 
  8. महिलाओं के मुद्दों पर रिपोर्टिंग के लिए न्यूजपेपर एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ओर से पुरस्कार 
  9. सर्वश्रेष्ठ फिल्म रिपोर्टिंग के लिए मातृश्री पुरस्कार 
  10. फिल्म तथा अन्य कला विषयों की उत्कृष्ट समीक्षा के लिए अभिनव रंग मंडल, उज्जैन की ओर से राष्ट्रीय कला समीक्षा सम्मान 
  11. आधी आबादी वीमेन अचीवर्स अवार्ड-2010
  12. 28वां एस.राधाकृष्णन स्मृति राष्ट्रीय मीडिया सम्मान-2012
  13. औरत की बोली (स्त्री-विमर्श, सामयिक प्रकाशन) किताब के लिए भारत सरकार का प्रतिष्ठित, भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार-वर्ष 2011.
  14. नागपाश में स्त्री-(संपादन-राजकमल प्रकाशन)- अंतराष्ट्रीय सृजनगाथा सम्मान, थाईलैंड

कृतियां 

अब तक प्रकाशित पुस्तकें 

  1. कविता जितना हक (कविता संग्रह), राजेश प्रकाशन  हिंदी अकादमी से सहयोग प्राप्त
  2. स्त्री आकांक्षा के मानचित्र (स्त्री विमर्श), सामयिक प्रकाशन, सेकेंड संस्करण 
  3. 23 लेखिकाएं और राजेंद्र यादव (संपादन और संयोजन), किताब घर , बेस्ट सेलर 
  4. नागपाश में स्त्री ( स्त्री-विमर्श, संपादन), राजकमल प्रकाशन , सृजनगाथा अंतराष्ट्रीय साहित्य सम्मान, बैंकाक, थाईलैंड प्राप्त कृति
  5. औरत की बोली (स्त्री विमर्श), सामयिक प्रकाशन -2011 
  6. सपनो की मंडी (आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित) वाणी प्रकाशन-2012
  7. पहला कहानी संग्रह, प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां  (वाणी प्रकाशन-2013)  
  8. बैगा आदिवासी  की गोदना कला और संस्कृति पर आधारित शोध किताब- देहराग (वन्या प्रकाशन)-2013
  9. हिंदी सिनेमा-दुनिया से अलग दुनिया - (संपादन - सामयिक प्रकाशन-2014
  10. कल के कलमकार (खाड़ी देशों के स्कूली बच्चों की कहानियां, सह-संपादन)-शिल्पायन बुक्स-2013
  11. स्त्री को पुकारता है स्वप्न (कहानी संग्रह, सह-संपादन)-वाणी प्रकाशन-2013
  12. कथा-रंगपूर्वी (संपादन, कहानी संग्रह)-शिल्पायन बुक्स-2014

अन्य गतिविधियां 

फ्रीलांसर के तौर पर राष्ट्रीय सहारा में दो वर्षों तक स्तंभ लेखिका। ‘कला दीर्घा’ नामक यह स्तंभ समकालीन कला गतिविधियों के लिए समर्पित।

दूरदर्शन के ‘कला परिक्रमा’ कार्यक्रम में साक्षात्कारकर्ता के तौर पर योगदान। समाचार-पत्रों, टीवी चैनलों और रेडियो के लिए विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिष्ठिïत हस्तियों से साक्षात्कार।

दूरदर्शन के “सिनेमा इस हफ्ते” कार्यक्रम में निरंतर बतौर फिल्म क्रिटिक भागीदारी।

संप्रति 

अपने दो ब्लॉग- हमारा नुक्कड़, नदिया बहती जाए पर अपने सशक्त लेखन और अभिव्यक्ति से साहित्य और पत्रकारिता जगत में अपनी ठोस उपस्थिति का अहसास कराती हैं।

सम्पर्क

गीताश्री
डी-1142, गौर ग्रीन अवेनुए, 
अभय खंड - 2,
इंदिरा पुरम, 
गाज़ियाबाद (उप्र)

फोन:  +91 120-4131953
मो० :  +91 98 182 46059
ईमेल: geetashri31@gmail.com

शब्द-चित्र - सौरभ पाण्डेय Shabd-Chitra - Saurabh Pandey

शब्द-चित्र - सौरभ पाण्डेय


गाँव चर्चा : सात परिदृश्य

१.
मरे हुए कुएँ..
उकड़ूँ पड़े ढेंकुल..
करौन्दे की बेतरतीब झाड़ियाँ..
बाँस के निर्बीज कोठ.. .
ढूह हुए महुए..
एक ओर भहराई छप्परों की बदहवास खपरैलें..
सूनी.. सूखी आँखें ताकती हैं एकटक..  एक अदद अपने की राह
कि.. कुछ जलबूँद
और दो तुलसीपत्र जिह्वा पर रख त्राण दे जाए.

लगातार मर रहा है इन सबको लिए.. निस्शब्द
मेरा गाँव.

२.
गट्ठर उठाती इकहरी औरत
अनुचर दो-तीन बच्चे
गेहूँ के अधउगे गंजे खेत
जूझता हरवाहा
टिमटिमाती साँझ
बिफरा बबूल
बलुआहा पाट..
या फिर.. कोई फुसहा ओसारा
सब कुछ कितना अच्छा लगता है..
काग़ज़ पर.

३.
वहाँ उठता है धुआँ
कोई गाँव है..
है चीख भी
कोई घर है..
... धुक गई होगी जवार कोई बेटी
   या फिर, भड़क गई होगी
   किसी थके ओसारे की बिड़ी.. .
बढ़ता गया इन्हीं कुछ पिटे-पटाये अनुमानों में..
कि,
भटभटाती मोटरसायकिल पर थामे दुनाली
दो निकल गए गरजते..
"..औकात भूल गया था हरामी.."

४.
पाँच अंकों की आय बेटा झँखता है
चार अंकों की पेंशन बाप रोता है..
अब शहर और गाँव में यही फ़र्क होता है.

५.
गाँव के बरगद / पीपल
वृक्ष भर नहीं
एक पूरी आस्थावान परंपरा के संवाहक होते हैं
/ जीवंत संसार के पोषक /
जिनके बिरवे
रोपे नहीं जाते
सरकारी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में !!

६.
दुबे के द्वार पर पाँड़े का ठट्ठा
मरद एक भोला..
भिड़े रह पट्ठा !
ठकुरा बकता है
बेलूरा छपता है
बँसटोली कहती है--
मिनिस्ट्री पलटेगी.

७.
...जो कुछ नहीं हुआ तो क्या जाता है
मगर कुछ हुआ, तो बहुत कुछ होगा...
सोचते हुए
उसके हाथ अब अर्जियाँ नहीं..
रह-रह कर गँड़ासे उठा लेते हैं.


मन कार्यालय हुआ : पाँच दशा 

१.
मन उदास है
पता नहीं, क्यों..

झूठे !
पता नहींऽऽ, क्योंऽऽऽ..?

२.
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये
टेबुल पर पड़ा
कुछ नहीं सोचता.. न सोचना चाहता है
प्रयुक्त होता हुआ बस बना रहता है
निर्विकार, निर्लिप्त
बिना उदास हुए

३.
हाँ, चैट हुई
पहले से उलझे कई विन्दु क्या सुलझते
कई और प्रश्न बोझ गयी.

अपलोड कर लेने के बाद ऑफ़िशियल मेल / जरूरी रिपोर्ट
आँखें बन्द कर
पीछे टेक ले
थोड़ी देर निष्क्रिय हो जाना
कोई उपाय तो नहीं, लेकिन 
और कोई उपाय भी तो नहीं है..
अभी !

४.
उम्मीदें भोथरी छुरी होतीं हैं
एक बार में नहीं
रगड़-रगड़ कर काटतीं हैं
फिर भी हम खुद को 
और-और सौंपते चले जाते हैं उसके हाथों
लगातार कटते हुए

५.
वो साथ का है
पता नहीं !
वो स्सा..   थका है
हाँ पता है.. !!

जीवन के कुछ धूसर रंग


१.
लहूलुहान टेसू..
परेशान गुलमोहर..
सेमल त्रस्त 
अमलतास, कनैले, सरसों.. पीलिया ग्रस्त 
अमराई को पित्त 
महुए को वात 
और, मस्तिष्क ?.. दीमकों की बस्ती से आबाद ! 
ओः फागुन,  तेरे रंग.. .
अब आज़ाद !! 

२.
मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर 
ललाट पर छर्रे से टांकी हुई 
येब्बड़ी ताज़ा बिन्दी.. . 
खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खेंची गयी 
                       मेंहँदी की कलात्मक लकीरें.. 
फागुन.. 
अब और कितना रंगीन हुआ चाहता है !    

३.
गुदाज लोथड़े को गींजती थूथन रात भर धौंकती है.. !
कौन कहता है 
रंगों में गंध नहीं होती ?

४.
बजबजायी गटर से लगी नीम अंधेरी खोली में
भन्नायी सुबह 
चीखती दोपहर  
और दबिश पड़ती स्याह रातों से पिराती देह को 
रोटी नहीं 
उसे जीमना भारी पड़ता है. 

५.
फाउण्टेन पेन की नीब से 
गोद-गोद कर निकाले गये ताजे टमाटर के गूदे
और उसके रस से लिखी जाती
                  अभिजात्य कविताएँ 
महानगर की सड़कों पर / अब अक्सर 
लग्जरी बसों और महंगी कारों में घण्टों पढ़ी जाती हैं 
गदबदाये रंगों के धूसर होने तक.. .

चाँद : पाँच आयाम

१.
धुआँ कहीं से निकले --
        आँखों से
        मुँह की पपड़ियों से
        चिमनी के मूँबाये अहर्निश खोखले से.

धुक चुके हर तरह 
तो चुप जाता है / हमेशा-हमेशा केलिये
       एक मन
       एक तन
       एक कारखाना.. .
चाँद बस निहारता है.

२.
अभागन के हिस्से का अँधेरा कोना
चाँदरातों का टीसता परिणाम है.

३.
मेरे जीवन का चाँद अब कहाँ ?
हाँ, तुम बादल हो --भरे-भरे.. .

४.
निरभ्र आँखों
तब देर तक देखता था चुपचाप
मोगरे / के फूलों की वेणी / की सुगंध बरसाता हुआ

चाँद.. .
अब चादर तान चुपचाप सो जाता है.

५.
वो
अब चाँद नहीं देखता / गगन में
दुधिया नहाती रहती है
उसकी चारपायी
सारी रात.


शक्ति : छः शब्द रूप 

१.
धुंध का गर्भ नहीं जनता 
मात्र रहस्य 
सर्वस्वीकार्यता का आकाश 
और आरोप्य क्षमता की गठन 
                 की स्थायी समझ 
इस सार्वकालिक धुंध की निरंतरता के नेपथ्य का 
सदा से परिणाम यही है 
शक्ति और शिव की गहन इकाइयों के अर्थवान निरुपण 
हर काल में संसार रचते रहे हैं 

२.
देखी है उसकी आँखें ?
         --- निस्पृह
        निर्विकार
        निरभ्र / और
        निश्चिंत !
हर तरह के अतिरेक को नकारतीं 
इन्हीं ने तो जताया है समस्त ब्रह्माण्ड को --
हिंसा साध्य नहीं 
संवाद और निराकरण का एक माध्यम भी होता है !

३.
किसी सक्षम का विस्तार अकस्मात नहीं होता 
विस्तार वस्तुतः कढ़ता है 
स्वीकृत होते ही सबल हो जाता है 
फिर, अनवरत परीक्षित होता रहता है सर्वग्राही धैर्य 
सदा-सदा-सदा
      पुरातन काल से !

४.
अधमुँदी आँखों की विचल कोर को नम न होने देना 
उसका प्रवाह भले न दीखे 
वज़ूद बहा ले जाता है 

५.
उसने छुआ 
कि,
अनुप्राणित हो उसका शिवत्व.. . 
जगे अमरत्व का पर्याय अक्सर आसुरी क्यों होने लगता है 
एक बार फिर से छुए जाने के लिए !?

६.
थैले उठाये सब्जी लाती कल्याणी 
बच्चों संग झँखती-झींकती कात्यायनी 
पानी के लिए / बम्बे संग / चीखती कालरात्रि 
सुबह से शाम तक स्वयं को बूझती-ढूँढती-निपटती कुष्माण्डा 
देर रात तहस-नहस होती आहत-गर्व सिद्धिरात्रि 
अपने अपरूपों का भ्रूण-वध सहती कालिका 
शक्ति, तुझे मैंने कितना कुछ जाना है !! .. . 


मद्यपान : कुछ भाव 

१.
मैं बोतल नहीं
जो शराब भरी होने पर भी शांत रहती है
मुझमें उतरते ही शराब
खुद मुझे हैरान करती है.

२,
आदमी के भीतर
हिंस्र ही नहीं
अत्यंत शातिर पशु होता है
ओट चाहे जो हो
छिपने की फ़ितरत जीता है.. .
तभी तो पीता है.

३.
अच्छा खासा रुतबा
और चकित करते रौब लिये
वे हाशिये पर पड़े आदमी के उत्थान के लिए
मिलते हैं...
पर नशा / एक भोर तक
मिलने देता ही कहाँ है ! .

४.
मन के आकाश में खुमार के बादल
अनुर्वर पर बरस
उसे सक्षम नहीं बनाते
उल्टा उर्वर की संभावनाओं को मारते हैं.. . !
फिर,
चीख में जलन
आँखों में सूखा
मन में फ़ालिज़
पेट में आग बारते हैं.. .       

५.
पलट गयी बस का ड्राइवर
बेबस यात्रियों के भरोसे पर
         कहाँ उतरा था ?
वह तो जोश से हरा
होश से मरा
और शराब से भरा था ! 

सौरभ पाण्डेय 
एम-II/ए-17, एडीए कॉलोनी, नैनी, इलाहाबाद - 211008, (उप्र)
मो० : +91-9919889911
ईमेल: saurabh312@gmail.com

अपुष्ट तुष्टीकरण और बकवास - संजय सहाय | Unconfirmed appeasement and nonsense - Sanjay Sahay (Editor Hans)

अपुष्ट तुष्टीकरण और बकवास 

संजय सहाय  


अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण एक ऐसा संवेदनशील मिथक है जिसपर अधिकांश बहुसंख्यक असहज रूप से भावुक हो उठते हैं...
यह मुल्क है कि 1984 के सिखों के संहार के उपरांत कांग्रेस पार्टी अब तक का रिकॉर्ड 414 सांसद जिता लाई थी। उसके बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई भी दल पूर्ण बहुमत प्राप्त कर पाया है। कुछ लोगों को इस बात का मलाल अवश्य होगा कि नरेन्द्र मोदी को 2004 में ही प्रधानमंत्राी पद का उम्मीदवार घोषित कर डालना चाहिए था, तो संभवतः वह रिकॉर्ड भी टूट जाता। आसमान छूती महँगाई के बीच यूपीए के दिशाहीन, रीढ़विहीन, घोटालाग्रस्त और आरामतलब कुशासन से जनता त्रास्त हो चुकी थी। रही-सही कसर अफवाहों ने पूरी कर दी और लोगों ने निर्णय ले लिया वामपंथियों का जुझारू राजनीति से हटते जाना, उनके काडर का विघटन और उनके जंग खाए नेताओं का असुरक्षाबोध और संगठन पर वर्चस्व बनाए रखने का लालच उनको हाशिए के भी बाहर धकेल गया। हिंदी पट्टी के समाजवादी विचारधारा और सामाजिक न्याय के मंथन से उपजे लोग जिस तरह अपनी अराजकताओं, महत्त्वाकांक्षाओं, लोभों और दर्पों के तहत छोटे-छोटे गिरोहों में तब्दील हो गए हैं, शायद यह सौभाग्य ही था कि वे कोई विकल्प बनने में पूरी तरह से विफल रहे। इन सबके लिए अब अपनी राजनैतिक सोच और कार्यप्रणाली पर गंभीरता से विचार करने का उपयुक्त अवसर होगा। ‘आप’ का अपरिपक्व व्यवहार और दिल्ली सरकार से भाग जाना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ। आजम खान, इमरान मसूद, अमित शाह, प्रवीण तोगड़िया, गिरिराज और रामदास कदम के विषवमन के बीच सुनहरे विकास का वादा विस्मयकारी ढंग से वोटरों के लिए लुभावना साबित हुआ बहरहाल, जनादेश का सम्मान करते हुए और यह उम्मीद पालते हुए कि पूर्वप्रेतों से घिरे माननीय नरेन्द्र मोदी एक समावेशी, और मानवीय व्यवस्था के तहत अच्छे दिन पकड़कर ले ही आएँगे। हम राजनीति को सुरूपों, कुरूपों, विरूपों के हवाले करते हैं 

 पिछले संपादकीय पर एक तल्ख प्रतिक्रिया देखने को मिली, जिसका सार था कि यह चुनाव विकास के मुद्दे पर न होकर मुसलमानों के तुष्टीकरण और उन्हें वोट बैंक में बदलने के विरोध में है और कि ‘तथाकथित’ धर्मनिरपेक्ष लोग जो भी बकवास लिखते रहें जनता अपना मन बना चुकी है 

 अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण एक ऐसा संवेदनशील मिथक है जिसपर अधिकांश बहुसंख्यक असहज रूप से भावुक हो उठते हैं। क्या हमने कभी यह देखने की कोशिश भी की है कि ...

बहुसंख्यकों के किन अधिकारों की बलि चढ़ाकर ऐसा तुष्टीकरण किया जाता रहा है? 
क्या उनके मोहल्ले, गली-कूचे या झोपड़ पट्टियाँ बाकियों से ज्यादा अच्छी हालत में हैं? 
क्या उनका आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक या उनकी आधुनिक सोच का विकास औरों से बेहतर हुआ है? 
क्या सरकारी/गैरसरकारी नौकरियों में उनका गैरआनुपातिक इजाफा हो गया है? 
क्या राजनीति पर वे बड़ी संख्या में हावी हो गए हैं? 
याकि कारपोरेट जगत पर उनका सिक्का चल रहा है? 

...यदि उनके कुछेक मोहल्लों में थोड़ी-सी भी संपन्नता आई है तो वह खाड़ी मुल्कों में उनकी जीतोड़ मेहनत का नतीजा है, न कि किसी तुष्टीकरण का। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश राजेन्द्र सच्चर की अगुवाई में गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ही इस तुष्टीकरण के मिथक को ध्वस्त करने के लिए काफी है। यह रिपोर्ट कहती है कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जातियों और जनजातियों से भी बदतर है, और 14 फीसदी आबादी वाले समूह की सरकारी नौकरियों में सिर्फ ढाई प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इस तथ्य से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि समय-समय पर चुटकी भर प्रसाद बाँट उन्हें वोट बैंक में बदलने का प्रयास बहुतों ने किया है, किंतु यह घिसी-पिटी तरकीब पिछले कुछ चुनावों से विफल होती दिख रही है। साथ ही पूर्वाग्रहों से हटकर पूरी ईमानदारी से देखें तो हम पाएँगे कि प्रसाद बाँटने का यह ‘पुनीत’ कार्य तो सभी दल बहुसंख्यकों के लिए भी कहीं अधिक उत्साह से करते रहे हैं और धार्मिकता, जातिवादिता और क्षेत्रीयता का उन्माद फैला उन्हें वोट बैंकों में बदलते रहे हैं। इस आलोक में समझ में नहीं आता कि बहुसंख्यक समुदाय का एक हिस्सा अल्पसंख्यकों के इस मुद्दे पर इतना संवेदनशील क्यों हो उठता है? कहीं यह हमारी कोई पुरानी हीन ग्रंथि और टीस मारती गाँठ तो नहीं! 

 हंस के प्रेमचंद जयंती समारोह और कथा-कार्यशाला की तैयारियाँ शुरू हो गई हैं। दो दिवसीय इस कार्यशाला के लिए आवेदन मिलने लगे हैं। उम्मीद है कि इसमें अच्छी संख्या में भागीदारी रहेगी। पहली बार ऐसा होगा कि हंस की वार्षिक गोष्ठी राजेन्द्र जी के बिना होगी राजेन्द्र जी ने इस कार्यक्रम को साहित्यिक, सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों की बहसों में तब्दील कर इसे जीवंत और हिंदी समाज के लिए आवश्यक बना दिया था। प्रगतिशील विचारधारा के लोग बेसब्री से इस दिन का इंतजार करते थे। उनकी परंपरा का निर्वाह करते हुए हंस ने इस बार का विषय रखा है- वैकल्पिक राजनीति की तलाश। स्थान वही है- ऐवाने गालिब।

संजय सहाय

क्या-क्या है : हंस जून 2014 | Hans June 2014 Content - Hindi Kahani, Kavita, Articles, Ghazal etc

क्या-क्या है 

हंस जून 2014 

संपादकीय - अपुष्ट तुष्टीकरण और बकवास: संजय सहाय (शब्दांकन के पाठक सम्पादकीय यहाँ पढ़ सकते हैं)
अपना मोर्चा
कहानियाँ
उधड़ा हुआ स्वेटर: सुधा अरोड़ा
एक सौ आठ: तराना परवीन
कीप इट अप: अनिल रंजन भौमिक
केसरी किरण: मृदुला बिहारी
काम का लड़का: मनीष कुमार सिंह
बंद गले का ब्लाउज: दीपक रावल
शैतान: अनुरोध यादव
कविताएँ
असीमा भट्ट,  केशव शरण, सीमा सोनी, अमृता राय, शिखा गुप्ता
स्लीमेन के संस्मरण
देवी का प्रकोप और लोगों का विश्वास: विलियम हेनरी स्लीमेन (अनु.: राजेन्द्र चंद्रकांत राय)
विशेष
शापित नस्लों के एकांत और यूटोपिया (मार्केज का नोबेल भाषण) (अनु.: संदीप सिंह)
अयेन्दे को क्यों मरना पड़ा: ग्रैब्रिएल गार्सिया मार्केज (अनु.: अशोक कुमार)
लघुकथा : पल्लवी प्रकाश, महेश राजा, ऋचा शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, नरेन्द्र जैन
ग़ज़ल : सरदार आसिफ़
परख :
अतीत में हँसता, वर्तमान से जूझता उपन्यास: राकेश बिहारी
कुछ पुरानी बातचीतें कुछ सामयिक प्रसंग: अरविंद कुमार सिंह
वे माँगने वाले नहीं देने वाले दलित हैं: प्रतिभा कुशवाहा
बीच बहस में
इतिहास लेखन के अयोग्य रहे हैं हिंदू: अशोक कुमार
तसलीमा के सिवा मुल्लाओं की कौन सुनता है?: जेड.ए. खान
आलेख
दलित आपबीतियों में हैं दर्द के कई चेहरे: चंद्रभान सिंह यादव
कदाचित
शराबी की सूक्तियाँ: कृष्ण कल्पित
शब्दवेधी/शब्दभेदी : फिदा होते पुरुषों का नरक: तसलीमा नसरीन  (अनु.: अमृता बेरा)
रेतघड़ी
सृजन परिक्रमा : मैकाले एक परंपरा का नाम है: दिनेश कुमार

मृदुला गर्ग की नयी कहानी 'बेन्च पर बूढ़े' Mridula Garg, Hindi Kahani, 'Bench par Budhe'


ईमानदार लोगों के साथ यही दिक़्क़त है, सच का बुरा मान जाते हैं। 

कम ईमानदार लोगों की यही सिफ़्त है, ज़िन्दादिल होते हैं, मज़ाक का बुरा नहीं मानते। 

बेन्च पर बूढ़े

मृदुला गर्ग

उसकी विनय और अभ्यर्थना के सामने उसकी भोली पत्नी ही नहीं, खुर्राट दफ़्तरी बाबू ख़ुद वह नतमस्तक हो रहा। यह न समझा कि वे चले गये तो मान्या को नौकरी छोड़नी पड़ेगी या बच्चों की देखभाल के लिए ऊँची तनख्वाह पर हाउसकीपर रखनी पड़ेगी। आजकल कुछ कम ऊँचे ओहदे वाले आया को "हाऊसकीपर" और ज़्यादा ऊँचे ओहदे वाले "गवरनेस" कहते हैं। दादी को अलबत्ता ग्रेनी कहने भर से, बिला वेतन काम चल जाता है।
Mridula Garg sahitya akademi award winners 2013


बूढ़े पार्क की बेन्च पर बैठें या आई.आई.सी के लाउंज में, ख़ास फ़र्क़ नहीं है, उत्तर-दक्षिण दिल्ली के सरहदी लोदी गार्डन की बेन्च पर बैठा, नितिन सोच रहा था। ये भी सेवा निवृत हैं, वे भी। सेवा निवृत, क्या आनबान वाला शब्द है जैसे बन्दा सारी उम्र सेवा करके, अपनी मर्ज़ी से निवृत हुआ हो। अंग्रेज़ी पर्याय "रिटायर" में वह शान नहीं झलकती, बल्कि गाड़ी के "रीट्रीडड टायर" की याद हो आती है। पर शब्द से क्या होता है, अर्थ दोनों का एक है, घर से निष्कासित। जैसे नितिन। कभी नितिन सोलंकी...हाल में सेवा निवृत हो मात्र नितिन या वह भी नहीं, केवल पापा या दादा। कितनी चिढ़ है उसे पापा शब्द से। अजब निरर्थक सम्बोधन है। जैसे गार्डन या पार्क। अरे भई, बगीचा या बाग कहते ज़बान गलती है क्या? कहो तो उसके पोते-पोती समझें ही नहीं। सब कहते हैं न, बड़े-बड़े हिन्दी के विद्वान भी, हिन्दी बदलेगी तो चलेगी! यानी अंग्रेज़ी शब्दों का घालमेल करके बोलो तो लंगड़ा कर चल लेगी कुछ देर और। नितिन की ज़िन्दगी खत्म होने तक, ज़रूर। ठीक है, वह नाहक अपना भेजा क्यों ख़राब कर रहा है, ख़ासी बढ़िया अंग्रेज़ी जानता है। जो नहीं जानते, उद्यान और उपवन में फ़र्क़ किये बग़ैर, किसी भी मैदान को पार्क या गार्डन पुकारते हैं। उसे भी उनकी चाल चलना पड़ता है। सो पेड़-फूलों से लदा इतना बड़ा मैदान हुआ गार्डन और मौहल्लों की नन्ही-सी खुली जगह हुई पार्क! हुआ करे, वह अपना भेजा फ़्राई क्यों कर रहा है? और कुछ फ़्राई रहा जो नहीं ज़िन्दगी में। "फ़्राई" उसे इस उम्र में चलता नहीं। सच कहें तो ख़ूब चलता है उसे; उसकी बहू मान्या मानती है, नहीं चलना चाहिए। सो रोज़ घोड़े के खाने लायक़ भूसा, चलो जई सही, औटा कर धर देती है सामने। कहती है,"ओट्स" हेल्थ फ़ूड है। ज़रूर होगा। घोड़े खाते हैं, कभी किसी घोड़े को दिल का दौरा पड़ते सुना? स्वाद बदलने को वह हँसोड़ वाक्य सोचता है, कहता नहीं। असल बात कौन नहीं जानता, बाज़ार से डिब्बा-बन्द आता है, घोल घोटने में पाँच क्षण नहीं लगते। जिसे पकाने में मेहनत न लगे, वह बनाने वाले की सेहत के लिए मुफ़ीद हुआ न? पता नहीं यह बेस्वाद खाना सिर्फ़ बूढों के लिए सही क्यों है? जवानों और बच्चों को चलता है, दूकान से आया पित्ज़ा और फ़्राईड प्रौन। कहते हैं, उनके खेलने-खाने के दिन हैं। हाल में सेवा निवृत हुए अधेड़ के क्या करने के दिन हैं, बहू और उसकी रसोईदारिन की सेहत बनाने के? 
नितिन सोलंकी ने ज़रूर कहा था,"अक्ल के अन्धों, तुम अपने बच्चों से ऐसे बात क्यों करते हो जैसे ये तुम्हारे अंग्रेज़ बॉस हों? सिर्फ़ नौकर और दादी ही रह गये हिन्दी बोलने को, जैसे साले गोरे साहबों के खानसामा या साईस?" 
बेचारी उसकी भली पत्नी भागवती। भली थी तभी उसके सेवा निवृत होने से पहले, जीवन निवृत हो गई। पुरानी चाल की औरत थी, ध्रुव के पैदा होने के बाद ज़्यादा दिन नौकरी नहीं की। बेटे को पालने-पढ़ाने-हर तरह लायक़ बनाने की ख़ातिर, जवानी में ही सेवा निवृत हो गई। वह फ़िक्क से हँस दिया। सेवा से नहीं, घर के भीतर सेवा करने के लिए बाहर से निवृत हुई थी। बेटा बड़ा हुआ तो पोते-पोती की सेवा में जुट गई। बहू मान्या दफ़्तरी ओहदे पर आसीन थी;  जन सेवा छोड़ गृह सेवा करने वाली थी नहीं। भली थी उसकी बीवी या बेवकूफ़, जो अच्छी-भली नौकरी छोड़, आदर्श माँ बनने के जंजाल में एक नहीं, दो पीढ़ियों तक फँसी रही? ध्रुव की शादी के बाद, नितिन ने कई बार तजवीज़ रखी कि जवान जोड़ा अपनी गृहस्थी अलग बसाए, अधेड़ दम्पत्ति अलग। पर मान्या ने इतने स्नेहिल और विनीत भाव से मनुहार की, "प्लीज़-प्लीज़ हमारे साथ रहिए, बच्चों को- जो एक के बाद एक तीन बरस में दो हो लिये- दादा दादी के संग-साथ की सख्त ज़रूरत होती है, ऐसा आजकल की तमाम मनोवैज्ञानिक स्टडीज़ कहती हैं।" उसकी विनय और अभ्यर्थना के सामने उसकी भोली पत्नी ही नहीं, खुर्राट दफ़्तरी बाबू ख़ुद वह नतमस्तक हो रहा। यह न समझा कि वे चले गये तो मान्या को नौकरी छोड़नी पड़ेगी या बच्चों की देखभाल के लिए ऊँची तनख्वाह पर हाउसकीपर रखनी पड़ेगी। आजकल कुछ कम ऊँचे ओहदे वाले आया को "हाऊसकीपर" और ज़्यादा ऊँचे ओहदे वाले "गवरनेस" कहते हैं। दादी को अलबत्ता ग्रेनी कहने भर से, बिला वेतन काम चल जाता है। अपने बचाव में वह कहे तो क्या। काफ़ी दिनों तक उसे भागवती भली ही लगी थी, बेवकूफ़ नहीं, जब रोज़ नाश्ते में भरवां पराँठा या मूँग दाल का चीला गरमागरम बना कर खिलाती। ध्रुव भी तारीफ़ करता न अघाता। मान्या बिला तारीफ़ किये गटकती रहती, इस नसीहत के साथ कि वह सेहतमंद खाने की श्रेणी में नहीं आता, फिर भी...भली थी उसकी बीवी जो पलट कर नहीं कहा,"भलीमानुस, तुम नहीं न खाओ, मैं तुम्हारे नहीं, अपने पति-पुत्र के लिए बना रही हूँ। तुम्हारे पुत्र-पुत्री के लिए तो ख़ैर मुफ़ीद होगा ही, आख़िर उनके खेलने-खाने के दिन हैं।" 

यह बाज़ार का पित्ज़ा और चाईनीज़ फ़्राईड राईस, चिली प्रौन वगैरह भागवती के जीवन-निवृत होने के बाद आने शुरु हुए थे। जब तक वह थी, नई पीढ़ी की फ़रमाईश पर, टी.वी के पाक-कला कार्यक्रमों से सीख, चाउमीन, चॉपसुई, पास्ता, प्रौन करी और जने क्या-क्या घर पर बना दिया करती थी। बहू कहती थी, सारा दिन ईडियट बॉक्स के सामने बैठी रहती हैं, बच्चे स्कूल से आएं तब बन्द कर दिया करें, अदरवाइज़ उन्हें भी रोग लग जाएगा। भली सास उनके आने से पहले बन्द किये रखती; बच्चे अपनी मर्ज़ी से भद्दे-भोंडे रियेलिटी शो लगा कर बैठ जाते तो वह ईडियट कैसे कहती कि पाक कला सीखना, इससे तो कम ईडियोसी का काम था। जब-तब बहू-बेटा ख़ूब विनीत भाव से कहते,"इनसे हिन्दी में बोला कीजिए प्लीज़ वरना दे विल टॉक ओन्ली इन इंग्लिश... ऑल्वेज़," इसलिए वह "इडियोसी" जैसे शब्द बोलने से परहेज़ रखती। यह दीगर है कि वह चाहे जितनी ख़ुशनुमा हिन्दुस्तानी बोलती, बच्चे जवाब अंग्रेज़ी में ही देते। उनके माँ-बाप भी उनसे फ़क़त अंग्रेज़ी में बात करते, जैसे वे इंग्लिस्तान, न-न अमेरिका की पैदाइश हों; इंग्लिस्तान के दिन कब के लद गये। एक दिन भागवती ने तो नहीं, नितिन सोलंकी ने ज़रूर कहा था,"अक्ल के अन्धों, तुम अपने बच्चों से ऐसे बात क्यों करते हो जैसे ये तुम्हारे अंग्रेज़ बॉस हों? सिर्फ़ नौकर और दादी ही रह गये हिन्दी बोलने को, जैसे साले गोरे साहबों के खानसामा या साईस?" जवाब में बहू तो बहू, बेटा भी पीछे पड़ गया था कि ऐसी "लेन्गुएज" मत बोलिए, बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। बेटे को क्या दोष दे, शादी होते ही तमाम जवान मर्दों की अक्ल घास चरने चली जाती है और बीवी के जवान रहने तक, जो आजकल शौहर की निस्बत ज़्यादा बरस रहती हैं, वापस नहीं लौटती। ध्रुव अकेले थोड़ा था। ख़ुद नितिन की भी गई थी न, गार्डन या पार्क न सही, नुक्कड़ की बगिया में। बस उसकी जवान बीवी ज़्यादा दिन जवान रही नहीं। समय से पहले रिटायर हुई, समय से पहले बुढ़ाई और समय से पहले निवृत हो गई।

उसका बनाया "चाऊ-साऊ" ख़ा कर मान्या कहती तो थी, चाईनीज़ शेफ़ जैसा नहीं बना पर पैसे की बचत के चलते, समझौता करने को राज़ी हो जाती और न-न करते, काफ़ी हिस्सा चट कर जाती। उसकी भली बीवी के लिए कम ही बचता पर उसकी सेहत के लिए ठीक भी तो नहीं था न; और नई चाल के व्यंजनों का उसे शौक़ भी नहीं था। उससे किसी ने पूछा नहीं था, वह भी भला पूछने की बात थी? औरों को छोड़ो, ख़ुद उसने नहीं पूछा था। बचा-खुचा अपनी प्लेट में न डाल, उसे आदर्श माँ-दादी के साथ अच्छी पत्नी होने के सौभाग्य से वंचित क्योंकर करता!       

भागवती के बाद अकेला पड़ गया तो ध्रुव के पास बना रहा, अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास तब तक मिट चुका था। ध्रुव के ऊँचे ओहदे की वजह से ही, सेवा निवृत नितिन सोलंकी, आई.आई.सी से सटे भव्य लोदी गार्डन की बेन्च पर बैठने का सौभाग्य पा सका। उसका बंगला पास ही काका नगर में था। उसके बेचारे साथी, डी.डी.ए की एस.एफ़.एस या एम.आई.जी कालोनी में बने छुट्टभइया पार्क की बेआराम बेन्च पर बैठने को अभिशप्त थे। बेचारे वे थे या नितिन? वे पाँच-छह के गोल में, देश के बिगड़ते हालात और नई पीढ़ी की बढती उच्छृंकलता की निन्दा करके वक़्त ज़ाया करते। लम्बे-चौड़े-हवादार लोदी गार्डन में हरियाली और आरामदेह बेन्च ज़रूर थीं पर नितिन को वक़्त अकेले ज़ाया करना पड़ता था। शनिवार-रविवार को झुन्ड के झुन्ड लोग पिकनिक मनाने आते पर नितिन की हलो का जवाब तक देना गवारा न करते। बाक़ी शाम, ट्रैक सूट में लैस जॉगर्स या वॉकर्स से बतियाने का सवाल ही नहीं उठता था। वॉक यानी सैर नितिन भी करता था, मद्धिम चाल चलतों से हाई-हलो हो जाती पर ऐसे लोग वहाँ कम आते थे। लोदी गार्डन के पास के बंगलों में सेवा निवृत बूढ़ों के रहने का चलन शायद नहीं था। ऊँचे ओहदेदार,  माँ-बाप का क्या करते थे, वह जान नहीं पाया पर इतना ज़रूर जानता था कि बेटे के सदस्य होने पर, बाप आई.आई.सी के लाउंज में नहीं बैठ सकता था। 

यानी उसकी औक़ात आई आई सी में बैठने की नहीं थी। दो-चार बार गया ज़रूर था। दुबारा दोस्तों की तलाश में निकले, हाल में सेवा निवृत हुए, एक ज़माने के साथी बाबू बी.के के साथ। अहमक़ नितिन सोलंकी ताउम्र बाबू बना रहा; चतुर सुजान बनवारी कपूर, पदोन्नति पर पदोन्नति कर, सेल्स विभाग में अफ़सर बी.के बन गया। उस मुकाम पर पहुँच कर उसे आई.आई.सी की जीवन-पर्यन्त सदस्यता मिल गई। सेल्स विभाग में जाने का निहितार्थ कौन नहीं समझता; मृदु-भाषी और चालाक होने के साथ, बी.के दुनियादार भी था, अभिधा में कहें तो बेईमान। 

पहली मर्तबा शनिवार की दुपहर, बी.के से मुलाक़ात औचक हुई थी, जब नितिन लोदी गार्डन के गेट से अन्दर घुस रहा था। "चलो, वहाँ बैठते हैं," बी.के ने आई.आई.सी की तरफ़ इशारा करके कहा था। चलते समय उसका फ़ोन नम्बर माँगा तो उसने ध्रुव के घर का नम्बर दे दिया।

"यह तो लैन्ड लाइन है। मोबाइल नहीं है तेरे पास?" नम्बर अपने मोबाईल में भरते हुए बी.के ने पूछा था।

उसके न कहने पर हो-हो कर हँसते हुए कहा था,"मोबाईल तो आजकल भिखारियों तक के पास होता है। मेरे पास है न, कर लेना कभी भी। यहीं मिलेंगे।" हँसी के बावजूद, नितिन को बुरा लगा था; ईमानदार लोगों के साथ यही दिक़्क़त है, सच का बुरा मान जाते हैं। 

ऐसा नहीं था कि नितिन धर्मराज युधिष्ठिर का अवतार था। यूँ धर्मराज कौन कम दुनियादार थे। क्या ठाठदार झूठ बोला था कुरुक्षेत्र में, न सच न झूठ, एकदम बी.के की "सेल्स पिच" की तरह दुनियादार। सच यह था कि नितिन को ढंग से झूठ बोलना आता न था। कोशिश करता तो बनता काम बिगड़ जाता, बिगड़ा, बिगड़ा रहता ही। उससे बेहतर झूठ तो भोली भागवती बोल लेती थी, जो कटहल की तरी को चिकन तरी बतला कर परोस देती और किसी उल्लू के पट्ठे को ज़रा शक़ न होता। बजट में बचे पैसों से पकौड़े, टिकिया, दम आलू, कचौड़ी जैसे ग़ैर-सेहतमन्द देसी व्यंजन बना डालती, जिन्हें दुर-दुर करते, सब चट कर जाते। भागवती के लिए ज़रा-मरा ही बच पाता। क्या विडम्बना थी कि सभी तरह के देसी-विदेशी ग़ैर-सेहतमन्द खाने से ज़बरन परहेज़ कर, हैल्थ फ़ूड खा कर भागवती सबसे पहले परलोक सिधारी। नितिन समेत तमाम उल्लू के चरखे ग़लत खा कर भी अच्छे-भले हैं। बुरी बात, उसने अपने को दुत्कारा, गाली दे कर बात नहीं करनी चाहिए। 

"देनी नहीं, सिर्फ़ खानी चाहिए, हा-हा," तुरंत बी.के की आवाज़ आई। वह वहाँ नहीं था,  आई.आई.सी का जीवन पर्यन्त सदस्य, हरामज़ादा लाऊंज छोड़ उद्यान की बेन्च पर क्यों बैठता? आवाज़ उसके भीतर से आई थी, आजकल जब-तब बी.के भीतर घुस कर बोला करता है। अकेलेपन से निजात पाने का अच्छा तरीका है।

पहली मुलाक़ात के बाद, कुछ दिन तक नितिन बुरा माने इंतज़ार करता रहा कि बी.के फ़ोन करेगा। नहीं किया तो जब मय परिवार ध्रुव छुट्टी मनाने दिल्ली से बाहर था, एक कटखनी अकेली शाम, उसी ने बी.के का नम्बर मिलाया। 

"आ जा कल ग्यारह बजे, मैं बाहर दरवाज़े पर मिल जाऊंगा," उसने कहा। 

"ग्यारह नहीं, शाम पाँच बजे," नितिन ने कहा; अगले दिन ध्रुव को लौटना था। "दिन में कामवालियाँ आती-जाती रहती हैं, शाम को बच्चों के लौटने पर ही आ पाऊंगा।" बी.के मान गया था। नितिन ने थोड़ा झूठ बोला था। कामवाली रहती पूरा वक़्त घर पर थी पर दुपहर को आराम करती थी। आमतौर पर वह मान्या-ध्रुव के घर लौटने पर, छह-सात बजे बाहर निकलता था। लोदी गार्डन आठ बजे तक खुला रहता था। पर चाहता तो पाँच बजे निकल सकता था।

"लाईफ़ मेम्बर होने के बहुत फ़ायदे हैं," बी.के ने उसे समझाया था। "ख़ुराफ़ात में पड़ने पर सालाना सदस्य की सदस्यता आसानी से खत्म की जा सकती है, लाईफ़ मेम्बर की करो तो सवाल उठना लाज़िमी है कि लाईफ़ मेम्बर बनाया क्या सोच कर था?" 

इसीलिए आई.आई.सी ज़्यादातर बूढ़ों को ज़िन्दगी भर के लिए सदस्य बनाता है, ख़ुराफ़ात में पड़ने का डर लगभग खत्म हो चुका होता है; ज़्यादा ज़िन्दा रहने का भी।" 

"और इसीलिए, "नितिन ने हाज़िरजवाबी में पहली बार बी.के को मात दे कर कहा था, "वे आराम से ख़ुराफ़ात करते रह सकते हैं और जीते भी ज़्यादा हैं।"

भागवती के गुज़रने के बाद वह समझ गया था कि गैर-ख़ुराफ़ाती जन, सेहतमन्द खाना खा कर भी कम जीते हैं। सोचा जाए तो भागवती थी भागवान, जल्दी सिधारी तो उसकी तरह पार्क की में बैठ या घूम कर अकेली शामें गुज़ारने की नौबत न आई। सोचा जाए, और करने को था क्या नितिन के पास, सोचने के सिवा, बेन्च पर बूढ़े ज़्यादा दीखते थे, बुढ़ियें निस्बतन कम। तर्कसम्मत था। चूंकि हिन्दुस्तानी मर्द, औरत की तरह घर के काम में हाथ नहीं बंटा पाता, इसलिए बुढ़ापे में उसका मूल्य और कम हो जाता है। घर का काम, एकमात्र काम है, जिससे बन्दा कभी रिटायर नहीं होता। अजब शै है हिन्दुस्तानी मर्द। सारी उम्र औरत के भरोसे राज करके इतना निकम्मा हो जाता है कि बुढ़ापे में भरवां पराठा या मूँग दाल का चीला दूर, रोटी-दाल-पुलाव पका कर भी घर के लिए ज़रूरी नहीं बना रह सकता। हद से हद पोते-पोती की उंगली पकड़ या बच्चा गाड़ी ठेल, घुमाने ले जा सकता है या फल-तरकारी की खरीदारी कर सकता है। नितिन के पोते-पोती उतने छोटे नहीं थे कि घुमाने ले जाए जा सकें। घर पर रह्ते भी उनसे बात कम होती थी। अब वे टी.वी छोड़, कम्प्यूटर पर यूट्यूब में उत्तेजक फ़िल्में देखते हैं। माँ-बाप, चुगद, इतने ऊँचे ओहदों पर पहुँच लिये कि बच्चे क्या कर रहे हैं, देखने का वक़्त नहीं है। परदे के पीछे खड़े रह कर एक बार उसने एक फ़िल्म के कुछ दृश्य देखे थे, पल भर को सोचा, ब्ल्यू फ़िल्म इसी को कहते हैं क्या? पर इतना गब्दू नहीं था। जल्द समझ गया कि उसके ज़माने में इस ख़ुराफ़ात को सनसनीखेज़ भले मान भी लिया जाता, वाक़ई ब्ल्यू फ़िल्म वह नहीं थी। फिर भी व्यस्क ज़रूर थी, कुछ ज़्यादा ही व्यस्क। स्कूली बच्चों के माक़ूल बिल्कुल नहीं। पर उसने कुछ कहा नहीं था। जानता था,बच्चे दुनियादारी में उससे इक्कीस थे। धर्मराज और बी.के को मात दे, इस सफ़ाई से आधा झूठ बोलते थे कि माँ-बाप शेखी बघारते फिरते थे कि हमारे बच्चे वेब पर खोज-खोज कर ऊँची तालीम के गुर सीख रहे हैं, देखना, बोर्ड में अठानवे-निनानवे फ़ीसद नम्बर लाएंगे। नहीं, वह नितिन के शब्द हैं, वे नाइन्टी एट-नाइन्टी नाईन परसेन्ट कहते थे, रुतबेदार ठहरे।  

दिन में वह कभी-कभार टी.वी पर फ़िल्म या ख़बरें देख लेता पर उसकी अनेक कमियों में से एक यह थी कि उसे टी.वी भाता नहीं था। ख़बरें अख़बार में पढ़ना पसन्द करता और फ़िल्म साथ बैठ कर देखना, सो बुद्धू बक्से के आगे बमुश्किल आधा घन्टा गुज़ार पाता। क़िताबें ख़ूब पढ़ता, पहले वक़्त नहीं मिला था, पर जने क्यों चुगद उतने से खुश नहीं रह पाता। वैसे उतना चुगद भी नहीं था। मान्या ने कहा-भर था कि बुढ़ापे में सेहत के लिए लम्बी सैर ज़रूरी है, वह तत्काल इशारा समझ, संग-साथ की चाह भीतर घोटे, बेटे-बहू को एकान्त देने की खातिर, शामें पार्क में टहलते या बेन्च पर बैठे गुज़ारने लगा था। शनिवार-रविवार को दिन का काफ़ी वक़्त भी। लोदी गार्डन में हरियाली के चलते गरमी-सरदी कम महसूस होती थी।               

बी.के से दूसरी मुलाक़ात, शाम पाँच बजे हुई तो सात बजे वह उठ खड़ा हुआ। बोला, "चलूँ वरना बस नहीं मिलेगी। और हाँ, जब मिलना हो मेरे मोबाईल पर मिस्ड कॉल दे देना, मैं अगले दिन पाँच बजे आई.आई.सी के दरवाज़े पर मिल जाऊंगा। इन्कमिंग फ़्री है, तेरा पैसा भी नहीं लगेगा।"

घनचक्कर! समझता क्या है, उसे फ़ोन करने की मनाही है! ध्रुव इतना बड़ा अफ़सर है, फ़ोन के बिल सरकर भरती है। नितिन वापस लोदी गार्डन पहुँचा तो उड़ते से ख़याल आये कि बी.के बस में सफ़र क्यों करता है, उसके पास तो गाड़ी थी, वह भी एस्टीम। और दोनों बार मिलने पर एक चाय मंगा, दो प्यालों में उडेल, टरका दिया था, कुछ खिलाया न था। ख़ासा खुला हाथ रखने वाला, सेवा निवृत बुढ़ऊ इतना कंजूस हो लिया! खाने को घर पहुँच, भूसा-छाप कुछ खा ही लेगा पर आई.आई.सी लाऊंज के बाहर क़तार से सजे पेस्ट्री-पैटी देख, जी ललचा उठा था। बुरा हो, न-न भला हो, भागवती का, तरह तरह के व्यंजन पकाना सीख, अला-बला खाने का स्वाद पैदा कर गई। अपने लिए खरीदने लायक पैसा था उसके पास पर कमबख्तों ने पट्टा लगा रखा था, सिर्फ़ सदस्यों के लिए। अगली बार बी.के से कहेगा, वह साइन कर दे, पैसे नितिन दे देगा। पर जानता था कह नहीं पाएगा। ऐसे ही थोड़ा न, पूरी उम्र बाबूगिरी करते गुज़ारी थी।    

कुछ मुलाक़ातें और हुई थी। 

थोड़े दिन बाद, बी.के ने कहा था, "तू ख़ुशक़िस्मत है जो तेरी बहू दफ़्तर में काम करती है। दिन भर आराम से पाँव पसार घर में पड़ा रह सकता है, कूलर-शूलर चला कर। मेरी बहू घर से काम करती है, सो सारा दिन घर बैठी, गाहक निबटाती है।"

"हैं!" उसे ठिठोली सूझी थी, "गाहक! चकला चलाती है क्या?" वह फुसफुसाया था।

बी.के ठहाका मार हँस दिया था। कम ईमानदार लोगों की यही सिफ़्त है, ज़िन्दादिल होते हैं, मज़ाक का बुरा नहीं मानते। कहा था, "नहीं यार, उदारवादी युग की देन है। घरका नहीं, घरसे काम करो। औरतें उसका ज़्यादा फ़ायदा उठाती हैं। बहुत से पेशे हैं, मेरी बहू डाईटिशयन है। मतलब समझते हो, गाहकों को घर बुला, सलाह देती है, क्या खायें क्या नहीं, जिससे मोटापा घटा कर, तन्दरुस्त, छरहरे और जवान बने रहें।"

"पर तेरी बहू तो ख़ासी मोटी तन्दरुस्त है।" 

"यही तो मौज है। सलाह देनी होती है, आज़माइश नहीं करनी होती। मोटी फ़ीस वसूल कर घर से काम करने में घर का काम करने को वक़्त नहीं मिलता। ख़ुद बाहर से मँगा कर खाते हैं, दूसरों को मट्ठा पीने की सलाह देते हैं।"

"घर पर बना कर?"   

"नहीं यार, बाहर से मंगा कर। हैल्थ फ़ूड की अब पूरी की पूरी इन्डस्ट्री है।"

"तेरी मौज है, खाया कर दबा कर जन्क! मुझे तो रोज़ भूसा खाना पड़ता है।"  

"गाहकों के आने पर उसे मेरा घर रहना पसन्द नहीं। इसीलिए सुबह नाश्ते के बाद से यहाँ आई.आई.सी में आकर बैठ जाता हूँ।"

"क्यों, तू उन्हें आँख मारता है?"

"मारता तो एतराज़ न होता। पर ...मैं... काफ़ी बूढ़ा दिखता हूँ..."उसकी आवाज़ घीमी पड़ती  गुम हो गई। 

नितिन ने ग़ौर किया, पहले ध्यान नहीं दिया था, उसकी निस्बत बी.के ज़्यादा बूढ़ा दीखता था। शायद मान्या के खिलाये भूसे की मेहरबानी हो! नहीं, वह तो कुछ दिनों से मिलना शुरु हुआ है। बरसों भागवती के हाथ के तरमाल पर जिया है। 

"हम ससुरे बूढ़े नहीं तो क्या होंगे।"

"वह जवान बनाये रखने का दावा करती है। उसके पेशे में..."

नितिन हँसी न रोक पाया, बोला,"ससुरों को भी?" 

"यह उदारवाद का ज़माना है," एक ठसकेदार आवाज़ आई, "हम सब ऋणी हैं राजीव गान्धी के।" 

आवाज़ बी के की नहीं थी, पास की मेज़ से आई थी।

"हैं!" नितिन ने हँस कर कहा,"उदारवाद भी जवानी पसन्द है?"    

बी.के न हँसा, न मज़ाकिया जवाब हाज़िर किया। खसखसी आवाज़ में मिमियाया,"हाँ हम सब ऋणी हैं।" 

ज़िन्दादिली चुक गई क्या...तो ईमानदारी जग गई होगी?

नितिन ने ही कहा, "मुँह क्यों लटका रखा है? रोज़ इतनी ठाठदार जगह खाता है और देख यहाँ हैल्थ फ़ूड भी मिलता है।"   

"यहाँ खाने की मेरी औक़ात नहीं है," वह फुसफुसाया।

हद हो गई! उसकी इमानदारी जग गई या धर्मराजी झूठ बोल रहा था?

"क्या बक रहा है यार, तेरे पास भतेरा पैसा था।" उसके गृहप्रवेश में भागवती जैसी सात्विक औरत भी रश्क से कसमसा उठी थी,"कितना बढ़िया मकान बनवाया था।"

"कर्ज़ ले कर।"

"वह तो सभी लेते हैं।"

"राजीव गान्धी ने बाज़ार का उदारीकरण न किया होता तो हम इतने उद्योग-धन्धे न लगा पाते थे?" बराबर से आवाज़ फिर गूँजी।  

"सुना?" नितिन ने कहा। 

"हाँ। पहले सिर्फ़ सटोरिये दिवालिया होते थे, अब हर आदमी को यह सुविधा है," बी.के बुदबुदाया।

"चलें?" नितिन ने इस बिन नशे बड़बड़ाहट से बचने-बचाने को कहा।

"नहीं सुन ले। मैंने यह सोच कर मकान बनवाया था कि जब तक कर्ज़ चुकता होने तक उसे किराये पर चढ़ा देंगे, फिर उसमें रहेंगे। पर बच्चे नहीं माने । कहने लगे लोन का क्या है, ई.एम.आई देते रहेंगे, सब तो कमा रहे हैं। कमाया सबने, माहवारी किस्त दी सिर्फ़ मैंने। एक लड़का अमेरिका चला गया, उसका हमारी किसी बात से सरोकार न रहा। बेटी की शादी ज़्यादा पैसेवालो से कर दी, समझ कि लुट लिया। बचा अमित। उसकी सलाह पर कई बिज़नेस किये, लोन मिलना इस क़दर आसान था कि पाँव चादर से बाहर क्या पसारे, चादर दिखनी बन्द हो गई। जितनी आसानी से कर्ज़ दिया था, उतनी ही आसानी से साहूकार अदायगी में ओढ़ना-बिछौना उठा ले गये। जो कतरन बचीं, बीमारी में खर्च हो गईं। मैं दिवालिया हो गया। मकान बच रहा क्योंकि पहले ही अमित ने खरीद लिया था। अब मैं हूँ और आई.आई.सी की सदस्यता। जिस-तिस की मेज़ पर बैठ जाता हूँ, एकाध प्याले चाय का जुगाड़ हो जाता है।"

"बीमारी क्या हुई थी?"

"कैंसर। अब ठीक हूँ।"

"उदारीकरण का करिश्मा है कि आम हिन्दुस्तानी की औसत उम्र इतनी बढ़ गई। हर तरह की देसी-विदेशी चिकित्सा उपलब्ध है," बराबर की मेज़ चिहुंकी।

"भूतपूर्व मंत्री हैं," बी.के ने मरी आवाज़ में कहा,"कौन जाने कब भूत भविष्य बन जाए, मस्का लगाने की आदत बनाये रखनी पड़ती है।" 

नितिन की समझ में नहीं आया क्या कहे। तभी बैरा बिल ले आया। कुल नौ रुपये का था। सुस्त भाव से बी.के ने हस्ताक्षर कर दिये। बैरा चला गया तो नितिन ने बी.के का हाथ थाम कर कहा, "बुरा न माने तो एक बात कहूँ। पैसे मुझे देने दे। साइन तू कर पर..." जेब से दस का नोट निकाल उसे थमाते हुए जोड़ा, "हम मिलते रहेंगे,मुझे गरमी-सरदी बगीचे में बैठने में कष्ट होता है। यहाँ ए.सी है। और सुन, एक वैज पैटी मँगा ले, शेयर कर लेंगे।"

बी.के सहसा कम बूढ़ा लगने लगा। बोला,"कितना इंतज़ार करवाया यार तूने...अक्ल की बात सुनाने में।"
मृदुला गर्ग

वर्तिका नन्दा की कवितायेँ : Vartika Nanda ki Hindi Kavita


अच्छे दिन आ गए हैं

सत्ता बदल गई है
आवाजें भी, चेहरे भी
शब्दनाद भी, शंखनाद भी
सत्ता के गलियारे में
नए दमकते चेहरों की आमद हुई है
हर सत्ता
कुछ प्रार्थनाओं के तीर्थ में ही
सपनों को यथार्थ बना पाती हैं
लेकिन
देहरी से बाहर फेंक दी जाती हैं जब प्रार्थनाएं
तो उन्हें आहों का गोला बनने में भी समय कहां लगता है
सत्ताएं जब अच्छे दिनों की बातें करती हैं
मन की कंपन भी उत्साह से बढ़ती है आगे
घर के सामने के पेड़ से झर चुके पत्ते भी
जी उठना चाहते हैं फिर से
डरा मन
झूमने लगता है उम्मीदों के भरे-भरे बादलों से
पर औरतें अच्छे दिनों के वादे से सहरती भी हैं
दिन जो भी हों, बस,
भरोसा और इज्जत बनाए रखें
चूल्हे की रोटी
मन की शांति
फरेब से मुक्ति
आसमान का एक टुकड़ा मुट्ठी में भर
चांद से बचपन की कहानी कह सकने
और मारे जाने की धमकी से
बची रहे अगर मजबूर औरत की मजबूती
तो अच्छे दिन दूर कहां

उम्मीदों से भरे दिन
कितने अच्छे होते हैं दिन


वो हैं यूपी के राजा  

पेड़ पर दो लड़कियों के शव लटके हुए मिले
उनके साथ बलात्कार हुआ था
फिर उन्हें मार डाला गया –
यह टीवी और अखबार की खबर है
कोई भी खबर
असल में खबर का सिर्फ सिरा ही तो देती है
उससे आगे कहां जा पाती है वो
खबर कहां बता पाई बदायूं की उन दो लड़कियों का दर्द
खबर कहां कह पाई कि बड़े नेता ने कुछ ही दिन पहले कहा था
लड़कों से हो जाती हैं गलतियां
इन लड़कियों के शरीर से बाहर रिसते
भीगे दुख के बावजूद
पत्थर ही बने रहे बड़े नेता के साहबजादे
जब लड़कियां लटका दी गईं सीधे पेड़ के ऊपर
और पेड़ की मिट्टी में दबा दी गई
उनके परिवार की हंसी की अगरबत्तियां
तब सियासत गाती रही अपने पुराने पिटे हुए गान
लड़कियां लटकी रहीं पेड़ पर
पुलिस पूछती रही जात
पिटती रही मां
और धर्म और शर्म
घूंघट लिए खड़े रहे चौराहे के सामने लगे लोकतंत्र के पेड़ के नीचे।
यह लड़कियां ही नहीं हैं
जिनके लटके पड़े हैं शव
यह भविष्य हैं उन लड़कियों का जिनके पिता न नौकरशाह, न नेता
ये शव तमाचा हैं
उन सरकारी पोस्टरों पर
जो कहते हैं – लड़कियां इस देश की धरोहर हैं
जो हाथ इन लड़कियों को लटका गए होंगे पेड़ पर
उन पर थूकने का भी मन नहीं
बेवजह बर्बाद होगा थूक
पर हां, बेकार नहीं जाएंगीं
इन लड़कियों की घोंटी हुई चीखें
यह याद रखना।

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