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20 तारीख को लेखकों-संस्कृतिकर्मियों की प्रतिरोध-सभा

आज़ादी और विवेक के पक्ष में प्रलेस, जलेस, जसम, दलेस और साहित्य-संवाद का साझा बयान
और आगामी कार्यक्रमों की सूचना
 
 
 
देश में लगातार बढ़ती हुई हिंसक असहिष्णुता और कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ पिछले कुछ समय से जारी लेखकों के प्रतिरोध ने एक ऐतिहासिक रूप ले लिया है. 31 अगस्त को प्रोफेसर मल्लेशप्पा मादिवलप्पा कलबुर्गी की हत्या के बाद यह प्रतिरोध अनेक रूपों में प्रकट हुआ है. धरने-प्रदर्शन, विरोध-मार्च और विरोध-सभाएं जारी हैं. इनके अलावा बड़ी संख्या में लेखकों ने साहित्य अकादमी से मिले अपने पुरस्कार विरोधस्वरूप लौटा दिए हैं. कइयों ने अकादमी की कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दिया है. कुछ ने विरोध-पत्र लिखे हैं. कई और लेखकों ने वक्तव्य दे कर और दीगर तरीक़ों से इस प्रतिरोध में शिरकत की है.
 
दिल्ली में 5 सितम्बर को 35 संगठनों की सम्मिलित कार्रवाई के रूप में प्रो. कलबुर्गी को याद करते हुए जंतर-मंतर पर एक बड़ी प्रतिरोध-सभा हुई थी. इसे ‘विवेक के हक़ में’ / ‘इन डिफेन्स ऑफ़ रैशनैलिटी’ नाम दिया गया था. आयोजन में भागीदार लेखक-संगठनों – प्रलेस, जलेस, जसम, दलेस और साहित्य-संवाद -- ने उसी सिलसिले को आगे बढाते हुए 16 सितम्बर को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें उनसे यह मांग की गयी थी कि अकादमी प्रो. कलबुर्गी की याद में दिल्ली में शोक-सभा आयोजित करे. विश्वनाथ त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान, रेखा अवस्थी, अली जावेद, संजय जोशी और कर्मशील भारती द्वारा अकादमी के अध्यक्ष से मिल कर किये गए इस निवेदन का उत्तर बहुत निराशाजनक था. एक स्वायत्त संस्था के पदाधिकारी सत्ता में बैठे लोगों के खौफ़ को इस रूप में व्यक्त करेंगे और शोक-सभा से साफ़ इनकार कर देंगे, यह अप्रत्याशित तो नहीं, पर अत्यंत दुखद था. अब जबकि अकादमी की इस कायर चुप्पी और केन्द्रीय सत्ता द्वारा हिंसक कट्टरपंथियों को प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीके से दिए जा रहे प्रोत्साहन के खिलाफ लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने से लेकर त्यागपत्र और सार्वजनिक बयान देने जैसी कार्रवाइयां लगातार जारी हैं, यह स्पष्ट हो गया है कि लेखक समाज इन फ़ासीवादी रुझानों के विरोध में एकजुट है. वह उस राजनीतिक वातावरण के ख़िलाफ़ दृढ़ता से अपना मत प्रकट कर रहा है जिसमें बहुसंख्यावाद के नाम पर न केवल वैचारिक असहमति को, बल्कि जीवनशैली की विविधता तक को हिंसा के ज़रिये कुचल देने के इरादों और कार्रवाइयों को ‘सामान्य’ मान लिया गया है.
  
विरोध की स्वतःस्फूर्तता और व्यापकता से साफ़ ज़ाहिर है कि इस विरोध के पीछे निजी उद्देश्य और साहित्यिक ख़ेमेबाज़ियाँ नहीं हैं, भले ही केन्द्रीय संस्कृति  मंत्री ऐसा आभास देने की कोशिश कर रहे हों. इस विरोध के अखिल भारतीय आवेग को देखते हुए मंत्री का यह आरोप भी हास्यस्पद सिद्ध होता है कि विरोध करने वाले सभी लेखक एक ही विचारधारा से प्रेरित हैं, कि वे सरकार को अस्थिर करने की साज़िश में शामिल हैं. सब से दुर्भाग्यपूर्ण है उनका यह कहना कि लेखक लिखना छोड़ दें, फिर देखेंगे. लेखक लिखना छोड़ दें -- यही तो दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी के हत्यारे भी चाहते हैं. केंद्र सरकार इन हत्याओं की निंदा नहीं करती, लेकिन प्रतिरोध करने वाले लेखकों की निंदा करने में तत्पर है. इससे यह भी सिद्ध होता है कि मौजूदा राजनीतिक निज़ाम के बारे में लेखकों के संशय निराधार नहीं हैं. ये वही संस्कृति मंत्री हैं, जिन्होंने दादरी की घटना के बाद हत्यारी भीड़ को चरित्र  का प्रमाणपत्र  इस आधार पर दिया था कि उसने हत्या करते हुए शालीनता बरती थी और एक सत्रह साल की लडकी को छुआ तक नहीं था. लम्बे अंतराल के बाद, स्वयं राष्ट्रपति के हस्तक्षेप करने पर, प्रधानमंत्री ने चुप्पी तोड़ी भी तो उसमें उत्पीड़क और पीड़ित की शिनाख्त नहीं थी. उसमें सबके लिए शांति के उपदेश के सिवा और कुछ न था. सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष बिहार के चुनावों के दौरान लगातार  बयान दे रहे हैं कि दादरी के तनाव का असली कारण पुलिस की 'एकतरफ़ा' कार्रवाई है. यह सुनियोजित भीड़ द्वारा की गयी हत्या के लिए मृतक को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश नहीं तो और क्या है!  
 
लेखकों ने बार बार कहा है कि उनका विरोध किसी एक घटना या एक संस्था या एक पार्टी के प्रति नहीं है. उनका विरोध उस राजनीतिक वातावरण से है जिसमें लेखकों को, और अल्पसंख्यकों तथा दलितों समेत समाज के सभी कमज़ोर तबकों को, लगातार धमकियां दी जाती हैं, उन पर हमले किए जाते हैं, उनकी हत्या की जाती है और सत्तातंत्र रहस्यमय चुप्पी साधे बैठा रहता है. कुछ ही समय पहले तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन को इन्हीं परिस्थितियों में विवश हो कर अपनी लेखकीय आत्महत्या की घोषणा करनी पड़ी थी. ऐसे में साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त संस्थाओं की ज़िम्मेदारी है कि वे आगे आयें और नागरिक आज़ादियों के दमन के इस वातावरण के विरुद्ध पहलक़दमी लें. हम लेखक-संगठन लेखकों के इस विरोध अभियान के प्रति अपनी एकजुटता व्यक्त करते हैं. हम साहित्य अकादमी से मांग करते हैं कि वह न केवल इस दुर्भाग्यपूर्ण वातावरण की कठोर निंदा करे, बल्कि उसे बदलने के लिए देश भर के लेखकों के सहयोग से कुछ ठोस पहलकदमियां भी ले.
 
लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के इस विरोध की एकजुटता को अधिक ठोस शक्ल देने के लिए हमने आनेवाली 20 तारीख को ‘आज़ादी और विवेक के हक़ में प्रतिरोध-सभा’ करने का फ़ैसला किया है. प्रतिरोध-सभा उस दिन अपराह्न 3 बजे से प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के सभागार में होगी. 23 तारीख को, जिस दिन साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी की बैठक है, हम बड़ी संख्या में श्रीराम सेन्टर, सफ़दर हाशमी मार्ग से रवीन्द्र भवन तक एक मौन जुलूस निकालेंगे और वहाँ बैठक में शामिल होने आये सदस्यों को अपना ज्ञापन सौंपेंगे, ताकि अकादमी की कार्यकारिणी मौजूदा सूरते-हाल पर एक न्यायसंगत नज़रिए और प्रस्ताव के साथ सामने आये.
 
 
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ)
अली जावेद (प्रगतिशील लेखक संघ)
अशोक भौमिक (जन संस्कृति मंच)
हीरालाल राजस्थानी (दलित लेखक संघ)
अनीता भारती (साहित्य संवाद)

'अभिनेत्री' विनोद भारद्वाज की चर्चित #कहानी | 'Abhinetri' a story by Vinod Bhardwaj


अभिनेत्री

             ~ विनोद भारद्वाज

कहानी
विनोद भारद्वाज की चर्चित कहानी 'अभिनेत्री' | 'Abhinetri' a story by Vinod Bhardwaj


वह बहुत आकर्षक थी। आज की भाषा में बोल्ड ऐंड ब्यूटीफुल। सेक्सी। उस जमाने में हम उसे ‘मॉडर्न’ समझते थे - अवां गार्द। बिंदास। वह अभिनेत्री थी। सुंदर थी। सिग्रेट पीती थी। जींस पहनती थी। इन दिनों तो ऐसी लड़कियां छोटे शहरों में भी मिल जाएंगी। लेकिन आज से तीस साल पहले के बरेली की कल्पना कीजिए। अनुराधा हम जैसे ‘बुद्धिजीवी वर्ग’ के नए रंगरूपों के लिए एक सनसनी की तरह थी। मैं तो उसे बस देखता ही रह जाता था।

उन दिनों एक कवि मित्र मुझसे कहता था, ‘‘अमां, नरेश, हमने तो तय कर लिया है। शराब या सिग्रेट तभी छुएंगे जब कोई त्रिपुर सुंदरी ऑफर करेगी। वरना ये चीजें शरीफ लोगों के हाथ लगाने लायक नहीं हैं।’’ यह कहकर वह कुछ अनोखी हिकारत से कॉलेज की लड़कियों की तरफ देखता था। पान से हमेशा उसके दांत रंगे रहते थे। भगवान जाने क्यों उसने अपनी कसम की सूची में शराब और सिग्रेट के साथ इस कम्बखत पान को कैसे छोड़ दिया था। बातचीत में हमारा ‘एस्थेटिक प्लेजर’ तो न बिगड़ता।

खैर, उस ‘निरीह कवि’ को मैंने कभी नहीं बताया कि एक शाम लाल लैंप की जादुई रोशनी में अनुराधा ने मुझे सिग्रेट ऑफर की। लेकिन मैंने मना कर दिया। उसने अपने प्यारे अंदाज में कहा, ‘‘साले, तुम घोंचू ही रहोगे क्या। चल एक बीयर का गिलास पी ले। मम्मा से डरता है न। जाते वक्त मैं तुझे इलायची खिला दूंगी। रात को दरवाजा खोलेगी, तो तू एक शानदार और सभ्य खुशबू के साथ घर में घुसेगा।’’

‘‘अनुराधा जी, क्या सचमुच मैं पी लूं? बहुत ज्यादा नशा तो नहीं आएगा।’’

अनुराधा के पति कुमार (अरे हां, वह बीस की थी और विवाहिता थी) ने मेरे लिए एक गिलास में बड़ी सफाई से बीयर भरी। मुझे उस वक्त यह बात कुछ खराब लग रही थी कि उस गिलास को अनुराधा ने मेरे लिए खुद क्यों नहीं बलाया। मैंने गटागट गिलास खाली कर लिया और झाग लगे कांच के गिलास को आंखों के सामने घुमाते हुए बड़ी देर तक अनुराधा को देखता रहा। वह मेरा आदर्श थी। उसकी छवि में मुझे एक साथ ग्रेटा गार्बो, मधुबाला, मर्लिन मनरो (उन दिनों अक्सर मुझे अपने एक प्रिय कवि की पंक्तियां याद आ जाती थीं- ‘मर्लिन मनरो, मेरी भव बाधा हरो!’) माता हारी (डच-इंडोनेशियन मूल की रहस्यमय नर्तकी जो जर्मन सीक्रेट सर्विस के लिए काम करने के जुर्म में मार दी गई थी) गीता बाली के मिलेजुले दर्शन हो जाते थे। उन दिनों स्टेज की किसी बड़ी एक्ट्रेस का नाम मैं जानता नहीं था। सीकरी या उत्तरा वावकर के नाम जब कुछ साल बाद सामने आए, तो मेरा अनुराधा से मोहभंग हो चुका था। उसने अपने ‘पहले प्यार’ कुमार से तलाक ले लिया था। और उन दिनों तो उसे मेरा नाम सुनना भी पसंद नहीं था।

लेकिन यह बात तब की है जब मैं सत्रह साल का था। अनुराधा मुझसे तीन साल बड़ी थी। बरेली में एक नाटक में अपने अभिनय से उसने तहलका मचा दिया था। कुमार उसे इतिहास पढ़ाते थे। दोनों का तूफानी प्रेम हुआ। उनकी शादी के कॉलेज में कई किस्से मशहूर थे। मैं जब इस ‘अवां गार्द’ पति-पत्नी के महान संपर्क में आया, तो उनकी शादी हो चुकी थी।

कुमार अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था। अनुराधा कभी-कभी उससे कहती, ‘‘साले, मुझसे इतना प्यार न करो। पछताओगे।’’

कवि, उपन्यासकार, फिल्म और कला समीक्षक विनोद भारदवाज का जन्म लखनऊ में हुआ था और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की नौकरी क़े सिलसिले में तत्कालीन बॉम्बे में एक साल ट्रेनिंग क़े बाद उन्होंने दिल्ली में दिनमान और नवभारत टाइम्स में करीब 25 साल नौकरी की और अब दिल्ली में ही फ्रीलांसिंग करते हैं.कला की दुनिया पर उनका बहुचर्चित उपन्यास सेप्पुकु वाणी प्रकाशन से आया था जिसका अंग्रेजी अनुवाद हाल में हार्परकॉलिंस ने प्रकाशित किया है.इस उपन्यास त्रयी का दूसरा हिस्सा सच्चा झूठ भी वाणी से छपने की बाद हार्परकॉलिंस से ही अंग्रेजी में आ रहा है.इस त्रयी क़े  तीसरे उपन्यास एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा को वे आजकल लिख रहे हैं.जलता मकान और होशियारपुर इन दो कविता संग्रहों क़े अलावा उनका एक कहानी संग्रह चितेरी और कला और सिनेमा पर कई किताबें छप चुकी हैं.कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार क़े अलावा आपको संस्कृति सम्मान भी मिल चुका है.वे हिंदी क़े अकेले फिल्म समीक्षक हैं जो किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जूरी में बुलाये गए.1989 में उन्हें रूस क़े लेनिनग्राद फिल्म समारोह की जूरी में चुना गया था.

संपर्क:
एफ 16 ,प्रेस एन्क्लेव ,साकेत नई दिल्ली 110017
ईमेल:bhardwajvinodk@gmail.com
दरअसल उन दिनों मैं अपने को अनुराधा का ‘सीक्रेट’ और ‘हार्मलेस’ किस्म का प्रेमी मानता था। अक्सर उनके घर में दावतें होती थीं। शहर के कई कवि, चित्रकार व लेखक, रंगकर्मी, संगीतकार, बुद्धिजीवी वहां मौजूद होते थे। मैं उन दावतों में ‘आश्चर्यलोक में एलिस’ की तरह बैठा होता था। अनुराधा की अदाओं का मैं बड़ा बारीक अध्ययन करता था और पार्टी के अंत में उसका मुझे इलायची खिलाना मेरे लिए एक विराट ‘इरॉटिक अनुभव’ था।

इस ‘इरॉटिक अनुभव’ के अद्भुत आलोक में मैं घर लौटता था। मां डांटती थी। मैंने एक उभरते हुए पेंटर की शैली के फ्रैंचकट दाढ़ी बढ़ा ली थी। मुझे डर लगता था कि कहीं मेरी मां किसी दिन गुस्से में मेरी इस कलात्मक दाढ़ी को न नोच ले। और उसे इलायची की खुशबू का रहस्य पता चल जाए।

अनुराधा के घर की दावतों का मुझे कुछ ऐसा चस्का लग गया था कि कभी-कभी मैं कॉलेज की क्लास खत्म होते ही शिखर धूप में उनके घर के सामने सड़क के दूसरे तरफ छिप कर खड़ा हो जाता था। वे दोनों तीन बजे के आसपास रिक्शे पर घर लौटते थे। जब वे अंदर चले जाते, तो मैं शर्माता-झिझकता, किताबें गिराता-संभालता उनके घर की घंटी बजा देता था। वे लोग मुझे बहुत चाहते थे। कुमार अक्सर मेरे किताबी ज्ञान से आतंकित हो जाता था। मैं एक ही सांस में सार्त्र, काम्यू, विटगेंस्टाइन, जीवनानंद दास, मालरो, कारावेज्जियो, मजाज, भुवनेश्वर, माता हारी के नाम लेने की कला में माहिर था। लेकिन अनुराधा बड़ी बेरहमी से मेरा मजाक भी उड़ाती थी।

एक बार उन दिनों पटना में अखिल भारतीय बुद्धिजीवी सम्मेलन हुआ। दिल्ली की संस्कृति की दुनिया में मैंने भी एक हल्की सी दस्तक दे दी। एक निमंत्रण का जुगाड़ हो गया। बस, हमारा एक दल पटना पहुंच गया। झिझक के कारण में अनुराधा को कुछ बता भी न सका। लौटा, तो उसने मेरी अच्छी क्लास ली, ‘‘अच्छा तो साले, तुम सब बुद्धिजीवी हो गए हो। कितनी घटिया साउंड वाला शब्द है यह बुद्धिजीवी...’’

‘‘आप चाहें तो इंटेलेक्चुअल शब्द का इस्तेमाल कर सकती हैं...’’ 

‘‘कोई कम नकली शब्द नहीं है इंटेलेक्चुअल भी। तुम लोग कैसे अपने को बुद्धिजीवी कहने की हिम्मत जुटा लेते हो.... पाखंडी और नकली हो तुम बस लोग... कायर... फ्राड...’’

‘‘अनु डार्लिंग, क्यों तुम इस बेचारे के पीछे पड़ी हो। ऐसी जगहों पर जाना चाहिए। दिमाग खुलता है। बहसबाजी होती है। मैं तो इसकी उम्र में बड़ा दब्बू था।’’ कुमार ने यह कह कर मुझे थोड़ी राहत पहुंचाई।

कभी-कभी कुमार से मुझे एक विचित्र प्रकार की ईर्ष्या का भी अनुभव होता था। भला अनुराधा उसी से क्यों प्यार करे? फिर मुझे मन ही मन बड़ा अजीब सा डर महसूस होता था कि कहीं अनुराधा मुझे अपना छोटा भाई तो नहीं समझती है। भले ही वह प्यार कुमार से करे - हे ईश्वर, लेकिन मुझे अपना भाई न बना ले। यह मेरी गुप्त प्रार्थना थी।

मेरी कोई बहन नहीं थी। लेकिन मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि अनुराधा मुझे छोटे भाई का दर्जा दे। में उसका अच्छा दोस्त बनना चाहता था। और एक दिन मैंने उससे अपनी यह निरीह इच्छा बता भी दी। उसने बड़ी जोर से ठहाका लगाया। बोली, ‘‘तो तुम मेरे दोस्त बनना चाहते हो? साले, कहीं स्पेशल फ्रैंड बनने की कोई सीक्रेट डिजायर तो नहीं है मन में। कुमार तो तुम्हें बड़ा सीधा समझता है। पर मैं जानती हूं। तुम घुटे हुए बुद्धिजीवी हो। अच्छा तुम यह बताओ, कभी तुमने मास्टरबेशन किया है? कौन है तुम्हारी सपनों की रानी? कहीं मैं तो नहीं हूं?’’

‘‘आप भी बस.... अनुराधा जी.... समझिए न। कभी-कभी सपनों में मुझे मर्लिन मनरो दीखती है या फिर माता हारी...’’

‘‘साले, घोंचू, तुझे तो सपनों में अन्ना अखमतोवा दीखनी चाहिए। बुद्धिजीवी बनता है। सम्मेलनों में जाता है।’’

‘‘देखिए, उस सम्मेलन में मेरा जूता चोरी हो गया था। बड़ी महंगी पड़ी थी वह कॉन्फ्रेंस। फ्यूचर में मैं कभी ऐसी जगह नहीं जाऊंगा।’’

उस रात मैं काफी देर तक सोचता रहा कि अनुराधा ने मुझसे ‘मास्टरबेशन’ वाला सवाल क्यों किया? वह कैसे मेरे मन की अत्यंत गुप्त इच्छाओं, स्वैरकल्पनाओं के संसार में झांक लेती है? मैं उसके सामने सच बोलने का साहस क्यों नहीं जुटा सका?

कुमार की पार्टियों का मुझे इंतजार रहता था। काफी तैयारी करके जाता था मैं इन दावतों में। आज किसे ‘कोट’ करना है, किस किताब का फ्लैप पढ़ कर जाना है। अनुराधा का एक ‘कजिन’ किशोर अक्सर हम सबको मात दे दिया करता था। उसके पास एक फाक्सवैगन गाड़ी थी जो उस जमाने का एक अनोखा स्टेटस सिंबल थी। पीछे ‘एन्काउंटर’ जैसी किसी आधुनिक पत्रिका के अंक बिखरे पड़े रहते थे। कभी ‘न्यू लैफ्ट रिव्यू’, ‘कल्पना’, ‘माध्यम’ के अंक भी ‘वैरायिटी’ के लिए दीख जाते थे। किशोर लगभग हमारे लिए अज्ञात लेखकों और पुस्तकों के नाम एक विशेष अवसर पर एक उससे भी अधिक विशेष शैली में हवा में फेंक दिया करता था। अनुराधा को जब भी किशोर को चिढ़ाना होता था, तो वह ‘नेम ड्रॉपिंग’ को बाकायदा एक आकर्षक अभिनय के साथ जमीन पर ‘ड्रॉप’ करके दिखाती थी।

और अचानक अनुराधा बरेली छोड़कर दिल्ली चली गई। वह जाना नहीं चाहती थी। उन दिनों दिल्ली की ‘हाई सोसायटी’ से उसे सख्त चिढ़ थी। तो फिर वह अचानक दिल्ली क्यों चली गई? दरअसल कुमार ने ही उस पर ‘प्रैशर’ डाला था। उसका लगता था कि मेरी प्रतिभाशाली पत्नी के लिए यह शहर बहुत छोटा है। यहां वह कुछ नहीं कर पायेगी। इसलिए उसने अनुराधा को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला दिलाया। वह उसे एक बहुत बड़ी अभिनेत्री के रूप में देखना चाहता था। अनुराधा की विदाई पार्टी में एक हंगारी लाल वाइन की बोतल खोली गई। मैं कुमार से वह हरे रंग की खाली बोतल घर ले आया था। किसी ‘मिमेंटो’ की तरह मैं उसे रखना चाहता था। आखिर अनुराधा से जुड़ा स्मृति चिन्ह भी अलग तरह का होना चाहिए। अनुराधा के दिल्ली जाने के बाद बरेली बहुत खराब लगने लगा। कुमार के यहां पार्टियों का सिलसिला भी कम हो गया। मैं भी अपने इम्तहानों में फंसा रहा।

गर्मी की छुट्टियां थीं। अनुराधा दिल्ली से अपने साथ दो ‘बड़े बुद्धिजीवी’ लेकर लौटी। दोनों अधेड़ उम्र के थे पर बातें बहुत शानदार करते थे। उनके सम्मान में कुमार ने एक अच्छी दावत दी। अनुराधा मुझे बदली हुई लग रही थी। पार्टी के बाद मुझे वह इलायची देना भी भूल गई। रिक्शे में अकेला अंधेरा में बैठा मैं पुरानी पार्टियों की याद कर रहा था। घर नजदीक था। देर रात को एक कमजोर आदमी को कुछ पैसे वाले लोग बुरी तरह पीट रहे थे। वह आदमी मार खाते हुए अजीब तरह से कराह-चिल्ला रहा था। मेरा सारा नशा उड़ गया। मैं सोचता रहा वह आदमी कौन होगा? उसे इतनी बुरी तरह से मारा जा रहा है? उसने क्या कोई बहुत बड़ा अपराध किया होगा? यह सोचते-सोचते अचानक मेरा मन हुआ कि मैं वापस अनुराधा के पास पहुंच जाऊं। रात को दरवाजा जोर-जोर से खटखटाऊं। अपने सफेद स्लीपिंग गाउन में अनुराधा अपने बाल बिखराये हुए चली आये। दरवाजा खोले, तो मैं उसे इलायची मांगूं।

और मैं बेचारा एक डरपोक बुद्धिजीवी रात को उस आदमी के पिटने पर कोई कविता लिखने, पेंटिंग बनाने के बारे में सोचता रहा। पर मैं उन आदमियों से यह पूछ नहीं सकता था कि भइया, क्यों मार रहे हो इस अकेले आदमी को? मैंने रिक्शेवाले को फौरन रास्ता बदलने के लिए कहा।

अगली सुबह अचानक अनुराधा ने एक प्रोग्राम बनाया। रानीखेत और कौसानी जाने का प्रोग्राम। मैंने कभी पहाड़ देखा नहीं था। सोचा की इस बुद्धिजीवी टीम के साथ कौसानी का सूर्योदय देखकर धन्य हो जाऊंगा। हम पांच लोगों की टीम उसी रात रानीखेत की ओर चल दी। कुमार बहुत उत्साहित था। प्रोफेसर भटनागर और उनके अंतरंग मित्र बी,एल. (उनका पूरा नाम हम कभी नहीं जान पाये) काफी जानकार और घुमक्कड़ किस्म के थे। मैं ठंड से पूरी तरह से बल्कि बुरी तरह से लड़ने की तैयारी करके स्टेशन पहुंचा था। अनुरोधा मुझ पर बहुत हंसी। ‘‘अरे बौड़म कहीं के, तुम जाड़ों में मास्को नहीं जा रहे हो। रानीखेत का मौसम बड़ा प्लैंजेंट होगा।’’

दोपहर को जब हम रानीखेत पहुंचे, तो एक भीषण आंधी ने हमारा स्वागत किया। एकाध मकान की छत को भी मैंने उड़ते हुए देखा। पहाड़ का पहला अनुभव विचित्र और भयभीत कर देने वाला था। सिर्फ दो कमरे खाली थे। एक थोड़ा बड़ा था, दूसरा काफी छोटा। मन ही मन मैं बहुत दुखी था कि भटनागर और बी.एल. के साथ मुझे कमरा शेयर करना होगा। पता नहीं इन बुद्धिजीवियों के खर्राटे कैसे होते हैं। मैं बहुत डरा हुआ था।

पर अनुराधा ने मुझे चौंका दिया। उसने कुमार से कहा, ‘‘तुम और बी.एल. छोटे कमरे में शिफ्ट हो जाओ। मैं, प्रोफेसर भटनागर और यह बच्चा बड़े कमरे में सो जायेंगे। इस बच्चे को भी तो आखिर में एडल्ट बनाना है।’’

‘एडल्ट’ तो मैं बनना चाहता था, अनुराधा के साथ कमरा शेयर करने ने भी मुझे रोमांचित किया पर मैं इस अनोखे ‘अरेंजमैंट’ से सचमुच चकित था। साफ नजर आ रहा था कि कुमार इस अत्याधुनिक ‘अरेंजमैंट’ से खुश नहीं है। उसका चेहरा उतर गया था। तेजी से उसने अटैची उठाई और ‘स्पोर्ट्समैन स्प्रिट’ दिखाते हुए बी.एल. के साथ कमरा शेयर करने के लिए चला गया। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। मैंने सोचा कि यही असली आधुनिकता है। दिल्ली से आधुनिक होकर आई है अनुराधा।

रात के भोजन के समय काफी गंभीर बातें हो रही थीं। पर मेरा मन यही सोच रहा था कि क्या सुंदर स्त्रियां खर्राटे भी लेती होंगी? लखनऊ के कॉफी हाउस में हिंदी के एक बहुत बड़े लेखक यशपाल एक बार बहुत ‘इनोसेंट’ सवाल कर रहे थे कि मेरा मन यह बात मानने को तैयार नहीं होता कि सुंदर स्त्रियां कभी पेशाब करने भी जाती होंगी। मेरे मन का सवाल भी कुछ इसी तर्ज पर था।

पर रात को बिस्तर पर मुझे नींद नहीं आरही थीं कंबख्त किसी के खर्राटें भी नहीं सुनाई पड़ रहे थे। भटनागर और अनुराधा बड़ी देर तक बर्टोल्ट ब्रैेष्ट, स्तेनिस्लावस्की और यूजीन ओनील पर बातें करते रहे। फिर अचानक विषय कुछ दिलचस्प हुआ। बर्टोल्ट ब्रैष्ट और पाबलो नेरूदा के प्रेम जीवन पर कुछ रोचक और ‘इरॉटिक’ किस्म का वार्तालाप शुरू हुआ। कुछ देर तो मैं सुनता रहा। भटनागर ने यह भोला सा प्रस्ताव रखा कि अनुराधा, मेरे पैर दबा दो। मैं चलते-चलते थक गया हूं।

और मैं ‘प्रोटेस्ट’ में बिस्तार से उठ खड़ा हुआ। पर किसी ने मेरे ‘प्रोटेस्ट’ पर ध्यान नहीं दिया। मैं बाहर आया, तो देखा ‘रेलिग’ पर कुमार झुका हुआ सिग्रेट पी रहा है। कुछ देर तक हम लोग इस ‘अरेंजमैंट’ पर बातचीत करते रहे। कुमार ने कहा, ‘‘मैं इस हद तक सहन नहीं कर पाऊंगा। नरेश, क्या मुझे अनुराधा से बात करनी चाहिए।’’

‘‘क्यों नहीं? आखिर वह आपकी पत्नी हैं। पर अभी फौरन बात मत कीजिए। सिचुएशन ठीक नहीं है। कल आराम से किसी एकांत में बात कीजिएगा।’’

और अगली दोपहर को जो ‘सीन’ सामने आया वह किसी मसाला हिंदी फिल्म का भी ‘सीन’ हो सकता था। कुमार ने अनुराधा को अलग ले जाकर बातचीत की। बाद में अनुराधा बिना कुछ बताये गायब हो गई। हम चारों लोग चारों दिशाओं में ‘अनुराधा, अनुराधा’ कहते हुए बदहवास भागते रहे। शाम को एक चट्टान के पास वह अकेली चुपचाप बैठी हमें मिली। ‘ट्रिप’ को रद्द कर दिया गया। भटनागर और बी.एल. कौसानी की ओर चले गये। हम तीनों वापस बरेली आये। लौटते वक्त शायद ही किसी ने कोई बात की हो। अनुराधा ने कुमार से तलाक ले लिया। मुझसे तो वह बात करने के लिए भी नहीं तैयार थी। तीस साल तक वह मुझसे नहीं बोली।

उन दिनों मन में पहली बार यह सवाल उठा था - कला या जिंदगी? कला तो बहुत से लोगों, बहुत सी पीढ़ियों, समय के अलग-अलग पडावों के काम आती है। जिंदगी तो उसके मुकाबले में छोटी है। एक आप की जिंदगी होती है और कुछ लोग आपकी जिंदगी में आते हैं।

उन दिनों महान पश्चिमी संगीतकार गुस्टाफ मालर की पत्नी अल्मा के संस्मरण पढ़ रहा था। अल्मा का पति तो सचमुच महान था। उसकी महानता की थोड़ी सी झलक उसके समय को भी मिल गई थी। लेकिन अल्मा की शिकायत यही थी कि ऐसी महानता किस काम की अगर वह आपके निजी जीवन की उपेक्षा करे, एक तरह से उसे बर्बाद होने दे।

कुमार अकेला हो गया था। वह एक बहुत ‘केयरिंग हसबेैंड’ था। घर के प्रति वह बहुत समर्पित था। बहुत शौक से चीजें खरीद कर लाता था। उन दिनों बरेली में महंगा म्यूजिक सिस्टम बहुत कम लोगों के पास होता था। अनुराधा अभी दिल्ली नहीं गई थी। कुमार ने म्यूजिक सिस्टम खरीदने के बाद एक पार्टी दी। (उन दिनों हम लोग पार्टी के लिए कोई न कोई बहाना खोज लेते थे!) वह बहुत चाव से सिस्टम के बारे में बता रहा था। ‘‘देखो, नरेश हम कलाकारों-बुद्धिजीवियों के लिए यही चीजें ज्वैलरी की तरह हैं। लोग इतना पैसा जेवर पर खर्च करते हैं, महंगे कपड़े खरीदते हैं और हम लोग किसी म्यूजिक सिस्टम रेकॉर्ड या किताब पर खर्च करना चाहते हैं।’’

सिस्टम पर कुमार गंधर्व का एल.पी. चल रहा था। एल.पी. के कवर पर कुमार गंधर्व की आकर्षक मुद्रा थी - अपने प्यारे कुत्ते के साथ। हम सब लोग संगीत में बुरी तरह से डूबने की कोशिश में थे। अनुराधा ने सिग्रेट जलाई और एक खास तरह की व्यंग्यात्मक हंसी के साथ कहा, ‘‘अबे, घोंचू, बेकार ही बार-बार मुंडी हिला रहा है। कुछ जानता भी है शास्त्रीय संगीत के बारे में। कल तक तो किशोर कुमार के गाने गाता था।’’

‘‘तो क्या हुआ अनुराधा? आज भी गाता हूं।’’ मैंने शायद पहली बार अनुराधा की आंखों का सामना करने की कोशिश की थी। वह अक्सर मुझसे कहती थी- तुम आंखें मिलाकर क्यों नहीं बात करते। हमेशा चोरों की तरह इधर-उधर क्यों देखते रहते हो। मैंने अपने भीतर जोश और हिम्मत का एक ‘पैग’ उड़ेला और कहा, ‘‘अनुराधा जी, मैं किशोर कुमार भी सुनता हूं, कुमार गंधर्व भी और मोत्सार्ट भी। कहिए, आपको कोई एतराज है? क्या बरेली में रहकर मोत्सार्ट को मोजार्ट न कहना, उसका ‘नाइट म्यूजिक’ सुनना अपने आप में कोई क्राइम है?’’

‘‘अबे, तू इतना सेंटी क्यों हो रहा है? मैं तो यूं ही मजाक कर रही थी। तुम में कहीं कोई बात देखी थी, तभी तो तुम्हें हम सब लोग इतना चाहते हैं, पार्टियों में तुम्हें बुलाते हैं। हमारी भाषा में तो तुम अभी ठीक से एडल्ट भी नहीं हुए हो। पर तुममें कहीं कुछ है...’’ 

हमारी पार्टियों में एक आकर्षण शेषमणि श्रीवास्तव की कविताएं उन दिनों ‘धर्मयुग’ में छप चुकी थीं। राजकमल चौधरी की लाल कागज पर हरी स्याही से लिखी चिट्ठियां दिखा कर वह हम सबको चमत्कृत कर चुका था। अनुराधा की बात सुनकर उसने फौरन संगीत बंद करवाया और अपने झोले से रघुवीर सहाय की पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ निकाली और उनकी ‘स्वीकार’ कविता का पाठ शुरू कर दिया: ‘‘तुममें कहीं कुछ है/ कि तुम्हें उगता सूरज, मेमने, गिलहरियां, कभी-कभी का मौसम/ जंगली फूल-पत्तियां, टहनियां-भली लगती हैं/ आओ उस कुछ को हम दोनों प्यार करें...’’

मुझे एक कविता याद थी। नाटकीय ढंग से मैंने इसकी अंतिम पंक्ति सुनाई, ‘‘एक दूसरे के उसी विगलित मन को स्वीकार करें।’’

स्वीकार करता हूं कि आज भी मेरे मन में इन पार्टियों का ‘नॉस्टेल्जिया’ है। हम लोग अक्सर सतही, फैशनेबुल, लेग पुलिंग किस्म की बातें ही करते थे। पर कभी-कभी कुछ ढंग की बातें भी हो जाती थीं। कुमार बहुत ‘प्यारा’ किस्म का प्राणी था। वह सचमुच अनुराधा की बहुत ‘केयर’ करता था। रसोई में जाकर बहुत सारा काम खुद ही कर देता था। पार्टी के बाद सुबह बर्तन भी खुद ही धोता था। इस बारे में उसकी राय दिलचस्प थी, ‘‘बर्तन मांजते वक्त दिमाग की गंदगी भी साफ हो जाती है। रात की पार्टी के बाद दिमाग को भी एक जबरदस्त धुलाई की जरूरत होती है।’’’

सिग्रेट पीने के बारे में भी उसका कमेंट कम दिलचस्प नहीं था, ‘‘दिमाग में बहुत से मच्छर घुस जाते हैं। गांवों में लोग मच्छर भगाने के लिए कंउे जलाते हैं और सिग्रेट से मैं दिमाग के मच्छर भगाता हूं।’’

लेकिन हमारी पहाड़ की इस विस्फोटक यात्रा के बाद पार्टियों का सिलसिला बंद हो गया। मैं कभी-कभी कुमार से मिलने जरूर जाता था। उन दिनों हमारे शब्दकोश में ‘सहानुभूति’ शब्द से सबको चिढ़ थी। लेकिन मुझे कुमार के साथ सहानुभूति महसूस होती थी।

‘‘आखिर प्रोफेसर भटनागर में ऐसा क्या है जो आपके जैसा डेवोटेड हस्बैंड इस तरह से छला गया?’’

‘‘डेवोटेड होना ही शायद मेरी गलती थी। वैसे मैं तुम्हें यह बता दूं, भटनागर के साथ इसकी ज्यादा देर पटेगी नहीं। वह चार बजे एक कन्या के साथ ‘लुक बैक इन एंगर’ पर बौद्धिक बकवास कर रहा होता है और पांच बजे उसे किसी दूसरी कन्या के साथ पाउल क्ले का कला चिंतन डिस्कस करना होता है। ही इज ए ग्रेट फ्रॉड!’’

‘‘यही तो दिक्कत है। वह मामूली फ्रॉड नहीं है। ग्रेट फ्रॉड होने के लिए थोड़ा मेहनत करनी पड़ती है। प्रतिभा की जरूरत पड़ती है। वह किसी पहुंचे हुए संत की तरह सम्मोहित करने वाली बातें करता है!’’

अनुराधा उन दिनों मेरे लिए लगभग एक खलनायिका बन गई थी। विडंबना यह थी कि उसकी जिस ‘बोल्डनेस’ ने मुझे इतना प्रभावित किया था उसी ने अंत में उससे मुझे दूर भी किया। बरेली मुझे भी छोड़ना पड़ा। पांच साल बाद। दिल्ली ही नियति थी। कुमार बरेली में ही रह गया। वह एक अत्यंत प्रतिभाशाली मूर्तिशिल्पी था। एक बार दिल्ली में एक अच्छी नौकरी का उसे मौका भी मिला। लेकिन उसने अपने शहर नहीं छोड़ा। वह आज भी वहीं एक सुरक्षित जीवन बिता रहा है। बागबानी के अपने शौक को उसने एक आध्यात्मिक आनंद में बदल दिया है। कुछ साल बाद उसने दोबारा घर बसा लिया था। इस बार घरेलू पत्नी चुनी थी। मूर्तिशिल्पी के रूप में उसने काम लगभग बंद कर दिया। कॉलेज में पढ़ाता था। वहीं एक सुरक्षित पर लगभग गुमनाम जिंदगी ने उसकी रचनात्मकता पर कब्जा कर लिया। मूर्तिशिल्पी के रूप में उसकी अंतिम कलाकृति बीस साल पहले सामने आई थी। बरेली के एक पुराने स्वतंत्रता सेनानी के निधन के बाद उनके नाम से एक सड़क बनी और उनकी एक बुत बीचोबीच चौराहे पर स्थापित किया गया। नगरवासियों के बहुत जोर देने पर कुमार ने यह मूर्ति बना दी थी। आज भी वह वहीं पर है। साल में एकाध बार उसकी सफाई हो जाती है। तब उस मूर्ति को गेंदे के फूलों का हार पहनाया जाता है। कुमार की प्रतिभा की यही करुण कहानी है।

लेकिन अनुराधा कहां है? वह तो अपनी प्रतिभा के शिखर पर है। अब तो दिल्ली में भी बहुत कम ही नजर आती है। मुंबई में टेलीविजन के धारावाहिकों की वह अत्यंत सफल अभिनेत्री है। पर दो दशकों तक वह दिल्ली के रंगमंच पर छाई रही। रानीखेत कांड के बाद मैंने उसे दस साल बाद देखा था। ‘लुक बैक इन एंगर’ देखने गया था। उसमें अनुराधा की भी भूमिका है यह मुझे नहीं पता था। एक दोस्त के पास दो टिकट थे। मुझे भी आग्रह करके ले गया। स्टेज पर अनुराधा को देखकर मैं चकित रह गया। उसके अभिनय में जबर्दस्त ‘पैशन’ था और उतनी ही परेशानी भी। एक बार मन हुआ कि उसे बधाई दूं। पर हिम्मत नहीं हुई। शायद वह मुझसे बात ही न करे।

दिल्ली में अनुराधा के संघर्ष की कहानी से थोड़ा-बहुत परिचय था। यहां के सांस्कृतिक विश्व में धीरे-धीरे मेरी भी एक पहचान बनने लगी। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक का मैं नियमित लेखक था। कई विषयों पर लिखता था- संस्कृति पर भी और विचार पर भी। राजधानी के ‘कॉकटेल सर्किट’ की सूची में मेरा नाम भी शामिल हो गया। मैंने शुरुआत अपेक्षाकृत गंभीर लेखन से की थी। लेकिन धीरे-धीरे अखबारों में विचार से ज्यादा सांस्कृतिक अचार महत्वपूर्ण हो गया। जिस अखबार के संपादकीय पृष्ठ में कभी रेजी देब्रे, मिलोवान जिलास और गोदार के बारे में छपता था उस पर अब जूही चावला जैसी अभिनेत्रियों के लंबे इंटरव्यू छपते थे। जिस अभिनेत्री का इंटरव्यू संपादकीय पृष्ठ पर छपता था उसकी लगभग वही बातें मुखपृष्ठ पर  ‘एंकर’ में छपती थीं। कुछ दिन बाद वही बातें एक भड़कीली और उत्तेजक तस्वीर के साथ कलर सप्लीमेंट के अंतिम पृष्ठ पर छपती थीं। इतना ही जैसे काफी नहीं था। संडे मैगजीन में वही इंटरव्यू थोड़ा कम चटपटी तस्वीर के साथ छपता था। अखबार टेलीविजन से मुकाबला करते-करते निरंतर निरर्थक और खराब होते जा रहे थे।

कलर सप्लीमेंट में मेरा सांस्कृतिक गपशप का कालम मेरी तस्वीर के साथ छपता था। पार्टियों में मेरी मांग थी। एक शाम के कई निमंत्रण होते थे। कभी किसी अंबैसडर के यहां, कभी किसी पांच सितारा होटल के मालिक के यहां और कभी फैशन डिजाइनर के यहां मैं अपनी शामें बिताता था। दो दशकों में इस दुनिया को मैंने अभूतपूर्व तेजी से बदलते हुए देखा है। एक नाम आज अखबारों के ‘हाई सोसायटी’ कालमों में छाया हुआ है। हर पार्टी में किसी सुंदरी के साथ वह शैंपेन का गिलास लिए खड़ा होता है। कुछ साल पहले वह एक साधारण क्लर्क था। पर आज वह अपने को नये मिलेलियम की सबसे बड़ी प्रतिभा समझता है। इस तरह के किसी एवार्ड का भी उसने जुगाड़ कर लिया है।

अनुराधा से जब दोबारा एक लंबे अंतराल के बाद सचमुच आमने सामने मेैं मिला, तो ‘वैन्यू’ एक अंबैसडर के यहां पार्टी थी। एक पार्टीबाज महिला ने मेरा परिचय कराने की कोशिश की। हलो, हलो हुई। ‘‘इन्हें कौन नहीं जानता।’’ मैंने कहा।

‘‘अब तो आपको भी सब लोग जानते हैं।’’ अनुराधा ने अपने गिलास में से ड्रिंक का एक सिप लेते हुए कहा।

मुझे थोड़ा धक्का लगा। मैं उम्मीद करता था कि अनुराधा कहेगी, ‘‘अबे, घोंचू, तू नहीं बदला।’’

अनुराधा ने मुझसे कुछ नहीं कहा। पर वह बहुत आक्रामक भी नहीं दीख रही थी। पार्टी जब अंतिम क्षणों में थी, तो बाहर में टैक्सी खोज रहा था। अनुराधा ने मुझे अपनी कार में लिफ्ट दी। तीन पैग पीने के बाद भी वह आराम से गाड़ी चला रही थी। लेकिन अनुराधा मुझसे अपेक्षाकृत गंभीरता और आश्चर्यजनक जिम्मेदारी के साथ बात कर रही थी। कुमार के बारे में हम लोगों ने कोई बात नहीं की। जब उसने मुझे मेरे घर के सामने छोड़ा, तो मेरा मन यह जरूर हुआ कि उससे पूछूं, ‘‘इलायची नहीं दोगी?’’

उसने मुझे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था। रात को जब मुझे नींद नहीं आ रही थी, तो मैंने उसका फोन नंबर मिलाया। काफी देर उससे बातें हुईं। पर सब कुछ औपचारिक था। बल्कि वह सुन कर तो मेरा नशा ही उड़ गया कि मैं उस पर कोई अच्छा सा आर्टिकल लिख दूं।

मैं एक ‘विद्रोही’ अनुराधा से बतियाना चाह रहा था। किसी तरह से मैंने उसे प्रेरित भी किया, ‘‘अनुराधा, तुमने मुझे आज घोंचू भी नहीं कहा।’’

अनुराधा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैंने थोड़ा साहस करके कहा, ‘‘अनुराधा, तुमने मुझे माफ कर दिया?’’

‘‘किस बात के लिए?’’

‘‘मैंने शायद तुम्हें गलत समझा था। अब लगता है कि तुम कुमार के साथ बरेली रह जातीं, तो कुछ बड़ा न कर पातीं। एक रिटायर्ड किस्म के जीवन में गमले में भिंडी उगाने की कोशिश कर रही होतीं या कैक्टस। तुम एक अच्छी बीवी तो बन जाती लेकिन तुम्हारे भीतर का कलाकार मर गया होाता।’’

‘‘देखो, नरेश, मुझे तुमसे मिल कर अच्छा लगा। तुमने ‘आप’ छोड़ दिया और मुझसे ‘तुम’ करके बात की यह भी अच्छी बात है। मैं तुम्हारे लिखे को बराबर ‘फॉलो’ करती रही हूं। मुझे बस तुमसे एक अच्छा राइट अप चाहिए। शायद तुम मेरे बारे में सबसे अच्छी तरह से लिख सकते हो। वैसे लिखा तो मेरे बारे में बहुत गया है।’’

‘‘अनुराधा, मैं तुम्हारी जीवनी लिख सकता हूं। तुम्हारे रचनात्मक संघर्ष की पूरी कहानी सामने आनी चाहिए।’’

‘‘कौन साला चाहता है उसकी पूरी कहानी सामने आये।’’ अनुराधा के स्वर में थोड़ी पुरानी झलक मैंने पहचानी।

‘‘जीवनी ईमानदारी से लिखी जानी चाहिए। तथ्यों का वर्णन निर्मम होकर किया जाना चाहिए। अनुराधा, तुम तैयार हो जाओ, तो बेस्टसैलर लिखा जा सकता है।’’

‘‘एक शर्त है।’’

‘‘क्या!’’

‘‘मेरी जीवनी में कुमार का कोई जिक्र नहीं होगा। तुम उस चैप्टर को तो गायब ही कर दो। मेेरे बचपन के बारे में लिखो, मेरी अभिनय यात्रा पर लिखो।’’

‘‘देखो, अनुराधा, कुमार का भी तुम्हारे जीवन में महत्वपूर्ण रोल है?’’

‘‘कौन सा कुमार? कैसा कुमार? साले, तुम घोंचू ही रहे। मैं एक अभिनेत्री हूं। मैं रोल करती हूं। पर मेरे जीवन में किसी का रोल नहीं है।’’

मैंने फोन रख दिया। समझ में नहीं आ रहा था कि ‘घोंचू’ सुनकर धन्य होना चाहिए या नहीं। अंत में पाठकों को यही संक्षिप्त सूचना देनी है कि एक बड़े प्रकाशक ने मेरी लिखी अनुराधा की जीवनी छापी है। प्रधानमंत्री को पहली प्रति भेंट की गई। यह किताब खूब बिकती है। कई समीक्षाएं छप चुकी हैं। कुमार का इसमें कोई जिक्र नहीं है। आखिर मैं तो कोई अभिनेता नहीं हूं। मेरे जीवन में अनुराधा का रोल है। मैंने यह मान लिया है कि उसमें कुमार का कोई रोल नहीं था। इतिहास से गायब हो चुके लोगों की कोई भूमिकाएं नहीं होतीं। वे अपने आध्यात्मिक एकांत में सिर्फ गमले में भिंडी उगा रहे होते हैं।
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मीडिया ! नामवर सिंह ने नहीं तुमनेे सुर्खियाँ बटोरने वाली हेडलाइन लिखी है | Writers should meet President - Namvar Singh


मीडिया तुम्हे शर्म नहीं आयी  !

- भरत तिवारी



मीडिया ! तुमनेे सुर्खियाँ बटोरने वाली हेडलाइन लिखी है
मीडिया तुम्हे शर्म नहीं आयी?

अस्सी वर्ष के वृद्ध और बेहद-अस्वस्थ साहित्यकार प्रो० नामवर सिंह की बातों से मीडिया ने सुर्खियाँ बटोरने वाली हेडलाइन लिखी है, और प्रबुद्ध जन दिमाग ताखे में रख के पिल पड़े उनपर ...

नामवर सिंह की दी गयी सलाहों में से तुमनेे जो दस-एक शब्द चुने वो मुझे तुम्हारी नियत के खोट को दिखा रहे हैं.

तुम चाहते तो हेडलाइन ऐसी कुछ होती - 
* लेखकों को राष्ट्रपति/संस्कृति मंत्री/मानव संसाधन मंत्री पर दबाव बनाना चाहिये
* लेखकों को कुछ ठोस कार्य करना चाहिए
* लेखकों को खुल कर बात करनी चाहिए
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मुर्ख तो हम नहीं हैं लेकिन फिरभी दोबारा से पढ़िए 'हिंदुस्तान' ने क्या छापा है और ''किस तरह'' से पेश किया कि आप ...
खबर  का लिंक ये हैhttp://www.livehindustan.com/news/national/article1-The-author-returned-Sahitya-Akademi-Award-for-the-headlines-in-the-newspapers-says-Namvar-Singh-499128.html

अखबारों में सुर्खियों के लिए लेखक लौटा रहे हैं पुरस्कार: नामवर सिंह

हिंदी के प्रख्यात मार्क्‍सवादी आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह का कहना है कि लेखकों को साहित्य अकादमी के पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, बल्कि उन्हें सत्ता का विरोध करने के और तरीके अपनाने चाहिए, क्योंकि साहित्य अकादमी लेखकों की अपनी निर्वाचित संस्था है

डॉक्टर सिंह ने देश के पच्चीस लेखकों द्वारा अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने पर कहा क़ि लेखक अख़बारों में सुर्खियां बटोरने के लिए इस तरह पुरस्कार लौटा रहे हैं। उन्होंने कहा कि मुझे समझ में नहीं आ रहा कि लेखक क्यों पुरस्कार लौट रहे हैं। अगर उन्हें सत्ता से विरोध है तो साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं लौटाने चाहिए, क्योंकि अकादमी तो स्वायत संस्था है और इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है

यह देश की अन्य अकादमियों से भिन्न है। आखिर लेखक इस तरह अपनी ही संस्था को क्यों निशाना बना रहे हैं। अगर उन्हें कलबुर्गी की हत्या का विरोध करना है तो उन्हें राष्ट्रपति, संस्कृति मंत्री या मानव संसाधन मंत्री से मिलकर सरकार पर दबाव बनाना चाहिये और उनके परिवार की मदद के लिए आगे आना चाहिए

कविता के नए प्रतिमान गढ़ने के लिए आज से चालीस साल पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हिंदी के इस शीर्षस्थ लेखक का यह भी कहना है क़ि लेखकों को कुछ ठोस कार्य करना चाहिए न क़ि इस तरह के नकारात्मक कदम उठाने चाहिए।

उनका यह भी कहना है कि इस मुद्दे पर अकादमी को लेखकों का एक सम्मेलन भी करना चाहिए, जिसमें इन सवालों पर खुल कर बात हो। इस बीच पंजाबी के पांच अन्य लेखकों ने भी कल साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा की। इसके अलावा माया कृष्णा राव ने भी संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार लौटने की घोषणा की है। इस तरह अब तक देश में विभिन्न भाषाओं के पच्चीस लेखक ये पुरस्कार लौट चुके हैं।
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जल्दबाजी में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को नुकसान नहीं पहुँचने देते हैं - मृदुला गर्ग | Are we weakening the Sahitya Akademi - Mridula Garg


क्या हम साहित्य अकादमी को कमज़ोर बना रहे हैं 

मृदुला गर्ग

मैं वह दुविधा अपने साथी लेखकों से साझा करना चाहती हूँ, जिसने मुझे परेशान कर दिया है। एक लेखक के रूप में मैं, देश के सभी राज्यों और केंद्र में प्रचलित हिंसक असहिष्णुता का दृढ़ता से विरोध करती हूँ, जिसे ले कर सरकार उदासीन है या फिर मौन स्वीकृति दे रही है। मैंने इसके बारे में लिखा है। मैं उनका दर्द समझती हूँ -जो अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे हैं या वहाँ के अपने पद छोड़ रहे हैं। असहिष्णुता के साथ असहमति और स्वयंभू नैतिक संरक्षक द्वारा एकांगी सांस्कृतिक मूल्य प्रणाली लगाए जाने के खिलाफ विरोध, लेखन के कार्य में निहित होता है।

जल्दबाजी में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को नुकसान नहीं पहुँचने देते हैं - मृदुला गर्ग | Are we weakening the Sahitya Akademi - Mridula Garg

लेकिन अगर हम अपना विरोध साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटने या वहाँ के पदों को छोड़ने से व्यक्त करते हैं, तो हम कहीं ऐसा तो नहीं कह रहे कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था न होकर सरकार की ही एक शाखा है? याद कीजिये पं. जवाहरलाल नेहरू ने क्या कहा था - जब वो देश के प्रधानमंत्री और अकादमी अध्यक्ष दोनों थे। वो साहित्य अकादमी अध्यक्ष के निर्णयों पर प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप नहीं करने देंगे, क्योंकि यह लेखकों की एक स्वायत्त संस्था है।

क्या हम साहित्य अकादमी की बराबरी सरकार से करके उसको कमज़ोर नहीं बना रहे हैं ? मुझे यह डर खाए जा रहा है कि सरकार कहीं लेखकों का बहाना बना कर अपने नुमाइंदे को अकादमी में यह कह के न बैठा दे कि अकादमी खतरे में है। संस्कृति मंत्री ने अपने वक्तव्य में अकादमी की स्वायत्तता स्वीकारी है लेकिन इसके साथ ही उन्होंने इशारे इशारे में ही यह भी कहा है कि सरकार, अकादमी के कार्यकलापों पर नज़र रखे हुए है। हम सब जानते हैं कि नज़र रखने का क्या अर्थ होता है । क्या हम उन्हें अकादमी की स्वायत्तता पर कब्ज़ा करने का मौका देना चाहते हैं ? मैं ये स्वीकारती हूँ कि साहित्य अकादमी को कालबुर्गी की हत्या पर न सिर्फ शोक सभा करनी चाहिए थी बल्कि उनकी हत्या की घोर निंदा भी करनी चाहिए थी। किसी लेखक की सामान्य मौत होने में और उसके विचारों के चलते उसकी हत्या होने में बहुत अंतर है। मैंने इस बारे में साहित्य अकादमी अध्यक्ष को एक ख़त भी लिखा है।

बंगलौर में एक शोक सभा हुई थी पर उसमें कालबुर्गी की हत्या की निंदा नहीं की गयी, उस शोकसभा में मौजूद लोगों का कहना है की उपाध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर कंबार वहां मौजूद थे पर उन्होंने भी हत्या का मुद्दा नहीं उठाया और ना ही साहित्य अकादमी और से हत्या पर किसी भी तरह का रोष व्यक्त किया गया। हम लेखकों का इस बात से नाराज़ होना वाजिब है। अब अकादमी अध्यक्ष ने २३ अक्तूबर को जो आपात-बैठक बुलाई है, आशा है कि उसमें कलबुर्गी की हत्या की निंदा होगी और यह निर्णय भी लिया जाएगा कि भविष्य में लेखकों को पहुंचने वाली किसी भी हानि पर साहित्य अकादमी विरोध व्यक्त करेगी और लेखकों को अलग नहीं महसूस होने देगी।

अभी बैठक, जिसमें सारे देश के लेखक भाग लेंगे, उसके निर्णय का इंतज़ार करते हैं और जल्दबाजी में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को नुकसान नहीं पहुँचने देते हैं।

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विरोध-के-तरीके का विरोध - भरत तिवारी #SaveIndia Sahitya Akademi #BeOne


जो विरोध करना चाहते हैं उनके अपने-अपने तरीके होते हैं

- भरत तिवारी

जो विरोध करना चाहते हैं उनके अपने-अपने तरीके होते हैं। यह भी देखना होता है कि बिल्ली के गले में घंटी बाँधी किसने-किसने... कोई ये कैसे तय कर सकता है कि विरोध का यह तरीका - अकादमी से मिले सम्मान को वापस करना – विरोध नहीं है ? सम्मान को वापस करना/ न लेना, हमेशा से विरोध जताने का एक तरीका रहा है... वियतनाम के राजनेता ली डुक थो ने नोबल शांति सम्मान लेने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि वियतनाम में असल शांति नहीं थी। बहरहाल हम बाहर क्यों देखें जब हमारे पास अपने महात्मा गांधी हैं जिनके विरोध का तरीका सिर्फ और सिर्फ इस सरीखे का रहा है...


सम्मान-वापसी के विरोधियों को एक बात तो साफ़ करनी होगी कि १. क्या वो सिर्फ तरीके का विरोध कर रहे हैं या फिर २. उसके पीछे लेखक द्वारा बताई गयी मंशा से भी वो असहमत हैं? क्योंकि जो कारण से ही सहमत नहीं हैं उनकी असहमति तो वह असहमति हुई जिसका की विरोध हो रहा है... अब रही बात उनकी जो तरीके को नापसंद कर रहे हैं, उनका यह कहना की जिन्हें अकादमी सम्मान नहीं मिला है वह कैसे विरोध जताएं – समझ नहीं आता, आप विरोध के पक्ष में खड़े हो कर भी विरोध जता सकते हैं, अपना ख़ुद का तरीका ईजाद कर सकते हैं, लेकिन सम्मान-वापसी की हंसी उड़ाना न सिर्फ सम्मान वापस करने वाले का अपमान है बल्कि हर-उस इन्सान का भी जो उनके विरोध के साथ खड़ा है... सनद रहे कि ऐसा करने से आप किसके हाथ मजबूत कर रहे हैं... 

यह तर्क भी हास्यास्पद लगता है – इसके पहले भी तो घटनाएं हुई हैं, तब क्यों नहीं ऐसा किया – मुझे तो यह पहले न किये गए विरोधों के पश्चाताप का बिलकुल उचित समय दिख पड़ता है... है न – देर आये दुरुस्त आये। 

यह समय यों बेवजह की बहस में न ज़ाया कीजिये, इससे पहले कि देर हो जाये हाथ-से-हाथ मिलाइये... विरोध के और तरीके भी निकालिए और मौजूद तरीकों के साथ खड़े रहिये .... वर्ना बोलने के साथ-साथ विरोध-के-तरीके के विरोध की जुबान भी ... ...      

लिखे से सहमत हों तो साझा करियेगा
#SaveIndia Sahitya Akademi #BeOne

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लखनऊ फैजाबाद, बाक़र गंज के सैयद - 4 : असग़र वजाहत | Baqar ganj ke Syed - 4 : Asghar Wajahat


बाक़र गंज के सैयद  4

~ असग़र वजाहत

लखनऊ आते वक्त ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ मिसरी बेगम और बच्चों को मुर्शिदाबाद छोड़ आये थे। लखनऊ में महलसरा बनवा लेने और कोड़ा में रिहायशी इंतिज़ाम पूरे कर लेने के बाद ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ अपने परिवार को लेने मुर्शिदाबाद चले गये। हैदर ख़ाँ को उनके खिलाफ एक और षड्यंत्र करने का सुनहरा मौका मिल गया। इस षड्यंत्र का पूरा हाल मिर्जा अबू तालिब ने अपनी किताब 'तारीखे अवध’ में लिखा है। हैदर बेग ने अपने एक खास आदमी इस्माइल बेग के जरिये लखनऊ में एक खौफनाक अफवाह फैलवा दी। अफवाह यह थी कि ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ मुर्शिदाबाद से वापस लौट कर लखनऊ नहीं आयेंगे। मुर्शिदाबाद से अपने खानदान को लेकर वे इलाहाबाद तक आयेंगे और फिर कानपुर होते हुए इटावा से आगे निकल कर नज़फ ख़ाँ ज़ुलफिराकउद्दौला की सेना से मिल जायेंगे। ज़ैनुलआब्दीन के पास आठ हज़ार फौज और तोपखाना है जो अवध के नवाब के दुश्मन की फौज का हिस्सा बन जायेगा। यह अफवाह शहर में ऐसी फैली कि दरबार से लेकर रेज़ीडेन्सी तक इसका चर्चा होने लगा। ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ को नवाबे अवध का दुश्मन करार दिया गया। उन्हें एहसान फरामोश बताया गया। उनके दोस्तों और शुभचिंतकों को भी शक के घेरे में लिया गया। धीरे-धीरे यह खबर इतनी गर्म हो गयी कि हैदर बेग ने ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ के उन रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया जो लखनऊ में थे। मिर्जा अबू तालिब जानते थे कि यह खबर अफवाह है। उन्होंने जगह-जगह इस षड्यन्त्र का भंडा फोड़ किया दरबारियों, आमिलों और अइलकारों को समझाया कि ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ ऐसा नहीं करेंगे और वे सीधे लखनऊ आ रहे हैं। हैदर ख़ाँ को यह खबर मिलती रहती थी कि मिर्जा अबू तालिब ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ का बचाव करने में लगे हुए हैं। हैदर बेग चाहता था तो ये था कि ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ को गिरफ्तार करने की इजाज़त नवाब से ले ले। उसने ऐड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया था लेकिन दरबार के ईरानी गुट ने उसे कामयाब नहीं होने दिया। तहसीन अली खाँ, मिर्जा हसन, मेंहदी अली वगैरा के दबाव की वजह से हैदर ख़ाँ अपने मंसूबे में कामयाब नहीं हो सका। एक महीने के बाद गोमती के रास्ते ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ और उनका ख़ानदान लखनऊ आ गया। अपनी इस चाल को मात होता देखकर हैदर ख़ाँ ने नया पैंतरा बदला। उसने ज़ैनुलआब्दीन को अकेला कर देने के लिए उनके सबसे बड़े हमदर्द मिर्जा अबू तालिब पर निशाना साधा। योजना यह बनाई कि अबू तालिब को न सिर्फ लूट लिया जाये बल्कि ज़लील भी किया जाये और फिर कत्ल कर दिया जाये। एक भयानक साज़िश को अमली जामा पहनाने के लिए उसने अपने खास खास लोगों से कहा कि वे घाटमपुर (अब कानपुर ज़िला) जाकर वहाँ के सरकाश जमींदारों से मिलें और उन्हें इस बात के लिए उकसायें कि अबू तालिब जब लगान वसूल करने आयें तो उन्हें लूट लें और कत्ल कर दें। सरकश जमींदारों के लिए नायब वज़ीरे आज़म का इशारा काफी था। 

अबू तालिब हर साल की तरह पाँच सौ सिपाही लेकर घाटमपुर पहुँचे और हर साल की तरह किले में ठहरे। उनके आने की खबर फैलते ही किले के इर्द गिर्द इलाके के बदमाश जमा होने लगे। 
बाक़र गंज के सैयद - १ : असग़र वजाहत | Baqar ganj ke Syed - 1 : Asghar Wajahat
अबू तालिब को यह पता लगते देर नहीं लगी कि यह उन्हें घेरा जा रहा है। और सरकशी के पीछे किसका हाथ है। ऐसी सूरत में लखनऊ से मदद मिलने का कोई सवाल न था। घाटमपुर का किला चूंकि मजबूत किला था और चारों तरफ खंदके थी इसलिए हमला करना आसान न था। अबू तालिब के पास चार तोपें थीं जिन्हें सही जगहों पर लगा दिया गया था। उन्होंने इस घटना के बारे में ''तारीखे आसफी’’ में लिखा है, ''इस हंगामे में पन्द्रह दिन मैं कमरबस्ता (कमर बांधे) और चार पाँच सौ सिपाहियों के साथ हर वक्त मरने मारने पर तैयार रहा।’’ लेकिन अबू तालिब कहाँ तक घाटमपुर किले में कैद रहते। बाहर सरकशों की तादाद बढ़ रही थी। खबर उड़ा दी गयी थी कि अबू तालिब के पास बड़ा खज़ाना है। आखिरकार दुश्मन को धोखा देने के लिए उन्होंने एक चाल चली। यह मशहूर करा दिया कि वे मूसा नगर के रास्ते कन्नौज़ घाट से इटावा जायेंगे। वहाँ गढ़ी में ठहरेंगे। इस खबर के फैलते ही बदमाशों के गिरोह मूसा नगर के रास्ते पर घात लगा कर बैठ गये। अबू तालिब ने अपना सामान कोड़े की तरफ रवाना करा दिया और खुद पाँच सौ सिपाहियों के साथ किले से बाहर निकले। बाहर निकलते ही उन्होंने तोपें दगवा दी ताकि लोग दहल जायें। उन्होंने सिपाहियों को हुक्म दिया कि लगातार गोलियाँ चलाते रहें। उन्होंने लखनऊ के लिए कोड़े वाला रास्ता पकड़ा और खैरियत से लखनऊ पहुँच गये। लखनऊ में लोगों को जब इस घटना की जानकारी मिली तो अबू तालिब का बड़ा नाम हुआ। 
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"Bara Imambara Lucknow" by Muhammad Mahdi Karim (www.micro2macro.net) Facebook Youtube - Own work. Licensed under GFDL 1.2 via Commons.

कम्पनी बहादुर की भूख बढ़ती ही जाती थी। आसिफुद्दौला का खज़ाना खाली था। कम्पनी बहादुर एक ऐसा साहूकार था जिसके खाते में लेनदारी हमेशा बनी रहती है। गवर्नर जरनल वारेन हेस्टिंग ने जब नवाब पर कर्ज़ अदा करने के लिए ज़ोर डाला तो नवाब को फिर अपनी माँ और दादी की याद आई। लेकिन इस बार रास्ता दूसरा अपनाया गया। कम्पनी बहादुर की फौज और रेज़ीडेण्ट नवाब के साथ फैजाबाद गये और बेगमों के महलों पर कम्पनी की फौज ने कब्ज़ा कर लिया। बेगमों के ख्वाजासरा जवाहर अली ख़ाँ और बहार अली ख़ाँ जो बेगमों की जागीरों, खज़़ाने, फौज वगैरा का काम देखते थे गिरफ्तार कर लिए गये और यहाँ तक कि उन पर सख्ती की गयी। उनसे पूछा गया कि बेगमों का खज़ाना कहाँ है और उसमें कितना पैसा है। ख्वाजासराओं को बेडिय़ाँ पहना दी गयीं। सख्ती के बावजूद वे कुछ बता नहीं रहे थे। पता चला बहार अली ख़ाँ अफीम बहुत खाता है। उसकी अफीम बंद कर दी गयी ताकि खज़ाने का पता बता सके। अफीम बंद होने से बहार अली की जान पर बन गयी और आखिरकार उसने बताया कि मोती महल में ही खज़ाना है। हैदर बेग ने न सिर्फ नकद रुपया बल्कि हीरे जवाहरात, कीमती ज़ेवर और दूसरा सामान भी ज़प्त कर लिया। खजाने में सोलह लाख रुपये और सवा लाख अशर्फियाँ पायी गयीं। 

यह सब माल लखनऊ रवाना कर दिया गया ताकि कम्पनी बहादुर के कर्ज़ देनदारी हो सके। 1783 में पड़ा अकाल भयानक था। इसकी चपेट में अवध ही नहीं लगभग पूरा उत्तरी हिन्दुस्तान आ गया था। दाने-दाने को तरसते किसान गाँव छोड़ रहे थे। बड़े बूढ़े कहते थे कि ऐसा भयानक अकाल न उन्होंने कभी देखा था और न पुराने लोगों ने कभी ऐसा अकाल के बारे में बताया था। गाँव में अनाज न था। लखनऊ के चारों तरफ हज़ारों किसान मौत और जि़न्दगी की लड़ाई लड़ रहे थे। बिकते बिकते नौबत लड़कियाँ बिकने पर आ गयी थी। माना जाता था लडक़ी तो बच ही जायेगी और परिवार के बचने की उम्मीद बढ़ जायेगी। लखनऊ में लड़कियों का बाज़ार गर्म था। हैदर बेग के हरम का इंतिज़ाम करने वाले अपने मालिक की ख्वाहिशात को समझते हुए अच्छी जवान खूबसूरत लड़कियाँ खरीद रहे थे। बुढ़ापे में हैदर ख़ाँ का यह शौक कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया था। लखनऊ के बड़े-बड़े हकीमों के पास सैकड़ों नुस्खे थे जिनकी मदद से हैदर ख़ाँ बुढ़ापे में जवानी का आनंद बटोरा था। अवध के नवाब ने भूख से मरते हुए किसानों के लिए राहत कार्य के तौर पर बड़ा इमामबाड़ा बनवाने का फैसला किया। ये खबर जंगल की आग की तरह फैल गयी कि नवाब आसिफुद्दौला दुनिया का सबसे बड़ा इमामबाड़ा बनवाना चाहते हैं और इमारतें बनाने के किसी भी माहिर को अपना नक्शा पेश करने की इजाज़त है। जल्दी ही नक्शे पेश होने लगे। नवाब की आँखें एक ऐसे नक्शे की तलाश में थीं जो खूबसूरत होने के साथ-साथ ऐसा हो कि दुनिया में अपनी आप ही मिसाल हो। हमारत साज़ी में माहिर किफायतउल्ला का नक्शा आसिफुद्दौला को पसंद आया । किफायतउल्ला का दावा सही था कि यह खूबसूरत इमारत कई तरह से नायाब होगी। इस जैसी दूसरी इमारत हिन्दुस्तान में तो क्या दुनिया में न होगी। इमामबाड़ा बनना शुरु हुआ। कहते हैं दिन में गरीब गुरबा, गाँवों से आये किसान, मज़दूर और दूसरे खस्ताहाल लोग इमामबाड़ा बनाने का काम करते थे। मज़दूरी पाते थे। रात में शहर के सफेदपोश मज़दूरी करने आते थे ताकि उन्हें कोई मज़दूरी करते देख न लें। इन शरीफ मज़दूरों से दिन में बनाई गयी इमारत को तोडऩे का काम लिया जाता था और उसकी मज़दूरी दी जाती थी। 1791 में इमामबाड़ा बन कर तैयार हुआ था।  


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"Claudemartin-engraving". Licensed under Public Domain via Wikipedia.
उन्नीसवीं शताब्दी के लखनऊ में, खासतौर पर नवाब आसिफुद्दौला के दौर, में क्लाड मार्टिन नाम का एक फ्रांसीसी बहुत अनोखा और प्रतिभाशाली आदमी था। फ्रांस के एक छोटे से कस्बे में जन्में मार्टिन जवानी के दिनों में जब भारत जाकर धनवान बनने के लिए कमर कसी थी तो उसकी माँ ने उससे कहा था कि तुम जब लौट कर आना तो बग्घी पर आना। मार्टिन लौटकर अपने गाँव तो कभी नहीं जा सका लेकिन उसने अपार धन कमाया। यदि फ्रांस में क्रांति न हो गयी होती तो वह निश्चय ही सैकड़ों बग्घियों पर बैठ कर अपने गाँव जा सकता था। मार्टिन फेंच कम्पनी की सेना में भारत आया था। लेकिन उसे जल्दी ही पता चल गया था कि इस देश में अंग्रेजों का प्रभुत्व ही चलेगा और वह अंग्रजी सेना में शामिल हो गया था तरक्की करते-करते वह मेजर जरनल के पद तक पहुंच गया था। मार्टिन सैनिक था टीपू सुल्तान के खिलाफ लड़ी जाने वाली अंतिम लड़ाई में वह शामिल हुआ था। वह तोपे ढालने से लेकर बड़े घंटे और सिक्के ढ़ालने तक का काम जानता था। 

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वह कमाल का वास्तुशास्त्री था। उसने कई भव्य इमारतों के नक्शे बना कर इमारतें बनवाई थीं। आज जो लखनऊ का राज भवन है उसका नक्शा और इमारत क्लाड मार्टिन ने ही बनाया था। वह पाण्डुलिपियों और कलाकृतियों का बहुत प्रसिद्घ संग्रहकर्ता था। उसकी लायब्रेरी में अनेक भाषाओं की चार हज़ार पाण्डुलिपियाँ थी। वह सफल बैंकर या उस समय की शब्दावली में महाजन था। उसने अवध के नवाब को उस समय का सबसे बड़ा कर्ज़ दिया था जो दो लाख पचास हजार पाउण्ड था। उसका 'नील व्यापार’ हिन्दुस्तान से लेकर योरोप तक फैला हुआ था। दिल्ली, बम्बई और कलकत्ता में उसकी बड़ी सम्पत्ति थी। मार्टिन केवल धनवान ही नहीं था। वह समाज सुधारक भी था। विशेष रुप से शिक्षा के क्षेत्र में उसका बड़ा योगदान है। आज भी उसके बनाये तीन विख्यात स्कूल लखनऊ, कलकत्ता, और उसके पैत्रिक गाँव लिन (फ्रास में) चल रहे हैं.  मार्टिन ने अपना एक अनोखा आपरेशन भी किया था। मुत्राशय में फंसी पत्थरी को उसने तार अंदर डालकर तोड़ा था और फिर वह पेशाब के साथ बाहर आ गयी थी। 1785 में मार्टिन ने नवाब आसिफुद्दौला और लखनऊ वासियों को एक नया चमत्कार दिखाया था। फ्रांस में पहली 'हाट एयर बैलून’ गर्महवा भरी गुब्बारे से उडऩे का दिसम्बर 1783 में प्रदर्शन हो जाने के दो साल के अन्दर मार्टिन ने लखनऊ में यह करिश्मा कर दिखाया था। नवाब आसिफुदौला को अपने स्वभाव और प्रकृति के कारण यह खेल बहुत मज़ेदार लगा था। नवाब ने मार्टिन से कहा था कि उसे इतना बड़ा गुब्बारा बनाना चाहिए जिसके माध्यम से बीच पच्चीस लोग उड़ सकें। मार्टिन ने कहा था यह खतरनाक हो सकता है। लोगों की जान जा सकती है। नवाब ने जवाब दिया था कि इससे तुम्हें क्या मतलब।  

सत्ता के अनगिनत रुप है। हैदर ख़ाँ के पास सत्ता थी। उन्होंने दीवान टिकैत राय को एक इशारा किया और ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ के मालगुज़ारी के बही खातों में सैकड़ों कमियाँ निकलने लगीं। उन्हें दीवानी दफ्तर में रोज़ बुलाया जाता था और दो-दो चार-चार साल पहले किए गये हिसाब को खोल कर यह बताया जाता था कि उसमें क्या कमी रह गयी है। ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ समझ गये थे कि अब इस परेशानी से छुटकारा मिलना मुश्किल है। उनके करीब तरीन दोस्त भी यहाँ उनका साथ नहीं दे सकते थे। कुछ मिलाकर सिर्फ मिर्जा अबू तालिब थे जो उन पर किए जाने वाली ज़्यादतियों की इधर-उधर जिक्र करते थे। लेकिन सुनने वाले कानों में उंगलियाँ डाल लेते थे कि उन्हें कुछ सुनाई न दे। फारसी शायरी और घुड़सवारी के शौकीन ज़ैनुलआब्दीन हिसाब किताब के दौरान की जाने वाली पूछताछ और अइलकारों के अपमानजनक व्यवहार से बहुत टूट गये थे।  

क्या हकीकत में मीर ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ मुर्शिदाबाद की नज़फी वंशावली के थे? मैंने उनकी पत्नी मिसरी बेगम, उनके मुर्शिदाबाद जाकर परिवार लाने और उनके नवाब मुहम्मद रज़ा ख़ाँ के साथ काम करने के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि उनकी नज़फी वंशावली थी। इस के आधार पर उनके पिता का नाम सैयद इस्माइल ख़ाँ , दादा का नाम सैयद ज़ैनुद्दीन और परदादा का नाम सैयद हुसैन नज़फी तबातबाई सुनिश्चित होता है। लेकिन मीर ज़ैनुलआब्दीन के समकालीन ही नहीं बल्कि उनसे निकट और व्यक्तिगत संबंध रखने वाले मिर्जा अबू तालिब अपनी पुस्तक में सैयद ज़ैनुलआब्दीन के बारे में लिखते हैं : ''इस साल (1775 ई.) में माहे रमज़ान में राकिमुल हुरूफ (अबू तालिब) सैयद ज़ैनुलआब्दीन के साथ मुख़्तारुद्दौला के बुलाने पर लखनऊ आया। मुख़्तारुद्दौला बड़ी इज़्ज़त से मिला और दो हज़ार सवारों व प्यादों पर अफसर मुकर्रर कर दिया। यहां पर अपना और ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ का इस सरकार (अवध) के साथ कदीम ताल्लुक बयान करना मुनासिब मालूम होता है। खान मैसूफ (मीर ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ ) मशहद (ईरान) के मशहूर सादात (सैयदों) में से थे। वो इल्मो फज़ल (ज्ञान और अच्छाइयों) और इल्मे तिब (चिकित्सा शास्त्र) में मुमताज़ (विशिष्ट) थे। हिन्दुस्तान आने के इब्तिदाई (शुरूआती) ज़माने में सफदरजंग के भतीजे मुहम्मद कुली ख़ाँ से दोस्ती पैदा करके हर जगह उनके साथ रहे। मुहम्मद कुली ख़ाँ के गिरफ्तार होने के वक्त उसकी रिहाई की कोशिश की और जब उसका कोई असर न हुआ तो शुजाउद्दौला के दबदबे से डर कर बंगाल की राह ली।’’ मिर्जा अबू तालिब का ऊपर दिया विवरण मेरी इस धारणा को पूरी तरह ध्वस्त कर देता है कि मीर ज़ैनुलआब्दीन का संबंध मुर्शिदाबाद के नज़फी वंश से था। मिर्जा अबू तालिब के अनुसार वे स्वयं हिन्दुस्तान आये थे और सफदरजंग के भतीजे मुहम्मद कुली ख़ाँ के साथ हो गये थे। इस तरह मीर ज़ैनुलआब्दीन का वंश मुर्शिदाबाद का नज़फी वंश नहीं हो सकता। इस धारणा पर दूसरा सवालिया निशान टाम विल्यम वेल के फारसी में लिखे इतिहास की किताब 'मिफ्ताहुत-तवारीख’ से लगता है। इसमें ज़ैनुलआब्दीन के संदर्भ में दर्ज है कि उनके पिता का नाम शुजाउद्दीन था और दादा का नाम शाह कुली ख़ाँ था। परदादा का नाम मुहम्मद तकी लिखा गया है। मुर्शिदाबाद के नज़फी वंश में ये तीनों नाम वहाँ नहीं मिलते। इस तरह यह निश्चित नहीं हो सका है कि मीर ज़ैनुलआब्दीन ख़ाँ का संबंध किस वंश से था।  


क्रमशः ...
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('हंस' में प्रकाशित हो रही कड़ी... )

शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी जनरल काउंसिल से इस्तीफा दिया | Shashi Deshpande resigns from Sahitya Akademi General Council


पद्म श्री व साहित्य अकादमी पुरस्कार सम्मानित प्रसिद्घ लेखिका और उपन्यासकार शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी की जनरल काउंसिल से इस्तीफा दे दिया है

साहित्य अकादमी को लिखे उनके पत्र का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद

शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी जनरल काउंसिल से इस्तीफा दिया | Shashi Deshpande resigns from Sahitya Akademi General Council

Dr Vishwanath Prasad Tiwari,
President,
Sahitya Akademi, New Delhi

Cc: Professor Chandrashekhar Kambar, Vice-President Sahitya Akademi, Dr K. Sreenivasarao, Secretary Sahitya Akademi

Dear Sir,
When I heard in November 2012 from the Sahitya Akademi that I had been nominated to the General Council of the Akademi in the individual category of writers, I felt honoured. I have always respected the Sahitya Akademi’s role as the single institution in India that brings together all the Indian languages under one umbrella, at the same time giving each language its rightful place and dignity.

Today, I am deeply distressed by the silence of the Akademi on the murder of Professor M. M. Kalburgi. Professor Kalburgi was a noted scholar, and a good and honest human being; he was also a Sahitya Akademi awardee and a member of its General Council until recently.

If the Akademi, the premier literary organisation in the country, cannot stand up against such an act of violence against a writer, if the Akademi remains silent about this attack on one of its own, what hope do we have of fighting the growing intolerance in our country? A few tame condolence meetings here and there for a member of our community cannot serve the purpose.

Sadly, it has become increasingly important to reaffirm that difference of opinion cannot be ended with a bullet; that discussion and debate are the only way a civilised society resolves issues. It has also become clear that writers, who are supposed to be the conscience-keepers of society, are no longer considered intellectual leaders; their voices no longer matter. Perhaps this is the right time for writers to reclaim their voices. But we need a community of voices, and this is where the Akademi could serve its purpose and play an important role. It could initiate and provide space for discussion and debate in public life. It could stand up for the rights of writers to speak and write without fear; this is a truth all political parties in a democracy are supposed to believe in. Silence is a form of abetment, and the Sahitya Akademi, which should speak for the large community of Indian writers, must stand up and protest the murder of Professor Kalburgi and all such acts of violent intolerance.

In view of the Akademi’s failure to stand up for its community of writers and scholars, I am, out of a sense of strong disappointment, offering my resignation from the General Council of the Sahitya Akademi. I do this with regret, and with the hope that the Akademi will go beyond organising programmes, and giving prizes, to being involved with crucial issues that affect Indian writers’ freedom to speak and write.

Shashi Deshpande
Bangalore
October 9, 2015
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
अध्यक्ष
साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली

प्रति: प्रोफेसर चंद्रशेखर कंबर, उपाध्यक्ष साहित्य अकादमी, डॉ के. श्रीनिवास राव, सचिव साहित्य अकादमी

महोदय,

नवम्बर २०१२ में मैंने सम्मानित महसूस किया था - जब मैंने साहित्य अकादमी से सुना कि अकादमी की जनरल काउंसिल में लेखकों की व्यक्तिगत श्रेणी की लिए मेरा नाम मनोनीत हुआ है। मैंने हमेशा साहित्य अकादमी का सम्मान भारत की उस एकमात्र ऐसी संस्था के रूप में किया है - जो सारी भारतीय भाषाओं को एक छतरी के नीचे एकत्र करती है, साथ ही साथ हर भाषा को उसका उचित स्थान और गरिमा देती है।

नेक, ईमानदार विख्यात विद्वान प्रो० कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की चुप्पी से आज, मैं बहुत व्यथित महसूस कर रही हूँ; वो साहित्य अकादमी सम्मानित थे और हाल ही तक अकादमी की जनरल काउंसिल के सदस्य भी थे।

यदि अकादमी जो कि भारत की प्रमुख साहित्यिक संस्था है, लेखकों के साथ होने वाली ऐसी हिंसक घटना के विरुद्ध नहीं खड़ी हो सकती, अगर अकादमी अपने में से एक पर हुए हमले पर चुप रहती है, हम ऐसे में देश में बढती असहिष्णुता से लड़ने की क्या उम्मीद रखें ? हमारे समुदाय के सदस्य के लिए यहाँ-वहां की गयीं इन दो-चार शोक सभाओं से उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।

यह दुखद है कि इस बात की तसदीक करना आज बहुत ज़रूरी हो गया है कि विचारों में असहमति का अंत गोली से नहीं हो सकता; कि चर्चा और बहस ही किसी सभ्य समाज में समस्याओं के निराकरण का रास्ता हैं। यह बात भी साफ़ हो गयी है कि लेखक, जो समाज की अंतरात्मा के रखवाले समझे जाते हैं; उनकी आवाज़ का आज कोई महत्व नहीं रह गया है। शायद लेखकों का अपनी आवाज़ को वापस पाने का यही ठीक समय है। लेकिन, आज हमें आवाजों का समूह चाहिए, और यहीं अकादमी अपने उद्देश्य को पूरा कर, एक ज़रूरी भूमिका का निर्वाह कर सकती है। वो सार्वजनिक जीवन में चर्चा और बहस शुरू करने के लिए मंच प्रदान कर सकती है। अकादमी लेखकों के निडर हो कर बोलने और लिखने के अधिकार के लिए खड़ी हो सकती है; ये एक सच है और ऐसा माना जाता है कि प्रजातंत्र के हर राजनीतिक दल को यह सच स्वीकार्य है। चुप्पी, उकसाने का ही एक रूप है, और साहित्य अकादमी, जिसे लेखकों के एक वृहत समूह के लिए बोलना चाहिए, उसे अवश्य ही प्रो० कलबुर्गी की हत्या व ऐसी सारी हिंसक असहिष्णुता के विरोध में खड़े होना चाहिए।

अकादमी की अपने लेखकों और विद्वानों के समुदाय के लिए खड़े होने की असफलता को देखते हुए, मैं, भारी निराशा की भावना के चलते, साहित्य अकादमी की जनरल काउंसिल से अपने इस्तीफे की पेशकश करती हूँ। मुझे अफसोस के साथ ऐसा करना पड़ रहा है, इस उम्मीद के साथ कि अकादमी सम्मान देने व कार्यक्रमों के आयोजनों से ऊपर उठेगी, कि वह उन महत्वपूर्ण मुद्दों से जुड़ेगी जिनसे भारतीय लेखकों की लिखने-बोलने की आज़ादी प्रभावित होती है।


शशि देशपांडे
बैंगलोर
अक्तूबर 9, 2015

(अनुवाद - भरत तिवारी)
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सम्मान लौटाना विरोध का मानक न माना जाए - असग़र वजाहत | Award rendering shall not be treated as standard of protest - Asghar Wajahat


सम्मान लौटा देना मोदी - भाजापा विरोध का मानक या आधार न माना जाए

- असग़र वजाहत

Nayantara Sahgal, Ashok Vajpey,Dadri lynching, Uday Prakash,Sahitya Akademi, Asghar Wajahat

हिंदी और अंग्रेजी के तीन महत्वपूर्ण लेखकों ने साहित्य अकादमी सम्मान वापस कर दिया है. हो सकता है कुछ और भी करेँ या यह भी हो सकता है कि कुछ न करेँ.

सम्मान वापस करने वालों ने यह माहौल बना दिया है कि जो साहित्य अकादमी का सम्मान वापस नहीँ करेंगे या लेंगे वे वर्तमान मोदी सरकार के समर्थक या मौन समर्थक मान लिये जायेगे. यह शायद किसी भी या अधिकतर रचनाकारों को गवारा न होगा.

ऐसी स्थिति मेँ कुछ मुद्दों पर बात करना आवश्यक है. इसमेँ संदेह नहीँ की वर्तमान भाजापा - नरेंद्र मोदी सरकार देश को सांप्रदायिक फांसीवाद की ओर तेजी से ले जा रही है. राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए मोदी सरकार असहिष्णुता, एकाधिकार, धर्मांधता, अहिंसा, और बर्बरता को लगातार बढ़ावा दे रही है. देश के बहुलतावादी चरित्र पर लगातार हमले हो रहे हैँ. और अल्पसंख्यको तथा कमजोर वर्ग के प्रति अपराध बढ़ रहे हैँ जिंहेँ धर्म और संस्कृति के नाम पर गौरवांवित किया जा रहा है.

साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने वाले साहित्यकारोँ ने वर्तमान सरकार के प्रति जो प्रतिरोध दर्ज कराया है उस से मैँ 100 प्रतिशत सहमत हूँ. यह कहने की बात नहीँ कि अन्य लेखकोँ के साथ मैंने भी हमेशा धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता, एकाधिकारवाद शोषण, अत्याचार का विरोध किया है. 

लेकिन क्या मोदी सरकार की नीतियों के प्रति विरोध दर्ज कराने का यही एक रास्ता बचा है कि जिन लेखकोँ को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है वे उसे वापस कर दे? जिन्हें नहीँ मिला वो अपना विरोध कैसे दर्ज करेंगे? क्या किसी और ढंग से दर्ज किए जाने वाले विरोध को भी वही मान्यता मिलेगी जो सम्मान वापस कर के विरोध दर्ज करने वालो को मिल रही है?

महत्वपूर्ण यह है कि साहित्य अकादमी का सम्मान सरकार नहीँ देती. यदि यह सरकार ही देती है तो सम्मान उसी सरकार को लौटाना चाहिए जिसने दिया था. संदर्भित साहित्यकारों को कांग्रेस के शासन काल मेँ सम्मान मिला था इसलिए उचित यही होता कि सम्मान उसी को लौटाया जाता.

साहित्य अकादमी कहने के लिए ही सही एक स्वायत्तशासी संस्था है जिसमेँ लेखकों के माध्यम से लेखकों को सम्मान दिया जाता है. मतलब यह कि सरकार या अकादमी नहीँ बल्कि वरिष्ठ लेखकों का एक पैनल किसी लेखक को सम्मान देता है. इस प्रकार सम्मान लौटाने का अर्थ यह है कि उस पैनल को सम्मान लौटाया जा रहा है जिसने लेखक को सम्मान दिया था.

इस बात को कौन नहीँ जानता कि साहित्य अकादमी के कुछ पुरस्कार विवाद मेँ भी रहे हैँ और उनके साथ जोड़-तोड़ की अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैँ. यदि ऐसा सम्मान जो जोड़ - तोड़ से प्राप्त किया गया है तो उसे लौटना कहाँ तक किसी प्रतिरोध का सूचक बनता है?

यह कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी ने लेखको की हत्या और मौलिक अधिकारों के हनन पर कोई बयान नहीँ दिया. क्या इससे पहले साहित्य अकादमी या अन्य दूसरी अकादमियों ने ऐसे बयान दिए है? यदि नहीँ तो आज उन से यह आशा क्यों की जा रही है? 

मैँ उन लेखकों और उनकी भावनाओं का सम्मान करता हूँ और उनके साथ अपने को खड़ा पाता हूँ जिन्होंने सम्मान लौटा दिए हैँ लेकिन निवेदन यह है कि सम्मान लौटा देना मोदी - भाजापा विरोध का मानक या आधार न माना जाए.

असग़र वजाहत
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भाई परमानंद और #स्वराज्य लेखक : पंडित जवाहरलाल नेहरू | Bhai Parmanand and Swarajya : Jawaharlal Nehru


भाई परमानंद और स्वराज्य

लेखक : पंडित जवाहरलाल नेहरू


नेहरू जी का हिन्दी में यह पहला लेख है। इसे उन्होंने अलमोड़ा जेल में लिखा था और विलायत जाते वक्त सरस्वती के लिए आनन्दभवन में छोड़ गये थे।


मेरा ख़याल था—संभव है कि यह ग़लत हो—कि जिस ‘स्व’ में हिन्दू-महासभा को ख़ास दिलचस्पी है वह सरकारी नौकरी-चाकरी और कौंसिलों वग़ैरा की मेम्बरी से संबंद रखता है—

जवाहरलाल नेहरू

भाई परमानन्दजी का एक लेख—’स्वराज्य क्या है?’—मैंने अभी पढ़ा (सरस्वती अगस्त, 1935)। बहुत आशा से पढ़ा था कि इस कठिन सवाल के हल करने में या समझने में कुछ सहायता मिलेगी। लेकिन पढ़कर आश्चर्य हुआ। भाई जी हिन्दू-महासभा के एक बड़े नेता हैं और उस सभा का ध्येय क्या है या दृष्टिकोण क्या है यह बताने का उनको पूरा हक़ है और कदाचित् कोई और उतने अधिकार से यह न बतला सके। कांग्रेस का इस समय क्या राजनैतिक ध्येय है वह छिपी बात नहीं है लेकिन जो भाई जी उसको समझे हैं वह अजीब बात है। अगर भाई जी की तरह और लोग भी कुछ ऐसा ही समझे हैं तो तअज्जुब क्या कि इतनी ग़लतफ़हमी है?

#स्वराज्य क्या है? लेखक : श्रीयुत भाई परमानंद, एम.ए., एम.एल.ए. | What is Swarajya - Bhai Parmanand


भाई जी ने ‘स्वराज्य’ के दो अर्थ लगाये हैं। मुख्तसर एक तो यह है कि अपने ‘स्व’ पर क़ायम रहें यानी धर्म, सभ्यता, संस्कृति, आचार इत्यादि पर क़ायम रहें; और दूसरे यह कि अपने ‘स्व’ को स्वीकार कर लें—अपना धर्म छोड़ दें, पूर्वजों को तिलांजलि दे दें, जातीयता को त्याग दें। इस भेद के समझाने के लिए उन्होंने भारत में जब इस्लामी राज्य था उस समय का उदाहरण दिया है और मिस्र और ईरान की भी मिसाल पेश की है। फिर भाई जी ने हमको यह बताया है कि पहले तरह के स्वराज्य के लिए हिन्दू-महासभा यत्न कर रही है, यानी अपनी जातीयता और धर्म रखने की, और दूसरे प्रकार के स्वराज्य की कांग्रेस कोशिश करती है, यानी अपनी जातीयता मिटा दें और पराये की ओढ़ लें। यह भी उन्होंने दिखाया है कि इस प्रकार की नई जातीयता और ‘स्वराज्य’ लेने का सबसे आसान तरीक़ा यह है कि हम सब अपना धर्म छोड़कर ईसाई हो जावें—’’हमारा ‘स्व’ इंग्लैंड के लोगों का ‘सेल्फ़’ हो जायगा और हम स्वतन्त्र हो जायँगे।’’

किसी मज़मून पर विचार करने में यह अच्छा होता है अगर हम अपने मुख़ालिफ़ की राय को ठीक-ठीक समझें और लिखें, नहीं तो हम हवाई लड़ाई लड़ते हैं। भाई जी ने कांग्रेस के बारे में जो बात लिखी है वह मैंने आज पहली बार सुनी है और मेरे समझ में नहीं आता कि भाई जी ऐसी बेबुनियाद बात जि़म्मेदारी के साथ कैसे कह सकते हैं। कोई भी भारत का बच्चा शायद उनको बता दे कि यह बात सरासर ग़लत है।

छोटे से मज़मून में भाई जी ने बहुत बहस-तलब, और मेरी राय में ग़लत बातें लिखी हैं और उन पर कुछ कहने को जी चाहता है। बहुत अदब से मैं उनसे यह कहना चाहता हूँ कि चन्द कांग्रेसवाले भी ऐसे हैं जो हिन्दू-इतिहास और विश्व-इतिहास कुछ जानते हैं (इतिहास हिन्दू या मुसलमान या ईसाई कैसे हो जाता है, मैं समझा नहीं—लेकिन कदाचित् उनका मतलब यह हो कि भारत के हिन्दुओं का इतिहास)। मिस्र और ईरान की मिसाल जो भाई जी ने दी है वह मुझे सही नहीं मालूम होती, लेकिन इन सब बातों में जाना मेरे लिए यहाँ असम्भव है। इसी तरह से और कई बातों का भी मैं बिलफ़ेल यहाँ जि़क्र नहीं करता। मैं आशा करता हूँ कि भाई जी ज़्यादा विस्तारपूर्वक इस मज़मून को लिखेंगे और उसमें जिस सबूत और जिन वाक़यात पर उन्होंने अपनी राय क़ायम की है उनको पेश करेंगे।

ख़ास तौर से उनको चाहिए कि कांग्रेस के ध्येय के बारे में जो उनकी राय है उसको साबित करें, क्योंकि यह मुनासिब तो नहीं है कि कोई इलज़ाम बग़ैर काफ़ी वजह और सबूत के लगाया जाये। एक अजीब बात मालूम होती है कि कांग्रेस अँगरेज़ों (या ईसाइयों) का ‘स्व’ हासिल करने को अँगरेज़ी हुकूमत से असहयोग, सत्याग्रह, जंग करे और हिन्दू-महासभा अपनी पुरानी जातीयता और ‘स्व’ क़ायम रखने को गवर्नमेंट से सहयोग करें।

भाई जी ने असल सवाल पर तो अपने मज़मून में ग़ौर किया ही नहीं। वे हम लोगों की पुरानी ग़लती में पड़ गये—शब्दों के गुलाम हो गये और उनमें फँसकर असली माने छोड़ दिये। स्वराज्य क्या चीज़ है, यह एक निहायत पेचीदा सवाल है और उसी के साथ निहायत ज़रूरी है। अपने भगवानदास जी अरसे से कोशिश कर रहे हैं। इस प्रश्न का उत्तर मिले, लेकिन बहुत कम लोगों ने इसकी तरफ़ ध्यान दिया। और ध्यान न देने से यह नतीजा हुआ कि एक अजीब दिमागी गड़बड़ पैदा हो गया, और हर एक श़ख्स अपने ही माने लगा रहा है। चुनांचे भाई परमानन्द ने भी एक ऐसी दूर की पकड़ी कि वहाँ तक किसी और की अभी तक पहुँच नहीं हुई थी। स्वराज्य के सब पहलुओं में इस लेख में मैं नहीं जा सकता। न मुझे अधिकार है कि मैं कांग्रेस की ओर से ज़ाब्ते से जवाब दूँ। फिर भी कुछ ऐसी बातें जो बुनियादी हैं और जो अकसर लोग जानते हैं उनकी ओर मैं ध्यान आकर्षित किया चाहता हूँ।

स्वराज्य शब्द का पहले तो संबंध है एक देश का दूसरे देश या देशों से रिश्ता, और यह रिश्ता राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इत्यादि होता है। अगर राजनैतिक और आर्थिक बातों में कोई देश अन्य देशों के अधीन नहीं है तब वह आज़ाद या स्वतन्त्र कहलाता है। इसमें भी धोखेबाज़ी अक्सर होती है—देश सियासी तौर पर स्वतन्त्र माने जाते हैं, लेकिन परदे के पीछे वे किसी और देश के आर्थिक गुलाम होते हैं। इसी के साथ यह भी याद रखना है कि आजकल की दुनिया में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और तेज़ी से सफ़र करने से और हवाई जहाज़ और तार और रेडियो इत्यादि की वजह से सब देशों में ऐसा घनिष्ठ संबंध हो गया है कि कोई भी पूरी तौर से स्वतन्त्र नहीं कहला सकता और एक का असर दूसरे पर पड़ता है। फिर भी हम यह कह सकते हैं कि जो राजनैतिक और आर्थिक बातों में आज़ाद हैं वह इन्डेपेन्डेन्ट या स्वतन्त्र हैं। अगर यह आज़ादी उसकी है तब कोई सवाल सांस्कृतिक या सामाजिक आज़ादी का नहीं उठता, क्योंकि वह तो उसमें मिली हुई हैं। इन मामलों में उस देश को अपनी हुकूमत या रहनेवालों का अधिकार है, जो चाहें करें। अगर वे अपने पुराने आचार और संस्कृति पर क़ायम रहना चाहते हैं तो कोई उनको उससे हटा नहीं सकता। अगर वे उनको बदला चाहें तो कौन उनको रोके?

एक दूसरा पहलू भी स्वराज्य शब्द का है—देश के अन्दर लोगों का एक-दूसरे से क्या संबंध था—राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक इत्यादि। इसमें बहुत पेचीदगियाँ पैदा हो जाती हैं और तरह-तरह की रायें हैं। अक्सर लोग आधुनिक संसार में (सिवा उन देशों के जहाँ फ्रेसिज़्म का वाद है) लोकतन्त्रवाद को पसंद करेंगे। इसमें भी भेद है कि  यह लोकतन्त्रवाद खाली राजनैतिक हो कि आर्थिक और सामाजिक (Economic and social democracy) भी। पूँजीवाद, साम्यवाद इत्यादि के प्रश्न यहाँ पर उठते हैं।

कांग्रेस का क्या ध्येय है? पहले तो ज़ाहिर है कि हमारा देश और देशों के मुक़ाबले में स्वतन्त्र और इन्डेपेन्डेन्ट हो राजनैतिक और आर्थिक बातों में। इसके माने यह है कि सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक बातें उस आज़ादी में शामिल हैं और किसी बाहरवाले को उनमें दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं है। जो हमारा देश ख़ुद चाहेगा वह तय करेगा।

अंदरूनी पहलू में कांग्रेस क्या चाहती है? इसका जवाब देना ज़्यादा कठिन है सिवा इसके कि वह राजनैतिक लोकतन्त्रवाद के हक़ में है। बा़की उसने अभी तक कोई फैसला नहीं किया है, जिसके माने किसी क़दर यही हैं कि आधुनिक हालत में बहुत फ़़र्क नहीं किया चाहती। कांग्रेस एक बड़ी संस्था की सूरत में देश के सामने है, लेकिन वह तो असल में एक सर्वदल-सम्मेलन है, जिसमें बहुत तरह के और बहुत रायों के लोग हैं, जिनमें एकता ख़ाली राजनैतिक स्वतंत्रता के बारे में है। इन लोगों में आपस में आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर भेद है—साम्यवाद, पूँजीवाद और अन्य वादों के पक्षपाती सब ही हैं। कांग्रेस के नेता अधिकतर आधुनिक पूँजीवाद को पसंद करते हैं और उसमें बहुत फ़र्क़ नहीं किया चाहते।

बाद में कांग्रेस इन आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर क्या राय क़ायम करेगी, मैं नहीं कह सकता। जिधर कसरत राय होगी, उधर ही वह झुकेगी जैसा कि लोकतन्त्रवादी संस्थाओं में होता है। वह शुरू में केवल राजनैतिक कार्यों के लिए स्थापित की गई थी जैसी कि सब पराधीन देशों की राष्ट्रीय संस्थायें होती हैं। अब मजबूरी दर्जे उन सभों को और प्रश्नों का भी सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस या कोई भी जीवित संस्था इससे बच नहीं सकती।

परन्तु भाई परमानन्द जी के ‘स्व’ को छोड़ने का प्रश्न कहाँ उठता है? और अपनी जातीयता और धर्म और संस्कृति छोड़ने का? यह ‘स्व’ क्या है और भाई जी की राय में हिन्दुत्व क्या है, यह ठीक-ठीक मालूम हो तो उन पर विचार किया जा सकता है। हिन्दुओं में जाति-भेद बहुत जड़ पकड़े हुए है। इसको भाई जी हिन्दुत्व में रखेंगे? जहाँ तक मैं जानता हूँ वे इसके विरुद्ध हैं और जात-पाँत-तोड़क-मंडल के सदस्य हैं। और हमारे बहुत रवाज हैं—विधवाओं के संबंधी, विरासत के बारे में, विवाह के, मरने के, पूजा इत्यादि के, खाने के, छूत-छात के, कपड़ों के, इनमें से क्या-क्या बातें हिन्दूत्व में रखनी चाहिए? यह कहा जा सकता है कि ज़्यादातर ये बातें ऊपरी हैं और मूल बातें पकडने के लिए हमें वेदों को लेना चाहिए या हमारे दर्शन-शास्त्र को। बहुत हिन्दू यह नहीं मानेंगे कि हम इन ‘ऊपरी’ बातों को अहमियत न दें। वे उनको वेदों से अधिक आवश्यक समझते हैं। और अगर हिन्दुओं के आगे बढि़ए और बौद्ध, सिक्ख, जैनों को लीजिए (जिनको मुझे खुशी है कि हिन्दू-महासभा ने अपनाने का यत्न किया है) तब और भी पेचीदगियाँ बढ़ती हैं। बौद्ध-दर्शन शास्त्रों में और हिन्दू-दर्शन शास्त्रों में बहुत फ़़र्क है। वे वेदों को नहीं मानते। वे तो ईश्वर तक को नहीं मानते। ऐसी हालत में अगर मेरे ऐसे कम जाननेवाले लोग गड़बड़ा जावें तो क्या आश्चर्य है? इसलिए यह आवश्यक है कि भाई परमानन्द जी और हिन्दू-महासभा इस बात को बिलकुल साफ़ कर दे कि किस ‘स्व’ के लिए वे कोशिश करते हैं, किस हिन्दूत्व को वे इस हमारे देश में क़ायम रक्खा चाहते हैं। और यह भी साफ़ बताया जावे कि उनकी राय में कांग्रेस कहाँ-कहाँ ‘स्व’ को छोड़ रही है। विचार करनेवाले लोग गोल शब्दों की उलझन से निकलकर हर बात को साफ़ कहने और लिखने की कोशिश करते हैं। तब ही उस पर विचार हो सकता है, नहीं तो केवल जोश बढ़ाने के शब्द वे हो जाते हैं।

मेरा ख़याल था—संभव है कि यह ग़लत हो—कि जिस ‘स्व’ में हिन्दू-महासभा को ख़ास दिलचस्पी है वह सरकारी नौकरी-चाकरी और कौंसिलों वग़ैरह की मेम्बरी से संबंध रखता है—कितने तहसीलदार, डिप्टी कलक्टर और पुलिस के अफ़सर हिन्दू हों। यह भी मैंने देखा कि हिन्दू-महासभा को राजाओं, तअल्लुक़दारों और बड़े ज़मींदारों और साहूकारों से बहुत मोहब्बत है और उसे उनके ह़कूक़ की रक्षा की फिक्र रहती है। क़र्ज़-संबंधी क़ानूनों का उन्होंने विरोध किया इस बुनियाद पर कि वे साहूकार को हानि पहुँचाते हैं चाहे वे किसान और छोटे ज़मींदारों को फायदा क्यों न करें। क्या ये सब बातें हिन्दूत्व में मिली हुई हैं और साहूकार का ज़बर्दस्त सूद लेना भी हमारे उस ‘स्व’ का एक हिस्सा है जिसकी हमें रक्षा करनी है?

एक और विचारणीय बात है। इतिहास-लेखकों का यह ख़याल है कि भारत में मुस्लिम राज्य स्थापित होने पर हिन्दू-सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र दक्षिण-भारत की तरफ़ चला गया। वहाँ मुसलमानों की पहुँच कम थी। आज-कल भी दक्षिण में पुराना हिन्दू-वर्णाश्रम-धर्म उत्तर-भारत से अधिक है और भारत भर में यह हिन्दूत्व कदाचित् पंजाब में सबसे कम हो। इसकी वजह साफ़ है। पंजाब और सिन्ध का इस्लामी राजाओं और हुकूमत से हमारे देश में सबसे अधिक संबंध रहा। विचारणीय बात तो यह है कि इस समय इसी पंजाब में हिन्दू-महासभा की शक्ति ज़्यादा है और दक्षिण में तो उसकी पहुँच बहुत कम है।

मुझे सभ्यता और संस्कृति के इतिहास में बहुत दिलचस्पी रही है और असल में तो वही इतिहास है, बा़की राजाओं का आना और जाना और लडऩा है। जब कभी सभ्यता या संस्कृति का प्रश्न उठता है तब मैं उधर खिंचता हूँ और कुछ सीखने और समझने की कोशिश करता हूँ। सर मोहम्मद इक़बाल अक्सर इस्लामी संस्कृति का जि़क्र करते हैं। मुझे यह बात गोल मालूम हुई, इसलिए मैंने उनसे इसको साफ़ करने को कहा और कई सवाल पूछे। वे ख़ामोश रहे और कोई जवाब नहीं दिया।

भाई जी का यह कहना कि अगर हम सब ईसाई हो जावें तब हमारा ‘स्व’ इंग्लैंड का ‘सेल्फ़’ हो जावेगा, वह हमें अपना लेगी और हम उसके ढंग के स्वतंत्र हो जावेंगे, एक ऐसी अजीब बात है कि पढ़कर आश्चर्य होता है कि कोई भी ऐसा ख़याल रक्खे। इसके माने यह है कि भाई जी समझते हैं कि योरप का आधुनिक साम्राज्यवाद ईसाई-धर्म कहलाने का है! इस ग़लती में तो शायद कोई स्कूल का बच्चा भी न पड़े। साम्राज्यवाद से और धर्म में क्या संबंध? अबीसीनिया तो ईसाई-देश है और सबमें पुराना ईसाई-देश है जबकि योरपवाले तक ईसाई नहीं हुए थे। उस पर इटली का क्यों मिला? योरप के ईसाई-देशों में आपस में पिछली बड़ी लड़ाई क्यों हुईं? आयर्लेंड भी ईसाई-देश एक हज़ार वर्ष से ऊपर से है। उस पर अँगरेज़ी साम्राज्यवाद क्यों सात सौ बरस से चढ़ाई करता रहता है।

देशों की जातीयता और सभ्यता को लीजिए। भाई जी मिस्र और ईरान की मिसाल देते हैं कि जिन्होंने अपनी जातीयता को मिटा दिया और अपने की शासक विदेशी जाति के अन्दर जज़्ब करवा दिया। मिस्र का हज़ारों वर्ष का पुराना इतिहास चला आता था और उसमें बहुत ऊँच-नीच और तबादले तथा हमले और फ़तेह हुए थे—फिर क़रीब 2200 साल हुए सिकंदर ने मिस्र फ़तेह किया और उसकी वापसी के बाद उसका एक जेनेरल टोलोमी वहाँ का बादशाह हुआ। उसने मिस्र के देवता और आचार स्वीकार किये, केवल उनमें कुछ अपने ग्रीस के भी देवता दिये। मिस्र एक बड़ा केन्द्र ग्रीक-सभ्यता और मिस्र का हो गया। फिर बहुत दिन बाद वह रोमन-साम्राज्य के अधीन हो गया। ईसाई मज़हब वहाँ योरप के पहले फैला और कई सौ वर्ष तक रहा। बाद में इस्लाम वहाँ आया और उसकी आसानी से जीत हुई। इस समय मिस्र में अधिकतर मुसलमान हैं और कुछ पुराने, इस्लाम के पहले के, ईसाई हैं जो कोप्ट्स कहलाते हैं। इस्लाम भी वहाँ 1300 वर्ष से है। जब भाई जी कहते हैं कि मिस्र ने अपनी जातीयता को मिटा दिया तब उनका क्या मतलब है? पिछले 7000 वर्ष के इतिहास में किस ज़माने को वे मिस्र की असली जातीयता का ज़माना गिनते हैं?

ईरान में इस्लाम की जीत मिस्र की तरह जल्दी हुई। लेकिन जाननेवालों की राय यह है कि उससे ईरानी सभ्यता और संस्कृति दबी नहीं, बल्कि अरबी मुसलमानों तक पर हावी आ गई और अरबी ख़ली़फा पुराने ईरानी बादशाहों की और बहुतेरे रवाजों की नक्ल करने लगे। वह ईरानी संस्कृति इतनी ज़ोरदार थी कि उसका असर पश्चिमी एशिया से लेकर चीन तक लगातार क़ायम रहा। इस समय ईरान में इस्लाम के पहले की यह पुरानी संस्कृति लोगों को ज़ोरों से आकर्षित कर रही है।

हमारे देश के पुराने इतिहास की तरफ़ एक झलक देखिए। आर्यों के आने के पूर्व कई सहस्र वर्ष तक यहाँ एक ऊँचे दर्जे की सभ्यता थी, जिसका छोटा-सा नमूना हमको मोहनजोदारो में मिलता है। शायद उसका संबंध द्राविड़-सभ्यता से हो जो स्वयं आर्यों के पहले की थी। फिर आर्य आये और द्राविड़ लोगों को हराया और उन पर हुकूमत की। कुछ रवाज और धर्म के मामले में उनसे समझौता किया, कुछ अपने देवता उनके सामने रक्खे। इन समझौतों से एक मिली हुई संस्कृति पैदा हुई जिसमें आर्यों का अधिक हिस्सा था। फिर और बहुत जातियाँ इस देश में हमला करके आईं, जिनमें ख़ास तौर से कई तुर्की जातियाँ थीं, और यहाँ बस गईं। राजपूताने और काठियावाड़ के हमारे बहुतेरे राजपूत ख़ानदान तुर्की खून रखते हैं। उस ज़माने में दूसरे धर्म का सवाल नहीं था, क्योंकि मध्य-एशिया के ये तुर्की लोग सब बौद्ध थे। फिर भी वे अपने बहुतेरे रवाज और आचार यहाँ ले आये। इसी तरह से भारत में (और हर देश ही में) बहुत चश्मे और दरिया मु़ख्तलिफ़ देशों से बहकर आये और हमारी संस्कृति पर असर डालते गये। फिर इस्लाम फ़तेह की सूरत में आया और हम अपने को उससे बचाने के लिए सिकुड़ गये और अपनी संस्कृति की खिड़कियाँ जो खुली रहती थीं, उनको बंद कर लिया।

भाई जी की राय में हमारी हिन्दू-जातीयता कब शुरू होती है? आर्यों के आने पर? यह क्यों? हम उनके पहले मोहेनजोदारो के ज़माने को क्यों छोड़ दें, और फिर द्राविड़-ज़माने को? क्या द्राविड़ लोगों को कहने का अधिकार नहीं है कि आर्य लोग बाहरी हैं जो आके यहाँ बलपूर्वक जम गये हैं? ऐसे बहुत सवाल उठ सकते हैं, क्योंकि इतिहास में सभ्यता, संस्कृति, विचारधारा—ये सब बहती हुई एक देश से दूसरे देश में जाती रहती हैं और एक-दूसरे पर असर डालती हैं। उनके बीच में अलग करने को क़तार खींच देनी कठिन है। किसी भी जीवित चीज़ की यह निशानी है कि वह बढ़ती है और बदलती है। जहाँ उसका बढ़ना रोका वहाँ उसकी जान निकल गई। सभ्यता और संस्कृति भी इसी तरह उसी समय तक जिन्दा रहती हैं जब तक उनमें माद्दा है बदलती हुई दुनिया के साथ ख़ुद भी कुछ बदलने का। सबसे बड़ा सबक़ जो इतिहास हमको सिखाता है वह यह है कि कोई चीज़ एक-सी नहीं रहती। हर समय बढ़ना या घटना, क्रान्ति या इन्क़लाब। जिस जाति ने इससे बचने की कोशिश की और अपने को जकड़ लिया वह अपने ही बनाये हुए पिंजरे में कैदी बनकर सूखने लगी।

पहले ज़माने में जब दूर का सफ़र करना कठिन था, देशों का एक-दूसरे से संबंध कम था और इससे उनमें फ़़र्क थे। जितना अधिक आना-जाना हुआ उतना ही असर एक-दूसरे पर पड़ा। आधुनिक दुनिया में रेल, मोटर, हवाई जहाज़ ने सरहदें क़रीब-क़रीब मिटा दीं और दुनिया की एकता बढ़ा दी। किताबें, समाचार-पत्र, तार, रेडियो, सिनेमा इत्यादि हर वक्त हम पर असर डालते हैं और हमारे विचारों को हलके-हलके बदलते हैं। इनको हम पसंद करें या नापसंद करें, हम इनसे बच नहीं सकते। इसलिए इनको समझना चाहिए और इनको अपने क़ाबू में लाना चाहिए।

इन सब बातों के लिए हमारा पुराना हिन्दूत्व क्या सलाह देता है, मैं भाई जी से पूछना चाहता हूँ? वे धार्मिक सभ्यताओं और जातीयता की चर्चा करते हैं। लेकिन आधुनिक संसार की सभ्यता तो लोहे की मशीन की और ज़बर्दस्त कारखानों की है। उसको धर्म से क्या मतलब? और बग़ैर पूछे या बहस किये वह पुरानी मूर्तियों को गिराती हुई आगे बढ़ती जाती है। हिन्दुओं के जाति-भेद के मिटाने को बड़े आन्दोलन हुए, लेकिन सबसे बड़ी क्रान्ति पैदा करनेवाली तो रेल है और ट्राम और लारी। उनमें कौन अपने पड़ोसी की जात देखता है?

पुराने इतिहास और आधुनिक संसार की राजनीति पर विचार करते हुए दिमाग़ में ख़यालात का एक हुजूम पैदा हो जाता है। क़लम उनका साथ नहीं दे सकता। वह बेचारा तो धीरे-धीरे काग़ज़ पर काली लकीरें खींचता है, विचारों की दौड़ में बिलकुल पिछड़ जाता है। उसकी धीमी ऱफ्तार से उलझन पैदा होने लगती है। खैर, यह मज़मून बहुत लम्बा हुआ और, हालाँकि नाक़ाफ़ी है और नामुकम्मल है, अब इसका ख़त्म करना ही मुनासिब है। संभव है कि फिर काग़ज़-क़लम और स्याही का सहारा लेऊँ और इन मज़मूनों पर अपने फिरते हुए विचारों को शक्ल और सूरत दूँ। एक प्रार्थना फिर से दोहराता हूँ कि भाई परमानन्द अपने मानों पर ज़्यादा रोशनी डालें और जिन बातों की तरफ़ मैंने इस लेख में इशारा किया है उनको साफ़ करें।

[‘सरस्वती’, अक्टूबर 1935 से साभार]

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