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सवाल बच्चों को भारतीय भाषाओं से जोड़ने का @BharatTiwari


हिंदी साहित्य से बच्चों की दूरी — भरत तिवारी

हिंदी साहित्य से बच्चों की दूरी

भरत तिवारी

यह तो हमसब जानते हैं कि बच्चों के लिए किताबें ज़रूरी होती हैं, पाठ्य पुस्तकों से मिलने वाले ज्ञान का व्यवहारिक ज़िन्दगी से कम नाता होता है, हमारी शिक्षा प्रणाली पाठ्यक्रम की पुस्तकों से तो ख़ूब परिचित कराती है लेकिन उस ज्ञान से जो इंसान को इंसानियत और आपसी प्रेम की समझ देता हो, उसे कहीं नज़रंदाज़ किये देती है। हममें से कितने ऐसे हैं जो अपने बच्चों को किताबों से न सिर्फ प्रेम करना सिखाते हैं बल्कि यह भी देखते हैं कि वे साहित्यिक किताबें खरीदें? अंग्रेजी किताबों के प्रति बच्चों के झुकाव पर तो बड़ी बहसें होती हैं लेकिन ज़मीनी तौर पर भारतीय भाषाएँ बच्चों को अपने से जोड़ने के लिए क्या कर रही हैं? यह प्रश्न पुस्तक मेले में लगे प्रकाशकों के स्टालों को देखने के बाद मेरे सीने पर सवार हो गया है। अंग्रेजी के दो बड़े प्रकाशनों पेंगुइन और हार्पर में बच्चों के लिए अलग-से बड़ा और सुन्दर कोना बना हुआ दिखा, बच्चों की भारी भीड़ भी दिखी। इन प्रकाशकों ने बताया कि बिक्री का क़रीब 30% बच्चों की किताबें होती हैं। यह 30% तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब पेंगुइन बुधवार (11 जनवरी) तक हुई बिक्री को 40लाख रुपया बताता है यानि 10लाख रुपये से अधिक बच्चों की पुस्तकों की खरीददारी सिर्फ एक प्रकाशक के स्टाल से हुई होगी। जब यही दृश्य मैं हिंदी के प्रकाशकों के स्टाल पर देखना चाहता हूँ तो ‘अँधेरा’ दिखता है, शून्य नज़र आता है।

नवोदय टाइम्स, १२ जनवरी

नवोदय टाइम्स, १२ जनवरी


हिंदी की वे किताबें जो बड़े-बच्चों में हिंदी-साहित्य के प्रति प्रेम पैदा कर सकती हैं, उन्हें हमारी असल संस्कृति सिखा सकती हैं—हर बड़े प्रकाशक के स्टाल पर उपलब्ध है—लेकिन ऐसा कुछ-भी नहीं होता दीखता जिससे यह लगे कि कम उम्र के पाठकों को तैयार किये जाने की कोशिश हो रही हो। ऐसे कैसे चलेगा? अंग्रेजी का दुखड़ा रोने-से कुछ नहीं होगा, बल्कि उनसे सीखने की ज़रूरत है—किस तरह कमउम्र से ही पाठक को साहित्य से जोड़ा जा सकता है और युवाओं के देश भारत को मानसिकरूप से सच्ची समृद्धि दी जा सकती है। यहाँ मैं राजकमल प्रकाशन के आमोद महेश्वरी और मेरी बेटियों के बीच हुई बात बताना चाहूँगा — ‘रागदरबारी’ पढ़ रही मेरी छोटी बेटी ने जब उनसे पूछा कि इसकी कितनी बिक्री होती है? तो उन्होंने कोई 10-12 रागदरबारी के बण्डल के ऊपर हाथ को हवा में ऊपर उठाते हुए बताया — सुबह इतना ऊंचा होता है! उसके साथ ही—मेरे यह बताने पर कि ‘रागदरबारी’ से आरुषी का साहित्य पढ़ना शुरू हो रहा है—आमोद ने ‘आपका बंटी’ और ‘सारा आकाश’ देते हुए बेटी से कहा ‘इन्हें भी पढ़ना’। यानी हिंदी के लेखक और प्रकाशक और थोड़ा-बहुत हम-पाठक यह जानते हैं कि बच्चों को क्या पढ़ना चाहिए... सवाल यह है कि इसके लिए हम क्या कर रहे हैं... प्रकाशकों के ऊपर यह दारोमदार है कि वे अपनी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी में—-बड़े-हो-रहे-बच्चों और हमारे साहित्य के बीच की दूरी को कम करने के प्रयासों को—प्रमुखता से शामिल करें।

भरत तिवारी
mail@bharattiwari.com
9811664796

झोलाछाप आलोचक ― कथाकार शिवमूर्ति का संपादक प्रेम भारद्वाज को करारा जवाब 

नामवर होना  ~ भरत तिवारी 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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वो पचास दिन — मृणाल पाण्डे | Modi's demonetisation - @MrinalPande1


मोदीजी का लड़ाई की रणनीति के बिना काले धन के खिलाफ युद्ध के लिए जाना...

और वापस आना ... किसानों, बूढों, गर्भवती महिलाओं, मध्यवर्गीय होम लोन आकांक्षियों और छोटे मंझोले उद्योगों के लिये कुछेक नई छूटों का ऐलान करने वाले का !




मृणाल पाण्डे

चंद नाखुश करनेवाले किंतु वाजिब सवाल                        

मृणाल पाण्डे


साल के आखिरी दिन टीवी के माध्यम से देश से मुखातिब होकर प्रधानमंत्री ने कहा कि नोटबंदी एक शुद्धियज्ञ था जो भ्रष्टाचार समाप्ति और कालेधन को बाहर लाने के लिये उनकी सरकार ने करवाया । भाषण में 50 दिन तक इस जनमेजयी नाग-यज्ञ से भीषण तकलीफ झेलती रही जनता का भरपूर शुक्रिया तो अदा किया गया । लेकिन 45 मिनट चले भाषण में इस रहस्य का उद्घाटन एक बार भी नहीं हुआ कि इतने काले नागों की कथित आहुति से कुल कितना काला धन उनके बिलों से बाहर आया ? न ही यह, कि बैंकों की व्यवस्था सामान्य होने (यानी हर खाताधारक को चेक या एटीएम से बिना दिक्कत मनवांछित धनराशि निकाल पाने) में अभी और कितने दिन लग सकते हैं ?

अचरज यह भी, कि सबसे अधिक तकलीफ सह रहे वर्गों : किसानों, बूढों, गर्भवती महिलाओं, मध्यवर्गीय होम लोन आकांक्षियों और छोटे मंझोले उद्योगों के लिये कुछेक नई छूटों का ऐलान कर दिया गया, जो अमूमन बजट में की जाती रही हैं । वह निगोड़ा तो पहली फरवरी को आ ही रहा था । राजनीति के जिन अनुभवी पर्यवेक्षकों ने अभी अपना अनुपात बोध नहीं खोया है, उनका यह अहसास पक्के यकीन में बदल गया, कि इस बहुप्रचारित कवायद का असली लक्ष्य चुनावों और राजनीति में प्रतिद्व्ंदियों को धूल चटाना था, आर्थिक या नैतिक सुधार-वुधार नहीं । क्योंकि नोटबंदी के बाद संस्थागत भ्रष्टाचार को चिन्हित और खत्म करने पर बल देते हुए सरकार के सारे उपलब्ध साधनों से तुरत यज्ञ का अगला चरण शुरू हो जाता तो ही बात बनती । लेकिन चुनावी तारीखों की घोषणा के बाद सरकार लगता नहीं इस नाज़ुक घड़ी में इस क्रांति को अधिक मज़बूत कर अतिरिक्त अपयश कमाने की इच्छुक है । लिहाज़ा सरकारी तंत्र का मुख अफरातफरी के बीच देश को डिजिटलीकरण की संपूर्णक्रांति की तरफ मोड़ दिया गया है ।

और आदेश हुआ है कि देशहित में देश के तमाम अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण, अंग्रेज़ी जानने- न जाननेवाले लोग बिना नई तकनीकी, उसकी संचालन व्यवस्था, उसके मानवीय कर्मियों की गहरी पड़ताल किये बिना ही, सिर्फ सरकार के कहने पर कई देसी-परदेसी बैंकों, और डिजिटल कंपनियों तथा नेटवर्कों को अपनी सारी जमा-जथा सुपुर्द कर उनको उसका चौकीदार व दारोगा नियुक्त कर दें ।

विपक्ष की तमाम अपीलों को बरखास्त करते हुए इसी बीच सरकार बजट सत्र चालू करने जा रही है । काश इस सत्र में संसद पुन: कांग्रेसयुगीन गलतियों, बसपा के चुनाव फंड की कालिमा या सपा के पारिवारिक टकराव की लालिमा जैसे मसलों पर बहस मोड़ कर प्रत्याशित हंगामों में संसद का समय बरबाद न करे । ताकि यह सुनिश्चित हो कि सरकार अपनी शीर्ष बैंकिंग संस्था रिज़र्व बैंक, द्वारा नोटबंदी के आदेश से पहले काले धन की बाबत जो भी उसने जाँच करवाई, जिस तरह करवाई तथा नोटबंदी से जुड़े सभी अध्यादेशों की बाबत साफ सुथरे ब्योरे सदन के पटल पर पेश करे । यह भी देश जाने कि कालेधन को कूतने की सरकारी गणना पद्धति क्या अधिकृत संस्था आरबीआई से आई थी कि यह काम बाहरी विशेषज्ञों का था ? यदि हाँ, तो किस संस्था और उसके किन विशेषज्ञों ने डाटा हैंडल किया था और उनके द्वारा कुल अनुमानित काली राशि कितनी थी ? घोषित 50 दिनी मीयाद के बाद जब रिज़र्व बैंक ने पुराने नोट लेना बंद कर प्रक्रिया का समापन कर दिया तो अब तक सरकार के हाथ खास काला धन नहीं लगा है । यह बात खुद रिज़र्व बैंक के गवर्नर साहिब बता चुके हैं । यह भी ज़ाहिर हुआ है कि सरकार ने ही 7 नवंबर को रिज़र्व बैंक को सलाह दी थी कि नोटबंदी की जानी है, और कथित रूप से स्वायत्त बैंक ने बिना कई बेहद ज़रूरी सवाल पूछे या सलाह दिये, आनन फानन बैठक बुलवा कर यह औपचारिकता भी पूरी कर दी । बस अगले ही दिन खुद प्रधानमंत्री जी द्वारा इसकी घोषणा कर दी गई, जबकि प्रथानुसार यह काम रिज़र्व बैंक के गवर्नर का है । तब तक न काफी मात्रा में नये नोट छपे थे न ही ज़मीनी टीमों को इस विशाल कार्यक्रम की कोई पूर्वसूचना देकर खास प्रशिक्षण दिया जा सका था जिसके दुष्परिणाम गिनाना ज़रूरी नहीं ।  फिर भी जाननेवाले जाने कैसे यह तमाम भेद पहले ताड़ चुके थे सो कुल 50 दिनों में नये भ्रष्टाचार के औज़ारों द्वारा कालेधन का अधिकांश सफेद बनवा लिया गया ।

इस सारे प्रकरण के बाद खीझी हुई भारत की जनता, खासकर गरीबों, किसान मजूरों को अश्रुमय धन्यवाद देना और भारतीय धीरज को फूलहार चढाना नाकाफी है ।

औरतें तो सदा से भुनभुनाती रही हैं कि अपने यहाँ गरीब की जोरू सबकी भाभी बनने को अभिशप्त होती है, और धैर्य का सही मतलब ज़बर्दस्ती को चुपचाप झेलना होता है । सास हो कि पुलिस या सरकारी अमला, कमज़ोर का पक्ष लेता ही कौन है ? यह ज्ञान शक्तिहीन जनता को बहसतलब बनने की बजाय मंथरा की ही तरह फितरतन फजीहतपसंद और चमत्कारप्रिय बनाता गया है ।

चुनावी राजनीति हो या फिल्म या सीरियल, जब-जब कहानी में खतरनाक ट्विस्ट आये, आमजन चाहता है कि सलमान खान या अक्षय कुमार की फिल्म की तरह एक महानायक सूमो दौड़ाता दीवार फाड़ कर निकले और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपनी मां या प्रेमिका को बंधक बनाकर रखे हुए विलेन को पीटपाट कर मामला बरोबर कर दे ।

सबका साथ सबका विकास, जनता या कि नारी का हम सम्मान करते हैं, भ्रष्टाचार नहीं होना चाहिये, यह तो ऐसे चुनावी मुद्दे हैं जिनपर 1947 से लेकर आज तक का हर दल का मैनीफेस्टो टिक मार्क लगाता है ।

यह भी शिथिल जनता जानती है कि हर पार्टी ने बहुत चुस्त व्यवस्था कर ही रखी होगी कि उसके शीर्ष नेता के करकमल खुद कभी कीचड़ से मलिन नज़र न आयें । नज़रबट्टू होली का नारियल तो अक्सर कोषाध्यक्ष या कि उस मुँहलगे किंतु भरोसेमंद कार्यकर्ता को बनाया जाता है जो नेतृत्व के मंदिर के बाहर बैठा सारा चढ़ावा गुप्त खातों में भरता रहता है । रिज़र्व बैंक की जवाबदेही हो या कि उम्मीदवार चयन की, अभी भी सब दल नियम नहीं, अंग्रेज़ी कहावत का ही अनुसरण करते दिखते हैं, कि तुम मुझे बंदा दिखाओ, मैं तुमको सही नियम बता दूंगा (यू शो मी द मैन, आई विल शो यू द रूल) ।

सीमा सुरक्षा बल का जवान घटिया खाने की शिकायत करें तो उसका एक दिन में तीन बार तबादला, दूसरी तरफ ताबेदार लोगों को नियमविरुद्ध नया कार्यकाल ।

जब तक यह तरीके लागू हैं, तब तक जनविवेक सोता रहेगा । पर क्या हम अपनी सारी जमा जथा सिर्फ इस आधार पर कई वादाफरोशियों के बाद भी, डगमग सर्वरों और खराब कनेक्टिबिटी के बावजूद, शातिर साइबर अपराधियों के जाल से घिरी डिजिटल दुनिया के हवाले कर दें, कि इससे हमको भीड़भाड़ में जेब कटने या घर में सेंध लगने का डर नहीं रहेगा ?


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मृणाल पाण्डे : राजा का हाथी



राजा का हाथी  — मृणाल पाण्डे

कांग्रेस जल्द ही दिल्ली पर काबिज़ होगी इसकी कोई डरावनी संभावना अभी दूर दूर तक नहीं, किंतु कांग्रेसी मिट्टी से सपा का एक सबलीकृत किला वे रच सके तो खुद अखिलेश अगले पाँच सालों में दिल्ली की तरफ अपना घोड़ा मोड सकते हैं


कहते हैं उज्जयिनी के राजा का एक प्रिय किंतु बूढ़ा हाथी एक बार कीचड़ में जा गिरा और दयनीय भाव से चिंघाड़ने लगा । उसे बाहर लाने की कोशिशें जब नाकामयाब रहीं तो राजा ने उसके महावत को बुलवाया । महावत ने सलाह दी, कि बूढ़ा हुआ तो क्या? यह हाथी तो बड़ा हिम्मती है और कई लड़ाइयों में आपको विजयश्री दिलवा चुका है । उसके पास युद्ध के नक्कारे-रणभेरियाँ आदि बजवाये जायें तो रणसंगीत से उत्तेजित हो कर बूढ़ा हाथी खुद उठ कर बाहर निकल आयेगा । यही किया गया और हाथी सचमुच बदन झटकारता हुआ कीचड़ से बाहर निकल आया । यह कहानी सुना कर गुरु ने शिष्यों से पूछा तुमको इससे क्या शिक्षा मिलती है ? एक ने कहा, यह दिखाता है कि युद्ध के संगीत में कितनी ताकत होती है । दूसरा बोला, इससे पता चलता है कि बूढ़ा होने पर भी एक असली योद्धा ज़रूरत के समय अपनी आक्रामक ताकत दिखा सकता है । तीसरे ने कहा नहीं , इसका मतलब है कि उम्र किसी को नहीं छोड़ती । बड़े से बड़ा योद्धा भी उम्रदराज़ होने पर कीचड़ में धँसने पर एकदम असहाय हो जाता है ।


उत्तर प्रदेश में सपा के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की ताज़ा दशा देख कर तीसरे छात्र का उत्तर सही लगता है।
हवा का रुख समझ कर मुलायम बेटे को ‘विजयी भव’ कहते हुए पदत्याग कर देते तो उनके वनवास में भी एक भव्य गरिमा होती । 
लेकिन कई अन्य ज़िद्दी पूर्ववर्ती बुज़ुर्गों की तरह उन्होंने ऐसा नहीं किया ।

यह सही है कि कोई कमंडल लेकर राजनीति में नहीं आता । नेताओं को अपने कई रिश्तेदारों और स्वामीभक्त साथियों का भी खयाल रखना होता है । और एक बेहतर क्षितिज जब तक उनको उपलब्ध न मिले, (या कोई अन्य बेहतर क्षितिज पा कर वे साथ न छोड़ जायें) तब तक वे पदत्याग किस तरह करें ? लेकिन एक अंतर्विरोध फिर भी बच रहता है ।

मुलायम सिंह जैसा कद्दावर नेता यदि ठीकठाक समय पर बेटे को उत्तरप्रदेश की बागडोर थमा कर वानप्रस्थी हो जाए तो किंचित विवादित अतीत के कामों और उनके कतिपय दागी छविवाली मित्रमंडली को भुला कर नेताजी को भारत की जनता सादर याद रखती । 
लेकिन लगता है कि मुलायम के दिल में ‘गो हाथ में ज़ुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है’ वाली एक ययातिकालीन ज़िद कुंडली मार कर बैठी है । जभी वे सफल नेता के पिता का सम्मानित ओहदा ठुकरा कर खुद सफल नेता का रोल करने को आतुर हैं । राजनीति में आगे जाकर अखिलेश का जो हो, इस ताज़ा घरेलू टकराव में बेटे के आगे पिता की हार तय है । और उनकी अवनति के बाद कान भरकर उनसे बेटे की बेदखली के कागज़ पर हस्ताक्षर करवानेवाले उनके करीबी कहाँ जायेंगे इसके जवाब कोई बहुत सुखद नहीं ।

पिछडी जातियों को सत्ता में वाजिब ज़िम्मेदारी दिलवाने और मंदिर विवाद से भयभीत मुसलमानों को आश्वस्त करने के जिस मिशन को लेकर मुलायम राजनीति में आये थे, वह पूरा हो चुका है । और अब उत्तरप्रदेश के चुनावों में न तो कांग्रेस और न ही भाजपा पुराने सवर्णवादी या सांप्रदायिक कार्ड खुल्लमखुल्ला खेल सकेंगे । यह मुलायम का बड़ा हासिल है । पर इस के बाद क्या खुद उनको पता है कि ढ़लती उम्र में वे क्या नई क्रांतिकारी शुरुआत करेंगे ? नयेपन की जहाँ बात है, वहाँ सपा उनके ही घर के नये खून को समर्थन दे रही है । और जब अखिलेश के बरक्स वे अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता नहीं रहे तो अब चुनावी रणभेरी सुन कर येन केन दलदल से उबर भी आए, तो क्षणिक तालियों बटोरने के अलावा क्या हासिल करेंगे ?

मृणाल पाण्डे

राजनीति लंबा ब्लफ पसंद नहीं करती

अफवाहें सच्ची हैं, तो मुलायम को भिड़ने की सलाह देनेवाले अमरसिंह को ज़ेड श्रेणी का सुरक्षाकवच दे रही भाजपा के भावी मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम अभी एक तिजोरी में कैद है । उसे शायद प्रतीक्षा है कि जब यादव कुल की रार से सबलतम विरोधी पत्ते डाल देंगे, तब वह अपना पत्ता खोलेगी । पर राजनीति लंबा ब्लफ पसंद नहीं करती । मान्य अदालत ने एक ताज़ा फैसले से यह निश्चित करा दिया है कि किसी दल के पत्ते अनुकूल हों और किसी के पास बेहतर पत्ते होने का डर न हो, तब भी कोई प्रेक्षक मुस्कुरा कर रंग में भंग डाल सकता है कि अमुक जुआखाने के मालिक ने पत्ते फेंटने में बेमंटी की थी या अमुक पत्तावितरक मोज़े में असली पत्ता छुपाता रहा है । अन्य लीला देश के आगे जारी है ही, जिसकी तहत टीवी के हमाम में मीडिया के रायबहादुर कई स्टिंग आपरेशनों से किसी भी दल को कभी भी नंगा सिद्ध करते रहते हैं । दिल्ली से भिजवाया उम्मीदवार प्रदेश के मंच पर एंट्री लेगा, तो उसे भी नाटक की उसी पटकथा के अनुरूप अभिनय करना पड़ेगा । जाति धर्म वंश की कोई न कोई मिथकीय पोशाक बिना पहने क्या वह सपा बसपा के उम्मीदवारों से सुशोभित नाटक के बीच बुनियादी क्षेत्रीयता हासिल कर पायेगा ?

उत्तरप्रदेश के ज़मीनी मुख्यमंत्री

हो सकता है कुछ पाठकों को यह नाटक और मिथक नापसंद हों, लेकिन इसका मतलब यह हुआ कि आपको वह मिट्टी ही नहीं पसंद जिससे उत्तरप्रदेश के ज़मीनी मुख्यमंत्री गढे जाते रहे हैं । दिल्ली से मिट्टी आयातित कर यहाँ खालिस मार्क्सवादी, खालिस लोहिया समर्थक और खालिस संघी कोई भी अपने किलों को टिकाऊ आकार नहीं दे सके । थोड़े से इस्पात की तरह उसमें जाति धर्म और वंश का काँसा मिलाना ही मिलाना होता है । और यहाँ पर कांग्रेसी काँसे में विभिन्न धर्म और जातिगत हित स्वार्थों , पुरानी परंपरा और नई अर्थनीति के निहितार्थों को एक साथ समेटने की जो दुर्लभ क्षमता दिखती है, किसी अन्य दल में नहीं । अखिलेश यह बात अपने पिता से बेहतर भाँप रहे हैं । कांग्रेस जल्द ही दिल्ली पर काबिज़ होगी इसकी कोई डरावनी संभावना अभी दूर दूर तक नहीं, किंतु कांग्रेसी मिट्टी से सपा का एक सबलीकृत किला वे रच सके तो खुद अखिलेश अगले पाँच सालों में दिल्ली की तरफ अपना घोड़ा मोड सकते हैं, जहां उनकी उम्र और किले में समाहित कांग्रेसी गुणसूत्र बुढ़ाते दिल्ली नेतृत्व को चुनौती देने में उनके बहुत काम आयेंगे । हाथी मरा भी तो सवा लाख का । उत्तरप्रदेश का मन बाँच रहे पाठकों को इस लेखिका की ही तरह हाथी की कहानी से इस तरह अनेक नये संदेश भी निकलते दिखाई देने लगे होंगे ।          


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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प्रत्यक्षा की कहानी — एक दोपहर...तुम यकीन नहीं करोगे #येजोदिल


प्रत्यक्षा की कहानी


Ek Dopahar...Tum Yakin Nahi Karoge

 Pratyaksha

सिरीज़ 'ये जो दिल है दर्द है कि दवा है' की दूसरी कहानी 
मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है । 

हम जब बात करते हैं हमारे बीच की हवा तैरती है, तरल । तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन कई बार मैंने देखी है मछलियाँ, छोटी नन्ही मुन्नी नारंगी मछलियाँ, तैरते हुये, लफ्ज़ों के बीच, डुबकी मारती, फट से ऊपर जाती, दायें बायें कैसी चपल बिजली सी । तुम कहते हो, मेरी बात नहीं सुन रही ?

प्रत्यक्षा
मैं जवाब में मुस्कुराती हूँ, तुम्हारी बात पर नहीं । इसलिये कि कोई शैतान मछली अभी मेरे कान को छूती कुतरती गई है । तितलियाँ भी उड़ती हैं कभी कभार । और कभी कभी खिड़कियों पर लटका परदा हवा में सरसराता है । हमारी कितनी बातें घुँघरुओं सी लटकी हैं उसके हेम से । मेज पर रखे तश्तरी और कटोरे में दाल और चावल के साथ हमारी उँगलियों का स्वाद भी तो रह गया है ।

तुम यकीन नहीं करोगे । दीवार पर जो छाया पड़ती है, जब धूप अंदर आती है, उसके भी तो निशान जज़्ब हैं हवा में । सिगरेट का धूँआ, तुम्हारे उँगलियों से उठकर मेरे चेहरे तक आते आते परदों पर ठिठक जाता है । मैं कहाँ हूँ पैसिव स्मोकर ? न तुम्हें नैग करती हूँ, छोड़ दो पीना । सिगरेट का धूँआ मुझे अच्छा लगता है । मैं मुस्कुराती हूँ । तुम कहते हो, मेरी बात नहीं सुन रही ?

मैं सचमुच नहीं सुन रही तुम्हारी बात । मैं खुशी में उमग रही हूँ । मैं अपने से बात कर रही हूँ । परदे के पीछे रौशनी झाँकती सिमटती है । उसके इस खेल में रोज़ की बेसिक चीज़ें एक नया अर्थ खोज लेती हैं, जैसे यही चीज़ें ज़रा सी रौशनी बदल जाने से किसी और दुनिया का वक्त हो गई हैं । तुम सचमुच यकीन नहीं करोगे ।




लेकिन कई बार मेरी छाती पर कुछ भारी हावी हो जाता है जो मुझे सेमल सा हल्का कर देता है । तब छोटी छोटी तकलीफें अँधेरे में दुबक जाती हैं । मेरा मन ऐसा हो जाता है जैसे मैं आकाशगंगा की सैर कर लूँ, दुनिया के सब रहस्य बूझ लूँ, पानी के भीतर, रेगिस्तान के वीरान फैलाव के परे, चट नंगे पहाड़ों के शिखर पर .. जाने कहाँ कहाँ अकेले खड़े किन्हीं आदिम मानवों की तरह प्राचीन रीति में सूर्य की तरफ चेहरा मोड़ कर उपासना कर लूँ ।

परदा हिलता है, रौशनी हँसती है, अँधेरा मुस्कुराता है । तुम कहते हो, मेरी बात नहीं सुन रही ? 

तुम यकीन नहीं करोगे लेकिन अब मैं सचमुच तुम्हारी बात सुन रही हूँ ।

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सिरीज़ 'ये जो दिल है दर्द है कि दवा है' की पहली कहानी

बाबू ! अब और क्या ? 


रवि कथा — ममता कालिया (भाग २) | Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 2


Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 1


रवीन्द्र कालिया पर लिखा ममता कालिया का संस्मरण

रवि कथा — भाग २

30 जनवरी सन् 1965 को जिस रवींद्र कालिया से चंडीगढ़ की गोष्ठी कहानी ‘सवेरा’ में मेरा परिचय हुआ वह बात बात में ठहाके लगाने वाला, अजीबोगरीब किस्से सुनाने वाला, चेन स्मोकर और बेचैन बुद्धिजीवी था। कद छह फीट और तीखे नाकनक्श, बेहद सुंदर हंसी और हर दिल अजीज। चंडीगढ़ में डॉ. इंद्रनाथ मदान से लेकर कमलेश्वर और राकेश तक, सब रवि से मुखातिब थे। जैसा शीर्षक से स्पष्ट है यह कहानी गोष्ठी पंजाब विश्वविद्यालय के सभागार में सुबह के समय हुई। मेरे लिए हर परिचय नया था किंतु सबके महत्व से मैं परिचित थी। वहां आचार्य हजारीप्रसद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह जैसे दिग्गज भी थे। नामवर जी ने मेरे आलेख की सराहना कर दी, मेरे लिए तो उस दिन यही बड़ा पुरस्कार बन गया। शाम को मैंने वापस दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त की। डॉ. मदान और राकेश जी ने मुझे समझाया कि अगले दिन चली जाना। डॉ मदान ने कहा, ‘‘अभी तुम्हें सुखना झील दिखाएंगे।’’


मैं अड़ गई। मैं कॉलेज में बताकर नहीं आई थी। छुट्टी का आवेदन भी नहीं किया था, यह सोचकर कि रविवार की सुबह गोष्ठी है तो मैं रात तक घर पहुंच ही जाऊंगी। मैं डॉ. इंदु बाली के यहां ठहरी थी। वहां से अपनी अटैची लेकर आई। सभी सीनियर रचनाकारों का बड़प्पन था कि मुझ जैसी चिरकुट सिलबिल लेखिका को छोड़ने बस अड्डे तक आए।



ताज्जुब की तरह रवि ने घोषणा कर दी, ‘‘मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।’’

सब दोस्त हक्के बक्के रह गए। रवि के हाथ में अपना कोई असबाब भी नहीं था। राकेश जी और कमलेश जी ने उन्हें समझाने की कोशिश की, ‘‘उन्हें चले जाने दो। शाम को महफिल का रंग जमेगा।’’ रवि नहीं माने, बस में सवार हो गए।

दिन भर में, जिस शख्स ने मुझसे नहीं के बराबर बात की वह रवींद्र कालिया ही था। जबकि बाद में मुझे पता चला कि मुझे चंडीगढ़ गोष्ठी में बुलाने का प्रस्ताव रवि का ही था। इसकी कोई खबर उन्होंने मुझे न लगने दी। मैं जब बस में चढ़ी मेरी बगल वाली सीट पर रवींद्र कालिया विराजमान थे।

मेरा मन संशय और दुविधा, शिकवा और शिकायत से भरा हुआ था। चंडीगढ़ में दिन भर में इस इंसान ने मुझसे सबसे कम बात की थी। शनिवार शाम इंदु बाली जी के घर मुझे स्थापित कर ये जैसे भूल गए थे कि मैं भी आई हूं। मेरे साथ जाने की कोई तुक नहीं थी इस वक्त। खैर सफर शुरू हुआ। बस के शोर में अपने शब्दों की कमी महसूस नहीं हुई। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में—

कितना अच्छा होता है
एक दूसरे को बिना जाने
पास पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है।

बातचीत की पहल रवि ने की, ‘‘आप सिर्फ कविता लिखती और पढ़ती हैं।’’

‘‘नहीं, मैंने बहुत सा गद्य साहित्य पढ़ा है।’’

‘‘आपके प्रिय रचनाकार कौन से हैं?’’

‘‘प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय और निर्मल वर्मा।’’

‘‘निर्मल वर्मा को आप कवि मानती हैं या कथाकार?’’

 ‘‘वे कहानी को कविता की तरह तरल और तन्मय बना देते हैं। ‘जलती झाड़ी’ और ‘वे दिन’ मेरी पसंदीदा पुस्तकें हैं।’’

रवि ने अज्ञेय और निर्मल वर्मा पर निशाना साधते हुए कलावादी और व्यक्तिवादी लेखन पर हमला बोल दिया। उन्होंने कहा हिंदी कहानी इनकी अभिव्यक्ति से बहुत आगे निकल चुकी है। मुझे काफी बुरा लगा कि रवींद्र कालिया मेरे समस्त नायक ध्वस्त किए जा रहे हैं। वे रुके नहीं। उन्होंने उनकी भाषा और भावभूमि को नकार दिया। रवि बोले, ‘‘ये दोनों रचनाकार नकली स्थितियों पर बनावटी भाषा में लिखते हैं। इनकी भाषा में अनुवाद का स्वाद आता है।’’

‘‘आपको कौन से रचनाकार पसंद हैं।’’

‘‘मोहन राकेश, नागार्जुन, अमरकांत, नामवर सिंह।’’

‘‘नामवर जी तो आलोचक हैं।’’ मैंने कहा।

‘‘इससे क्या। उन्होंने आलोचना को रचना की ऊंचाई दी है।’’

तभी बस घरघराकर रुक गई। करनाल आ गया था। पता चला बस खराब हो गई है।

हमने बसअड्डे पर चाय पी। रवि चाय के साथ सिगरेट पीते रहे। चाय से कम और सिगरेट की चमक से ज्यादा गर्मी निकल रही थी।

‘‘आपने हैमिंग्वे पर गौर किया है?’’ रवि ने पूछा।

हेमिंग्वे मेरे प्रिय लेखक थे। उनकी हर रचना बारंबार पढ़ी थी। उन जैसी भाषा शैली और पौरुषमय अभिव्यक्ति बिरले साहित्यकारों को मिलती है।

हम काफी देर हेमिंग्वे पर बात करते रहे।

बस की मरम्मत हो गई और बस फिर चल पड़ी। एक अजनबी के साथ यह सफर उसी रात यादगार बन गया जब रवि के ठिकाने पहुंच हम रातभर बातें करते रहे। खयालों का एक खजाना था जो खाली होने का नाम ही नहीं ले रहा था। भूल गया हमें अपना सिलसिला, संत्रस और विघटन। बिल्स फिल्टर की गंध मेरे लिए सुगंध बन गई। सर्दी में गर्मी महसूस होने लगी। रवि ने पहले दिन से उत्कट प्रेमी की भूमिका निबाही। हमारी मुलाकातों को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि रवि ने शादी का प्रस्ताव रख दिया। अब मुझे खयाल आया पापा। पापा जिस तरह मुझे तराश रहे थे उसमें प्यार, मुहब्बत और विवाह जैसी घिसीपिटी परिपाटियों के लिए कोई जगह नहीं थी। दफ्तर से लौटकर वे रोज मुझे इतनी बौद्धिक खुराक पिलाते, इतनी पुस्तकों से लाद देते कि मुझे दिन रात के चौबीस घंटे कम पड़ जाते।

मन ही मन मुझे यह सोचकर अच्छा लगा कि रवि के लिए प्रेम में विवाह का फ्रेम अनिवार्य था। वे चालू फॉर्मूले के अंतर्गत निष्कर्षहीन निकटता के पक्ष में कतई नहीं थे। मेरी मुश्किल यह थी कि पापा से यह बात कैसे कही जाय। रोज शाम ला बोहीम में रवि मेरी पेशी लेते, ‘‘कल तुमने पापा से बताया?’’ मैं कहती, ‘‘पापा ने मौका ही नहीं दिया।’’

रवि रूठ जाते। उनकी सिगरेट की खपत बढ़ जाती। वे गुमसुम बैठ जाते। कपुचिनो कॉफी पड़ी पड़ी ठंडी हो जाती। रवि कहते, ‘‘तुम्हें किस बात का डर है? अगर वे हां कहें तो ठीक अगर ना कहें तो तुम अपनी स्लीपर्स पहनकर सीधी आ जाना 5055 संतनगर।’’ यह रवि का पता था। मैं कहती, ‘‘पापा के नक्शे में मेरी शादी का मुकाम है ही नहीं।’’ रवि हताश होकर कहते, ‘‘फिर ‘गुफा’ ही हमारी नियति है।’’ ला बोहीम रेस्तरां में एक गर्भगृह जैसा अंधियारा एकांत कक्ष और बना हुआ था जहां प्रेमी जोड़े या खास मेहमान ही बैठते। रवि और हम यहीं बैठा करते। कभी कभी वहां जगह न मिलती तो यॉर्क रेस्तरां के कोजी नुक में चले जाते। यह रवि की हिम्मत थी कि हमारी पूरी कोर्ट शिप के दौरान रवि ने मेरे साथ अच्छी से अच्छी जगह शामें बिताईं, टैक्सी में मुझे घर छोड़ा और कभी रुपये पैसे का रोना नहीं रोया। मैं पर्स लेकर चलती थी पर खोलती नहीं थी। मेरे मन में प्रेमी की पारंपरिक छवि ऐसे इंसान की थी जो मेरे ऊपर दिल और जेब दोनों कुरबान कर दे।

रवि के अंदर साहस और संकल्प का ऐसा अतिरेक था कि तमाम अनसुलझे सवालों के बीच हमारी शादी हो गई। उनके कई हितैषियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, मेरे हितैषियों ने मुझे समझाया कि यह लड़का तुम्हें छह महीने में छोड़ देगा। 12 दिसंबर सन् 1965 की शाम मेरे एक हितैषी मेरी एक कविता दिखाते शामियाने में घूम रहे थे। यह कविता त्रैमासिक पत्रिका ‘क ख ग’ के ताजा अंक में मुखपृष्ठ पर बोल्ड अक्षरों में छपी थी।

प्यार शब्द घिसते घिसते चपटा हो गया है।
अब हमारी समझ में
सहवास आता है।

हितैषी कह रहे थे, ‘‘यह शादी नहीं, बस कॉन्ट्रेक्ट है।’’ लेकिन लेखक जगत ने हमारा साथ दिया। रवि के संपर्क और दोस्तियां व्यापक थीं। मेरे पापा पुरानी पीढ़ी के साथ साथ युवा पीढ़ी के भी निकट थे। शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हो जो इस शादी में न आया हो। लेखन जगत के स्वागत भाव ने हमें बहुत बल दिया।

यह सब बताने का मकसद यह है कि रवि एक आजाद तबीयत इंसान थे। जब तक कोई उनकी आजादी में खलल नहीं डालता, वे दत्तचित्त अपना काम करते रहते। ऊर्जा इतनी कि दफ्तर से आकर कहानी लिखने बैठ जाते। मन होता तो मेरे साथ समुद्र तट की सैर कर आते। लौटकर कुछ देर हम दोनों अनुवाद का काम करते। रवि पंजाबी उपन्यास का हिंदी रूपांतर जुबानी बोलते और मैं लिखती जाती। यह काम इसलिए जरूरी था क्योंकि रवि ने अपनी शादी का सूट ए.के हंगल से उधार सिलवाया था और उन्हें इसके पैसे चुकाने थे। उन दिनों शराब से उनका कोई वास्ता न था, हां सिगरेट पीते थे। मैं एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी। जीवन बढ़िया बीत रहा था। रवि के साथ अक्सर यह हुआ कि जब जीवन में सुख चैन आया, कोई न कोई जलजला उठा और उन्हें जड़ से हिला गया। ‘धर्मयुग’ में अच्छी भली बीत रही थी पत्रिका के सबसे चर्चित पृष्ठ उनके पास थे। भारती जी उनसे स्नेह करते थे। मगर रवि अपने सहकर्मी स्नेह कुमार चौधरी की खातिर भारती जी से टकरा गए। दूसरों के सवालों को लेकर खलबलाना हम दोनों की फितरत में था। रवि ने यह नहीं सोचा कि चौधरी अपनी परेशानियों से खुद निपट लेगा। इन दोनों को इस्तीफा देने को उकसाने में मेरी गलती भी बड़ी भारी थी। साल बीतते न बीतते उसी चौधरी ने शुरू किए गए प्रेस की पार्टनरशिप में रवि को जबरदस्त धक्का दे दिया। धन से अधिक मन की हानि से रवि हिल गए। मुंबई से मन उचाट हो गया।

इलाहाबाद में अपना प्रेस जमाने और चलाने में नए किस्म के जीवट की जरूरत थी। जिससे रवि ने किस्तों पर प्रेस लिया, वे बड़े कड़ियल, अड़ियल, सिद्धांतवादी और आदर्शवादी प्रकाशक थे। श्री इंद्रचंद्र नारंग के एक भाई की, स्वाधीनता संग्राम में हत्या हो गई थी। वे स्वयं और उनकी पत्नी दोनों स्वाधीनता सेनानी थे किंतु वे सरकार से पेंशन नहीं लेते थे। उनका कहना था, ‘‘हम देश की आजादी के लिए जेल गए, अपने आदर्शों को नगद भुनाने के लिए नहीं।’’

इसमें शक नहीं कि हमें इलाहाबाद में दुर्लभ और दिलदार दोस्त और सरपरस्त मिले। अश्क जी और कौशल्या अश्क ने उस वक्त रवि को स्नेह और आतिथ्य का संबल दिया जब उन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत थी। मैं उन दिनों मुंबई में एस.एन.डी.टी. के हास्टल में रहकर नौकरी कर रही थी, रवि इलाहाबाद में नए काम की चुनौतियों से जूझ रहे थे। अगर मशीन मैन गैरहाजिर होता तो रवि मशीन चलाने लगते। चपरासी न होता तो खुद रिक्शे में जाकर स्याही के ड्रम लेकर आते। अल्पसंख्यकों के मुहल्ले रानी मंडी में मुहर्रम के दिन ‘हाय हुसैन, हाय हुसैन’ का मातम सुनते बीतते। हिंदी भवन और लोकभारती प्रकाशन के अलावा और कहीं से काम का भुगतान मिलना दुष्कर था। हर महीने प्रेस के कर्ज की किस्त चुकाना, कारीगरों को तनखा देना, मकान का किराया भरना और बिजली का भारी बिल अदा करना रवि की जिम्मेदारी थी। इलाहाबाद जैसे लद्धड़ शहर से काम की इतनी उगाही होनी मुश्किल थी। रवि सुस्त और उदास रहने लगे। उन्हें अकेले प्रेस की गाड़ी खींचनी थी और जैसे तैसे घर की भी। एक दिन वे जॉन्सनगंज चौराहे पर स्थित डॉ के. सी. दरबारी के यहां अपना रक्तचाप दिखलाने गए तो पता चला कि उनका रक्तचाप बहुत मंद है। डॉक्टर ने दवाई दी और सलाह कि कभी तबियत बहुत गिरी हुई लगे तो एक पैग विस्की ले लिया करें। रवि को यह सलाह इतनी पसंद आई कि डॉ. दरबारी उनके मित्र बन गए। हालांकि मैंने डॉक्टर दरबारी को कभी पीते नहीं देखा।

जब मैं छुट्टियों में बंबई से घर आई, रवि ने दिखाया, ‘‘देखो मैंने ये सब खरीदा है।’’ घर में एक पलंग था, दो खपच्ची वाले रैक, एक पानी रखने का कांच का जग और दो शीशे के गिलास। देर शाम प्रेस बंद करने के बाद रवि ने कहा, ‘‘मुझे डॉक्टर ने बताया है कि दो पैग विस्की लेनी जरूरी है नहीं तो मेरा दम धुट जाएगा।’’ मैं चकराई पर चुप रही। इससे पहले कभी कभार ओबेराय के घर में रवि को पीते देखा था और हर बार मैंने नाक भौं सिकोड़ी थी। ओबेराय की जीवनशैली से मैं चिढ़ती थी। इसके बाद सिर्फ बैसाखी पर रवि को बियर पीते देखा था। दो तीन दिन में मेरी छुट्टी खत्म हो गई और मैं वापस चली गई।

मुंबई पहुंचकर भी रवि की फिक्र लगी रहती। पता नहीं कब, क्या खाते हैं, कैसे प्रेस चलाते हैं, कहीं सिर पर उधार तो नहीं चढ़ रहा।

दूरस्थ दांपत्य की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह कल्पना और अनुमान पर चलता है। उन दिनों आज की तरह मोबाइल फोन का जमाना नहीं था कि मिनट मिनट की जानकारी मिल सके। फोन करना बहुत महंगा था। चिट्ठियों में प्रेम भरी बातें लिखने के बाद हिदायतें लिखना नागवार लगता। साल भर बाद जब नाटकीय षड्यंत्र के तहत मेरी नौकरी छूट गई और हारे हुए खिलाड़ी की तरह मैं वापस घर पहुंची, रवि ने स्टेशन पर सिगरेट का कश लेते हुए यही कहा, ‘‘अच्छा है छूट गई, छोड़ने में तुम्हें इससे ज्यादा तकलीफ होती।’’

एक भी क्षण रवि ने मुझे उदास नहीं रहने दिया। मेरे आने मात्र से वे बेहद खुश हो गए। इलाहाबाद के दोस्तों से मिलवाया, सड़कों का वैभव दिखाया, कॉफी हाउस के चक्कर लगाए, घर से पैदल मद्रास कैफे तक घूमे, चौक के चप्पे चप्पे से परिचित करवाया। दूसरे शब्दों में रवि ने एक बंबईवाली को इलाहाबादी बनाने का काम हाथ में ले लिया।

नगर में आए दिन होने वाली गोष्ठियों ने भी हमारा मन लगाया। दोस्तों की सादगी और सहजता, साफगोई और बेतकल्लुफी ऐसी थी कि हम वहीं के होकर रह गए।

रवि ने अपने सुराप्रेम के चाहे जितने किस्से लिखे हों, मैं जानती हूं कि उन्होंने घर परिवार के प्रति अपनी हर जिम्मेदारी निभाई। ऐसा कभी नहीं हुआ कि घर में राशन खत्म है और रवि रसपान में लगे हैं। सरकारी विज्ञापनों में उन दिनों एक पोस्टर छपता था— मद्यपान करने वाले परिवार और मद्यपान छोड़ देने वाले परिवार का। मद्यप आदमी आनी पत्नी को पीटता दिखाया जाता था, उसके बच्चे रोते हुए। सुधरे हुए आदमी की पत्नी हंसती हुई और बच्चे खेलते पढ़ते हुए दर्शाए जाते। रवि इस किस्म के मद्यप्रेमी नहीं थे। उनकी संघर्षभरी दिनचर्या में शराब एक छोटा सा अल्पविराम थी। मुझे लगता, बाकी दोस्त तो घर जाकर चैन से सो जाएंगे। रवि मशीन रूम में जाकर मशीन चलाएंगे। भगवान ने रवि को ऐसी कद काठी और ऐसा रंग रूप दिया था कि संघर्ष के निशान उनके व्यक्तित्व पर पता ही नहीं चलते। उनके ऊपर यह सदाबहार गाना बिल्कुल सटीक बैठता था—

बरबादियों का सोग मनाना फिजूल था।
बरबादियों का जश्न मनाता चला गया।
र फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

सबसे बड़ी बात थी कि रवि अपनी मुफलिसी और तंगदस्ती में भी हमेशा खुश और मस्त रहते। रानीमंडी में रहते हुए उन्होंने अपनी यादगार कहानियां लिखीं। ‘खुदा सही सलामत है’ जैसा महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखा और मुझे लगातार लिखने के लिए प्रेरित किया। कई बार लिखने का नशा बोतल के नशे को पछाड़ देता और रवि केवल चाय व सिगरेट के सहारे अपने कथा संसार में डूबे रहते। ऐसे समय प्रेस के प्रूफ पढ़ने का काम मैं अपने जिम्मे ले लेती। मशीनों के चक्के चलते रहते।

जब बच्चे छोटे थे, रवि से चिपके रहते। उन्हें भी कोई दिक्कत न होती। मैंने कॉलेज में नौकरी शुरू कर दी तो बच्चे ज्यादा समय रवि के साथ बिताते। अब मुझे रवि के सिगरेट पीने से डर लगता। बच्चों पर धुएं का प्रदूषण असर कर सकता था पर बच्चे उनसे दूर रहते ही नहीं थे। सन् 1987 से रवि की माताजी स्थायी रूप से हमारे पास आ गईं तब जाकर यह समस्या दूर हुई। रवि के धूम्रपान और मद्यपान पर भी कुछ बंदिश लगी क्योंकि मां के सामने रवि एकदम राजा बेटा बनकर रहते।

हम बीस बरस रानीमंडी में रहे। इन बरसों में हम लोगों ने खूब लिखा। हमारे संपादन में कई साहित्यिक संकलन और पत्र निकले जिनमें ‘वर्ष: अमरकांत’ रचनाकार अमरकांत पर केंद्रित था तो ‘गली कूचे’ रवि की तब तक की लिखी कुल कहानियों का संकलन। सन् 1990 से ‘वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक की गहमागहमी आरंभ हो गई जिसका संपादन रवि ने किया। शुरू में यह सीमित पृष्ठों के अंक के रूप में प्रस्तावित था लेकिन रवि ने अपने जोश ओ खरोश से इसे वृहद आकार दे दिया। यहां तक कि उसके दो खंड प्रकाशित करने पड़े। प्रधान संपादक विभूति नारायण राय चुपचाप रवि का हंगामा छाप अभियान देखते और अपना बजट बढ़ाते जाते। सन् 1990 समूचा इस संपादन में लग गया। सभी रचनाकारों ने इस वार्षिकांक के लिए खास तौर पर नवीन कहानी लिखकर भेजी। स्थापित, चर्चित और संभावनाशील रचनाकारों का ऐसा समागम किसी अन्य संकलन में कभी हुआ न होगा। हर एक लेखक को रवि ने जाने कितनी बार फोन किए होंगे। कई वरिष्ठ लेखकों को तो रोज ही एस.टी.डी. कॉल किया जाता कहानी की प्रगति पूछने के लिए। रवि की अपनी हॉबी थी काम करने की। काम को जुनून की हद तक ले जाना। एक लेखिका ने अपनी कहानी भेजी मगर कहानी का शीर्षक लिखा न अपनी पहचान। रवि ने लिखावट पहचानकर उन्हें फोन किया तब दोनों जरूरतें पूरी हुईं। कहानी में वर्तनी की अनगिनत गलतियां थीं जो रवि ने बड़े मनोयोग से सुधारीं। उस एक अकेली कहानी को संवारने में रवि ने इतनी मेहनत की जितनी समूचे अंक पर न की होगी। इसकी प्रशंसात्मक समीक्षा के लिए अग्रिम लेख लिखवाये। इस तरह उन्होंने महाविशेषांक को धमाकेदार तो बना दिया किंतु पक्षधरता के अपराधी भी बने। ये संपादन जगत के समीकरण होते हैं जो कई बार संपादक पर ही भारी पड़ते हैं। घर का टेलिफोन का बिल उन दिनों चालीस हजार आया जो रवि ने अपने प्रेस का टाइप बेचकर चुकाया। वर्षों बाद उस लेखिका ने, न जाने किस कुंठावश रवि के ऊपर एक व्यंग्यात्मक लेख लिख कर दोस्ती का हक अदा किया। इतनी गलतबयानी से भरा लेख एक वरिष्ठ रचनाकार अपने कनिष्ठ रचनाकार के लिए कैसे लिख सका, यह हैरानी का विषय है। वह रवि के मोहभंग का दिन था। जीवन में इतना अवसादग्रस्त मैंने रवि को कभी नहीं देखा, कैंसर ग्रस्तता के दिनों में भी नहीं, जितना उस दिन। लेखन के इलाके में अचानक जेंडर कार्ड खेल डालना एक किस्म की बेइमंटी होती है।

गनीमत है कि ऐसे तजुर्बे जीवन में इक्का दुक्का ही रहे। प्रायः वरिष्ठ रचनाकारों ने सद्भाव और सौहार्द ही दिया। बीसवीं शताब्दी के सातवें, आठवें दशक में लेखकों के बीच गलाकाट स्पर्धा नहीं थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. धर्मवीर भारती जैसे वरिष्ठ रचनाकारों ने अपनी रचनात्मक प्रेरणा और आत्मीय ऊर्जा से न जाने कितने हम जैसे चिरकुटों को जीवन प्रदान किया।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रवि कथा — ममता कालिया (भाग १)


Tribute to Ravindra Kalia by Mamta Kalia - Part 1

रवीन्द्र कालिया पर लिखा ममता कालिया का संस्मरण

रवि कथा — भाग १

इन दिनों वक्त मेरे लिए गड्डमड्ड हो रहा है। एक साथ मैं तीन समय में चल निकल रही हूं। आज बारह सितंबर सन् 2016 है, पिछले साल बारह सितंबर को रवि मेरे पास थे। लो यह सन् 2011 का बारह सितंबर कहां से आ गया। हम दोनों अपोलो हॉस्पिटल में डॉ. सुभाष गुप्ता के कमरे में हैं। वे स्क्रीन पर रवि की सी.टी. स्कैन और पैट स्कैन की अनगिनत छवियों का निरीक्षण कर रहे हैं। डॉक्टर ने मायूसी में सिर हिलाया है— ‘‘मित्र कालिया आपके पास बस छह महीने का वक्त बचा है। अपने हिसाब किताब संभाल लें। आपके जिगर में तीन सेंटीमीटर का फोड़ा है।’’


मैं तड़प जाती हूं।

रवि रुआंसे चेहरे से हंस रहे हैं, ‘‘डॉक्टर इस छह महीने में आज का दिन शामिल है या नहीं?’’

डॉक्टर नहीं हंसते।

मैं कहती हूं, ‘‘डॉक्टर मेरा जिगर दुरुस्त है। आप मेरा आधा जिगर इनके लगा दें।’’

डॉक्टर फिर सिर हिला देता है, ‘‘वह चरण ये पार कर चुके हैं। अब प्रत्यारोपण नहीं हो सकेगा।’’

डॉक्टर की सलाह है कि रवि को फौरन हॉस्पिटल में दाखिल हो जाना चाहिए।



रवि के सामने अठारह सितंबर को होने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार का दायित्व है। उन्नीस सितंबर को अगले ज्ञानपीठ की प्रवर समिति के चयन हेतु बैठक है। वे छुट्टी कैसे ले सकते हैं। रवि डॉक्टर से वादा करते हैं, ‘‘बीस सितंबर की सुबह मैं आकर दाखिल हो जाऊंगा।’’

रवींद्र कालिया की जीवनशैली को जिगर ने हरा दिया था पर उनके जज्बे को हरा नहीं पाया। उन्नीस सितंबर तक वे ऐसी रफ्तार से कामों में लगे रहे कि किसी को पता ही नहीं चला कि उनकी सेहत ठीक नहीं। कौल के पक्के रवि बीस सितंबर को अपोलो में दाखिल हो गए। दफ्तर से फोन आए जा रहे थे। रवि को हर फोन का खुद जवाब देना था। एक बांह में कई ड्रिप लटकाने के लिए कलाई में सुई लगाकर टेप चिपका दिया गया। रवि दूसरे हाथ से फोन सुनते रहे। थोड़ी देर में सिस्टर ने दूसरी बांह भी कब्जे में ले ली। उनके दोनों फोन बंदकर दराज में रख दिए। अगले पांच दिन बेहद जांच पड़ताल, निरीक्षण परीक्षण, फिर फिर परीक्षण और अंत में एक समानांतर डमी शल्यक्रिया। इतने सब से केवल पुष्टि की गई कि असली इलाज में रुग्ण स्थल तक कैसे पहुंचा जाएगा। ओरल कैमोथेरेपी की एक दवा जो शहर में बहुत मुश्किल से उपलब्ध हुई, रवि ने दो गोली खाने के बाद, इनकार कर दिया। अन्य बहुत सी दवाओं के अंबार लेकर हम घर लौटे।

रवि फिर दफ्तर जाने लगे। संकट में दफ्तर भी शरणस्थल बन जाता है। उनके दिमाग में ‘नया ज्ञानोदय’ और ज्ञानपीठ के प्रकाशनों के विषय में बेशुमार योजनाएं थीं।

मैं लगातार चिंतित रहती मगर चमत्कृत भी होती। रवि की प्रखरता में कोई अंतर नहीं आया। उनके अंदर रचनात्मक ऊर्जा का अजस्त्र श्रोत था। भूख लगनी बंद हो गई थी। पूरा दिन केवल साबूदाने और दलिए पर गुजार देते मगर फोन पर कोई बात करे, वे बड़े जोश से बोलते, ‘‘मैं ठीक हूं, अपनी सुनाओ।’’ फोन पर लंबी बातचीत करना, सुडोकू खेलना और इंटरनेट पर पढ़ना उनके प्रिय काम थे। उन्होंने अपनी बीमारी की बाबत इंटरनेट पर इतनी जानकारी हासिल कर ली थी कि मेरा और मित्रों का यह कहना कि ‘तुम चिंता न करो, एकदम ठीक हो जाओगे’ सीमित अर्थ रखता था। Portal Veins अवरुद्ध होने का तात्पर्य, उपचार की प्रक्रिया, विकिरण के दूरगामी प्रभाव, सब तो उन्होंने पढ़ जान लिया था। मयनोशी तो अगस्त 2011 से ही छूट गई थी जब पेटदर्द रहने लगा था। अब उनकी शामें होमियोपैथी चिकित्सा के अध्ययन में डूबी रहतीं। कमाल की बात यह कि उन्होंने हर ऐलोपैथिक दवा का होमियोपैथिक विकल्प ढूंढ़ लिया था। होमियोपैथी और ज्योतिषशास्त्र में उनकी पुरानी दिलचस्पी थी। होमियोपैथिक दवाओं की अनिवार्यता हमारे जीवन में हमेशा खड़ी रही। पहले जब बच्चे छोटे थे, उन्हें भरसक होमियो दवाएं देते रहे। बाद में पंजाब से माताजी हमारे पास रहने आ गईं। उन्हें सांस, खांसी, जोड़ों का दर्द आदि असाध्य बीमारियां थीं जो अंग्रेजी दवाओं से ज्यादा उलझ जातीं। डॉक्टर एक बीमारी ठीक करते तो दूसरी उभर आती। तब रवि ने उनके इलाज के लिए इलाहाबाद नगर के मशहूर होमियोपैथ चिकित्सकों से मशविरा किया और स्वयं भी होमियोपैथी के समस्त ग्रंथ खरीद लाए। हैनमैन, कैंट वगैरह की पुस्तकें वे हेमिंग्वे और कामू जैसी तल्लीनता से पढ़ते। रवि की देखरेख में माताजी लंबी उम्र पाकर पीड़ारहित प्रयाण कर सकीं।

दो नवंबर से ग्यारह नवंबर सन् 2011 में जब उनकी YYY 90 रेडियो सर्जरी हुई तब भी होमियोपैथिक दवाओं का डब्बा और किताब उनके साथ अपोलो हॉस्पिटल गई। होश आने पर वहां की नर्सों और वार्ड बॉय आदि से उनके मर्ज पूछ करके मीठी गोलियां देना रवि का सबसे प्रिय काम था। बड़ा बेटा अनिरुद्ध कहता, ‘‘पापा अपनी आंखों को आराम दीजिए, ये सब अस्पताल के लोग हैं इन्हें अच्छे से अच्छा इलाज मिल जाता होगा।’’

रवि कहते, ‘‘मेरी दवा से इनकी बीमारी जड़ से मिट जाएगी यह तो सोच।’’

ग्यारह नवंबर 2011 को अपोलो हॉस्पिटल से छुट्टी मिली। रवि की ठसक यह कि अवशेष बिल का भुगतान मैं खुद जाकर करूंगा। मेरे और अन्नू के कहने का कोई असर नहीं पड़ा। लाचार, उनकी पहिया कुर्सी भुगतान काउंटर पर ले जाई गई। अपना वीजा कार्ड निकालकर उन्होंने बिल चुकाया। वापसी के लिए कार में बैठते ही बोले, ‘‘आज मेरी सालगिरह है। आज मैं पूरे दिन काम करूंगा। मुझे दफ्तर छोड़ दो।’’

मैंने प्रतिवाद किया, ‘‘कमजोर हो गए हो, घर चलकर आराम करो।’’

रवि अड़ गए, ‘‘मेरे काम में अड़ंगा मत डालो, अपनी मर्जी से जीने दो मुझे।’’

अन्नू ने कहा, ‘‘जैसी आपकी मर्जी। आप पहले कुछ फल खा लीजिए।’’

रवि ने कुछ नहीं खाया। दफ्तर पहुंचकर ही उनके चेहरे पर रौनक लौटी।

पिछले साल की सितंबर के इन्हीं दिनों अखिलेश ने रवि से कहा कि वे इलाहाबाद पर संस्मरण लिख दें। यह उनका मनमाफिक काम था। खुश हुए। शुरू किया। मुझसे बोले, ‘‘मैं इलाहाबाद पर पूरी किताब लिखना चाहता हूं पर कुछ जगहों के नाम धुंधले याद पड़ रहे हैं। हमने कब छोड़ा था इलाहाबाद?’’

‘‘सन्, 2003 में। बारह साल हो गए।’’

‘‘एक बार जाना पड़ेगा इलाहाबाद।’’

‘‘तो चलेंगे न। तुम जब कहो, चलें।’’

रवि ने हामी नहीं भरी। अपने तकिए के नीचे कागज कलम रख लिया। रातों में आड़े तिरछे कुछ शब्द, कुछ वाकये लिख लेते। नींद की गोली के बावजूद उन्हें नींद कम आती। कभी मेरी नींद खुल जाती तो मैं रोकती, ‘‘अभी तक सोये नहीं।’’ वे चुपचाप कागज तकिए के नीचे रख देते। जैसे ही मेरी आंख लगती, वे फिर कागज निकालकर लिखने लगते।

तभी तो उनके जाने के बाद उनके सिरहाने से एक उपन्यास के पच्चीस पन्ने, एक संस्मरण के टुकड़े। एक अधूरी कहानी और आधे सवाए जुमलों का खजाना मिला है। कभी किसी रचना के छपने की उन्हें जल्दी नहीं थी। खरामा खरामा लिखते। अगर रचना पूरी हो जाती तो कोई लघु पत्रिका ढूंढ़ते जिसे रचना दी जाय। शायद यही वजह थी कि एक बार स्कूल में अन्नू से पूछा गया कि उसके माता पिता क्या करते हैं तो उसने जवाब दिया, मेरे पिता साहित्यकार हैं, मेरी मां व्यावसायिक लेखन करती हैं। इस विश्लेषण से रवि का खासा मनोरंजन हुआ। मैंने नाराज होकर अन्नू से इसकी वजह पूछी तो उसने कहा, ‘‘आप रंगबिरंगी पत्रिकाओं में लिखती हैं। पापा गंभीर पत्रिकाओं में लिखते हैं।’’ आठवीं में पढ़ने वाले अन्नू को मैं क्या समझाती कि कड़की के दिनों में यही पत्रिकाएं हमारी राहत रूह थीं। जितने नियम से वहां से मानदेय के चेक मिलते उतने नियम से तो मुझे कॉलेज से वेतन भी न मिलता।

कुछ दिन पहले टी.वी. पर सुने एक समाचार ने मुझे रुला दिया। समाचार वाचक ने एक चैनल पर कहा— ‘‘भारत देश में गरीब होना एक अपराध है। इसके साथ जो दृश्य दिखाया गया उसमें उड़ीसा का एक आदमी दाना मांझी अपनी पत्नी की बेजान देह को अकेले उठाकर दस मील पैदल चला। रास्ते में लोग खड़े देखते रहे। कोई दौड़कर कंधा देने नहीं आया।

इसके एक कदम आगे जाकर मैं कहूंगी भारत में बीमार होना ही अपराध और अभिशाप है। इस वर्ष जब चार जनवरी की सुबह रवि की तबियत बहुत खराब हो गई, उन्हें अस्पताल ले जाना जरूरी हो गया। कड़ाके की ठंड थी। रवि अर्द्धचेतन अवस्था में थे। कार की बजाय एंबुलेंस की जरूरत थी। पड़ोसी मित्र डी.एन. ठाकुर ने यशोदा अस्पताल का आपात फोन नंबर दिया। इंटरनेट से एक दो अन्य अस्पतालों के आपात नंबर लिए। यशोदा अस्पताल ने कहा, ‘‘एम्बुलेंस तो है पर डॉक्टर नहीं है। मरीज को भर्ती कर दीजिए। जब डॉक्टर आएंगे, देख लेंगे।’’ एक दूसरे अस्पताल ने कहा, ‘‘हमारे यहां डॉक्टर तो हैं पर एम्बुलेंस सब व्यस्त हैं, दोपहर बाद खाली होंगी।’’ दो अस्पतालों के आपात नंबरों पर घंटी जाती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया।

अंत में किसी प्राइवेट एम्बुलेंस सर्विस का फोन नंबर मिला। उसने कहा, ‘‘दफ्तर जाने वालों का समय हो गया है। जगह जगह जाम मिलेगा।’’

अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘एम्बुलेंस को तो रास्ता देंगे लोग।’’

ड्राइवर बोला, ‘‘यह दिल्ली है, यहां मरते को रास्ता न दें लोग।’’ बड़ी मिन्नतें करके ड्राइवर को घर आने के लिए राजी किया। यह मारुति ओम्नी में बनाई हुई एंबुलेंस थी जिसमें ऑक्सीजन सिलिंडर और मास्क तो था किंतु सीट की लंबाई कम थी। रवि की टांगें उसमें समा नहीं रही थीं। मैं रास्ते भर उनके घुटने पकड़कर उन्हें गिरने से संभालती रही और उनके साथ अपने को भी दिलासा देती रही, ‘‘अभी अस्पताल पहुंचकर सब ठीक हो जाएगा रवि। थोड़ी हिम्मत और करो।’’

नोएडा की सड़कें वाहनों से खचाखच भरी थीं। एंबुलेंस के हूटर का उन पर कोई असर नहीं पड़ा। हूटर बजता रहा, हम जाम में फंसे रहे। अन्नू ने उतर उतरकर लोगों से प्रार्थना की, ‘‘मेरे पापा की हालत गंभीर है, एंबुलेंस को आगे निकलने दो।’’ किसी ने ध्यान नहीं दिया।

हमें सर गंगाराम अस्पताल पहुंचने में दो घंटे लग गए। बाधाएं अभी खत्म नहीं हुई थीं।

आपातकक्ष में केवल उन रोगियों का उपचार किया जाता है जिनके बचने की आशा हो। ‘बिस्तर खाली नहीं है’ कहकर शेष रोगियों को वापस कर दिया जाता है।

संकट की इस घड़ी में डॉ. अर्चना कौल सिन्हा वरदान बनकर आगे आईं। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पर रवि को उपचार दिलवाया। उन्हें तत्काल वेंटीलेटर और अन्य जीवन रक्षक उपकरणों पर रखा गया। आपात कक्ष में केवल एक संबंधी रोगी के पास जा सकता है। दोनों बेटे अनिरुद्ध और प्रबुद्ध अंदर बाहर खड़े खड़े डॉक्टरों की आवाजाही और परीक्षण देखते रहे। मैं एक बार अंदर जाती, वहां से बौखलाकर बाहर आती और पेड़ के नीचे बैठ जाती। ऐसे कातर समय सबसे पहले मेरी दोस्त चित्रा मुद्गल सपरिवार पहुंची। अभी अवध के चले जाने के दुख से संभली नहीं थी। गिरती पड़ती चल रही थी पर आद्या, अनद्या का हाथ थाम मुझ तक आई। उसकी पुत्रवधू शैली दूर कैंटीन से हमारे लिए चाय लेकर आई। मेरे लिए समय जैसे थिर खड़ा था। घड़ी की सुई न जाने कहां अटकी थी?

रात तक रवि की हालत के लिए जो बयान जारी हुआ उसके मुताबिक उनकी स्थिति गंभीर मगर स्थिर थी। मन में आशा का संचार हुआ। अब समस्या दाखिले की थी। सैकड़ों बिस्तरों वाले अस्पताल में रवि के लिए एक अदद बिस्तर उपलब्ध नहीं था। अस्पताल ने ही इसका समाधान ढूंढ़ा और अपने सहयोगी सिटी हॉस्पिटल के गहन चिकित्सा कक्ष में रवि को पहुंचाया। अन्नू ने हॉस्पिटल के पास एक होटल में कमरा ले लिया यह सोचकर कि हम बारी बारी से आराम कर लेंगे। किसी का भी मन ICU से हटने का नहीं था। हम ICU के बाहर नंगे तख्त पर निःशब्द बैठे रहे। न जाने कहां से दोस्तों को रवि की बीमारी की खबर लग गई। इतनी ठंड में रात भर दोस्त आते रहे, प्रांजल धर, कुमार अनुपम, प्रदीप सौरभ, चंद, कानन, जितेंद्र श्रीवास्तव, संतोष भारतीय। आधी रात की उड़ान से आनंद कक्कड़ आ गए मुंबई से। पुत्रवधू प्रज्ञा और पौत्र केशव शाम को ही पहुंच गए। सुबह तक अखिलेश, मनोज पांडे, संजय कुशवाहा, और असंख्य अन्य मित्र आए। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि रवि पर समय भारी है।

अगले दिन यही स्थिति रही। मित्रों के आने से थोड़ी दिलासा मिलती तो वह गहन चिकित्सा कक्ष में झांककर एक बार फिर टूटने लगती। मदन कश्यप, अनामिका, वंदना राग, पंकज राग, गीताश्री...सबने अपनी उपस्थिति से आसरा दिया। डॉ. स्कंद सिन्हा नियम से आते, हमारे पेट में भोजन पहुंचाते और डॉक्टरों से रवि का हाल जानते। डॉ. स्कंद और डॉ. अर्चना की वजह से सभी डॉक्टरों ने रवि पर बहुत ध्यान दिया।

6 जनवरी की सुबह एक आश्चर्य की तरह रवि को होश आ गया। डॉक्टर ने वेंटिलेटर हटा दिया, आंखों पर से टेप निकाला और रवि ने अपने चारों ओर का दृश्य निहारा। कमजोरी बहुत थी पर चैतन्य थे। अन्नू ने कहा, ‘‘पापा अपनी बाहों से सारी नलियां, सुइयां हटाने के लिए जिद कर रहे हैं।’’ ICU में आगंतुकों को जाने के लिए सुबह शाम केवल आधा घंटे का समय मिलता है और एक एक करके ही मरीज के पास आ सकते हैं। मैं गई। रवि ने पहचाना। हल्के से मुस्कराए। प्रज्ञा, केशव, अन्नू, मन्नू, अखिलेश, मनोज सब बारी बारी से गए। हम चिकित्सा जगत के चमत्कार के आगे विस्मित, विमुग्ध थे। शाम को विभूति नारायण राय और पद्मा आए। अंदर गए। उन्हें लगा पूरी चेतना लौटने में कुछ और वक्त लगेगा। अगले दिन वे फिर आए और उन्होंने कहा, ‘‘आज पहले से ज्यादा सुधार है।’’

डॉक्टर हमें कह रहे थे कि वे जल्द रवि को प्राइवेट बॉर्ड में भेज देंगे। डॉ. निर्मला जैन, लीलाधर मंडलोई, अजय तिवारी, भरत तिवारी, रविकांत, वाजदा ज्ञान, गोकर्ण सिंह, विज्ञान भूषण, शर्मा दंपति, हर एक का आगमन हमारे अंदर नई आशा ऊर्जा और आश्वासन पैदा करता रहा। 8 जनवरी की दोपहर तक रवि सचेत थे। सुबह मैंने रवि से कहा, ‘‘रवि तद्भव का अंक आने ही वाला है, अखिलेश ने बताया।’’

रवि ने धीरे से कहा, ‘‘च।’’

पास खड़ी नर्स ने कहा, ‘‘पापा चाय मांगता?’’

रवि बोले, ‘‘चश्मा।’’

मैं समझ गई रवि तद्भव देखना चाहते हैं। उनका चश्मा और मोबाइल मेरे पर्स में मौजूद था लेकिन बिस्तर पर पड़ी नलियों, नारों के बीच चश्मा उनकी आंखों पर लगाना मुमकिन नहीं था। फिर तद्भव का नया अंक तब तक आया भी कहां था।

8 जनवरी की दोपहर डॉक्टर ने मुझे गहन चिकित्सा कक्ष में बुलाया। मैंने देखा रवि बिस्तर पर बैठे हांफ रहे हैं। डॉक्टर से पूछा। उन्होंने कहा वे अपने आप सांस नहीं ले पा रहें।’’

मेरा धैर्य टूट गया, ‘‘आप देख क्या रहे हैं। उन्हें जीवन रक्षक मशीन पर रखिए, वेंटिलेटर लगाइए।’’

एक बार फिर रवि को लिटाकर वही प्रक्रिया दोहराई गई जो 4 जनवरी को शुरू की गई थी। 8 की शाम, रात और 9 की सुबह ऐसी ही बीत गईं। 9 जनवरी की दोपहर डॉक्टरों ने ‘सॉरी’ बोल दिया।

तो क्या रवि सिर्फ हम सब से विदा लेने के लिए ढाई दिन होश में आए। हर एक को मुस्कराकर देखा, पहचाना। शाश्वत साहित्य में इसी को बुझने से पहले दीपक का आलोक कहा गया है। 10 जनवरी रवि को लोदी रोड के विद्युत शवदाह स्थल पर लाए। यह जगह कुछ ऐसी अवस्थित है कि मुख्य सड़क से कहीं भी जाओ, यह मार्ग में पड़ती है। अनेक बार ऐसा हुआ कि रवि के मुंह से निकला, ‘‘मेरा तो सारा काम यहीं कर देना।’’ मैंने हर बार बुरा माना। मैंने कहा, ‘‘कालिया नाम होने का यह मतलब नहीं कि तुम काले लतीफे सुनाते रहो।’’

रवि ने कहा, ‘‘यहां कर्मकांड का पाखंड नहीं है। इससे मुझे चिढ़ है।’’

सभी स्नेही स्वजन, जनवरी का पाला झेलते हुए आए उस अब रवि को विदा देने आए जिसके लिए दोस्त और दोस्ती, परिवार और गृहस्थी से भी ज्यादा प्रगाढ़ और प्रिय थी। राजीव कुमार ने मेरे हाथों में एक पत्रिका थमाई यह तद्भव की जनवरी 2016 की पहली प्रति थी जिसका पहला लेख था— ‘यह जो है इलाहाबाद’, रचनाकार रवींद्र कालिया। क्या ऐसा ही होता है रचनाकार का प्रयाण। लिखा, अधलिखा, छपा अनछपा सब अधबीच छूट जाता है, काल से होड़ में काल अपनी विकराल विजय घोषित कर देता है। संस्मरण के अंत में ‘क्रमशः’ लिखा हुआ काल को नहीं दिखा। ओफ यह मैं किसके बारे में क्या लिख रही हूं। दोस्तो मेरे अब तक के लिखे पर ‘डिलीट’ दबाओ। मुझे आपके साथ रवींद्र कालिया की तकलीफ भरी तिमाही का सफर करना है या उनके छैल छबीले बयालीस साल का...
(तद्भव से साभार)

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कमल पाण्डेय की कवितायें Kamal Pandey Ki Kavitayen


Kamal Pandey Ki Kavitayen

Hindi Poems

Kamal Pandey


फिल्मों की कहानी लिखने वाले कमल पाण्डेय की पैदाइश चित्रकूट की है , इलाहबाद विश्वविद्यालय से साहित्य और इतिहास में स्नातक कमल मुंबई में हैं, जिन फिल्मों की पटकथा लिखी है उनमें रन, शागिर्द, 'साहेब बीवी और गैंगस्टर' और 'न आना इस देश में लाडो', 'गुनाहों का देवता' जैसे सुपरहिट टीवी सीरियल शामिल हैं. आजकल वो अपनी फिल्म के निर्देशन की तैयारी में लगे हैं. 

 प्रेम की कविता


आज की रात बहुत उदास है गीत
जिसे मैं लिख रहा हूँ तुम्हारी याद में 
खिड़कियों से बाहर झरती चांदनी में भी 
घुल रही है उदासी 
और भीग रहा है वक़्त पीड़ा की ओस से लगातार 
अजीब है बांस –वनों से आ रही हवाओं का संगीत 
और अजीब है आज की यह रात 
दुःख इतना निर्मम नहीं होता 
स्मृतियाँ इतनी बेजोड़ नहीं 
पर घाटों से बहता ही चला जाता है पानी 
नहीं ठहरता कहीं भी कुछ 
रुकने का नाम नहीं लेतीं धाराएँ 
पर वसंत फिर भी उतरता है जिंदगी के बगीचों में 
और लौट कर फिर आता है समय का अतिथि 
और फिर बैठ जाता हूँ मैं लिखने कोई गीत 
तुम्हारी याद में 
जैसा की अभी इस पल लिख रहा हूँ मैं
और उदासी बढती ही जा रही है गीत के बोलों में 
सबसे सुन्दर गीत भी हो सकता है सबसे ज्यादा उदास 
यह जाकर अब जाना 
बिलकुल वैसे ही जैसे आज की रात 
एक बार फिर से मैंने तुम्हें पहचाना ...!




बहता ही जा रहा है नदी का पानी 


गुनता–घाट के इसी शमशान पर 
अग्नि को समर्पित की गई थी माँ 
जीवन जीने के बाद जब शरीर से निकल गया था माँ का होना 
इससे पहले पिता और उससे पहले मेरे अन्य पुरखे 
इसी घाट के पानी में खड़े होकर तिलांजलि देते हुए मैंने 
उनके लिए मोक्ष की प्रार्थना की 
और अनजानी अनंत यात्राओं के पड़ावों के लिए किया था कुछ पिंड दान 
और कुछ सवाल इस नदी से की बहता ही क्यों जा रहा है इसका पानी 
डूबती रातों के धुंधलके में जब सो जाता है जंगल 
पछुवा हवाओं की मार से पुराने दर्द में बिलबिलाते हैं बूढ़े शरीर 
जब कोई परित्यक्ता रौशनी बुझाये अँधेरे में पोंछ रही होती है अपने आंसू 
बुरे स्वप्न से जग रहा होता है जब कोई बच्चा 
तब भी कहते हैं की कल-कल करके गाती है ये नदी 
शताब्दियों से गवाह है ये नदी 
जिंदगियों के आने और जाने की 
इसके किनारे मंडराती अतृप्त आत्माओं के रुदन की 
गवाह है ये नदी जन-जन के मन की 
यही नदी कहीं हमारे भीतर है लगातार खदबदाती हुई 
ओह बहता ही जा रहा है इसका पानी ...



जो न होना था 


दुःख के आसमान में 
चीख-चीख कर तारे कहते रहे की यह विलाप की रात है 
पर मैंने मानने से इंकार कर दिया 
जीवन के प्रश्नों के मैंने उदाहरणों के साथ उत्तर दिए 
और खुश रहा यह सोच कर की कॉपी कभी न कभी जाँची ही जाएगी 

नदियों के तट पुकारते रहे की संजो लो ये पानी 
एक दिन सूखने का डर है 
पर मैंने मानने से इंकार कर दिया 
पृथ्वी के साथ अपने रिश्ते की दुहाई दी मैंने 
और खुश रहा की संबंधों की डोर कभी टूट ही नहीं सकती 
सजल आँखों से मौसमों ने कितने संकेत दिए 
की अपने हिस्से की धूप हवा और ऋतुएं समेट लो 
कभी भी आ सकते हैं ना चाहने वाले दिन 
पर मैंने मानने से इंकार कर दिया 
मेरा विश्वास अभी भी जिंदा है और यकीन मानो यह जिंदा रहेगा 
सृष्टि के आखिरी चरण तक...


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रात पहेली


इरा का पहला कहानी संग्रह


इरा का पहला कहानी संग्रह

इरा टाक की कहानियां आदि आप शब्दांकन पर पढ़ते रहे हैं और आज यह ख़बर आप सबसे साझा किये जाने पर ख़ुश हूँ कि उनकी कहानियों का पहला कहानी संग्रह "रात पहेली" प्रकाशित हुआ है और इसका विमोचन दस जनवरी को 2017 को विश्व पुस्तक मेले में हो रहा है. बधाई मित्र.

इरा की किताब खरीदना नहीं भूलियेगा और विमोचन में आइये, चाय-समोसे के साथ साहित्यिक-गपशप की जाएगी.


रात पहेली  
प्रकाशन भारत पुस्तक भण्डार
कहानियां


  •   दिखावा लाइव, 
  •   ख़ोज, 
  •   लव डांवाडोल, 
  •   रात पहेली, 
  •   फैसला, 
  •   चाँद पास है और 
  •   पताका  
 मूलत: जयपुर की रहने वाली इरा टाक देश विदेश में विख्यात चित्रकार हैं, आजकल मुम्‍बई में रहती हैं, पेंटिंग, लेखन और फिल्ममेकिंग कर रही हैं। रात पहेली उनकी तीसरी किताब है। इससे पहले उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित चर्चित रहे हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी


मेरी बात

— अपूर्व जोशी

अपूर्व जोशी
मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी


अपूर्व जोशी न तो सच बोलने से डरने वालों में हैं और न सच बोलने के बाद पीछे हटने वालों में. अब इसका क्या किया जाये कि उनके जैसे इन्सानों का प्रोडक्शन आज के समय में लगभग ज़ीरो है. हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष  मैत्रेयी पुष्पाजी को अपूर्वजी का खरा होना अवश्य पसंद रहा होगा अब ये बात और है कि जब अकादमी की कार्यशैली पर अपूर्व जी ने सवाल उठाया (खेमेबंदी की शिकार मैत्रेयी पुष्पा ? — अपूर्व जोशी ) तो मैत्रेयीजी के जवाब की शैली (फेसबुक की पोस्ट) कुछ गड़बड़ नज़र आयी.

अपूर्वजी ने 'पाखी' जनवरी -2017 के अपने  कॉलम 'मेरी बात' में अपनी बात कहते हुए लिखा है "वैसे मैत्रेयीजी ने जो समझा उसमें उनकी कोई गलती नहीं। अमूमन ऐसे  ही होता है। यही कारण  है हम एक ही चश्मे से सभी को देखने के आदि हो जाते हैं। सारा संसार परशेप्शन (perception) का शिकार है। धारणाएं  सच का स्थान बड़ी आसानी ले लेती हैं। "



मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ — अपूर्व जोशी
‘पाखी’ का मालिक अकादमी के कार्यक्रम में आए या रतलाम का नवोदित लेखक, तहेदिल से स्वागत है। किसको घास डाली, किसको दाना दिया, अब इतने नीचे भी मत उतरिए ...   मैत्रेयी पुष्पा

बहरहाल बातें होती रहना जितना ज़रूरी है उतना ही बातों में दम का होना भी ज़रूरी है... अभी तो पढ़िए  'पाखी' जनवरी -2017  की 'मेरी बात ' का अंश

— भरत तिवारी


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पने अनियमित स्तंभ ‘मेरी बात’ के अंत में मैंने हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष मैत्रेयी पुष्पा की फेसबुक टिप्पणी को उद्धरित करते हुए जो कुछ लिखा उस पर जबरदस्त प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कुछ मुझसे सहमत हैं तो बहुत से असहमत भी। यह स्वाभाविक भी है। मुझे आश्चर्य मैत्रेयीजी की प्रतिक्रिया पर हुआ। उन्होंने लिखा है -

‘कुछ शिकायतें मिल रही हैं कि कार्यक्रमों में स्थायी चेहरे नजर आते हैं। यह शिकायत है या तोहमत? विषय के अनुसार योग्य वक्ता का चुनाव होता है। बावजूद दूसरे ऐसे कार्यक्रम भी हो रहे हैं जिनमें नए लोगो को मौका मिले। खेमेबंदी के कारण उपेक्षित रह गये, रचनाकारों और विचारकों (स्त्री-पुरुष) को जगह मिले। मैं यहां एक दिन रहूं या वर्षों, यही रवैया रहेगा। यह भी कि मुझे प्रशंसा रास नहीं आती। निंदा और बदनामी झेलने की आदत पड़ चुकी है। ‘पाखी’ का मालिक अकादमी के कार्यक्रम में आए या रतलाम का नवोदित लेखक, तहेदिल से स्वागत है। किसको घास डाली, किसको दाना दिया, अब इतने नीचे भी मत उतरिए ... ’’

इस पोस्ट के बाद मैत्रेयीजी एक कार्यक्रम में प्रेम भारद्वाज से मिलीं तो उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त की। फिर कुछ दिन बाद उनका फोन आया। मैंने जानना चाहा कि ऐसा भला मैंने क्या लिख दिया जिससे वे इतनी आहत हो गईं। उन्होंने उस आशंका को दोहराया जो उन्होंने प्रेम भारद्वाज जी से भी कही थी।

बहरहाल, जैसा मैंने लिखा था कि मेरे निजी संबंध मैत्रेयीजी के संग प्रगाढ़ हैं, बातचीत के बाद वे शांत हो गईं। पर मैं अभी तक समझ नहीं पाया हूं कि मैं कितने नीचे उतर गया हूं। जो मैंने लिखा उस पर कायम हूं। सच पूछिए तो किसी विषय पर स्पष्ट मत रखता ‘नीचे उतरने’ की श्रेणी में आता है तो मुझे इस इल्जाम से कोई एतराज नहीं। मदन कश्यप ने इस प्रसंग पर टिप्पणी करते हुए कहा कि लोकतांत्रिक माहौल में इतना स्पेस तो होना चाहिए कि अपनी असहमति को दर्ज कराया जा सके और उसका सम्मान हो। प्रश्न यही सबसे गंभीर है कि असहमति को सम्मान नहीं मिलता बल्कि उसे व्यक्ति विशेष के प्रति दुराग्रह अथवा विरोध मान लिया जाता है।

मैत्रेयीजी के विषय में खेमेबंदी का उल्लेख मात्रा इसलिये किया था क्योंकि ऐसे कई चेहरे इन दिनों उनके अजीज हैं जो एक जमाने में उन्हें गरियाते थे। स्वयं मैत्रेयीजी ने इसे स्वीकारा है। अन्यथा मैं समझता हूं उनके हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनने के बाद लगातार अच्छे कार्यक्रम हो रहे हैं, मासिक पत्रिका भी उन्हीं के प्रयास से शुरू हुई है। वे लगातार कुछ सार्थक करने के लिए प्रयासरत हैं। जिसके लिए उनकी प्रशंसा के साथ-साथ उनके साथ खड़ा रहना जरूरी है। यहां एक बात और कहना चाहूंगा कि हिंदी अकादमी में खेमेबंदी का जिक्र मैंने इसलिए भी किया क्योंकि जब मैत्रेयीजी उपाध्यक्ष बनीं तब उनके साथ गठित नई कार्यकारिणी में कवि मित्र कुमार विश्वास के नजदीकियों की तादाद ज्यादा थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी था। हमारे यहां ऐसा ही होने की परंपरा है। काबिलीयत के बजाये विश्वासपात्रता और चाटुकारिता मापदंड बन चुके हैं। इसलिए जब मुझसे सलाह मांगी गई थी तब जो लिस्ट मुख्यमंत्री दिल्ली के पास स्वीकृति के लिये भेजी गई उसमें अल्पना मिश्र, प्रेम भारद्वाज दिलीप शाक्य, अनीता भारती इब्बार रबी, संजीव कुमार आदि शामिल थे। वह लिस्ट स्वीकृत भी हो गई थी। मैं निजी तौर पर प्रेम को छोड़ किसी का भी वाकिफकार नहीं था। अपनी तरह से पूरी निष्पक्षता बरतते हुए मैंने प्रेम भारद्वाज से सलाह मशविरा कर सूची बनाई थी। फ़िर कुछ ऐसे हुआ कि मैत्रेयीजी को जब उपाध्यक्ष पद के लिऐ चुना गया तो कार्यकारिणी से वे सभी नाम गायब थे जिन्हें मैंने प्रस्तावित किया था। बाद में पता चला कि डॉ. कुमार विश्वास ने वे सभी नाम काटकर अपने कवि मित्रों को उसमें शामिल कर दिया था। मैत्रेयीजी से कोई सलाह मशविरा नहीं हुआ था। एक साल बाद जब दोबारा कार्यकारिणी गठित हुई तो मैत्रेयीजी की चली उन्होंने कुमार के कई मित्रों को बाहर कर नए लोग अपनी टीम में लिए हैं। इसमें कोई बुराई नहीं, यह उनका विशेष अधिकार है। लेकिन यह तो एक साल में उन्होंने भी महसूसा होगा कि गुटबाजी कितनी खतरनाक होती है। इसलिए यथासंभव इससे बचना चाहिए।

मैत्रेयीजी को यह भी लगा कि मैंने किसी मित्र विशेष के कहने पर उन पर ‘तोहमत’ लगाई है। मैं उन्हें स्पष्ट कर चुका हूं कि मेरी लेखनी को कोई मित्र प्रभावित नहीं कर सकता। जो किया अपनी समझ से किया। इसलिए यदि नीचे गिरा हूं तो अपनी करनी के चलते।

वैसे मैत्रेयीजी ने जो समझा उसमें उनकी कोई गलती नहीं। अमूमन ऐसे ही होता है। यही कारण है हम एक ही चश्मे से सभी को देखने के आदि हो जाते हैं। सारा संसार परशेप्शन (perception) का शिकार है। धारणाएं सच का स्थान बड़ी आसानी ले लेती हैं। जैसे वामपंथी मित्र मानकर बैठे हैं कि तमाम संवेदनाओं का सरोकार केवल उनसे है, क्रूरता पूंजी की जुड़वा बहन है। मैं ऐसे कइयों को जानता हूं जो घोरवामपंथी हैं आमलेट खाकर, शराब पीकर जनवाद पर बहस करते हैं लेकिन क्या मजाल है कि कभी किसी को एक पैसे से मदद कर दें। दूसरी तरफ कथित पूजीवांदी है जो अपने सिधांत के लिए अपना सर्वत्र दांव पर लगाने का दम रखते हैं।

जब इमरजेंसी के दौरान पूरा वामपंथी खेमा कहीं दुबक गया था, जब दक्षिणपंथियों के कई दिग्गजों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था तब एक पूंजीपति ही तो था जिसने इंदिरा शासन के सामने न झुकने का दम दिखाया। रामनाथ गोयनका से बड़ी संवेदनशीलता कहा। पर क्या करें परशेप्शन का खेल है, प्रेमजी के कवि मित्र कवि मदन कश्यप ने मेरे लिखे को पढ़कर उनसे कहा- ठीक आदमी मालूम पड़ता है, लिखता-पढ़ता भी है। हालांकि पूंजीपति है लेकिन संवेदनशील है। यह सही नहीं है मदनजी कि पूंजी क्रूर बनाती है। क्रूर तो मनुष्य होता है। पूंजी संवेदनशील भी नहीं होती। यह तो मनुष्य के अपने गुण हैं। अन्यथा रामनाथ गोयनका संवेदनशील न होते और स्टालिन क्रूर तानाशाह न होता।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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इशारे के आर्ट से रूबरू कराती कविताएँ — डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय


Anirudh Umat Kavita Sangrah Tasveeron


अनिरुद्ध उमट का नया काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ 

— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट के नए काव्य-संग्रह ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरे’ में महत्त्व इस बात का नहीं है कि इसमें कितनी कविताएँ हैं बल्कि महत्त्व है कविताओं के मिज़ाज एवं मूड का । आज कविता का कोई आन्दोलन नहीं है । यों देखें तो आन्दोलन तो किसी का भी नहीं है । शायद यह युग के ठंडेपन का प्रभाव है । यह ठंडापन भी शायद नई जन्मी और विषबेली की तरह निरंतर बढ़ती संस्कृति से उपजा है । आज कविताएँ भी प्रायः इसी संस्कृति और उसके ठंडेपन को ही अभिव्यक्त करती हैं याकि कर रही हैं । लेकिन अनिरुद्ध उमट की कविताएँ इस मिज़ाज और मूड से अलग हैं । ये कविताएँ हर स्तर पर अलग बुनावट की कविताएँ दिखती हैं । 





आज जबकि ज्यादातर कविताएँ वर्तमान समय एवं समाज के यथार्थ को, उसकी विषमताओं को तथा जीवन-जगत की विषमताओं एवं विडम्बनाओं से उत्पन्न त्रासदी का बयान करती हैं और उसी के बहाने अपने सामाजिक सरोकारों को प्रमाणित करने की कोशिश करती हैं याकि यथार्थ की विविध स्थितियों को मूर्त कर, उसके अंतर्विरोधों और दबावों को अभिव्यक्त कर अपनी प्रगतिशीलता सुनिश्चित करना चाहती हैं तब अनिरुद्ध उमट की कविताएँ बिना किसी दावे और बिना किसी दबाव के शुद्ध रूप से कविता के कवितापन के साथ सामने आती हैं और कविता के नए संभावना-क्षितिज की ओर अर्थवान संकेत देती हैं, इशारा करती हैं । ये कविताएँ अभिव्यक्त करने की जगह चित्र खींचती हैं –मुकम्मल नहीं बल्कि अधूरी और उसी अधूरेपन के बीच कविता का मर्म छिपा मिलता है । कहने का अर्थ यह है कि अनिरुद्ध उमट बाह्य-जीवन की विषमताओं, विडम्बनाओं, गंदगियों, कुरूपताओं एवं अंतर्विरोधों आदि को ही सत्य मान कर उसी में रमे रहने वाले याकि उन्हीं का चित्रण करने वाले कवि नहीं हैं । वे तो आत्मखोज के कवि हैं, आत्मान्वेषण के कवि हैं । एक आत्मान्वेषण का ही कवि ‘मैं कहीं नहीं था अब’ जैसी कविता की सर्जना कर सकता है जिसमें वे कुछ बिम्बों की उपस्थिति से वार्तालाप करते हैं —

दराज छूते ही
मेज हिलती-सी 
ढहने लगी हाथों में 

पहनने लगा पुरानी कमीज 
तड़-तड़ बटन 
लगे गिरने 

 डरता-सा 
देखने लगा आईना 

नहीं यह तो है दीवार 
 कहा खुद से 
हटा वहाँ से
ढहने न लग जाए कहीं 

अँधेरे कमरे में 
बैठा 
तो वहाँ आँगन 
धँसने लगा 

 मैं कहीं नहीं था अब । 

वस्तुतः अनिरुद्ध दूसरों को पहचानने की बजाय अपने को पहचानने पर ज्यादा जोर देते दिखाई देते हैं । इसी भावभूमि की एक कविता है –‘हरियल आहटों वाले दिन’ । इसमें अपने को टटोलना भी है, अपने अतीत से गुजरना भी है और उन्हीं के बीच राग की, प्रेम की परिणति और उसके महत्त्व की भी बात है । उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ सिर्फ़ इशारे हैं, सूत्र हैं, एहसास है जिन्हें कवि व्यक्त नहीं करता बल्कि वह चाहता है कि उसे आप अपने भीतर व्यक्त करें, आप अपने भीतर उसी एहसास को जगाएँ । पंक्तियाँ हैं —

अपनी चेतना के गुट्ठल उजाले
टटोल रहे होंगे जब हम

 न जाने कितने 
हरियल आहटों वाले दिन 
गुजर जायेंगे 

 पक्षी अपने गान से 
भर देंगे पेड़ों का रोम-रोम 

शायद तभी 
 ताम्बई सुबह से उबरने में 
प्रेम का विस्मृत होना भी देखेंगे । 

प्रतीक्षा के सूत में’ शीर्षक कविता में अनिरुद्ध उमट पूरी पृथ्वी की बात करते हैं, पूरे संसार की बात करते हैं, किसी एक रंग की नहीं बल्कि सभी रंगों की बात करते हैं और उन सब के मेल की बात करते हैं । यहाँ कवि की सोच का दायरा विस्तार पाता हुआ दिखाई देता है । इसे हम कवि का अपना पक्ष भी मान सकते हैं । और यह भी एक तथ्य है कि कवि का पक्ष—मनुष्य तथा मनुष्यता से अलग तो नहीं ही हो होता है । वे लिखते हैं —

प्रतीक्षा के सूत में 
मिला लो 
जरा हरा 
जरा पीला 
जरा-जरा नीला भी 
 बूँद भर गाढ़ा सफ़ेद 

कातती जाओ 
कातती ही जाओ 

पड़ी है पूरी पृथ्वी 
 सूत फैलाने को 
को 

कहीं भेज देने 
हवा में 
उड़ा देने को । 

अनिरुद उमट की कविता के पीछे उनका अपना एक खास तरह का काव्य-विवेक काम करता है जो सिर्फ़ उनका है, उनका निजी है । उस विवेक के ही चलते वे सपाटबयानी नहीं करते, जीवन-जगत से स्थूल रूप में या सीधे-सीधे साक्षात्कार नहीं करते और न ही वे किसी के पक्ष-विपक्ष में खड़े हो कर साहित्यिक वकील बन कर किसी के यहाँ अपना नाम लिखवाना चाहते हैं । वे तो अपने भीतर के एहसास को, भीतर की आवाज को, उसके विवेक को वाणी देने की अपेक्षा उकेरने की कोशिश करते हैं । संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए हमें इस बात का स्पष्ट एहसास होता है कि अनिरुद्ध एहसास की कविताओं के कवि हैं । इसीलिए इन कविताओं की अपनी एक अलग स्वायत्त पहचान है । ये नए ‘त्वरा’ की कविताएँ हैं जिनमें जीवन के अन्तःस्पर्शी अनुभव प्रत्यक्ष हुए हैं ----वो भी किसी वक्तव्य के रूप में नहीं, किसी के पक्षधर के रूप में भी नहीं बल्कि अपनी और सिर्फ़ अपनी ताप के साथ प्रत्यक्ष हुए हैं । नन्दकिशोर आचार्य ने इन कविताओं पर बात करते हुए इस तथ्य की ओर संकेत भी किया है । वे कहते हैं – “ऐसी कविता .....किसी निश्चित अर्थ को पाने के लिए नही, एक ऐसे एहसास से गुज़रने के लिए पढ़े जाने की माँग करती हैं जिसकी शाब्दिक निर्मिति की वास्तविक परिणति अपने ग्रहीता की चेतना में घुल जाने की प्रक्रिया में होती है । उसे अपने पाठक में भी उस ‘सहृदय’ की तलाश रहती है ।” कहने का अर्थ यह है कि इन कविताओं के प्रति हमें समझ बनाते समय प्रचलित काव्यशास्त्र से अपने को, अपनी सोच को, अपनी दृष्टि को अलग ले जाना होगा और उसे ‘शब्द’ और ‘कवि’ के बीच का निजी मामला मान कर ही देखना होगा । वो बात दूसरी है कि वे ‘शब्द’ अब सिर्फ़ कवि के नहीं रहे – वे अब सब के हो गए हैं इसीलिए उसका एहसास भी अब अलग-अलग रूपों में हो सकता है और होना भी चाहिए, क्योंकि अज्ञेय के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि सब की ‘इयत्ता’ अलग-अलग रूपों में ही जाग्रत होती है । तात्पर्य यह कि ‘एहसास’ की कविताओं को एहसास के धरातल पर ही चल कर हम सार्थक रूप में देख सकते हैं । ये एहसास भी कई- कई बिम्बों में व्यक्त होते हैं । अनिरुद्ध की खासियत यह है कि वे छोटे-छोटे बिम्बों में गहरी-से-गहरी बात कह जाते हैं । इस संग्रह में एक कविता है – ‘सही तरह से’, इसे पढ़ते समय हम अनेकानेक एहसासों से गुज़रते हैं —

रुक गया अधर में 
वृक्ष 
गिरता-गिरता 

 थिर हुए बदहवास पक्षी शाखों पर 
उड़ते-उड़ते 

अचानक हुए खोखल में 
लिपटने लगे एक दूजे से 
 जड़ों में बैठे कीट – सर्प 

 आयीं तुम 
पलंग से गिरे तकिये को 
सिरहाने रखती-सी-वृक्ष को 
 रखने लगी 
सही तरह से 

 पक्षी फिर शाखों पर 
कीट-सर्प जड़ों की नमी में 
 आकाश फिर 
नीला – शांत । 

अनिरुद्ध उमट की कविता की खूबसूरती उनके बिम्बों में निहित है । एक चित्र देखिए —

आसमान से 
दिखी पृथ्वी 

कई रंगों में गुत्थमगुत्था 

 मालूम हुआ
खूबसूरत चादर 
किसी ने बड़े जतन से रँगी 

 फिर 
तनिक 
सूखने 
फैला दी । 

अनिरुद्ध व्यक्ति की बात करते हैं, प्रकृति की बात करते हैं, उन दोनों के अन्तःसम्बन्धों की बात करते हैं और उसे लिखते समय कई एक बिम्बों की सर्जना करते हैं । यह बिम्ब-सर्जना अनिरुद्ध उमट की कविताओं की ताक़त भी है और उनकी पहचान भी । ‘सूनी दुपहर की धूप’एक ऐसी कविता है जिसमें कई बिम्ब हैं जो एक दूसरे से जुड़ कर एक बड़े बिम्ब की निर्मिति करते हैं और उस निर्मिति का कोई एक रूप नहीं हो सकता है बल्कि हमारे-आपकी सोच और दृष्टि के आधार पर उसके नए-नए रूप बन सकते हैं । पंक्तियाँ इस प्रकार हैं देखिए —

सड़क पर पैदल चलते 
लड़खड़ाऊँगा 
एक क्षण 

 फिर इधर-उधर देखते 
गले पर हाथ फिराते 
 गुनगुनाऊँगा सूनी दुपहर की 
धूप का ताप 

 उधर बंद पड़े मेरे कमरे में
डाकिया दरवाजे के नीचे से खिसका जाएगा 
 सारी चिट्ठियाँ
अपनी 

 मेरे लौटने की प्रतीक्षा में 
खुली रखी किताब पर 
धूप आकर 
 लौट जाएगी 

जो अभी टिकी है मेरे सर पर । 

वस्तुतः ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ काव्य-संग्रह की कविताएँ स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि अनिरुद्ध बाह्य एवं स्थूल जीवन के क्रिया-व्यापारों की अपेक्षा प्रकृति और जीवन के प्रति निरंतर आत्मान्वेषण का प्रयास करते दिखते हैं । यह आत्मान्वेषण ही उनकी कविता की दृष्टि भी है । ‘पराकाष्ठा’, ‘अपना आप’, ‘हम कहीं न थे’, ‘पीछे मैं था उनकी छाया में घुलता’ शीर्षक कविताएँ उनकी इस भीतरी दृष्टि की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । ‘हम कहीं न थे’ की कुछ पंक्तियाँ हम देख सकते हैं —

क्या उसे पता है रास्तों में रास्ते खोते
अंतिम कलप है प्यास और आस 

 दोपहर के वीराने में कोई आएगा और चुरा ले जाएगा खुद को 

 उसने कहा – “हाँ , मुझे पता है” 

 यह सुनते ही मैं कहीं नहीं था
अब हम वहाँ थे जहाँ हम कहीं न थे 

 हमारे होने का
कोई निशान न था 

अब केवल
टीला था ।

अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं में जिन भावों की प्रधानता है उन भावों तक पहुँचने के लिए, उनके मर्म को जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि में नयापन लाना होगा क्योंकि अपने पुराने काव्यशास्त्र से हम उन भावों की व्यंजना को नहीं समझ सकते हैं । नए की तलाश और नए से जुड़ाव कर ही हम उन भावों की गहराई तक पहुँच सकते हैं । अनिरुद्ध की एक कविता है –‘पराकाष्ठा’ जिसमें वे प्रभु से सवाल करते हैं और उसी के साथ अपने पक्ष को भी प्रस्तुत करते हैं । वे कहते हैं —


पराकाष्ठा के काष्ठ पर 
नाक रगड़ते 
 प्रभु

तुम
थकते
नहीं 

लो हटो 

मैं 
मरता हूँ । 

 वस्तुतः ‘तुम थकते नहीं’ और ‘लो हटो मैं मरता हूँ’ के भीतरी भाव तक पहुँचने के रास्ते सीधे एवं सरल नहीं हैं । उस तक पहुँचने के लिए हमें अपने भीतर की भी यात्रा करनी होगी ।

यद्यपि सीधे बयान के रूप में भी कविता अर्थपूर्ण होती है – इसके लिए हम नागार्जुन और धूमिल जैसे कवियों की कविताओं को अक्सर सामने रखते हैं लेकिन सीधे बयान के बिना भी कविता कितनी अर्थपूर्ण और जीवन से जुड़ी हो सकती है इसे हम अनिरुद्ध उमट की कविताओं में देख सकते हैं । ये कविताएँ इसलिए भी अर्थपूर्ण हैं क्योंकि इन कविताओं की संवेदना का संसार सिर्फ़ कवि के बाह्य से नहीं बल्कि कवि के अंतरंग से जुड़ा है । इसका अर्थ यह नहीं कि अनिरुद्ध के यहाँ सिर्फ़ ‘इकाई’ है याकि सिर्फ़ ‘कवि’है याकि सिर्फ़ ‘स्व’ है । वह संवेदना ही क्या जो सिर्फ़ ‘स्व’ तक सीमित हो ।अनिरुद्ध के यहाँ संवेदना का विस्तार सूक्ष्म रूप में होता दिखाई देता है । एक उदाहरण रखना चाहूँगा, कविता का शीर्षक है- ‘उसने भी देखा होगा’ जिसमें वे कहते हैं —

शफ्फाफ़ नीले आकाश में
धँसा दिया 
चेहरा 

उधर भी था चेहरा एक
अंतहीन प्रतीक्षा में 
 उसने भी 
देखा होगा 
ऐसा ही आकाश 

अब दोनों चेहरे 
 डूबते
धँसते
फफकने लगे । 

मैं समझता हूँ इसकी व्याख्या करने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह कविता अज्ञेय की अचानक ‘बज उठी वीणा’ की तरह आप सबमें अलग-अलग रूपों में बजी होगी और आप सब इसमें अपने-अपने तईं अर्थ खोज रहे होंगे । हाँ ! इसमें कोई दो राय नहीं कि अर्थ-गौरव और भाव- सघनता की दृष्टि से अनिरुद्ध उमट की कविताएँ आज के समय की कविता के बीच एक अलग पहचान के साथ सामने आती हैं और अपनी भाषिक सर्जनात्मकता के चलते सबसे अलग खड़ी दिखती हैं । एक बात यह भी कहना चाहूँगा अज्ञेय की तरह अनिरुद्ध की कविताओं में भी ‘विसर्जन’ का स्वर मिलता है । इस सन्दर्भ में संग्रह की ‘वुजु’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं —

लो हो गया 
आज

मेरा ‘वुजु’ 

लिए अपना वजूद 
 अब मैं
कायनात में

कहाँ समाऊँ

गुम हुई सरगम 
 जहाँ


पुराने हारमोनियम से 

वहीं जा 
पसरूँ 

 या दूँ छाया

डूबते 

सूर्य को ।

समकालीन कवि और कविता पर विचार करते हुए डॉ.परमानन्द श्रीवास्तव ने एक जगह लिखा है कि “ कबीर ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, निराला ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए मूल्यांकन की अनिवार्यता सिद्ध की, मुक्तिबोध ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की जरूरत प्रमाणित की, ( यहाँ तक कि ) धूमिल ने जिस अर्थ में शास्त्र को चुनौती दी और नए काव्यशास्त्र की अनिवार्यता सिद्ध की । ”ऐसी अनिवार्यता प्रायः उस कवि और उसकी कविता के साथ होता है जो प्रचलित धारा से अलग की सोच के साथ सामने आता है । क्या अज्ञेय की कविताओं को पुराने काव्यशास्त्र के धरातल पर कस कर हम उसके साथ न्याय कर सकते हैं ? जवाब होगा नहीं, हमें उसे समझने- समझाने के लिए अपनी जड़ीभूत काव्यरुचि में अनिवार्यतः परिवर्तन लाना ही होगा ।

अनिरुद्ध उमट की कविताएँ भी परंपरागत काव्यशास्त्र को चुनौती देती हैं और उन्हें जानने, समझने एवं परखने के लिए एक नए तरह के काव्यशास्त्र एवं काव्य-संवेदना की ज़रूरत प्रतिपादित करती हैं क्योंकि उनकी कविताओं का अपना यथार्थ है और उस यथार्थ को हम अपनी शर्तों पर पहचानने की कोशिश करेंगे तो हमारे हाथ कुछ भी नहीं आएगा लेकिन उन कविताओं की शर्तों पर यदि हम उन्हें देखने की कोशिश करते हैं तो निश्चित ही हम कविता के नए विवेक से अपना नाता जोड़ पाने में सफल होंगे । सच तो यह है की उर्दू के जाने-माने शायर शीन काफ़ निज़ाम कविता के लिए जिस ‘इशारे के आर्ट’ की बात करते हैं उस इशारे के आर्ट को हम अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं से गुज़रते हुए बखूबी देख सकते हैं । ऐसे इशारे के आर्ट के कवि अनिरुद्ध उमट को इस नए काव्य-संग्रह- ‘तस्वीरों से जा चुके चहरे’ के लिए ढेर सारी बधाइयाँ इस आशा के साथ कि अभी तो उन्होंने ‘तस्वीरों से जा चुके चेहरों’ पर उँगली रखी है आगे वे तस्वीरों में अंकित होने वाले चेहरों को भी जरूर आँकेंगे ।

प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, विनायक शिखर, पॉलिटेक्निक कॉलेज के पास, बीकानेर -334003
मूल्य - 140/- रुपए

डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

‘कवितायन’ 36 राजीव नगर 
कुड़ी हाउसिंग बोर्ड रोड 
जोधपुर ( राजस्थान ) 342005 
मोबाइल नं. : 09414131188 
ई. मेल : kaushalnathupadhyay@gmail.com 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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