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नई क़लम: आर्ट दैट इज़ कला — सर्वेश त्रिपाठी की कवितायेँ




कविताओं का होना, उनका लिखा जाना बर्बर समय में संवेदनाओं के बचे रहने का सुखद संकेत है। ऐसे ही संकेतों के बिम्ब सर्वेश त्रिपाठी की 'नई क़लम' में हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक और विधि स्नातक, युवा कवि सर्वेश वहाँ के उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ से वकालत करते हैं, साथ ही सामजिक कार्यों से जुड़े रहते हैं। स्वागत, बधाई कवि! ... भरत एस तिवारी/शब्दांकन संपादक 

सर्वेश त्रिपाठी की कवितायेँ

आर्ट दैट इज़ कला


तो तुम कहते हो,
"कला सिर्फ कला के लिए है,
कलाकार के लिए है"!
कलाकार की आत्मतुष्टि का साधन
जहां वो अपनी अमूर्तता को,
मूर्त करता है।
फिर अपने चिंतन को,
विस्तार देता है अनंत तक।

अच्छा एकाकार भी होता है,
सृष्टि की लय के साथ।
अंतर्नाद पर थिरकता
अपनी शाश्वतता को जीता है।

गुड वेरी गुड...!
तो यह बताओ डियर ?
"शाब्दिक आडंबरों में रची मानसिक तुष्टि की परिभाषा क्या है?"

लगे हाथ ये भी बता दो?
गावों और कस्बों में रची,
गुदनो में गुदी,
दीवारों पर गोबर की लीपाई के बाद
अनगढ़ हाथों से,
उकेरी आकृतियों के बारे में क्या कहना है?
वह कला जो पुस्तकों में नहीं
जीवन में घुट घुटकर श्वास लेती है।
गेंहू की बालियों में पकती है,
हथौड़ों की चोट से संरक्षित होती है।
वो क्या है ?

तो मेरे दोस्त..!
तुम लाख कहो या न मानो।
कला पर प्रथम अधिकार
पसीने और खून का ही है।
हक तो उस कलाकार का ही है,
जो पेट की आग में तपते,
पीढ़ियों को बचाने, पालने में जुटा पड़ा है।
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अम्मा तूहू का मदर्स डे के बधाई!!


मदर्स डे के दिन,
अकेली अम्मा गांव में हथपोई पका ली है।
दांत मजबूत नहीं,
सो दूध में डूबा दिया है।
खाएगी थोड़ा रुककर..!
अभी उसे खाने से पहले,
एकाध सीरियल निपटाने है।

शाम को हर बच्चों के,
फोन आने से पहले
वो खलल नहीं चाहती अपनी दिनचर्या में।
यही खुशी ही तो उसे जिलाए है,
सब की चिंताओं में वो अब भी शामिल है।

नातिन की फोन पर,
कल नजर उतारी थी, बिटिया से हाल पूछना है।
पोते को पेट दर्द में,
फिर कब हींग लगानी है, यह भी बहू को बताना है।

अम्मा अभी एंड्रायड फोन
चलाना सीख रही बिटिया की जिद पर।
पड़ोसी की बेटी भी,
झुंझला जाती है सीखा सीखा कर।
हर रोज नाती पोतों की तस्वीरें
देखने के मोह में, अम्मा कोशिश तो खूब करती है।
हार भी जाती है कभी कभी अम्मा,
अपनी खुरदुरी उंगलियों से,
जो फोन के चिकने स्क्रीन पर सधती नहीं।

लेकिन जिद्दी अम्मा अंदर ही अंदर,
खुद से कहती है सीखूंगी तो जरूर ...!
उसे भी देखना है
बच्चो के स्टेटस पर केक के साथ सजी,
वो कैसी लगती है।
भोली अम्मा अभिभूत हो जाती है,
सबके दुलार पर
दूर से ही सही,
समय समय पर मिलने वाले सम्मान पर।

रोटी दूध में फूल चुकी है,
उबली लौकी की सब्जी के
साथ खा रही बड़े चाव से।
बेटे की हिदायत पर अब अम्मा,
शाम को हल्का ही खाती है।

अम्मा पुश्तैनी घर की,
रखवाली में बहुत खुश है।
लगता भी है उसके चेहरे से।
अम्मा प्रसन्नता और दुःख दोनों छुपाना जानती है।
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मेरी प्राथमिकता


मैं
कितना भी कमजोर हो जाऊं,
जितना कोई सूखा पत्ता,
डाल से टूटकर होता है।
अथवा निरीह जितना
धूल में गिरा एकाकी जलबिंदु है।
जो क्षणिक है व्यर्थ है।
संभव है जो भी कुछ,
जिसे यह दुनिया कमाई कहती है,
सब लुट जाए एक दिन..!

किन्तु,
मैं कतई नहीं स्वीकार सकता,
संवेदनशील होना कमजोरी है...
किसी के आंसू,
अपनी आंखों से बहते देखना कोरी भावुकता है।

मानता हूं व्यावहारिक होना,
उत्तरजीविता की अनन्य शर्त है।
कठोर होना,
और जगत् की आवश्यक रीति।
किन्तु,
मैं अपनी आखिरी श्वास तक,
इन तथ्यों पर हंसना ही चाहूंगा।
यांत्रिक प्रयोजन को भी क्रीड़ा मात्र समझ
मुस्कुराना चाहूंगा...!!

और गर्व सहित इन कमजोरियों को,
संवेदनशीलता और भावुकता को,
मनुष्यता मानूंगा।
उसका धर्म मानूंगा।
उसका सार मानूंगा।
जगत् का प्रयोजन मानूंगा।
मैं यह भी मानूंगा की हर आंख में
बसे खारे पानी में,
पीड़ा के साथ साथ,
प्रेम का असीम सागर भी छुपा पड़ा है।
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बेटियां


बेटियां
घर हैं,
घर का अधिष्ठान हैं
घर चाहे पिता का हो अथवा पति का।

बेटियां,
महक हैं।
जहां भी हैं,
सुवासित है दिग दिगंत तक।

बेटियां
महाकाव्य नहीं,
लोकगीत का सोंधापन हैं।
जो बैठी हैं अधरों पर,
पीढ़ियों से विरह की तड़प लिए,
ब्याह के पहले भी ब्याह के बाद भी।

बेटियां
सिर्फ बेटियां ही नहीं
मां बहन और पत्नी ही नहीं।
सर्वस्व लुटाकर बन जाने वाली
प्रेमिका भी हैं।

बेटियां,
सर्वदा,
भाई हैं पिता भी हैं।
और जबरन बना दी जाने वाली त्याग भी।

बेटियां,
दुनियां को चलाने में,
मनुष्यता का अवलंब हैं।
तभी,
बेटियां घर ही नहीं पूरा संसार हैं...!
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नई किताब


हर नई किताब,
मेरी कुल समझ को
बदल देती है,
असंख्य सवाल में ...!!

सवाल, जवाब, समझ के
त्रिकोण में फंसा।
मैं बेचारा,
उठा लेता हूं,
एक और किताब।

जवाबों के,
पार जाने के लिए।
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सेल्फी वाली लड़की


उसे अच्छा लगता है,
हर पल खुद को निहारना।
खुद को तस्वीर में उतारना,
सेल्फी लेना।
पहाड़ो की बर्फीली चोटियों पर,
नंगे पैर पंजो पर उचक कर सूरज की पहली किरण के साथ,
और नदी की धारा में पैर डाले
अपनी सेल्फी लेती है।
वो मरू की तपती रेत पर लेटकर
और चाँदनी रात में भी अपनी आँखों में सितारों को जकड़ कर सेल्फी लेती है।
वो विचित्र और सैकड़ो कोण का मुखाकृति में अपनी तस्वीर उतारती है।

वो कतई सेल्फिश नहीं,
जो सेल्फि में खुद को कैद रखे।
वो अपनी हर तस्वीर में अपनी दुनियां का मानचित्र खुद रचती है।
वो खुद को हजारों सेल्फी के बीच लाखों तरीके से पढ़ती रहती है।
ताकि वो विद्रोह कर सके,
सभी सौन्दर्यशास्त्रीय मानको के प्रति।
जो इस दुनियां ने रचे है उसकी शाश्वत कैद के लिए।
विद्रोह कर सके उस हर सोच के प्रति,
जो उसे रोकती है उसे अपने तरीके से देख पाने से,
समझ पाने से।

वो सिर्फ सेल्फी नहीं लेती,
वो समाज को आइना दिखा,
एक विमर्श को जन्म देती है।
वो हर चित्र के साथ सोचती है,
दुनिया की हर लड़की की एक रोज अपनी सेल्फी होगी।
जहाँ वो आधी दुनिया की जगह पूरी दुनिया को अपना समझेगी।

बेखटके,
पहाड़, नदी और जंगलों में निश्चिन्त भाव से अपनी तस्वीर उतारेगी।
बेख़ौफ़ शहरों के भीड़ में इंसानों को भी,
उस तस्वीर में साथ लेगी।
इसी से हर पल वो खुद को निहारती है,
अपनी तस्वीर (सेल्फी) उतारती है,
एक दुनियां के बदलने की उम्मीद के साथ... !!
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जोकर


एक मँजे हुए कलाकार की तरह
सधा हुआ अभिनय करता है।
क्योंकि,
वह व्यक्तिगत त्रासदियों को
अजीबोग़रीब हरकतों से हास्य में बदल सकता है।

वो,
असंभव को संभव बनाने के लिए,
बार बार गिरता है, लड़ता है, भिड़ता है।
हास्य और त्रासदी के बीच,
रिश्तों को प्रगाढ़ करते हुए।
दर्शकों की निष्ठुर हंसी के बीच तलाशता है,
सहानुभूति भरी दृष्टि।
जो,
उसके रंगबिरंगे चोंगे के परे उसे खोज सके,
और इतना साहस दे सके,
ताकि कल फिर वो "जोकर" बन सके।

गिर सके, लड़ सके, भिड़ सके,
गैरों की हँसी के लिये।
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 मेरी सोच


“मैं” अपनी तरह ही सोच सकता हूँ।
इसके बावजूद कि,
हमेशा, मैं सही नहीं हो सकता।
फिर भी मैं खुद पर “विश्वास” रखता हूँ।
क्योंकि, अपने तरीके से सोचने में ही,
मैं खुद को “प्रमाणिक” मानता हूँ।
“जीवित” मानता हूँ।

तभी मैं,
तुम्हारी तरह नही सोच पाता।
क्योंकि तुम्हारी तरह सोचने का मतलब,
तुम्हारी तरह होना है।
तुम्हारी नक़ल करना है।
और खुद को “जिन्दा” मानने का भ्रम पालना है।
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चिड़ियों का मुक्तिदाता


चिड़ियों का गायन जारी था।
“बहेलिया आएगा...बहेलिया आएगा,
दाना डालेगा जाल बिछाएगा,
पर हम नहीं फँसेंगी नहीं फँसेंगी...!”

पर अबकी जब बहेलिया आया,
तो उसने दानें नहीं डाले जाल भी नहीं बिछाया।
उसने चिड़ियों से कहा कि वो फ़िक्रमंद हैं,
चिड़ियों की व उनकी आने वाली नस्लों के लिए।
वो कोई “चिड़ीमार” नहीं जो उसे उनकी जान चाहिये,
बस “चिड़ियों के हित” में “कुछ चिड़ियों का बलिदान” चाहिये।
चिड़ियों को उनका वाजिब हक दिलावाया जायेगा,
अब “जंगलराज” नहीं चिड़ियों का “स्वराज” आयेगा।
हर चिडिया को जी भर चुगने और उड़ने का अधिकार दिया जाएगा,
हवा में ही उनके रहने का प्रबंध किया जायेगा।

चिड़ियों को ये बातें पल्ले पड़ गयी,
बहेलिये के साथ गाते हुए फिर वे चल पड़ीं।
“बहेलिया आया था... बहेलिया आया था,
दाने नहीं डाले... जाल भी नहीं बिछाया।
हम नहीं फँसे - हम नहीं फँसे - हम नहीं....!!!”
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वही पुराना तमाशा


वही मदारी, वही बन्दर, वही तमाशा
और वही पुराने तमाशबीन।
सब की अपनी-अपनी नजर,
और "करतब" वही एक !!!

बन्दर मदारी को देखे,
और मदारी बंदर को।
बंदर अपने गले की रस्सी को,
और मदारी सब तमाशबीनों को।

छड़ी ऊपर बंदर का नाच शुरू,
छड़ी नीचे नाच बंद।
बंदर नाचे मदारी नचवाये,
मजबूरी नाचे पेट नचवाये।

लेकिन असल में इस तमाशे में नाचे कौन?
बंदर की मजबूरी या मदारी का पेट या हर वो तमाशबीन।
जो देखता हैं खुद को,
कभी बंदर तो कभी मदारी नजर से..........!!!
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खेल


कभी सोचा हैं शतरंज के खेल में,
प्यादे हमेशा सीधे ही क्यों चलते हैं??

यक़ीनन घोड़ों की तरह,
नहीं हैं उनके पास अढ़ईयाँ चाल।
न ही ऊँट सी तिरछी निगाह,
और हाथी से फौलाद कदम।

उन्हें विशेषाधिकार भी नहीं मिले,
वज़ीर की तरह।
न ही मिली शहंशाही फितरत
मौका-मुकाम के लिहाज़न आगे पीछे हो जाने की।

नहीं समझ पाओगे तुम सब,
इस शह मात के खेल में।
प्यादे कमजोर नहीं मजबूर बना दिए जाते हैं,
चंद कायदों में उलझाकर....हमेशा।
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सत्यमेव जयते


एक बेचारा सत्य,
युगीन यथार्थ के समक्ष नतमस्तक।
वर्तमान के सम्मान और आत्मसम्मान को,
व्यवहारिकता की दूकान में गिरवी रख।

तलवा चाटता है,
हर रोज किसी झूठ का।
और बेबसी से सोचता हैं...
क्या उपनिषदों ने इसी सत्य के जय की हुंकार भरी थी।
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ऑनर किलिंग


वो क़त्ल,
कर दिए गए।
बेरहमी से,
"जानवरों" की तरह।

शायद उन्हें ये,
इल्म था।
वे भी कर सकते हैं,
मुहब्बत "इंसानों" की तरह।
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हैरान हूँ!


माँ तुम शब्दों में
क्यों नहीं समाती।
और क्यूँ जब,
हर दिन मैं,
बड़ा होता हूँ।
तुमसे छोटा,
होता जाता हूँ मैं।

हतप्रभ हूँ अब,
समझ कर।
तेरे रक्त से,
पोषित था,
कभी ये जीवन।
और
विचलित हूँ ये जानकर,
मेरे जन्म के समय।
तुम भी जन्मी थी,
माँ दुबारा ....

मुझे छाती में भींचे,
केवल जीवन रस,
से ही नहीं सींचा था,
उस दिन तुमने।
इन छोटी-छोटी आँखों
में ताक कर इस
दुनिया का विस्तार
भी दिखाया था माँ...।

इन सब के बीच,
प्रसूति वेदना को,
कही दूर छिटककर।
तुम खुश थी न?
मुझे आकार देकर...।
पर
माँ उस उदासी को
कैसे समझाया होगा।
जिसने तेरे बचपने को,
तुझमें कही,
माँ बनते देखा होगा !!!

— सर्वेश त्रिपाठी
मोबाईल: 7376113903
ई-मेल: advsarveshtripathi@gmail.com

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नई क़लम: क़िस्सा — 'शहतूत' — रोहन सक्सेना की हिंदी कहानी




देहरादून के युवा लेखक इंजीनियर रोहन सक्सेना और उनकी छोटी हिंदी कहानी, क़िस्सा 'शहतूत' का शब्दांकन के स्तंभ नई क़लम  में स्वागत है. दुआ है कि रोहन की क़िस्सागोई ख़ूब फलेफूले. 

शहतूत

रोहन सक्सेना की हिंदी कहानी 

बात बहुत आसान है। आपकी और मेरी नींद में कई सारे ख़्वाब दफ़्न हैं। रात महज़ आकर उन ख़्वाबों के ऊपर से मिट्टी उठा देती है, बस। कोई ख़्वाब कैसा होगा, क्यों होगा, फिर होगा कि नहीं होगा, ये बात न रात तय करती है न हम। पर ये सवाल बहुत ज़रूरी है कि एक ख़्वाब आपको कब तक और किस हद तक जगा कर रख सकता है।

मुझे आजकल शहतूत दिखाई देता है। वो शहतूत, जो मेरे बगीचे के ठीक बीच में हुआ करता था। शायद मेरा सबसे पुराना दोस्त। उस शहतूत के नीचे मैंने नानी से हर वो कहानी सुनी जो शायद हर बच्चे को सुनाई जाती है। इंसानों की, रहनुमाओं की और ख़ुदाओं की। जब मुझे कोई कहानी सुनायी जाती थी तो मुझे लगता था कि एक शख़्स इतनी कहानियाँ और इतने किरदार कैसे याद रख सकता है। मैं सोचता था कि शायद शहतूत ही किसी तरह से छुपकर मेरी नानी को कहानी बता रहा है।

फ़िर धीरे-धीरे मुझे ये समझ आया कि उस पेड़ का हर शहतूत एक किरदार है और हर टहनी एक किस्सा। और वो पेड़ जड़ों पे नहीं कहानियों पे खड़ा है। उसे ये पता होता था की मुझे किस दिन कौनसी कहानी सुनायी जानी चाहिए। बहुत जानता था वो मुझे। पर वो मुझसे कभी कुछ नहीं कहता था। चुपचाप ऐसे ही खड़ा रहता था। या शायद कुछ कहता भी था तो मैं उसकी बात समझ नहीं पाता था।

एक दिन मैंने सोचा की क्यों ना इसके आस-पास की मिट्टी को हटाकर देख लिया जाए, कि अंदर और कितनी कहानियाँ रहती हैं। मैं तब तक खोदता रहा जब तक मुझे उसकी जड़ें नहीं मिल गयीं। अंदर देखा तो कुछ नहीं था। बस जड़ें थीं। कोई राजा नहीं, कोई फ़क़ीर नहीं कोई शहर नहीं। सिर्फ़ जड़ें।

तभी बगीचे में माली और मेरे नाना आ पहुँचे। मुझे मिट्टी में सना हुआ देखकर और बगीचे में फैलाये गए इंक़लाब से वो काफ़ी नाराज़ हुए। फ़िर मुझे समझाया कि जड़ों से पत्तियों तक खाना और पानी पहुँचता है। अगर मैंने गलती से भी जड़ को नुकसान पहुँचा दिया तो सारा पेड़ भूख और प्यास से सूख के मर जाएगा।

शायद उनके कहने का मतलब ये था की अगर मैंने किसी भी कहानी को कहीं से काट दिया तो उस कहानी के किरदार भूख-और प्यास से तड़पकर दम तोड़ देंगे।

इसी बीच माली नाना को बुलाकर कुछ कहने लगा। मैं बहुत छोटा था तो उनकी बातें मुझे समझ नहीं आयी, पर नाना को आ गयीं। माली की बातें सुनकर वो काफ़ी परेशान हो गए।

अगली सुबह मैं जब स्कूल से लौटा, तो देखा की बगीचे में दो-तीन अनजान लोग कुल्हाड़ी लिए शहतूत को काट रहे थे। बिना रुके और बेरहमी से। जैसे वो पेड़ महज़ किसी लकड़ी का कोई बेजान टुकड़ा हो।

मैं दौड़कर नानी के पास गया और उनसे पूछा, " वो लोग शहतूत क्यों काट रहे हैं?"

नानी ने कहा, " बच्चे, उसकी जड़ों में दीमक लग गयी है, वो कभी भी गिर सकता है।"

मैंने पूछा, "दीमक क्या होती है? वो जड़ों में क्या करती है?"

नानी ने बताया, " दीमक अपना पेट भरने के लिए जड़ों को खाती है, और उसे धीरे-धीरे खोखला बना देती है।"

मुझे उनकी बात बहुत समझ तो नहीं आयी। मैं फ़िरसे दौड़कर बगीचे में गया तो देखा कि मेरा सबसे पुराना दोस्त ज़मीन पर गिर चुका था। उसके कुछ किस्से और किरदार आसपास बिखरे हुए थे। मैं उस वक़्त भी ये नहीं समझ पाया की वो मुझसे क्या कहना चाह रहा है। उसी शाम उसे जला दिया गया। उसका धुआँ हमारे घर में भर गया मानो ख़ुद वो शहतूत भी मेरा बगीचा छोड़कर नहीं जाना चाहता था।

अगली शाम मुझे फ़िर एक नई कहानी सुनायी गयी। वैसी ही, जैसी बाकी कहानियाँ होती थीं। शायद अब नानी किताबों से कहानियाँ याद किया करती थीं, क्योंकि कोई एक शख़्स इतनी कहानियाँ और इतने किरदार तो याद नहीं रख सकता और अब शहतूत भी नहीं था वहाँ।

मुझे कभी कभी लगता है कि मैं वो शहतूत हूँ, और वक़्त दीमक, जो धीरे-धीरे अपना पेट भरने के लिए मेरी कहानियाँ खा रहा है।

रोहन सक्सेना,
बी टेक, देहरादून
मोबाईल: 9413734736
ईमेल: rohansaxena202@gmail.com
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Hindi Story: शर्मिला बोहरा जालान की कहानी — 'माँ, मार्च और मृत्यु'


शर्मिला बोहरा जालान चित्रकार कहानीकार हैं। उनकी कहानियों का चित्रकार बड़ा है और उसका कैनवास भी। शर्मिला की कहानियाँ सम्हल-सम्हलकर, कलम से कसे गए पेंचों को खोलते हुए पढ़ना आनंद देता है। वाह! पढ़िए कहानी ‘माँ, मार्च और मृत्यु’ ... भरत एस तिवारी/ शब्दांकन संपादक

Hindi Story


माँ, मार्च और मृत्यु

— शर्मिला बोहरा जालान की कहानी

आज उन्नतीस फ़रवरी है। मृणाल बाबू आज साठ के हो गए। हलके भूरे रंग का पैंट-शर्ट पहने आँखों पर चश्मा लगाए अपनी गाड़ी में बालीगंज से शाम को निकले और ड्राइवर तपन से कहा–
“कहीं और जाने का मन नहीं है इसी इलाके में धीरे-धीरे दो-तीन चक्कर लगाना। ”

आगे बढ़ते हुए मृणाल बाबू ने रिची मोड़ पर वह छोटा हनुमान मंदिर फिर से देखा जिसकी दूसरी तरफ शनि मंदिर है और मंदिर के पीछे एक छोटी पारंपरिक डेयरी। बालीगंज फाड़ी की तरफ जाते हुए हाजरा रोड के दोनों तरफ की दुकानों पर नजर डालते हुए एक युवा लड़की पर नजर गयी जो एक बहुमंजिला इमारत से निकल ट्रैक-सूट पहने हाथ में बैडमिंटन लिए सड़क पार करने खड़ी थी। उसके चेहरे पर हवा से उड़ कर बाल आ रहे थे जिन्हें वह बार-बार हटा रही थी। बालों के पीछे छुपा उसका चेहरा नन्हें परिंदे की तरह उड़ान भरने को उत्सुक था। आगे एक के बाद एक पुराने सामान की दुकानें थी। मरम्मत करने के लिए रखी फ़्रिज, आलमारियां, काठ के फ़र्निचर वगैरह। आगे एक-दो कसाई खाने। छोटी-मोटी स्टेशनरी की दुकानें, चनाचूर, समोसा मिठाई की छोटी दुकानें। हाजरा रोड के दोनों तरफ खड़ी इन दुकानों के बीच नौकरानियों, ड्राइवरों, धोबी के भी छोटे कमरे दिखाई पड़ते। ये लोग शाम को घरों से निकल बाहर बैठते। 

तपन ने गाड़ी बालीगंज फाड़ी से हाजरा की तरफ घूमा ली। गरचा, पांडित्य, लाल बगान पार कर देशबंधू मिठाई की दुकान के सामने गोलगप्पे वाले को देखा। वर्षों से एक गोलगप्पे वाला वहां खड़ा ही रहता है। वहीं कुछ सालों से एक आधा-अधूरा स्कूल खड़ा है। इंटरनेशनल स्कूल। 

मोतीलाल नेहरू रोड, पांडित्य में उनके कई परिचित नए बहुमंजिला मकानों में फ्लैट खरीद कर बस गए। दक्षिण कलकता छोड़ कर सालों से इस इलाके में कई परिवार आ गए और आते जा रहे। रिची रोड में कई पुराने वकीलों की बड़ी बाड़ी हैं। 

मृणाल बाबू लोहे के व्यापारी हैं। रियल स्टेट का भी काम करते। गाड़ियों का खूब शौक है। अक्सर गाड़ी बदलते रहते। 

ग्रिग्रेरियन कैलेंडर में उनका जन्म दिन चार साल में एक बार आता है। आज अपने जन्मदिन पर उनका मन पीछे की तरफ भाग रहा। तीस साल पहले इस इलाके में कौन-कौन सी दुकाने थीं, कैसी बसावट उन्हें सब याद आ रहा। आज वह अपने मित्रों के साथ कैनिलवर्थ में शराब न पी अपने इलाके में ही घूमना, चक्कर लगाना चाह रहे। 
अपने इलाके के बारे में सोचते हुए उन्होंने दायें कान में हवा का झोंका महसूस किया। गाड़ी की खिड़की का कांच खुला हुआ था। दायीं तरफ से हवा आ रही तो बायीं तरफ संगीत चल रहा। कोई पुराना गाना। मीना कुमारी और गुरुदत्त का जिसके बोल थे-
“यही है वो साँझ और सबेरा ...”

गाने से उन्हें माँ और बाबा की खूब याद आई। माँ को याद करते हुए वह विचलित हो गए। उन दिनों वे उत्तर कोलकाता में बड़तल्ला में रहते। माँ बताती कि वह सावित्री पाठशाला में कक्षा पांच तक पढ़ीं फिर आगे की  पढ़ाई राम मंदिर स्कूल से की। पढ़ी-लिखी सुतंवा नाक वाली माँ का ब्याह जब बाबा से हुआ पूरे परिवार में ऐसा सुन्दर जोड़ा किसी ने नहीं देखा। बाबा लम्बे, गौरवर्ण और चेहरे पर क्या तेज। बाबा की चाय पत्ती की छोटी दुकान थी साथ ही शेयर की खरीद बेच का काम भी करते। 

 बाबा की याद आते ही कोई चीख सुनाई दी। माँ की चीख। बुआ की चीख। बाबा की लाश। मृणाल बाबू वह सब याद कर व्याकुल हो गए। बाबा दस वर्ष की शादीशुदा जिन्दगी जी कर चले गए। क्या हुआ और कैसे यह सब जानना अँधेरे गलियारों से गुजरना है। माँ अट्ठाईस साल की थीं। दूसरा विवाह कहाँ किया माँ ने। माँ सालों उनके मरने का कारण खोजती रहीं। मृणाल बाबू के अंदर बवंडर उठा। ऐसा तूफान कि उखाड़ दे। माँ ने एक दिन मरने के पहले बताया कि उन्होंने आत्महत्या की। माँ के भीतर वर्षों का विषाद जमा था। वह कहीं दूसरे ग्रह की तरफ देखते हुए बोलीं–
‘बाबा के बारहवें के दिन मालूम नहीं कोई शम्पा बनर्जी बागबाजार से आयीं और बोलीं कि वह तेरे बाबा से ही चायपत्ती खरीदती थीं। उनका मन अस्थिर था। ज्यादा कुछ बोली नहीं बस टुकुर-टुकुर मुझे देखती रहीं और चली गयीं। मुझे आज तक यह पता नहीं चला कि वह उस दिन रोने क्यों लगीं! वैसी सुंदर औरत मैने कम ही देखी।’

ऐसा कहते हुए माँ के आधे चेहरे पर पीली रौशनी पड़ रही थी और आधा चेहरा अँधेरे में था। 

बाबा के नहीं रहने पर माँ ने मृणाल बाबू को अकेले  पढ़ाया उनके लिए जीवन जीती रही। 

उन्होंने महसूस किया कि हवा बहुत जोर से चल रही है। वह इस हवा में कथा लिखना चाहते हैं। वह कहानी जो हुई थी। हवा के सहारे वे आसमान के अंदर जाना चाहते। चिलकती चमकती कहानी के वरक हटाना चाहते। कोलकाता शहर के पार्क स्ट्रीट के मकबरों की चादर हटा वहां उसके अंदर सोई कोई कहानी  पढ़ना चाहते हैं। सुना है आकाश में कोई गंगा बहा करती थी, देखा नहीं पर वह आकाश गंगा उनके मन में फैल रही है। 

ऐना, एक क्रिश्चन लड़की। उसकी आँखें सलोने हिरन के छौने सी। इस कहानी का वह चरित्र जो हवा के साथ ही आया और चला गया। वे कहानी में कहानी देख रहे। उनके जीवन की कुछ-कुछ घटनाएँ उन्हें कभी-कभी घेर लेतीं और वह उसके साथ बहते चले जाते। 

वह यह सब सोचने लगे तभी उनका ड्राइवर तपन लगातार बोलने लगा। वह बातूनी है। गाड़ी के सिग्नल पर रुकते ही कलकते की उस दिन की जरूरी खबरें तफसील से सुनाने लगा। बोला-
“बाबू आज बंद होने से बहुत लोग काम पर नहीं आये। सभी टैक्सी ड्राइवर गाड़ी बंद कर बैठे हुए हैं। यादवपुर इलाका पूरा लाल है। वहां जुलुस निकल रहे।”

उन्हें याद आया दो दिन से स्ट्राइक है। कई लोग काम पर नहीं गये। कलकता हड़तालों का भी शहर है। 

उन के चेहरे पर पुराने दिनों की छाया उतर आई। उन्हें लगा कि वे बड़तल्ला की गलियों में चल रहे हैं। उनका घर उस मकान में था जहाँ राधा-कृष्ण की मूर्तियों की पोशाकों की दुकान थी। अँधेरी सीढियाँ चढ़ कर छोटे कमरे में जाते तो वहां रुक्मणी बुआ बैठी दिखाई देती। यह कहानी हवा पर लिखी कहानी नहीं है। बड़तल्ला गली में सुनाई पड़नेवाली कहानी भी नहीं है। यह सिर्फ उस कमरे में घटी कहानी है। एक असंभव जीवन का नक्शा। रुक्मणी बुआ असम्भव सुन्दर। धूप और झाग सा पवित्र चेहरा तब बदल जाता जब वह जोर-जोर से चिल्लाती। उम्र बढ़ती जा रही थी और मन बच्चा ही बना रहा। 

बुआ ने हवा में कथा लिखनी चाही। खुले आकाश में दिखाई न पड़ने वाली बारिश की बूंदों को पकड़ना चाहा। बुआ को याद करते हुए आज मृणाल बाबू जिन्दगी के किसी और सिरे पर आ गए। 

हवा और तेज चल रही और उसमे ठंडक भी है। उनकी नाक ठंडी हो रही। कान के लवें लाल हो रही। हड्डी के कोटर में, बालों के छिद्रों में हवा भर रही। यह हवा उन सभी की कथा से भारी हवा है बुआ की कथा, बाबा की कथा। क्षणभंगुर कथा। छोटे-छोटे ताल-पोखर में फेंके गए पत्थर की आवाज सी जो विलीन हो जाती। 

बुआ का रोना चिल्लाना।  पढ़ाई न कर पाना। कक्षा चार के बाद घर में ही रहना। घरेलू काम न करना। कलपना। प्रतीक्षा करना। एक असंभव कहानी को हवा में लिखने की कोशिश। माँ के साथ बांसतल्ला की दुकान पर जाना और जाना राम मंदिर। वहां माँ का फल खरीदना और बुआ का चुपचाप खड़े रहना। फलवाले को देखते जाना। घर आकर बुआ हंसती जाती। जब वह हंसती उनकी नाक हंसती थी। आँखें छोटी हो जाती थीं। मन की निर्मलता चेहरे पर चिलकती। वह घर में हकला कर बोलतीं, रुक-रुक कर। कुछ दिनों से साफ-साफ शब्द निकलने लगे थे। एक बार वे भी बुआ के साथ फल लेने गए। न्यू मार्केट में उस फल वाले की बड़ी दुकान थी। साफ रंग था फारूक भाई का। चेहरा खुले आसमान सा खुला। वह बुआ को बोलने देता। फलों के नाम पूछता उनके सामने बुआ लगातार बोलती जाती। बोलते-बोलते उनकी जुबान खुल जाती और साफ-साफ बोलने लगती। उन को आश्चर्य होता कि बुआ को घर में क्या हो जाता है। उन्हें लगता फारूक भाई के सामने वह बहती नदी है। अनंत संभावनाओं से भरी। घर संभावनाहीन था। माँ को बुआ को मनोचिकित्सक के पास ले जाना पड़ता। उन दिनों उनकी अनर्गल बातें, कल्पनाएँ, चाहनायें माँ समझ नहीं पाई। बुआ सिजोफ्रेनिक थी। 

मृणाल बाबू सोच रहे कुछ भी नहीं बीतता। वह कहीं डूबे हुए हैं पर तपन की आवाज से लौट आये। तपन चुपचाप गाड़ी नहीं चला सकता। बोलता है बाबू-
“मैने तो नक्सल आन्दोलन देखा है। ट्रामें जलाई गई थीं। जुलुस निकलते थे। कैसा समय था। ”- ऐसा कहते हुए तपन के चेहरे पर अँधेरा छा गया। 
“बाबू यह सब तो एक तरफ चल ही रहा था साथ ही हमारा दो पैसा कमाने का संघर्ष भी। ऐसा कौन सा काम है जो मैने नहीं किया। दस वर्ष की उम्र से लेकर आज उनसठ साल की उम्र तक दो पैसे जोड़ने के लिए तरह–तरह के काम करता रहा। सिंगूर में मेरे दादा रहा करते। हम चक्रवर्ती हैं। दादा पूजा-पाठ का धार्मिक काम करते। ना जाने मन्त्र-पूजा-कर्म में क्या हुआ कि दादू एक दिन घर छोड़ कर चले गए तो आये ही नहीं। मेरे बाबा ने छोटी नौकरी की। मैने ज्यादा  पढ़ाई नहीं की सो एक नेलपॉलिश बनाने के कारखाने में काम करना शुरू किया। फिर कलम बनाने के कारखाने में और उसके बाद कुदाल बनाने के कारखाने में। काम पर काम बदलता रहा। स्टेशन पर रसगुल्ला बेचा। ऑटो चलाया। हर वह काम किया जो कर सकता था।”

यह सब कहते-कहते तपन की आँखे कुछ ढूढती दिखाई पड़ी। वह अपनी कहानी में पिछले कुछ सालों की कहानी देख रहा। वह कहानी जो उससे दूर चली गई। अल्पा से उसने प्रेम विवाह किया पर अल्पा को न जाने क्या हुआ वह चली गयी। जो जलतरंग जीवन में आई वह झूठ नहीं। लेकिन मौसम बदल गया। अल्पा दस साल बाद दस साल छोटे युवक के साथ किवाड़ खोल निकल गई। तपन अचानक जोर -जोर से बोलने लगा –
“बाबू मैने जो देखा और जिया है उससे कई कहानियां और उपन्यास तैयार हो सकते। आप तो कई लेखक को जानते हैं। मेरी भी कहानी लिखवाना। अल्पा आलता लगाती। लाल पाड़ की साड़ी पहनती। उन दिनों जब मै उसे नहीं जानता था मेरी दीदी के पास उसकी दीदी आती। पच्चीस मार्च का दिन था वह बुखार में तप रही थी। मै उसे दावा खाने ले गया और डाक्टर को दिखाया।”

तपन आँखे पोछने लगा। उस क्षण लगा उसके वाक्य में कोई मात्रा गड़बड़ा गई है। अल्पा के साथ क्या हुआ! क्यों चली गयी ! वह तपन की बात बदलते हुए बोले –
“यह तो बताओ कि तुम्हें क्या लगता है हड़ताल का असर किस पर ज्यादा हुआ।”

वह बोला-
“कुछ होता हवाता नहीं इस सब से।”

चौराहे पर गाड़ी रुकी। सामने से माधो धोबी आता दिखाई दिया। वह बालीगंज धोबी घाट में रहता और उस इलाके के कई घरों के कपड़े धोता। 
फ़रवरी की शाम का कोलकाता। लौटती सर्दियों के दिन। यह मौसम पीछे ले जाता। तपन के ऊपर भी शायद बदलते मौसम का असर है। वह भी न जाने किन अँधेरी गलियों में भटक रहा। 

सिग्नल खुलने से हार्न बजने लगे। मृणाल बाबू के कानों में तपन की आवाज गूँज रही। सुबह से शाम तक दो पैसे के लिए एक मोड़ से दूसरे तक दौड़ लगाता उसका ऑटो। कुछ ढूँढती हुई उसकी आँखें। अल्पा का कुछ दिनों का साथ। रुक्मणी बुआ का पूरे घर में घूमना, देहरी पर बैठ अस्त होते सूरज को देखना और फारूक भाई को आवाज देना। महालय के दिन बुआ ने अपनी देह का त्याग कर दिया। दूर पोखर में कोई पत्थर गिरा। निःशब्द। बाबा क्या उन बंगाली महिला को मन में बसाये अनंत की और चल पड़े। माँ ने उन दिनों साँझ बत्ती करते हुए कुछ नहीं बताया। माँ क्या कुछ बता पाती! माँ को ही कितना पता था। वे गाड़ी के कांच से बाहर आकाश देखते हैं। सोचते हैं- क्या माघ पूर्णिमा आनेवाली है? रात आकाश में कुछ चमकेगा। बुआ बाबा एक दूसरे से बात करने निकलेंगे। बाबा ऊपर से नीचे हम सब को देखेंगे। उनके सामने ऐना, फारूक भाई, अल्पा, शम्पा बनर्जी सब गडमड हो जाते हैं। 

तपन फिर से बंद की बात करने लगा। वे उसकी बात सुन सोचते कि कैसे हजार रूपये कमाने के लिए ये लोग जी तोड़ मेहनत करते। 

हड़ताल से होनेवाली परेशानी वह नुकीली चीज है जिससे पूरा दिन चुभता रहता। 

मृणाल बाबू ने अपना संसार खड़ा किया। सम्पन्नता, पत्नी, विदेश बसा बेटा और बहू। कोलकाता शहर में मिली प्रतिष्ठा अपना हस्ताक्षर। तपन कहता –
“बाबू आपके पास सब कुछ है।”

आपके पास सब कुछ है यह सुन उनका का मन भटकने लगा। कभी लगा वह किसी अरण्य में हैं तो कभी लगा गंगा में, जहाँ वे आधे डूबे हुए और आधे ऊपर हैं। 

कभी लगा वह इस समय पूरी तरह से तपन के साथ हो रहे संवाद में हैं तो वे उस हवा में भी हैं जहाँ वे लिख रहे हैं एक कहानी। यह कहानी हवा में लिखी कहानी है जो आई तो सराबोर कर गयी और चली गयी तो वे उद्विग्न हो गए। 

उन्होंने मुहं उठा कर देखा लगा कहीं तोता उड़ा है। दूर कहीं शव जलने की गंध आई। रात के हाट-मेले सब उठ रहे। 

वे घर लौट आये। फरवरी महीने की रात उन्हें रहस्मय लगी। पूर्णिमा की तरफ जाता चाँद सम्मोहित कर रहा था। पूरी रात चाँद तारों आकाश को देखते हुए निकल गयी। 

अगले दिन सुबह के आलोक में चीजें साफ और सीधी दिखाई देने लगीं। वे सब चीजें जो रात में जादुई और मायावी लग रही थीं। 

दूसरे दिन वह अपने दफ्तर में बैठे अपने पंखों को समेटे किसी फ़ाइल पर झुके हुए हैं। सुबह की धूप में वे सिनेमा के नायक लग रहे। गौर वर्ण, लम्बे। सामने टेबल पर दो दिन की धूल और बासीपन को हटाने के लिए जग्गू कपड़ा मार रहा। वे तफसील से उससे दो दिन के बंद की बात पूछ रहे। जग्गू कहता –
“बाबू दो दिन अपने घर दक्षिणेश्वर चला गया था। वहां हमारा छोटा स्कूल हैं न, वह मेरा छोटा भाई चलाता। वह देखने और माँ काली के दर्शन करने। आपके लिए प्रसाद लाया हूँ। ”-हाथ में प्रसाद देते हुए; –
“आपसे एक बात पूछनी है। आपके बाथरूम का पानी निकल रहा है उसका क्या किया जाये। प्लम्बर तो बीमार है।”

 मृणाल बाबू बोले- 
“तपन को बोलो किसी को बुलाएगा।”

उनके कई फोन आने लगे। सक्सेना साहब एक होटल खोल रहे हैं। बहुत बड़ी रकम उधार ली उसी सिलसिले में बात कर रहे। वे रोज के जीवन में लौटने की कोशिश कर रहे। जिस तरह यात्रियों के उतर जाने के बाद खाली नौका कुछ देर तक तट के पानी में हिलती-डुलती रहती उसी तरह कल की बातें मन पर छायी हुई। सुबह के जरूरी काम सलटा कर वह अपनी कॉपी में तपन, माँ बाबा बुआ की बात लिखने लगें। लिखने से कहानी मन में कुनमुनाती नहीं रहेगी। लिख-लिख कर ही उन्होंने अपने अंदर की नदी को अनहद बहने दिया है। अंदर गिरह न बने। 

तपन अपनी कहानी में अपने दुःख के साथ उपस्थित है। अपनी विडम्बना और अपनी कलह के साथ। तपन ने बताया-
 “अल्पा किफ़ायत से घर चलाती। ढिबरी जलाती, एक-एक पैसे जोडती। दो तीन तरह की खिचड़ी बनाती। चुप रहती। मुझसे कम बात करने लगी थी। जिस व्यक्ति के साथ घर छोड़ कर गयी वह हमारे मोहल्ले का ही चित्रकार। एक दिन अल्पा को जब उसके साथ बात करते हुए देखा। साधारण बात को खुलते भीगते देखा। बात को साँस लेते देखा। बात को हंसते देखा, अंदर से फूटते देखा। आवाज को बढ़ते असीम होते सुना। अल्पा को अल्पा में नया होते गालों को सुरमई होते देखा। मेरे सामने जब वह ढिबरी लेकर आती टूटी ध्वस्त रहती। मै रोज पैसों का हिसाब गिनता। अपनी थकान बताता। काम रोजगार की आदिम व्यथा। दिनभर के भागदौड़ की कहानी। वह दूर होती जा रही थी। देशों में बढती है जैसे दूरियां। फंदा पड़ रहा और मै उलझ रहा। अल्पा अमृत चाह रही थी और मेरे आसपास उन दिनों विष ही विष था। मेरे दादू घर छोड़ कर चले गए। हमारा छोटा राधा कृष्ण का मन्दिर बिक गया। बाबा बीमार रहे। ऐसे दिन भी देखें हैं जब कलम में रोशनाई भी नहीं रहती। घर का काठ का दरवाजा चरमरा रहा यह चिंता सताती। स्याहि खरीदनी है, बढई को बुलाना है, हांड़ी में अनाज रहे, कभी जीवन में अपना पक्का मकान बनाना है यह बडबडाते हुए सो जाता। गुड का दही वह खूब अच्छा जमाती। गुड की मिठाई भी खूब बनाती। पर गुड़ और दूध घर में ला सकूं उन दिनों हर रात नींद में यही सोचते हुए आँख लगती। मै तीस साल का था और वह बीस साल की। खोपा बनाती और आलता लगाती। एक दिन ताख पर रखा आइना टूट गया तो नया लेने मुझसे कहा। अब वह आइना मुझसे दस साल छोटे तरुण के घर में रखा हुआ है।”

तपन आँखें पोछने लगा, बोला –
“बाबू जीवन एक डरावना जादू है।”

वह बोले –
“डरावना का उल्टा क्या होता है? सुंदर जादू भी कह सकते।”

तपन फिर बोला–
“मैने यह सोचकर धीरज धर लिया कि अल्पा के दूध के दांत नहीं टूटे। बच्चे की अंजुलियों से जीवन को चख रही। उसका जाना ही लिखा था।”

तपन वर्षों से काम बदल रहा। काम बदलते-बदलते एक दिन ऐसा भी आया कि उसने मृणाल बाबू का ड्राइवर बनना ही तय कर लिया। मृणाल बाबू के साथ बात करते-करते कभी-कभी उसकी आँखों की पुतलियों के नीचे छुपा अँधेरा बहने लगता। 

उनके अक्षर पन्ने पर चलते जा रहे। पांच साल पहले माँ को मुखाग्नि दी। बनारस के जिस घाट पर माँ का अंतिम शव रखा था वहां श्मशान घाट पर अघोरी प्रेमी को देखा। 

प्रेम क्या होता है?

क्या होती है मृत्यु!

क्या प्रेम कभी मरता है?

प्रेम चिता में जलाया जा सकता ?

प्रेम आता है तो जीवन हरा हो जाता और जब चला जाता तो जीवन उजाड़ नजर आता। 

माँ ने अपनी दोनों भौहों के बीच सब कुछ समेट कर रखा। माथे की शिकन और तनाव को साड़ी के उघड़े फौल को सिलते हुए बराबर करती रही। सलवटें निकलती रही। पेड़ पर से एक–एक पत्ता गिर रहा। मौसम बदल रहा था। माँ का जीवन भी बदल रहा था। माँ कभी भी पिघल कर नहीं बही। दीवार से सटकर बैठती। मजबूत। माँ की आँखों में न जाने क्या-क्या था। सदियों की विडंबना जो करुणा बन रोशनी सी छाई रहती। माँ उदास थी पर दिखती नहीं। बाबा और बुआ की असमय हुई मौत ने माँ को अंदर की तरफ मोड़ दिया था। माँ भूल से भी कभी कुछ नहीं भूलती थी। विधवा जीवन जिया। माँ ने सभी रिश्तेदारों से कह दिया कि उनके दूसरे ब्याह की बात न करें। वे साल माँ के लिए बहुत कठिन रहे। माँ चट्टान थी। सख्त तन और सख्त मन। मजबूती से जमीं पर पाँव रखती हुई। गड़ती हुई कील उखाड़ कर फेंकती हुई। संभल-संभल कर चलती हुई। माँ चट्टान ही बनी रही। मृणाल बाबू को संभालती। जीवन में जो राजनीति है उसको पढ़ती। हर चीज पर सोचती। बाबा ने आत्महत्या क्यों की? क्यों वे बागबाजार जाते? इतना अकेलापन बाबा को कैसे लगा !

बुआ को क्या हुआ था! परिवार मे बाबा को मिली उपेक्षा के बारे में दादी से पूछती। माँ हर चीज के पीछे की रेखाओं को पढ़ती। उसकी तह में जाती। माँ जैसी थी वैसी न होती तो वह नहीं होते। मृणाल बाबू जो की पांचवी पीढ़ी के थे उन्हें राजस्थान में बसे उनके पुरखों की कहानी सुनाती। माँ पुरखों को याद करती। उनका श्राद्ध करती। उनकी गलतियों से सिखती। माँ के जीवन का अर्क निकला जाये तो माँ सारथी की भूमिका निभा रहे कृष्ण की हर बात सुननेवाले अर्जुन की बात को दोहराती हुई माँ थी। अर्जुन कहते हैं–
मेरा मोह नष्ट हुआ। मेरी स्मृति मुझे मिल गयी। 
माँ मोह से मुक्ति की बात कहती। हजार सूरज एक साथ प्रकट हो जाएँ ऐसी चकाचौंध के साथ कृष्ण ने अर्जुन को यह कहा–
कर्म ही सत्य है और सब कुछ छल। 
माँ कर्म थी। जीवन में रची-बसी। घट-घट में व्याप्त। मृणाल बाबू ने एक दिन माँ को पूछा था बाबा के बिना कैसे रह पाई। माँ चुप ही रही। माँ ने कभी किसी की शिकायत नहीं की। माँ को बाबा के जाने के बाद यह समझ में आ गया था कि अब उसके दूसरे तरह के दिन शुरू हो गए हैं। बचपन तो मायके में छूट गया युवावस्था के राग रंग उल्लास भी गए। बाबा के जाते ही वह पहली और आखरी गैर जिम्मेवारी का दिन भी ख़तम हो गया। वह गीता पढ़ती और अपने जीवन में गीता उतारते हुए कर्म करती रही। उसके सारे सम्बन्ध सारी सुरक्षा और प्रतिष्ठा सब कुछ धार्मिक किताब पर टिका रहा। रोजमर्रा की हाड़तोड़ मेहनत उसे सारे भटकाव से बचाए रही। माँ की रसोई गेहूं की रोटी और ताजा सब्जी की छौंक से गमकती रहती। माँ संस्कृत के श्लोक दोहराती निर्जला एकादशी कराती। 

मृणाल बाबू की कहानी ऐना की कहानी नहीं है। दिखी तो थी ऐना एक दिन सैटरडे क्लब में मिस्टर साईद के साथ। वह ऐना कोई और थी जिसके साथ पार्क स्ट्रीट पर चलते हुए वे हँसे थे। यह दूसरी ऐना थी पहले में से निकली हुई। राख से उठती एक नयी ऐना। दूसरा जन्म। पहले की चिता पर खड़ा। 

मृणाल बाबू के बेटे अंकित का फोन आया है। यह पूछने कि अपने जन्मदिन पर मृणाल बाबू ने क्या किया। सालों से लंदन में है। उसकी पत्नी और वह दोनों एम बी कर बड़ी नौकरी कर रहे। इस साल विदेश में उसने अपना एक घर भी ख़रीदा है। मृणाल बाबू अंकित से अपने पोते देव के बारे में दो-चार बात कर फिर से वही सब लिखने लगे। अपने लिखे को पढ़ा, पाया गलतियाँ ही गलतियाँ हैं लिखे में। वह लिखे को काट-कूट रहे। अर्थ का अनर्थ करनेवाली भूलें। एकदम उलटी भी हो सकती है बाबा, बुआ, ऐना, शम्पा बनर्जी और माँ की कहानी। 

ब्रह्ममुहूर्त के समय जब आँख खुलती है योग और अध्यात्म के आलोक में चीजे अपना रूप बदलने लगती। माँ बाबा की मौत के बाद मानसिक दुश्चिंता के लम्बे दौर से निकल मृणाल बाबू के कॉलेज के सेक्रेटरी के लिए हाथ से बना लड्डू भेज रही। मृणाल बाबू का दाखिला बड़े प्रतिष्ठित कान्वेंट कॉलेज में हो गया। क्रिकेट खेलने का खूब मन रहता उन का। क्रिकेट क्लब के कोच से अंतिम बार माँ को बात करते देखा। माँ के मन मे कोई भटकाव नहीं। मणि को जीवन में मान-प्रतिष्टा शिक्षा सब मिले यही माँ चाहती। माँ कॉलेज के फादर के लिए निरंजन बाबू के साथ घर का बनाया नाश्ता भेजती। 

बुआ का हकलाना लाइलाज नहीं था। वह उन्हें स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले जाने लगी थी। एक दिन बुआ गायब हो गयी। अड़ोस-पड़ोस वालों को धीरे-धीरे पता चल गया। निरंजन बाबू न होते तो माँ बुआ को खोज वापस नहीं ला पाती। वह उस फलवाले के साथ दो दिन रहीं। फल पट्टी में बात फैल गयी। पुलिस पूछताछ करने चक्कर लगाने लगी। किसी तरह निरंजन बाबू ने मामला दबाया। घर लौटने के बाद बुआ ने खाना पीना छोड़ दिया। रोज की कलह। महालय के दिन आत्महत्या कर ली। 

मृणाल बाबू इतने सख्त और कन्फेशनल नहीं हो पाते। वह कभी किसी के घट में पैठते हैं कभी किसी के। उनकी पीठ अकड़ गयी है। पांव ऐसे जम गए जैसे बर्फ। वह यात्रा में है पर यात्रा में रहना नहीं चाहते। उनकी लय खो गयी है। वह कई-कई जीवन में गड्मड हो गए हैं। वह घोर दुःख शोक और भय में हैं। वह अपनी चेतना चाहते हैं। वह सो नहीं पा रहे। वह देख रहे हैं माँ को। रौनक को ढक लेते अंधकार को। यह जीवन का कैसा विन्यास है? रस्सा-कशी, उलट फेर, ऊहपोह। 

मृणाल बाबू किसी के बेटे, किसी के पिता, पति, मित्र और पडोसी हैं। उनके लिखे में वह जगह आ रही जहाँ रीढ़ में झुरझुरी दौड़ रही है। वह छटपटा रहें हैं। 

वह अपने लिखे के गिरफ्त में हैं। युवा दिनों का अँधेरा। बाबा की मृत्यु के बाद परिवारवालों ने माँ को समझा बुझा कर उनका ब्याह दक्षिण कोलकता के एक पैसेवाले दुजवर से कर दिया। माँ साल भर वहां रह कर लौट आई। वह व्यक्ति मानसिक रोगी था। माँ के बिना मृणाल बाबू जिद्दी और अड़ियल हो गए। आठवें दर्जे की पढ़ाई करते हुए फेल हो गए। माँ जीवन सँभालने की फिर से कोशिश कर रही। इस बार माँ पहले वाली माँ नहीं रही वह बदल गयी। घर आये बाबा के सामने जन्मकुंडली खोल कर बैठी। संन्यासी पर माँ को अगाध विश्वास था। बाबा ने कहा –
“तुम्हारा बेटा बहुत धन कमाएगा। ”

विधवा माँ ने फुसफुसा कर कहा –
“पर बाबा, इसकी संगति ख़राब हो गयी है। सब के सामने मेरी आँखें झुकी रहती। छज्जे में खड़ी नहीं हो सकती। ”

बाबा चुप थे और चुपचाप चले गए। माँ ने अघोड़ी बाबा पर विश्वास किया। मृणाल बाबू पास होते रहे। आगे बढ़ते रहे। 

रिची रोड पार कर हाजरा रोड पर जिस लड़की को देखा उसका चेहरा निरंजन बाबू से मिलता लगा। बांसतल्ला में निरंजन बाबू की छोटी-सी दुकान है। आजकल उनका बड़ा बेटा उनका सराफा का काम संभालता है। माँ अपने गहने उनके पास ही गिरवी रखा करती। उनकी पहचान बड़े लोगो से रही। 

मृणाल बाबू ने लिखना बंद कर दिया। मार्च का महीना है। फागुन के दिन। वह सारी बातों को बिसरा कर फागुन महीने के कलकत्ते को देखने लगें। कितनी यादें लेकर आते ये दिन। 
कॉलेज में पढ़ते हुए सदर स्ट्रीट से आने वाली ऐना से कलम बदल लिया करते। ऐना को उनकी कलम बहुत अच्छी लगती थी। वह कहती-
“मृणाल तुम्हारी कलम से लिख कर में परीक्षा में पास हो जाती हूँ।”

ऐना बड़तल्ला जैसे सघन इलाके से मृणाल बाबू के मन के अंदर के इलाके को जोड़ नहीं पाई। मंदिर, ट्राम लाइन, शोभा बाजार का शोर। वह पार्क स्ट्रीट के एक ऑफिस में रिसेपप्शनिस्ट थी। पार्क स्ट्रीट की सिमेट्री की उदासी उसके चेहरे पर छाई रहती। मृणाल बाबू के घर व किचन का जीवन उस इलाके के बाजार उसे पसंद नहीं आये। सब कुछ ढह गया। ऐना और मृणाल बाबू की हंसी जो एक साथ पार्क स्ट्रीट पर सुनाई पड़ी थी वह इतिहास बन गयी। 

मृणाल बाबू ने अपनी आँखे बंद कर ली मौसम का असर न जाने क्या- क्या गठरी खोलने वाला है। वह अब सोना चाहते हैं। उनतीस फ़रवरी बीत गयी और गुजर गया एक मार्च भी। 

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Book Review: राकेश तिवारी का उपन्यास 'फसक'


वरिष्ठ आलोचक रवीन्द्र त्रिपाठी

पुस्तक समीक्षा: राकेश तिवारी का उपन्यास 'फसक'


Fasak - Novel by Rakesh Tiwari
राकेश तिवारी का उपन्यास 'फसक '. वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव 10 जून, शाम 6 बजे, कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' - प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Wednesday, 10 June 2020


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वेनिस की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 33 | Vinod Bhardwaj on Venice



आज के इस संस्मरण के साथ विनोद जी ने कहा है कि यह अंतिम कड़ी है। मैं संस्मरण का घोर प्रेमी हूँ, मानता हूँ कि संस्मरण हमें वह बातें समझाते हैं जो साहित्य की किसी अन्य विधा के बस में नहीं है। विनोद जी को और साथ में ख़ुद को कुछ वक़्त का आराम देने की भले सोच सकता हूँ लेकिन अंतिम कड़ी कहे जाने की कड़ी निंदा करते हुए अस्वीकार करता हूँ। और अब तक की इन यादों की पुस्तक तैयार होने की विनोद जी को हार्दिक बधाई देता हूँ...सादर भरत एस तिवारी।

वेनिस की यादें

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा


वेनिस का मेरे लिये मतलब है प्रोफ़ेसर मरियोल्ला अफ्रीदी। उन्होंने कुँवर नारायण के प्रबंध काव्य आत्मजयी का इतालवी में नचिकेता  नाम से अनुवाद किया था। वह लंबे समय तक वेनिस विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की अध्यक्ष थीं, अब रिटायर होने के बाद भी भारत आती जाती हैं। ज़बरदस्त मेहनती स्त्री हैं, उनके गाँव (या शायद उसे क़स्बा कहना बेहतर होगा) लोवेरे में भी मैं कई बार रह चुका हूँ। उन्होंने अपनी कार से मुझे उत्तर इटली के न जाने कितने शहर घुमाए हैं। उनके स्वभाव को समझना थोड़ा मुश्किल काम है। आप पर मेहरबान हैं, तो आपकी चाँदी। आपसे नाराज़ हैं, तो कई साल आपको पहचानने से भी इंकार कर देंगी। मेरा सौभाग्य और दुर्भाग्य है कि उनके दोनों रूप देख चुका हूँ।

नचिकेता: कुँवर नारायण के प्रबंध काव्य आत्मजयी का इतालवी अनुवाद, प्रोफ़ेसर मरियोल्ला अफ्रीदी 

एक बार नब्बे के दशक की शुरुआत में वे दिल्ली आयी थीं, किसी कोश के लिए उन्हें भारतीय कला पर लिखना था। मैंने उनकी थोड़ी बहुत मदद की, तो मेरे लिए महंगे और रोमांटिक वेनिस शहर के दरवाज़े खुल गए।

1993 में रोम से एक ट्रेन पर वेनिस के लिए रवाना हुआ, जहाँ मेस्तरे में उन्होंने अपने एक पुराने छात्र के फ़्लैट की चाभी मुझे एक हफ़्ते के लिए दिला दी। मैं दोपहर में वेनिस विश्वविद्यालय में उनके कक्ष में पहुँचा। उनकी एक छात्रा एलिजाबेत्ता वहाँ बैठी थी।

मरियोल्ला ने मेरा उस छात्रा से परिचय कराया, ये आपको वेनिस घुमाएगी।

आपके पिता क्या काम करते हैं, मैंने एक छोटा सा और मेरे लिए सहज सवाल किया।

मरियोल्ला का स्वभाव मैं तुरंत जान गया। वह बहुत अच्छी थीं, पर ग़ज़ब की ग़ुस्सैल भी थीं। बोलीं, यह भी कोई सवाल है, हो सकता है इनके पिता चोर हों। 

"और हाँ, आप इनसे सिर्फ़ हिंदी में ही बोलिएगा। "

वह अंग्रेज़ी जानती थी। हिंदी भी सीख रही थी। पर उसने मुझे पर्यटकों के वेनिस से दूर रखा, वेनिस की छिपी हुई गलियाँ बहुत मन से दिखाईं। उसका कोई मित्र डाकिया था, वह एक दूसरे वेनिस को जानती थी। पर दुर्भाग्यवश हम अंग्रेज़ी का ज़्यादा इस्तेमाल करते रहे। मरियोल्ला से माफ़ी। वह आज भी फ़ेस्बुक पर मेरी दोस्त है, पिछले साल यानी 2019 में मैं अपने छोटे भाई के साथ वेनिस गया, तो पहली बार वहाँ एक होटेल में रुका। तब भी एलिजाबेत्ता ने एक दिन छुट्टी ले कर हम दोनों को वेनिस की अनजान गलियाँ घुमाईं। एक अच्छी मित्र है, सुंदर और मीठी मुस्कानवाली।

प्रोफ़ेसर मरियोल्ला अफ्रीदी (फ़ोटो: Lars Eklund/ nordicsouthasianet.eu)


वीकेंड में हमें लोवेरे जाना था मरियोल्ला की कार में। एक अच्छा ख़ासा बड़ा घर था, जिसकी वह बड़ी जम कर सफ़ाई करती थीं। मैंने बाद में नोट किया, मैं जब भी पेशाब कर के लौटता था, वह तुरंत अंदर चेक करने जाती थीं, कुछ इधर उधर छिड़काव तो नहीं हो गया। बाद में एलिजाबेत्ता ने भी एक बार बताया, कि उसे भी अपने पति का ऐसे ही ध्यान रखना पड़ता है। 

आख़िर मर्द तो सब ऐसे ही हैं।

और लोवेरे में पहली ही शाम को प्रोफ़ेसर साहिबा ने मुझे अपने निजी रिवाल्वर के दर्शन कराए। मैं सोचता रहा, कि इन्हें मुझसे कोई ख़तरा तो नहीं नज़र आ रहा है। हो सकता है उन्होंने उसे मुझे शौक़ से ही दिखाया हो। पर वह कोई क़ीमती तमंचा था, शायद उनके पिता का होगा। पिता की बहुत सी चीज़ें उन्होंने संभाल कर रखी थीं। एक पुरानी विस्की की बोतल का स्वाद भी मुझे चखने का मौक़ा मिला। वह ख़ुद ड्रिंक नहीं लेती हैं।

मेरे बाद कुँवर नारायण वेनिस आने वाले थे। मरियोल्ला मुझे एक ऊँची पहाड़ी पर किसी महत्वपूर्ण इमारत दिखाने को ले गयीं, रास्ते में बार बार वह पूछती रहीं, क्या कुँवर जी को यहाँ चढ़ाई में दिक़्क़त तो नहीं होगी। वह कुँवर जी का बहुत आदर करती थीं, लखनऊ में उनके घर रूकती भी थीं। लेकिन कुँवर जी से अंतिम वर्षों में उनकी बोलचाल क्यूँ बंद हो गयी, यह मैं कभी नहीं जान पाया। मुझसे भी एक बहस के बाद वह कई साल नहीं बोलीं, पर कुछ साल पहले वह दिल्ली में थीं, तो उनका मेरे पास फ़ोन आया, हम मिले भी। मैंने उन्हें बताया कि कुँवर जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, आँखों की रोशनी खो रहे हैं, आप उनसे ज़रूर मिलिए। पर मुझे यह अफ़सोस हमेशा रहेगा कि वह फिर कभी कुँवर जी से मिली नहीं, वे तो बहुत नेक दिल इंसान थे। इसके लिए मैं उन्हें माफ़ नहीं कर सकता।

जब मेरा बेटा विनायक जापान के कानाजावा विश्वविद्यालय से पढ़ कर दिल्ली आया, तो मुझे एक आर्ट गैलरी से अच्छे पैसे मिले थे। मैंने सोचा उसे इटली और स्विट्जरलैंड घुमाया जाए। उसकी माँ तब इस दुनिया को विदा दे चुकी थीं। वैसे जवान बेटे के साथ बाप की यात्रा बहुत अनुकूल अवसर नहीं है, बेटी बाप का ज़्यादा ध्यान रखती है। ख़ैर। मरियोल्ला ने बाप बेटे को कार में घुमाने का शानदार ऑफ़र दिया। एक पुरानी इमारत में हम घूम रहे थे। मेरे बेटे ने अपने कैमरे से फ़ोटो खींचना चाहा, तो सिक्योरिटीज़ ने कहा, फ़ोटो खींचना मना है। विनायक ने कैमरा बंद कर दिया। मरियोल्ला ने बात की और फ़ोटो खींचने की अनुमति ले ली। पर अब मेरा बेटा अड़ गया कि नियम नहीं तोड़ूँगा। मरियोल्ला बहुत नाराज़ थीं, मुझसे बोलीं, आप तो बड़े विनम्र हैं, आपका बेटा बहुत ग़ुस्सैल है। मैंने हँस कर कहा, आपकी तरह ही ग़ुस्सैल है। पर उस यात्रा का असली झगड़ा अभी होना था। रास्ते में फ़ेलीनी का जन्म स्थान रिमिनी आने वाला था। उसे मैं देखना चाहता था। मरियोल्ला ने बड़े प्यार से वो जगह दिखाई। वापस लोवेरे जाने का दो ढाई घंटे का रास्ता था। हमारी बातचीत अनुवाद पर होने लगी। वह मंगलेश के अनुवाद कर रही थीं। मैंने कहा, हो सके तो मूल रचयिता के साथ मिल कर अनुवाद करना चाहिए। यह सिम्पल सी बात थी, पर वह बुरी तरह नाराज़ हो गयीं। सारे रास्ते ग़ुस्से में बोलती रहीं। फिर वह कई साल मुझसे बोली नहीं। ग़ज़ब का यह अजब अनुभव था।

एक बार मैंने उनसे कहा किसी लंबी कार यात्रा में, सुना है आपका किसी भारतीय से प्रेम था, आपने शादी क्यूँ नहीं कराई। वे अपने निजी जीवन के बारे में कोई बात नहीं करना चाहती थीं। ठीक है, नो प्रॉब्लम। लेकिन मुझसे वह निर्मल वर्मा और गगन के बारे में जानना चाह रही थीं, राम कुमार की पत्नी विमला जी के बारे में कह रही थीं कि वे अपने ऊँचे दाँत ठीक क्यूँ नहीं करातीं। ये सब भी निजी जीवन था।

मैं मानता हूँ कि उन्होंने इटली घुमाने में मेरी बहुत मदद की, बिना किसी बड़े स्वार्थ के। मेरी पत्नी देवप्रिया के आकस्मिक निधन के कुछ महीने बाद उन्होंने, कहा, आप बस टिकट का इंतज़ाम कर लीजिए, एक महीने आप एक इतालवी परिवार में रह सकेंगे, वे लोग आपको ख़ूब रेनेसां की कला दिखाएँगे। एक महीना मैं वेनिस के पास स्पीनया में स्टीफानो के घर में रहा। मेरा बस काम था उसके साथ हिंदी बोलना। उसके माता पिता भले हैं, उनके साथ रोज़ रात रसोई की टेबल पर बैठ कर भोजन का अनुभव दिव्य था।



उन दिनों अलका सरावगी भी वेनिस में लेक्चर के लिए आयी हुई थीं। मरियोल्ला ने उनके लेखन का भी अनुवाद किया है।

चित्रकार ग़ुलाम शेख़ ने कभी मुझे बताया था कि कैसे वे हिचहाइकिंग करते हुए पियरे देल्ला फ्रांचेस्का का अद्भुत फ़्रेस्को परेगनेंट मैडोना देखने गए थे। मैंने मरियोल्ला से इस फ़्रेस्को को देखने की इच्छा बतायी। हम तुस्कानी के अरेस्सो शहर में गए जहाँ पियरे का एक बड़ा काम था। इसी जगह पर लाइफ़ इज़ ब्यूटिफ़ुल फ़िल्म की शुरू के हिस्सों की शूटिंग हुई थी। फिर वह कार से दिन भर भटकते हुए मुझे मोंतेरची नाम की जगह पर ले गयीं, जहाँ गर्भवती मेडौना थी। पता चला, उस दिन वहाँ अवकाश था। मरियोल्ला ने कहा, मेरा वायदा, यह फ़्रेस्को आपको दिखाऊँगी ज़रूर।

पियरे देल्ला फ्रांचेस्का का फ़्रेस्को परेगनेंट मैडोना (विकिपीडिया)


मेरी अगली यात्रा में उन्होंने पूरा इंतज़ाम करा रखा था कि गर्भवती मैडोना मैं ठीक से देख सकूँ। ग़ज़ब का फ़्रेस्को है वो।

और कम ग़ज़ब की नहीं हमारी प्रिय और आदरणीय मरियोल्ला। वेनिस ही नहीं, पूरा उत्तर इटली घुमा दिया। कार में घूमते हुए वे इतालवी कॉफ़ी पीती थीं, जो मात्रा में बहुत कम और बहुत स्ट्रॉंग होती थी।

वे कहती थीं, आप तो अमेरिकन कॉफ़ी पिएँगे, गंदा पानी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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Book Review: Premchand’s Torn Shoes - Harishankar Parsai


प्रेमचंद के फटे जूते

हरिशंकर परसाई



Premchand’s Torn Shoes - Harishankar Parsai
हरिशंकर परसाई "प्रेमचंद के फटे जूते" वरिष्ठ आलोचक श्री रवीन्द्र त्रिपाठी, #शब्दांकन_फेसबुक_लाइव 9 जून, शाम 6 बजे, कार्यक्रम 'एक पुस्तक पर पाँच मिनट' - प्रस्तुति भरत एस तिवारी
Posted by शब्दांकन Shabdankan on Tuesday, 9 June 2020
"Premchand ke Phate Joote, published in a booklet form by Vividha, Mumbai



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रोम की यादें — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 32 | Vinod Bhardwaj on Rome


रोम की यादें 

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा


न जाने क्या बात है इटली की स्त्रियाँ बहुत आसानी से मेरी दोस्त बन जाती हैं, उन्होंने मुझे इटली के अद्भुत लैंडस्केप में इतना घुमाया है कि मुझे यह भ्रम होने लगता है कि पुनर्जन्म एक सच्चाई हो न हो पर मेरा इटली, ख़ास तौर पर रोम से कोई पुराना और गहरा रिश्ता है। 

पिछले साल जाड़ों में मैं आन्ध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में एक कला शिविर में सिर्फ़ पाँच दिन रहा, पर वहाँ इतालवी चितेरी सारा गुबेरती से इतनी जल्दी दोस्ती हो गयी कि वह लॉकडाउन की क़ैद में वट्सऐप पर क़रीब क़रीब रोज़ ही मेरा हाल पूछती है। वह ख़ुद मुंबई में फँसी हुई है। उसका सेंस ऑफ़ ह्यूमर तो ग़ज़ब का है। जब इटली में कोरोना का क़हर था, तो वह बोली, मुंबई लोकल में इटली की हूँ, यह कहते ही बढ़िया भीड़मुक्त सीट मिल जाती है। 

मेरे इटली प्रेम की शुरुआत गबरियेल्ला तावारनीसे से हुई, अस्सी के दशक में। उसे इतालवी और फ़्रेंच भाषा आती थी, अंग्रेज़ी उसने भारत आ कर सीखी। 1993 में मैं उसके साथ पहली बार रोम गया और शुरू से ही रोम रोम में रोम बस गया। उसका घर रोम के केंद्र में था, हर जगह, वैटिकन सिटी भी, आप पैदल जा सकते थे। उस ज़माने में गबरियेल्ला की सलाह पर भारत से गणेश छाप बीड़ी के पाँच बंडल रोम ले गया था और उन्हें गबरियेल्ला की दोस्त ने बेच कर मुझे पॉकेट मनी दिला दी, रोम की गलियों में अकेला घूमने के लिए। आजकल तो बीड़ी के दाम भी नहीं मिलते। 

उन दिनों रोम में आपको पुलिस के ठीक सामने जेब से लीरा निकाल लेने वाली जिप्सी लड़कियाँ भी मिल जाती थीं। कोई सुंदर लड़की आप की जेब में सरेआम हाथ डाल दे, तो शुरू में तो आप हैरान रह जाएँगे। वे झिझकती बिलकुल नहीं थीं। दिल्ली आ कर मैंने निर्मल वर्मा को यह बात बतायी, तो वे अपनी ख़ास शरारती मुस्कान में बोले, विनोद, तुम्हें तो सरेआम लुट कर अच्छा लगा होगा। 

फिर मैंने जिप्सी लड़कियों से आक्रामक हो कर अपने को बचाना सीख लिया। अब रोम में ये लड़कियाँ और गोद में बच्चा लिए आपकी सामने वाली जेब से पैसा निकालने वाली स्त्रियाँ नहीं मिलतीं। वैसे किसी इतालवी को यह बात बताओ, तो वह यही कहता था कि जिप्सी तो भारत से आए हैं। 

मेरे इटली प्रेम की शुरुआत फ़िल्मकार फ़ेलीनी की जादुई फ़िल्मों से हुई थी, गबरियेल्ला ने उसे वास्तविक बना दिया और फिर एक लंबी मित्र सूची बनती चली गयी। रोबेरतो, तमारा, मारियोल्ला, मार्ता, इजाबेल्ला, मिकेला, गबरी जी, एलिजाबेत्ता, स्टीफानो, चीचिलिया, सारा। इस सूची में सिर्फ़ दो पुरुष हैं। इतालवी स्त्रियाँ तो कमाल की हैं। 

गबरियेल्ला एक बहुत बड़े पुराने फ़्लैट में कई दोस्तों के साथ रहती थी।

गबरियेल्ला उस पीढ़ी की थीं, जो साठ के दशक के अंतिम बरसों में पेरिस, रोम के छात्र आंदोलन की पैदाइश थी। वे सब आज़ाद क़िस्म की ज़िंदगी के दीवाने थे। पेरिस में वह पत्रकार दिलीप पाडगांवकर की भी अच्छी दोस्त थी। 

गबरियेल्ला एक बहुत बड़े पुराने फ़्लैट में कई दोस्तों के साथ रहती थी। एक तरह की कॉम्यून लिविंग थी वो। गबरियेल्ला ने कभी शादी नहीं कराई, दस साल जिस दोस्त के रही वह शादी करा के भी अंत तक उसका दोस्त रहा। गबरियेल्ला को बंगाल के एक नक्सलवादी से प्यार हो गया, जिसने एक बंग सुंदरी से शादी करा के मध्यवर्गीय जीवन की सुख शांति अपना ली। बाद में उसे अपने से कम उम्र के एक बंगाली से प्रेम हो गया। पर मैंने देखा, वह अपने नए और पुराने प्रेमी के साथ सहज रहती थी। कोई ईर्ष्या नहीं होती थी सबके रिश्तों में। 

गबरियेल्ला जब अपने नक्सली दोस्त की यादों में आँसू बहा रही थी, तो मुझे भी बहुत थोड़े समय के लिए दिल्ली के पुराने क़िले में प्यार की छोटी सी पर मीठी झलक मिली। पर हम दोस्त हमेशा रहे, आज वह इस दुनिया में नहीं है पर उसका फ़ेस्बुक पेज जीवित है, उसकी सहेली तमारा उसे संभालती है। गबरियेल्ला भी कैन्सर ने छीन लिया। 

गबरियेल्ला से मैंने बहुत कुछ सीखा, सिर्फ़ पास्ता और छोले का फ़्यूज़न ही नहीं। वह बड़ी आसानी से बताती थी कि मैं जब उन्नीस की थी, तो बेहद हस्तमैथुन करती थी। भारतीय स्त्रियाँ यही कहती हैं, न न हमने ये सब कभी नहीं किया। इधर कुछ उनकी भी दुनिया बदली है। 

रोम में पहली बार जब मैं गया तो गबरियेल्ला के घर में  बाथरूम के दरवाज़े में छोटे छोटे शीशे लगे थे, कुछ को पेंट कर दिया गया था, कुछ को पारदर्शी छोड़ दिया गया था। मुझे शुरू में नहाने में संकोच होता था, फिर मुझे लगा फ़्लैट में रहने वाली स्त्रियों को संकोच नहीं, तो फिर मुझे क्यूँ कमबख़्त शर्म आती है। 

इस फ़्लैट के ठीक नीचे एक होटेल था जिसे शायद फ़िल्म स्टार 'तेरे मेरे प्यार के चर्चे हर ज़ुबान पर' फ़ेम मुमताज़ के परिवार वालों ने अब ख़रीद कर बिल्डिंग में ख़ूब तोड़ फोड़ कर दी है। विशाल खिड़कियों वाले उस बहुत बड़े फ़्लैट में मैं कई बार ठहरा था, पिछली बार रोम गया तो फ़्लैट टूटने से पहले उसकी कुछ तस्वीरें खींचीं। 

रोम में आप तीन तरह के समय में आसानी से आवाजाही कर सकते हैं। रोमन फ़ोरम के खंडहर शहर के बीच में जगह जगह पर हैं, मध्ययुग में भी आपको प्रवेश का मौक़ा मिलेगा और अत्याधुनिक समय में भी। जगह जगह कलात्मक मूर्तिशिल्प, चौराहे, पियात्सा, शेरों के मुँह से गिरता पीने वाला पानी, चर्च में घुस कर कारावेज्जियो जैसे महान चित्रकार के काम को आश्चर्य से देखना। चर्च में बेंच पर बैठ कर किसी मालदार टुरिस्ट का इंतज़ार, कि वह मशीन में युरो का खनकता सिक्का डाले, ख़ूब रोशनी हो और इस महान चित्रकार से ठीक से एक मीठी सी मुलाक़ात हो। 

एक फ़ैंटसी है मन में, कोरोना भागे, जमा पूँजी ले कर रोम के केंद्र में किसी सस्ते होटेल में लंबे समय तक रहूँ। शायद पियात्सा द नवोना या फोंताना द त्रेवी में गबरियेल्ला मिल जाए, पूछे, अरे भलेमानस तुम कहाँ थे। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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