विधवा कॉलोनी - स्वाति तिवारी

यह भोपाल के साथ, भोपाल गैस त्रासदी के साथ, स्वाति तिवारी जैसे लोगों का न के बराबर होना ही है जो पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है. यही कारण है कि त्रासदी महज एक बरसी का रूप ले चुकी है, जिसे हर साल रस्मी तौर पर मना कर हम मान लेते हैं कि भाई हमको बहुत दुःख है !!!

स्वाति तिवारी से हो रही बातचीत के दरमियाँ उनके मुंह से तीसरी बार 'विधवा कॉलोनी' का नाम सुनकर, वो ख़ुशी जिस पर उन्हें बधाई देने के लिए फ़ोन किया था (शिवना सम्मान जो पत्रकारिता अथवा शोध पुस्तक हेतु प्रदान किया जाता है, वह साहित्यकार श्रीमती स्वाति तिवारी को उनकी सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित भोपाल गैस कांड पर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक ‘सवाल आज भी ज़िंदा है’ हेतु प्रदान किया जाएगा।) कहीं छुप गयी थी. 'विधवा कॉलोनी' शब्द सुनकर ही घोर पीड़ा हो रही थी सोचिये कि वहां रहने वालों का किस दौर से गुजरना पड़ा होगा, पड़ रहा होगा...

निःसंदेह भोपाल त्रासदी के पीड़ितों के साथ होते आये अन्याय को मिटाने के लिए स्वाति जी का आगे आना और उस पर लिखना उन साहित्यकारों, कलाधर्मियों को कहीं न कहीं कचोट रहा होगा जो भोपाल की महिमा का गान तो करते हैं लेकिन त्रासदी नहीं देख पाते. उम्मीद है कि वो जागेंगे.

स्वाति जी के शब्दों में "मैं भोपाल में रहती हूँ और साहित्यकार होने के नाते अपना फ़र्ज़ समझती हूँ - इस त्रासदी के बारे में लिखना" वो कहती हैं " पहली पीढ़ी की मृत्य हो गयी, दूसरी पीढ़ी पीड़ित ही रही और तीसरी ... तीसरी पैदा ही नहीं हुई ...."


आप शब्दांकन पाठकों के लिए ‘सवाल आज भी ज़िंदा है’ का अंश 'विधवा कॉलोनी' ...

भरत तिवारी

विधवा कॉलोनी

स्वाति तिवारी


 सुप्रसिद्ध साहित्यकार शरद जोशी का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है-‘भोपाल एक क्रिया है।’ इसमें उन्होंने लिखा कि व्याकरण की दृष्टि से काफी वर्षों तक संज्ञा रहने के बाद भोपाल में सरकार यह दावे करती रही है कि शीघ्र यह नगर एक विशेषण में बदल जाएगा। भाषा में विशेष उपमाओं के लिए काम आएगा। वे ये हवा बांधते रहे कि यह क्रिया-विशेषण का क्षेत्र है, यहां जो कुछ होगा, क्रिया के गुणों का सूचक होगा। विशेष यह हो रहा था कि वहां सुरीले वाद्यों और जहरीली गैस को एक साथ स्वीकृति प्रदान की गई। ऐसा लगा कि व्याकरण में जो सम्बोधन ‘हां’, ‘ही’ और ‘है’ है, वे भोपाल में सर्वाधिक होंगे। कुछ वर्षों में आदमी कदरदान हो जाएगा और उसकी वे नसें फडक़नें लगेंगी, जो वर्षों से सुप्त रही हैं। शरदजी अगर आज होते तो वे खुद जान जाते कि व्याकरण का वह अध्याय आगे इसी गली में लिखा गया। व्याकरण में विशेषण भी होता है ना? तो भोपाल पर वह विशेषण भी लगा। जिस प्रक्रिया से भोपाल क्रिया हुआ, उसी क्रिया से भोपाल की एक कॉलोनी को विशेषण भी लगा ‘विधवा कॉलोनी’। विशेषण विशेषता बताता है। यहां विशेषता बना ‘वैधव्य।’

swati tiwari ki hindi sahitya kahani
 विधवा कॉलोनी एक बार फिर चर्चा में आई, जब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसका नया नामकरण किया-जीवनज्योति कॉलोनी। वाह! २७ साल तक समाज के गाल पर एक जोरदार तमाचे की तरह जड़ा रहा वह नाम और किसी संस्था या सरकार का ध्यान इस पर नहीं गया। यह कैसा अपमानजनक नाम इसे दिया गया। दुनिया के किसी कोने में शायद इस नाम की कॉलोनी नहीं होगी, न होनी चाहिए। मुझे आश्चर्य है कि किसी महिला संगठन, किसी एनजीओ, किसी साहित्यकार, किसी लेखिका और क्लब ने इस पर सवाल नहीं उठाया। सबने स्वीकार किया। स्त्री विमर्श से जुड़ी किसी हस्ती ने औरतों की पीड़ा से, उसके मौन से या उसके आंसुओं से कोई सरोकार नहीं रखा। उनका विमर्श तो स्त्री की देह के व्याकरण से, देह के भूगोल से और उस भूगोल से आकार लेने वाली उत्तेजक मुद्राओं से ही हो जाता है। कई संगठन अक्सर फिल्मों और विज्ञापनों के अश्लील पोस्टरों पर अपना विरोध देश भर में जताते रहे हैं। भोपाल में भी समाज के इन स्वयंभू कर्णधारों की कमी नहीं है। लेकिन विधवा कॉलोनी पर किसी ने अपना प्रतीकात्मक विरोध भी दर्ज नहीं कराया। यह आश्चर्य की बात है। किसी के दिमाग में यह शब्द खटके क्यों नहीं? पता नहीं कितनी लेखिकाओं ने इस कॉलोनी का रुख किया होगा। अगर कोई गया होता तो शायद उसकी संवेदनाएं झंकृत भी होतीं। यह इतना बड़ा विषय था,  लेकिन आंखों से अछूता ही रहता आया। 

  समाजशास्त्री कहते हैं कि जिस प्रकार असत्य या अवैज्ञानिक होकर भी जात-पात भारतीय समाज व्यवस्था की एक जटिल-दारुण सच्चाई बनी, उसी प्रकार ‘विधवा’ की अवधारणा भी असत्य-अवैज्ञानिक और स्त्री के जीवन की एक अत्यन्त भयानक सामाजिक सच्चाई है, जो समाज के आधे हिस्से को सदियों से पीडि़त व आंतकित करती रही है। ‘वैधव्य’ एक काल्पनिक दुख है, जो स्त्री पर थोप कर उसे दुखी बने रहने को धर्म ठहराते हुए हमेशा के लिए बाध्य करता है।

 डॉ. अमत्र्य सेन ने एक जगह १९९१ की जनसंख्या के अनुसार ३.३ करोड़ विधवाओं के मौजूद रहने की बात कही थी, जो औरतों की आबादी का आठ प्रतिशत है। उनकी रिपोर्ट यह भी कहती है कि ६० वर्ष की उम्र पार करने पर ६३ प्रतिशत महिलाएं अकेली हो चुकी होती हैं और ७० वर्ष पार करने पर ८० प्रतिशत महिलाएं। पुनर्विवाह की आजादी और सामाजिक स्वीकार्यता के चलते सिर्फ ढाई फीसदी पुरुष ही विधुर जीवन जीते हुए पाए गए। महिलाओं की तादाद इससे तीन गुना से भी ज्यादा है। हम न तो औरतों को आश्रय दे सकते, न सामाजिक संरक्षण और न ही इज्जत। विधवा कॉलोनी इस बहस का सबसे कलंकित अध्याय है और हादसे के प्रभावितों के प्रति पूरी व्यवस्था व समाज का असली चेहरा भी उजागर करता है। क्या यह सामन्ती नजरिये से बनी कॉलोनी तो नहीं थी, जिसके चलते विधवा बेसहारा आश्रम, नारी निकेतन, नारी उद्धारगृह चलते हैं? जिनकी असलियतें अक्सर उजागर होती रही हैं।  

 इस कॉलोनी में रहने आईं औरतों के कष्ट यहीं खत्म नहीं हुए। छोटी सी चारदीवारी में अकेली और पुरुष सदस्यों के न होने से शहर के मवालियों और मनचलों के लिए यह बस्ती एक सॉफ्ट टारगेट भी बनी। शाम ढलते ही यहां आवारा लोगों की बेधडक़ आवक ने इज्जतदार घरों की मेहनतकश बेसहारा औरतों का जीना हराम कर दिया। ऐसा हो नहीं सकता कि स्थानीय पुलिस की जानकारियों में यह सब न रहा हो। लेकिन बसाहट के कुछ ही समय बाद यह एक बदनाम इलाका भी बन गया। अपनी इज्जत की खातिर एक युवती ने इस कॉलोनी से बाहर किराए का घर लिया। उसने बताया कि हालत यह हो गई थी कि सडक़ों पर से गुजरना मुश्किल हो गया था। लोग इस कॉलोनी में आईं औरतों को सिर्फ इस्तेमाल करना चाहते थे। आर्थिक रूप से कमजोर कुछ औरतों ने मजबूरी के चलते समझौते किए होंगे, लेकिन अधिकतर औरतें अच्छे घरों की थीं। उनके भाई, पिता या पति मारे गए थे। कमाई के जरिए नहीं थे। सिर्फ रहने का ठिकाना मिल गया था। इसलिए लोगों ने बेजा फायदा उठाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। लेकिन न तो किसी राजनीतिक पार्टी, न सामाजिक संगठन, न महिलाओं के समूह और न ही कानून के रखवालों ने इन औरतों के सम्मान के लिए कुछ किया। और यह सब दूरदराज के किसी इलाके में नहीं हो रहा था।

 यह नर्क राजधानी की नाक के नीचे रचा गया।  हालांकि जो समाज जीते-जी औरतों को डायन और कुलटा कहकर सरे बाजार नंगा घुमाता हो और आग के हवाले कर देता हो, जो समाज अपनी आधी आबादी को तहजीब का जामा पहनाकर परदे में डाल देता हो, वह कितना संवेदनशील होगा और कितनी इज्जत की परवाह करेगा, यह उम्मीद ही बेमानी है। और हमारी कानून-व्यवस्था खामोशी से यह सब देखती रही हो, वह क्या सख्त कदम उठाने का पौरुष रखती है? यह सब हमारी नपुंसक सोच के नतीजे हैं, जो औरतों के हिस्से में आए हैं।

अगर निराश्रित औरतों के प्रति हमारा रवैया मानवीय होता तो काशी और वृंदावन की गलियों में सिर घुटाए सफेद धोती में घूमती हजारों बेसहारा औरतों की जिंदगी ही दूसरी होती। लेकिन ऐसा नहीं है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं ‘वॉटर’ के अन्तिम दृश्य में नन्ही चुहिया (बाल विधवा) की स्थिति को देखकर।  ‘वॉटर’ का तो जमकर विरोध हुआ था, लेकिन इन कुरीतियों को काटने के लिए कोई कर्मवीर सामने नहीं आया। दीपा मेहता ने तमाम विरोध के बावजूद फिल्म बनाई और औरतों के प्रति हमारी संवेदनहीनता को असल रूप में परदे पर पेश किया। जब विरोध के लिए कोई दलील नहीं बची तो कुछ स्वयंभू संगठन यह तर्क देते हुए भी सुने गए कि वॉटर में हिंदू औरतों को अतिरंजित करके पेश किया गया है। यह मकबूल फिदा हुसैन की उन विवादित पेंटिंग्स की तरह हैं, जिसमें उन्होंने हिंदु देवी-देवताओं को अश्लील ढंग से प्रस्तुत किया। तर्क यह आया कि आप मुस्लिमों की ऐसी ही कुरीतियों और उनके ऐतिहासिक व मजहबी किरदारों की यही तस्वीर पेश करने की हिम्मत दिखाइए! बेशक यह दलील खारिज करने के योग्य नहीं है। सच्चे लोकतंत्र में और अभिव्यक्ति की आजादी के सच्चे और संतुलित इस्तेमाल में समाज के हर पक्ष की असलियत उजागर होनी चाहिए, लेकिन इस आधार पर जो दिखाया गया, उसे खारिज करना भी एक शुतुरमुर्गी तर्क ही है।

ये औरतें सौभाग्य को गंवाकर इन घरों में आईं। वे अपनी जिंदगी बचने पर खुद को खुशनसीब कैसे मान सकती थीं?  वे समझ नहीं पाती हैं कि इस भाग्य पर रोएं या खुश हों? यह कॉलोनी वह है, जो नारीत्व के दुर्भाग्यपूर्ण मिथकों से बनी है। पर ये वे औरतें नहीं हैं जिन्हें धर्म, समाज, रूढिय़ां और साहित्य नारीत्व के मिथकों से प्रस्तुत करता है। ये गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की ‘ओ वूमन! दाऊ आर्ट हाफ ड्रीम एण्ड हाफ रियेलिटी’ की रहस्यात्मक से आच्छादित औरतें भी नहीं हैं। ये जयशंकर प्रसाद की ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ वाली नारी भी नहीं हैं पर ये शायद मैथिलीशरण गुप्त की ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’ की पात्र जरूर हैं। इसीलिए इन्हें बहुत स्पष्ट निर्लज्जता के साथ यहां बसाया गया। सुविख्यात चिंतक व लेखिका ‘सिमोन द बोउआर’ इस मनोवृत्ति को दुनिया की हर संस्कृति में पाती हैं। यह कॉलोनी सहानुभूति की जमीन पर सरकारी खैरात की शक्ल में खड़ी तो की गई, लेकिन लोक व्यवहार उस देश की तस्वीर से कतई मेल नहीं खाता, जिसमें हजारों सालों से यह दोहराया गया हो कि यत्र नारयस्तु पूजयंते रमंते तत्र देवता। शायद इसकी एक सच्चाई यह भी है कि चूंकि नारी हो यहां बहुत अपमानजनक हालातों में न सिर्फ बसाया गया, बल्कि जीने के लिए मजबूर भी किया गया इसलिए देवताओं ने भी बेरुखी अपनाए रखी। न इंसान अदब से पेश आए, न देवताओं ने ही सुध ली। 

चलिए इस अंतहीन बहस से बाहर आते हैं। सीधे कॉलोनी की मुख्य सडक़ पर नूरजहां के घर में दाखिल होते हैं।  मकान नम्बर ६०५ में 65 साल की यह औरत कहती है कि मैं जिस कॉलोनी में रहती आई हूं शायद ही वैसी कॉलोनी दुनिया में कहीं और हो। खुदा करे कहीं न हो। सुना है आपने, इसका नाम-विधवा कॉलोनी।

 नूरजहां हादसे में अपना सब कुछ गंवाकर बची हैं। दो हजार से ज्यादा उनके जैसी औरतों की बस्ती है यह। मरहूम अजीज मियां की बेगम नूरजहां कहती हैं कि किसने सोचा था एक रात के चन्द लम्हे जीवन से उसका नूर लूट कर बस नाम में जोड़े रखेंगे। मेरे हर सवाल पर नूरजहां यादों के एक तकलीफदेह सफर से लौट आती है। वह कुछ देर मुझे देखती है। शायद वह टटोलती है कि उसके दर्द की समझ मुझमें कितनी है, फिर बोलती है –एक पल को उसके चेहरे पर मुझे वही नरगिस लौटती दिखती है, जो एक शादीशुदा सुखी औरत के चेहरे पर दिखती है। कभी इसका अपना संसार था। नूरजहां और अजीज मियां की गृहस्थी। तीन मासूम बच्चे-हबीब और हनीफ और सबसे छोटी शाहजहां। पेशे से ड्रायवर अजीज मियां का यह रोज टूर पर जाने वाला पेशा था उनका। वे ड्रायवर थे। रोज सोचती थी आज टूर पर न जाएं और उस हादसे के बाद से सोचती रहती हूं काश वो टूर पर ही होते। पर जो खुदा को मंजूर होता है, वही होता है। उस रोज मौत ने ही उन्हें घर पर रोके रखा। वे कहीं नहीं गए।  सर्द रात थी पर हवा में बहती बेचैनी की वजह से रात दो बजे नींद टूटी। एक घन्टे के बाद हवा तीखी हुई, कुछ जलन हुई तो बाहर निकले। वहां का खौफनाक दृश्य...वो रुक गई बोलते-बोलते। लगा जैसे भीड़ में भटक गई है। अब किधर जाएं? बाहर अफरा-तफरी का आलम था। सर्द रात और एक ही तरफ भागते हुए लोग...जो रास्ते में गिर गया...वह फिर नहीं उठा। उसकी लाश ही उठी। अजीज मियां हादसे के दो महीने बाद खून की उल्टियाँ करते हुए एक कभी न खत्म होने वाले टूर पर चले गए। हनीफ के गुर्दे गैस से प्रभावित हो गए। कभी एक ख्वाब था दोनों का। अब यादें हैं उसकी। जद्दोजहद भरी जिन्दगी थी। माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी हमारी। जिन्दगी बहुत खुशगवार रही हो ऐसा भी नहीं था। गृहस्थी की खटपट में बच्चों की परवरिश बेहतर ढंग से कर पाएं कुछ बना पाएं उन्हें। पढ़ा लिखा कर बच्चों का जीवन संवारने की इच्छा थी। कोई आसमानी चाहतें नहीं थीं।  

  हादसे के बाद क्या? वे कहती हैं-हां घर मिला, मुआवजे का रुपया भी मिला। पर उसका क्या जो चला गया। बस कहिए एक छत है, जो आसरा है। हमारे एक बूढ़े बेसहारा भाई नसीर मियां भी साथ रहने यहीं आ गए। सूनी आंखों से ठंड की सांझ यह औरत सडक़ के पार देखकर कहती है, यूनियन कार्बाइड के पास से गुजरती हूं तो मेरे घाव हरे हो जाते हैं। दर्द की एक लहर पूरे वजूद को हिलाकर रख देती है। लाशों के ढेर और रात का कहर दिखने लगता है। कोई बुरा ख्वाब हो तो भूल जाओ, पर भोगी हुई हकीकत है तो भूल कैसे सकते हैं। खाली वक्त में सोच-विचार को कैसे रोक सकते हैं आप। खासतौर से तब जब ऐसे भयानक दौर से आपका गुजरना हुआ हो। एक रात में क्या कुछ बदल गया सब कुछ। 

विधवा कॉलोनी की एक और रहवासी। नाम कुछ भी मान लीजिए। वे बताती हैं कि यहां पर रहने में डर लगने लगा था। किसी को कहते हुए शर्म लगती थी कि हाउसिंग बोर्ड की विधवा कॉलोनी में रहते हैं। पिछले कुछ सालों में हादसे की सहानुभूति कम होती चली गयी है। लोग समझते हैं बस इन औरतों को तो पैसा चाहिए। कुछ मुआवजा मांगती रहती हैं और कुछ मुआवजा वसूलती हैं। आदमी मर गए थे तो गरीब जवान औरतें भी थीं। लोग पूरी बस्ती को ही रेड लाइट एरिया समझने लगे। मारते का हाथ पकड़ सकते हैं पर बोलते की जिव्हा कैसे पकड़ते? हमने सुना है। बड़ी ढिठाई से लोग औरतों से पूछते, क्यों विधवा कॉलोनी जा रही हो ‘धंधा’ करने? या  क्यों ‘धंधा’ करके आ रही हो? गैस के कहर से बचने के बाद यह जिल्लत भोगना अभी हमारी जिंदगी में बाकी था। साहित्यकार पाल क्लाडेल की पंक्तियाँ हैं-

   अस्सी वर्ष की आयु!
   न आंख बची
   न कान, न दांत,
   न पैर, न दिमाग
   और जब सब कुछ कह और कर चुके
   कितना विस्मयकारी है
   उनके बिना किसी का जीवन।

अध्ययन बताते हैं कि गरीब लड़कियों या औरतों को चंगुल में फंसाने के लिए देह व्यापार के दलाल या सेक्सवर्कर किस तरह के जाल फैलाते हैं। वे रुपयों का लालच देते हैं और यहां तक कि प्रेम प्रसंगों में उलझाकर भी अंधेरी गलियों में ढकेल देते हैं। बात भोपाल की इस कॉलोनी के संदर्भ में निकली जरूर है पर यह समस्या किसी एक कॉलोनी की नहीं है, यह एक व्यापक होती सामाजिक समस्या है। भूमंडलीकरण के तहत तेजी से पनपता-फैलता यौन व्यापार अब उद्योग में बदल चुका है। हाल में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों के समय दुनिया भर की सेक्सवर्कर भी अपने कारोबार के लिए यहां पहुंची और देश के जागरूक संस्थाओं ने करीब एक लाख कंडोम शहर में रखवाए। हालांकि इन खबरों पर किन्हीं संस्कृतिवादियों के पेट में दर्द नहीं हुआ। 

प्रभा खेतान लिखती हैं कि औरतों के कमजोर तबके की तस्करी (ट्रेफिकिंग) में भी वृद्धि हुई है। इसके पीछे व्यावसायिक यौन शोषण बड़ी वजह है। देखा जाए तो यह श्रम का मात्र एक खतरनाक प्रकार ही नहीं, बल्कि हिंसक अपराध भी है। यह मानवता की बुनियादी धारणा का उपहास करता है तथा समाज के सर्वाधिक असुरक्षित सदस्यों को स्वतंत्रता तथा मान-मर्यादा से वंचित करता है। औरतों और लड़कियों के ट्रेफिकिंग के इन रूपों में हिंसा, धमकी, छल-कपट अथवा कर्ज के जरिए बंधक बनाकर श्रम शोषण के लिए औरतों की आवाजाही शामिल है।

आर्थिक उदारीकरण के नतीजे भयावक रूप में सामने आए हैं। यह सिर्फ भारत की नहीं एशिया की एक बड़ी व्याधि के रूप में उभर कर सामने आया है कि गरीबों की गरीबी बढ़ी है और दूसरी तरफ अमीर और ज्यादा अमीर हुए हैं।  भारत जैसे विकराल आबादी वाले देश में दो देश साफ नजर आने लगे हैं-भारत और इंडिया के बीच बढ़ी खाई पर बहस भी तेज हो रही है।  नवधनाढ्य इंडिया में औरतों के प्रति पुरुषों का यौन व्यवहार नई शक्ल ले रहा है। अब इन संपन्न इलाकों में औरतें गांव की मजबूर औरतों की तरह शोषण की शिकार भले ही न हों, लेकिन फैशनपरस्त माहौल में मजे करने की संस्कृति ने सीमाओं को नई शक्ल दे दी है। अधिक पैसा कमाने की चाह आसान समझौतों का रास्ता साफ कर रही है। स्कूल-कॉलेज में पढ़ रही लड़कियों को मिली आजादी पुरुष समाज के साथ उनके रिश्तों की नई बानगी पेश कर रही है। टेलीविजन और फिल्मों ने भी विपरीत लिंगों के बीच संबंधों में भूख का नया भूगोल रचा है। 

रोजगार की खातिर गांवों से पलायन करके शहरों में मजदूरी कर रहे परिवारों की औरतों का जीना अलग तरह के मुश्किल हालातों में हो रहा है। ठेकेदारों के चंगुल में उनकी भयावह जिंदगी की दास्तानें कभी पुलिस के रोजनामचे में नहीं आ पातीं। अक्सर देखा गया है कि मजबूरी देखकर महत्वाकाक्षांएं जगाई जाती हैं, बच्चों के प्रति, भाई-बहनों के प्रति उसकी संवेदनशीलता का लाभ लेकर दायित्वों और उनकी पूर्ति के शार्टकट रास्ते, सौंदर्य बोध और कई बार स्त्री की स्वयं की यौनेच्छा को उकसाया जाता है। इन समस्त अवधारणाओं और सिद्धांतों की सच्चाई विधवा कॉलोनी की बेबस औरतों ने भोगी है। यहां आकर बसने के बाद उनकी जिंदगी में संघर्ष का एक अलग अध्याय है। वे आपको बताएंगी कि उन्होंने क्या कुछ झेला। राजी-मर्जी से या मजबूरी के चलते। यहां गुजरा हुआ वक्त उनकी यादों में ठहरा हुआ है। हर औरत एक चलता फिरता उपन्यास है। उसकी जिंदगी में आए किरदारों के तरह-तरह के तजुर्बे आपको सुनने को मिलेंगे। कुलमिलाकर यह हमारे समाज की एक घृणित तस्वीर ही सामने लाते हैं।

वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे मस्तिष्क की अनंत गहराइयों में परफैक्ट मेमोरी की जबर्दस्त क्षमताएं हैं। स्मृतियों पर किया गया थोड़ा सा अभ्यास हमारी प्रतिभा को तराश देती है। वैज्ञानिक केवल परफैक्ट मेमोरी को तराशने की बात करते हैं। यह एक सकारात्मक वैज्ञानिक अवधारणा है। लेकिन दर्द से भरे दृश्यों की नींद हराम कर देने वाली हजारों स्मृतियां इन औरतों के जेहन में सालों से कौंधती रही हैं। यह सब भुलाने के लिए इनके लिए क्या अभ्यास होने चाहिए?  

   किसी को अपने मासूम बच्चे की आखिरी किलकारी याद आती है, कोई अपने भाइयों को मरते हुए सपनों में देखती है, किसी के पिता कराहते हुए दम तोड़ देते हैं, किसी के पति की लाचारी में हुई मौत उसे हर पल परेशान करती है, कोई अपने बेटे-बहुओं को खोने का गम ढो रही है...स्मृतियों यह सिलसिला अनंत है। मस्तिष्क से इन्हें लुप्त करने की कोई तकनीक किसी के पास नहीं है। ये यादें कभी भी ताजा हो जाती हैं। कोई पुरानी तस्वीर उन तारों को छेड़ देती है। कोई पुरानी चीज 27 साल पुराने दिनों में ला घसीटती है, जब सब कुछ सामान्य था। जिंदगी मजे से कट रही थी। भविष्य के सपने देखे जा रहे थे। रोज के संघर्ष तो थे ही। कोई घर से निकला था, लेकिन लौटकर नहीं आया। उसका रात का खाना ठंडा होता रहा। कोई बड़़े दिन बाद घर आया था और आखिरी सांस ले ली। कोई भीड़ में ऐसा गुमा कि पता ही नहीं चला कहां गया। कितने लोग कब्रस्तान में दफना दिए गए और कितनों की चिताएं सामूहिक रूप से जलकर ठंडी हो गईं। उनमें कौन कहां से लाकर पटका गया था, किसे मालूम। और जिन्होंने लाशों के ढेर में अपनों को पहचान लिया, उनकी आंखों में वे दर्दनाक दृश्य पत्थर की लकीर बन गए। जरा सी याद दिलाओ और आंखों से धार फूट पड़ती है। क्या करे कोई जब यह परफैक्ट मेमोरी उसके जीवन में एमआईसी की धुंध अक्सर उठाती रहती है। 

   इन्हीं सडक़ों पर
   इन्हीं सडक़ों के नीचे से
   पड़ोसवाली खिडक़ी के टूटे शीशे से
   झांकती हैं चीखें, चेहरे और चाहतें
   याद आती है उन सपनों की
   तो पागल कर जाती है
   तब वह घुटनों में माथा टेक लेती है
   या कि दीवारों पर सर फोड़ती हैं
   यादों की अंधी सुरंग को बन्द करने के लिए? 

सरकार ने गृह निर्माण मण्डल सेे २४८६ आवास निर्मित कराए गए, जिसमें २२९० आवास आवंटित किए जा चुके हैं और १९६ आवास खाली हैं। यह सरकार की जिम्मेदारी थी। वास्तव में इस कॉलोनी पर  ‘जीवन-ज्योति’ शब्द ज्यादा सम्मानजनक है। ये औरतें खैरात या मदद से पहले इज्जत की हकदार ज्यादा थीं। इस कॉलोनी की बदनामी में कई तथ्य उभर कर सामने आते हैं। 

* खाली घरों में असामाजिक तत्वों का अतिक्रमण एवं उनका अनैतिक कार्यों में उपयोग किया जाना, जिसके चलते महिलाओं के आसपास माहौल बिगड़ा। चर्चा में एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी उभरकर आया था कि कॉलोनी के कुछ ब्लाक उन पुरुषों को आवंटित हैं, जिनकी औरतें मर गई थीं। उन पुरुषों के ब्लाक के ज्यादातर घर या तो खाली पड़े रहे या उनमें अनाधिकृत कब्जे हुए। उन्हीं में ताले तोडक़र भी लोग रहने लगे- असामाजिक गतिविधियों की शुरुआत कुछ ऐसे ही कब्जे वाले घरों से शुरू हुई थी।

* अत्यन्त गरीबी, बेसहारा  और छोटे बच्चों के पालन-पोषण में परेशानी आने पर वे कई बार कुछ समर्थ लोगों से मदद मांगती हैं। यह आशंका प्रबल है कि मदद की कीमत के रूप में वह यौन सम्बन्ध के लिए बाध्य हो। एक गलत शुरुआत आगे जाकर एक सतत प्रक्रिया में बदल जाए। ऐसी रिलेशनशिप जब लोगों के ध्यान में आती हैं तो दूसरे लोग भी अपने लिए सहज उपलब्धता मानकर चलते हैं। जैसा कि यहां हुआ भी। 

* जैसा कि आमतौर पर ऐसे हालातों में होता है, पति के रिश्तेदारों, मित्र या पड़ोसी भी औरत के अकेलेपन का फायदा उठाते हैं। यहां भी कई अनुभव ऐसे ही सामने आए, जब हादसे की शिकार अकेली औरत के घर ऐसे शुभचिंतकों की आवक बढ़ी। इससे दूसरे लोगों की धारणाएं गलत बनीं, लेकिन कुछ मामलों में यह बेवजह भी नहीं थीं।

* असामाजिक तत्वों की आवक से स्थानीय पुलिस प्रशासन बेखबर रहा। जब धीरे-धीरे यहां की कुख्याति बढ़ी तो पुलिस हमेशा आंखें मूंदे रही। पुलिस भी यह मानकर चली कि इन औरतों को सहारे की भी जरूरत है और अपना खर्च चलाने के लिए रुपयों की भी।

* कई बार दमित यौन कुण्ठाएं औरत को मानसिक सन्ताप देती हैं, जिससे मुक्त होने के लिए वह स्वयं किसी सम्बन्ध की पहल कर बैठती है जो उसके चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। 

भोपाल में मुख्य शहर से सात-आठ किलोमीटर दूर  सिर्फ औरतों के लिए अलग पुनर्वास देते वक्त यह विचार किया जाना हमारी पहली प्राथमिकता होना चाहिए था कि इनकी हिफाजत का क्या होगा। पुरुष सत्तात्मक समाज में ऐसी बस्ती या ऐसी कॉलोनी का भविष्य क्या होगा? कॉलोनी की एक रहवासी कहती हैं-हम १९९० से यहां रहने आए हैं। तब से अब तक आपको बता नहीं सकती कितने कष्ट उठाए हैं। केवल घर दे दिए गए थे। न बाजार था, न दुकानें। न बस आती थी। न ऑटो वाले। बच्चों को स्कूल भेजना, रोज अस्पताल जाना और गुजारे के लिए खुद कामकाज ढूंढना। सब कुछ असंभव जैसा था।  

सरकार ने मुआवजा दिया और एक दो कमरे का घर दे दिया तो क्या जीवन चलाना आसान हो गया? घर चलाने, बच्चे पालने और खुद का पेट पालने के लिए क्या ये दो निर्जीव वस्तुएं पर्याप्त हैं? मुआवजा तो दवा और डॉक्टर में ही चला गया और घर एक छत भर है पर छत के नीचे-चूल्हा भी होता है। एक आग पेट की भी होती है, जिसे बुझाने के लिए आमदनी का जरिया चाहिए। किसी का पति मरा, किसी का बेटा, किसी की बेटी, किसी के माँ-बाप मर गए। वो लोग हताश निराश यहाँ रहने आ भी गए तो भी उनकी मुश्किलें ज्यों की त्यों बनी रहीं। एक और रहवासी कहती हैं, हम पर ‘बेचारी विधवाएं’ शब्द चस्पा हो गया था। जब भी कानों में पड़ता, लगता कि गाली दी गई हो।  

 एक और महिला ने बताया कि ऑटो वाले इधर आते ही नहीं थे। शहर जाने में परेशानी होती थी। काम यहां मिलता ही नहीं था, काम देता कौन? सभी एक जैसे थे। सबको काम धन्धा चाहिए था। पैदल चलकर आसपास के मोहल्लों में  घर का बर्तन-कपड़ा, झाडू-पौंछा करके घर चलाया। सौ-डेढ़ सौ रुपए महीने में यह काम किया। पैदल जाते, पैदल आते। आते वक्त साग-भाजी, राशन उठा कर लाते या बच्चे सायकल पर रखकर साथ चलते। फिर यहां लोगों की आवाजाही बढऩे लगी। 

खाली पड़े मकानों में असामाजिक तत्वों ने अनाधिकृत रूप से कब्जे कर लिए। कौन लोग? पूछने पर वे एक-दूसरे का मुंह देखती हैं जैसे बताने से पहले ये परखना चाहती हैं कि कोई मुसीबत तो नहीं आएगी? फिर कहती हैं, कब्जा कौन लोग करते हैं? सभ्य और अच्छे लोग तो करते नहीं? बदमाश, चोर, उचक्के, गुण्डे-मवाली या वे जो डण्डे और चाकू चलाने में माहिर होते हैं और वे जिन्हें पुलिस का संरक्षण प्राप्त होता है।

सच ही तो कह रही थीं.... भूत-पलीतों का डेरा ऐसी ही कमजोर बस्तियां तो होती है..... ऐसे लातों के भूत भगाना कितना मुश्किल होता है। उनका कहना था कि उन सब के आने के बाद कॉलोनी में वे सब काम शुरू हो गए जो असामाजिक होते हैं। यहां तक की गतिविधियाँ होने लगी कि शहर से आने के लिए अगर आने-वाले से कहते हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी जाना है तो वे फिकरा कसते थे अच्छा ‘वेश्या कॉलोनी’ जाएगी। विधवा कॉलोनी बदनाम होने लगी थी। 

कुछ घर जो पुरुषों को आवंटित थे, उनमें वे रहने के लिए आए नहीं, कुछ में पुलिसवाले घुस गए थे और कुछ में गलत लोग आ गए थे। आज भी बहुत से घर अनाधिकृत लोगों के कब्जे में हैं। कुछ बेच दिए गए...देखने वाला ही कोई नहीं था। एक बार आवंटित किए और रामजी कर गए जिम्मेदार लोग...सरकार तो घर देकर गंगा नहा ली पर रहवासी मुश्किलों की दलदल में जा फंसे...औरतें, बच्चे, जवान, बहू-बेटियां ‘छेड़छाड़’ की शिकार होने लगीं। सडक़ों से उनका गुजरना और घरों की दहलीज पर खड़े होना भी दूभर हो गया। ज्यादातर लोगों के लिए यह एक कैद की तरह थी। पूरी कॉलोनी अपमानजनक खुले कारागार की तरह थी। किसी के आने जाने पर कोई रोक-टोक नहीं थी। सुरक्षा के लिए कोई इंतजाम नहीं।

ये महिलाएं दबे स्वर में अपनी आपबीती बता रही थीं मुझे कि नाम न आ जाए हमारा। वे लोग चाकू अड़ा देते हैं। बच्चों वाले हैं हम, नई मुसीबत नहीं मोल लेनी हमको। आप नाम मत छाप देना हमारा...। हाथ के इशारे से उन्होंने बताया कि ‘उस तरफ हैं कुछ घर जिनमें खराब औरतें आकर रहने लगी हैं। इनके कारण पूरी बस्ती बदनाम हुई। बाहरी लोग तो यहां रहनी वाली सब औरतों को एक जैसा ही समझते हैं।’

‘कैसे?’

‘गुण्डे जहां आ जाएं वहां ऐसी औरतें लाने में कौन-सी देर लगती है?’ उन्होंने कहा।

ओह!

 एक ने बताया कि एक बार शाम को एक पुलिसवाला ही नशे में धुत मेरे गले पड़ गया। मैं चिल्लाई जोर से और एक लात मारी। भला हो, पड़ोस वाली भाभी का कि वे आईं और मामले को संभाला। वह कमीना एक बार तो गिर पड़ा जमीन पर। उठा तो हिम्मत देखिए कि चांटा भाभी के गाल पर मारा उसने। लोग इकट्ठे हो गए। 

फिर तो संगठन ने हमारी मदद की और हम औरतें धरने पर बैठ गईं। अब तक सस्पेंड है वह।  कुछ बहनें अपनी पीड़ा को बयां करती हैं। कुछ वह भी नहीं कर पाती। इन महिलाओं के अनुभव करीब-करीब एक जैसे हैं। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि मैं किससे बात करूं और कहां न करूं। कौन किस तरह के लोग हैं, जो यहां आकर बस गए हैं। 

यह एक कड़वी सच्चाई थी। निहत्थी, अकेली और बेसहारा औरतों को देख दबंगों ने अपने डेरे यहां जमा लिए। सोचा होगा कि ये मजलूम हमसे क्या पंगा लेंगी। ये तो मुआवजों की लड़ाई में ही मरखप जाएंगी। ये एंडरसन को जिन्दा या मुर्दा भारत में पेश करवाने के लिए झण्डे, डंडे और रैलियाँ निकालने और नारे लगाने में ही खत्म हो जाएंगी। 

करीब ६५ वर्षीय एक महिला ने कहा, हमारे घर के सामने एक दुकान है। पास में एक शख्स जोर-जोर से गंदे गाने बजाता है। पहले उसका बाप मुझे छ़ेडता था। अब छोरा मेरी बेटी को परेशान करता है। एक दिन उसका पीछा करता हुआ गया और बोलता है ‘ऐ आती क्या खण्डाला? हम सख्ती से पेश भी नहीं आ सकते, क्योंकि रहना यहीं है। यहां कानून का राज नहीं चलता। हम किस-किससे उलझेंगे और किसके भरोसे? उसने बताया कि बेटी के लिए पास के गांव में रिश्ता तय कर दिया। पर वह वहां भी पहुंच गया।’

 इन महिलाओं को भलीभांति पता है कि आजकल किस मकान में महंगी कारों में लड़कियां आती हैं। घण्टे दो घण्टे बाद वे चली भी जाती हैं। कई दफा इसकी शिकायतें की गईं। एक बार छापा तक पड़ा। कुछ लोग पकड़े भी गए। पर थोड़े दिनों बाद फिर ताले तोड़ के घुस जाते हैं। वे कहती हैं कि बिना पुलिस की मिलीभगत के यह मुमकिन नहीं है।

कॉलोनी में एक और दिन मुलाकात का। आज जिनसे बात हुई उन्हीं के घर में पाँच-छह महिलाएं आकर बैठ गईं। एक ने बताया कि वे १९९० से कॉलोनी में रह रही हैं। पति हादसे के आठ दिन बाद गुजर गए। तीन बेटे एक बेटी थी। दस-दस रुपए में पूरी बेलने जाती थीं। यहां से पैदल जाती पैदल आती। घर चलाना मुश्किल था। यहाँ पढ़ाने की व्यवस्था नहीं थी। भीषण गंदगी। पीने का पानी भी नहीं था शुरू में। गैस ने मेरे घर से तीन लोग छीन लिए। आठ साल बाद बेटी भी चली गई। बेटा भी चला गया। ये बच्चे पल गए बस यही एक बात है। दुख का कोई आर-पार नहीं। एक दुख हो तो बताएं। बच्चों को पाला तो, पर पढ़ा नहीं पाए। 

 ठाकुर परिवार की ये महिला ऊंची पूरी गौरवर्णी स्वस्थ सुंदर व्यक्तित्व की हैं। आंखें पोंछते हुए कहती हैं - ‘हम तलैया में रहते थे। गैस के १४ दिन के बाद पति खत्म हो गए थे। उन्हें गैस ज्यादा लगी थी। वे पूरी तरह अंधे हो गए थे। बड़ा बेटा बीस साल का था तब। वे एक अखबार में नौकरी करते थे। पाँच बच्चे हैं मेरे। तब पाँच साल की एक बेटी भी थी। चौका बर्तन करके, लोगों की रोटी बनाकर बच्चे पाले। मुआवजा एक लाख रुपए मिला था पर उससे क्या होता? पांच पीडि़तों के घर कब तक चलते? डॉक्टर व दवाई की भेंट चढ़ गए। गैस मुझे भी लगी थी। हार्ट अटैक भी आ चुका है, इलाज अब तक चलता है। चौका बर्तन में मिलता ही कितना है। बड़े घरों में एक दिन के नाश्ते पर जितना खर्चा होता है, उसका आधा भी महीने भर में घरेलू नौकरानी को नहीं दिया जाता। बीमारी में नागा अलग काट लेते हैं। हम जिन हालातों का सामना करते हुए निकले हैं, किसी को हम पर दया नहीं आई। कैसा अजीब समाज है हमारा और कैसी सरकारें हैं। इसे हम आजादी कहते हैं? कितनी सरकारें आईं-गईं। हमने कुछ भी बदलते हुए नहीं  देखा। सरकारें काहे के लिए बनती हैं, यही समझ में नहीं आया।

जुनिया बाई-मंगलवारा में रहती थीं। अब पुनर्वास कॉलोनी में हैं। एक आंख की रोशनी गैस के कारण चली गई। पति चाक चलाकर मिट्टी के बर्तन बनाते थे। वह चाक आज भी उनके आंगन में मौजूद है।  अब वह बर्तन नहीं गढ़ता केवल पूजा जाता है। जुनिया बाई कहती हैं चाक बेचा नहीं गया मुझसे। हम बेघर हुए थे पर प्रजापति की घरवाली चाक को घर से बेदखल नहीं कर पाई। उनकी उंगलियों के निशान चाक पर लगी गीली मिट्टी पर बने हैं। छह बच्चों का जिम्मा था मुझ पर। पति को खून की उल्टी होती रही। एक माह के अंदर ही मिट्टी से खेलने वाला मिट्टी में मिल गया। पति के अलावा देवर देवरानी भी मरे। उनके भी पांच बच्चे पालने थे। क्या करती? बर्तन गढऩा नहीं सीखा था कभी? हां, उनके लिए मिट्टी जरूर तैयार करती थी। उसी मिट्टी से फर्मा बनाकर रात-दिन गुल्लक बनाती, उन्हें रंगती और बच्चे बेच आते और घर की दाल-रोटी का इन्तजाम करती। 

रोशनपुरा में बर्तनों की दुकान थी, वह अब भी है। वहां बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ रहता है। वह छोटा था, चाक चलाना नहीं सिखा पाए थे पिता। इसलिए गुजरात से लाकर मटके बेचता है। छ: अपने और पांच बच्चे देवर के थे। इतने बच्चे पढ़ाती कैसे? पल गए इसी बात का संतोष करती हूं। यह घर पैंसठ हजार रुपए जमा करने पर मिला। एक लडक़ा आज तक बीमार रहता है। एक लाख रुपए मिले थे मुआवजे के, बाद में ६० हजार और मिले। मुश्किलों के आगे यह रकम मामूली ही थी...

छोला नाका की रहने वाली लक्ष्मी ठाकुर। हादसे वाली रात को याद करते हुए कहती हैं कि मूंग की दाल देखती हूँ तो आंखों में धुआं आ जाता है। उस रात मूंग दाल और रोटी ही बनाई थी, एक बच्चा पान की दुकान पर काम करता था, वह अकेला बचा था रोटी खाने वाला। पति रेलवे में काम करते थे, कुछ गड़बड़ हो गई थी नौकरी से सस्पेंड हो गए थे। वे घर पर ही थे। हम सब सो गए थे खाना खा कर। १२ साल का बेटा पान की दुकान से आकर देर रात रोटी खाता था। वह भागता हुआ घर आया और हम सबको जगाया। उसी ने बताया कि कारखाने से गैस निकली है, जल्दी भागो नहीं तो मर जाएंगे। उसने छोटे भाई-बहनों को भी उठाया। एक दूसरे का हाथ पकड़ चार साल, तीन साल, दो साल के मेरे बच्चे भाई का हाथ पकडक़र भागे। हम सब हबीबगंज की तरफ भागे थे कि कोई ट्रेन खड़ी होगी तो उसमें बैठ कर चले जाएंगे। बच्चे तो भागते रहे पर उनके पिता रास्ते में ही बीमार पड़ गए और अगले दिन चले गए। 

अब मेरे दो लडक़े, दो लड़कियां हैं। ऊपर वाले ने उन्हें बचा लिया पर जो चले गए उनका कोई मुआवजा नहीं दे सकता। आज भी वह बेटा पान की दुकान चलाता है। यदि वह अपनी जान की परवाह किए बगैर घर नहीं आता तो हमें नहीं बचा पाता। उसी बारह बरस के मासूम ने बाप बनकर बच्चों को पालने में मदद दी। वह मूंग की दाल उस दिन यूं ही कटोरे में पड़ी रही। वह बेटा उसके बाद कई दिनों तक रोटी नहीं खा पाया था। 

एक दिन मैं मिली चिरोंजी बाई से। वे भी यहां सन् १९९० से रह रही हैं। घर के सामने वाले बरामदे को उन्होंने कमरे में बदल दिया है। घर में अब बहू बच्चे सब हैं। कभी टीला जमालपुरा में रहती थीं। हादसे की रात मोहल्ले में बारात आ रही थी। रात चौका बर्तन निपटा कर बच्चों के साथ बारात का नाच गाना देख रहे थे सब। पति चाय की दुकान चलाते थे चौक बाजार में। वे दुकान बंद कर घर आए, खाना खाया और रजाई ओढ़ के सो गए। दुकान अच्छी चलती थी, चार-पांच लडक़े काम करते थे दुकान पर। वे थक कर चूर हो जाते थे सारा दिन काम करते हुए। 

गैस की आहट खांसी की शक्ल में हुई। मैंने फिर उठाया उनको तो जोर से चिल्लाए। उन्होंने कहा और मैंने दरवाजा खोल दिया। दरवाजा खोलते ही जैसे घर में कोई बम फटा हो। ढेर सारा धुआं बागड़ बना कर दरवाजे के बाहर अटका था। वह घर में भरने लगा। थोड़ी देर बाद पुलिस की गाड़ी ने ऐलान किया कि कारखाने में गैस रिसाव हो गया है। जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर जाएं...पर सुरक्षित जगह कौन सी थी किसी को नहीं मालूम था। मैं बच्चों को लेकर भागी। दो-ढाई बजे हम सब शाहजहांनाबाद पहुंचे एक रिश्तेदार के घर। पति ट्रक में चढक़र बैरागढ़ की तरफ भाग गए थे। थके मांदे रातभर जागे हुए अगले दिन वापस आए घर पति को ढूंढने। 

वे नहीं थे घर पर। सबकी आंखें बंद होने लगीं और नहीं पता कौन कब हमें हमीदिया अस्पताल में भर्ती करवा गया। तीन दिन सब भर्ती रहे। वापस घर आए तो पति हमको ढूंढ रहे थे, उनको सबसे ज्यादा गैस लगी थी। उनको अगले दिन लकवा लग गया और आठ माह बाद वे चल बसे। उनका एक लाख मुआवजा मिला। आप ही बताइए एक स्वस्थ कमाते खाते परिवार पालते आदमी की कीमत लगाई गई सिर्फ एक लाख रुपए? बच्चों को २५ हजार। जीवन है या भार? कीड़े-मकोड़े की मौत मार डाला लोगों को और मौत का ऐसा मोल-भाव किया। एक बेटा १२ साल पहले दमे में मर गया। बेटी की शादी की, सालभर में वह भी मर गई। वह एक तस्वीर दिखाती है-देखो, यह है मेरा परिवार, जो एक साथ घर की दीवार पर टंगा है। साल-दो साल उद्योग चलाने की नौटंकी चली फिर सिलाई केन्द्र बन्द करने की घोषणा हो गई। दस रुपए रोज में पूरी बेलने यहां से पैदल जाती थी। बारह साल के बच्चे ने फिर मजदूरी की, दुकान चलाई, तब घर चला। मकान के नाम पर ६५ हजार दिए, तब पट्टा मिला... पर मालिकाना हक बाकी है। लड़ रहे हैं अभी भी पट्टा नहीं। हम इस मकान के मालिक नहीं हैं।  

एक और आवासहीन पीडि़ता ने अपनी आपबीती सुनाई, मैंने तो १२ साल बाद ये मकान किसी से खरीदा है। मुझे तो मुआवजे के अस्सी हजार मिले थे। हर महीने सात सौ रुपए मिलते थे उन्हीं से घर चलाया। गाय, भैंस थी घर में। हादसे के  बाद घर लौटे तो जानवर मरे पड़े।  गैस के प्रभाव से बाद में लडक़ी भी मर गई। पति टेलर का काम करते थे। भोपाल के लोगों ने उन दिनों गैस प्रभावित लोगों की खूब सेवा की। कोई दरवाजे पर दूध के पैकेट रख गया, कोई हलवा-पूड़ी-साग बांट रहा था। कोई कभी ब्रेड के पैकेट दे जाता था। पति तो तभी खत्म हो गए थे। एक लाख बाद में भी मिले। पर घर नहीं मिला था। घर मैंने खरीद लिया। हालांकि मैं जानती हूँ ये पट्टे के मकान हैं इन्हें बेचा या दान नहीं किया जा सकता, पर यहां की दुर्दशा से लोग बेच देते हैं। दूसरे गैस पीडि़त खरीद लेते हैं। पट्टा ले लेते हैं। हमारी मांग है, हमें रजिस्ट्रियां करवा कर मकान का मालिकाना हक चाहिए।

रशीदा सुलताना कहती हैं कि हादसे के दिनों में न कोई हिन्दू था, न मुसलमान। तब सारे लोग सिर्फ केवल भोपालवासी थे। केवल एक अहसास था कि हम सब पीडि़त हैं। हादसे के तुरंत बाद ऐसा लगा कि अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते दरवाजों पर आए। उन्होंने हमारी मदद की। अस्पताल पहुंचाया। हमारे बिछुड़े हुए लोगों की खोज में हाथ बटाए। जिनके घर मौतें हुईं, उन्हें सहारा दिया। इज्जत से अंतिम संस्कार के इंतजाम किए। हालांकि सब परेशानहाल थे फिर भी कुछ लोग सिर्फ सहारा बनकर सक्रिय थे। उस वक्त वे हिंदु या मुसलमान नहीं, सिर्फ इंसाान बनकर मदद कर रहे थे। ऐसा ही जज्बा हम हमेशा क्यों नहीं बनाए रख पाते। 

दान पत्रों पर हुआ सौदा


हाउसिंग बोर्ड ने दड़बेनुमा इन मकानों का निर्माण करते समय सीवेज और पीने के पानी की पाइप लाइनों में निकासी की उचित व्यवस्था नहीं की थी। जिससे कहीं-कहीं सीवेज और पाइप लाइन मिल गई हैं। वे गंदा पानी पीने को विवश हैं। एक तो वे पहले से ही अस्वस्थ हैं, इस प्रदूषण का भी उनके स्वास्थ्य पर अत्याधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है। ६५ वर्षीय रईसा बी के अनुसार नगर निगम उनसे पानी के लिए १५० रुपए प्रतिमाह ले रहा है। रोजगार नहीं है, ऊपर से पानी के लिए १५० रुपए कहां से लाएं। वे चाहती हैं कि उन्हें नि:शुल्क पेयजल उपलब्ध हो। यही कहना है ५० वर्षीय कुसुमलता का। गैस पीडि़त बेसहारा औरतों को ७५० रुपए प्रतिमाह मासिक पेंशन मिलती थी, लेकिन अब वह भी बंद है। राहत विभाग ने रोजगार के लिए शेड इत्यादि बनाये थे, जहां अब ताला लगा है। किसी के यहां दिन में एक बार चूल्हा जलता है तो कोई असामाजिक तत्वों और दबंग लोगों से परेशान है। कॉलोनी की तीस महिलाओं के मकानों पर दूसरों ने जबरन कब्जा कर रखा है। पुलिस में गुहार लगाने से भी न्याय नहीं मिला। अनेक महिलाएं जिनके परिवार में सभी की मृत्यु हो चुकी है, यहां रहने से घबराती हैं। 

वक्त कितना गुजर गया। एक सरकार बनती है, चली जाती है, लेकिन पीडि़तों की मुश्किलें कम नहीं हुईं। आज आवश्यकता इस बात की अधिक है कि गैस पीड़ितों के आर्थिक पुनर्वास और चिकित्सा सुविधाओं को जुटाने के हर संभव प्रयास किए जाएं। अब तक अरबों रुपए गैस पीडि़तों के पुनर्वास पर खर्च करने के बाद भी स्थिति यह है कि हम जीने लायक स्वस्थ पर्यावरण भी मुहैया नहीं करा पाए हैं।  जो कार्यक्रम मध्यप्रदेश सरकार ने चलाए थे वे पूर्णत: असफल साबित हो चुके हैं। आवास कॉलोनियां यातना शिविरों से कम नहीं। 

भीख मांगने पर मजबूर


तीस करोड़ की लागत से यह कॉलोनी बसाई गई थी। आज इसके पांच सौ से अधिक मकान दानपत्रों के माध्यम से बेचे जा चुके हैं। नत्थी बाई पति श्याम निवासी राजेन्द्र नगर को ही लीजिए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम की मौत हादसे में हुई तो उसकी बीवी को मकान आवंटित हो गया। उन पर इतना कर्ज हो गया कि वे मकान बेचकर चली गर्ईं और उज्जैन में भीख मांगकर गुजारा करते हुए शरीर त्याग दिया। एक और महिला पार्वती बाई की कहानी भी ऐसी ही है। पार्वती बाई को यहां मकान आवंटित किया गया। अकेली महिला ने जीवन-यापन के लिए मकान बेचा और इसी कॉलोनी में भीख मांगकर गुजारा करती रही। आज भी यह महिला किसी के बरामदे में पड़ी नजर आ जाएगी। हुस्नबानो को एल ५१ नम्बर आवंटित हुआ था। परिवार में झगड़े बढ़े तो उन्होंने मकान जयराम को बेच दिया। हुस्नबानो अब कहां हैं, किसी को भी नहीं मालूम। गुलाम नबी अंसारी ने मकान लईक भाई को बेच दिया तो शांति बाई के मकान में आज दिल्ली से आए सलीम निवास कर रहे हैं। लगभग पांच सौ मकानों के सौदे हुए और प्रशासन या गैस राहत विभाग को खबर नहीं हुई। जिस तरह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्याम की पत्नी जहां भीख मांगते हुए उज्जैन में काल के गाल में समा गई, वहीं कपड़ा मिल के श्रमिक बाबूलाल की पत्नी कस्तूरी बाई ने मकान बेचकर होशंगाबाद में नर्मदा तट पर भीख मांगते हुए देखी गईं। उनकी वहीं मौत हो गई। 

अस्सी हजार के मकान बिके कौडिय़ों के भाव। गृह निर्माण मंडल ने  प्रत्येक आवास की कीमत ७८ हजार १६५ रूपए बताई थी। बाद में जब मकानों के बिकने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों ने कौडिय़ों के दाम यह मकान खरीदे। 

वह एक चबूतरे पर बैठी मिली थी मुझे। बात करने की असफल कोशिश की थी मैंने पर वो केवल एक गीत की पंक्तियां गुनगुना रही थीं। एक ऑटो वाला मेरी मंशा समझ गया। रुककर बोला बहनजी अम्मा सुनती नहीं है। बस बड़बड़ाती है। यहां-वहां सडक़ों पर  घूमती रहती है। अकेली है अब।  वह जो बड़बड़ा रही थी वह कुछ-कुछ ऐसा, शायद कोई शोक गीत-

   कैसा सोया रे प्राणीला, कैसी निद्रा लागी।।
   ताम्बा पीतल शीशे अती घणो, कछु कामनी आयो,
   काम आयो रे माटी को धड़ों, थारा संग फूटी जाए।

 काश किसी ने सुनी होती


 डॉ. कुमकुम सक्सेना दुर्घटना से पहले यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में चिकित्सा अधिकारी थीं। उन्होंने पहले ही चेतावनी दे दी थी सुरक्षा उपायों के विषय में और उनके उपायों की अनदेखी कर दी गई। काश कि उनकी बात पर ध्यान दिया गया होता। डॉक्टर सक्सेना को ऐसे ही किसी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ने सचेत कर दिया होगा। उन्होंने यूनियन कार्बाइड में काम करते हुए महाविनाश की आशंका का पूर्वानुमान लगा लिया होगा, तभी तो हादसे के पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि फैक्ट्री में उनके द्वारा बताए गए सुरक्षा उपायों की अनदेखी की गई थी। हादसे की रात एक स्थानीय चिकित्सालय में उन्होंने लोगों पर इस जहरीली गैस के प्रभाव को करीब से देखा था। डॉक्टर सक्सेना ने १९८५ में भोपाल छोड़ा दिया और उसके बाद वे अमेरिका के एक अस्पताल में काम करने लगीं।  

सवाल, समस्याएं और विमर्श


यौन छेड़छाड़ पर स्त्री-विमर्श की दृष्टि से समाजशाीय विश्लेषण करते हुए तसलीमा ने लिखा, ‘छेड़छाड़’ को भारतीय उपमहाद्वीप में ‘ईव टीजिंग’ कहा जाता है। इस कुत्सित हरकत को ‘ईव टीजिंग’ कहकर माफ नहीं किया जा सकता। यह कोई रूमानी हरकत नहीं है। भारत जैसे देश में आखिर इसे गुनाह क्यूं नहीं समझा जाता। जो लडक़े सेक्सुअल शरारतें करते हैं वे लोग तो इसे ही ‘स्वाभाविक’ समझ कर करते हैं। सुनने वाले भी प्रतिवाद नहीं करते, बल्कि कई बार उस छेड़छाड़ में शामिल हो जाते हैं। 

जो लोग ऐसे वक्त पर भी जुबान पर ताला जड़े बैठे रहते हैं। विरोध या प्रतिवाद नहीं करते यह भी एक किस्म का समर्थन ही होता है। जो लोग यह कह कर बच निकलते हैं कि कौन मुसीबत मोल ले, या हमारी हिम्मत नहीं होती। पर उन्हें याद रखना चाहिए कि उनका मौन समर्थन समाज को कितना महंगा पड़ता है। इन असामाजिक कृत्यों में लिप्त लोग अनदेखी के चलते ही बड़ी वारदातों के लिए आजाद रखे जाते हैं। सवाल यह है कि अपराध रोकेगा कौन? जब रोकने वालों पर से ही विश्वास उठ जाए? हमने विधवा कॉलोनी की महिलाओं से सुना कि किस तरह पुलिस के लोगों का असभ्य व्यवहार सामने आया। वो भी ऐसी संवेदनशील जगह पर। 

बार्नर और टीटर्स का कथन महत्वपूर्ण है, अपराध एक इस प्रकार का समाज विरोधी व्यवहार है जो कि जनता की भावना को इस सीमा तक भंग करें कि उसे कानून द्वारा निषिद्ध कर दिया गया हो। यहां यह सुनिश्चित होता है कि इस तरह के अपराध और अपराधी दोनों का संबंध समाज के संदर्भ में होता है। इन सबके बावजूद बड़ी संख्या में लोग इन सबके बीच रहते हैं, शायद भगवान के ही भरोसे। 

२००६ की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत में पुरुष जहां औसतन ६/३१ घं.मि. खटता है वहां स्त्री ७/३७ घं.मि. खटती है। नारी का यह खटने वाला अनुपात (पुरुष को १०० मानक पर रखते हुए) ११७ हैं। इससे समझा जा सकता है कि महिलाओं पर श्रम का भार कहीं ज्यादा है।  ऊपर से स्वयं के घर का घरेलू कामकाज और मातृत्व के उत्तरदायित्व अलग। यही इन महिलाओं की भी विडम्बना है कि असंगठित क्षेत्र में स्त्रियां श्रम शोषण करने पर भी संगठित होकर विद्रोह नहीं कर पातीं। कारण गरीबी, मजबूरी और शिक्षा की कमी ही है।

स्वाति तिवारी

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