मनुष्य की नियति और जीवन दर्शन ही विश्व सिनेमा का मूल मंत्र बना हुआ है।
‘ब्लू इज द वार्मेस्ट कलर’ की 15 वर्षीय नायिका अदेल की जिंदगी उस रात अचानक बदल जाती है जब वह नीले बालों वाली एक महिला एम्मा से मिलती है। एक औरत के रुप में संपूर्णता की ओर यात्रा करते हुए दो स्त्रियों के मित्र संसार को फिल्म में प्रमुखता से पकड़ने की कोशिश की गई है। यह फिल्म जूली मारो के उपन्यास पर आधारित है। यह भी एक संयोग ही है कि सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीतने वाले मैक्लिकन फिल्मकार अमात एस्कुलांते की फिल्म ‘हेली’ की नायिका भी एक बारह साल की लड़की है जो पुलिस के एक रंगरुट के इश्क में पागल है। दूसरी ओर ईरानी फिल्मकार असगर फरहादी की फिल्म ‘द पास्ट’ में अविस्मरणीय अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार पाने वाली बेरेनीस बेजो ने एक ऐसी तलाकशुदा मां का किरदार जिया है जिसकी बेटी के साथ जटिल रिश्ते हैं। याद रहे कि असगर फरहादी को पिछले वर्ष - ‘सेपरेशन’ के लिए आस्कर अवार्ड मिल चुका है। विखंडित दांपत्य पर लगता है उनकी मास्टरी हो गई है। जूरी का विशेष पुरस्कार कोरे एडा हीरोकाज की जापानी फिल्म ‘लाइक फादर लाइक सन’ को मिला। यह फिल्म एक ऐसे अमीर आदमी की पिता के रुप में पहचान की खोज के बारे में है जिसे अपने बेटे के जन्म के छह साल बाद पता चलता है कि वह उसका असली पिता नहीं है। अलेक्जांडर पायने की अमेरिकी फिल्म ‘नेब्रास्का’ में अतीत मोहग्रस्त बूढ़े की भूमिका के लिए ब्रूसडेर्व को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए जिया झंगके की चीनी फिल्म ‘अ टच आफ सिन’ को चुना गया जिसमें अति विकास की आंधी में सामाजिक विखराव पर फोकस है। ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ से कंबोडिआई फिल्म ‘द मिसिंग पिक्चर’ (रिशी पांह) को अवार्ड दिया गया जो एक सामूहिक नरसंहार का वृतांत है।
कान फिल्मोत्सव में इस वर्ष की पुरस्कृत और प्रतियोगिता खंड की बाकी फिल्मों पर नजर डालें तो हमें विश्व सिनेमा के वर्तमान की एक स्पष्ट तस्वीर बनती दिखाई देती है। हिंसा और सेक्स, राजनीति और बाजार को पीछे छोड़ते हुए अधिकतर फिल्में मानवीय रिश्तों की जटिल दुनिया की सच्चाई को फोकस में ला रही हैं। इस दुनिया में मनुष्य के होने का दर्शन महत्वपूर्ण हुआ है। सेट, डिजाइन, तकनीक की भव्यता की जगह गंभीर पटकथाओं ने ले ली है। हम देख पा रहे हैं कि सफलता और पैसे के लालच पर सवार आधुनिक उपभोक्तावाद की क्या सीमाएं हैं। अधिकांश फिल्में अपनी सशक्त पटकथाओं के कारण महत्वपूर्ण है। इसीलिए अधिकांश पटकथाएं किसी न किसी किताब पर आधारित है।
इस बार कान में महिला फिल्मकारों की जबरदस्त भागीदारी चौकानेवाली है। सोफिया कपोला (अमरीका) की ‘द ब्लींग रिंग’, क्लेरिया ब्रूनी तेदेशी (इटली) ‘ए काशल इन इटली’, फ्लोरा लाऊ (चीन) बेंड्स, क्लेयर डेनिस (फ्रांस), ‘बास्टर्ड’ सहित दर्जन भर महिला फिल्मकारों की फिल्मों का ‘आफिशियल सेलेक्शन’ में चुना जाना खुशी की बात है। स्त्री फिल्मकारों की निगाह से मर्दवादी दुनिया को देखना काफी महत्वपूर्ण हो सकता है।
यहां दो महत्वपूर्ण फिल्मकारों की नई फिल्मों की चर्चा करना जरुरी है। रोमन पोलांस्की की नई फिल्म ‘वेनिस इन फुर’ पेरिस के एक थियेटर में नाटक की रिहर्सल के दौरान एक साहसी अभिनेत्री के रुपांतरण की कथा है। एक लेखक-निर्देशक और उसकी नई अभिनेत्री के रिश्तों की जटिलता में पोलांस्की कला की दुनिया का अंतरंग दिखाते हैं। अपनी पहली ही फिल्म ‘सेक्स, लाइज एंड विडीयोटेप’ (1989) से विश्वप्रसिद्ध हो जाने वाले अमेरिकी फिल्मकार स्टीवन सोदबर्ग की नई फिल्म ‘बिहाइंड द कैंडेलाब्रा’ समलैंगिक विषय वस्तु के अलावा लाल एंजेल्स के पियानो स्टार लेबेरेंल की अय्याश जीवनशैली और एकांत मृत्यु को फोकस करती है। इस फिल्म में माइकल डगलस ने अच्छा काम किया है।
पाऊलो सोरेंटीनों की इटेलियन फिल्म ‘द ग्रेट ब्यूटी’ में एक ओर जहां पूर्व प्रधानमंत्री बर्तुस्लोस्की की रंगीन जीवन शैली है तो दूसरी ओर स्त्री के सेक्स एवं सौंदर्य का महान इतालवी फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी का सौंदर्य शास्त्र। आश्चर्य तो तब होता है जब हर अतिरेक की पृष्ठभूमि में जीवन दर्शन पर फिल्मकारों की पकड़ काफी मजबूत दिखाई देती है।
जापान के तकाशी मीके की ‘शील्ड आफ स्ट्रा’ जैसा थ्रिलर दुर्लभ है। हमें साक्षात गीता का दर्शन याद आता है कि इस महाभारत में हर कोई अपना फर्ज निभा रहा है। मारनेवाला भी और बचानेवाला भी।...
कान फिल्मोंत्सव को भारत से अच्छी फिल्मों की आमद का इंतजार कुछ लंबा हो चला है।
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