अठन्नी
- लीना मल्होत्रा रॉव
आत्ममुग्ध सदस्यों वाला वह हमारे सामने का घर था। ९० डिग्री पर लम्बवत। दरवाज़े उन दिनों खुले ही रहते थे, आते जाते उनके घर की सभी गतिविधियाँ दिखती रहती थी। वैसे भी मनोरंजन के कोई साधन तो होते नही थे। धूप हो या ठंड बच्चे सारा दिन को-कलाशी, नीली-परी लाल-परी और आईस पाईस खेलते थे माँएं खाना पकाती थी दोपहर में कपडे धोती थी, शाम को अंगीठी बालती थी उससे पहले कोयले तोडती थी, ग़ज़ब का टाईमिंग होता था सब औरते एक ही समय कपडे सुखाने छतो पर चढ़ी मिलती और एक दूसरे को मुस्कुरा कर कहती भैनजी धुल गये कपडे (भ में प और ध में त पंजाबी अंदाज़ में मिश्रित रहता) शाम को एक साथ अंगीठियाँ जलती और गली में अजीब शमशान का सा दृश्य हो जाता हर घर के सामने धुआं निकल रहा होता और औरते फिर भी हँसती और धुएँ का रुख पहचान कर अँगीठी के दूसरी तरफ बैठी मिलती ..
उस समय उनकी कंघी पट्टी हुई होती क्योंकि ये घर पर आदमियों के आने का समय होता ..कुछ औरतें सिर्फ पेटीकोट और ब्लाऊज़ में ही गली में अंगीठी जला रही होती.. फिर निर्लिप्तता को तोड़ते हुए एक संवाद का परस्पर आदान प्रदान होता - "खान दी तईय्यारी" दूसरी स्त्री उतनी ही लम्बी मुस्कराहट फेंकती "होर की"। खैर ये एक पंजाबी कोलोनी थी। सब पंजाबी औरतों के पेट आगे से निकले हुए होते और नितम्ब पीछे से दोनों में होड़ लगी रहती कौन अधिक बड़ा गोला बना सकता है। ठीक बतख जैसी गिट्ठी और गोल मटोल। यह वह समय था जब राशन की लंबी लाईनों में खड़े होकर इंतज़ार करना पड़ता था, कई बार तो इंतज़ार इतना लंबा हो जाता की खाना थाली में लगकर घर से आ जाता। उन दिनों माँ पूरे साल में दो ही बार मेरी नानी के घर जाने के लिए निकलती । नानी दूर पटेल नगर रहती थी वहां जाने के लिए बस से जाना पड़ता था। लेकिन बस भी हर बार नहीं मिलती। कई बार माँ बस की प्रतीक्षा करने के ४ घंटे बाद लौट आती और कहती बस नही मिली। उन दिनों अधिकतर पुरुष साईकिलों पर दफ्तर जाते थे, उनके कैरियर पर खाने का डिब्बा और हैंडल पर घर का सिला थैला लटका रहता। गली में कभी दुर्घटनाएं नहीं होती थी क्योंकि बहुत सीमित यातायात था, अधिक से अधिक कभी हुई भी तो साईकिल के नीचे आकर पैर दब गया जैसी ही होती थी, ऐसा इसलिए कि एक बार खेलते खेलते शामा जिसका असली नाम श्याम लाल या श्याम चन्द रहा होगा, जिसे पंजाबी लोगों ने बिगाड़ कर शामा कर दिया था जिसकी छवि उन दिनों किसी गुंडे जैसी थी की साईकिल के नीचे आकर मेरा पैर घिसट गया था और गिट्टे से खूब खून निकला था.. उसने आजकल के बी एम् डब्ल्यू की तर्ज़ पर पीछे मुड़ कर नही देखा और सरपट भगाता चला गया जैसा घिनौना काम नही किया था बल्कि मुझे दोनों बाहों से उठाकर मेरे घर के दरवाज़े पर खड़ा कर दिया था। और घर के दरवाज़े पर आते ही मेरा रोने की गति और स्वर दोनों बढ़ गये थे। माँ दौड़ती हुई आई थी उसी खूनम-खून पैर के साथ चलाते हुए मुझे डॉक्टर के पास ले जाया गया और मेरी मरहम पट्टी करवाई गई थी और उसके बाद श्यामे के घर माँ लड़ने गई थी। उन दिनों सब समस्याए उलाहने देकर या थोडा ऊंची आवाज़ में लड़कर सुलझा ली जाती थी.ऊंची आवाज़ में लड़ने का प्रयोजन उस व्यक्ति की करतूत का मोहल्ले में ढिंढोरा पीट कर उसे अपमानित करना होता था। वह असल में सामाजिक सरोकारों का ज़माना था। लोग-बाग एक दूसरे के सुख दुःख की खबर रखते थे, लड़ाई होने पर मोहल्ला इकट्ठा हो जाता था और दखल अंदाजी करके निर्णय भी सुना दिए जाते थे। उसके बाद मन ही मन कुछ दुर्बल सी दुर्भावनाओ के और कुछ क्षीणकाय दुश्मनियों के पाले खींच लिए जाते और समय आने पर यादों के थैले से प्रसंग निकाल कर कि मेरी लड़ाई में अमुक ने मेरा साथ दिया था जिसका बदला उसकी लड़ाई में उसके पक्ष में बोलकर ज़रूर चुका दिया जाता और अगर बोलने लायक मुद्दा न होता तो कुछ न कुछ नैतिकता के बोल बोलकर समझाने की मुद्रा में बात को रफा-दफा करने का प्रयास ज़रूर कर दिया जाता। लोगो में आँख की शर्म बची थी और समाज दूसरों की निगाहों से खुद को देखता था। वैसे समय में आज कल के वातावरण जैसा एक आत्म मुग्ध परिवार ठीक हमारे घर के सामने रहता था। आजकल के वातावरण जैसा इसलिए क्योंकि वह उस समय अपने समय से पच्चीस तीस वर्ष आगे जी रहा था। उन से मैं आपका परिचय करवा दूं।अंकल जी अपनी बेटियों को लेकर बहुत दिलदार थे। उन पर कोई रोक टोक नही थी। कोई में प्यार भी शामिल था। शायद वह दुनियावी आदमी नही थे..."अठन्नी" - लीना मल्होत्रा रॉव
उनके घर पर ३ गाड़ियाँ थी । यह तब की बात है जब स्कूटर का होना बहुत बड़े रुतबे की बात मानी जाती थी ऐसे में ३ गाड़ियों का परिचय करवाना घर के सदस्यों के परिचय से अधिक ज़रूरी है क्योंकि पूरे मोहल्ले में प्रारम्भिक तौर पर ये परिवार अपनी गाड़ियों के लिए जाना जाता था फिर अपनी लड़कियों के लिए। जो एक से बढ़कर एक खूबसूरत थी और बेलौस अपनी जिंदगी जीती थी.उन्होंने उस ज़माने में बॉय फ्रेंड बनाए; घर पर पार्टियां की; बगावतें की; प्रेम में कई पटकनियाँ खाईं। और पडौस की घूरती आँखों और फुसफुसाहटों की परवाह किये बिना प्रेम की उड़ाने उडी। जब मैंने पहली बार "डैम बौदर्ड" पदबंध सुना था तो अनायास ही मुझे इस परिवार की याद आ गई थी। हालाँकि इस बेलौसपन में कई अंतर्विरोध थे जिनका ज़िक्र मैं आगे करूँगा। खैर इस परिवार की सबसे बड़ी बेटी थी सुम्मी।

उनके घर पर वाश बेसिन था जो ठीक हमारे दरवाजे के सामने दीखता था उनके वाश बेसिन पर एक बड़ा सा शीशा लगा था। सुम्मी जी रात भर पढने और सुबह अपनी छींको से फारिग होने के बाद कम से कम १-२ घंटा शीशे के सामने खड़ी रहती .एक दिन मैंने उन्हें आँखों पर छींटे मारते हुए देखा पता नही क्या हुआ कि मैं गिनने लगा उन्होंने कम से कम 102 बार छींटे मारे, फिर दो बार साबुन से मुहं धोया और फिर एक क्रीम निकाली और अपने गुलाबी रंग के पिम्पल्स पर लगाई खड़े-खड़े 15 मिनट देखती रही साथ ही वह स्वगत किसी से बात कर रही थी। बीच-बीच में मुस्कुरा भी रही थी एक तिरछी मुस्कराहट । आखिर में उन्होंने मुहं धोया और कॉन्टैक्ट लेंस निकाल कर पहने। मैंने पहली बार किसी लड़की को आँखों में शीशे लगाते हुए देखा । अब तो ये सब बाते आम हो गई हैं लेकिन जिस ज़माने की मैं बात कर रहा हूँ उस ज़माने में लड़कियां सिर्फ घर का बना हुआ काजल लगाती थी और सर में तेल चुपड़ कर कंघी करती थी.. और यदि कहीं जाना होता तो शिकाकाई साबुन से बाल धोकर धूप में छत पर खड़ी होकर सुखाती। काजल से ही बहुत बारीक काले रंग की बिंदी लगाती जो बिलकुल करीब से ही देखी जा सकती थी। लड़कियां आईने के सामने खड़े होकर अलग-अलग कोनो से घंटो-घंटों खुद को निहारती नही रहती। शीशा भी छिपछिप कर देखते थी गोया किसी को यहाँ तक कि लड़कों को भी खुद से प्यार करने की इजाज़त न थी। ऐसे में उन्हें प्यार हो गया।
वह उनके कॉलेज का प्रोफेसर था उम्र में उनसे 19 वर्ष बड़ा प्रोफेसर आनंद।
तब लोग आई लव यू वाला प्यार नही करते थे। सालों तक बस देखते थे नज़रे टकरा गई तो सिहरन दौड़ जाती थी। कोई बहाना बना कर नोट्स एक्सचेंज किये जाते थे। फोन करने के लिए तो सोलिड बहाना ढूँढना पड़ता था और एकाध को छोड़कर प्यार की मृत्यु निश्चित थी। तो लोग प्यार करते ही यदि संवाद की स्थिति तक पहुँचते तो पहली बात यही करते।
"क्या मेरे न रहने पर तुम मुझे याद करोगे.. "
और उधर से एक एक छलिया शब्द टपकता..
"हमेशा.."
दोनों इस भ्रम को जीते.. दूर क्षितिज पर मिलते आकाश और धरा की तरह, झूठ को सच मानकर कुछ पल उसे जीना उस समय का प्रेम था...
मेरा बड़ा भाई रवि उसी यूनिवर्सिटी में पढ़ता था जहां सुम्मी जी। नौकरी लगने के बावजूद वह एम० ए० करने के लिए यूनिवर्सिटी में दाखिला ले चुका था वर्ना नौकरी मिलने के बाद हमारे जैसे निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में पढाई की क्या तुक। उसे कोई आईएएस तो बनना नही था। शायद वह सुम्मी के सामने उसी के स्तर की पढाई करके उसकी नज़रों में 'समवन' बनना चाहता था । लेकिन प्यार में कॉलेज क्या इंसान दुर्गन्ध से भरे शौचालय में रात भर बैठ कर सपने देख सकता है। रवि भी कई बार रात को कुछ लिखा करता शायद यह उसके भीतर के प्रेम का असर था जो उसे सुम्मी जैसा बना रहा था। इसका पता मुझे तब लगा जब एक दिन मैंने उनकी किताब में पेंसिल से सुम्मी का नाम लिखा हुआ देखा उसके आस पास उसने कई सूरज बना रखे थे सूरज माने रवि। वह डायरी लिखता था और उसे एक संदूक में बंद करके उस पर एक ताला लगा देता। जिसकी चाबी हमेशा उसकी पैंट की जेब में रहती, मुझे धीरे-धीरे उसका ठीक दरवाज़े के सामने वाली कमरे में रखी कुर्सी पर बैठने का राज़ समझ में आने लगा और सुम्मी की छोटी बहन अनु के प्रति अतिरिक्त सदाशयता भी। जो अक्सर मेरी लागत पर की जाती थी। जब से ये बात मेरी समझ में आई मैं एक अच्छे चमचे की तरह सुम्मी की सब खबरें पहुंचाता रहता जैसे सुम्मी जी ने पढ़ते वक्त कितनी बार हमारी छत की तरफ देखा कितनी बार उन्होंने सूरज की तरफ देखा और कितनी बार अकेले में मुस्कुराई और जब रवि उस दिन साइकिल पर ज़ंजीर चढ़ा रहा था, कौतुक से वह लगातार उन्हें देखती रही। मेरी इन सूचनाओं जो अक्सर मनघडंत होती थी की एवज में मुझे रवि से एक अट्ठनी इनाम में मिलती थी। रवि रात को दो तीन बार पेशाब करने शौचालय ज़रूर जाते थे शौचालय छत के कोने में बना था और पांच सीढ़ी की ऊँचाई पर बनाया गया था। भीतर एक रौशन दान था जो सुम्मी के घर की तरफ खुलता था वहां से वह बेख़ौफ़ सुम्मी को निहार सकते थे। पेशाब के बहाने अपनी प्रियतमा को देखने के ख्याल से ही मुझे दुर्गन्ध आने लगती है लेकिन उस ज़माने में सच्चे बहाने बनाना अपने चरित्र को आवारगी का टीका लगाए जाने से बचाए रखने के लिए बेहद ज़रूरी था.

उस घर में सिर्फ आंटी जी ही एक मध्यमवर्गीय यथार्थवादी सामाजिक प्राणी थी। जो उस मोहल्ले की और औरतों की तरह घर के कामकाज करती थी। कोयले तोडती थी। सब्जी की टोकरी उठाकर सब्जी खरीदने जाती थी। बिजली का बिल जमा करने के लिए लम्बी पंक्तियों में लगती थी और महंगी चीज़ों पर मोलभाव करके पैसे छुड़ाती थीं। अंकल जी के स्टेटस के अनुसार उनकी सब्जी की टोकरी प्लास्टिक की नहीं शिमला से खरीदी गई बेंत की टोकरी होती। कोयले तोड़ने की हथौड़ी बाकी देसी हथौदियों से अलग थोड़ी अभिजात किस्म की थी। राशन की पंक्ति में खड़े अन्य लोगो से उनके कपडे अधिक रेशमी होते और उनके पसीने से किसी विदेशी पाउडर की महक आ रही होती। यह सब चीज़े शायद उन पर लाद दी गई थी लेकिन कुल मिलाकर वह एक देसी महिला थीं और खुद को इसी रूप में रखना भी चाहती थीं। उन्हें उन सबका ख्याल रखना था जो अपने सपनो में खोये हुए दुनिया से बेखबर उड़ते हुए परिंदे थे। जो शाम को घर सिर्फ सोने आते थे। यह उस घर में पनपने वाला पहला अंतर्विरोध था। उस घर में भरपूर गाड़ियाँ थी। अंग्रेजी का माहोल था। ज़माने को मुहं चिढाकर आगे भाग जाने की जिजीविषा थी। लेकिन किन्ही मायनों में वह परिवार हम निम्न माध्यमवर्गीय परिवारों से भी कम था। उसमे हमारे परिवारों जैसी एकरसता न थी। महीने का हिसाब चलाने का सलीका न था, एक स्थिर स्तर नही था कि लम्बी लाइन में लगकर ही सही महीने का राशन आएगा और दो डालडे के डिब्बे से पूरे महीने रोटी चुपड़ेगी। उनके घर पर कभी तो पेटियां भर कर खोमनिया आती अखरोटो के लिफ़ाफ़े भर कर अंकल जी दोनों हाथों में उठाकर लाते, लेकिन कभी ऐसा लगता कि रोटी की भी थोड है। उसमे उठा पटक थी कभी आसमान छू लेने के लिए पर निकल आते तो कभी सब अपने कुतरे हुए परों के साथ अपनी जाँ बचाते यहाँ वहां छिपते फिरते। अंकल जी और सुम्मी जी में उड़ने का शौक था और हमें उनकी जासूसी करने का जिसके लिए हम अपने छिपाए हुए पंखों से कभीकभी उनका पीछा करते हुए उनकी बराबरी की उड़ान भर आते। एक दिन इस जासूसी के परिणाम स्वरूप मुझे बड़े भाई से पांच रूपये का बड़ा इनाम मिला। पांच रूपये का मतलब था कि मैं अपनी पूरी क्लास को भुट्टे की या लाल इमली की ट्रीट दे सकता था उस समय 10 पैसे में एक छल्ली और पांच पैसे की 10 पारले की संतरी टॉफी आती थी.हुआ यूं कि आंटी जी ने घर की रद्दी बेचीं मैं पास ही खड़ा था। उसमे सुम्मीजी के बहुत से नोट्स भी थे। और उन्ही नोट्स में लिपटी हुई उनकी डायरी भी.. जिसे मैंने नज़र बचाकर कबाड़ी के पीछे खड़े होकर चुरा लिया डायरी लेकर मैं सीधा छत पर भागा और भरी गर्मियों की कडकती धूप में मैंने बिना एक भी सांस गवाए धडकनों को बेतहाशा चुप करवाते हुए वह डायरी पढ़ डाली बाद में जब भाई को मैंने डायरी दी तो उन्होंने धमकाते हुए पूछा तूने तो नही पढ़ी। और मैंने भोला बन कर य्यूं सर हिलाया - जैसे बिल्ली का बच्चा दूध पीने के बाद हिलाता है। कहना न होगा कि उस दिन मुझे इनाम में पांच रूपये मिले.उसके कुछ पन्ने ज्यों के त्यों मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह उनके प्रेम में पड़ने से लेकर पटकनी खाने और नया रास्ता ढूँढने तक की दास्ताँ है।
14 मई 1977
रात दो बजे ..
नींद उतनी दूर है जितने ये सितारे.. शायद तुम भी ये सितारे देख रहे होंगे..
इस तरह हमारी नज़रें दूर उन सितारों पर मिल रही हैं
जहाँ इस दुनिया के कोई नियम लागू नही होते.
सुम्मी मैंने खुद को पुकारा
फिर मुझे लगा मैं मैं नहीं रही बल्कि आनंद बन गई हूँ .
और आनंद अपनी सुम्मी को देख रहा है
ओह सुम्मी तुम बला की सुन्दर हो
बुधवार 15 जुलाई
तुम कभी इस रूप से इस प्यार से बच नही सकते थे मिस्टर आनंद .. बहुत देख ली तुम्हारी एक्टिंग.. आखिर तुम्हे झुकना पड़ा.. ओह आनंद ..आनंद मैं तुमसे अकेले में बाते कर सकती हूँ..
मैं तुम्हे बताती हूँ कि आज पढ़ते हुए जब मैंने सर झुककर किताब पर यूं रखा था जैसे कि मैं बहुत थक गई हूँ उस वक्त मेरी आँख से एक आंसू लुढ़क पड़ा थाऔर उसे भरी लायब्रेरी में छिपाना बेहद ज़रूरी था.यह आंसू तुम्हारी बेरुखी से पैदा हुआ जो अक्सर तुम और सबके सामने ओढ़ लेते हो।
12 अगस्त
मैंने तय कर लिया है मैं शादी नहीं करुँगी.. अब तो बस मैं तुम्हारी हो चुकी...चिन्बा में ही मेरा घर बसेगा.
मैंने तय कर लिया है मैं शादी नहीं करुँगी.. अब तो बस मैं तुम्हारी हो चुकी...चिन्बा में ही मेरा घर बसेगा.
16 अगस्त
तुमने कुछ नीलदंश मेरी आत्मा पर जड़ दिए हैं। जो अब मेरी पूँजी हैं ।
माँ ने देख लिया गले पर पड़ा निशान पूछा क्या चल रहा है तेरी जिंदगी में ?
मैंने कहा कुछ नही माँ , मेरी जिंदगी तो बिलकुल रुक गई है एक नाम के इर्द गिर्द
माँ बहुत देर तक मुझे देखती रही मैं चुप रही किताब में सर डुबोये बैठी रही
माँ ने पूछा आनंद कौन है
मेरे प्रोफ़ेसर
तेरा उससे कोई चक्कर हैमाँ मुझे उससे प्यार हो गया है
मैं उससे मिलना चाहती हूँ
क्यों
तेरी शादी की बात करुँगी
वह शादीशुदा है
तू पागल है
हां माँ मुझे भी ऐसा ही लग रहा है मैं पागल हो गई हूँ
तू मुझे दुःख देना चाहती है .. तेरी दो बहने और भी ऐसा कुछ मत करना जिससे उनकी शादी न हो पाए वह रोने लगी और अपनी किस्मत को कोसती हुई बाहर निकल गई
माँ के लिए सिर्फ मेरी शादी के मायने हैं मेरे प्रेम के नहीं
शायद मुझे माँ को नहीं बताना चाहिए था
आनद सच कहूं मुझे कोई दुःख नहीं होगा अगर तुम मेरे साथ दूर तक न चल पाये
तुम्हारी साँसों से छूटी हुई हवा से सांस लेना मुझे भीतर तक आनंदमयी कर गया.
अब मैं और सांस नही लेना चाहती .. बहुत जी चुकी
अपने मन से ये भ्रम निकाल दो कि मैं तुम्हे इसलिए छोड़ दूँगी कि तुम शादी शुदा हो.. मुझे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता.. मुझे तुम्हारे आधे टूटे हुए दाँत से बेपनाह मोहब्बत हो चुकी है और मैंने उसका नाम रख दिया है.. चिन्बा..
2 नवम्बर
ऐसा कैसे हो गया ।
तुम फोन पर मुझे चुम्बन दे रहे थे और मैं शरारत से पूछ रही थी कहाँ
गाल पर
फिर एक चुम्बन
ये उसके नीचे होठ पर
फिर एक
ये गले पर जहाँ स्पर्श करते ही तुम दोहरी हो जाती हो
और उसके बाद मैंने पूछा
उसके बाद मिलने पर
नहीं अभी
यह सारी बातचीत उनकी 18 वर्ष की बेटी ने फ़ोन के एक्सटेंशन पर सुन ली थी
उस दिन के बाद मैंने आनन्द को खो दिया उनके चेहरे पर सिर्फ तनाव और अपरिचय ही पाया
जैसे की मुझे जानते ही न हों
जैसे मुझे जान लेना उनकी एक भूल थी
उस भूल का सुधार जरूरी था
15 दिसम्बर
आज अप्रत्याशित नीना दीदी का फोन आया
मैं नीना बोल रही हूँ .. तुमने जो लेटर्स मेरे हज्बेंड को लिखे हैं वह सब मैंने पढ़े हैं..
मेरे हज्बेंड को
मेरे हज्बेंड को ..
बस ब्रह्मांड इन्ही तीन शब्दों में डूब गया
हमेशा के लिए.
उसके बाद उन्होंने क्या कहा मुझे कुछ याद नहीं बस एक पीड़ा अट्टहास लगाते बाल बिखेरे मेरे चारो तरफ चिल्लाते हुए घूम रही है मैंने उसके बाल अपनी मुठी में दबोच रखे हैं मैं इस पीड़ा की पीठ पर सवार होकर कहीं दूर निकल जाउंगी ऐसे देश में जहां इन शब्दों के मायने बदल जाएँ-"मेरे हसबैंड को"

मुझे सिर्फ रात का इंतज़ार रहता है
अंधेरों का इंतज़ार उसमे कुछ नहीं दीखता। पीड़ा भी नहीं आँसू भी नहीं। लेकिन स्मृतियाँ फिर भी दिखती हैं.काश एक ब्लेड लेकर मैं आनंद का नाम खुरच देती.जो मेरी देह पर लिखा है मेरे मन पर लिखा है मेरी आत्मा पर लिखा है मेरे विगत पर लिखा है विगत जो मेरे भविष्य में गडमड हो चूका है । ओह ! आनंद तुमने मुझे एक बार फोन करना भी ज़रूरी नहीं समझा..क्या मैं इतनी फ़ालतू थी..
क्या तारीख है आज। याद नहीं।
हर रोज़ की तरह रात अपनी पोटली में मेरे लिए नींद लाना भूल गई है।
मैं यहाँ खड़ी हूँ छज्जे पर मुझे उस विनाश की प्रतीक्षा है जो मेरी देह को ख़त्म कर दे बस एक कदम नीचे।
तुम यह क्या कर रही हो - माँ पीछे खड़ी थीं
मेरा पैर जो मुंडेर से नीचे पड़ने के लिए उठा था उसके प्रश्न में उलझ कर रुक गया
दर्द है? उसे सहो वर्ना वह दर्द का अपमान होगा।
हर बार अपना चाहा हुआ नही मिलता।
यही जीवन है।
इसे स्वीकार करो।
धीरे धीरे जीवन अपनी गति चलने लगता है। कोई और सुख इस दुःख को ढक लेगा।
माँ ने जो कहा वह उनके अतीत की देन थी वह एक शून्य में देख रही थी वहीँ से शब्द जुटा रही थी। वह माँ नही एक छूटी हुई प्रेमिका बोल रही थी
वह इस वक्त अपनी पत्नी के साथ सो रहा होगा
अपना जीवन उसे दो जो इसका मूल्य समझे
हो सकता है तुम अपाहिज हो जाओ हो सकता है तुम्हारे सब दाँत टूट जाएँ या फिर रीढ़ की हड्डी
जाओ कूद जाओ उस आदमी के लिए जिसने तुम्हे एक बार मुड़ के भी नहीं देखा मेरा क्या है मैं रो लूंगी और तुम्हारे पापा तो इस दुनिया के प्राणी हैं नही जो किसी से मुहं चुरायेंगे।
अचानक पापा का चेहरा सामने आ गया माँ भीतर चली गई थी अपना वजूद मुझ पर लाद कर
मुझे लगा
आज बहुत रोने के बाद नीना आज बहुत सुन्दर लग रही है
तुम इतने वर्षों बाद फिर से उनके प्रेम में पड़ गये हो
मैं तुम्हारे बिना जीकर क्या करुँगी.

माँ ने कहा जीना पड़ता है
मैं अपने पापा को उनकी दी हुई आज़ादी के लिए शर्मिंदा नही करुँगी
मृत्यु का पल निकल गया
जीवन बहुत लम्बा है कैसे निकलेगा कैसे जीयूँगी
मैंने निर्णय लिया है कि तुम्हारे सामने गिड़गिडाउंगी नहीं
25 दिसम्बर
सुबह जब बुखार आया तो पता लगा ठंड चढ़ गई पैरों के रास्ते
हहं दिल का रास्ता खुला था.. लेकिन ठंड ने भी चुना तो कौन सा पैरों का रास्ता। काश ये दिल बर्फ़ का बन जाता तो चुपके से मैं इसे पिघला कर कहीं टपका आती.. ओह इस दिल के साथ जीना कितना मुश्किल है..
माँ ने कहा यह बुखार उसकी याद को सोख लेगा जब उतरेगा तुम एक नयी सुम्मी होंगी मेरी बात याद रखना
मैंने धीरे से कहा मुझे श्राप मत दो माँ
आवाज़ में सूराख हो गये थे
माँ ने कहा मेरा श्राप तुझे लग जाए। उनकी आवाज़ सूखी थी जैसे पहले वहां कोई नदी बही हो और उसने रास्ता बदल लिया हो
27 दिसम्बर
आज दो दिन हो गये अपने ही आंसुओ से खफा हूँ.. हाथ बार बार मचलते रहे फोन मिलाने को
पांवो ने कई बार जूते पहने चल देने को। जुबां ने कई बार आनंद का नाम पुकारा। नही नहीं किया। नहीं गई। नहीं पुकारा..
हठ में खड़ी रही या बैठी रही .. लेकिन ये तानाशाह आंसू.. मेरे भीतर रहकर भी मेरे न हुए.. मेरे आत्मसम्मान की धज्जियां उड़ा कर सारी पीड़ा की मुनादी कर दी .. पता नही पिछले दो दिन में मैंने क्या किया है ..
यह एक सीखने का दिन है..
आंसू कभी आत्मसम्मान का आदर नही करते..
मैं 24 में से 25घंटे उसके बारे में सोचती रही ..
पहली बार जाना नफरत का रंग प्रेम से अधिक गाढ़ा होता है
प्यार छिपाना फिर भी आसान था.. इस नफरत के पहाड़ को मैं किस नुक्कड़ पर छोड़ आऊं.. ओह इसे मैं कहाँ सम्हालूँ .. यह मेरे वजूद से बड़ा होता जा रहा है
बुखार उतर गया तुम नहीं उतरे यादो से ।
माँ गलत थीं
29 दिसम्बर
फोन तुम्ही ने किया.. लेकिन इसलिए कि कहीं मैं आत्महत्या न कर लूं.. और तुम बदनाम न हो जाओ.. तुम्हारी सपाट आवाज़ मेरी आत्मा में पड़े गड्ढ़ों में कहीं भी नहीं अटकी
"तुम नही जानती जब एक इंसान अपने बच्चों की नज़रों में गिरता है तो कैसा लगता है"
मैंने तुम्हारे बहाने चुपचाप सुने आनंद.. नहीं जानती थी..ये साथ इतनी जल्दी छूट जाएगा..
मैं कैसे जानती ?
मेरे तो बच्चे हैं नहीं
तुम जानते थे न आनंद
अगर हमारा भी एक बच्चा होता तो मैं पूरी जिंदगी अनब्याही रह लेती, तुम जानते थे मुझमे साहस था। कुँवारी माँ बनने का । इसलिए ही तुम डर गये।
तुम सिर्फ बच्चों की नज़रों में नही गिरे आनंद।
ओह जिंदगी तू क्यों बेवफा न निकली !

5 मई 1978
वह दूर शास्त्री नागर के मोहल्ले में रहता है बैंक में मैनेजर है .. डैड को पता है कि मैं उसके साथ नही रह सकती इसलिए रिश्ता मुझे बताया ही नही .. सिर्फ माँ से ज़िक्र किया..
माँ की अपनी असुरक्षाएं थीं। कहा- एक सरकारी नौकरी से अधिक सुरक्षित भविष्य और क्या
मैंने तय कर लिया था जो भी पहला रिश्ता मेरे लिए आएगा मैं उसे हाँ कह दूँगी.इन मायनों में सुधीर जी को सचमुच ईश्वर ने ही मेरे लिए चुना था.
वो जिसने हाँ कही क्या वो मैं ही हूँ.... हाँ वो मैं ही हूँ। जब मैंने शादी के लिए हाँ कहा सोच रही थी।
कि जिस दिन मैं माँ बनूँगी तुम्हे ज़रूर बताउंगी कि मेरे बच्चों की नज़रों में मेरा मुकाम क्या है .
ओह तो क्या मैं सिर्फ तुम्हे दिखने के लिए शादी कर रही हूँ। नहीं सोचना चाहती मैं तुम्हारे बारे में । अपनी जिंदगी के इस महत्वपूर्ण क्षण में तुम्हारी घुसपैठ मुझे बिलकुल पसंद नही । मैं अपनी जिंदगी नए सिरे से जीना चाहती हूँ। तुम्हारे बिन। जैसे कि तुम हो ही नहीं जैसे कि तुम कभी थे ही नही.
जब मेहँदी की रस्म हुई तो जो घडी तुमने मुझे दी थी वह मैंने जानबूझ कर मेहँदी वाली के पैर के पास गिरा दी। सबकी नज़र बचाकर उसने उसे अपनी सलवार में बनी जेब में ठूंस लिया उसके बाद उसकी चोरी पकड़ी ना जाए इसलिए उसने मेहंदी लगाने का काम तुरत ख़त्म कर दिया, मेरे हाथों की मेहँदी शायद अधूरी ही है, मैं जिंदगी के इस निर्णय पर मुस्कुरा दी ।
मेरे होठो पर मुस्कराहट आजकल एक द्वारपाल बनकर बैठी है भीतर के जंगल में मैं भटक जाना चाहती हूँ । काश मैं उस जंगल में रास्ता भूल जाती । काश मैं कभी वापिस न आती
अनु अन्दर आई और पूछा दीदी अब तुम्हारी घडी मुझे मिल जायेगी न मैं कब से उस पर निगाह रख कर बैठी हूँ।
मैंने कहा वह तो खो गई।
काश की जिंदगी से गुज़रा वक्त भी उपहारों की तरह निकाल दिया जाता।
मैं तुमसे वादा करती हूँ कि मैं तुम्हे खुश रहकर दिखाउंगी। आज से सव कुछ पलट जाएगा आनंद कई कई राते जो मैंने तुम्हे नीना दी के साथ सोचते हुए गुज़री हैं अब तुम्हारी बारी है।
ये लो रिटर्न गिफ्ट कुछ जगी हुई राते तुम्हारे हिस्से रही । अपनी सेहत का ख्याल रखना। इस उम्र में कहीं बीमार न हो जाना। सदमा गहरा है झेल लेना मर मत जाना वर्ना मेरा शादी करना बेकार हो जाएगा।
प्यार करके देख लिया अब शादी करके भी देख लूं।
यह उनकी डायरी का अंतिम वाक्य था
इसके बाद वह चली गई..
शादी वाले दिन मोहल्ले में उत्सवी मातम छाया था। रवि ने उस दिन पहली बार शराब पी। उनका प्यार बिना किसी अभिव्यक्ति के मौन समाधी में जा रहा था। काश ये डायरी पहले मिली होती और मैंने उन्हें ' फर्स्ट कम फर्स्ट मेरिज ' वाला प्रस्ताव बता दिया होता तो शायद आज सुम्मी जी मेरी भाभी होती और मैं देवर होने के नाते उनसे परिहास में ही आधी जन्नत जीत लेता। खैर शादी में मोहल्ले के सिर्फ बूढ़े और शादीशुदा लोग ही आये। मेरे घर से मैं और माँ गये। उनकी जिंदगी की तरह शादी भी कुछ विशेष थी। विशेष इन अर्थों में कि मैंने पहली बार किसी दुल्हन को दूल्हे से मंडप में झगड़ते हुए देखा। हुआ यूं कि सुधीर जी जो अपने यथार्थवादी व्यवहार से अपने घर और दोस्तों की आँखों के तारे थे। सपनो में जीने वाली इस लड़की से जब भँवरे घूम रहे थे। तो उनसे गुलाबी रंग का गठ्बंधन करवाने वाला महत्वपूर्ण दुपट्टा उनके हाथ से छूट गया। बस वह बिफर गईं। जब आप इसे नहीं सम्हाल सकते तो मुझे क्या सम्हालेंगे। पूरी बारात सकते में आ गई। दूल्हे की माँ का तो चेहरा ही फक्क हो गया। एक तो पहले ही उन्हें अपेक्षित दहेज़ नहीं मिला था। ऊपर से अंकल जी ने साफ़ बारात के सामने कह दिया था कि मेरी बेटी लाखों में एक है और सुधीर जी आपसे 21 ही होगी। मैं दहेज़ देने लेने में विशवास नहीं रखता। सुधीर जी के लिए तो उस समय यह गर्व का विषय था। सारे दोस्तों में उनकी धाक जम गई थी और वह बहुत खुश थे। उनकी इसी ख़ुशी ने उनकी माँ के होठ सिल दिए थे। और वह चाह कर भी कुछ कह नहीं पाई।
ईश्वर ने दुपट्टा गिरा कर जो संकेत दिया था वह वज्रपात की तरह सुम्मी जी पर टूटा। उनकी और सुधीर जी के परिवार की मानसिकता में ज़मीन आसमान का अंतर था। उनकी किस्मत का कटोरा ईश्वर ने औंधे मुहं रख दिया सारा रस और रूप बह गया।
बाद में माँ ने बताया कि शादी के पहले ही दिन सासू माँ ने रात 11 बजे दरवाज़े पर दस्तक दे दी। सुधीर जी और सुम्मी जी नवजीवन के संधि-पल पर टिके थे कि काल ने व्यवधान प्रस्तुत कर दिया। उलटे-सीधे कपडे पहन कर दरवाज़ा खोला सामने माँ थी। हाथ में सोने की चूड़ियाँ। पूछा- "ये क्या वही सोने की चूड़ियाँ हैं जो सुम्मी पहन कर गई थीं। कहीं बदल तो नही गई"।
"कहाँ बदल जायेंगी"। सुधीर जी ने संयत स्वर में पूछा
"आज वह फेरा डालने घर गई थी। आजकल एक से गहने बनते हैं"। कहकर सासू माँ ने एक दृष्टि सुम्मीजी पर डाली जो इस अप्रत्याशित हमले से उकडू बैठी थी। जब उनकी स्तब्धता टूटी तो उन्होंने सुधीर जी से रात भर झगडा किया और उन्हें खुद को छूने भी नहीं दिया।

उसके बाद गाहे बगाहे सुम्मी जी की बाते सुनते उनका इधर आना काफी कम हो गया था वह धीरे धीरे अपनी स्वतंत्र आभा खोकर सुधीरमय हो रही थी। उनकी माँ खुश थी और अंकल जी निर्लिप्त।
उसके बाद वह लोग घर बेचकर चले गये।
रवि की भी शादी हो गई चश्मे वाली मेरी भाभी दुल्हन बनकर इस घर में आईं। उन्होंने अपने सुघड़ व्यवहार से सबके दिलों में जगह बना ली। रवि तो जोरू का ऐसा गुलाम हुआ कि कोई विश्वास ही न करे कि ये आदमी कभी किसी के प्यार में रात भर शौचालय में बैठा रहा है। हमारा एक कमरे का मकान सिकुड़ कर और छोटा हो गया और हमने उसे बेच दिया। इस तरह हमारा सुम्मी जी के परिवार से सम्पर्क टूट गया। मैं भी आप्रवासन विभाग में एक सब इन्स्पेक्टर की नौकरी में अटक गया। जिंदगी अपने ढर्रे पर चलती रही। शादी हुई फिर बच्चे और फिर उन्हें बड़ा करने का उपक्रम । एक मामूली जिंदगी खैर..
आज अकस्मात ही वह मेरे सामने खड़ी थीं। अगर मेरे हाथ में उनका नाम पता न होता तो शायद मैं उन्हें पहचान भी नहीं पाता। वह घने लम्बे बाल अपनी सत्ता खो चुके थे। एक ब्रुश की बेतरतीबी से फैली टोंटी की तरह अलग अलग दिशा में भाग रहे थे। सुर्ख होठ और गुलाबी रंगत एक रेगिस्तान ओढ़ कर धूसर बन चुकी थी। गालो पर स्याह छाईयों ने कभी घर न ख़ाली करने वाले किरायेदारों की तरह स्थायी जगह बना ली थी। बालों में डाई लगी थी और जड़ों से उतर कर आधे सफ़ेद और आधे नकली काले बालों का वीभत्स दृश्य प्रस्तुत कर रही थी, ठीक उनके जीवन की तरह जो पूर्वार्ध से उतरार्ध में आते आते इस कदर रंगहीन हो गया था। वह सूख कर काँटा हो गई थी। और इस कांटे जैसे शरीर में पेट किसी घड़े की तरह निकला हुआ था। बैंगनी रंग की घटिया चाईनीस सिल्क की सलवार और उस पर सफ़ेद रंग का कढ़ाई वाला कुर्ता पहना हुआ था कढ़ाई के धागे जगह जगह से सर उठा कर देख रहे थे। एक सस्ता पोलिश उतरा हुआ स्टील का फ्रेम उनकी आँखों पर चढ़ा हुआ था। लाल रंग का कलमकारी वाला दुपट्टा उनकी सलवार और कमीज़ दोनों से जुदा रंगों की कहानी कह रहा था।
"आप सुम्मी जी"
वह अपना नाम सुनकर चौंक गई। अचानक उनकी पुरानी मुस्कान लौट आई। तुम कौन।
मैं राजेंदर आपके सामने वाले घर में रहता था।
रवि के छोटे भाई..?
जी। वह रवि का नाम जानती थी। अभी तक याद रखे थी। यह समाचार मेरे लिए किसी ब्रेकिंग न्यूस से कम न था । लेकिन उनकी दुर्दशा देखकर मुझे आज और कोई भी चीज़ विस्मित नहीं कर सकती थी । आखिर मुझसे रहा न गया और मैंने पूछा आपको क्या हो गया..
'क्या' वह थोड़े संकोच में आ गई.और उन्होंने खुद को अपने ही कंकाल में छिपाना चाहा।
मतलब आप तो पहचान में ही नहीं आ रही हैं।
कुछ नहीं। थोडा बीमार रही। अब ठीक हूँ। अपने छाईयों से भरे गालों पर झुक आई एक बीमार लट को कान के पीछे धकेलते हुए उन्होंने कहा।
ठीक ! मैंने कहा नहीं सिर्फ सोचा।
कैसे हैं आप सब लोग? उन्होंने ही बात का छूटा हुआ सिरा पकड़ा।
सब ठीक हैं। आप लोगों को अक्सर याद करते हैं अंकल कैसे हैं? मैं उनके बदले हुए रूप के सदमे से बाहर आते हुए पूछा।
मेरे मम्मी पापा तो रहे नहीं।
ओह! मुझे सचमुच इस खबर से शोक हुआ। मेरे जीवन में अभिजात्य वर्ग के जो भी थोड़े बहुत रंग हैं उनकी वजह अंकल जी ही रहे। वर्ना मैं एक मामूली क्लर्क का बेटा कभी सपने में भी नहीं सोच सकता था कि एक दिन मैं अपनी बेटी को निक्कर पहनने की अनुमति दूंगा और वह अपने बालों में रोल्लेर्स लगा कर घंटो अपने दोस्तों से बाते करेगी जिसे मैं एक सामान्य व्यवहार मान कर चुपचाप अखबार पढता रहूँगा। रीनी के लड़के दोस्तों को घर पर आने का मैंने ही निमंत्रण दिया था मेरे पत्नी ने लाख विरोध किया लेकिन मुझ पर अंकल जी की छाप थी जो उतारे न उतरती थी। मेरी इस बात पर बलिहारी होकर रीनी अपने स्कूल में सबसे खूब शेखी बघारती है कि उसके पापा कितने उदार विचारों के हैं। मैं चुपचाप इस प्रशंसा और बच्चों से मिले इस प्रेम का श्रेय मन ही मन अंकल जी को दे देता। आज उस भावना को साक्षात् उनकी बेटी से बांटते हुए मैंने कहा -
बहुत कुछ सीखा था उनसे..एकलव्य की तरह दूर से ही।
उनकी आँखों से टप टप आंसू बहने लगे।
वह चुपचाप रही।
विषय परिवर्तन करते हुए मैंने कहा सुधीर जी?

उन्होंने अपने आंसू पोंछे और एक क्षण रुक कर कहा वह भी ठीक हैं।
वह नहीं आये आपके साथ।
नहीं। काम में लगे हैं। दरअसल मैं उन्हें बताकर नहीं आई। बस दो दिन के लिए दुबई जा रही हूँ।
अकेली ? हालांकि उनका वीसा सही था। लेकिन पासपोर्ट में उनके भव्य दिनों की फोटो लगी थी यह तो संयोग ही था कि वह मेरे काउंटर पर वीसा लगवाने आईं वर्ना उनका वीसा रिजेक्ट हो जाता। वह किसी भी सूरत से फोटो वाली सुम्मी जी नहीं लग रही थी।
हाँ अकेली । मेरे पापा ने मुझे इस काबिल तो बनाया है कि मैं अकेली जी सकूँ।
मैं उनके इस रहस्य से पर्दा उठाने से थोडा चौंक गया। मैं इसके लिए तैयार न था।
आप मेरे केबिन में आईये। मैंने अपने सुपरवाईसर से कहा सर ये मेरी परिचित हैं। खन्ना ने ऊपर से नीचे तक सुम्मी जी को इतनी शंकालु नज़रों से देखा जैसे कि वह कोई कबूतर हों । हमारी भाषा में कबूतर वह लोग होते हैं जो नकली वीसा पर किसी एजेंट की मेहरबानी और हमारी मिली भगत के साथ भगा दिए जाते हैं। मैंने उसकी परवाह नहीं की। मैं खुद को बहुत टूटता हुआ महसूस कर रहा था। जाने क्यों..
चाय लेंगी? मैंने ससम्मान कुर्सी उनके लिए खिसकाई।
वह अभी भी पेन्सिल हील पहने थी। ध्वस्त खंडहर में भी भव्य महल की जैसे कोई निशानी बची रह जाती है। वह बैठ गईं।
एक लोडर पीछे पीछे चाय के दो कप ले आया..
मैं अभी तक चाय नहीं पीती राजू! उन्होंने मेरा घर का नाम पुकारा।
मैं गद गद हो गया। सिर्फ वह ही नहीं हम भी उनके मन के करीब थे।
अचानक अधूरी बात छोड़कर उन्होंने हवा में एक तरफ नज़र गढ़ा दी। ओह तुम कहाँ तक मेरे साथ चलोगे..
मैं घबरा गया। वह हवा में देखकर किसी से बात कर रही थी। जबकि मुझे वहां कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था..
कौन। मैंने थूक हलक में सटकते हुए पूछा..
ये मेरे ऊपर गोल-गोल घूमता रहता है। कहीं नहीं छोड़ता। मुफ्त का एस्कोर्ट बना है।
मेरी सास मुझे एक मज़ार पर ले गई थीं। मेरे दो बेटियां हैं न। उन्हें बेटा चाहिए था। बस तभी से ये सिलसिला शुरू हुआ। उसी मज़ार से ये चार-चार मेरे साथ चले आये।
मैंने अपने गले का थूक सत्का और पूछा ये कौन? मुझे लगा मैंने केबिन में लाकर उन्हें गलती कर दी है हुलिया देखकर ही मुझे समझ जाना चाहिए था कि कुछ गड़बड़ है अब अगर कोई काण्ड हो गया तो खन्ना को तो मौका मिल जाएगा वह अपने बन्दे को फिट करने के चक्कर में किसी की ट्रांसफर के लिए जुगत भिड़ा रहा है।
उन मरजानो ने भूत घुमाये हुए हैं मेरे ऊपर। पहले तो चार-चार थे.. सामने नाचते रहते थे.. कभी राजीव गाँधी बन कर आ जाते कभी बेनजीर भुट्टो। कभी शेक्सपीयर के ओथेलो । क्लेओपेट्रा पीले ग्लव्स पहन कर आती है ताकि कोई निशान न छूट जायेंग सुधीर जी के साथ आकर उनके बिस्तर में घुस जाती है .. वाक्य पूरे नहीं हो रहे थे बीच में ही टूट जाते।
मेरे मुहं में जुबां सूख रही थी। आपकी तबियत शायद ठीक नहीं है।
नहीं अब मैं बिलकुल ठीक हूँ। इन सबने मुझे कितने साल कितना परेशां किया है।
आप को इलाज करवाना चाहिए।

किस चीज़ का इलाज! जब मैं देख सकती हूँ इन्हें। ये बाते करते थे मुझसे। मैं रात रात भर दुर्गा सप्तशती पढ़ती रहती थी। तीन को तो मैंने चकमा दे दिया। वह मुझे परेशान भी बहुत करते थे..मेरे साथ मेटिंग करने एक तो मेरे साथ मेरे बिस्तर में ही घुस जाता था। क्या करती?
एक रात को कुण्डी खोल देता और सुधीर जी मेरा सामान चोरी करवा देते.. मेरे सारे जेवर चोरी हो गये.. मेरी नौकरी भी चोरी हो गई..वह फिर रोने लगी..
देखिये आप चुप हो जाइए आखिर सुधीर जी का पैसा भी तो आपका ही है..
नहीं वह तो मुझे बस दस हज़ार देते हैं.. उसमे मैं घर कैसे चलाऊँ..
उनकी बहन मुझे सीढ़ियों से धक्का मार मार के घर से निकालती, मैंने उन्हें बादाम और देसी घी खाना सिखाया । वर्ना उनकी औकात क्या थी।
तो आपने पुलिस में क्म्प्लेंड क्यों नहीं की ?
की थी.. लेकिन मेरे डैड ने आकर बयान दे दिया कि मेरा ही दिमाग ठीक नहीं है और सुधीर को बचा लिया। क्या उन्हें ऐसा करना चाहिए था? मेरे मम्मी डैडी भी उनके साथ मिल गये थे..
मुझे समझ नहीं आ रहा था जिस लड़की को मैं सिर्फ हूर की परियों से तुलना कर सकता था वह मेरी चश्मे वाली भाभी और पीलिया की मरीज़ मेरी पत्नी से भी गई गुजरी हालत में थी..
खुद तो एक कमरे के घर में रहते थे.. भिखारी कहीं के.. मेरी ही किस्मत से उनका नया घर बसा.. वह उन्हें ऐसी ऐसी गालियाँ दे रही थी.. कि मै सुन नहीं पा रहा था.. और मेरी परिस्थिति उस चूहे की तरह हो गई थी जिसे दरवाज़ा खुला मिले लेकिन साथ ही बाहर बैठी बिल्ली भी दिख जाए ..
मैं पूरी बात समझ चुका था.. और उन्हें रुखसत करना चाहता था। लेकिन वह अपनी पूरी रामकहानी सुनाये बिना उठना नहीं चाहती थी..आखिर बहुत वक्त बाद उन्हें कोई आत्मीय मिला था.. जिसे वह अपने मन की भड़ास निकल लेना चाहती थीं..
बच्चे भी अपने पापा के साथ मिल गये है.. रोज़ मेरे खाने में कुछ मिला देते हैं.. और मुझे बहुत दर्द होता रहता है..
जब मम्मी की डेथ हुई थी न तो मैंने उनकी आत्मा की शांति के लिए घर में गरुण पुराण पढ़ा था.. तो चित्रगुप्त बहुत क्रोध में आ गया था.. उसने वैतरणी नदी खून से भरी हुई मेरे बिस्तर के चारो तरफ घुमा दी..
मैं कितना चीखी लेकिन मेरे बच्चों तक ने मेरी चीखे नहीं सुनी.. तब इसी ने मुझे बचाया था..हवा की तरफ इशारा करके उन्होंने कहा..
बस यही मुझे समझता है.. मैंने गीता पढ़ कर अपना सारा पुन्य अपनी मॉम को भिजवा दिया.. यही देकर आया था.. और इस बार उन्होंने प्रेम पूरित दृष्टि से उसे ऐसे देखा जैसे माँ अपने बच्चे को देखती है..
जब मेरी बहने स्कर्ट पहन कर सुधीर के साथ बिस्तर में घुस जाती थी तो ये ही उनकी चोरी पकड़ लेता था.. तभी से मैंने इसे अपना पक्का हमसफ़र मान लिया है भूत है तो क्या.. सिर्फ एक शरीर ही तो नहीं है इसके पास.. उसकी मुझे ज़रुरत भी क्या है.. शायद ये भी इंतज़ार कर रहा है कि मैं कब अपना शरीर छोड़ दूं..और इसके साथ हो लूं.. ऐसी वफादारी इंसानों में कहाँ..
बात हद्द से बाहर होती जा रही थी। मैंने कहा आप किसी दिन घर पर आइये..
इंसान तो सिर्फ धोखा देते हैं.. क्या तुम्हे किसी ने धोखा दिया है..
जी नहीं..
तुमने प्यार नहीं किया होगा न..
शायद आप सही कहती हैं..
इस दुनिया में 99% लोग बिना प्यार किये ही मर जाते हैं.. क्या फायदा ऐसे जीने से..
मैं किसी भूत से प्यार करने की कल्पना से ही सिहर उठा था..
देखिये मुझे ऑफिस के और काम भी करने हैं.. आप घर आइये ऋतू आपसे मिलकर खुश होंगी.. और रवि भईया भी..
रवि के नाम से उनकी आँखों में अजीब से भाव आये जिसे उन्होंने छिपा लिया फिर उन्होंने हवा में देखा और कहा..
चिन्बा को तो वीसा की कोई ज़रुरत नहीं .. है न? उनकी आवाज़ में अचानक एक तरलता आ गई..
चिन्बा..!!!! ओह काश मैंने वह डायरी न पढ़ी होती।
उनके अंतिम दो लफ्ज़ मेरे लिए लफ्ज़ ही रह जाते,
क्या उनकी आत्मुग्धता की वजह से ही उनकी यह हालत हुई..
क्या आने वाली सदी में आधी आबादी ऐसी ही नीम पागल लड़कियों से पटने वाली है..
मैंने आधी छुट्टी की अप्लिकेशन दी और बाहर निकल आया..अचानक मुझे रीनी की चिंता होने लगी और रीनी जैसी अनेक लड़कियों की जो दिन भर शीशे के सामने खड़ी रहती हैं.. मन बहुत भारी हो गया था.. मैं सुम्मीजी जी के इस रूप को जज़्ब नही कर पा रहा था.. वह ऊंचा पफ्फ़ बनाकर शर्मीला टैगोर जैसी शर्माती हुई लड़की.. भारत नाट्यम सीखते हुए उसके घुंघरू हमारे दिल पर बजा करते थे.. वह घुंघरू टूट कर बिखर गये थे.. मुझे बहुत कोफ़्त हुई कि मैं पुरुष क्यों हूँ और मैं रो क्यों नहीं सकता..मैं दिन भर कभी कैंटीन तो कभी बिजली के दफ्तर तो कभी कार की सर्विसिंग करवा के टाईम पास कार रहा था.. न जाने क्यों मुझे घर जाने में डर लग रहा था..
शाम नियत समय घर पहुंचा। ऋतू अपने काम में लगी थी। चुपचाप आकर के कप चाय रख गई। "थक गये" बस इतना ज़रूर कहकर वह अपने कर्तव्य के इति कर डालती है।
रवि कहाँ हैं..
"ऊपर होंगे पता नहीं"।
मैंने कहा चाय वही पी लूँगा। अपना कप उठाकर ऊपर आया। रवि अकेला बैठा। टीवी के चैनल बदल रहा था। पेट्रोल के दाम फिर बढ़ गये।
मैं चुपचाप बैठ गया।
चाय पीयोगे उसने पूछा फिर चाय का कप मेरे हाथ में पाकर चुपचाप अपनी चाय सुडकने लगा।
क्या बात है बहुत थके हुए लग रहे हो।
रवि आज मुझे सुम्मी जी मिली थी। मैंने बिना किसी भूमिका के कहा।

उनका हाथ जहाँ का तहां रुक गया।
कहाँ? कैसी हैं वो..
इम्मीग्रेशन काउंटर पर आई थी बाहर जा रही हैं घूमने।
अपनी बात पूरी भी नही कार पाया तभी भाभी आ गई। रवि ने कहा। चलो बाहर घूम कार आते हैं। वह नहीं चाहते थे कि भाभी को उनकी भनक लगे। एक बार सोते हुए रवि ने सुम्मी का नाम बडबडा दिया था। तभी से भाभी सुम्मी को अपना जानी दुश्मन समझने लगी थी।
कार में बैठते हुए उसने पूछा कैसी लग रही थी।
वैसी ही जैसी थी। उम्र कि कोई आहट उनके ऊपर से होकर नहीं गुजरी। पहले से अधिक खिल गई हैं। बहुत देर तक मेरे साथ बैठी रहीं.
आप मुझे अठ्नी देते थे। लेकिन आज जो बात मैं बता सकता हूँ उसके लिए एक अठ्नी काफी नहीं..
चल आज दोनों बोतल खोलेंगे..ब्लैक लेबल..
उन्हें तुम्हारा नाम अभी तक याद है..
रवि मुस्कुरा दिया.. मानो उनके अनकहे प्रेम को आज अभिव्यक्ति मिल गई थी।
उन्होंने हेड लाईट्स ऑन कार दी.. कार सरपट गति से दौड़ चली....
- लीना मल्होत्रा रॉव
संपर्क: leena3malhotra@gmail.com
1 टिप्पणियाँ
कविताओं का आख्यान है यह शानदार कहानी
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बढ़िया कहानी है। अंत तक बॉंधकर रखने में सक्षम। यद्यपि लगभग पूरी कहानी वर्णनात्मक शैली में ही है फिर भी सारे पात्र अपने भाव खुद ही प्रकट करते लगते हैं। मैंने लीना जी की यह पहली कहानी पढ़ी। वे शायद फिल्मों और धारावाहिकों के लिए भी कहानियॉं लिखती रही हैं। अभिनय भी किया है लेकिन कहीं प्रकाशित हुई यह उनकी पहली कहानी है इस लिहाज से मैं कहना चाहॅूगा कि लम्बी होने के बावजूद कहानी में प्रवाह तथा भाव—बोध एक समान बना हुआ है। कहानी तत्त्वों के अनुरुप इसमें उद्देश्य, नाटकीयता, प्रवाह तथा रहस्य पर्याप्त मात्रा हैं जिससे यह एक सम्पूर्ण कहानी बन जाती है। लीना जी को साधुवाद।
आंचलिकता के गुण को स्वीकार कर लेने के बावजूद कहानी में वाक्य विन्यास खटकते हैं और कहीं—कहीं तो पाठन—प्रवाह को अवरुद्ध भी करते हैं। तब और ज्यादा अखरता है जब शरीर के अंगों की चर्चा में उनके पुल्लिंग और स्त्रीलिंग होने का भी ध्यान नहीं रखा जाता, जैसे कि एक वाक्य है— '...लेकिन बाजी मार ले जाता था उनका नाक, जो लाल से भी अधिक लाल हो जाता...' और एक जगह तो लीना जी ने एकदम अभिनव प्रयोग किया है— '.. वह अपनी चारपाई पर सोये—सोये उन्हें निहारता रहता रात भर...'
सोया आदमी कैसे निहार सकता है भला ?
बावजूद इन छिट पुट मीन—मेख के कहानी जबर्दस्त है और एक बार पुन: पढ़ने की इच्छा जगाती है जो कि इसकी सफलता है। सुश्री लीना जी मूलत: कवयित्री हैं और कहानी के विन्यास में उनके इस नैसर्गिक गुण को देखा जा सकता है। शीघ्र ही उनसे एक और कहानी की कामना के साथ मेरी असीम शुभकामनाएं।