head advt

लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का सैद्धांतिक संहार - कृष्णा सोबती | Carnage of democracy in the name of democracy - Krishna Sobti


किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए।


देश जो अयोध्या है और फैजाबाद भी

कृष्णा सोबती

हमारे राष्ट्र का तानाबाना यहां रहने वाले विभिन्न समाजों की विविधता को सहेजे-समेटे जोड़-जमा से निर्मित है। प्राचीन धर्म-संस्कृति के नाम पर इसकी गुणा को भाग में विभाजित करने का श्रेय किसी एक समाज को नहीं जाता, बहुसंख्यक समाज के हिंदुत्व अखाड़े में हर-हर भांज रहे बुद्धिमानों को इसे समझना चाहिए।

अपने प्यारे देश का भूगोल, इतिहास और सांस्कृतिक-सामाजिक विन्यास सघन है। वह सजग और बहुरंगी-बहुधर्मी राग में निबद्ध है। यही हमारी विपुलता और बौद्धिक संपन्नता की कसौटी है। भारतीय कवि-मन ने अपनी पुण्यवती धरती की प्रशंसा में जितने भी महिमा गान रचे हैं- बंदिश में बांधे हैं- उनमें राष्ट्र की चारों दिशाओं के सुर-ताल समादृत हैं। वे देश प्रेम के गहरे भावों में समाहित हैं।

          देश के इन स्तुति गानों की प्रस्तुतियां हर भारतीय के वजूद में उम्र भर धड़कती रहती हैं!

          मेरी जन्म भूमि, मेरी मातृ भूमि, मेरा मादरे वतन। वन्दे मातरम्। सारे जहां से अच्छा हिन्दतोस्तां हमारा; हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा।

          इन पंक्तियों से, शब्दों से उभरते अहसास हर नागरिक की सांसों में, रूह में आत्मा में प्रवाहित होते चले जाते हैं। तन-मन को सरसाते चले जाते हैं। यह न किसी धर्म की बपौती हैं, न किसी राजनीतिक दल की विरासत, न किसी समूह विशेष की, न समुदाय-संप्रदाय की।

          इस विशाल देश की ऋतुएं, मौसम, धूपछांही गन्ध हर भारतीय नागरिक के तन-मन को आह्लादित करती है। अपने गांव, कस्बे, नगर, महानगर, प्रदेश एक दूसरे की परस्परता में जीते हैं। एक देश के निवासी होने के रिश्ते को जीते हैं। गरीबी, अमीरी और बेहतर जिंदगी की खुशहाल लालसा पीढ़ियों के साथ भारत के मौसमों में घुल जाती है। इसी प्राचीन उद्गम से उभरती रही हैं विविध वैचारिक दार्शनिक चेतना की उत्कृष्टता। प्रबुद्धता। साधारण भारतीय मन की अभिव्यक्ति हमारे रचनात्मक साहित्य में संकलित है।

          भारतीय लोकतंत्र में जनहित कल्याण की व्यापक अवधारणाओं को ध्यान में रख राष्ट्र के विभिन्न जाति-समूह, समुदाय-संप्रदाय और विभिन्न धर्मों को संविधान के तहत बराबरी का दर्जा दिया गया। धर्मनिरपेक्षता इस राष्ट्र का महामंत्र है। हमारे प्रबुद्ध लेखकों की अंतरदृष्टियां समय और काल के परिवर्तनों को अंकित करती रही हैं। उनके पार ले जाती रही हैं। इस तरह वे मानवीय मूल्यों को इन्सानी संघर्ष की कशमकश से ऊपर रखती रही हैं।
हिंदुत्व सिर्फ वह नहीं जो चित्त-पावनी राजनीति से सबको निकृष्ट समझते हुए खुद के पवित्रतम होने का दम भरता है
          राष्ट्र की नागरिक संहिता के अनुरूप हर भारतीय स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई, जैन-बौद्ध, पारसी-यहूदी एक-से नागरिक अधिकारों के स्वामी हैं। लोकतंत्र की इन्हीं कद्रों-कीमतों के सहारे आज के नए समय का भारतीय नागरिक बेहतर जीवन की ओर उन्मुख है। अग्रसर है।

          ऐसे में किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र की संप्रभुतापूर्ण सत्ता-व्यवस्था, लोकतंत्र के हित में, धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध रही है।

          हमारे राष्ट्र का तानाबाना यहां रहने वाले विभिन्न समाजों की विविधता को सहेजे-समेटे जोड़-जमा से निर्मित है। प्राचीन धर्म-संस्कृति के नाम पर इसकी गुणा को भाग में विभाजित करने का श्रेय किसी एक समाज को नहीं जाता, बहुसंख्यक समाज के हिंदुत्व अखाड़े में हर-हर भांज रहे बुद्धिमानों को इसे समझना चाहिए।

          भारत देश की महानता के सूत्र किसी भी एक धर्म के पाले में नहीं हैं, वे देश-प्रदेश से उभरे राष्ट्रीय यथार्थ की  संरचना में हैं। भारत में रहने वाले विभिन्न धार्मिक समूह आपसी टकराहटों, संग्रामों के बाद भी सहअस्तित्व की संभावनाओं से प्रभावित और संचालित होते रहे।

          ये समूह अपने-अपने प्रेरणा-स्रोतों के मुहानों से एक-दूसरे से संवाद, वाद-विवाद, विचार-विमर्श करने की प्रक्रियाओं में से गुजरते हुए सारगर्भित व्याख्याएं प्रस्तुत करते रहे। हमारा देश दर्शन, अध्यात्म और कलाओं की तार्किक विधाओं का प्रणेता रहा है। आक्रमणकारी विजेताओं द्वारा पराजित होने की दुखदाई परिधियों में भी यहां के निवासियों ने अपनी भारतीय विशिष्टता को बनाए रखा है। भारत के गौरवमय अतीत और ‘दूसरों’ के आधिपत्य में भी अपने मूल स्वरूपों को बचाए रखा है। हमारा देश सदियों से समावेश और सामंजस्य का पर्याय रहा है।

          ‘हिंदुत्व’ के गौरव को उछालने, उघाड़ने और दहाड़ने से न उसकी खूबियां कम होंगी, न चुनावी समर में आगे निकलने से उनमें इजाफा होगा। हिंदुत्व सिर्फ वह नहीं जो चित्त-पावनी राजनीति से सबको निकृष्ट समझते हुए खुद के पवित्रतम होने का दम भरता है। इसकी विशाल सीमाओं का वैभव प्रकृति और सृष्टि की संपदा से भरपूर है; वह (‘हिंदुत्व’) अपने में बहुत कुछ जज्ब करने और कचरे को निकाल फेंकने का सामर्थ्य भी रखता है। हमारे लोकतंत्र की ताकत और रफ्तार इससे जाहिर होती है। भारतीय नागरिक की मानसिकता और नीतिगत विवेक किसी भी तानाशाही विचारधारा को मैत्री भाव से नहीं देखता।
धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। 
          भारतीय जनमानस का नागरिक व्याकरण खासा पुख्ता है। वह भ्रष्टाचार को एक हद तक सहन करता है, उसके बाद रोक देता है। वह जानता है कि मतदाता किसी भी दल का चुनाव कर सकता है, किसी दल को ऊंचाई से उतार भी सकता है। विस्मयकारी  है  कि  राजनीतिक  पार्टियां  जनता  जनार्दन  को  ऐसी  स्वेच्छाचारिता  से  सम्बोधित  करती  हैं  मानो  नेताओं  के  मुख  से  वे  कुछ  भी  स्वीकार  कर  लेंगी।

          लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया जनता और राजनीतिक दलों के संदर्भ में नागरिक की भाषाई संस्कृति और शब्दावली को प्रत्यक्ष करती है। अधिनायकवाद से हट कर वह दूसरे दृष्टिकोण को भी सुनने-समझने की तालीम   रखती है। जो हम आज देख रहे हैं, वह लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का सैद्धांतिक संहार है और दूसरों का मुंह बंद करने की महज जूतम-पैजार।

          करोड़ों शिक्षित मतदाता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाली गाली-गलौज की चुनावी शैली को लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान समझते हैं। सलीकों के तर्कों से परे, दूसरों को लगभग धमकाते हुए अपमान करना, बराबरी के लोकतंत्र का चिह्न नहीं। विज्ञापन एजेंसी के कौशल के बावजूद किसी भी पार्टी की विचारधारा की मुंहजोर तानाशाही ज्यादा देर चलती नहीं। धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। यह चाहे हिंदुत्व के गौरव-गान के लिए हो या सदियों की गुलामी को भुलाने के लिए- बहुसंख्यक समाज की नुमाइंदगी करने की गरज से धिक्कारती-फटकारती ये मुद्राएं दुखद नजरिए की ऐतिहासिकता को ही प्रकट करती हैं।

          यह भारत देश किसी राजनैतिक विचारधारा के मंसूबों के नीचे न किसी एक धर्म का है न किसी जाति का। वह अयोध्या है तो फैजाबाद भी है। यहां सांची है तो सिकंदराबाद भी है। बनारस है और मुगलसराय भी। भुवनेश्वर और अहमदाबाद भी। हरिद्वार है, अलीगढ़ भी। रामपुर है और डलहौजी भी। इंद्रप्रस्थ है और गाजियाबाद भी। पटियाला और मैकलोडगंज भी। गुरुकुल कांगड़ी है, देवबंद भी। प्रयागराज और अजमेरशरीफ भी। सदियों-सदियों से ये भारतीय संज्ञाएं इस महादेश की शिराओं में बहती हैं- वे इतिहास के पन्नों में स्थित हैं। ऐसे में हिंदुत्व का गौरवगान इन्हें भला क्योंकर बदल पाएगा?

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ

गलत
आपकी सदस्यता सफल हो गई है.

शब्दांकन को अपनी ईमेल / व्हाट्सऐप पर पढ़ने के लिए जुड़ें 

The WHATSAPP field must contain between 6 and 19 digits and include the country code without using +/0 (e.g. 1xxxxxxxxxx for the United States)
?