मृदुला गर्ग की नयी कहानी 'बेन्च पर बूढ़े' Mridula Garg, Hindi Kahani, 'Bench par Budhe'


ईमानदार लोगों के साथ यही दिक़्क़त है, सच का बुरा मान जाते हैं। 

कम ईमानदार लोगों की यही सिफ़्त है, ज़िन्दादिल होते हैं, मज़ाक का बुरा नहीं मानते। 

बेन्च पर बूढ़े

मृदुला गर्ग

उसकी विनय और अभ्यर्थना के सामने उसकी भोली पत्नी ही नहीं, खुर्राट दफ़्तरी बाबू ख़ुद वह नतमस्तक हो रहा। यह न समझा कि वे चले गये तो मान्या को नौकरी छोड़नी पड़ेगी या बच्चों की देखभाल के लिए ऊँची तनख्वाह पर हाउसकीपर रखनी पड़ेगी। आजकल कुछ कम ऊँचे ओहदे वाले आया को "हाऊसकीपर" और ज़्यादा ऊँचे ओहदे वाले "गवरनेस" कहते हैं। दादी को अलबत्ता ग्रेनी कहने भर से, बिला वेतन काम चल जाता है।
Mridula Garg sahitya akademi award winners 2013


बूढ़े पार्क की बेन्च पर बैठें या आई.आई.सी के लाउंज में, ख़ास फ़र्क़ नहीं है, उत्तर-दक्षिण दिल्ली के सरहदी लोदी गार्डन की बेन्च पर बैठा, नितिन सोच रहा था। ये भी सेवा निवृत हैं, वे भी। सेवा निवृत, क्या आनबान वाला शब्द है जैसे बन्दा सारी उम्र सेवा करके, अपनी मर्ज़ी से निवृत हुआ हो। अंग्रेज़ी पर्याय "रिटायर" में वह शान नहीं झलकती, बल्कि गाड़ी के "रीट्रीडड टायर" की याद हो आती है। पर शब्द से क्या होता है, अर्थ दोनों का एक है, घर से निष्कासित। जैसे नितिन। कभी नितिन सोलंकी...हाल में सेवा निवृत हो मात्र नितिन या वह भी नहीं, केवल पापा या दादा। कितनी चिढ़ है उसे पापा शब्द से। अजब निरर्थक सम्बोधन है। जैसे गार्डन या पार्क। अरे भई, बगीचा या बाग कहते ज़बान गलती है क्या? कहो तो उसके पोते-पोती समझें ही नहीं। सब कहते हैं न, बड़े-बड़े हिन्दी के विद्वान भी, हिन्दी बदलेगी तो चलेगी! यानी अंग्रेज़ी शब्दों का घालमेल करके बोलो तो लंगड़ा कर चल लेगी कुछ देर और। नितिन की ज़िन्दगी खत्म होने तक, ज़रूर। ठीक है, वह नाहक अपना भेजा क्यों ख़राब कर रहा है, ख़ासी बढ़िया अंग्रेज़ी जानता है। जो नहीं जानते, उद्यान और उपवन में फ़र्क़ किये बग़ैर, किसी भी मैदान को पार्क या गार्डन पुकारते हैं। उसे भी उनकी चाल चलना पड़ता है। सो पेड़-फूलों से लदा इतना बड़ा मैदान हुआ गार्डन और मौहल्लों की नन्ही-सी खुली जगह हुई पार्क! हुआ करे, वह अपना भेजा फ़्राई क्यों कर रहा है? और कुछ फ़्राई रहा जो नहीं ज़िन्दगी में। "फ़्राई" उसे इस उम्र में चलता नहीं। सच कहें तो ख़ूब चलता है उसे; उसकी बहू मान्या मानती है, नहीं चलना चाहिए। सो रोज़ घोड़े के खाने लायक़ भूसा, चलो जई सही, औटा कर धर देती है सामने। कहती है,"ओट्स" हेल्थ फ़ूड है। ज़रूर होगा। घोड़े खाते हैं, कभी किसी घोड़े को दिल का दौरा पड़ते सुना? स्वाद बदलने को वह हँसोड़ वाक्य सोचता है, कहता नहीं। असल बात कौन नहीं जानता, बाज़ार से डिब्बा-बन्द आता है, घोल घोटने में पाँच क्षण नहीं लगते। जिसे पकाने में मेहनत न लगे, वह बनाने वाले की सेहत के लिए मुफ़ीद हुआ न? पता नहीं यह बेस्वाद खाना सिर्फ़ बूढों के लिए सही क्यों है? जवानों और बच्चों को चलता है, दूकान से आया पित्ज़ा और फ़्राईड प्रौन। कहते हैं, उनके खेलने-खाने के दिन हैं। हाल में सेवा निवृत हुए अधेड़ के क्या करने के दिन हैं, बहू और उसकी रसोईदारिन की सेहत बनाने के? 
नितिन सोलंकी ने ज़रूर कहा था,"अक्ल के अन्धों, तुम अपने बच्चों से ऐसे बात क्यों करते हो जैसे ये तुम्हारे अंग्रेज़ बॉस हों? सिर्फ़ नौकर और दादी ही रह गये हिन्दी बोलने को, जैसे साले गोरे साहबों के खानसामा या साईस?" 
बेचारी उसकी भली पत्नी भागवती। भली थी तभी उसके सेवा निवृत होने से पहले, जीवन निवृत हो गई। पुरानी चाल की औरत थी, ध्रुव के पैदा होने के बाद ज़्यादा दिन नौकरी नहीं की। बेटे को पालने-पढ़ाने-हर तरह लायक़ बनाने की ख़ातिर, जवानी में ही सेवा निवृत हो गई। वह फ़िक्क से हँस दिया। सेवा से नहीं, घर के भीतर सेवा करने के लिए बाहर से निवृत हुई थी। बेटा बड़ा हुआ तो पोते-पोती की सेवा में जुट गई। बहू मान्या दफ़्तरी ओहदे पर आसीन थी;  जन सेवा छोड़ गृह सेवा करने वाली थी नहीं। भली थी उसकी बीवी या बेवकूफ़, जो अच्छी-भली नौकरी छोड़, आदर्श माँ बनने के जंजाल में एक नहीं, दो पीढ़ियों तक फँसी रही? ध्रुव की शादी के बाद, नितिन ने कई बार तजवीज़ रखी कि जवान जोड़ा अपनी गृहस्थी अलग बसाए, अधेड़ दम्पत्ति अलग। पर मान्या ने इतने स्नेहिल और विनीत भाव से मनुहार की, "प्लीज़-प्लीज़ हमारे साथ रहिए, बच्चों को- जो एक के बाद एक तीन बरस में दो हो लिये- दादा दादी के संग-साथ की सख्त ज़रूरत होती है, ऐसा आजकल की तमाम मनोवैज्ञानिक स्टडीज़ कहती हैं।" उसकी विनय और अभ्यर्थना के सामने उसकी भोली पत्नी ही नहीं, खुर्राट दफ़्तरी बाबू ख़ुद वह नतमस्तक हो रहा। यह न समझा कि वे चले गये तो मान्या को नौकरी छोड़नी पड़ेगी या बच्चों की देखभाल के लिए ऊँची तनख्वाह पर हाउसकीपर रखनी पड़ेगी। आजकल कुछ कम ऊँचे ओहदे वाले आया को "हाऊसकीपर" और ज़्यादा ऊँचे ओहदे वाले "गवरनेस" कहते हैं। दादी को अलबत्ता ग्रेनी कहने भर से, बिला वेतन काम चल जाता है। अपने बचाव में वह कहे तो क्या। काफ़ी दिनों तक उसे भागवती भली ही लगी थी, बेवकूफ़ नहीं, जब रोज़ नाश्ते में भरवां पराँठा या मूँग दाल का चीला गरमागरम बना कर खिलाती। ध्रुव भी तारीफ़ करता न अघाता। मान्या बिला तारीफ़ किये गटकती रहती, इस नसीहत के साथ कि वह सेहतमंद खाने की श्रेणी में नहीं आता, फिर भी...भली थी उसकी बीवी जो पलट कर नहीं कहा,"भलीमानुस, तुम नहीं न खाओ, मैं तुम्हारे नहीं, अपने पति-पुत्र के लिए बना रही हूँ। तुम्हारे पुत्र-पुत्री के लिए तो ख़ैर मुफ़ीद होगा ही, आख़िर उनके खेलने-खाने के दिन हैं।" 

यह बाज़ार का पित्ज़ा और चाईनीज़ फ़्राईड राईस, चिली प्रौन वगैरह भागवती के जीवन-निवृत होने के बाद आने शुरु हुए थे। जब तक वह थी, नई पीढ़ी की फ़रमाईश पर, टी.वी के पाक-कला कार्यक्रमों से सीख, चाउमीन, चॉपसुई, पास्ता, प्रौन करी और जने क्या-क्या घर पर बना दिया करती थी। बहू कहती थी, सारा दिन ईडियट बॉक्स के सामने बैठी रहती हैं, बच्चे स्कूल से आएं तब बन्द कर दिया करें, अदरवाइज़ उन्हें भी रोग लग जाएगा। भली सास उनके आने से पहले बन्द किये रखती; बच्चे अपनी मर्ज़ी से भद्दे-भोंडे रियेलिटी शो लगा कर बैठ जाते तो वह ईडियट कैसे कहती कि पाक कला सीखना, इससे तो कम ईडियोसी का काम था। जब-तब बहू-बेटा ख़ूब विनीत भाव से कहते,"इनसे हिन्दी में बोला कीजिए प्लीज़ वरना दे विल टॉक ओन्ली इन इंग्लिश... ऑल्वेज़," इसलिए वह "इडियोसी" जैसे शब्द बोलने से परहेज़ रखती। यह दीगर है कि वह चाहे जितनी ख़ुशनुमा हिन्दुस्तानी बोलती, बच्चे जवाब अंग्रेज़ी में ही देते। उनके माँ-बाप भी उनसे फ़क़त अंग्रेज़ी में बात करते, जैसे वे इंग्लिस्तान, न-न अमेरिका की पैदाइश हों; इंग्लिस्तान के दिन कब के लद गये। एक दिन भागवती ने तो नहीं, नितिन सोलंकी ने ज़रूर कहा था,"अक्ल के अन्धों, तुम अपने बच्चों से ऐसे बात क्यों करते हो जैसे ये तुम्हारे अंग्रेज़ बॉस हों? सिर्फ़ नौकर और दादी ही रह गये हिन्दी बोलने को, जैसे साले गोरे साहबों के खानसामा या साईस?" जवाब में बहू तो बहू, बेटा भी पीछे पड़ गया था कि ऐसी "लेन्गुएज" मत बोलिए, बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। बेटे को क्या दोष दे, शादी होते ही तमाम जवान मर्दों की अक्ल घास चरने चली जाती है और बीवी के जवान रहने तक, जो आजकल शौहर की निस्बत ज़्यादा बरस रहती हैं, वापस नहीं लौटती। ध्रुव अकेले थोड़ा था। ख़ुद नितिन की भी गई थी न, गार्डन या पार्क न सही, नुक्कड़ की बगिया में। बस उसकी जवान बीवी ज़्यादा दिन जवान रही नहीं। समय से पहले रिटायर हुई, समय से पहले बुढ़ाई और समय से पहले निवृत हो गई।

उसका बनाया "चाऊ-साऊ" ख़ा कर मान्या कहती तो थी, चाईनीज़ शेफ़ जैसा नहीं बना पर पैसे की बचत के चलते, समझौता करने को राज़ी हो जाती और न-न करते, काफ़ी हिस्सा चट कर जाती। उसकी भली बीवी के लिए कम ही बचता पर उसकी सेहत के लिए ठीक भी तो नहीं था न; और नई चाल के व्यंजनों का उसे शौक़ भी नहीं था। उससे किसी ने पूछा नहीं था, वह भी भला पूछने की बात थी? औरों को छोड़ो, ख़ुद उसने नहीं पूछा था। बचा-खुचा अपनी प्लेट में न डाल, उसे आदर्श माँ-दादी के साथ अच्छी पत्नी होने के सौभाग्य से वंचित क्योंकर करता!       

भागवती के बाद अकेला पड़ गया तो ध्रुव के पास बना रहा, अपने निर्णय स्वयं लेने का अभ्यास तब तक मिट चुका था। ध्रुव के ऊँचे ओहदे की वजह से ही, सेवा निवृत नितिन सोलंकी, आई.आई.सी से सटे भव्य लोदी गार्डन की बेन्च पर बैठने का सौभाग्य पा सका। उसका बंगला पास ही काका नगर में था। उसके बेचारे साथी, डी.डी.ए की एस.एफ़.एस या एम.आई.जी कालोनी में बने छुट्टभइया पार्क की बेआराम बेन्च पर बैठने को अभिशप्त थे। बेचारे वे थे या नितिन? वे पाँच-छह के गोल में, देश के बिगड़ते हालात और नई पीढ़ी की बढती उच्छृंकलता की निन्दा करके वक़्त ज़ाया करते। लम्बे-चौड़े-हवादार लोदी गार्डन में हरियाली और आरामदेह बेन्च ज़रूर थीं पर नितिन को वक़्त अकेले ज़ाया करना पड़ता था। शनिवार-रविवार को झुन्ड के झुन्ड लोग पिकनिक मनाने आते पर नितिन की हलो का जवाब तक देना गवारा न करते। बाक़ी शाम, ट्रैक सूट में लैस जॉगर्स या वॉकर्स से बतियाने का सवाल ही नहीं उठता था। वॉक यानी सैर नितिन भी करता था, मद्धिम चाल चलतों से हाई-हलो हो जाती पर ऐसे लोग वहाँ कम आते थे। लोदी गार्डन के पास के बंगलों में सेवा निवृत बूढ़ों के रहने का चलन शायद नहीं था। ऊँचे ओहदेदार,  माँ-बाप का क्या करते थे, वह जान नहीं पाया पर इतना ज़रूर जानता था कि बेटे के सदस्य होने पर, बाप आई.आई.सी के लाउंज में नहीं बैठ सकता था। 

यानी उसकी औक़ात आई आई सी में बैठने की नहीं थी। दो-चार बार गया ज़रूर था। दुबारा दोस्तों की तलाश में निकले, हाल में सेवा निवृत हुए, एक ज़माने के साथी बाबू बी.के के साथ। अहमक़ नितिन सोलंकी ताउम्र बाबू बना रहा; चतुर सुजान बनवारी कपूर, पदोन्नति पर पदोन्नति कर, सेल्स विभाग में अफ़सर बी.के बन गया। उस मुकाम पर पहुँच कर उसे आई.आई.सी की जीवन-पर्यन्त सदस्यता मिल गई। सेल्स विभाग में जाने का निहितार्थ कौन नहीं समझता; मृदु-भाषी और चालाक होने के साथ, बी.के दुनियादार भी था, अभिधा में कहें तो बेईमान। 

पहली मर्तबा शनिवार की दुपहर, बी.के से मुलाक़ात औचक हुई थी, जब नितिन लोदी गार्डन के गेट से अन्दर घुस रहा था। "चलो, वहाँ बैठते हैं," बी.के ने आई.आई.सी की तरफ़ इशारा करके कहा था। चलते समय उसका फ़ोन नम्बर माँगा तो उसने ध्रुव के घर का नम्बर दे दिया।

"यह तो लैन्ड लाइन है। मोबाइल नहीं है तेरे पास?" नम्बर अपने मोबाईल में भरते हुए बी.के ने पूछा था।

उसके न कहने पर हो-हो कर हँसते हुए कहा था,"मोबाईल तो आजकल भिखारियों तक के पास होता है। मेरे पास है न, कर लेना कभी भी। यहीं मिलेंगे।" हँसी के बावजूद, नितिन को बुरा लगा था; ईमानदार लोगों के साथ यही दिक़्क़त है, सच का बुरा मान जाते हैं। 

ऐसा नहीं था कि नितिन धर्मराज युधिष्ठिर का अवतार था। यूँ धर्मराज कौन कम दुनियादार थे। क्या ठाठदार झूठ बोला था कुरुक्षेत्र में, न सच न झूठ, एकदम बी.के की "सेल्स पिच" की तरह दुनियादार। सच यह था कि नितिन को ढंग से झूठ बोलना आता न था। कोशिश करता तो बनता काम बिगड़ जाता, बिगड़ा, बिगड़ा रहता ही। उससे बेहतर झूठ तो भोली भागवती बोल लेती थी, जो कटहल की तरी को चिकन तरी बतला कर परोस देती और किसी उल्लू के पट्ठे को ज़रा शक़ न होता। बजट में बचे पैसों से पकौड़े, टिकिया, दम आलू, कचौड़ी जैसे ग़ैर-सेहतमन्द देसी व्यंजन बना डालती, जिन्हें दुर-दुर करते, सब चट कर जाते। भागवती के लिए ज़रा-मरा ही बच पाता। क्या विडम्बना थी कि सभी तरह के देसी-विदेशी ग़ैर-सेहतमन्द खाने से ज़बरन परहेज़ कर, हैल्थ फ़ूड खा कर भागवती सबसे पहले परलोक सिधारी। नितिन समेत तमाम उल्लू के चरखे ग़लत खा कर भी अच्छे-भले हैं। बुरी बात, उसने अपने को दुत्कारा, गाली दे कर बात नहीं करनी चाहिए। 

"देनी नहीं, सिर्फ़ खानी चाहिए, हा-हा," तुरंत बी.के की आवाज़ आई। वह वहाँ नहीं था,  आई.आई.सी का जीवन पर्यन्त सदस्य, हरामज़ादा लाऊंज छोड़ उद्यान की बेन्च पर क्यों बैठता? आवाज़ उसके भीतर से आई थी, आजकल जब-तब बी.के भीतर घुस कर बोला करता है। अकेलेपन से निजात पाने का अच्छा तरीका है।

पहली मुलाक़ात के बाद, कुछ दिन तक नितिन बुरा माने इंतज़ार करता रहा कि बी.के फ़ोन करेगा। नहीं किया तो जब मय परिवार ध्रुव छुट्टी मनाने दिल्ली से बाहर था, एक कटखनी अकेली शाम, उसी ने बी.के का नम्बर मिलाया। 

"आ जा कल ग्यारह बजे, मैं बाहर दरवाज़े पर मिल जाऊंगा," उसने कहा। 

"ग्यारह नहीं, शाम पाँच बजे," नितिन ने कहा; अगले दिन ध्रुव को लौटना था। "दिन में कामवालियाँ आती-जाती रहती हैं, शाम को बच्चों के लौटने पर ही आ पाऊंगा।" बी.के मान गया था। नितिन ने थोड़ा झूठ बोला था। कामवाली रहती पूरा वक़्त घर पर थी पर दुपहर को आराम करती थी। आमतौर पर वह मान्या-ध्रुव के घर लौटने पर, छह-सात बजे बाहर निकलता था। लोदी गार्डन आठ बजे तक खुला रहता था। पर चाहता तो पाँच बजे निकल सकता था।

"लाईफ़ मेम्बर होने के बहुत फ़ायदे हैं," बी.के ने उसे समझाया था। "ख़ुराफ़ात में पड़ने पर सालाना सदस्य की सदस्यता आसानी से खत्म की जा सकती है, लाईफ़ मेम्बर की करो तो सवाल उठना लाज़िमी है कि लाईफ़ मेम्बर बनाया क्या सोच कर था?" 

इसीलिए आई.आई.सी ज़्यादातर बूढ़ों को ज़िन्दगी भर के लिए सदस्य बनाता है, ख़ुराफ़ात में पड़ने का डर लगभग खत्म हो चुका होता है; ज़्यादा ज़िन्दा रहने का भी।" 

"और इसीलिए, "नितिन ने हाज़िरजवाबी में पहली बार बी.के को मात दे कर कहा था, "वे आराम से ख़ुराफ़ात करते रह सकते हैं और जीते भी ज़्यादा हैं।"

भागवती के गुज़रने के बाद वह समझ गया था कि गैर-ख़ुराफ़ाती जन, सेहतमन्द खाना खा कर भी कम जीते हैं। सोचा जाए तो भागवती थी भागवान, जल्दी सिधारी तो उसकी तरह पार्क की में बैठ या घूम कर अकेली शामें गुज़ारने की नौबत न आई। सोचा जाए, और करने को था क्या नितिन के पास, सोचने के सिवा, बेन्च पर बूढ़े ज़्यादा दीखते थे, बुढ़ियें निस्बतन कम। तर्कसम्मत था। चूंकि हिन्दुस्तानी मर्द, औरत की तरह घर के काम में हाथ नहीं बंटा पाता, इसलिए बुढ़ापे में उसका मूल्य और कम हो जाता है। घर का काम, एकमात्र काम है, जिससे बन्दा कभी रिटायर नहीं होता। अजब शै है हिन्दुस्तानी मर्द। सारी उम्र औरत के भरोसे राज करके इतना निकम्मा हो जाता है कि बुढ़ापे में भरवां पराठा या मूँग दाल का चीला दूर, रोटी-दाल-पुलाव पका कर भी घर के लिए ज़रूरी नहीं बना रह सकता। हद से हद पोते-पोती की उंगली पकड़ या बच्चा गाड़ी ठेल, घुमाने ले जा सकता है या फल-तरकारी की खरीदारी कर सकता है। नितिन के पोते-पोती उतने छोटे नहीं थे कि घुमाने ले जाए जा सकें। घर पर रह्ते भी उनसे बात कम होती थी। अब वे टी.वी छोड़, कम्प्यूटर पर यूट्यूब में उत्तेजक फ़िल्में देखते हैं। माँ-बाप, चुगद, इतने ऊँचे ओहदों पर पहुँच लिये कि बच्चे क्या कर रहे हैं, देखने का वक़्त नहीं है। परदे के पीछे खड़े रह कर एक बार उसने एक फ़िल्म के कुछ दृश्य देखे थे, पल भर को सोचा, ब्ल्यू फ़िल्म इसी को कहते हैं क्या? पर इतना गब्दू नहीं था। जल्द समझ गया कि उसके ज़माने में इस ख़ुराफ़ात को सनसनीखेज़ भले मान भी लिया जाता, वाक़ई ब्ल्यू फ़िल्म वह नहीं थी। फिर भी व्यस्क ज़रूर थी, कुछ ज़्यादा ही व्यस्क। स्कूली बच्चों के माक़ूल बिल्कुल नहीं। पर उसने कुछ कहा नहीं था। जानता था,बच्चे दुनियादारी में उससे इक्कीस थे। धर्मराज और बी.के को मात दे, इस सफ़ाई से आधा झूठ बोलते थे कि माँ-बाप शेखी बघारते फिरते थे कि हमारे बच्चे वेब पर खोज-खोज कर ऊँची तालीम के गुर सीख रहे हैं, देखना, बोर्ड में अठानवे-निनानवे फ़ीसद नम्बर लाएंगे। नहीं, वह नितिन के शब्द हैं, वे नाइन्टी एट-नाइन्टी नाईन परसेन्ट कहते थे, रुतबेदार ठहरे।  

दिन में वह कभी-कभार टी.वी पर फ़िल्म या ख़बरें देख लेता पर उसकी अनेक कमियों में से एक यह थी कि उसे टी.वी भाता नहीं था। ख़बरें अख़बार में पढ़ना पसन्द करता और फ़िल्म साथ बैठ कर देखना, सो बुद्धू बक्से के आगे बमुश्किल आधा घन्टा गुज़ार पाता। क़िताबें ख़ूब पढ़ता, पहले वक़्त नहीं मिला था, पर जने क्यों चुगद उतने से खुश नहीं रह पाता। वैसे उतना चुगद भी नहीं था। मान्या ने कहा-भर था कि बुढ़ापे में सेहत के लिए लम्बी सैर ज़रूरी है, वह तत्काल इशारा समझ, संग-साथ की चाह भीतर घोटे, बेटे-बहू को एकान्त देने की खातिर, शामें पार्क में टहलते या बेन्च पर बैठे गुज़ारने लगा था। शनिवार-रविवार को दिन का काफ़ी वक़्त भी। लोदी गार्डन में हरियाली के चलते गरमी-सरदी कम महसूस होती थी।               

बी.के से दूसरी मुलाक़ात, शाम पाँच बजे हुई तो सात बजे वह उठ खड़ा हुआ। बोला, "चलूँ वरना बस नहीं मिलेगी। और हाँ, जब मिलना हो मेरे मोबाईल पर मिस्ड कॉल दे देना, मैं अगले दिन पाँच बजे आई.आई.सी के दरवाज़े पर मिल जाऊंगा। इन्कमिंग फ़्री है, तेरा पैसा भी नहीं लगेगा।"

घनचक्कर! समझता क्या है, उसे फ़ोन करने की मनाही है! ध्रुव इतना बड़ा अफ़सर है, फ़ोन के बिल सरकर भरती है। नितिन वापस लोदी गार्डन पहुँचा तो उड़ते से ख़याल आये कि बी.के बस में सफ़र क्यों करता है, उसके पास तो गाड़ी थी, वह भी एस्टीम। और दोनों बार मिलने पर एक चाय मंगा, दो प्यालों में उडेल, टरका दिया था, कुछ खिलाया न था। ख़ासा खुला हाथ रखने वाला, सेवा निवृत बुढ़ऊ इतना कंजूस हो लिया! खाने को घर पहुँच, भूसा-छाप कुछ खा ही लेगा पर आई.आई.सी लाऊंज के बाहर क़तार से सजे पेस्ट्री-पैटी देख, जी ललचा उठा था। बुरा हो, न-न भला हो, भागवती का, तरह तरह के व्यंजन पकाना सीख, अला-बला खाने का स्वाद पैदा कर गई। अपने लिए खरीदने लायक पैसा था उसके पास पर कमबख्तों ने पट्टा लगा रखा था, सिर्फ़ सदस्यों के लिए। अगली बार बी.के से कहेगा, वह साइन कर दे, पैसे नितिन दे देगा। पर जानता था कह नहीं पाएगा। ऐसे ही थोड़ा न, पूरी उम्र बाबूगिरी करते गुज़ारी थी।    

कुछ मुलाक़ातें और हुई थी। 

थोड़े दिन बाद, बी.के ने कहा था, "तू ख़ुशक़िस्मत है जो तेरी बहू दफ़्तर में काम करती है। दिन भर आराम से पाँव पसार घर में पड़ा रह सकता है, कूलर-शूलर चला कर। मेरी बहू घर से काम करती है, सो सारा दिन घर बैठी, गाहक निबटाती है।"

"हैं!" उसे ठिठोली सूझी थी, "गाहक! चकला चलाती है क्या?" वह फुसफुसाया था।

बी.के ठहाका मार हँस दिया था। कम ईमानदार लोगों की यही सिफ़्त है, ज़िन्दादिल होते हैं, मज़ाक का बुरा नहीं मानते। कहा था, "नहीं यार, उदारवादी युग की देन है। घरका नहीं, घरसे काम करो। औरतें उसका ज़्यादा फ़ायदा उठाती हैं। बहुत से पेशे हैं, मेरी बहू डाईटिशयन है। मतलब समझते हो, गाहकों को घर बुला, सलाह देती है, क्या खायें क्या नहीं, जिससे मोटापा घटा कर, तन्दरुस्त, छरहरे और जवान बने रहें।"

"पर तेरी बहू तो ख़ासी मोटी तन्दरुस्त है।" 

"यही तो मौज है। सलाह देनी होती है, आज़माइश नहीं करनी होती। मोटी फ़ीस वसूल कर घर से काम करने में घर का काम करने को वक़्त नहीं मिलता। ख़ुद बाहर से मँगा कर खाते हैं, दूसरों को मट्ठा पीने की सलाह देते हैं।"

"घर पर बना कर?"   

"नहीं यार, बाहर से मंगा कर। हैल्थ फ़ूड की अब पूरी की पूरी इन्डस्ट्री है।"

"तेरी मौज है, खाया कर दबा कर जन्क! मुझे तो रोज़ भूसा खाना पड़ता है।"  

"गाहकों के आने पर उसे मेरा घर रहना पसन्द नहीं। इसीलिए सुबह नाश्ते के बाद से यहाँ आई.आई.सी में आकर बैठ जाता हूँ।"

"क्यों, तू उन्हें आँख मारता है?"

"मारता तो एतराज़ न होता। पर ...मैं... काफ़ी बूढ़ा दिखता हूँ..."उसकी आवाज़ घीमी पड़ती  गुम हो गई। 

नितिन ने ग़ौर किया, पहले ध्यान नहीं दिया था, उसकी निस्बत बी.के ज़्यादा बूढ़ा दीखता था। शायद मान्या के खिलाये भूसे की मेहरबानी हो! नहीं, वह तो कुछ दिनों से मिलना शुरु हुआ है। बरसों भागवती के हाथ के तरमाल पर जिया है। 

"हम ससुरे बूढ़े नहीं तो क्या होंगे।"

"वह जवान बनाये रखने का दावा करती है। उसके पेशे में..."

नितिन हँसी न रोक पाया, बोला,"ससुरों को भी?" 

"यह उदारवाद का ज़माना है," एक ठसकेदार आवाज़ आई, "हम सब ऋणी हैं राजीव गान्धी के।" 

आवाज़ बी के की नहीं थी, पास की मेज़ से आई थी।

"हैं!" नितिन ने हँस कर कहा,"उदारवाद भी जवानी पसन्द है?"    

बी.के न हँसा, न मज़ाकिया जवाब हाज़िर किया। खसखसी आवाज़ में मिमियाया,"हाँ हम सब ऋणी हैं।" 

ज़िन्दादिली चुक गई क्या...तो ईमानदारी जग गई होगी?

नितिन ने ही कहा, "मुँह क्यों लटका रखा है? रोज़ इतनी ठाठदार जगह खाता है और देख यहाँ हैल्थ फ़ूड भी मिलता है।"   

"यहाँ खाने की मेरी औक़ात नहीं है," वह फुसफुसाया।

हद हो गई! उसकी इमानदारी जग गई या धर्मराजी झूठ बोल रहा था?

"क्या बक रहा है यार, तेरे पास भतेरा पैसा था।" उसके गृहप्रवेश में भागवती जैसी सात्विक औरत भी रश्क से कसमसा उठी थी,"कितना बढ़िया मकान बनवाया था।"

"कर्ज़ ले कर।"

"वह तो सभी लेते हैं।"

"राजीव गान्धी ने बाज़ार का उदारीकरण न किया होता तो हम इतने उद्योग-धन्धे न लगा पाते थे?" बराबर से आवाज़ फिर गूँजी।  

"सुना?" नितिन ने कहा। 

"हाँ। पहले सिर्फ़ सटोरिये दिवालिया होते थे, अब हर आदमी को यह सुविधा है," बी.के बुदबुदाया।

"चलें?" नितिन ने इस बिन नशे बड़बड़ाहट से बचने-बचाने को कहा।

"नहीं सुन ले। मैंने यह सोच कर मकान बनवाया था कि जब तक कर्ज़ चुकता होने तक उसे किराये पर चढ़ा देंगे, फिर उसमें रहेंगे। पर बच्चे नहीं माने । कहने लगे लोन का क्या है, ई.एम.आई देते रहेंगे, सब तो कमा रहे हैं। कमाया सबने, माहवारी किस्त दी सिर्फ़ मैंने। एक लड़का अमेरिका चला गया, उसका हमारी किसी बात से सरोकार न रहा। बेटी की शादी ज़्यादा पैसेवालो से कर दी, समझ कि लुट लिया। बचा अमित। उसकी सलाह पर कई बिज़नेस किये, लोन मिलना इस क़दर आसान था कि पाँव चादर से बाहर क्या पसारे, चादर दिखनी बन्द हो गई। जितनी आसानी से कर्ज़ दिया था, उतनी ही आसानी से साहूकार अदायगी में ओढ़ना-बिछौना उठा ले गये। जो कतरन बचीं, बीमारी में खर्च हो गईं। मैं दिवालिया हो गया। मकान बच रहा क्योंकि पहले ही अमित ने खरीद लिया था। अब मैं हूँ और आई.आई.सी की सदस्यता। जिस-तिस की मेज़ पर बैठ जाता हूँ, एकाध प्याले चाय का जुगाड़ हो जाता है।"

"बीमारी क्या हुई थी?"

"कैंसर। अब ठीक हूँ।"

"उदारीकरण का करिश्मा है कि आम हिन्दुस्तानी की औसत उम्र इतनी बढ़ गई। हर तरह की देसी-विदेशी चिकित्सा उपलब्ध है," बराबर की मेज़ चिहुंकी।

"भूतपूर्व मंत्री हैं," बी.के ने मरी आवाज़ में कहा,"कौन जाने कब भूत भविष्य बन जाए, मस्का लगाने की आदत बनाये रखनी पड़ती है।" 

नितिन की समझ में नहीं आया क्या कहे। तभी बैरा बिल ले आया। कुल नौ रुपये का था। सुस्त भाव से बी.के ने हस्ताक्षर कर दिये। बैरा चला गया तो नितिन ने बी.के का हाथ थाम कर कहा, "बुरा न माने तो एक बात कहूँ। पैसे मुझे देने दे। साइन तू कर पर..." जेब से दस का नोट निकाल उसे थमाते हुए जोड़ा, "हम मिलते रहेंगे,मुझे गरमी-सरदी बगीचे में बैठने में कष्ट होता है। यहाँ ए.सी है। और सुन, एक वैज पैटी मँगा ले, शेयर कर लेंगे।"

बी.के सहसा कम बूढ़ा लगने लगा। बोला,"कितना इंतज़ार करवाया यार तूने...अक्ल की बात सुनाने में।"
मृदुला गर्ग

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1 टिप्पणियाँ

  1. धन्यवाद साझा किया , कहानी हमेशा की तरह ही बेहतरीन लिखी गई है ।

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