सारा खेल छवि का है - प्रेम भारद्वाज | The Whole Game is of Image - Prem Bhardwaj


       छवि कई बार सुरक्षा कवच भी बन जाती है,
              खासकर स्त्रियों के मामले में।
                     वह हंसती है
                            ताकि रोने से बच सके।

                     चरित्रवती की छवि गढ़ती
                            कि चरित्रहीनता के आरोपों से दूर रह सकेे।

छवियों का अंडरवर्ल्ड

प्रेम भारद्वाज


मार्केज ने लिखा है, ‘हर इंसान की तीन जिंदगियां होती हैं- सार्वजनिक, निजी और गोपनीय।’ लेकिन यह सियासी गलियारा यहां तीनों का अजीब घालमेल है। यहां तमाम दलों की दुकानें सजी हुई हैं। दूर से देखने पर लगता है कि वे अलग-अलग हैं। उनकी छवियां जुदा हैं। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। एक धर्मनिरपेक्ष। दूसरा समाजवादी। कहीं विकास बिकता है। कहीं मंदिर-मस्जिद। किसी के झोली में हिमालय है। किसी को दलितों के देवता का दर्जा। राममनोहर लोहिया से लेकर अंबेडकर तक बिक रहे हैं। यहां सारा खेल छवि का है। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष छवि बनाई। वामपंथी दलों ने शोषितों के हिमायती की। भाजपा हिंदूवादी, मायावती दलित की हितैषी। मुलायम समाजवादी तो लालू सवर्ण-विरोधी और दलित-पिछड़ों के मसीहा। ये छवि इस अर्थ में बिकी क्योंकि लोगों ने इनकी छवि को ही सच मान लिया। वोट दिया। उन्हें सत्ता दी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की छवि भ्रष्टाचार- विरोधी की थी। लोगों ने उसे भी सच माना। जीतकर वह मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सब कुछ एक फिल्मी ड्रामे या प्रहसन में तब्दील हो गया।
वे कोमल हैं। कमजोर हैं। मासूम भी। सच्चाई का दूसरा नाम। इतने निश्छल कि उन्हें खुदा मानने को जी चाहे। ...जिनमें एक साथ इतनी खूबियां हों उन्हें उसकी सजा तो मिलनी ही है। उन्हें बड़ी बेरहमी के साथ मारा गया, मारा जा रहा है, मारा जाता रहेगा।

वे बच्चे हैं। प्लीज, उन्हें फिलिस्तीनी बच्चे मत कहिए। बच्चों का कोई राष्ट्र नहीं होता। उनके अबोधपन की कोई सरहद नहीं। आकाश जितनी अनंत होती है, उनकी मुस्कान से मिलनी वाली खुशी।

वे भी कोमल हैं। जाहिर है कमजोर भी। इसके आगे इनका तार्रुफ जुदा। वे भोग्या हैं। जननी हैं, लेकिन जुल्मत का पर्याय। हम उनके आंचल में सिर छुपाकर दुनिया की सबसे सुरक्षित पनाहगाह में पनाह पाते हैं। बदले में उनकी आंखों में आंसू भरते हैं। दिल में भाला-बरछी...। और जिस्म? वक्त के बिस्तर पर सदियों की सिलवटों में इस हया की बेटी के रेशे-रेशे में दर्द-दर्द पसरा हुआ है। हम उसके जिस्मो-जान को रौंदने के बाद पेड़ पर लटका देते हैं। पेड़ पर उसका लहूलुहान बेजान जिस्म हवा में जरूर लटका हुआ है। लेकिन वह बैताल नहीं है। हवा में झूलती सितम की मारी वह स्त्री है, जो बिस्तर से वृक्ष तक पहुंच गई है। इसे अगर आप विकास की छलांग मानते हैं तो जरूर मुस्कुरा लीजिए। मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि ‘ऐसे में कैसे मुस्कुराऊं, अभी तो जुल्मो-सितम वही हैं।’

एक दुल्हन तो रंगमहल (दिल) में, एक दुल्हन चौराहे पर। एक से प्रेम दूसरे पर प्रहार। दोनों ही स्त्री। बेशक दो लोगों के बीच के रिश्ते के बारे में वे दोनों ही जानते हैं, कोई तीसरा नहीं। कई बार तो वे दोनों भी नहीं जो उसे जीते हैं।

ये घटनाएं उस दौर में घटित हो रही हैं। जब पूरी दुनिया में छवियों का युद्ध जारी है। इस हौलनाक वक्त में छवियों का एक अंडरवर्ल्ड है जिसके बारे में हम जानते हैं कम, झेलते हैं ज्यादा...। जरा अपने आस-पास गौर से देखिए। कैसी-कैसी छवियों से घिरे हैं हम। छवि मनुष्य से बड़ी हो गई है। व्यक्ति से पहले उसकी छवि पहुंच जाती है। इसी छवि को गोविंदाचार्य ने दो दशक पहले मुखौटा कहा और उन्हें ‘वनवास’ काटने को विवश होना पड़ा। ‘मुखौटा’ में थोड़ी निगेटिविटी है। छवि में नहीं। इमेज बढ़िया शब्द है। जैसे दलाल को लाइजनिंग कहकर हम उसे प्रतिष्ठित कर देते हैं।

सारा खेल छवि का है। कामयाबी चाहिए, पहचान की दरकार है। सुरक्षित रहना चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी छवि बनाइए। जो है, वह दिखता नहीं। जो दिखता है जरूरी नहीं  कि सच ही हो। हम सब अब अपनी छवियों के गुलाम हैं। एक बार जो छवि बन गई उस छवि को तोड़कर उससे बाहर जाना बहुत मुश्किल है। हम में से अधिकांश लोग अपनी छवियों में कैद हैं- अच्छी या बुरी। हम वही करते हैं जो हमारी छवि हमसे करवाती है।’

छवि मनुष्य नहीं है। मनुष्य छवि भी नहीं है। लेकिन हमने छवियों को ही इंसान मान लिया है। अशोक, चाणक्य, अकबर, औरंगजेब, बहादुरशाह जफर, हिटलर, महात्मा गांधी, नेहरू इनके नाम लेते ही जेहन में चेहरा कौंधता है। फिर उनकी अच्छी या बुरी छवि हमारे भीतर कब कैसे पसर जाती है, हमें इसका आभास ही नहीं होता। थोड़ी देर के लिए हम मान लेते हैं कि इतिहास छवि गढ़ता है। जब हम इतिहास कह रहे हैं तो हमारा आशय इतिहास-लेखन से है। इतिहासकार अपने मन-मिजाज के हिसाब से किसी शासक या हस्ती की छवि गढ़ता है। वह किसी को भी नायक-खलनायक या विदूषक बना सकता है क्योंकि इतिहास इन्हीें तीन लोगों को याद रखता है। बाकी उसके लिए इत्यादि हैं, निरर्थक-बेकाम के हैं। इतिहास के ऐसे कई पात्र हैं जिनकी छवि को लेकर विवाद है। इनमें एक पात्र तो औरंगजेब ही है, कुछ हद तक तुगलक भी। इन दोनों के बारे में इतिहासकारों की जुदा राय है। तय जानिए जो  लिखा हुआ इतिहास हम पढ़ते हैं, वह सच के करीब तो हो सकता है, सच कतई नहीं। सच्चा इतिहास न तो आज तक लिखा गया है, न भविष्य में लिखा जा सकता है।

कौन बनाता है छवि? कैसे बनती हैं छवियां? छवि का होना क्यों जरूरी है। क्या मुखौटा, आवरण, झूठ, अभिनय ही छवि है या इसका कोई और मतलब है? इसे थोड़ा समझना होगा। हम जो पढ़ते-लिखते, जानते या सुनते हैं उसी के आधार पर छवियों का ताना-बाना रचा जाता है। हम कभी गौर नहीं करते, कुछ भी नहीं करते। लेकिन हमारेे दिलो-दिमाग में किसी की छवि बनने लगती है। उस छवि के बनने में हमारी कोई भी भूमिका नहीं होती। बिना इजाजत कोई छवि हमारे भीतर घुसकर हमे नियंत्रित करने लगती है। हम उस छवि के आधार पर उसे पसंद या नापसंद भी करने लगते हैं जबकि उस छवि ओढ़े मनुष्य को हम ठीक से जानते भी नहीं। लेकिन वह उसकी छवि ही होती है जो हमें उसके समर्थन या विरोध में खड़ा कर देती है। 

हम सब आजाद देश में रहकर भी गुलाम हैं। अपनी छवियों के गुलाम। याद कीजिए ‘गाइड’ फिल्म का राजू जो गांव के एक मंदिर में पनाह पाने जाता है और उसे स्वामी मान लिया जाता है। गांव के लोगों को उसमें ईश्वरीय शक्ति का अंश मालूम होता है। राजू कुछ नहीं कर पाता। गांव के लोग उसकी छवि गढ़ देते हैं। वह उस छवि में कैद होकर बारिश के लिए अनशन करता है और अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब एक्टिविस्ट खुर्शीद अनवर ने खुदखुशी कर ली। लोगों को इसमें दूसरी वजहें दिखाई देती होंगी। मुझे उनकी हत्या में उनकी छवि की अहम भूमिका मालूम होती है। उनकी छवि एक बुद्धिजीवी और नेक इंसान की थी। एक घटना से उनकी छवि दरकी... लोगों ने हैरानी से आगे बढ़कर उनको कठघरे में खड़ा कर दिया। जो उनकी छवि थी उसके विपरीत उन पर आरोप लगे। उन्हें गवारा नहीं था कि जो उनकी छवि है उससे इतर लोग उनके बारे में राय बनाएं। लेकिन यह उनके वश में था नहीं। बेबस खुर्शीद ने खुदकुशी का रास्ता अख्तियार किया। दुनिया में होने वाली अधिकतर आत्महत्याएं छवि टूट जाने के भय से की जाती हैं।

छवि जीत देती है। पहचान देती है। लेकिन वह जान भी लेती है? उसका अंडरवर्ल्ड भी है। आइए मेरे साथ चलिए थोड़ी देर के लिए छवियों के अंडरवर्ल्ड में... छवि गांव, कस्बों, शहरों, प्रदेशों, देशों की भी होती है। सबसे खतरनाक होती है जातियों की छवि। वस्तुओं, उत्पादकों, कंपनियों की भी छवि है जिसे हम कारोबारी भाषा में साख और ब्रांड कहते हैं। वह छवि ही तो है, जिसे विश्वसनीयता का नाम दिया जा रहा है। बाटा से टाटा तक की छवि। और आज नाइक से लेकर रिबाॅक तक की। ब्रांड और कुछ नहीं छवि ही है जो बिकती है। प्रभावित करती है। हमें आतंकित भी करती है। हम सब छवियों के चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु हैं।

हर रिश्ता अभिनय का आग्रही होता है, या नहीं। लेकिन हर छवि अभिनय की आग्रही जरूर होती है। छवि कई बार सुरक्षा कवच भी बन जाती है, खासकर स्त्रियों के मामले में। वह हंसती है ताकि रोने से बच सके। चरित्रवती की छवि गढ़ती  कि चरित्रहीनता के आरोपों से दूर रह सकेे। चीखती है ताकि उसके भीतर जिंदा बने रहने का एहसास जीवित रहे। नाचती रहती है घिरनी की तरह कि खुद से मिलकर मायूस न हो। करती है व्रत। जाती है मंदिर, तीर्थ, शांतिकुंज कि धर्म की ओट मे थोड़ी-सी आजादी ले सके। तवज्जोह पा सके। पति, परिवार और समाज का मान-सम्मान के लिए एक जीवन में वह कई-कई मरण मरती है। इसलिए वह रहस्यमयी मान ली गई है। स्टीफन मलार्मे कहता है, ‘हर वस्तु जो पवित्रता बनाए रखना चाहती है, रहस्य में डूबी रहती है।’

मार्केज ने लिखा है, ‘हर इंसान की तीन जिंदगियां होती हैं- सार्वजनिक, निजी और गोपनीय।’ लेकिन यह सियासी गलियारा यहां तीनों का अजीब घालमेल है। यहां तमाम दलों की दुकानें सजी हुई हैं। दूर से देखने पर लगता है कि वे अलग-अलग हैं। उनकी छवियां जुदा हैं। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं। एक धर्मनिरपेक्ष। दूसरा समाजवादी। कहीं विकास बिकता है। कहीं मंदिर-मस्जिद। किसी के झोली में हिमालय है। किसी को दलितों के देवता का दर्जा। राममनोहर लोहिया से लेकर अंबेडकर तक बिक रहे हैं। यहां सारा खेल छवि का है। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष छवि बनाई। वामपंथी दलों ने शोषितों के हिमायती की। भाजपा हिंदूवादी, मायावती दलित की हितैषी। मुलायम समाजवादी तो लालू सवर्ण-विरोधी और दलित-पिछड़ों के मसीहा। ये छवि इस अर्थ में बिकी क्योंकि लोगों ने इनकी छवि को ही सच मान लिया। वोट दिया। उन्हें सत्ता दी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की छवि भ्रष्टाचार- विरोधी की थी। लोगों ने उसे भी सच माना। जीतकर वह मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सब कुछ एक फिल्मी ड्रामे या प्रहसन में तब्दील हो गया।

छवि का चरम आकर्षण हमें नरेंद्र मोदी के रूप में देखने को मिला। पहले उनकी छवि दंगाई मुख्यमंत्री की थी जो राजधर्म नहीं निभा पाया। लेकिन जल्द ही वह विकास पुरुष बन गए। पिछले एक साल से वह अपनी छवि गढ़ रहे थे ताकि गुजरात के मुख्यमंत्री से इस देश के प्रधनमंत्री बन सकें। इसके लिए उन्होंने नाउम्मीदी के अंधेरे और यथार्थ की शरशय्या पर लेटी लहूलुहान जनता के मन में सपने बोए कि अच्छे दिन आएंगे, अगर वे आएंगे। किसी दिलजले आशिक की मानिंद बार-बार छले जाने के बावजूद जनता ने फिर उन पर भरोसा किया। सपने पाले। अब नतीजा सामने है। मोदी और उनके भाजपा ब्र्रिगेड के अच्छे दिन जरूर आ गए, लेकिन जनता के हिस्से में वही बुरे दिन। नेहरू से मोदी तक सब सपनों के सौदागर ही साबित हुए। हकीकत की जमीन से दूर आसमान में आश्वासन की पतंग जो अक्सर सच्चाई से पेंच लगाने पर फट-फटाकर गिरने और बिजली के किसी तार में उलझ जाने को अभिशप्त।

शहरों-प्रदेशों की छवियां...। बिहार पिछड़ा। पंजाब विकसित। पश्चिम बंगाल गरीब। शहरों की भी ऐसी ही स्थिति। बनारस का अपना ठेठ अंदाज। मुंबई मायानगरी। दिल्ली सत्ता की प्रतीक। कोलकाता सांस्कृतिक। लखनऊ का नवाबी अंदाज। पटना का ट्रैफिक जाम। 

जातियों की छवि। ब्राह्मण चतुर, राजपूत हिंसक, बनिया मतलबी, भूमिहार पेंचदार। छवि का आलम यह है कि तुलसीदास भी अपने राम को धनुष बाण हाथ में लिए वाली छवि में ही स्वीकार करते हैं, ‘तुलसी माथा तब नबै, जब धनुष बाण हो हाथ।’

वे भोगी हैं। छवि योगी की है। हत्यारे हैं लोग उनके सिजदे में हैं, मानो खुदा हों। इंसाफ के प्रतीक विक्रमादित्य हैं, लेकिन वे महानता के दरख्त में लटके ऐसे बैताल हैं जिसके भीतर की न्यायप्रियता का प्राणांत हो गया है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की छवि। सत्तातंत्र के पहरेदार। और बेजुबान जन की आवाज, यह छवि है। असल में वह खबर की हत्या कर सरोकार की कब्र पर कारोबार के फूल उगा रहे हैं। पिता पवित्र है। माता मायावी। भाई भ्रष्ट। दोस्ती स्वार्थ के दलदल में। धर्म अधर्म के त्रिशूल पर टंगा रक्तरंजित। पवित्रता के कलश में पाप। दान दंभपूर्ण। लोकतंत्र वह लाठी है जो कमजोरों पर बरसती है और जिसे सीढ़ी बनाकर वे तमाम श्वेतवस्त्रधारी सत्तासीन हैं जिन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिए। ‘अच्छी बातें’ शराब के जाम में बर्फ बनकर घुल रही हैं। वे गटकते जाते हैं। खुमार चढ़ता जाता है। कहने का लब्बोलुआब यह कि जिन छवियों से हम बिंधे हुए हैं उनका अंडरवर्ल्ड बहुत भयानक है। हम उस समय में जी रहे हैं जब सारी अच्छी चीजें सिर के बल उल्टी पडी हैं। लेकिन हमें छवियों के इस मायाजाल से बाहर आना होगा, तोड़ना ही होगा इस चक्रव्यूह को। जो महाभारत में हुआ उसे भारत में होने से बचाना होगा। क्योंकि अगर यही सब इसी तर्ज पर चलता रहा तो आने वाले समय में ‘रिश्ते ही रिश्ते’ की तर्ज पर ‘छवियां ही छवियां’ होंगी। मनुष्य कहीं नहीं होगा। सच किसी कब्रिस्तान में दफन होगा। तब हम न इस तरह से लिख पाएंगे, न आप इस तरह पढ़ सकेंगे। नीत्शे ने सौ साल पहले ही आगाह कर दिया था, ‘देख लो दुनिया में तुम्हारे चेहरे से ज्यादा असली मुखौटा कहीं नहीं। बताओ जरा, तुम्हारी पहचान क्या है? क्या कोई भी तुम्हारी शिनाख्त कर सकता है। प्रचीन लिपि में लिखी थी तुम्हारी पहचान और उसके उत्तर। तुमने अपने हाथ से फिर कुछ लिखा है। अब वहां पढ़ा जाने लायक कुछ भी नहीं बचा है। अगर चेहरे से पर्दे हट जाएं, नकलीपन धुल जाए, तब तुम एक डरावना कंकाल भर बचोगे।
***
'पाखी' अगस्त-2014 अंक का संपादकीय 

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1 टिप्पणियाँ

  1. बहुत सही कहा आपने हम क्षद्म छवियों के चक्रवियुह में फंसे हुए हैं. इस चक्रवियुह को तोडना ही होगा अन्यथा महाभारत से बड़ा अनर्थ क्षद्म छवियों के ये डॉन कर डालेंगे ......

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