नामवर सिंह से कवि केदारनाथ सिंह की बातचीत / Namvar Singh in Conversation with Poet Kedarnath Singh

संवाद

आलोचना के जोखिम

नामवर सिंह से कवि केदारनाथ सिंह की बातचीत

Risks of Criticism 
Namvar Singh in Conversation with Poet Kedarnath Singh

Namvar Singh in Conversation with Poet Kedarnath Singh नामवर सिंह से कवि केदारनाथ सिंह की बातचीत

यूरोप में मार्क्सवादी आलोचकों ने
        अपना ध्यान उपन्यासों की समीक्षा पर ही केन्द्रित किया,
            पर विचित्र बात है कि हिंदी में इसके ठीक विपरीत
              मार्क्सवादी आलोचना ने कविता पर ही ज्यादा ध्यान दिया
                                                         - नामवर सिंह
केदारनाथ सिंह : कविता के नये प्रतिमान में जिसका प्रकाशन आज से कोई 13 साल पहले हुआ था—आपने समकालीन कविता की आलोचना के संदर्भ में कुछ नये मान-मूल्यों का प्रस्ताव किया था। क्या आप अनुभव करते हैं कि इतने वर्षों बाद उनमें जोड़ने या घटाने की आवश्यकता है?

नामवर सिंह : कविता के नये प्रतिमान एक निश्चित ऐतिहासिक आवश्यकता की उपज है। उसका एक निश्चित ऐतिहासिक संदर्भ है। वह संदर्भ है सन् 67-68 का। कुछ आगे पीछे कई कविता-संग्रह एक साथ आये थे। रघुवीर सहाय का आत्महत्या के विरुद्ध, श्रीकांत वर्मा का माया दर्पण, चाहें तो विजय देव नारायण साही के मछलीघर को भी गिन लीजिये। धूमिल का कोई कविता-संग्रह तो नहीं आया था, लेकिन ऐसी कविताएँ तो प्रकाशित हो ही गयी थीं, जिनसे एक नये तेवर वाली प्रतिभा का अहसास होने लगा था। आज शायद हम इन सबको इतनी बड़ी घटना न मानें। लेकिन तुरंत बीते पाँच-छह वर्षों की पृष्ठभूमि में देखें तो हिंदी कविता की दुनिया में यह एक स्फूर्तिप्रद घटना थी। आत्मपरक नयी कविता दम तोड़ चुकी थी। अकविता की चीख-पुकार उस सन्नाटे को तोड़ने के बजाय और गहरा कर रही थी। कई समझदार कवि चुप थे यानी समा कुछ ऐसा था कि दादुर बोल रहे थे और गहे कोकिला मौन। मुक्तिबोध की कविताओं का पहला संग्रह चाँद का मुँह टेढ़ा है इसी बीच आया। मुक्तिबोध की मृत्यु पर व्यक्त की गयी सहानुभूतियों की बाढ़ में वे कविताएँ डूब गयीं—ऐसी डूबीं कि काफी समय तक उन पर चर्चा ही नहीं हुई। ऐसे ही समय तार सप्तक की द्वितीय आवृत्ति हुई—इतिहास के एक कालचक्र के पूरा होने की घोषणा करती हुई।

उस समय की काव्य-चर्चा को याद करें तो अब भी आचार्यगण नयी कविता को रस के पैमाने से नाप रहे थे और अकविता वाले कविता को लेकर हुल्लड़ मचाये हुए थे। नयी कविता किसिम-किसिम की कविता की अराजकता को लेकर हलकान हो रही थी। प्रगतिशील खेमे में न तो रचना की दिशा में कोई उत्तेजक गतिविधि थी और न आलोचना की दिशा में ही।

कविता के नये प्रतिमान का लेखन इसी माहौल में हुआ। निश्चय ही उस पर कुछ तात्कालिक और स्थानिक दबाव थे। आज उन्हें साफ देखा जा सकता है। बावजूद इस तात्कालिकता के, वृहत्तर परिप्रेक्ष्य स्पष्ट है। एक तो हिंदी के औसत पाठक के उस काव्यगत पूर्वग्रह या संस्कार को तोड़ना था जिसके चलते नयी कविता के अनेक नये सर्जनात्मक प्रयास पूरी तरह ग्राह्य नहीं हो रहे थे; दूसरे इससे भी आगे बढ़कर उन लम्बी कविताओं की ग्राह्यता के लिए पृष्ठभूमि तैयार करनी थी जिसमें कवि का जटिल आत्मसंघर्ष और वस्तुगत संघर्ष था। इस मूल लक्ष्य की पूर्ति में प्रसंगवश काव्य-विश्लेषण और मूल्यांकन सम्बन्धी अनेक धारणाओं का विश्लेषण किया गया है जिन्हें इस समय संक्षेप में प्रस्तुत करना न तो सम्भव है और न आवश्यक ही।

जहाँ तक उस पुस्तक में कुछ जोड़ने या घटाने का सवाल है, उसके बारे में आज इतना ही कह सकता हूँ कि वह अब एक ऐतिहासिक दस्तावेज हो चुका है। इसलिए उसमें से कुछ घटाने की बात तो मेरे हाथ में रही नहीं। जोड़ने का सवाल जरूर बचा रहता है; और यह बात मेरे मन में उस समय भी थी जब पुस्तक प्रेस में गयी। अंतिम अध्याय परिवेश और मूल्य को आप देखें तो उसका अंत abrupt लगेगा। जहाँ तक मुझे याद है, काव्य-मूल्य की चर्चा शुरू होने के साथ ही पुस्तक समाप्त हो जाती है। इस प्रसंग में विचारधारा का उल्लेख-मात्र है। विचारधारा और काव्यानुभव का रिश्ता बहुत पेचीदा है और यह सवाल भी बहुत बड़ा है। निश्चय ही यह अहम् भी है और यह सवाल भी बहुत बड़ा है। लेकिन उस समस्या को उठाने का मतलब था एक और पुस्तक लिखना। इरादा तो यही था कि कविता के नये प्रतिमान के तुरंत बाद ही उस सिलसिले को आगे बढ़ाऊँगा, लेकिन परिस्थितिवश बात टलती चली गया।

इधर तीन-चार वर्षों से हिंदी कविता की दुनिया में फिर कुछ सर्जनात्मक गतिविधि बढ़ी है तो कविता पर नये सिरे से सोचने की जरूरत महसूस हो रही है। कुछ युवा कवियों की कच्ची गंध वाली कविताओं के आलोक में नागार्जुन, त्रिलोचन आदि ठेठ भारतीय कवियों की रचनाओं का सिंहावलोकन करता हूँ तो लगता है कि ये कविताएँ काव्य-चिंतन के एक अन्य ढाँचे की अपेक्षा रखती है। मुक्तिबोध-केन्द्रित कविता के नये प्रतिमान से यह ढाँचा निश्चय ही भिन्न होगा। सम्भव है, इस क्रम में कविता और राजनीति के रिश्ते पर नये सिरे से विचार करना पड़े और इस प्रकार पूर्ववर्त्ती ढाँचे की सीमा से छूटी हुई अन्य प्रकार की कविताओं पर भी विचार करना आवश्यक प्रतीत हो।

'वर्तमान साहित्य'
अगस्त–सितम्बर, 2014
दुर्लभ साहित्य विशेषांक
अन्दर की बात
  • विज्ञान और युग —  जवाहरलाल नेहरू
  • हिंदू संस्कृति  —  डा. राममनोहर लोहिया
  • हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी —  अमरनाथ झा
  • सभ्यता —  डाक्टर ताराचंद
  • इतिहास का सांप्रदायिक दुरुपयोग — प्रो. रामशरण शर्मा
  • साहित्य जनसमूह के हृदय का विकाश है — पं. बालकृष्ण भट्ट
  • आलोचना और अनुसन्धान — परशुराम चतुर्वेदी
  • समाजशास्त्रीय आलोचना — डॉक्टर देवराज
  • ‘रामचरितमानस’ का रचना–क्रम — डॉक्टर कामिल बुल्के
  • साहित्य में संयुक्त मोर्चा ? — शिवदान सिंह चौहान
  • साहित्यिक ‘अश्लीलता’ का प्रश्न — विजयदेव नारायण साही
  • यथार्थवाद — डा. वासुदेवशरण अग्रवाल
  • छायावाद क्या है ? — मुकुटधर पांडेय
  • हिन्दी पत्र–पत्रिकाओं का विकास — डॉक्टर रामरतन भटनागर
  • छोटी पत्रिकाएँ — नागेश्वर लाल
  • कवि–मित्र नरेन्द्र शर्मा की याद में — केदारनाथ अग्रवाल
  • राहुल जी के घर में सात दिन — डॉ. ईश्वरदत्त शर्मा
  • ‘मतवाला’ कैसे निकला — शिवपूजन सहाय
  • सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (१९२७–१९८३) — अमरकांत
  • निर्णय इतिहास करेगा — मिखाइल गोर्बाचेव और गैब्रील मार्क्वेज़ के बीच बातचीत
  • जार्ज लूकाच से एक भेंट — रामकुमार
  • आलोचना के जोखिम — नामवर सिंह से कवि केदारनाथ सिंह की बातचीत
  • मुक्तिबोध के पत्र — श्रीकांत वर्मा के नाम
  • स्वर्गीय ‘नवीन’ जी के कुछ पत्र — लक्ष्मीनारायण दुबे
  • हिन्दी–साहित्य का इतिहास — शिवपूजन सहाय
  • कंकावती १९६४ : राजकमल चौधरी — सुरेन्द्र चौधरी
  • उत्तरी भारत की संत–परम्परा — नामवर सिंह
  • रेणुजी का ‘मैला आँचल’ — नलिन विलोचन शर्मा
  • निराला की साहित्य–साधना “प्रथम खंड” जीवन–चरित — भगवत शरण उपाध्याय
पत्रिका मंगाने के लिए संपर्क करें: 
vartmansahitya.patrika@gmail.com या sampadak@shabdankan.com
के. ना. सिंह : अभी आपने ठेठ भारतीय कवियों की चर्चा की। मुझे याद आता है कि आपने भारतीय उपन्यास को पश्चिमी उपन्यास से अलग करते हुए किसान जीवन की महागाथा कहा है। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए यदि हिंदी कविता की मुख्यधारा पर विचार करें तो क्या नतीजे निकलेंगे?

ना. सिंह : आपने बहुत महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। उपन्यास की चर्चा करते हुए मेरे ध्यान में कविता न थी, लेकिन कविता के बिना जातीय परम्परा का वह ढाँचा पूरा ही नहीं होता। राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष के जिस व्यापक जिस जन उभार ने प्रेमचंद के माध्यम से उपन्यास का जातीय स्वरूप निर्मित किया, उसी ने निराला जैसे कवि के माध्यम से हिंदी की जातीय रोमांटिक कविता का स्वरूप भी प्रस्तुत किया। इस क्रम में आगे चलकर जिन कवियों ने पश्चिम के आधुनिकतावादी प्रभाव से अपने आप को बचाते हुए हिंदी कविता की जातीय परम्परा को सुरक्षित रखा और उसे जन-जीवन से जोड़ते हुए विकसित किया, उनमें निश्चय ही मुक्तिबोध के अलावा नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे कवियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जायेगा और मेरे विचार से हिंदी कविता की मुख्यधारा यही है।
यूरोप में मार्क्सवादी आलोचकों ने अपना ध्यान उपन्यासों की समीक्षा पर ही केन्द्रित किया, पर विचित्र बात है कि हिंदी में इसके ठीक विपरीत मार्क्सवादी आलोचना ने कविता पर ही ज्यादा ध्यान दिया - नामवर सिंह
के. ना. सिंह : कई बार कहा जाता है कि मार्क्सवादी आलोचना ने आलोचना के जिन औजारों को विकसित किया है, वे कविता के मूल्यांकन के लिए अपर्याप्त हैं। इस सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं?

ना. सिंह : यूरोप में मार्क्सवादी आलोचकों ने अपना ध्यान उपन्यासों की समीक्षा पर ही केन्द्रित किया, पर विचित्र बात है कि हिंदी में इसके ठीक विपरीत मार्क्सवादी आलोचना ने कविता पर ही ज्यादा ध्यान दिया। यदि डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचनाओं को देखें तो निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध और यहाँ तक कि अज्ञेय की कविताओं पर ही उन्होंने विस्तार से लिखा है। इसलिए यह कहना अतिकथन न होगा कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना मुख्यत: काव्य-समीक्षा है। इसकी पर्याप्तता और अपर्याप्तता की जाँच तो तभी हो सकती है, जब उन कवियों पर गैर-मार्क्सवादियों द्वारा लिखी गयी बेहतर समीक्षाएँ सामने हों।

के. ना. सिंह : यहाँ एक सहज जिज्ञासा यह हो सकती है कि आपने जिस मार्क्सवादी समीक्षा का जिक्र अभी किया है क्या उसके सारे औजार मार्क्सवादी हैं? मुझे ‘कविता के नये प्रतिमान’ का ध्यान इस संदर्भ में खासतौर से आ रहा है?

ना. सिंह : इस सवाल के पीछे शायद यह धारणा है कि मार्क्सवादी आलोचना एकदम अपने बनाये हुए नये औजारों का पिटारा है, जिसे हजारों साल के साहित्य चिंतन की परम्परा से कुछ भी नहीं लेना है। क्रांति के बाद सोवियत रूस में प्रोलितकुल्त नामक गिरोह के लेखकों का कुछ ऐसा ही विश्वास था। यह समझ कितनी भ्रामक है, इसे कहने की जरूरत अब नहीं रही। मार्क्सवादी आलोचना परम्परा से प्राप्त होने वाले अनेक आलोचनात्मक औजारों या अवधारणाओं को लेकर ही विकसित हुई है। काव्य-चिंतन के क्रम में पहले के भाववादी और रूपवादी विचारकों ने जिन कलागत अवधारणाओं का निर्माण किया है, वे सबके सब त्याज्य और व्यर्थ नहीं हैं। मेरी बात छोड़ भी दें तो स्वयं डॉक्टर रामविलास शर्मा ने निराला की काव्य कला का विश्लेषण करते हुए वक्तृत्व कला, स्वगत, संवाद, स्थापत्य, प्रतीक-बिम्ब आदि जिन अवधारणाओं का उपयोग किया है वे सब की सब मार्क्सवाद की निर्मिति नहीं हैं। महत्वपूर्ण है ऐसी रूपवादी अवधारणाओं के इस्तेमाल का ढंग यानी वह समग्र पद्धति जिसके अन्दर इनका इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रसंग में निश्चय ही रूप और अन्तर्वस्तु, जिसमें विश्वदृष्टि और भावबोध भी शामिल हैं, के सम्बन्ध की समझ निर्णायक भूमिका अदा करती है और यहीं मार्क्सवादी आलोचना का वैशिष्ट्य दिखायी पड़ता है।

के. ना. सिंह : क्या आप ऐसा मानते हैं कि भारत में मार्क्सवादी चिन्तन के समग्र विकास के अभाव में केवल मार्क्सवादी आलोचना या मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का विकास किया जा सकता है?

ना. सिंह : प्रश्र में यह धारणा निहित है कि भारत में मार्क्सवादी चिन्तन का समग्र विकास नहीं हुआ है। मैं नहीं के स्थान पर अपेक्षकृत कम शब्द का प्रयोग करना चाहूँगा यानी, सोवियत संघ, चीन, समूचे यूरोप, अमेरिका और अंशत: लैटिन अमेरिका की तुलना में। इसके अनेक कारण हैं, जिनके ब्यौरे में जाने के लिए इस समय अवकाश नहीं है। किन्तु भारत में एक क्षेत्र में मार्क्सवादी विचारकों ने निश्चित रूप से नये सर्जनात्मक प्रयास किये हैं वह है इतिहास-भारतीय इतिहास का क्षेत्र। मेरे विचार से मार्क्सवादी आलोचना का विकास इस ऐतिहासिक अनुसन्धान से बहुत दूर तक जुड़ा हुआ है। इसलिए भारत के मार्क्सवादी इतिहासकारों के समान ही मार्क्सवादी आलोचकों ने भी साहित्य के इतिहास लेखन में तथा अपनी परम्परा के मूल्यांकन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है।

जहाँ तक साहित्यिक आलोचना के सैद्धान्तिक पक्ष के विकास का प्रश्र है, वह स्पष्टत: सौन्दर्यशास्त्र और साहित्यशास्त्र से सम्बद्ध है जिसके विकास के लिए दार्शनिक आधार की अपेक्षा है। भारत में जब तक दर्शन के स्तर पर मार्क्सवाद का विकास नहीं होता, मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र और मार्क्सवादी साहित्यशास्त्र के विकास में हम भारतीय लेखक विशेष योगदान न दे सकेंगे। यह तो निर्विवाद है कि भारत में दर्शन और साहित्यशास्त्र दोनों की समृद्ध परम्परा है लेकिन मार्क्सवादी विचारक अपनी उस निधि का समुचित उपयोग नहीं कर सके हैं। सच कहें तो मार्क्सवादी अभी तक हमारी उस विशाल चिंतन परम्परा का सहज अंग बन ही नहीं सका। जरूरी नहीं कि भारत के मार्क्सवादी साहित्य-चिंतक अपने दार्शनिक अध्येताओं के आसरे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, सीधे साहित्य-शास्त्र के अन्दर भी मार्क्सवादी दृष्टि का विकास किया जा सकता है। आखिर जार्ज लूकाच ने यही तो किया।

के. ना. सिंह : एक आलोचक की हैसियत से आपका संघर्ष दो स्तरों पर चलता रहा है—प्रतिक्रियावाद के विरुद्ध और स्वयं वामपंथी आलोचनाओं की अतिवादिताओं के विरुद्ध। कुछ लोगों को आपके इस दोहरे संघर्ष में एक अन्तर्विरोध दिखायी पड़ता है। क्या आप इस संदर्भ में कुछ कहना चाहेंगे?

ना. सिंह : मेरे इस दुहरे संघर्ष में अन्तर्विरोध उन्हें ही दिखायी पड़ता है जो साहित्य में या तो शुद्ध कलावादी हैं या फिर अति वामपंथी। इस प्रसंग में मुक्तिबोध का जिक्र करूँ तो उनका भी संघर्ष इसी तरह दुहरा था। एक ओर नयी कविता के अन्दर बढ़ने वाली जड़ीभूत सौन्दर्यानुभूति का विरोध और दूसरी ओर मार्क्सवादी आलोचना में प्रक्षिप्त स्थूल समाजशास्त्रीता का विरोध। मुझे ऐसा लगा है कि एक से लड़ने के लिए दूसरे से लड़ना जरूरी है। दरअसल यह एक ही संघर्ष के दो पहलू हैं। यह जरूर है कि हमेशा यह दुहरा संघर्ष साथ-साथ नहीं चल सकता। मसलन इतिहास और आलोचना के लेखों में रूपवाद या कलावाद का विरोध ज्यादा है, क्योंकि उस दौर की ऐतिहासिक आवश्यकता यही थी। आगे चलकर यहीं उसकी उपेक्षा की गयी और अति वामपंथी प्रवृत्ति की आलोचना की ओर विशेष ध्यान दिया गया तो स्पष्ट है कि मेरी नजर में साहित्यिक वातावरण बदल चुका था।

आलोचना का जो अंक मैंने प्रगतिशील लेखन पर विस्तृत परिचर्चा के साथ निकाला उसमें मैंने इसी दृष्टि से अंधलोकवाद की कड़ी आलोचना की क्योंकि मुझे इधर की मार्क्सवादी आलोचना में यह प्रवृत्ति बढ़ी हुई दिखायी पड़ी। अब इधर महसूस कर रहा हूँ कि पिटा हुआ कलावाद हिन्दी में फिर सिर उठा रहा है और नये तेवर के साथ सामने आ रहा है। निश्चय ही देर-सवेर इससे निपटना होगा।


[पूर्वग्रह-44-45, मई, जून, जुलाई, अगस्त 1981 से साभार]
[वर्तमान साहित्य अगस्त–सितम्बर, 2014 से साभार]

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

मैत्रेयी पुष्पा की कहानियाँ — 'पगला गई है भागवती!...'
Harvard, Columbia, Yale, Stanford, Tufts and other US university student & alumni STATEMENT ON POLICE BRUTALITY ON UNIVERSITY CAMPUSES
तू तौ वहां रह्यौ ऐ, कहानी सुनाय सकै जामिआ की — अशोक चक्रधर | #जामिया
इरफ़ान ख़ान, गहरी आंखों और समंदर-सी प्रतिभा वाला कलाकार  — यूनुस ख़ान
Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
ट्विटर: तस्वीर नहीं, बेटी के साथ क्या हुआ यह देखें — डॉ  शशि थरूर  | Restore Rahul Gandhi’s Twitter account - Shashi Tharoor
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
Hindi Story: दादी माँ — शिवप्रसाद सिंह की कहानी | Dadi Maa By Shivprasad Singh
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है