राग दरबारी - आलोचना की फांस: रेखा अवस्थी

राग दरबारी - आलोचना की फांस 

रेखा अवस्थी

राग दरबारी पर एक संकलन तैयार करने की इच्छा संभवत: 2005 में मेरे मन में आई थी । अपनी इस योजना पर जब मैंने श्रीलाल जी से बात करनी चाही तो अपने वीतराग स्वभाव के कारण उन्होंने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया पर यदाकदा योजना पर छिटपुट ढंग से बात करते रहे ।




जब मैंने यह जिक्र किया कि मेरी योजना महज संकलन तैयार करना नहीं है बल्कि राग दरबारी को केंद्र में रखकर समकालीन हिंदी आलोचना की सैद्धांतिक पड़ताल करना है, तभी उन्हें थोड़ी आश्वस्ति हुई कि अब फिर शायद कोई एक रगड़ा राग दरबारी के साथ घटित नहीं होगा । ऐसी ही बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे लखनऊ आने का निमंत्रण दिया और यह कि राग दरबारी की समालोचना से संबंधित जो भी सामग्री उनके पास होगी वे मुझे जरूर उपलब्ध करा देंगे । जब मैं लखनऊ गई तो थोड़ी–बहुत सामग्री उन्होंने मुझे दी अवश्य, साथ–ही–साथ कुछ जानकारियां भी दीं । इस प्रक्रिया में मैं आसानी से यह समझ गई कि श्रीलाल जी उन लेखकों में से नहीं हैं जो अपने ऊपर लिखी गई एक–एक पंक्ति सहेज कर रखते हैं । अधिकांश चीजें वे शोध–छात्रों को बांट चुके थे । पर समाजशास्त्री टी–एन– मदान का अंग्रेजी में लिखित लेख सुरक्षित था और वह मुझे मिल गया ।

मुझे इस बात का गहरा दु:ख है कि यह संकलन उनके जीवनकाल में पूरा नहीं हो सका । सामग्री खोजने और जुटाने में काफी वक्त लग गया । कुछ मेरा आलस्य और ढीलापन, साथ ही नया पथ से संबंधित काम एवं अन्य व्यस्तताओं के कारण ही यह विलंब हुआ । राग दरबारी के प्रकाशन के 40 वर्ष पूरे होने पर सन् 2007 में प्रकाशित बारहवें संस्करण की प्रस्तावना में श्रीलाल जी ने इस उपन्यास की बढ़ती अद्यतन प्रासंगिकता की चर्चा के साथ ही समीक्षाओं के मतांतर को बड़े ही सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हुए यह कहा कि ‘एक ही कृति पर कितने परस्पर–विरोधी विचार एक साथ फल–फूल सकते हैं ।’

इस संकलन के पाठकों को राग दरबारी से संबंधित समीक्षाओं के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की जानकारी देने के क्रम में मैं यह उल्लेख करना जरूरी समझती हूं कि इस उपन्यास को किसी ने अधूरा साक्षात्कार बतलाया, किसी ने ऊबाऊ बताया, किसी ने इसमें अंतर्दृष्टि का अभाव देखा, किसी ने उपन्यास और कथाकार के दृष्टिकोण को पूर्णत: नकारवादी बतलाया । इसके अलावा कृति पर यह आरोप लगाया कि इसमें अतिशय कथन, अतियथार्थ, व्यंग्य–लीला और चिबिल्लापन भरा पड़ा है ।

कैसी विचित्र सदाशयता है, जिसका परिचय देते हुए श्रीलाल जी ने अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को भूलकर हिंदी समालोचना के स्वभाव को जनतांत्रिक माना । यद्यपि एक अलग संदर्भ में वे यह बतला चुके हैं कि ‘हमारी बहुत–सी समीक्षाएं कठोर नहीं क्रूर होती हैं ।’ आलोचक को अपनी एक टिप्पणी में वे ‘अदृश्य चिड़िया’ की संज्ञा दे चुके हैं, जिसकी ‘चहक’ रास्ते से भटकाने में माहिर होती है ।

चौतरफा प्रहार और नकारात्मक आलोचनाओं के बावजूद राग दरबारी की लोकप्रियता बढ़ती रही । इस बात की पुष्टि राग दरबारी के अब तक हुए तीस से अधिक संस्करणों से होती है । चौतरफा भर्त्सना, आलोचना और निंदा अभियान के बावजूद इस प्रकार की अद्वितीय लोकप्रियता अपने आप में एक पहेली प्रतीत होती है । इसीलिए इस संकलन के माध्यम से उल्लिखित पहेली को खोलने और राग दरबारी की जन–स्वीकृति के मूल कारणों की खोज करने का मैंने प्रयास किया है ।

इस पुस्तक में समीक्षाओं, टिप्पणियों और लेखों का संचयन काल–क्रमानुसार किया गया है । इस क्रम के माध्यम से आलोचना की अराजकता की एक मुकम्मल तस्वीर दिखाई पड़ती है । वैसे तो यों भी कहानी या उपन्यास समालोचना की कोई सुसंगत वैज्ञानिक पद्धति का विकास–परिष्कार अभी तक हिंदी में नहीं हो पाया है । लेकिन प्रतिमानों और विवेचनाविधियों की पूर्णत: अवहेलना करके चाहे तो कुलीनतावादी संस्कारों की छाया में समीक्षाएं लिखी जा रही हैं या व्यक्तिगत राग–द्वेष एवं व्यक्तिगत रुचि–अरुचि के पैमाने से औपन्यासिक कृतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया जा रहा है । राग दरबारी के संदर्भ में ये प्रवृत्तियां खास तौर पर झलकती हैं । कुछ समालोचक तो अरस्तू द्वारा प्रस्तुत ट्रेजेडी–कॉमेडी के काव्य या नाट्यसिद्धांत को मनमाने तरीके से लागू कर आलोचना की अराजकता बढ़ाने में योगदान करते हैं । अगर किसी कृति को ट्रेजेडी बताएंगे तो यह भी निष्कर्ष निकालेंगे कि इस कृति में गहरी अनुभूतियों से रससिक्त संवेदना है और अगर कॉमेडी के खाने में डालेंगे तो यह निष्कर्ष निकालेंगे कि उक्त कृति में अनुभूतियों का उथलापन है । ऐसे अनेक विवेचनों में राग दरबारी को ‘कॉमेडी उपन्यास’ सिद्ध किया गया है । इससे हम हिंदी में मूल्यांकन के स्तर को समझ सकते हैं ।

राग दरबारी उपन्यास के मूल में विद्यमान क्षोभ, दु:ख और करुणा की भावानुभूति को पहचानने में कुछ आलोचक चूक गए हैं । चूंकि आलोचक का खुद ही राष्ट्रीय विकासनीति और नेहरू के छद्म समाजवाद से मोहभंग नहीं हुआ था, अत: राग दरबारी की कथावस्तु के अभिप्रायों को वे लगातार नकारवादी बताते रहे । आलोचक जब स्वयं ही समाजव्यवस्था के वस्तुपरक यथार्थ के प्रति मोहासक्त होगा तो उस व्यवस्था के अंतर्गत पल रही मक्कारी, जनविरोधी प्रवृत्ति और विभिन्न पात्रों के उत्पीड़क सामाजिक आचरण को चित्रित करने वाली कथाकृति को, जाहिर है असंतोष का खटराग बताएगा, महाऊब का महाग्रंथ बताएगा और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण का रास्ता छोड़कर आलोचना की अराजकता को फलीभूत करेगा ।

राग दरबारी पर पहली समीक्षा नेमिचंद्र जैन ने लिखी थी । उपन्यास की चित्रणशैली में अंतर्भूत अंतर्दृष्टि और यथार्थ के प्रस्तुतीकरण में अंतर्भूत सामाजिक द्वंद्वात्मकता के बजाय नेमि जी राग दरबारी में आद्यंत यथार्थवादी सपाटता देखते हैं । 1968 में लिखी गई इस समीक्षा को तत्कालीन विवादों से अलग हटकर पढ़ना उचित नहीं होगा क्योंकि उस समय के कथालेखन में प्राय: मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से स्त्री–पुरुष संबंध का अंतर्द्वंद्व प्रस्तुत करने वाली कृतियों को ही श्रेष्ठ माना जा रहा था । बहुत बाद में श्रीलाल जी ने अपना पक्ष रखा और यह बताया कि राग दरबारी की रचना का प्रेरणास्रोत भारतीय ग्रामजीवन के अंतर्विरोधों की पहचान में ही निहित हैं । जिन लेखों और टिप्पणियों में श्रीलाल शुक्ल अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं, उन्हें भी मैंने इस संकलन के खंड–3 में शामिल कर लिया है । इस प्रसंग में खास तौर पर मैं दो अन्य लेखों का उल्लेख करना आवश्यक समझती हूं जो इस संग्रह में शामिल नहीं किए जा सके । पहला लेख है–‘तलाश जारी है आम आदमी की’ तथा दूसरा लेख है–‘मुझे अपने से दूर मत करो, वसुंधरा!’ नेमि जी की समीक्षा के बाद दो युवा रचनाकारों–कमलेश तथा नीलाभ ने राग दरबारी के कथ्य के मूल अभिप्राय की विवेचना प्रस्तुत की । आजादी के बाद के हिंदुस्तान में अपनाई गई गलत नीतियों की ‘सड़ांध’ के प्रति क्षोभ, क्रोध और घृणा का जैसा कथात्मक वस्तुविधान राग दरबारी में प्रस्तुत किया गया है, उसे ‘तीखे रंगों के यथार्थ’ की उक्ति द्वारा उपर्युक्त दोनों रचनाकारों ने अभिहित किया । उपेन्द्रनाथ अश्क द्वारा लिखी गई विस्तृत समीक्षा में यह बताया गया कि इस कृति में यथार्थवादिता के साथ कलात्मकता और वस्तु–निरूपण का अद्भुत सम्मिलन मिलता है । अश्क जी ने कोई अगर–मगर नहीं लगाया । यह समीक्षा थोड़े संक्षिप्त रूप में ‘प्रकाशन समाचार’ और ‘मुक्तधारा’ में प्रकाशित हुई थी । यहां यह उल्लेखनीय है कि कमलेश जी ने पहली बार राग दरबारी के आलोचकों की सवर्ण मानसिकता पर प्रहार करते हुए यह बताया कि कुछ आलोचकों के सुसभ्य और शिष्ट मन को झटका–सा लगा क्योंकि ‘मध्यवर्गीय पाबंदों को राग दरबारी के बहुतेरे अंश फूहड़ और अश्लील लगेंगे ।’ शासक वर्ग ने गांवों में मल विसर्जन की सुविधाजनक व्यवस्था का निर्माण नहीं किया है, अत: राग दरबारी में मल विसर्जन के जितने भी वर्णन आए हैं, उन पर अनेक समीक्षकों ने नाक–भौंह सिकोड़ी है । कुंवर नारायण जी ने इसी तरह के वर्णनों के बारे में लिखा है कि ‘ऐसे कई स्थल हैं जहां इच्छा होती है कि लेखक यदि इतना अधिक यथार्थ के पीछे नहीं पड़ता तो अच्छा होता, व्यंग्य के हित में बहुत अच्छा होता ।’ कमलेश जी ने नवम्बर 1968 के ‘दिनमान’ में प्रकाशित अपनी समीक्षा में आंचलिक उपन्यासकारों की रूमानी दृष्टि की सीमाओं की आलोचना की है और आंचलिक उपन्यासों में राग दरबारी जैसी गैर–रूमानी सौंदर्य–दृष्टि तथा चित्रणविधि के अभाव को रेखांकित किया है ।

परमानंद श्रीवास्तव की समीक्षा ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित हुई थी । उक्त समीक्षा में वे यह बताते हैं कि राग दरबारी द्वारा प्रस्तुत असलियत का सामना हमारा बुद्धिजीवी समाज नहीं कर पा रहा है । वैज्ञानिक विश्लेषण की दृष्टि से हिंदुस्तानी दिमाग के भीतर मौजूद अवरोध तभी समाप्त हो सकता है जब वह मूल्यहीनता के चित्रण के क्रम में व्यंग्यात्मक प्रहार की निस्संगता के प्रति ग्रहणशील होगा । राग दरबारी में तत्कालीन भारतीय गांवों के जीवन यथार्थ के द्वंद्व के चित्रण की प्रासंगिकता और सार्थकता उपन्यास की शिल्पविधि में परिवर्तन पर निर्भर करती है । कथाविन्यास और शिल्पविधि का यह परिवर्तन परमानंद श्रीवास्तव के विश्लेषण का आधार है । इसी बिंदु पर खड़े होकर वे तमाम आरोपों का खंडन करते हैं और संकेतों के द्वारा विभिन्न समीक्षाओं में उठाए गए प्रश्नों के उत्तर बहुत ही सधे तरीके से देते हैं । इसके बावजूद राग दरबारी को लेकर विवादों का सिलसिला बंद नहीं हुआ, चूंकि विभिन्न आलोचकों के अलग–अलग किस्म के प्रतिमानों के भीतर जो मतांतर थे, वे मूलत: वैचारिक थे, यहां तक कि यह बहस नाक की लड़ाई और गुटबाजी तक में तब्दील हो गई ।

कमलेश, नीलाभ, उपेंद्रनाथ अश्क और परमानंद श्रीवास्तव को दरकिनार कर श्रीपतराय की जो समीक्षा ‘कथा’ पत्रिका में प्रकाशित हुई उसमें यह बाजाब्ता एलान किया गया कि राग दरबारी ‘बड़ी ऊब का महाग्रंथ है’ है और अपठित रह जाना ही इसकी ‘नियति’ है । उनके शब्दों में ‘अतियथार्थ उपन्यास के आंतरिक स्वरूप को नष्ट करता है ।’ निष्कर्ष यह कि यथार्थ की प्रेक्षण विधि पर आकर आलोचना अटक गई क्या, वस्तुत: फंस गई । यथार्थ के रूमानी और गैर–रूमानी चित्रण की बहस भी लंबे समय तक चलती रही । 1975 में नित्यानंद तिवारी ने अपनी एक आलोचनात्मक टिप्पणी में राग दरबारी के यथार्थ चित्रण की कथनभंगी को ‘व्यंग्य लीला’ की संज्ञा दी, जबकि 1969 में परमानंद श्रीवास्तव ने इस वैशिष्ट्य को मूल्यहीनता के चित्रण के लिए जरूरी बताया था । कमलेश्वर 1970 में अपनी टिप्पणी में दो टूक शब्दों में लिख चुके थे : ‘सचाई यह है कि कथाकार जानबूझकर आघात नहीं पहुंचाता । वह संपूर्ण संदर्भ में कुछ इस तरह प्रेक्षण कर अंत:प्रवेश करता है कि उससे व्यंग्य और उपहास उत्पन्न होता है ।’


चंद्रकांत बांदिवडेकर के अकादमिक ढंग के विवेचनात्मक आलेख में तब तक के सभी मतों का समाहार करने का प्रयास देखा जा सकता है । ‘कथ्य को प्रस्तुत करने की दृष्टि’ से राग दरबारी को वे महत्वपूर्ण उपन्यास मानते हैं । पर नेमिचंद्र जैन की तरह वे यह भी कहते हैं कि इसमें ‘नए की तलाश नहीं है, वास्तविकता के अनपहचाने, अपरिचित पहलू को अन्वेषित करने का प्रयास नहीं है ।’ राग दरबारी पर इस तरह के आरोप प्रारंभ से ही लगते रहे हैं । यद्यपि नेमिचंद्र जैन ‘सर्वसामान्य अनुभव–स्तर का दो टूक प्रस्तुतीकरण’ इस उपन्यास की उपलब्धि मानते हुए भी कहते हैं कि ‘दीखने वाली जिंदगी पर दबाव डालती नीचे कोई और जिंदगी’ नहीं है । इसके साथ–साथ वे यह भी कहते हैं कि ‘उसमें न तो कोई द्वंद्व है, न गति’ । ऐसी टिप्पणियों के परिप्रेक्ष्य में हमें आलोचना और सौंदर्यबोध की अभिजात, भद्रसमाज की संस्कारवादी अभिरुचि की जांच–पड़ताल करनी चाहिए ताकि यह स्पष्ट हो सके कि विरोध का मूल कारण इस तथ्य में है कि राग दरबारी मध्यवर्गीय भाव और विचारबोध पर सीधे–सीधे और बहुत ही दृढ़ता से चोट करता है ।

लगभग 12 वर्षों तक आलोचना में जो वितंडावाद छाया रहा, उससे भिन्न किस्म की नई समीक्षाएं 1980 के बाद प्रकाशित होने लगीं । आलोचना के इस नए दौर में अब राग दरबारी को लेकर निंदापरक लेख प्रकाशित होने बंद हो गए । नए आयामों को उद्घाटित करने का सिलसिला शुरू हुआ । 1990 के आसपास भूमंडलीकरण और उदारतावाद को लेकर जो भी नई बहसें हुर्इं, वे सिर्फ राजनीति या अर्थव्यवस्था तक सीमित न होकर साहित्य–संस्कृति के क्षेत्रों में होने लगीं । इस सिलसिले में एक नई पहलकदमी समाजशास्त्री विद्वानों की ओर से शुरू हुई । इन लोगों ने हिंदी उपन्यासों में चित्रित समाज का विश्लेषण ज्ञानमीमांसा के नए औजारों से करना प्रारंभ किया । नतीजा यह कि 1980 के पहले की बहसों को दरकिनार कर असंदिग्ध रूप में राग दरबारी को क्लासिक कृति का दर्जा मिल गया ।
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Rag Darbari Alochana Ki Phans
Author : Rekha Awasthi
Pages : 340
Year : 2014
ISBN 10 : 8126726334
Binding : Hardbound
ISBN 13 : 9788126726332
Language : Hindi
Publisher : Rajkamal Prakashan


प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे की निम्नलिखित मान्यता उल्लेखनीय मानी जाती है, चूंकि राग दरबारी के सामाजिक अभिप्राय तथा ग्रामीण जीवन के अंतर्विरोधी सारतत्व को उन्होंने हिंदी समालोचकों की तुलना में भिन्न दृष्टि से रेखांकित किया था :

शिवपालगंज की कहानी परंपरा और प्रगति के मुखौटों की कहानी है, जिन पर लेखक ने निर्मम प्रहार किए हैं, अपने सशक्त पर नियंत्रित व्यंग्य से । गांव के बदलते परिवेश का इतना रोचक विवरण अन्यत्र दुर्लभ है । शैली में न कहीं उलझाव है, न बोझिलता । विराट समाजशास्त्रीय कल्पना वाले बीस विद्वान ग्रामीण यथार्थ के बारे में जो नहीं कह सकते, वह इस एक उपन्यास में श्रीलाल शुक्त ने कह दिया है । (परंपरा, इतिहासबोध और संस्कृति, पृ– 140–41)


दुबे जी की तरह ही प्रसिद्ध समाजशास्त्री टी–एन– मदान भी राग दरबारी को अपने अध्ययन की स्रोत सामग्री का आधार बनाते हैं । 1938 में प्रकाशित राजा राव के अंग्रेजी उपन्यास ‘कांथापुरा’ और हिंदी के राग दरबारी (1968) को टी–एन– मदान ने सामाजिक प्रतिरोध आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने वाली कृतियों के रूप में अपने विवेचन का विषय बनाया । मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि टी–एन– मदान का पूरा लेख अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कराकर इस संकलन में शामिल किया जा रहा है । अभी तक यह लेख हिंदी पाठक समुदाय के लिए अनुपलब्ध था । समाजशास्त्रीय समालोचना के सिलसिले की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में दलित रचनाकार जयप्रकाश कर्दम का भी लेख इस संकलन में शामिल किया जा रहा है ।

राग दरबारी पर चर्चा के क्रम में अंग्रेजी के जिन विद्वानों का नामोल्लेख किया जाता है, उनमें रूपर्ट स्नेल प्रमुख हैं । पेंगुइन से राग दरबारी के अंग्रेजी अनुवाद के प्रकाशन के पहले ही 1990 में रूपर्ट स्नेल ने उक्त कृति पर एक लंबा विवेचनात्मक लेख लिखा था । ‘तद्भव’ के संपादक अखिलेश ने 1999 में जब अपनी पत्रिका का श्रीलाल शुक्ल पर केंद्रित विशेषांक निकाला तो रूपर्ट स्नेल के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया था । इस लेख से ही यह पता चला कि राग दरबारी पर जर्मन तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में भी चर्चा चल रही है । रूपर्ट स्नेल ने खुद भी अपने लेख में प्रेमचंद और रेणु के गांव से राग दरबारी के गांव की भिन्नता रेखांकित की है । उपन्यास के भाषाशिल्प पर उनका ध्यान ज्यादा केंद्रित है । उनकी मान्यता है कि

यहां यथार्थवाद चरित्र–चित्रण का नहीं व्यंग्य के शस्त्रागार का एक हथियार है । यह स्वच्छंदतावाद के नीचे से नमदा खींच लेने और हर उस चीज, जिसमें कृत्रिम कलात्मकता की गंध आती है, को उघाड़ देने के श्रीलाल शुक्ल के इरादे का अंग है ।


‘तद्भव’ के इसी विशेषांक में वीरेंद्र यादव का एक महत्वपूर्ण लम्बा लेख है जो एकदम बेलाग तरीके से ही नहीं बल्कि नए ढंग से राग दरबारी के पाठ की मीमांसा प्रस्तुत करता है, किंतु इसमें कुछ मुद्दों पर नेमिचंद्र जैन और श्रीपत राय की कटूक्तियों की ही प्रतिध्यवनियां सुनाई पड़ती हैं । इसके अतिरिक्त वीरेंद्र यादव यह मानते हैं कि श्रीलाल शुक्ल ‘अंग्रेजी मुहावरे’ के कथाकार हैं :

अभिजातवर्गीय रुख अपनाते हुए अंग्रेजी मुहावरे में निंदात्मक नकार के जिस धरातल पर खड़े होकर वे भारतीय यथार्थ को देखते हैं, वह रुडयार्ड किपलिंग, ई–एम–फार्स्टर, नीरद सी– चौधरी और वी–एस– नायपॉल के काफी कुछ सन्निकट है ।


इसके अलावा वीरेंद्र यादव श्रीलाल शुक्ल और प्रेमचंद के बीच पार्थक्य की स्पष्ट लकीर खींचते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ‘राग दरबारी ग्राम्य जीवन की अधूरी तस्वीर है ।’ उनका यह भी मानना है कि समूचे उपन्यास में लंगड़ ही एकमात्र ऐसा चरित्र है ‘जो संघर्षशील होने का आभास देता है ।’ उपर्युक्त टिप्पणियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रगतिशील आलोचना–दृष्टि के लिए राग दरबारी अब भी एक किरकिरी या फांस की तरह है ।

सन् 2000 में ‘वर्तमान साहित्य’ के शताब्दी कथा–साहित्य विशेषांक में राग दरबारी पर मुद्राराक्षस का लेख छपा । यह अजीब बात है कि बीसवीं सदी के मील के पत्थर उपन्यासों की चर्चा के क्रम में राग दरबारी को तो उन्होंने चुना है, पर इसके साथ ही इस कृति के वजूद को ही उन्होंने कठघरे में यह प्रश्न उठाकर खड़ा कर दिया कि

क्या कारण है कि देश में मर्यादा भ्रंश पर लिखे गए इस ‘महाभारत’ में अपंग, गरीब, लाचार अथवा विष्ठा को हंसी का पात्र बनाया गया ? सामंत, सेठ, कोतवाल, लाट साहब या नेता इस प्रहार की सीमा से पूरी तरह बाहर हैं ।


राग दरबारी को यथास्थितिवादी कृति बतलाते हुए मुद्रा जी ने यह टिप्पणी की कि ‘व्यवस्था के कुकर्मों को अपने आप में निरापद करने का यह एक बड़ा रचनात्मक प्रयास बन गया ।’ हिंदी आलोचना में कुपाठ की जो परिपाटी है, उसी की एक मिसाल के रूप में मुद्राराक्षस का लेख पठनीय बन गया है, चूंकि ऐसे लेख सामाजिक संरचना के विभिन्न पहलुओं के उद्घाटन की आवश्यकता पर जोर देते हैं और यथार्थ के अंतर्विरोधी पहलुओं की पहचान कराते हैं । इसके ठीक विपरीत 2002 के अंत में कसौटी पत्रिका का एक विशेषांक ‘बीसवी शती : कालजयी कृतियां’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें सुवास कुमार का लेख सुचिंतित–संतुलित समीक्षा–पद्धति की मिसाल के रूप में पठनीय है । इस लेख में कमलेश, नीलाभ, अश्क, परमानंद श्रीवास्तव आदि की तर्क–विश्लेषण परंपरा की अटूट कड़ी के रूप में सारे विवादों का मानो समाहार किया गया है । इस लेख का निष्कर्ष उल्लेखनीय है : ‘राग दरबारी में अनेक स्थलों पर असंयमित–सी प्रतीत होने वाली व्यंजक भाषा दरअसल वर्णन की और वर्ण्य वस्तु की मांग है ।’

सुवास कुमार यह मानते हैं कि सही सच्चे व्यंग्य की प्रखरता को ‘अभिजात रूप’ और ‘पाश्चात्य मूल्य’ से जोड़ा नहीं जाना चाहिए । उनकी यह उक्ति बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘सच्चे व्यंग्य की मूल प्रकृति देशज होने के बावजूद अनिवार्यत: वैश्विक और मानवीय होती है ।’

2005 में श्रीलाल शुक्ल के अस्सी वर्ष पूरे होने पर उनकी कृतियों के सहृदय पाठकों, मित्रों तथा प्रेमियों ने अमृत महोत्सव मनाया और इस अवसर पर ‘श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन’ नाम की पुस्तक प्रकाशित की गई तो उसमें अनेकानेक महत्वपूर्ण लेखकों के आलोचनात्मक निबंध शामिल किए गए । उक्त पुस्तक के कुछ आलेख इस संकलन में दिए गए हैं । इस पुस्तक के संपादक के नाते अपनी भूमिका में नामवर सिंह ने श्रीलाल जी के संपूर्ण लेखन को, समाज और साहित्य–दोनों में हर तरह के हम्बग के खिलाफ एक सर्जनात्मक ‘अभियान’ बताया ।

इस अभियान की तार्किक और कलात्मक परिणति के लिए ‘सबसे कारगर हथियार यह वक्र और बांकी भाषा’ है । विकल्प में या तो आक्रोश की भाषा है या फिर गाली–गलौज । लेकिन इस विकल्प के साथ दिक्कत यह है कि इससे क्रुद्ध लेखक कुछ देर के लिए अपने आपको भले हल्का कर ले, सामान्य पाठक खाली–खाली ही रहता है । इस स्थिति में निश्चित रूप से श्रीलाल की वक्रता कहीं अधिक ग्राह्य है, जिसे पढ़ने में मजा आता है बल्कि जिसे बार–बार पढ़ने को जी चाहता है । और कहना न होगा कि किसी साहित्यिक कृति के अस्तित्व की यह पहली शर्त है, जो दिन–पर–दिन दुर्लभ होती जा रही है ।


नामवर सिंह अपने विश्लेषण के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि व्यंग्य की अतिशयता और गद्यशैली की वक्रभंगिमा वस्तुत: ‘झूठ की खोज’ के लिए जरूरी है ।

अमृत महोत्सव के समय प्रकाशित उक्त पुस्तक में कृष्ण बलदेव वैद का भी एक लेख है । इस लेख में यह बताया गया है कि ख़ब्त, विक्षोभ और हास्य (व्यंग्य) का अभाव भारतीय उपन्यासों की एक बहुत बड़ी कमी रही है किंतु ‘श्रीलाल शुक्ल का शुमार हिंदी उपन्यास में व्यंग्य के उन बहुत ही कम बड़े साधकों में किया जा सकता है जिनके काम में नैतिक और बौद्धिक हंसी को निरंतर सुना जा सकता है ।’ इस मंतव्य का तार्किक आधार भी कृष्ण बलदेव वैद प्रस्तुत करते हैं :

बुनियादी तौर पर उनके ख़ब्त की जड़ उस कीचड़ में है जिसे हमारे अधिकतर यथार्थवादी उपन्यासकार अधमुंदी आंखों से ही देखते हैं, नीमजान प्रज्ञा से ही आंकते हैं और उसमें से अपने काल्पनिक कमल खिलाते रहते हैं । श्रीलाल शुक्ल उस कीचड़ को खुली आंखों से देखते हैं, उसका निर्मम भावुकता–मुक्त कलात्मक चित्रण सूनी घाटी का सूरज से शुरू कर कमोबेश अपने हर उपन्यास में करते हैं, विशेष तौर पर अपने सर्वमान्य शाहकार राग दरबारी में, और उस कीचड़ में से, किसी विचारधारा के दबाव में कोई आशावादी कमल नहीं उगाते ।


राग दरबारी के मूल्यांकन से संबंधित हिंदी समालोचना में दो तरह की धाराओं के पीछे कौन–से कारण क्रियाशील हैं ? खासकर कमलेश, परमानंद श्रीवास्तव, अश्क, कमलेश्वर, नीलाभ, शिवकुमार मिश्र, सुवास कुमार, अरुण कमल, पंकज सिंह, शंभुनाथ, लीलाधर जगूड़ी, पंकज चतुर्वेदी, वैभव सिंह आलोचना की जिस कसौटी पर इस कृति को परखते हैं, उसका मूल उत्स कहां है ? आपातकाल से लेकर अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के आक्रामक दौर के आते–आते, यथार्थ के तीखे अंतर्विरोध के विस्फोट होने के बाद जो समालोचक जीवन को खुली आंखों से देखते हैं, वे इस कृति की प्रासंगिकता और सार्थकता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं । इन सभी समालोचकों की समीक्षापद्धति में पुनर्पाठ का विवेचन तर्कातीत नहीं है । पंकज सिंह की यह टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है कि ‘राग दरबारी के आंतरिक एकालाप में गहरा विडंबना–बोध है और यथार्थ के टुकड़ों की पच्चीकारी के साथ जो तिर्यक व्यंजना रिस–रिस कर आती है, उसमें गहरा विषाद है और उस विषाद का परिप्रेक्ष्य सघन सामाजिक मानवीयता से निर्मित है ।’ इसी तरह पंकज चतुर्वेदी को यह उपन्यास ‘एक नए देश की तलाश का प्रस्ताव प्रतीत होता है ।’ दरअसल इस कृति मंे अंतर्निहित अवसाद और करुणा का सांगोपांग विवेचन अनेक कोणों से अनेक लेखों में बहुत ही सटीक ढंग से किया गया है । इस कृति की अंग्रेजी में अनुवादिका गिलियिन राइट ने भी बहुत सारे आरोपों का खंडन किया है । गिलियिन राइट के लेख में स्त्री पात्रों की अनुपस्थिति के बारे में पूछे जाने पर रचनाकार का जवाब भी ध्यान देने योग्य है । इस प्रश्न पर सबसे सटीक विवेचन हिमांशु पांड्या ने किया है । यही नहीं हिमांशु ने लगभग सभी प्रकार की आलोचनाओं का तर्कसंगत जवाब ‘अप्रकट करुणा के पक्ष में’ में दिया है । दलित और अल्पसंख्यक चित्रणों के संदर्भ में उठे प्रश्न भी हिंदी आलोचना के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं । आलोचना की इस अराजकता में राग दरबारी के विवेचन–विश्लेषण की दो धाराएं अभी तक स्पष्टत: दिखाई पड़ती हैं । वर्णन की कला में अंतर्निहित ‘विटविन द लाइन्स’ यानी अनकहे को पकड़ने की कोशिश प्राय: नई पीढ़ी के समालोचकों में ही पूरी स्पष्टता से प्रगट होती है । राजेश जोशी के लेख में अनकहे को पकड़ने का सुझाव भी तार्किकता के साथ आया है ।

साहित्यिक आलोचना से भिन्न ढंग, शैली और दृष्टि रखने वाले कुछ संस्मरणात्मक लेख भी ‘लोकप्रियता और व्याप्ति’ के अंतर्गत खंड–2 में शामिल किए गए हैं । इन लेखकों में अष्टभुजा शुक्ल, रवींद्र त्रिपाठी और सूर्यबाला की रचनाएं रागदरबारी पर एकदम नए ढंग से प्रकाश डालती हैं । वस्तुत: आलोचना के नेपथ्य में उपस्थित इन संस्मरणों की जबर्दस्त सार्थकता है । इस उपन्यास पर आधारित गिरीश रस्तोगी के नाटक ‘रंगनाथ की वापसी’ तथा कृष्ण राघव द्वारा निर्मित टेलीविजन सीरियलों में अनकहे को खोलने की कोशिश क्यों की गई, इसका स्पष्टीकरण दोनों व्यक्तियों ने अपने लेखों में किया है । अत: साहित्यिक समालोचना के साथ–साथ अनुवादक, रंगकर्मी और फिल्मकार के संस्मरण भी पठनीय हैं । इसीलिए मैंने तीनों के लेख इस संकलन में सम्मिलित किए हैं । खंड–3 ‘बकलमखुद’ में राग दरबारी से संबंधित श्रीलाल शुक्ल के लेखों को इस परिकल्पना के साथ संग्रहीत कर रही हूँ ताकि राग दरबारी पर संपूर्ण सामग्री एक साथ उपलब्ध हो सके ।

इस पुस्तक का चौथा और अंतिम खंड ‘शख़्िसयत’ है । इसमें एक लेख और चार संस्मरणों को पढ़कर कोई अपरिचित–अजनबी पाठक भी श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व से आत्मीयता महसूस करेगा यानी दोस्ती कर लेगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।

इस संकलन में सम्मिलित लेखों के रचनाकारों के प्रति मैं आभार प्रगट करती हूं । सामग्री एकत्र करने में स्वयं श्रीलाल जी ने मदद की थी । आज हमारे बीच वे नहीं हैं पर उनकी रचनाएं हरदम हमारे साथ रहेंगी । यह संकलन श्रीलाल शुक्ल की स्मृति को समर्पित कर रही हूं । उनकी पुत्रवधू श्रीमती साधना शुक्ल को भी सामग्री एवं सहयोग के लिए धन्यवाद । श्री नारायण कुमार, श्री मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और श्री वैभव सिंह की आभारी हूं कि इन लोगों ने बहुत कम समय में अनुवाद करके इस संकलन को समृद्ध बनाने में मदद की है । श्री जवरीमल्ल पारख और श्री संजीव कुमार को भी धन्यवाद क्योंकि कुछ सामग्री जुटाने में इन दोनों से भी मदद मिली है । कवि नीलाभ को विशेष धन्यवाद देना चाहती हूँ क्योंकि मेरे अनुरोध पर उन्होंने 40 वर्षों के बाद राग दरबारी पर फिर से जोरदार समीक्षा लिखी । सबसे अंत में पुस्तक प्रकाशन के लिए राजकमल प्रकाशन के प्रबंधक श्री अशोक माहेश्वरी का भी बहुत–बहुत धन्यवाद ।

रेखा अवस्थी

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1 टिप्पणियाँ

  1. राग दरबारी हिंदी के उन उपन्यासों में जो अभिजन भाषा का निषेध करता है.वह लोक के उन इलाको में दाखिल होता है जहां टुच्ची और भदेश राजनीति का खेल होता है.श्रीलाल जी ने उस यथार्थ को पकड़ने की कोशिश की है.किसी कृति के मूल्यांकन में आलोचक की दृष्टि की भूमिका होती है.रागदरबारी के पक्ष और विपक्ष में आलोचको ने अपना मत प्रकट किया है.यह पुस्तक रागदरबारी को जानने में हमारी मदद करती है.महत्वपूर्ण उपन्यास कभी विवादों के परे नहीहोते..

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