मेरे हमदम, मेरे दोस्त
- अल्पना मिश्र
आज फिर सुबोधिनी को लगा कि उसके पीछे पीछे कोई ऐसे चल रहा है, जैसे पीछा कर रहा हो। वह और तेज चलने लगी। रिक्शा नहीं मिल रहा था। सुबह के दस बजने वाले थे और धूप बहुत तीखी हो गयी थी। रिक्शा मिल जाता तो समय से दफ्तर पहुँच जाती, वरना पाँच दस मिनट देर हो सकती है। दो तीन ऑटो रिक्शा बगल से गुजरे पर सुबोधिनी ने उन्हें नहीं रोका। हाथ रिक्शा और ऑटो रिक्शा के किराए में जमीन आसमान का अंतर लगता था उसे।
देर हो जाए तो दफ्तर में डाँट सही जा सकती थी, ऑटो रिक्शा का किराया नहीं सहा जा सकता था।
इस समय हाथ रिक्शा की जरूरत ज्यादा थी क्योंकि पीछे कोई चल रहा था। चल नहीं रहा था, पीछा कर रहा था। जब भी वह दफ्तर जाने के लिए पैदल निकलती, कोई उसका पीछा करने लगता। इससे वह लगातार भयभीत और परेशान बनी रहती। एक दिन उसने पीछा करने वाले आदमी को रोक कर जोर से पूछा कि आखिर वह उसका पीछा क्यों कर रहा है? लेकिन यह पूछने के साथ ही वह यह देख कर हैरान रह गयी कि वह आदमी उसका भूतपूर्व पति था। पूर्व पति ने गरज कर कहा -‘‘ सड़क तुम्हारे बाप की नहीं है। आशी को मुझे दे दो नहीं तो जीना मुहाल कर दूंगा।’’
‘‘लेकिन कानून का फैसला तो आपको मानना पड़ेगा।’’
‘‘कानून की धमकी मत दे। कसम खाई है मैंने, जब तक बच्ची को तुमसे छीन कर अम्मा की गोद में नहीं डाल देता, चैन से नहीं बैठूंगा। ’’
उसकी इस धमकी पर सुबोधिनी उखड़ गयी- ‘‘ कैसे छीन लोगे? मैं भी देखती हूँ! मेरे पीछे आए तो ठीक नहीं होगा! जाओ, यहाँ से, जाओ, जीने दो हमें।’’
इस लड़ाई झगड़े में सुबोधिनी को देर हो गयी। दफ्तर पहुँचते ही हमेशा की तरह सामने की कुर्सी पर बैठे बड़े बाबू दिखे। जो भी दफ्तर में घुसता, वह बड़े बाबू की इस कुर्सी को पार कर के ही अपनी जगह तक जा सकता था। कुर्सी उस समय इतनी पर्वताकार लगती कि उसे पार कर के अपनी कुर्सी तक पहुँचना दुनिया का सबसे कठिन काम लगता। बड़े बाबू थे भी ऐसे, लम्बे चौड़े, खूब चौड़ी चपटी नाक, सिर के सारे बाल गायब। उनका व्यक्तित्व कुछ अलग तरह का भय पैदा करता था। उसे देखते ही बड़े बाबू चिल्लाए- ‘‘ ये है आपके दफ्तर आने का समय? घड़ी देखिए मैडम। घर बना रखा है इसे, जब मन करेगा, आएंगी? रजिस्टर पर हस्ताक्षर नहीं करने दूंगा। आधे दिन की छुट्टी लगाइए।’’
बड़े बाबू का चिल्लाना कुछ अलग तरह का चिल्लाना होता। उनकी आवाज कौवे की आवाज जैसी तीखी, रूखी और नाक से निकलती हुई सी थी। उनके वाक्य के आखिरी में कौवे की काँव की तरह ‘हाँव’ या ‘काँव’ जैसा कुछ ध्वनित होता था। इसीलिए जब उन्होंने कहा कि ‘आधे दिन की छुट्टी लगाइए’ तब उसके पीछे ‘लगाइए हाँव’ जैसा ध्वनित हुआ, जो उस किसी को अनिश्चय में डाल देता जो बड़े बाबू को नहीं जानता था। ‘हाँव’ ‘हाँ या न’ जैसा ध्वनित हो जाता। सुबोधिनी को यहाँ कुछ दिन ही हुए थे, वह घबड़ा कर बोली-‘‘ नहीं सर। सारी सर।’’
‘‘देखा, देखा! महारानी विक्टोरिया एक घंटा लेट आएंगी और छुट्टी भी नहीं लेंगी!’’
बड़े बाबू पलट कर चीखते हुए गए और उपस्थिति रजिस्टर को झपट कर उठा लाए।
‘‘नए नए आए लोगों का तरीका तो देखो! हाँव!’’
बड़े बाबू थोड़ा रूक कर फिर बोले-‘‘आधे दिन की छुट्टी नहीं लेंगी तो पूरे दिन की छुट्टी लेनी पड़ेगी। हाँव।’’
इस बार सुबोधिनी ने सावधानी से कहा- ‘‘हाँ। आाधे दिन की।’’ इसके आगे उसकी हिम्मत नहीं रह गयी। आधे दिन की तनखा़ह के जाने की तकलीफ भीतर भीतर सहन कर गयी।
बड़े बाबू ने रजिस्टर उसकी तरफ फेक दिया।
रजिस्टर ‘धपाक’ की आवाज के साथ मेज पर और सुबोधिनी के आधे दिन की तनखा़ह पर एक साथ गिरा।
सुबोधिनी धीरे धीरे चल कर अपने हिस्से की कुर्सी पर बैठ गयी, उसकी कुर्सी की बगल में गोपालबाबू की कुर्सी थी। गोपालबाबू उम्र में उससे बड़े थे। रहे होंगे कोई चालीस के करीब। पर वे अपने को चालीस के करीब नहीं मानते थे। वे हमेशा मुस्कराते हुए रह रह कर अपने बाल सँवारा करते थे। यह लत उन्हें किशोरावस्था से ही लग गयी थी। बात करते करते बीच में कोई रसभरी बात चल निकलने पर हल्का सा लजा जाते थे। कान लाल हो उठते थे। पर ऐसा नहीं था कि वे रसभरी बातों से बचते थे, बल्कि वे तो कहीं न कहीं से इन्हीं बातों को छेड़ छेड़ कर लजाते हुए आनन्द उठाते रहते थे। आँखों में अंजन नहीं लगाते थे, पर आँखें कजरारी लगती थीं। अपने कुल हाँव भाव में वे अपनी किशोरावस्था में ठहर गए थे। लोग उन्हें उनके पीठ पीछे गोपाल बाबू न कह कर छैला बाबू कहते। वे इस पीठ पीछे वाली बात को जानते थे और सामने कभी ‘छैला’ शब्द निकल आने पर लजाते हुए आनन्दित होते थे। वही छैला बाबू उर्फ गोपाल बाबू, सुबोधिनी की कुर्सी की बगल की कुर्सी में धसे थे, लपक कर पूछने लगे-‘‘ क्या हुआ? कोई परेशानी थी?’’
‘‘अब हो गयी देर, क्या करें?’’
अल्पना मिश्र
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
संपर्क :
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मोबाईल: 09911378341
ईमेल: alpana.mishra@yahoo.co.in
मुख्य कृतियाँ
कहानी संग्रह : भीतर का वक्त, छावनी में बेघर, कब्र भी कैद औ' जंजीरें भी
उपन्यास : अन्हियारे तलछट में चमका
संपादन : सहोदर (संबंधों की श्रृंखला : कहानियाँ)
सम्मान :
शैलेश मटियानी स्मृति सम्मान (2006), परिवेश सम्मान (2006), रचनाकार सम्मान (भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता 2008), शक्ति सम्मान (2008), प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान (2014)
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सुबोधिनी इनसे कुछ कहना नहीं चाहती थी। अभी एक दो दिन पहले ही उसने अपने लिए दफ्तर में किसी को कहते सुना था-‘आदमी ने छोड़ दिया है बेचारी को।’ जब कि असलियत में तंग आ कर उसी ने छोड़ दिया था। ज्यादा दुखड़ा रोयेगी तो अगले दिन से कई जगह उसी का नाम सुनाई दिखाई पड़ेगा। जैसे कि टीना का नाम। बाथरूम की दीवारों तक पर लिखा दिखता है। थक हार कर टीना ने यहाँ से ट्रांसफर लिया था।
लेकिन आदमी भाग कर कहाँ तक जाएगा?
‘‘बड़े बाबू तो जल्लाद हैं।’’ छैलाबाबू उर्फ गोपालबाबू ने धीरे से कहा।
‘‘अपनी परेशानी मुझसे कहिए मैडम। मन की बात कह लेने से मन हल्का हो जाता है।’’ छैलाबाबू ने और भी मुलायम स्वर में लजाते हुए कहा।
‘‘वही रोज की कहानी.....’’सुबोधिनी को उनके स्वर का मुलायमपन भला लगा।
‘‘वैसे आपका नाम बहुत सुंदर है। क्या मतलब होता है इसका?’’यह कह कर वे मुस्कराते रहने वाले अपने स्थायी भाव के साथ और लजाए। उनके कान लाल हो गए और मन आनंदित हो उठा।
इस पर सुबोधिनी, जो पलभर पहले अपना दुख कह देने को आतुर हो आयी थी, चौंक गयी। रोज ये आदमी इसी तरह की बातें करता है। इसने यहाँ जीना मुहाल किया है, उसने उधर।
‘‘वैसे आप मुझसे उम्र में छोटी हैं। शादी जल्दी हो गई होगी न!’
’फिर से मुस्कराते लजाते छैलाबाबू ने कहा।
सुबोधिनी ने इस पर जवाब नहीं दिया। तब छैलाबाबू ने और भी धीरे स्वर में कहा- ‘‘बच्ची तो आपकी मां के पास रहती है। है न! यहाँ रह भी नहीं सकती। है न! आप डरती हैं, है न! हैरान मत होइए, एक ही जगह काम करते हैं तो एक दूसरे के बारे में जानना फर्ज है। फिर अकेले तो आपका मन नहीं लगता होगा? है न! अकेला जीवन भी क्या है? कितना बोर होती होंगी आप!’’
‘‘नहीं! आप अपने काम से मतलब रखिए।’’ झल्ला कर सुबोधिनी ने कहा और मुँह घुमा कर अपने काम में लग गई। लेकिन छैलाबाबू ने बच्ची के दूर रहने के दर्द को खरोंचे दिया था। वह अपनी तीन साल की बच्ची की कोमल मोहक शरारतों की याद में खोने लगी कि तभी अचानक शर्मा जी कोई कागज का बंडल लिए दिए खुद उसकी टेबल के सामने आ कर बैठ गए।
‘‘अब इतनी सी दूरी के लिए चपरासी से क्या कहता?’’ शर्मा जी ने अपने आने का तर्क बिना पूछे ही रख दिया।
‘‘आज फिर पीछा कर रहा था क्या?’’ शर्मा जी ने कागज का बंडल रखने के बाद धीरे से पूछा।
‘‘रोज की बात है।’’ उसके चेहरे की झल्लाहट नहीं छिपी। जिस दिन वह पीछा नहीं करता, उस दिन कोई और करता है। क्या पता इनमें से कोई हो या इनका साथी मित्र! उसने मन ही मन सोचा।
‘‘आपकी भी मुसीबत है मैडम! बहुत सहन करती हैं आप। ईश्वर कष्ट देता है तो उसे सहन करने की ताकत भी देता है।’’ कह कर शर्मा जी ने अपने गले में पहने काले धागे में बँधे शंकर जी के नग वाले लॉकेट को छूआ।
‘‘दिमाग में टेंशन न रखिए, ईश्वर सब ठीक करेगा।’’ कह कर शर्मा जी ने बड़े दुलार से भर कर उसके हाथ को सहलाना चाहा। लेकिन ‘‘जी’’ कह कर उसने हाथ हटा लिया। शर्मा जी जब भी सांत्वना से भर उठते तो महिला कर्मचारियों के हाथ सहलाने लगते और द्रवित होने पर पीठ थपथपाते और उससे भी ज्यादा पिघलने पर सिर से पीठ तक सहलाते हुए हृदय से लगा लेते। यद्धपि वे अपने बुजुर्ग होने की आड़ बराबर बनाए रखते तब भी उनके हाँव भाव में कुछ ऐसा होता जिससे महिला कर्मचारी उनसे दूर भागतीं।
शर्मा जी को ईश्वर पर अगाध आस्था थी, इतनी कि वे तमाम फाइलें ईश्वर के भरोसे रख देते थे। फिर ईश्वर कोई चमत्कार करता था और फाइल को खिसकाने का इंतजाम हो जाता था। कोई न कोई इतना मजबूर हो कर आता और फाइल पर वजन रखने को तैयार हो जाता। जो मजबूर हो कर आता, उसका ईश्वर पता नहीं कहाँ होता। इसलिए ईश्वर के सब ठीक कर देने वाली बात पर सुबोधिनी को भरोसा नहीं था। अपने तलाक की लड़ाई में उसने इसे साफ देख लिया था।
वह सो कर उठी और रोजाना के अभ्यासवश अनमनेपन से अखबार पलटा। अखबार मकान मालिक का होता था, पर जिस तरह वह आता, पहले सुबोधिनी के दरवाजे पर गिरता। बाद में सीढ़ियों से उतर कर मकान मालिक का लड़का आता और अखबार ले जाता। कभी सुबोधिनी उसके आने के पहले ही अखबार सीढ़ी पर रख देती या उपर जा कर दे आती और अखबार देते हुए मकान की एकाध परेशानियां भी कह आती। मकान मालिक को अखबार दे देने के पहले सुबोधिनी उसे जल्दी जल्दी खोल कर खबरों के शीर्षक देख लेती और उसी आधार पर दुनिया को जान लेने के अपने भ्रम को बनाए रखती। आज क्या हुआ कि उसने अभ्यासवश अखबार खोला और जल्दी जल्दी खबरों पर नजर डाल रही थी कि एक खबर ने उसे रोक लिया। वह उसे विस्तार में पढ़ने लग गयी और इस तरह अखबार मकान मालिक को दे देने में देर होती चली गयी।
खबर थी कि अमेरिका में बच्चे की कस्टडी को ले कर हुए झगड़े में पति ने पत्नी को गोली मार दी थी। सुबोधिनी इस खबर से भीतर तक दहल गयी। यहाॅ तो आए दिन की बात है, पति अपनी पत्नी को कुल्हाड़ी से काट देता है, मिट्टी का तेल डाल कर जला देता है, जमीन में गाड़ देता है, कमरे में बंद करके पीटता है ,खुलेआम पीटता है, खाना पीना कभी भी बंद किया जा सकता है......
कभी वह मन ही मन सोचती थी कि तलाक का कानून अच्छा बन गया है। कम से कम औरतें जीवनभर शारीरिक मानसिक प्रताड़ना के लिए मजबूर तो नहीं रहेंगी। लेकिन हकीकत क्या है? तलाक हो जाए तो भी चैन की सांस नहीं मिल सकती! तलाक मतलब ही जीवनभर की दुश्मनी!
इतने में मकान मालिक का सबसे छोटा नौ दस साल का लड़का सीढ़ियों से उतर कर आया और सुबोधिनी के हाथ से अखबार छीन कर ‘हमारे घर का न्यूज पेपर’ कहता हुआ चला गया। सुबोधिनी इसतरह अखबार छीने जाने से आहत हो उठी। मकान मालिक और किराएदार के भेद को वह जानती थी, इसलिए मुड़ कर अपने दरवाजे के भीतर चली गयी और अपनी दिनचर्या में लग गयी। लेकिन खबर ने उसे चैन न लेने दिया। वह कभी खबर के बारे में सोचती तो कभी विदेशों में औरतों की स्थिति के बारे में। कभी हिंदुस्तान के बारे में सोचती तो कभी अपनी स्थिति के बारे में। रह रह कर बच्चे के बारे में भी सोचती, जो भावी पीढ़ी के रूप में अखबार झपट कर अपनी चीज की पहचान करता चला गया था।
इसी सब में घबड़ाती घबड़ाती सुबोधिनी रिक्शा खोजती दफ्तर के लिए चली जा रही थी कि फिर वो दिख गया। वही, उसका भूतपूर्व पति। वह तेज चलती, पर वह जितना तेज चलती, भूतपूर्व पति भी उतना ही तेज पीछे आता।
‘‘सज धज के कहाँ चली, आशिकों से मिलने?’’ उसने फिकरे कसने शुरू किए फिर अचानक आगे बढ़ कर उसकी बाँह पकड़ ली- ‘‘क्या समझती है तू अपने को? देख तेरी कैसी गत बनाता हूँ। कोर्ट कचहरी करेगी? औलाद छीन लेगी?’’
भूतपूर्व पति का बाँह पकड़ना था कि सुबोधिनी भी आपे से बाहर हो गयी।
‘‘तेरी इतनी हिम्मत!’’ उसने चप्पल निकाला और लपकी। आदमी ने पीछे हटते हुए उसकी चोटी पकड़ कर खींची। सुबोधिनी गिरते गिरते बची। मारपीट गाली गलौज बढ़ गयी। लोग इकट्ठा होने लगे। इतने में एक सिपाही न जाने कहाँ से, किस दिशा से अवतरित हो गया और झगड़ा छुड़ा कर थाने ले चलने की बात करने लगा। इसी समय ऑटो रिक्शा से बड़े बाबू उधर से गुजरे।
‘‘अरे अपनी मैडम!’’ उन्होंने इतनी हैरानी और इतने धीरे से कहा कि उनके वाक्य के अंत में निकलने वाली ‘हाँव’ की ध्वनि नहीं सुनाई पड़ी। ऑटो उन्होंने रोक लिया और दौड़ कर भीड़ के बीच पहुँच गए। सिपाही ने ‘चलो थाने’ की गर्जना के साथ भूतपूर्व पति की बाह पकड़ कर खींचा। ‘चलो मैडम, वहीं देखेंगे।’ उसने औरत से कहा।
सुबोधिनी की हालत अस्त व्यस्त थी, चेहरा लाल था, आँखें अंगारे बरसा रही थीं। तभी बड़े बाबू ने कहा- ‘‘ऑटो में चलिए। मैं भी साथ चलता हूँ।’’
सुबोधिनी कुछ कहने की हालत में नहीं थी। बेहद शर्मिंदगी की स्थिति से जूझते हुए उसके मुँह से सिर्फ इतना निकला -‘‘लेकिन सर.....’’
‘‘दफ्तर के लिए निकला था। फोन कर दूंगा वहाँ। मैं आपके साथ थाने चलता हूँ। बैठिए ऑटो में।’’
बड़े बाबू का आना सुबोधिनी को किसी अपने के आ जाने जैसा लगा।
पल भर में उसकी अंगारे बरसाती आँखों में बरसाती नदी उमड़ आयी।
बड़े बाबू सुबोधिनी के साथ थाने पहुँचें। वहाँ सारी कार्यवाही में उन्होंने बड़े अपनेपन से सुबोधिनी का साथ दिया। अपनी सुरक्षा की माँग करते हुए सुबोधिनी को एक शिकायती पत्र लिखने की सलाह भी दी। सुबोधिनी को यह सलाह ठीक लगी। उसने शिकायती पत्र लिख कर एफआईआर दर्ज करवाया। सुबोधिनी के मन में बड़े बाबू की पुरानी छवि टूट रही थी। वे एक सहृदय सहयोगी व्यक्ति की तरह सामने खड़े थे। उसने भावुक हो कर सोचा- ‘बड़े बाबू का दिल और ही तरह का है।’
फिर दोनों साथ दफ्तर आए। बड़े बाबू ने ऐसा दिखाया जैसे वे सुबोधिनी को संभालते हुए साथ ले कर दफ्तर पहुँचें हों। सुबोधिनी को यह अच्छा नहीं लगा। यही पूरे दफ्तर के सामने उनका ऐसा दिखाना। लेकिन कृतज्ञतावश उसने इसे नजरअंदाज कर दिया।
बड़े बाबू ताड़ गए। भावुक आदमी कमजोर हो जाता है। वे विजेता भाव से मन ही मन मुस्कराए और उपर उपर से गंभीरता दिखाते रहे। लेकिन उनका चेहरा कमल के फूल की तरह खिल गया था और आँखों में एक अनोखी ज्योति दिपदिपा रही थी।
‘‘आप यहीं बैठिए!’’ उन्होंने दफ्तर में घुसते ही सुबोधिनी के लिए अपनी कुर्सी के पास कुर्सी लगवाई।
‘‘जरा भाग कर चाय ले आओ! मैडम थकी हैं।’’ उन्होंने चपरासी को तत्काल दौड़ाया।
दफ्तर में सबकी नजरें उन पर थीं। कुछ लोग उठ कर पास चले आए थे। सबको बड़े बाबू के देर से आने का कारण पहले से पता था। बड़े बाबू ने फोन पर कहा था कि ‘मैडम को उनकी मदद की दरकार है। कोई मदद माँगे तो वे न नहीं कर सकते। इतने भी पत्थर नहीं हैं। मैडम तो अपने यहाँ की ठहरीं। इसी चक्कर में थाने में फँसें पड़े हैं। अब चाहे सारा दिन ही स्वाहा क्यों न करना पड़े।’ यह कह कर बड़े बाबू ने फोन रख दिया था। फोन पर आँख नहीं मारी थी। लेकिन सूचना लेने वाले क्लर्क को ऐसा आभास हुआ था कि उन्होंने आँख मारी है। इसलिए उसने आभासी सत्य को असली सत्य की तरह अपने अगल बगल बाँटा था। बात में बिजली के करंट जैसा दम था। कई लोग जल भुन गए कि ऐसे मौके पर वे क्यों न उस राह से गुजरे। मौका गॅवा देने का गम छैला बाबू उर्फ गोपाल बाबू को भी था और शर्मा जी को भी। छैला बाबू ने तो ‘ मैं होता तो यह करता, वह करता....’ कह कर कुछ हद तक अपना गम जमाने को सुना दिया था, पर शर्मा जी दबा ले गए थे। इसलिए बड़े बाबू के साथ सुबोधिनी के दफ्तर में घुसते ही सबकी नजरें उन्हीं पर टिक गयीं। जो लोग बड़े बाबू के इर्द गिर्द पहुँच गए थे, उन्हें सीधा सीधा संबोधित कर के और बाकियों को अप्रत्यक्ष रूप से संबोधित कर के बड़े बाबू ने वाकये को संक्षेप में सुनाया। उस पूरे वाकये में मौका ए वारदात पहुँच कर हालात को काबू में कर लेने वाले हीरो वे खुद थे।
‘‘बड़े बाबू आज बहुत समय पर आ गए।’’
पहले तो सुबोधिनी ने बड़ी कृतज्ञता और अपनेपन से कहा। लेकिन बड़े बाबू जिस तरह से वर्णन करते और बीच-बीच में कहते-‘‘पूछिए इनसे’’, उससे सुबोधिनी अहसान के बोझ से दब उठती और बड़े बाबू की दया मूर्ति और पर्वताकार हो उठती। सुबोधिनी और ज्यादा बेबस।
‘‘मैंने इन पर कोई अहसान नहीं किया है। बस, कलीग होने का फर्ज निभाया है। चाय लीजिए मैडम।’’
बड़े बाबू ने अपने हाथ से चाय उन्हें पकड़ाया। उन्हें प्रेमपूर्वक निहार कर बड़े बाबू ने पुलकित भाव से कहा- ‘‘ आज की इनकी आधी छुट्टी मत लगाइए। बड़ी परेशानी में हैं मैडम। अब क्यों परेशान हैं मैडम? अरे छोड़िए, छोड़िए, परेशानी लाद कर घूमने की जरूरत नहीं। मैं हूँ न आपके साथ। कहीं कोई दिक्कत हुयी थाने में ? पूछिए इनसे? कल फिर चलिएगा मेरे साथ। बल्कि मैं तो कहता हूँ कि आप मेरे साथ ही आएं जाएं। किसी की हिम्मत नहीं होगी कि छू सके। ......अब से इनकी कुर्सी भी मेरे ही पास लगवाइए।’’
बड़े बाबू कभी दफ्तर को, तो कभी सुबोधिनी को संबोधित करते। वे अभिभावक, प्रेमी, मालिक, बॉस...... की मिलीजुली बहुत सी भावनाओं के साथ कहे जा रहे थे, जब सुबोधिनी उनके पास की कुर्सी से उठ कर अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गयी।
‘‘आज की आधे दिन की छुट्टी लगा दी है सर।’’ उसने वहीं से बड़े बाबू सहित दफ्तर को सुनाया और अपनी मेज पर इकट्ठा हुए काम को देखने लगी।
‘‘अरे, अरे, जब मैं साथ था, तब काहे की आधे दिन की....... आज का माफ। आपको डरने की कोई जरूरत नहीं है। यहाँ आइए! यहाँ बैठिए!’’
बड़े बाबू कहते रहे। वह नहीं उठी।
‘बड़े बाबू का दिल भी......’
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1 टिप्पणियाँ
बहुत से बड़े बाबू आज भी जगह जगह पर मौजूद हैं. और बहुत सी सुबोधिनी आज भी अपने बच्चों की खातिर अपनों से, समाज से लड़ रही हैं.
जवाब देंहटाएंएक मार्मिक कहानी
बधाई अल्पना मैम