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इरा टाक की कहानी 'पताका' #EraTak


पताका

— इरा टाक


साढ़े तीन सौ वर्ग गज पर बना चटक पीले रंग का "सरला सदन” गली में दूर से ही नज़र आता था, सरला सदन में बुजुर्ग तिवारी दंपत्ति- केशव और सरला रहते थे। पोर्च में सफ़ेद मारुति आल्टो खड़ी रहती थी, जिसे बरसों पुरानी पद्मनी प्रीमियर बेच कर अभी हाल में ही खरीदा गया था। पर गाड़ी चलानी दोनों में से किसी को नहीं आती थी, जब भी कहीं जाना होता फ़ोन कर के जानकार ड्राईवर को बुलाया जाता जो एक बार के दो सौ रुपये लेता था।

केशव तिवारी लम्बी चौड़ी कद काठी के आदमी थे, उनकी बायीं आँख के नीचे मोटा सा एक मस्सा था, जिसे वह अपने खानदान की निशानी मानते थे, क्योंकि उनके चारों भाइयों के बायें या दायें गाल पर ठीक ऐसे ही मस्से थे। मुंह अक्सर ज़र्दे से भरा रहता और सरला की हर बात का वो “हु हु” कर के जवाब देते । जब बोलना बहुत ज़रूरी हो जाता तब वो पास रखी छोटी प्लास्टिक की नीली बाल्टी में ज़र्दा थूकते थे । तिवारी जी को रिटायर्ड हुए चार साल हो चुके थे, वो सिंचाई विभाग में अभियंता रहे थे। अक्सर ही वो घर में आये मिस्त्री या मैकेनिक पर अपने इंजीनियर होने की धौंस जमाते, उन्हें ज्ञान देने लगते –


“सुनो भाई, मैं इंजीनियर हूँ, ये काम ऐसे होगा, ऐसे नहीं”

कई बार तो कोई गरम-दिमाग मिस्त्री तैश में आ कर बोल देता–

"बाबू जी आप सब जानते ही हो तो हमे काहे बुलाये? खुदई रिपेयर कर लेते !"

कोई नया मेहमान गलती से अगर ये पूछ लेता –“अंकल आप तो इंजीनियर रहे थे न ?”

तो उसे लम्बा लेक्चर सुना देते–

“रहे थे? रहे थे, से क्या मतलब है? मैं आज भी इंजीनियर हूँ ..वन्स इंजीनियर इस ऑलवेज इंजीनियर !”

सरला तिवारी दुबली-पतली, छोटी भूरी आँखों वाली खूबसूरत महिला थी, हर हफ्ते मेहँदी लगाने की वजह से उनके बाल नारंगी-कत्थई से हो गए थे। जीवन में कभी ब्यूटी पार्लर नहीं गयीं थी पर अब उम्र के बढ़ते असर को देखते हुए उन्होंने साथी टीचर्स के सलाह पर कभी कभार फेशिअल –मसाज करवाना शुरू किया था। वो सरकारी कॉलेज में फिजिक्स लेक्चरर थीं, रिटायरमेंट को दो साल बचे थे। घर में आगे वाली दस फुट की जगह पर सरला ने बड़ी मेहनत से कॉलेज और आस पास के घरों से मांगे और कुछ चुराए गए पौधों से बगीचा बना रखा था। अडोस-पड़ोस से उन्हें ज्यादा मतलब नहीं रहता था। उनका सारा समय कॉलेज, बगीचे और घर को सजाने संवारने में बीतता था । सुबह सुबह ही घर से सरला की बड़बड़ाने की आवाज़ आने लगती थी, आवाज़ के साथ बर्तनों की खड़खड़ाहट का तालमेल ऐसा होता था कि किसी भी हुनरमंद संगीतकार को भी पीछे छोड़ दे!

जब से तिवारी जी रिटायर हुए थे, सरला की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गयीं थी। सुबह उन्हें कॉलेज जाने की जल्दी रहती और तिवारी जी की फरमाइशें शुरू हो जाती। खाने में दो सब्जियां, रायता और कुछ मीठा तो ज़रूर हो। बीच में खाना बनाने वाली भी रखी थी पर उसका बनाया खाना तिवारी जी को पसंद नहीं आता था, इससे पहले कि वो उसे अलविदा कहते, तिवारी जी की मीनमेख से परेशान हो उसने खुद ही काम छोड़ दिया।

“पूरी ज़िन्दगी बस खाना- खाना, मैं कॉलेज जाऊं या तुम्हारे लिए छत्तीस भोग बनाऊ? अब बुढ़ापे में तो थोडा सुधर जाओ...वजन देखो अपना...आसमान छू रहा है। सुबह उठ कर थोडा घूम आया करो...थोड़ा हिलाया करो इस बैडोल शरीर को”

सुबह से दोनों में नोकझोंक शुरू हो जाती, जब तक वो कॉलेज रहतीं, युद्ध विराम रहता, वापस आते ही फिर महाभारत चालू!
तिवारी जी नीली बाल्टी उठा कर पहले मुंह का ज़र्दा उसमे खाली करते फिर बोलते –

“मास्टरनी से तो कभी शादी नहीं करनी चाहिए "

मास्टरनी शब्द सुनते ही सरला मैडम के खून में उबाल आ जाता

"मास्टरनी ....फिजिक्स की लेक्चरर हूँ, कोई प्राइमरी टीचर नहीं, क्लास टू ऑफिसर का पे स्केल है ...तुमने तो कभी अपनी नौकरी ढंग से की नहीं वरना आज चीफ इंजिनियर से रिटायर होते !”

इस बात को सुन तिवारी जी और भड़क जाते थे, चीफ इंजिनियर न बन पाना, उनकी दुखती रग थी जिसे सरला समय समय पर दबाती रहती थीं। तिवारी जी और उनकी मैडम दोनों के स्वाभाव में जमीन - आसमान जितना अंतर था, बस एक बात जो उन्हें जोड़ती थी, वो था उनका दुःख!

उनके इकलौते बेटे आकाश की दो साल पहले एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी थी। जब भी आकाश का जिक्र आता, दोनों कहासुनी भूल कर गम के सागर में उतर जाते और एक दूसरे को डूबने से बचाने की कोशिश में दो चार दिन उनकी खटपट कम हो जाती ! सारा घर वीरान हो जाता। आकाश की मौत के बाद उसकी आदमकद तस्वीर उन्होंने अपने कमरे लगवा ली थी। दोनों चुपचाप उस तस्वीर को देखते हुए आंसू बहाते रहते।

 आकाश शक्ल सूरत में अपनी माँ पर गया था। सरला अक्सर कहती थीं-
“जो लड़के माँ पर जाते हैं वो बहुत भाग्यशाली होते हैं”

आकाश भी अपने पिता की तरह इंजीनियर था। आई आई टी रुड़की से बी टेक करने के बाद, वो अच्छे पैकेज पर न्यूयॉर्क चला गया था। साल में दो बार भारत आता था, उसके आने से पहले घर में उत्सव जैसी तैयारी शुरू हो जाती थी। सरला हफ्ते भर की छुट्टी ले लेतीं, आकाश का कमरा विशेष रूप से सजाया जाता। आकाश के न्यूयॉर्क जाने पर तिवारी जी ने इसे स्टडी रूम बना लिया था पर उसके आने से दस दिन पहले ही रूम में उनकी एंट्री बंद कर दी जाती। सरला बहुत धार्मिक थीं, आकाश के आने पर सुन्दरकाण्ड या सत्यनारायण की कथा ज़रूर रखती थीं। आकाश तो घोर नास्तिक था, शुरू में विरोध करता था पर बाद में माँ की इच्छा को देखते हुए खुद ही पूछ लेता-

"मम्मी! इस बार हनु या सत्या?"

आकाश बहुत सहज, सरल लड़का था। पहाड़ी नदी में बरसाती बाढ़ की तरह अब उसके रिश्ते आ रहे थे, पर आकाश सबको मना कर देता था। उसका कहना था कि शादी पैंतीस के बाद ही करेगा ताकि पहले ज़िन्दगी के सब आनंद सके !

सरला अक्सर भुनभुनाती-
"मैं पहले ही कहती थी कि अमेरिका जाने से पहले अक्की की शादी कर दो, मगर तुमने कभी सपोर्ट नहीं किया, बत्तीस का हो जायेगा इस साल और फिर भी हर लड़की में खामी निकालता रहता है”



तिवारी जी बिना कोई जवाब दिए सुडूकू भरने में लगे रहते... अपनी बात को अनसुना होते देख सरला ज़ोर से चिल्लाती-
"सारा टाइम सुडुकू सुडुकू...घर की प्रोब्लम्स से कोई मतलब ही नहीं तुमको, कल से अखबार का सुडुकू वाला पन्ना ही फाड़ दूंगी ... लड़का बूढा हो रहा है, मुझे तो डर है कहीं कोई विदेशी लड़की न उठा लाये"

"विदेशी लड़का भी तो ला सकता है, आजकल गे मैरिज भी होने लगी हैं अमेरिका में !” कहते हुए तिवारी जी हो हो करके हँसने लगते

ये सुन कर सरला मुँह बिचका कर क्वांटम फिजिक्स की मोटी किताब इस तरह उठाती मानो अभी उनके सर पर दें मारेंगी! फिर बैठक की तरफ़ बढ़ जाती, यही पर रोज़ शाम चार से सात वो ट्यूशन बैच लेती थीं।

उन्हें तिवारी जी का सारे दिन मुंह में ज़र्दा दबाये हुए सुडुकू भरना और टीवी देखना बिलकुल नहीं सुहाता था, कई बार बोलतीं –


"कहीं कंसलटेंट इंजीनियर का जॉब कर लो या घर पर ही ऑफिस शुरू कर लो, कुछ पैसे आयेंगे तो अच्छा ही होगा न ! सारा दिन जुगाली करते हुए टीवी में ऑंखें फोड़ते हो...कितना बिल आता है बिजली का!”

"फील्ड जॉब था मेरा ...बरसों धूप में तपा हूँ...मास्टरों की तरह आराम की जॉब तो थी नहीं ...चार -पांच घंटे टाइम पास करो और महीने के महीने मोटी तन्खवाह ...अब मुझसे मेहनत नहीं होगी, मरने तक अब खूब आराम करना चाहता हूँ "


"आराम ही किया है आपने। नौकरी कब की ढंग से? आधे टाइम तो मेडिकल ले लिया, वर्ना आज चीफ इंजिनियर से रिटायर होते ..अगर मैं जॉब में नहीं होती तो आज भी किराये के मकान में सड रहे होते!”


"मेरी ईमानदारी के चर्चे थे डिपार्टमेंट में। कभी एक पैसा नहीं खाया, न खाने दिया तभी तो”

"हाँ, तभी तो उम्मेद सिंह आपको पीटने आ गया था”-सरला ने बीच में बात काट दी

"उम्मेद को बाद में अपनी गलती का अहसास हो गया था, सबके सामने पैरों पर गिर गया था और बोला था तिवारी सर आप तो ख़ुदा के भेजे फ़रिश्ते हैं”

“फ़रिश्ते ..हुह”- कहते हुए सरला बाहर गार्डन में पानी देने चली गयीं।

इस बार उन्होंने अपने साथ ही पढ़ाने वाली केमिस्ट्री लेक्चरर विभा शर्मा की लड़की रेशम को आकाश के लिए पसंद किया था। लड़की रेशम की तरह ही खूबसूरत और नाज़ुक थी, हाल ही में उसने जेआरएफ क्लियर किया था। पिता आईएएस ऑफिसर थे। भाई भाभी दोनों डॉक्टर थे। इससे बेहतर रिश्ता आकाश के लिए हो ही नहीं सकता और पहली बार तिवारी जी भी उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत थे। कॉलेज की टीचर्स उन्हें छेड़ने लगी थीं –

"बस ये रिश्ता हो जाये तो केमिस्ट्री और फिजिक्स लेक्चरर्स के बीच सदियों से चली आ रही दुश्मनी रिश्तेदारी में बदल जायेगा और टीचिंग के इतिहास में एक नया चैप्टर लिखा जायेगा"

आकाश इस बार एक महीने की छुट्टी लेकर आ रहा था, तिवारी दंपत्ति ने सोच लिया था कि चाहे जो हो जाये इस बार आकाश और रेशम की शादी करवा ही देंगें । सरला ने एक दो बार रेशम के नाम का इशारा भी कर दिया था। वैसे आकाश कॉलेज टाइम से रेशम को जानता था, वे सोशल साईट पर दोस्त भी थे, अक्सर उनकी चैटिंग भी हो जाती थी। तो सरला को पूरी उम्मीद थी कि आकाश इस बार न नहीं कर पायेगा। उन्होंने तो शादी की शौपिंग भी शुरू कर दी थी। घर में रंग रोंगन करवाया गया । नए परदे सिलवाए गए, पुराने फर्नीचर को नया करवाया गया . तैयारियां जैसे युद्ध स्तर पर थीं । तिवारी जी कंजूस आदमी थे उन्हें ये सब फालतू लगता था पर सरला उनकी एक नहीं चलने दे रही थीं , वो अपने घर को दुल्हन की तरह सजाना चाहतीं थीं ।

आकाश को आने में पंद्रह दिन रह गए थे। एक दिन आकाश ने स्काइप पर कॉल आ रहा था । तिवारी जी ने सरला को आवाज़ दी । दोनों पति पत्नी बड़े प्यार से लैपटॉप सामने रख कर सोफे पर पसर गए । उनकी जब भी स्काइप पर बात होती थी लम्बी होती थी । सरला तो लैपटॉप उठा कर कभी रसोई में ले जातीं कभी नए परदे दिखाती । स्क्रीन पर उसके साथ एक गोरी चिट्टी फिरंगी लड़की को देख दोनों चौंक गए । आकाश ने झिझकते हुए परिचय करवाया-

"पापा - मम्मी ये आपकी बहु है एलिना! मेरे साथ ही काम करती है, पहले सोचा आपको इंडिया आकर ही सरप्राइज देंगे ...फिर मुझे लगा पहले बता देना ठीक रहेगा !"

एलिना गुलाबी रंग का सलवार कुरता पहने थी, उसने सिर झुका कर “नमस्ते” बोला।

सरला अवाक् रह गयीं, आकाश इतना बड़ा हो गया कि उसने बिना बताये शादी भी कर ली और वो भी एक विदेशी से ! वो आपा खो बैठी और गुस्से में रोने चिल्लाने लगीं।

तिवारी जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया था-
"तुमने एक बार भी हमसे पूछने की ज़रूरत नहीं समझी...ऐसी मतलबी औलाद से तो हम बेऔलाद ही ठीक होते!"



"पापा प्लीज...! आप तो समझने की कोशिश करें, मैं एलिना से बहुत प्यार करता हूँ और मुझे पता था कि आप और मम्मी मेरी शादी उससे होने नहीं देंगे,बहुत प्यारी लड़की है,इस बार मैं उसे लेकर आ रहा हूँ तब आप..."
सरला उसकी बात काटते हुए बोली-
"कोई ज़रूरत नहीं यहाँ आने की...तुम वही रहो इस अमेरिकन के साथ...हमारी चिता को आग भी पड़ोसी ही दे देंगे!"

और लैपटॉप का फ्लैप गिरा दिया।
दोनों पति पत्नी सर पकड़ कर बैठ गए। उनके सारे सपने ताश की ईमारत की तरह ढह गए। कई दिन इसी गुस्से और दुःख में बीत गए। उसके पैदा होने से आज तक उन्होंने लाखों उम्मीदें उससे जोड़ी थीं, वो उसके लिए जीते थे। आकाश के इस कदम से उनका दिल टूट गया। इतना सीधा साधा और आज्ञाकारी दिखने वाला उनका लड़का बिना बताये, शादी जैसे महत्वपूर्ण फैसला ले लेगा ये वो सपने में भी नहीं सोच सकते थे।

इस बीच विभा कई बार आकाश के बारे में पूछ चुकी थीं। सरला की उन्हें सच बताने की हिम्मत नहीं हो रही थीं। आकाश के आने की तारीख भी बीत गयी। वो नहीं आया और न ही उसने कोई फ़ोन किया। किसी ज़रूरी कारण से छुट्टियाँ कैंसिल हो गयी, ऐसा कह कर वे लोग सबको टालते रहे !

माँ बाप का दिल कब तक पत्थर बना रहता? आखिर उन्होंने ही आकाश को फ़ोन मिलाया पर उसका फ़ोन स्विच ऑफ आ रहा था। दो तीन दिन तक जब यही हुआ, तब उन्होंने उसके ऑफिस और इंडियन एम्बेसी में पूछताछ की।

“आकाश इस नो मोर” - उधर से सूचना मिली

इन चार शब्दों ने उन्हें गहरी खाई में धकेल दिया। आकाश की दस दिनों पहले ही एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी और उसकी पत्नी एलिना ने उसका अंतिम संस्कार भी कर दिया था। वो दोनों बिखर गए, आखिरी बार अपने बच्चे को देख भी न सके। ज़िन्दगी उनके साथ इतनी क्रूर हो जाएगी इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी । जैसे बसे बसाये सुन्दर शहर पर किसी ने बुलडोज़र चला दिया हो। दोनों हर समय खुद को कोसते रहते-
“कितने कड़वे शब्द बोले हमने आकाश को! कितना दर्द अपने अंदर लेकर गया होगा आकाश ! वो शादी कर ले यही तो चाहते थे न...फिर क्यों इतनी नफरत से भर गए उसके एलिना से शादी करने पर? जिंदगी तो उन दोनों को ही साथ बितानी थी! पर भगवान् जानता है हम बस उससे नाराज थे उसे कभी मर जाने की बद्दुआ नहीं दी थी”

सैकड़ो बातें उनके दिलो दिमाग में तूफ़ानी लहरों की तरह टकराती ! इतनी बैचनी होती कि सांस लेना दूभर हो जाता। वे एलिना से मिलना चाहते थे। उन्होंने उससे बात करने को फ़ोन किया, तो एलिना ने बोला –

“बोथ ऑफ़ यू आर कलप्रिट्स...यू हैव किल्ड माय हस्बैंड...आई हेट यू ...डोंट कॉल मी एवर”

वक़्त बीतने लगा पर कुछ ज़ख़्म कभी नहीं भरते, वे रिसते रहते हैं और ज़्यादा बीमार कर देते हैं। बाहर का गार्डन सूखने लगा था । सरला का वक़्त तो किसी तरह कॉलेज और स्टूडेंट्स के बीच गुज़र जाता। पर तिवारी जी डिप्रेशन में चले गए, पूरा दिन बिस्तर पर लेटे रहते। कभी कभार थोड़ी नींद आती तो कभी आकाश की कब्र नज़र आती, कभी आकाश रोता हुआ नज़र आता। वो नींद में हँसने रोने लगते। उन्हें मनोचिकित्सक को दिखाना पड़ा, मुट्ठी भर भर दवाइयां लेते पर मन से अपराध बोध न जाता। वो इस तरह छटपटाते जैसे उनको काल कोठरी में बंद कर दिया गया हो, वो रौशनी देखना चाहते थे।

दो साल बड़ी तकलीफ में गुज़रे, धीरे धीरे “तिवारी होम वॉर” फिर शुरू हो गयी, फिर से सुडुकू वाला पन्ना गायब हो जाता या टीवी का रिमोट अंडरग्राउंड कर दिया जाता, ज़र्दे की पुड़िया छुपा दी जातीं। सुबह सुबह उठा-पटक राग चालू हो जाता। मन ही मन दोनों को ये आकाश के दुःख से भागने का सबसे कारगर उपाय लगता था !

कुछ दिनों पहले तिवारी जी ने एक अजीब आदत ड़ाल ली थी। नहाने के बाद वो अपने चड्डी बनियान पानी में निचोड़ कर घर के मेन गेट पर सुखाने को टांग देते। जब सरला कॉलेज से लौटती तो लोहे के बड़े से गेट के भालों पर नीले पट्टे वाली चड्डी और मटमैली सफ़ेद बनियान देख उनका मूड खराब हो जाता। वे चिढ़चिड़ाते हुए उन कपड़ों को उतारती और बैडरूम में तिवारी जी के सामने गुस्से में पटक देतीं-

"कितनी बार कहा है कि अपने चड्डी बनियान गेट पर झंडे की तरह मत टाँगा करो...घर में दो-दो तार लगे हैं कपड़े सुखाने को !"

"अरे यार, उधर तुम्हारे पौधों ने सारी धूप रोक रखी है, धूप में सुखाने पर कीटाणू मरते हैं"

"हाँ हाँ... सारे कीटाणू तुम्हारे कपड़ों में ही हैं... इतनी धूप चाहिए तो छत पर सुखाओ और सौ बार कहा है कि वाशिंग मशीन में डाल दिया करो। पानी से धोने से मैल नहीं निकलता, रंग ही बदल गया है कपड़ों का"

पर तिवारी जी ठहरे मस्तमौला, हमेशा अपने मन की करते थे। तो जब भी मैडम कॉलेज से लौटती, पट्टे वाली चड्डी और बनियान गेट के भालों पर ही टंगी हुई उन्हें मुंह चिढ़ाती हुई दिखती।

"पता नहीं तुम्हें कौन सी भाषा में समझाऊँ? पड़ोसी, ट्यूशन वाली लड़कियाँ सब हँसते हैं। अगर मैं अपने अंडर गारमेंट्स भी गेट पर टाँगने लगूँ तो कैसा लगेगा तुम्हें?"

"अरे बेगम ! इससे पता लगता है कि घर में एक मर्द रहता है । गली में कोई तुम्हें छेड़ने की हिम्मत नहीं करेगा"

“अब बुढ़ापे में कौन छेड़ेगा मुझे?”-बडबडाती हुई सरला कपड़े समेटने लगतीं ।

एक दिन तिवारी जी नहाने के बाद अपने चड्डी बनियान सुखाने गेट की तरफ गुनगुनाते हुए बढ़ रहे थे। तभी अचानक उनका पैर फिसला और वो धम्म से ज़मीन पर गिर गए। घर पर कोई नहीं था, उनकी दर्द से चिल्लाने की आवाज़ सुन कर सामने रहने वाले आहूजा साहब ने आकर किसी तरह उन्हें उठाया और उनकी ही आल्टो में डाल अस्पताल ले गए। तिवारी जी की कमर की हड्डी टूट गयी थी। किस्मत जैसे पूरी तरह से दुश्मनी पर उतर आई थी, तिवारी जी की हड्डी क्या टूटी, जैसे घर की रीढ़ चरमरा गयी ! अचानक सब बिखर गया हो मानो !

कई दिनों तक रिश्तेदारों और दोस्तों का आना- जाना लगा रहा। तिवारी जी का मझला भाई रामफल तिवारी तो अपने बड़े लड़के विक्रम के साथ रोज़ आने लगा। विक्रम बिल्डर था और वह काफी समय से मकान पर नज़र गडाए बैठा था। वो पहले भी कई बार इस जगह को बेच मल्टीस्टोरी बनाने की बात तिवारी जी को कह चुका था। एक दिन फिर हिम्मत कर बात छेड़ दी -

 "ताऊ जी, आकाश तो अब रहा नहीं और ताई जी भी अगले साल रिटायर हो जायेंगीं, इतने बड़े घर की क्या ज़रूरत है ?
यहाँ आराम से आठ ,टूबीएच् के फ्लैट्स निकल आएंगे..."

"विक्रम सही बोल रहा है केशु भाई साहेब, मौके की जगह है । ग्राउंड फ्लोर पर आप और भाभी जी रहना, बाकी फ्लैट हाथों-हाथ बिक जायेंगे"

"इनकी ऐसी हालत है और आपको यहाँ बिल्डिंग बनाने की पड़ी है..." सरला रसोई से चिल्ला कर बोलीं

"भाभी जी आप बेकार में नाराज हो रही हैं, विक्रम और बहु यही आपके पास रह कर आपकी सेवा कर लेंगे, अब आकाश तो रहा नहीं ..."

"रामू हमें पता है कि आकाश नहीं रहा। पर हम अभी इतने लाचार नहीं हुए हैं, ये घर बेचने या मल्टीस्टोरी बनाने का फिलहाल हमारा कोई मन नहीं है। बड़े प्रेम से मैंने और सरला ने ये घर जोड़ा है…आगे से इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता"-केशव तिवारी कठोरता से बोले ।

रामफल और विक्रम का चेहरा लटक गया। थोड़ी देर में वो खिसियाए हुए से निकल गए।

बेटे के न रहने का गम, रिश्तेदारों की लालची ऑंखें और तिवारी जी की ऐसी हालत...सरला की हिम्मत टूटने लगी थी। उन्होंने कॉलेज से लंबी छुट्टी ले ली। अब वे दिन दिन भर तिवारी के साथ बैठी रहती। तिवारी जी की फरमाइशों में सेंसेक्स की तरह भारी गिरावट दर्ज की गयी थी। वे बहुत ज़्यादा नरम स्वभाव के हो गए थे। अब जो खिलाओ खा लेते। सरला कोशिश में रहती उनकी पसंद का खाना बनाये वो उनके चेहरे पर हंसी देखना चाहती थी । दोपहर में सरला उनके पास बैठ कर स्वेटर बुनती रहती। रोज़ शाम को वे उनकी पसंद के नावेल का एक चैप्टर पढ़ के उन्हें सुनाती। तिवारी जी कई बार लेटे हुए सरला के बालों में तेल लगा देते। कभी बोलते-

“लाओ मुझे सब्जी दे दो मैं बैठे-बैठे काट देता हूँ ..वैसे भी सारे दिन बिस्तर पर पड़ा रहता हूँ”

तिवारी जी को बिस्तर पर दो महीने हो गए थे, पर अभी तक हड्डी जुड़ नहीं पायी थी। बिस्तर पर ही खिलाना, स्पंज बाथ करवाना, रात को डायपर पहनाना, सारे काम सरला ने अपने जिम्मे ले रखे थे।
हल्की सर्दियाँ शुरू हो गयी थी तो एक दिन सरला काम वाली बाई की मदद से तिवारी जी को व्हील चेयर में बिठा कर बाहर धूप में ले आई ...तिवारी जी खुली हवा और धूप में अच्छा महसूस कर रहे थे। जब उनकी नज़र तार पर सूख रहे अपने चड्डी बनियान पर पड़ी तो चुटकी लेते हुए बोले-

"अच्छा ...सरला तुमने मेरा ध्वज उतार दिया, एक बार मैं ठीक हो जाऊँ फिर वहीँ फहराउंगा !"-कहते हुए वो ज़ोर से हँस दिए

"मुझे इंतज़ार है...कि कब तुम ठीक हो कर अपनी हरकतों से मुझे इरीटेट करोगे, ज़िन्दगी ठहर सी गयी है केशव!"- सरला की आँखों में नमी उतर आई

अगले दिन सरला बाज़ार गयीं हुई थी, ड्राईवर नहीं आया था तो सरला को ऑटो से ही जाना पड़ा। तिवारी जी लेटे लेते रिमोट से टीवी के चैनल बदल रहे थे। तिवारी जी जब ठीक थे तो बाहर के काम वही निपटा लेते थे। बाज़ार से आते वक़्त सरला लल्लन हलवाई से केशव की पसंदीदा इमरती और समोसे भी लाई थीं। बाज़ार से आते ही सरला ने कॉफ़ी बनाई, दो प्लेट्स में समोसे और इमारती सजा, मुस्कराती हुई तिवारी जी के पास पहुँचीं। उस दिन तिवारी जी सुबह से ही बैचैन थे, तिवारी जी ने कॉफ़ी मग एक तरफ रख उनका हाथ थाम लिया –

"सरला ...तुम गाड़ी चलाना सीख लो, मैं तो शायद अब कभी नहीं सीख नहीं पाउँगा”

“ऐसा क्यों कह रहे हो? ये देखो आज इमरती गरम हैं!”

“सरला तुम मेरी माँ बन गयी हो और मैं तुम्हे कभी कोई सुख नहीं दे सका।"

"ये कैसी बातें कर रहे हो? लो समोसे खाओ"

"ये घर कभी मत बेचना... चाहे कोई कितना भी प्रेशर डाले, मुझे पता है कि तुम न होती तो ये घर भी न होता "-तिवारी जी जैसे उसकी बात सुन ही नहीं रहे थे, वो अपनी धुन में बोले जा रहे थे।

"हम नहीं होते तो ये घर नहीं होता ...केशव ! तुम्ही अब मेरे “आकाश” हो...जल्दी ठीक हो जाओ फिर हम कहीं घूमने चलेंगे, मेरा कॉलेज जाने का मन नहीं होता,पैतीस साल नौकरी कर ली..बहुत हो गया"

दोनों एक दूसरे को देखते हुए देर तक खामोश बैठे रहे। कितना कुछ वो कहना चाहते थे पर दर्द का लावा बह न निकले इस डर से उसे किसी तरह चुप्पी से रोके हुए थे। दर्द उबल रहा था और कॉफ़ी में ठंडी हो गई थी !

“मैं कॉफ़ी गरम कर के लाती हूँ”- कहते हुए वो कप लिए रसोई की तरफ बढ़ गयीं।

अपने अपने आंसू पोछने को दोनों को वक़्त मिल गया था।

रात में तिवारी जी ने खाना नहीं खाया। उनका कहना था कि जी भर के समोसे और इमरती खा लिए। अब कुछ खाने की इच्छा नहीं कर रही। सरला ने थोड़ी सी खिचड़ी खाई और स्वेटर ले कर वहीँ बैठ गयीं।

“कल ये पूरा हो जायेगा”-तिवारी जी के सीने पर अधबुना स्वेटर लगते हुए बोलीं

“सरला मुझे भी स्वेटर बुनना सिखा दो , मैं भी मरने से पहले एक स्वेटर तुम्हारे लिए बुनना चाहता हूँ “- तिवारी जी सरला के हाथ थामते हुए बोले

सरला मुस्करा दी। आकाश की आदमकद तस्वीर भी दीवार पर मुस्करा रही थी।

***

अगली सुबह सरला की नींद जल्दी खुल गयी। वो नहा कर बगीचे में बैठ स्वेटर बुनने लगीं। एक घंटे में स्वेटर पूरा हो गया। सूरज की सुनहरी रौशनी में स्वेटर का सुरमई रंग चमक उठा । वो बहुत खुश थी, जब चाय के साथ स्वेटर ले वो तिवारी जी को जगाने पहुँचीं, कंधे पर टंगा स्वेटर उन्होंने तिवारी जी के सीने पर रख दिया। दो तीन बार आवाज़ देने के बाद भी वे उठे नहीं। तिवारी जी चिर निद्रा में सो चुके थे। सरला स्तब्ध रह गयीं। चाय का कप हाथों में लिए हुए वो तिवारी जी को पुकारती रहीं। फिर वो बेसुध हो उसी कप से चाय पीने लगीं। आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे।

फिर अचानक जैसे सरला को कुछ याद आया, वो उठी और बाथरूम में जा कर तिवारी जी के चड्डी- बनियान साबुन लगा कर रगड़ रगड़ का धोने लगीं। तिवारी जी की हड्डी टूटने के बाद से जो भी दर्द और आंसू उन्होंने रोक रखे थे, वो आज बेलगाम बह निकले, नल पूरा खुला हुआ था, पानी बाल्टी से लगातार बाहर बहता जा रहा था। उसके शोर में सरला के रोने की आवाज़ दब गयी।

सरला सदन में आज भारी सन्नाटा पसरा हुआ है और मेन गेट के भालों पर तिवारी जी के चड्डी बनियान पताका की तरह लहरा रहे हैं !

इरा टाक 



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