धर्महीन
— सोनिया बहुखंडी गौड़
स्त्री का अपना कोई धर्म नही होतासभी स्त्रियों की नही होती सुन्नत
सिंक में बर्तन मांजते वक़्त
बहते पानी को समझती हैं वें आज़ाद घोड़े की पूंछ
स्त्रियों के पर्व कहाँ होते हैं, रसोई होती है
स्त्रियाँ पका सकती हैं सभी धर्मों के भोग!
वें नींद में जागते हुए करती हैं प्रेम
बिस्तर में सभी स्त्रियों के भगवान एक हैं
स्त्रियों का प्रश्न करना दुनिया का लाज़मी ख्याल है
पुरुषों का सटीक उत्तर ना दे पाना दुःखद घटना
स्त्रियां सेब की तरह नीचे गिरती हैं
पुरुष न्यूटन की तरह उन पर लपकते हैं
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सोनिया बहुखंडी की और कविताओं को पढ़ने से पहले, आप से कुछ पूछना है, और यही कारण है, जो मेरी कविताओं पर की जाने वाली टिप्पणी शुरू में न लिखी हो कर यहाँ पहली कविता के बाद है.
— कैसी लगी आपको यह 'धर्महीन' कविता ?
आपसे कहना चाहुंगा, "मेरे इस सवाल का जवाब देने से पहले, दोबारा, एक बार और, इस दफ़ा ठहर-ठहर कर, 'धर्महीन' पढ़ लीजिये" और 'स्त्रियाँ पका सकती हैं सभी धर्मों के भोग' और 'बिस्तर में सभी स्त्रियों के भगवान एक हैं' पंक्तियों में छुपे आख्यान को समझने की कोशिश कीजिये, और तब आगे इन कविताओं को पढ़िए; और अगर वह आख्यान आपकी समझ में नहीं आता है तो ऐसे में आगे आने वाली, उनकी कविताओं को, पढ़ने की, कम से कम, आपके लिए कोई वजह नहीं है.
सोनिया ! तुम्हे धन्यवाद ऐसी कविताओं को लिखने के लिए, धन्यवाद उन कारकों को जिन्होंने तुम्हे और तुम्हारी सोच को औरतों के लिए लिखवाया : 'स्वतंत्रता असहनीय है' और 'मैंने खुद को स्वाद से ज्यादा कुछ नही समझा!' और 'मैं जीवन चुराने के लिए हाथ बढ़ाऊंगी/ मेरे हाथ लग जाओगे तुम' और 'स्त्रियों के पर्व कहाँ होते हैं, रसोई होती है'...तुम्हारी सोच की 'इन' का इंतज़ार हिंदी कविता को था, और आगे लिखे जाने वाले 'और' का इंतज़ार हिंदी कविता को है.
ढेरों बधाई और शुभकामनाएं
भरत तिवारी
बँटी औरतों के बीच आज़ाद औरतें
कुछ औरतें छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो गई हैं
जिनमे राज करते हैं कुछ निरंकुश
कुछ के भीतर से बंटे हुए देश एक विश्व होने की कल्पना में प्रलाप करते हैं।
कुछ औरतें नदी हैं, जो स्वतंत्र होकर बहती हैं
स्वतंत्रता असहनीय है,
बांट दी जाती हैं नदियां छितरे राज्यों में
विवाद छिड़ जाता है... नदी के शरीर को लेकर
जो जीवन देता हैं इन निरंकुश शासकों को।
कुछ औरतें मछलियां हैं जो आज़ादी से तैर रही हैं नदियों में
मछुवारे तैनात किए जाते हैं, जाल फेंका जाता है
और दफना दिया जाता है उनकी आजादी को खंडित आंगन में!
कुछ औरतें बारिश हैं, कुछ हवा तो कुछ मिट्टी
हवा बहती है, बारिश की फुहारें आती है सूखी मिट्टी का कलेजा भिगाती हैं, आंगन में उगता है एक हरसिंगार का पेड़, फूल झरते हैं।
कुछ औरतें खुशबू बन जाती हैं, जो हवा में घुल जाती हैं।
बंटे हुए राज्य, नदियां दफनाई गई मछलियां मुस्कराती हैं।
निरंकुशता दफ़न होने को है!
औरतें देश बनने को हैं.. विश्व तैयार होने को है।
सोनिया बहुखंडी गौड़ |
अस्तित्व
मैंने देखा तुम्हारी आँखों में
जो सागर की गहराई का अंतिम छोर हैं
मैने पाया मैं एक नदी हूँ!
तुम मेरे होंठो के गुलाब ताकते रहे
शहद की मिठास का रहस्य छुपा था पंखुड़ियों में
मैंने खुद को स्वाद से ज्यादा कुछ नही समझा!
तुम मेरी पृथ्वी सी देह में विश्राम के लिए ठहरे
सूर्य समझ कर मैंने तुम्हारे चक्कर काटे
तुम्हारी देह के चक्कर काटना मेरी अंतिम गति है!
बिच्छू
नदी की देह में झुरझुरी होतीउसके आँचल में सरकता है जब बिच्छू!
एक बड़ी लहर फेंकती है बिच्छू को किनारे
भुरभुरी रेत का झुरझुराना बिच्छू का डंक चुभना है
ये बिच्छू प्रेम हैं...
झुरझुरी तुम्हारा ख्याल
मेरे आँचल में प्रेम का सरकना
मेरी सम्पूर्ण सत्ता में सनसनी होना है
रात सरसरा रही है चुभा है मानो उसे डंक!
सन्नाटा खामोशी से दर्द को लील रहा है।
तलाश
तुम्हारी हथेलियों की नीली नसें और
उन जंगली नीले फूलों का रंग एक सा है
फूलों को चूमना, मानो तुम्हारे हाथों को चूमना।
केले के पत्तों पर सरकती ओस को संभालना
और संभालना एक बटन रोज को
जिसका रंग तुम्हारे होंठों जैसा है।
बारिश हवा के साथ नाच रही थी
जब तुम एक छोटी सी बच्ची के साथ खिलखिला रहे थे
मैंने छुपाये पानी के बीज बंद मुट्ठी में जो हँसी उगा सकते हैं!
एक नदी की रहस्यमयी लहर में छुपा होता है जीवन,
मैं जीवन चुराने के लिए हाथ बढ़ाऊंगी
मेरे हाथ लग जाओगे तुम।
फिर एक दिन तुमको तलाशने में गुजर जायेगा।
तुम एक हरा-भरा जंगल हो!
वजह तुमसे इश्क़ की
तुम्हारे पास एक रंग पड़ा थातन्हाई का, कुछ पत्ते पतझड़ के काँपते हुए !
मेरे पास पड़े थे गूंगी गौरैया के बेबसी के रंग
और कुछ बेतरतीब से ख्याल।
हम दोनों के पास पड़े रंगों का आपसी चुम्बन
बेबसी का आकाश की अंतहीन गुफाओं में गुमना।
रंगों का एक साथ धड़कना...
एक यही वजह थी तुम्हारे प्यार में पड़ने की
मैं जीवित भी रहना चाहती थी!
औरतें जीवन तैयार करती हैं
औरतें सूरज बोती हैं
मेरी दादी को अक्सर ऐसा करते देखा था मैंने
वे आँखें खोलती सूरज अंकुरित होता पहाड़ों में!
और कुछ ही देर में विशाल रूप धर लेता!
औरतें मौसम तैयार करती हैं, मेरी माँ को करते देखा मैंने।
उनकी खिलखिलाहट से बारिश पैदा होती है
वे मासूमियत से पहाड़ो में बर्फ की कूंची चला देती हैं
हृदय की धड़कनों से पहाड़ों में सर्दी की सांसे फैला देती हैं।
ये औरतें जीवन तैयार करती हैं भविष्य के लिए
उनके स्वप्न लहलहाती फसल की तरह है
उनके भीतर से ख्वाब हकीकत बनकर निकलते हैं।
यह मेरी खुद की सत्यकथा है!
मैने देखा है औरतों को सूरज काटते हुए
जब भी वे सांझ को प्रेम का चंद्रमा उदीप्त करती हैं
वे नींद में प्रेम करती हैं
उन्हें जागना है सुबह सूरज बोना है और चंद पलों में उसे जवान करना है
मैंने देखा है सभी औरतों को ऐसा करते हुए!
पहाड़ी औरतें
ख्यालों में नही होती एक हकीकत होती हैं ये पहाड़ी औरते
जो जाग जाती हैं शुक्र तारे के डूबने से पहले
उनके पुरुष पहाड़ हैं...
और वे खुद नदी, जो पहाड़ों के बीच से होकर निकलती हैं
वे घूँघट नही काढ़ती, वे अपने नदी से लहराते बालों को बांध लेतीं हैं साफे से
वे बो देती हैं ना जाने कितने ख्याल जमीन पर
जो हर मौसम में फसल बन जाते हैं!
अपने दुधमुये बच्चों को टूट के प्यार नहीं कर पाती
क्योंकि उनको खेत जाना है धरती को तैयार करना है प्रस्फुटन के लिए।
घास काटनी है ना जाने कितने गट्ठर, प्रतिस्पर्धा में कुछ ज्यादा ही काट लाती हैं घास।
उनकी हथेलियां नही होती मुलायम शहरी मेमों की तरह।
पहाड़ों को पसंद हैं उनकी खुदरी हथेलियां।
शाम को घर आते ही समेटनी हैं उन्हें कई बिखरी व्यवस्थाएं
सलीके से लगाना बखूबी जानती हैं ये,
नदियाँ अपना मालिकाना हक कभी नही मांगती!
बिना थके वे जुट जाती रात को पकाने में
नदियों की लहरें सोते हुए भी, पहाड़ो को गुदगुदाती हैं
दुधमुएँ बच्चे माँ से लिपट के सो जाते हैं, बच्चों की कोमल त्वचा में चिपका रह जाता है दिन भर का नमक, जो माँ के जाने के बाद उग आया था उनके गालों के पास
नदी की त्वचा कांटो जैसे चुभती है
पहाड़ उनको सहलाते हुए सो जाते हैं!
औरतें अजीब होती हैं
चलो भूल जाते हैं उस शख्स कोऔरतें भूलने का नाटक बखूबी करती हैं
पहाड़ों पर पसरे मौन से तर्क करने से बेहतर
आसमान में उड़ते बादलों के गुबारों से संवाद करते हैं
उनके ओझल होने से पहले।
ज़ेहन में फैली ख्यालों की नर्मियत को
पोत देते हैं बंजर मिट्टी के रंग से..
बांझ पैदा नही करती जीवन की बालियां।
दलील देने से बेहतर
रोक देते हैं नदियों के रुदन को
कितनी ही लहूलुहान हो जाये वे चट्टानों से टकराकर।
चलो भूल जाते हैं......
मुस्कराती नदी के होंठ सिल कर
औरतें चुप भी जल्दी हो जाती हैं।
सोनिया बहुखंडी गौड़
जन्म : 21 अप्रैल, 1982
परास्नातक जनसंपर्क एवं पत्रकारिता, परास्नातक (प्राचीन इतिहास)
स्वतंत्र लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित
संपर्क: 160/4, जे0के0 कॉलोनी, जाजमऊ, कानपुर- २08010
ईमेल : Soniyabgaur@gmail.com
1 टिप्पणियाँ
आपकी रचना बहुत ही सराहनीय है ,शुभकामनायें ,आभार
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