वो एक लम्हा — #सुनोकहानी — रश्मि नाम्बियार



रश्मि नाम्बियार भारत में हिंदी ऑडियो बुक की उभरती दुनिया की पहली कहानीकारों में हैं। अपने 11 साल के कॉर्पोरेट कैरियर के बाद उन्होंने 4 साल पहले रेडियो के लिए लिखना शुरू किया। सरल भाषा में, वो अपनी कहानियों में रिश्तों की बारीकियों को बुनकर, भावनाओं के नए आकर गढ़ती हैं। 

यह अभी पहली पहल है कि उनकी कहानी शब्द और आवाज़ दोनों में साहित्य के पब्लिक प्लेटफ़ॉर्म शब्दांकन पर आप सब के लिए पेश की जा रही है। 

सुनोकहानी, रश्मि नाम्बियार की आवाज़ में, या पढ़ें, या दोनों का आनंद उठायें। बताइयेगा ज़रूर यह अनुभव कैसा रहा कि शब्दांकन की यह कोशिश कैसी गयी...  

भरत तिवारी



वो एक लम्हा — #सुनोकहानी ( क्लिक तो कीजिये ) — रश्मि नाम्बियार


वो एक लम्हा

 — रश्मि नाम्बियार 

मकान में सर तो छुपा सकते है, पर रूह को आराम सिर्फ घर में ही मिलता है। मुझे लगता है, मकान को घर बनाती है हमारी यादें, आदतें और उसमे रहनेवाले लोग। मुझे सरकार की तरफ से 5 बेडरूम वाला बड़ा सा बंगला मिला तो था, देख रेख और बाकी काम के लिए लोग भी थे। दरबान से लेकर खानसामा तक, उस मकान को घर बनाने की कोशिश करते रहते लेकिन जो आराम इस छोटे से शहर के इस घर में था, वो कहीं और नहीं मिलता था।

माँ की हथेलियों पर शायद संजीवनी बूटी उगती थी, वो सामने बैठकर खिलाती तो मरी हुई भूख भी अचानक जिंदा हो जाती।

“माँ, दाल में इतना घी मत डाला करो, तोंद निकल आई तो नौकरी से निकाल देगी सरकार” मैं माँ की चुटकी लेता तो वो झुंझला कर कहती “ऐसे कैसे निकाल देंगे नौकरी से...सिविल सर्विसेज पास किया है मेरे बेटे ने...आईपीएस है वो” फिर उसकी आँखें डबडबा जाती “साल भर बाद घर आया है तू, पहले ट्रेनिंग फिर पोस्टिंग और फिर तुम्हारा काम, कितना कमज़ोर लग रहा है”

माँ कहाँ जानती थी, इस कामयाबी के पीछे के दर्द को...कहाँ जानती थी कि कितनी अधूरी थी मेरी कामयाबी।

माँ ने रोटी के एक निवाले के साथ अपने प्यार का एक बड़ा सा हिस्सा मेरे मुंह में ठूंस दिया। वैसे, दोपहर को सोने की आदत नहीं थी फिर भी नींद आ रही थी, नींद भगाने के लिए मैंने सोचा कि कोई किताब ही पढ़ लूं, सालों हो गए थे कोई पेपरबैक पढ़े हुए। याद आया, दिल्ली से बरसाती खाली करते वक़्त मैंने सारी किताबें एक बोरे में भर दी थी। यहाँ, शायद बेसमेंट में रखा होगा वो बोरा, सोचकर मैं बेसमेंट की तरफ चल पड़ा। बेसमेंट में धूल की एक मोटी परत पड़ी थी।

वेंटीलेटर से छन कर आती रौशनी में वो किताबों से भरा बोरा मुझे कोने में दिखाई दिया। मैं उसकी सिलाई खोलकर किताबें निकालने लगा तो मन ने कोसा, “उफ़, कितनी किताबें इकट्ठी कर लेता था मैं बुक फेयर के दौरान”। एक एक कर किताबों को दिन की रौशनी दिखा रहा था कि अचानक, मेरे हाथ में लीओन उरिस की किताब एक्सोडस आ गयी। मेरे कांपते हाथों ने उसे खोला तो, एक झटके से ढेर सारी यादों की तितलियाँ उस किताब से निकलकर मेरे चारों तरफ मंडराने लगी। हर तितली के परों पर अदृश्य अक्षरों में लिखा था...मानसी...मानसी...मानसी !

मानसी से मैं पहली बार पुरुषोत्तम एक्सप्रेस में मिला था। वो पुरुलिया से चढ़ी थी। छोटी कद काठी, बड़ी बड़ी आँखें और बाल खींच कर जुड़े में बांधे हुए थे। ट्रेन ने पुरुलिया स्टेशन छोड़ा तो उसकी आँखों में मोटे मोटे आंसू आ गए। मैं कनखियों से उसे देख रहा था। पुरुलिया छूट गया था लेकिन वो अब भी खिड़की के बाहर देख रही थी मानो वो पुरुलिया से छूट नहीं पा रही थी। टीसी ने उस से आकर टिकेट माँगा तो मुझे पता चला वो भी दिल्ली जा रही थी।

आज याद नहीं आ रहा लेकिन बात कुछ मैंने ही शुरू की थी। वो ज्यादा बोल नहीं रही थी लेकिन ये जानकारी निकालने में मुझे भी वक़्त नहीं लगा कि उसने ग्रेजुएशन पटना से किया था और अब उसे लैंग्वेज कोर्स के लिए दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिला मिला था। वो लीओन उरिस की किताब एक्सोडस पढ़ रही थी, मैंने भी पढ़ी थी वो किताब, लेकिन बातचीत का सिलसिला बरक़रार रखने के लिए मैंने उससे किताब मांगी और उसे उलट पुलट कर देखने लगा। पहले ही पन्ने पर, दायें भाग में उसने लाल स्याही से अपना नाम लिखा रखा था। मैंने उसे छेड़ने के लहजे में कहा “ह्म्म्म नाम लिखकर किताब पर कब्ज़ा?” वो हंस पड़ी “नहीं नहीं...ये पुरानी आदत है, नाम लिखने से लगता है मैं भी उस किताब, उस कहानी की पार्ट हो गयी हूँ” फिर अचानक वो गंभीर हो गयी जैसे कुछ याद आ गया हो।

मैं भी तो 6 साल पहले ग्रेजुएशन करने टाटानगर से दिल्ली आया था, मैं जानता था, पहली बार घर छोड़ का किसी महानगर के लिए निकलना कैसा लगता है।

“आप क्या करते हैं दिल्ली में?” शायद ये उसका औपचारिक सवाल था लेकिन उसकी जिज्ञासा मुझे अच्छी लगी थी” मैंने बस इसी साल दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम्एससी किया है और अब सिविल सर्विसेज की तैयारी करने जा रहा हूँ” वो मुस्कुरायी, थोड़ी इम्प्रेस्सेड-सी लगी।

आगे बातें हुई तो पता चला कि हम दोनों सफ़र में तो साथ थे ही और हमारी मंजिल भी एक थी। दोनों को नार्थ कैंपस के पास की कॉलोनियों में ही जाना था।

वो सफ़र लगा मानो पलक झपकाते ही ख़त्म हो गया हो। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वो औपचारिक सी “बाय” कहकर उतर गयी थी, लेकिन पीछे छोड़ गयी थी वो किताब और उसमे बसा उसका एक भाग। मैं वो किताब जब अपने बैग में रख रहा था तो इस बात से अनजान था कि वो मेरी ज़िन्दगी के किसी कोने में अपना नाम लिखकर प्लेटफार्म नंबर 5 की भीड़ में गुम हो गयी थी।

पता नहीं क्यूँ मुझे लग रहा था कि उस लड़की का मेरी किस्मत से कुछ तो लेना देना ज़रूर था। मुझे यकीन था कि वो मुझे मिलेगी, दोबारा। और दो महीने बाद मेरा यकीन रंग लाया...।

एक सन्डे बजाज कार्नर पर वो मुझसे टकराई। वो मुझे देख मुस्कुरायी। मेरे चेहरे पर ख़ुशी और बौखलाहट दोनों ही थे और मेरी जुबां ने अजीब से लहजे में कहा “कहाँ गुम हो गयी थी तुम? कितना खोजा तुम्हे?” मैंने तो दो महीने से जमा अपने दिल की बात कह दी लेकिन वो घबरा गयी...उसने पूछा “क्यूँ...क्या हुआ?”

मैं झेप गया, सच बताता तो शायद वो उस दिन ही भाग जाती...”वो लीओन उरिस वाली किताब तुम ट्रेन में छोड़ आई थी न...वो मेरे पास है?”

उसकी घबराहट पल भर में छू हो गयी...उसने कहा “वो तो मैंने एक दोस्त से लेकर पढ़ भी ली”

मैंने चुटकी ली “किसी और की किताब का हिस्सा बनने में डर नहीं लगा?” इस बार उसकी हंसी उसकी आँखों तक पहुँच गयी। इस बार हम औपचारिक बातों से आगे बढें, उसने मुझे अपना एड्रेस और फ़ोन नंबर दिया और मैंने अपना।

उस दिन के बाद हम अक्सर एक दूसरे से टकरा जाते। कभी फोटोकॉपी की दुकान पर कभी रघु टी स्टाल पर तो कभी यूँ ही चलते-चलते।

ऐसी ही एक शाम, हम किरोरिमल कॉलेज के फेस्टिवल में टकरा गए। एक दोस्त के बुलावे मैं फेस्ट में चला तो आया था लेकिन उस शाम कोई रॉक बैंड का परफॉरमेंस था और मैं ठहरा ग़ज़ल और नज़्म वाला इंसान, ये रॉक-वाक से बोरियत होने लगी। मैं ग्राउंड में पीछे बैठे जम्हाईयाँ ले रहा था , और फिर, वो दिख गयी। उसके खुले बाल कमर तक आ रहे थे, उसने लाल कुरता और जीन्स पहन रखा था। उस एक लम्हे में मेरे दिल ने मुझसे साफ़ साफ़ कह दिया कि वो प्यार में पड़ गया है और वो अब मेरे दिमाग की बात नहीं सुनेगा।

मुझे महसूस हुआ कि वो भी मुझे देख रही थी। भीड़ से निकलकर मुझ तक आई, उसने बताया कि उसे भी ऐसी म्यूजिक पसंद नहीं। हम दोनों भीड़ से दूर फील्ड के कोने में जा बैठे। उदास लग रही थी वो, उसने आसमान की तरफ देखते हुए कहा “पुरुलिया में भी यही चाँद निकला होगा न, अनुज?”

मैंने उसे हँसाने के लिए कहा “हाँ अगर कोई मेसेज भेजना है घर, तो इसके हाथ भेज दो” वो मुझे देख मुस्कुरायी और हवा में अपनी ऊँगली से दो बिंदु और एक लाइन ऐसे खींच दी मानो चाँद का स्माइली बना रही हो। उस रात शायद हम दोनों के बीच कुछ दोस्ती जैसा जुड़ गया था। इसका एहसास मुझे अगले दिन हुआ जब मेरी बरसाती की बैल बजी।

नीचे झांककर देखा तो मानसी खड़ी थी। वो आई तो थी किसी किताब के बारे में पूछने लेकिन हम घंटों बातें करते रहे। अपने अपने स्कूल के बारे में, कॉलेज, घर परिवार, बचपन, सपने सब की यादें उन चंद घंटों में बाँट ली थीं हमने। वो मेरे कमरे में जाकर हॉट प्लेट पर चाय बना लायी और मेरी वो 10X10 की निर्जीव बरसाती उस दिन सांस लेने लगी थी। आने वाले महीनों में रोज़ मेरी बरसाती को सांस लेने की वजह मिल जाती

मानसी किसी न किसी बहाने से मेरी बरसाती तक आती। बाहर छत पर बैठ हम कभी कोई गुलज़ार की नज़्म पर चर्चा करते तो कभी बगल वाले छत पर बैठे कबूतरों के जोड़ों को निहारते। बारिशों में परछत्ती के नीचे सूखी ज़मीन पर बैठ हम अपने अपने मन को गीला करते। हँसते तो दोनों साथ और रोते तो एक दूसरे के कंधे पर। कई ऐसे लम्हे हम दोनों के बीच गुज़रे जब मैं उसका हाथ पकड़ कर अपने प्यार का इज़हार कर सकता था लेकिन हर बार मन कहता “नहीं ऐसे नहीं...बस कुछ दिन और इंतज़ार करो” उसने भी कभी कुछ नहीं कहा, शायद पढाई से मेरा ध्यान नहीं हटाना चाहती थी।

उसने मुझे बताया था कि उसके पापा ने उसे साल भर की मोहलत दी है, वो पढाई करके नौकरी कर सकती है लेकिन उसकी शादी की बात वो शुरू कर देंगे। इस बीच अगर उसने अपने लिए लड़का देख लिया तो ठीक वरना वो उसके लिए रिश्ता देखेंगे।

मैंने सिविल सर्विसेज के लिए जोर शोर से पढाई शुरू कर दी। दिन रात पढता रहता और मानसी इसमें मेरे साथ देती। वो मेरी मिट्टी में कभी हवा बनकर समा जाती ताकि मुझे आराम मिले तो कभी हवाओं में मिट्टी बनकर लिपट जाती कि मेरा आकार, मेरा सपना बना रहे।

शाम को किंग्सवे कैंप की गुलमोहर से ढकी सड़कों पर इवनिंग वाक हो या बत्रा सिनेमा पर कोई फ्लॉप मूवी देखना, हम साथ होते तो ऐसा लगता जैसे कोई सिम्फनी बज रही हो। हम दोनों एक दूसरे के दिल की हालत से वाकिफ़ थे लेकिन उन तीन शब्दों को हमने एक जमे हुए ठोस लम्हे के लिए बचा रखा था। मैंने तो माँ को उसकी तस्वीर तक भेज दी थी। माँ का जवाब आया था “सुन्दर है”।

आठ महीने कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। प्रीलिम्स हुआ और रिजल्ट भी आ गया और मैं उस एक हर्डल को पार कर गया था। मानसी को लेकर सपने और बुलंद हो गए मगर फिर भी इज़हार बाकी था। डर था, सपने टूटने का, मेरे नहीं मानसी के ! अब इंतज़ार था तो सिर्फ मेन्स के रिजल्ट का और इस बार मुझसे ज्यादा उत्सुक मानसी थी।

मेन्स का रिजल्ट आया और उसमें फेलियर ने मुझे तोड़ दिया। मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दी। मैं घंटों अपने अँधेरे कमरे में बैठा रहता। मानसी बहुत समझाती, लेकिन खुद को नकारा मानने की कसम खा ली थी मैंने।

एक दिन अचानक मानसी ने कहा “पापा शादी का पूछ रहे हैं, क्या बोलूँ?”

नाउम्मीदी और मायूसी से घिरा मेरा मन बस बोल पाया था “अभी तो...?”

“इस साल सगाई और अगले साल शादी के लिए मना लूंगी उनको “मानसी के इस सुझाव में कुछ अनकहे शब्द भी थे और वो थे “अगर तुम हाँ कहो तो”

पर मैं कैसे हाँ कहता? क्या था मेरे पास? शादी में सिर्फ बंधना ही नहीं होता है, उसके बाद गृहस्थी जमानी होती है, ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। नहीं, मैं मानसी के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता था। क्या पता अगले साल भी पास नहीं कर पाऊँ , तो?

मैंने दबी आवाज़ में कहा “तुम पापा को रिश्ते देखने, कह दो...”

हम दोनों के बीच का, वो एक लम्हा, दोनों से मिन्नतें कर रहा था “मुझे रोक लो, मत जाने दो मुझे, मुझे तुम दोनों को जोड़ने वाली कड़ी बन जाने दो”...लेकिन मैंने उस लम्हे की बात नहीं सुनी।

कितना बेबस हो कर पूछा था मानसी ने वो सवाल और किस बेख़याली में मैंने उस लम्हे को जाने दिया था।

मानसी की आँखों में सैलाब आ गया था रोते हुए, हिचकियाँ लेते हुए बोली थी “तो तुम कह रहे हो कि शादी उससे कर लूं जिससे प्यार भी न हो”

मैंने हमारे रिश्ते में प्यार की छोटी सी भी गुंजाईश को नकारते हुए कहा “मानसी, ज़रूरी नहीं कि हर शादी की शुरुआत प्यार से हो, साथ रहते रहते प्यार हो ही जाता है” मैं जानता था उसके दिल की हालत को क्यूँकि मेरा दिल भी हज़ार टुकड़ों में टूटा जा रहा था और मैं था कि अपने दर्द को एक आह तक नहीं दे पा रहा था। वो सुबकती हुई चली गयी थी।

अगले ही दिन वो कोर्स अधूरा छोड़कर, पुरुलिया के लिए निकल गयी। फ़ोन किया तो स्विचड ऑफ़ आया। मन को समझाया कि उसे जाने देना ही शायद उसके हित में था।

उसके जाने के बाद मैं एक और साल उस घुटन में डूबी हुई बरसाती में रहा। दर्द से बचने के लिए खुद को पढाई में डुबो दिया।

अगले साल जिस दिन यूपीएससी का रिजल्ट आया, मैं खूब रोया था। कामयाबी तो हाथ लगी थी लेकिन तब तक वक़्त निकल चुका था। फिर वक़्त बस निकलता ही गया।

आज सालों बाद लीओन ओरिस की वो किताब फिर मेरे हाथ में थी और मानसी का नाम अब भी मेरे दिल पर लिखा हुआ था। पता नहीं क्यूँ लग रहा था कि कहानी में अभी कुछ बाकी है।

बेसमेंट से ऊपर आया तो मेरे हाथ में मानसी की किताब थी। मैंने वो किताब टेबल पर रखी तो माँ ने उठा ली। उसके पहले पन्ने पर मानसी का नाम पढ़ते हुए बोली “अरे अनुज, तुम्हे पता है तुम्हारी ये दोस्त इसी शहर में है?”

“कौन मानसी?”मैंने हैरानी से पुछा

“हाँ बाज़ार में मिली थी एक दिन, मैंने ही उसे पहचाना था...जानते हो, शादी के कुछ महीने बाद ही उसके हस्बैंड का एक्सीडेंट हुआ, रीढ़ में चोट लगी थी...टाटा-मेन हॉस्पिटल के स्पाइनल इंजरी सेक्शन में एडमिट है काफी दिनों से”

मानसी की किताब हाथ में लिए मैं उस शाम गुस्से से हॉस्पिटल पहुँच गया। थोडा गुस्सा खुद पर था और ढेर सारा उसपर। हॉस्पिटल के स्पाइनल इंजरी विंग के रिसेप्शन पर उसका नाम बताकर रूम नंबर लिया। रूम के दरवाज़ा पर मैंने दस्तक दी तो दरवाज़ा एक औरत ने खोला। धंसे हुए गाल, आँखों के नीचे काले घेरे , उसने बाल बेतरतीब। मन में आया फिर से रिसेप्शन पे जाकर रूम नंबर कन्फर्म करूं। अस्त व्यस्त सी ये लड़की मानसी नहीं हो सकती।

 उसने हौले से कहा “आओ” तो यकीन हुआ कि सामने मानसी ही थी। हैरान सा मैं, खड़ा उसे देख रहा था मगर उसके चेहरे पर कोई हैरानी नहीं थी, जैसे उसे पता था कि मैं आनेवाला था।

बेड पर उसके पति थे, उनकी आँखें बंद थी। मुझे लगा वो सो रहे थे। उसने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया तो मैंने फुसफुसाते हुए गुस्से से पूछा “इतना कुछ हो गया, तुमने बताया क्यूँ नहीं”

“तुम्हारी ज़िन्दगी में भी तो बहुत कुछ हो गया अनुज, तुमने कहाँ बताया” उसने मेरे सवाल के बदले सवाल किया

बेड पर सोये उसके पति कुछ बडबडाये। उसने फुर्ती से उनके पास जाकर उनका मुंह पोंछा और एक कटोरे से सूप पिलाने लगी। एक चौथाई सूप उनके अन्दर जाता और बाकी मुंह के बाहर आ जाता,। मानसी एक तौलिये से उसे साफ़ करती जाती। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। जिस मानसी को मैंने खुश रहने के लिए आज़ाद कर दिया था वो आज इस हाल में थी? मन किया एकबार उससे कहूं कि “छोडो ये सब और चलो मेरे साथ” लेकिन अचानक मेरे सामने वो लम्हा आकर खड़ा हो गया जिसने हमें रोक लेने की मिन्नत की थी...वो लम्हा जिसका रंग तब गुलाबी था, अब वो लगभग काला पड़ गया था, वो रुखाई से बोला “वक़्त लौटकर कभी नहीं आता, अनुज बाबू, अब किस हक से आये हो यहाँ?”

मैं अपनी गलतियों से शर्मसार मानसी को देखता रहा, बात तो सच ही थी, उस लम्हे के साथ मैंने मानसी पर अपना हक भी जाने दिया था

उसकी बदहाली देखते हुए भी मैं औपचारिकता से मानसी से पूछा “कैसी हो?”, तो उसने पूरी तन्मयता से अपने पति का मुंह पोंछते हुए कहा “ठीक हूँ”

“प्यार के बिना?” ये खुद को मैं ताना दे रहा था या उसे, पता नहीं, लेकिन मेरी आवाज़ की खटास मुझे ही चुभ रही थी।

उसने मेरी तरफ गौर से देखा और फिर पलट कर अपने पति को सूप पिलाते हुए बोली “तुम्ही ने तो कहा था, साथ रहते रहते प्यार हो जाता है”

उस शाम जब मैं हॉस्पिटल से निकला तो मानसी की किताब मेरे साथ नहीं थी। मैं उसे चुपके से हॉस्पिटल के उस कमरे में छोड़ आया था। मानसी अब किसी और की कहानी का हिस्सा बन गयी थी।



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