
चित्रकार जे स्वामीनाथन की 90वीं जयंती को प्रयाग शुक्ल जी ने, 21 जून को, बहुत करीने और बहुत दिल से कनॉट प्लेस, दिल्ली में मौजूद देश की प्राचीनतम आर्ट गैलरी, धूमिल आर्ट सेण्टर में मनाया। प्रयागजी स्वामीनाथन की जीवनी लिख रहे हैं, और वहाँ उन्होंने उस तक़रीबन लिखी जा चुकी पुस्तक की पाण्डुलिपि से कुछ यादों को — कला और स्वामीनाथन के चाहने वालों और कविता पाठ के लिए आमंत्रित कवियों — सुनाया भी।
सविता जी ने उस शाम जो कवितायेँ सुनायीं वह आज आपके लिए यहाँ शब्दांकन पर पेश की जा रही हैं, उनकी कविता पर टिप्पणी नहीं देते हुए, उन कुछ पंक्तियों को कह रहा हूँ जिन्होंने उस शाम के बाद-से मेरे आसपास-ही रहना तय कर लिया हैं:
पत्तों के लिए सबसे सुरक्षित जगह
जंगल ही है
और किताबों के लिए
पुरानी कोई लाइब्रेरी
वहीँ जाकर मैं अपनी किताबें भी
छिपा आऊँगी एक दिन
जैसे छिपाये हैं मैंने अपने
प्रेम और दुख सपनों में
कवितायेँ पढ़िए...
भरत
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उस रोज़ वहाँ कृष्ण खन्ना की मौजूदगी और उनको सुनना कमाल का अनुभव रहा। साथ ही गगन गिल, गिरधर राठी, विनोद भारद्वाज, विष्णु नागर और सविता सिंह का कविता पाठ सुनना, सारे माहौल को दिव्य बना गया। |
पत्तों के लिए सबसे सुरक्षित जगह जंगल ही है
:: सविता सिंह की कवितायें
जैसी सृष्टि थी
चित्रकार स्वामीनाथन ने जबपहाड़ पर बैठी एकाकी चिड़िया को बनाया
सृष्टि उस समय वैसी ही थी
वैसी ही तब भी
जब एक शेर ने एक हिरण को धर दबोचा
एक बहेलिये ने फाँसा रंग-बिरंगी चिड़ियों को
एक शिकारी ने भाला फेंका
एक बनैले सूअर पर ।
जब उसे आदिम मनुष्य ने अंकित किया
अपनी खोहों की प्राचीन दीवारों पर
जब एक कीट ने अपने पंख फैलाये
उड़ने के लिए
उसकी गुलाबी देह दिखी अपनी नश्वरता में काँपती
सृष्टि उस समय भी वैसी ही थी
अपने जीवों के उद्गार एवं संताप में
जिसे सिर्फ मैने देखा
नीले का प्रिय
क्या कोई जानता हैकि रात का रंग सिर्फ काला नहीं होता
कई रातें बेशक काली होती हैं
गहरी बैंगनी मगर
जिनके नीले रेशों में होती है
मेरी देह भी
नीले रंग में होते हैं और कौन-कौन से रंग
किन रंगों में घुलते हैं और कौन रंग
कौन बचे रह जाते हैं फिर भी अकेले
बेलाग अलग-थलग
मिल जाने की सारी मंशा-ओ-मशक्कत के बावजूद
वह कौन सा रंग है अकेला
नीले को प्रिय
क्या कोई जानता है।
दृश्य
झाड़ देती हैं पंख तितलियाँझड़ते हैं जैसे आसमान के अपने ही रंग
वातावरण बदलता है
विश्राम करते पक्षी डैने फैलाते हैं
चेहरे ऊँचा करते हैं पेड़
आँखें मींचती है घास
झरते रहते हैं तब भी रंग
दूर से देखती हैं तितलियाँ
पहाड़ों पर इनका असर
सच अभी ऐसा दिख रहा था
सच अभी एक पत्ते जैसा दिख रहा थासहस्र शिराओं लाखों रंध्रों वाला
ओस की बूंदें जिस पर पड़ी थीं
एक लाल कीड़ा जिस पर अपनी यात्रा
शुरू कर चुका था

अजन्मी मछलियों का संसार
मैंने वह सब कुछ देख लिया थाजिसे देखने के लिए जैसे यह जीवन जिया था
फिर वहाँ मेरे लिए कुछ और न था
एक काली दीवार थी बेशक छाया जैसी
कभी-कभी दर्पण की तरह चमकीली होती
जिसमें हर बार मैं कुछ से कुछ दिखती
वहाँ कुछ और न था
न कोई सभ्यता
न शब्द
बार-बार लगता अब यहाँ से लौटकर
कैसे जीना संभव हो सकेगा
एक नया संसार ही आविष्कृत करना पड़ेगा
जैसे बोर्खेज़ ने किया था
आँखों की रोशनी की रूमानियत भी वहाँ आखिर क्या होगी
सोचो अगर उसके पास आँखें होतीं
यह संसार कितना भद्दा लगता उसे
अगर ऐसा न होता
संख्याओं और ज्यामितीय संरचनाओं के रहस्यों की तरफ़
वह कैसे जाता
कैसे बताता जहाँ संपूर्ण अंधकार है
वहीं रक्त का एक ऐसा समुद्र है
जिसकी लहरों में ढेर सारी आकृतियाँ
उठती गिरती रहती हैं जन्म पाने के लिए
जिन्हें वह जानता है अपने भीतर बनती-बगड़ती
सहानुभूतियों की तरह
मैं उदास हूँमेरे लौटने की ज़रूर कोई विवशता रही होगी
तभी में शब्दों और सभ्यताओं में लौटी
किताबों की अनगिनत पंक्तियों की तरफ़
जिन पर धूल जमती रहती है
और जिस दुनिया में फिर भी
और लिखने की फेवकूफ़ाना सनक
सब पर सवार रहती है
तभी बेबसी में मैं याद करती हूँ
पत्तों के लिए सबसे सुरक्षित जगह जंगल ही है
और किताबों के लिए पुरानी कोई लाइब्रेरी
वहीँ जाकर मैं अपनी किताबें भी छिपा आऊँगी एक दिन
जैसे छिपाये हैं मैंने अपने प्रेम और दुख सपनों में
काश मुक्ति इससे भी ये आसान होती
कोई ऐसी स्थिति होती
कि आक्रोश और अस्वीकृति बदल जाते सीधे नये यथार्थ में
जैसे रोशनी और शब्द बोर्खेज़ के यहाँ
तब्दील हो जाते हैं आँखों में
और जहाँ आँखें सिर्फ़ आकार होती हैं
वैसी आकृतियाँ या कि आयतन
समुद्र की लहरों के लिए वैसी मछलियाँ
जिनका जन्म अभी नहीं हुआ है
नीला संसार
अभी थोड़ा अँधेरा हैभाषा में भी सन्नाटा है अभी
अभी बिखरे पड़े हैं रेशम के सारे धागे
सपनों के नीले संसार में ऐंठे
अभी कुछ भी व्यवस्थित नहीं
कविता भी नहीं।
मैं चल रही हैं लेकिन इसी अँधेरे में
जागी चुपचाप समझती
कि जो नीले रेशमी डोरे तैर रहे हैं
और जो भाषा सन्न है मेरी ही चुप से
वह सब कुछ मेरा ही है
एक परखनली मेरे अंधकार की
एक गहरी नीली खाई मेरे होने की
अभी थोड़ा अँधेरा है
और मैं चल रही हूँ लिये नींद बग़ल में
संसार का डर
इसी संसार में पा लेना हैअपने हिस्से का सच
संभावित हर ख़ुशी
कर लेने हैं पुण्य उपजाने वाले काम
कर लेना है प्रेम
कहनी है अपने मन की बात
जागना है रात-रात
करते इंतज़ार किसी का
जिसे आना है
इसी संसार में मिल जायेगा
अपने हिस्से का झूठ
मुमकिन सारी तकलीफ़
हताशा
पाप जैसी कोई चीज़ भी
लिपट सकती है जिस्म को बेधती
मन को रुग्ण करती
इसी संसार में पा लेना है ख़ुद को
मिल लेना है ख़ुद से
यहीं खोते हैं लोग ढूंढ़ते इसको उसको
इसी संसार में हूँ मैं
इसी संसार से लगता है मुझे डर
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