न्याय काल का सवाल नहीं अधिकार और हक है — कविता का कुलीनतंत्र (4) — उमाशंकर सिंह परमार


बहुत से कवि ऐसे भी हैं जो न तो महानगरीय कुलीनता से मुक्त हुए न ही अपने जातीय सवर्णवादी संस्कारों से मुक्त हुए मगर अपने आपको "वाम" कहने का दुराग्रह भी रखते हैं।


भाग-4: सत्ता और पूँजी के संरक्षण में विकसित जमीन से विस्थापित कविता का कुलीनतंत्र

— उमाशंकर सिंह परमार 

न्याय काल का सवाल नहीं अधिकार और हक है जिसे स्थगित नहीं किया जाता मिले तो मिले नहीं छीनकर लिया जाता है।

महानगरीय कुलीनता और जातीय श्रेष्ठता की मन: स्थिति से मुक्त होना तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति का परिवर्तन कर दे। अर्थात वर्गान्तरण कर दे।

जब व्यक्ति अपने वर्ग से मुक्त हो जाता है तब वह अपने आपको "सर्वहारा" की चेतना में विलीन कर देता है और सर्वहारा की भाषा में वह सर्वहारा के लिए वह तर्कनिष्ठ वैचारिक रचनाएँ करता है।

हिन्दी में ऐसे उदाहरण हैं जब लेखक खुद का वर्गान्तरण करता और खुद को सर्वहारा की तरह रखता है। अजय सिंह ऐसे ही कवि रहे हैं उनका ‘राष्ट्रपति भवन में सुवँर’ पढ़ा  जा सकता है। और बहुत से कवि ऐसे भी हैं जो न तो महानगरीय कुलीनता से मुक्त हुए न ही अपने जातीय सवर्णवादी संस्कारों से मुक्त हुए मगर अपने आपको "वाम" कहने का दुराग्रह भी रखते हैं। ऐसे लोग लेखन में वाम दिखते हैं और चेतना में प्रतिक्रियावादी। ऐसे कवियों में दिल्ली के फेसबुकिया सेलब्रिटी अशोक कुमार पाण्डेय प्रमुख हैं। कविता में कुछ नहीं कर सके एक भी नामलेवा नहीं रहा कभी, इसलिए सबसे पहले प्रकाशन की स्थापना की, गुणगान के लिए तमाम अनुचर पाले, फिर पत्रिका निकाली और बन्द कर दी। फिर भी सफलता नहीं मिली तो अपने लेखन की प्रतिष्ठा के लिए किसी भी हद तक समझौता करने लगे अशोक बाजपेयी से लेकर ज्ञानपीठ तक दौड़ लगाते हैं। पूँजीवादी संस्थाओं से हाथ मिलाकर आयोजन वगैरा में पहुँचते रहते हैं। पुरस्कार भी पाए, पुरस्कार स्थापित भी किए। फिर भी कवि नहीं बन पाए। केवल फेसबुक के हीरो बनकर रह गये। इनके तीन कविता संग्रह हैं लगभग अनामन्त्रित, प्रलय में लय जितना, प्रतीक्षा का रंग साँवला है और तीनों संग्रह की कविताओं में केवल नकली नारेबाजी और थोथी पोस्टरबाजी है। कहीं पर भी जीवन्त कविता नहीं है। इनके पास एक भी ऐसी कविता नहीं है जिसे पढ़कर आदमी उद्वेलित हो आक्रोशित हो या वास्तविकता के खिलाफ व्यक्ति में प्रतिरोध जाग्रत हो। नारेबाजी की मात्रा इतनी अधिक है कि कविता खतम हो गयी है और थोथी वैचारिकता के भीतर छिपी प्रतिक्रियावादी मानसिकता भी उजागर हो गयी है। उनकी एक कविता है इतिहास में हुए अन्याय के "न्याय" की जिम्मेदारी वर्तमान को न देकर भविष्य को सौंपते है और वर्तमान को कमबख़्त कहकर ऐसा दिखाते हैं मानो भविष्य जरूर न्याय करेगा इन्हें यह भी नहीं पता कि भविष्य भी कभी न कभी वर्तमान जरूर होता है। न्याय काल का सवाल नहीं अधिकार और हक है जिसे स्थगित नहीं किया जाता मिले तो मिले नहीं छीनकर लिया जाता है। -
 "इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया /भविष्य न्याय करेगा एक दिन /दिक्कत सिर्फ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त" 
यह कविता नारेबाजी के फेर में अन्याय की यथास्थिति में खडी हो जाती है। ऐसे ही एक कवि हैं कुमार अनुपम। ये कवि न होते यदि साहित्य अकादमी में नौकरी न करते। साहित्य अकादमी की नौकरी ने इनको कवि बना दिया इसलिए इनकी कविता में शौकिया कवियों की छायावादी समझ अधिक विकसित पुष्पित और पल्लवित है इनका एक कविता संग्रह है "बारिस मेंरा घर है" इसमें इनका "कालदोष" परखा जा सकता है इन्होने इस भीषण युग में कविता लिखकर गलत किया इन्हें छायावाद और रीतिकाल के दौर में होना चाहिए था। वही भाषा वही रूपबन्ध, वही भावुकता, वही विचारहीनता वही प्रतिक्रान्ति का पक्ष इनके काव्य में है जो सत्ता से जुड़े कुलीन कवियों में होता है इनकी एक कविता है लडकियाँ हँस रही हैं "लड़कियाँ हँस रही हैं /इतनी रँगीली और हल्की है उनकी हँसी /कि हँसते-हँसते /गुबारा हुई जा रही हैं लड़कियाँ'" हँसते हँसते गुबार होना इस हँसी का मजाक है। ऐसा लगता है कवि को लडकियों के हँसने से परेशानी है वह उनको प्रेम करने या चूल्हा चौका वर्तन के अतिरिक्त किसी किस्म का दायित्व नहीं सौंपना चाहता अन्तिम बन्ध में वह कह देता है "रुको /रुको चूल्हा-बर्तनो /सुई-धागो रुको /किसी प्रेमपत्र के जवाब में /उन्हें हँसने दो" निच्छल हँसी को "प्रेमपत्र" से जोडकर कवि ने प्रेम का भी मजाक किया है। इसका आशय है कि कवि केवल उन्हे प्रेम में हँसते देखना चाहता है। नहीं तो उनका काम केवल चूल्हा चौका है उसी में उनकी आजादी है। विचारहीनता किसी कवि को कितना प्रतिगामी बना देती है कुमार अनुपम को पढ़कर मैने जाना है। मगर किया क्या जा सकता है आज के दौर में सत्ता और सत्ता के अनुदान से पोषित संस्थाएँ ऐसी ही कविताओं को बढ़ावा दे रहे हैं।



पद का महत्व इस बात में है कि आज प्रकाशक भी कवि बन गये और किताब छपवाने के लालच में हजारों कैरियरिस्ट लेखक उनकी स्तुति वन्दन कर रहे हैं। यह समकालीन कविता का दुर्भाग्य है कि प्रकाशन, प्रोफेसर, पुरस्कारदाता, आईएस अधिकारी, उनकी पत्नी, उनके पुत्र, उनके साले साली सब कवि हुए जा रहे हैं अपने पैसे और पद का उपयोग लोकधर्मी परम्परा के खिलाफ़ कर रहे हैं ऐसे कवियों में बोधि प्रकाशन के मायामृग भी है। उनकी कविताएँ मैने 2014 के गाथान्तर समकालीन कविता में देखी थी। इनके पास केवल जुमले हैं और विचारधारा की विकृत समझ भी है। स्त्रीवाद पर इनकी लिखी कविताएँ बेहद आपत्तिजनक परिवारवादी सहयोगपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ़ हैं व अभिजात्य भाषा का नमूना हैं। कहीं कहीं अश्लीलता तक आ गयी है। यह कवि महानगरीय खाए पिए अघाए कुलीन नारीवाद का पोषक है।

कविता का कुलीनतंत्र — 3         कविता का कुलीनतंत्र — 5


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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