"सौन्दर्य देख कर के आदमी को... आदमी कुत्ता भी हो सकता है आदमी तो दो साल की लड़की को देख करके रेप करता है"
— क्या अर्थ लगाते हो आप उपरोक्त कथन का ?
साहित्य से जुड़े होने, उसका (तथाकथित) उद्धार करने जैसी बातें कहने वाली बातें नहीं होतीं। किसी प्रबुद्ध के कहे गए को आप कितना समझ पाते हैं यह आपकी साहित्यिक समझ का मीटर होता है। जब विश्वनाथ त्रिपाठी जी कुछ कहते हैं तो क्या आप उनके कहे की गहराई में गए बगैर उसे समझने का दावा ठोंकते हुए, उन्हें गलत सिद्ध करते हुए, कटघरे में खड़ा करने की साहित्यिक-क्षमता रखते हैं? एक अनजान जो प्रो० त्रिपाठी के ज्ञान से अनभिज्ञ हो वह कुछ भी बकता रहे, साहित्य को फर्क नहीं पड़ता। लेकिन साहित्य के जिम्मेवार को क्या यह छूट मिलती है? नहीं। त्रिपाठीजी ने फोन पर मुझे जो बतलाया वह वैसे का वैसा ही इस विडियो में दर्ज है, वह लेख जिसका उन्होंने ज़िक्र किया है, जो उन्होंने कथादेश में प्रकाशित लेखक भीमसेन त्यागी की कहानी ‘टेलीविजन’ पर लिखा था और जो ‘पहल’ में प्रकाशित हुआ था, वह यहाँ नीचे, आपके पाठ, साहित्यिक-समझ के विस्तार और फेसबुकिया-हड़बड़ी के नियंत्रण जैसी मौलिक आवश्यकताओं हेतु, लगा है।
सच सच होता है, सच है, लेकिन जब उसकी सत्यता पर सवाल उठे तब, उस सवाल की अग्निपरीक्षा की आयु और परिणाम, उस सत्य के साथ खड़े लोगों के जीवट पर निर्भर हो जाती है.
कुछ वर्ष मेरे पूज्य यादवजी को इस दुनिया से भेज दिया गया था. (वो आज-भी होते अगर सत्य के साथ खड़े लोग होते और उनके जीवट होते...)
अब कम से कम मैं अपने सामने ऐसा दोबारा नहीं होने दूँगा!
आदरणीय विश्वनाथ त्रिपाठी जी सदैव स्वस्थ्य रहें.
भरत एस तिवारी
इन दिनों समाचार-पत्रों में बलात्कार की घटनाओं के जो ब्यौरे छपते हैं उन्हें देने की जरूरत नहीं है। पाठकों को वे विदित होंगे। लेकिन इन ब्यौरों को पढ़ते हुए टेलीविजन कहानी की याद दिमाग में बहुत बातों की ओर ले जाती है। कहानी अन्तत: गल्प है वह कल्पित होती है अगर किसी की जिन्दगी की किसी घटना या घटना सरणि से हूबहू मिले तो पाठक चौंकता है - इससे बचने के लिए कहानीकार शुरू में ही बता देता है कि पात्र और घटनायें काल्पनिक है कहीं मेल हो तो वह संयोगवश है। लेकिन यदि बलात्कार और मासूम बच्ची और पिता को लेकर ऐसी वारदातों की बाढ़ आ जाए ऐसी घटनायें इतनी अधिक होने लगें कि वह एक प्रवृत्ति लगे तो - यह चाहे जितना दुर्भाग्यपूर्ण हो किन्तु मानना पड़ेगा कि कहानीकार ने इतना पहले इस भयानक प्रवृत्ति को कितनी शिद्दत से महसूस किया था- ऐसी साहसी कहानी लिखने की कितनी यातना उसने भोगी होगी और यह कि कहानीकार में यथार्थ के प्रवाह को देखने की कितनी दुर्लभ क्षमता थी। हिन्दी में हमारे दौर की एकाधिक हिन्दी कहानियां ऐसी हैं जिन्हें परवर्ती दुर्भाग्यपूर्ण सामाजिक प्रवृत्तियों ने ऐतिहासिक और क्लासिक बनाया है। टेलीविजन कहानी को क्लासिक कहना तो अपुष्ट कथन है लेकिन इस कहानी की कुछ और बातों के साथ साथ कई बातें करना ज़रूरी लगता है। कहानी दिल्ली के निकटवर्ती विराट और औद्योगिक नगर नोएडा के मजदूरों की झोपड़ी-झुग्गी की है।
हरौला गांव में लच्छू चौधरी के अहाते में बाहर की तरफ दस दुकानें हैं और अन्दर लम्बोतर सहन, उसके चारों तरफ कोठरियों की कतारें, क्लर्कों, मजदूरों और फुटकर धन्धा करने वालों के कुल बत्तीस परिवार हैं। उन्हीं में स एक परिवार बलराम का भी है। सीलन भरी तंग कोठरी, उसी में खाना-पकाना, नहाना-धोना और घर गिरस्ती के तमाम काम। बलराम ने दहेज में मिले नक्काशीदार पलंग के नीचे ईटें लगाकर हाथ भर उठा दिया है, उस पर मियां-बीबी सोते हैं, नीचे बच्चों की कतार। बलराम का बाप भप्पू कोठरी के बाहर खटिया पर सोता है। जेठ की दोपहरी में लू चलती है गांव के नीम की छांव बहुत याद आती है।
बस्ती में सबसे पहले बालेसर के यहां टेलीविजन आता है। बालेसर टेलीविजन आने पर बस्ती के अन्य लोगों की इज्जत, ईष्र्या, द्वेष का विषय बन जाता है यह भी कि वह कोई न कोई गलत काम करता है इसीलिए टेलीविजन लाने का पैसा है। औरतें इस विषय पर विशेष रूप से कानाफूसी करती हैं। झगड़ा होने पर बालेसर का नाम लिया जाता है। बालेसर तो टेलीविजन ले आया। लेकिन बलराम की नींद हराम हो गई। उसके छ: लकड़े और एक लड़की 10-11 साल की लक्ष्मी उसे रात दिन तंग करते हैं। धीरे धीरे पास पड़ोस के सबके घर टेलीविजन आ गया। बलराम को कर्जा लेते डर लगता था। लेकिन बच्चों की जिद और पत्नी के तानों से आजिज आकर बलराम किश्तों पर टेलीविजन ले आया। बच्चे खुश हुए। बलराम को किश्तें भारी पड़ीं। खाना पीना कम हुआ लेकिन शोर-शराबा बढ़ा।
''टेलीविजन आने से किसी को परेशानी थी तो भप्पू को - भई बल्ले (बलराम को पुकारने का नाम) तू ये कैसी बेमारी ले आया। तेरे बालकों ने पढऩा-लिखना तो कतई बन्द कर दिया है। हर बखत हुडदंग मचाये रहवैं। और इस बहू को भी कैसा चसका लग गया। जब देखो इस डिब्बे से चिपकी बैठी रहवै, मैया, अपणे से नीं देक्खी जाती या बेसरमी। यो तो सव्हेरे कू इसे दफा कर नहीं तो हम वापस गांव चले जावेंगे।''
न टेलीविजन दफा हुआ और न भप्पू गांव गये।
यहां टेलीविजन कहानी की रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। बल्कि यह समझने की कोशिश की जा रही है कि एक हिन्दी कहानीकार ने आने वाले दिनों की विभीषिका को इतना पहले किस प्रकार समझ लिया। यह अपने आप में आश्चर्यजनक है, ऐतिहासिक सामजिक दुर्भाग्य है देश का और हिन्दी कहानी की भविष्य को, यथार्थ के प्रवाह को देख लेने की अचूक क्षमता का सबूत है। और यह कि क्या हमारे समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के पास ऐसी क्षमता है। और यह क्षमता क्यों है हिन्दी कहानीकार के पास और क्यों नहीं है समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के पास। अपवाद की गुंजाइश तो $खैर हमेशा बनी रहेगी।
''बलराम की मानसिक प्रक्रिया का विवरण कहानी में अनेक स्थितियों में दिया गया है।''
बलराम को फिल्म-विल्म का खास शौक नहीं था, दफ्तर वाले दिन में सारा लहू निचोड़ लेते हैं, शाम को खाना खाते ही नींद आने लगती है। लेकिन घर में टेलीविजन है तो वह भी कुछ देर देख लेता, अच्छा लगता। फुदकती चहकती अधनंगी लड़कियाँ! बलराम उन लड़कियों से अपनी प्रेमों (पत्नी) की तुलना करने लगता। प्रेमो के पास वह सब कुछ है जो एक औरत के पास होना चाहिए - गेंहुआ रंग, पैने नक्श, गठा हुआ जिस्म और भरपूर प्यार। लेकिन टेलीविजन की लड़कियों के मुकाबले वह हमेशा पिछड़ जाती। बलराम उन लड़कियों को देखता और ठंडी सांस लेता —
— अचानक उसके दिमाग में झटका लगता - नहीं एक शरीफ आदमी को परायी औरतों के बारे में इस तरह नहीं सोचना चाहिए।
बलराम का दिमाग़ अनेकमुखी समस्याओं और मानसिक प्रवृत्तियों का- और उसके गंवई संस्कार पर टेलीविज़न से पड़ते प्रभाव का गड़बड़झाला है। वह किश्तों से परेशान है, आफिस के कामों में व्यस्त और थका है - टेलीविजन की अधनगी छोकरियों के भाव और देह की भंगिमाओं से धैर्य की सीमा पर है और यह भी सोचता है कि ऐसा सोचना और यह सब जो हो रहा है वह पाप और अपराध है वह छ: लड़कों और एक बच्ची का बाप है।
झुग्गी के नीम अंधेरे में लड़कियां देर तक उत्पात मचाए रहतीं। मुश्किल से आँख लगी थी कि एक भड़कदार लड़की चुपके से बलराम के भीतर उतर आयी और कुछ ही देर में उसे परास्त कर के चलती बनी। बलराम सोचता है मैंने यह कैसी मुसीबत मोल ले ली-
टेलीविजन पर देह और भाव-भगिमायें फेंकती अधनंगी छोकरियों ने निम्नमध्यवर्गीय बलराम की निगाह, देह और उसका मन बदल दिया। वह रिसेप्शनिस्ट के 'हाय' कहने पर, पड़ोस की लड़कियों के हंसने पर, मुस्कारने पर खीझता है, परेशान होता है, परास्त होता है। 'परास्त होता है' का मतलब किशोर और असहाय जवांमर्द समझते हैं।
कहानी की चरम घटना का ब्यौरा इस तरह है - भूल न गए हों तो याद दिला दें उसकी बेटी का नाम लक्ष्मी था।
बलराम अपनी झुग्गी पर पहुंचा तो वहां लक्ष्मी अकेली थी। प्रेमो बाज़ार गई थी, लड़के शायद खेलने गये थे, टेलीविजन पर नशीला संगीत चल रहा था और एक अंधनंगी पतुरिया ठुमके लगा रही थी।
बलराम की नजर एक बार पतुरिया पर गयी और एक बार लक्ष्मी पर। बारह की होकर तेरहवें में चल रही है। जिस्म खिलता जा रहा है। लक्ष्मी को देखते ही बलराम का दिमाग घूम गया।
प्रेमो सब्जी लेकर गली के नुक्कड़ पर पहुंची तो उसे एक भयानक चीख सुनाई दी। वह तेजी से लपककर झुग्गी पर पहुंची लहूलुहान लक्ष्मी बेहोश पड़ी थी।
बलराम तेजी से बाहर निकला और पागल की तरह दौड़ता चला गया।
प्रेमो फटी-फटी आंखों से लक्ष्मी को ताकती रही।
टेलीविजन पर अभी तक अधनंगी पतुरिया नाच रही थी।
इस कहानी के ब्यौरे (डिटेल्स) प्रेमचंदीय शैली में है। निम्नमध्यवर्गीय जीवन का चित्रण, पत्नी, पिता, बच्चों, पड़ोसियों की लाग-डाट, आस-पास गंदगी का चित्रण - सब कुछ लगभग वैसा है - बस आखिरी झटका -बिल्कुल अलग है। प्रेमचंदीय, जैनेन्द्रीय, इलाचंद्र जोशी जैसा भी नहीं - यशपाल और मंटो की कहानियों से भी आगे साहसी भिन्नता के अर्थ में है। यह अन्तिम परिणति अगर प्रकृतवादी या अश्लील पोरनो नहीं तो सिर्फ इसलिए कि पिता - बलराम के इस अकाण्ड कार्य का कहानी में संगत नेपथ्य है। टेलीविजन में जो कुछ हो रहा है उससे सबसे अधिक दु:खित और क्षुब्ध बलराम का पिता है।
बलराम का पिता प्राचीनता और पारम्परिक मय्र्यादा का प्रतीक है। वह अंधविश्वासों और असमानता पर टिकी व्यवस्था की ही सही लेकिन उस व्यवस्था के संयम और रिश्तों के आचरण-संहिता का प्रतीक है। वह उपेक्षित है इसलिए क्षुब्ध है। क्षुब्ध है, विवश है लेकिन वह टेलीविजन युग की यानी उपभोक्तावादी मूल्य-विरोधी अपसंस्कृति से क्षुब्ध बना रहता है उसे स्वीकार नहीं करता - बलराम इस मय्र्यादा-विहीनता का शिकार होता है। पाशविक स्नायु-आवेश में वह बेटी-बहन माँ के उन सम्बन्धों की भावना को गँवा देता है जिन्हें मनुष्य के इतिहास और हमारी संस्कृति ने अर्जित किया है - कहानी सिर्फ अपने पात्रों की घटना-कथा नहीं होती। वह थाने में दर्ज की गई एफ.आई.आर. नहीं होती। वह मानवीय-रिश्तों का पाठ होती है। मनुष्य ने अपनी संघर्ष मयी काल-यात्रा में अपनी संस्कृति रची है। पशओं में सिर्फ नर-मादा होते है। वहाँ लैला मजनूं, सावित्री सत्यवान नहीं होते, भाई बहन, मां बेटी, गुरु शिष्या, प्रेमी प्रेमिका नहीं होते। परिवार नहीं होता। परिवार संयम और सहष्णिुता की भाव-भूमि पर ही निर्मित होता है। प्रकृति तो वही है जो बलराम अपनी पुत्री के साथ करता है - कामांध होकर यह आचरण पिता का नहीं, पारिवारिक संस्कृति पूर्ण नर का है। पिता मानव समाज में होता है। पिता जैविक नामकरण नहीं - सांस्कृतिक - पारिवारिक शीर्षक है। अपसंस्कृति के प्रतीक टेलीविजन (टेलीविज़न अपने आप में अपसंस्कृति का प्रतीक नहीं) के प्रभाव में उसे संस्कृति से प्रकृति के आचरण में इतिहास विरुद्ध मनो देश में किसने पहुंचा दिया।
बलात्कार की घटनायें सामाजिक माहौल से अलग-थलग नहीं हैं। कहते हैं कि रोम एक दिन में बनकर नहीं तैयार हुआ था। आज जो अगणित लूट-खसोट, स्मैक, भ्रष्टाचार, चक्कर में डाल देने वाली मोटी तन$ख्वाहें, अकल्पनीय सुविधायें ऐशो इशरत, मंहगाई, किसानों की आत्महत्याएं, कर्ज़ में डूबे छोटे व्यापारियों की मौत, किडनी व्यापार, रईसजादों की हरकतें हैं - यह सब एक दिन में नहीं हुआ है। इसके लिए माहौल तैयार किया गया है। नेहरू के माडल को धीरे-धीरे ध्वस्त किया गया है और किया जा रहा है। सोवियत संघ के विघटन, उदार यानी पूंजीवादियों की पक्षधर आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण ने इसमें प्रभावशाली भूमिका निभाई है। नेहरू को बुद्धिजीवियों से शिकायत थी। वे कहते थे बुद्धिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं। आज स्थिति दूसरी है बुद्धिजीवी भूमिका निभा रहे हैं, अधिकांश बुद्धिजीवियों ने देश की आम जनता के बारे में नहीं पैसे वालों और सत्ता के हित में सोचना शुरू कर दिया है। उत्तर आधुनिकता का चिन्तन विखंडनवादी है। विखंडन वैज्ञानिक पद्धति हो सकती है अगर वह किसी मूल्य की निर्मित को ध्यान में रखकर काम करें। विषम समाज में अस्मिताओं का आग्रह आगे बढऩे का लक्षण है किन्तु आगे बढऩे की दिशा का भी निर्धारण होना चाहिए और इसके लिए अस्मिताओं का परस्पर सह अस्तित्व और सहकर्म,, सहचिन्तन भी होना चाहिए। ऐसा न होने से 'इतिहास की मौत' अपने आप हो जाती है। इतिहास की मौत का मतलब हुआ अपरिवर्तन, शाश्वतता, इतिहास का ठहर जाना - यह अपरिवर्तन, इतिहास का यह अवरोध आज की वर्चस्वधारी शाक्तियों के लिए वरदान है। परिवर्तन नहीं होगा यानी पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उसकी विज्ञापनी अपसंस्कृति हमेशा के लिए बनी रहेगी-सांस्कृतिक, मानसिक, आर्थिक अपसंस्कृति के विभिन्न रूप हैं बलात्कार उनमें एक है। विभिन्न वर्गों में इसका आचरण अपने अपने तौर पर दिखलाई पड़ता है।
सोवियत संघ का विघटन 1991 में हुआ। नई उदार आर्थिक नीति के भारतीय प्रवर्तक नरसिंहराव इसी समय प्रधानमंत्री हुए। उनके प्रधानमंत्री बनने के एक साल ही बाद बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ। उसके बाद नई तरह के विज्ञापन आने लगे। लखपती क्यों करोड़पती बनिये, मेरा बच्चा सबसे मंहगा कपड़ा क्यों न पहने, सैक्सी, सौन्दर्य विधायक शब्द बना, एक विज्ञापन में लड़की ज़िप खोलती है, द्वयर्थक अश्लील दृश्यों की भरमार, बलात्कार के दृश्य हिंसा के साथ। फिल्मों, टेलीविज़न के धारावाहिकों में दबंग, मसलमेन, नायकों का अवतार - और गानों की मत पूछिए। लोक संस्कृति का पैसा बनाने के लिए हिंसक सेक्स के दृश्यों में पूरा उपयोग, धार्मिक जागरणों से तथाकथित धार्मिक गानों में फिल्मी जैसे चेहरों का उपयोग - और इधर महानगरों की सड़कों पर 800 मारुति गायब, लम्बी-लम्बी विशालकाय विदेशी कारों की भरमार - मौत की पताका फहराती बी.एम.डब्ल्यू और रईसजादों की हरकतें - जो दृश्य टी.वी. चैनलों और फिल्मों में दिखाई जा रहे थे वे सड़कों पर भी दिखलाई पडऩे लगे।
और इस माहौल में - इस देश का गरीब आदमी कहां है क्या कर रहा है। टेलीविजन कहानी का नायक क्या कर रहा था - यानी उसका क्या हो रहा था।
वह रोज़ी-रोटी की तलाश में गांव से नगर-नगर से महानगर आ रहा था। वह अनपढ़-अल्पपढ़ था। लेकिन सब कुछ देखता और सुनता था। लोग समझते थे कि उसकी आकांक्षा रोटी-कपड़ा-मकान तक सीमित है। अब वह टेलीविजन देखता था, सड़कों पर विज्ञापन देखता था - उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की 'अल्पवस्त्रा' कन्याओं को देखता था। मेरे घर में काम करने वाला लड़का पढ़ा-लिखा नहीं है लेकिन टाइम्स आफ इंडिया का डेलही टाइम्स वाले पन्ने में, चमचमाती मैगजिनों की अधनंगी माडलों के फोटो छिपछिप कर देखता है। तदनुकूल आचरण भी करता होगा। अधिकांश विचारक सोचते हैं कि गरीब आदमी को सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए। यह संकीर्ण विचारधारा के सीमित दायरे की दुनिया में होता होगा। गरीब का भी इन्द्रिय बोध होता है। असंतुलित, विषय, मूल्य-विरोधी, सामाजिक माहौल में वह भी सांस लेता है। माहौल उसे भी उत्तेजित, क्षुब्ध करता है। सच तो यह है कि गरीब आदमी जिस तरह कम पैसे में बिक जाता है - कांस्टेबल बीड़ी और एक बोतल के लालच में अपना ईमान खो देता है उसी तरह निम्नवर्गीय व्यक्ति यौन क्षेत्र में भी जल्दी विचलित होता है। पढ़ा-लिखा अनुभवी धनिक कायदा-कानून को सरझकर उसे धोका देता है। गरीब अनपढ़ सिर्फ रोटी का भुक्खड़ नहीं होता वह सेक्स का भी मुक्खड़ होता है। सत्ताधारियों ने ऐसा माहौल रचा है जिसमें टेलीविजन क नायक फटीचर बलराम को सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान ही नहीं चाहिए उसे राखी सावंत, प्रियंका चौपड़ा और केटरीना कैफ भी चाहिए। उसे न रोटी कपड़ा, मकान मिलता है न ये सुंदरियां - उसकी पाशविक उत्तेजना जगाने वाली सिर्फ विज्ञापनी छायायें होती हैं - मिलती है उसे अपनी ही बालिका नाबालिग आत्मजायें। असली चोर छिपना जानता है।
प्रेमचंद युगीन कहानियों में हृदय परिवर्तन होता था। हृदय परिवर्तन से आचरण में महान परिवर्तन एक झटके से होता था। नायक पुलिस अफसरी छोड़कर देश को स्वाधीन करने के लिए जेल चला जाता था। मुक्तिबोध व्यक्तित्वान्तरण की बात करते हैं। इस कहानी में भी परिवर्तन हुआ है। किन्तु पिता का बेटी से बलात्कारी के रूप में। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। कहानीकार? नहीं। उसने यथार्थ और उसके प्रवाह को देखने की भयावह यातना भोग कर उसे चित्रित करने का जोखिम उठाया है। कहानी भयावह 'फैंटेसी' है। ब्रख्त ने कहा था जब अंधेरा होगा तब हम अंधेरे का गीत गायेंगे। कहानी का अन्तिम अंश आरोपित होता यदि कहानी के पूर्वांश में ऐसा ताना-बाना न होता। कहानी के पूर्वांश का ताना-बाना इतना अनयासी और स्वाभाविक है कि पाठक को कहानी की अन्तिम घटना का आभास तक नहीं हो पाता। वह वैसा ही है जैसा कि होता है। कहानीकार ने घटनाओं को पात्रों की ही शैली और कहन में जस का तस रख दिया है। 'जस का तस' में पिता का भीषण मानसिक द्वन्द्व भी है। टेलीविजन का असर ऐसा है कि बलराम का मानसिक ढांचा ही बदल गया है। टेलीविजन की अधनंगी छोकरियों को देखकर उसके मन में जो होता है उससे पहले वह अपराधबोधग्रस्त होता है। पडोस की चन्दरो का गदराया शरीर उसके शरीर में हडकम्प मचाने लगता है। रिशेप्सनिस्ट आफिस में काम करने वाली 'नीलम' भी उसे अधनंगी छोकरियां लगती है और आखिरकार उसकी अपनी लड़की भी। राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी 'दस्तक' याद आती है जिसमें कोठे के पास किराये में रहने वाली नायिका अपने पति से कहती है ''मुझे लगता है कि मैं भी वही (वेश्या) हो गई हूँ। जिन दिनों यह कहानी लिखी गई है उन्हीं दिनों मुम्बई में एक मशहूर सुन्दरी की एक फोटो पुरुष के साथ काम-क्रीड़ारत मुद्रा में विज्ञापित हुई थी। कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की तो सुन्दरी के पिता ने कहा - बेटी कला के द्वारा धन अर्जित कर रही है इसमें आपत्ति की क्या बात है?'' हमारे युग का असली फंडामेंटलिस्ट महाजनी सभ्यता पैसा कमाने की मूल्याधंता है। एक तरह का अंध कट्टरवाद अनेक तरह के कट्टरवाद पैदा करता है। यह कट्टरवाद पारिवारिक और मानवीय रिश्तों की भी हत्या करता है। मानवीय रिश्तों की हत्या किए बगैर आप अंधाधुंध पैसा नहीं कमा सकते। तेल या अन्य प्राकृतिक सम्पदा-रूपों की लूट के लिए बलप्रयोग करने में कामयाब नहीं हो सकते। बाज़ार जब हमारी संस्कृति हमारे रहन-सहन के तरीके पर चोट करता है तब हम पहले चौंकते हैं, प्रतिरोध भी करते हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे हमें अपना अभ्यस्त कर देता है।
इसके अनेकानेक उदाहरण हम अनेक दशकों से झेल रहे हैं। प्रतिरोध भी कर रहे हैं। प्रतिरोध के सभी प्रकार सफल नहीं होते, असफल भी नहीं होते।
'टेलीविज़न' कहानी में पिता चिराचरित पारिवारिक मय्र्यादा भंग करता है। यह मय्र्यादा मानव समाज ने कठिन संघर्ष और संयम से अर्जित की थी। कहानी में पिता द्वारा अपनी बेटी के साथ बलात्कार की घटना भयानक प्रतीक है। पूंजीवाद मय्र्यादा, बांध, सीमा को बर्दास्त नहीं कर सकता। अभी दिल्ली के पास नोएडा में जो अबाध कार-दौड़ प्रतियोगिता हुई थी, वह पूंजीवादी साम्राज्यवादी गति का प्रतीक है। जिस सड़क पर यह दौड़ होती है, उसमें लालबत्ती नहीं है, कोई बाई-पास या चौराहा नहीं है। आप सीधे अबाध सबसे आगे- सभी को पीछे धकेल कर लक्ष्य पर जल्दी से जल्दी पहुंचे। इसमें रोक-थाम, गति पर कोई कानून नहीं चलता। आप देखते होंगे कि जब से नई आर्थिक उदारनीति अपनाई गई है, एक एक करके नेहरू युग में स्थापित अधिकांश संस्थान नाकारा बनाए जा रहे हैं। निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के मातहत काम नहीं कर सकता। संसद, विश्वविद्यालय (निजी विश्वविद्यालय नहीं) न्यायपालिका - महालेखा परीक्षक का पद, सी.बी.आई. - इन सबको सत्तानुकूल बनाने के लिए सुधारने की बात की जा रही है। योजना आयोग के बारे में तो अभी एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि योजना आयोग का अध्यक्ष योजना में विश्वास नहीं करता। ये संस्थान समतावादी समाज के निर्माण के साधन के रूप में खड़े किए गए थे। पूंजीवाद समतावादी नहीं, घोर विषमतावादी समाज बनाना चाहता है। आप कहेंगे इन सबका पारिवारिक सम्बन्धों से क्या मतलब? पारिवारिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर विज्ञापन नहीं किए जाते। क्या आप अपने बाल बच्चों के साथ बैठकर टी.वी. देख सकते हैं? धीरे धीरे आप ही इतना बदल जायेंगे की आपको टी.वी. बाल बच्चों के साथ देखने में कोई परेशानी नहीं होगी। रामायण, महाभारत पर भी नए ढंग से यानी बाजारू (बाज़ार के लायक) काम चल रहा है। अपसंस्कृति सिर्फ वर्तमान, भविष्य को ही नहीं, इतिहास को भी कत्ल (बलात्कार) करती है। टेलीविज़न कहानी में बलराम का आचरण आज इतना चौंकाऊ लगता है, जब कहानी छपी थी तब अपठनीय लगती थी। आज के पाठक कहेंगे अरे ऐसा तो चारों ओर होता है- यह अबाध गति है, बाज़ारू अर्थ व्यवस्था द्वारा वांछित अपसंस्कृति की।
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स्वाधीनता आन्दोलन की राजनीति संस्कृति से लगभग अभिन्न थी। कई राजनीतिक नेता लेखक थे और अनेक लेखक राजनीतिक। जवहारलाल नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, डांगे, पी. सी. जोशी आदि का साहित्यकारों से गहरा सम्बन्ध था। वे साहित्य में विशेषत: भारतीय भाषा साहित्यों के पाठक थे। उस समय में प्रेमचन्द ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था। इस समय के राजनीतिक कहने को साहित्यकारों को कभी सम्मानित करते हों पर वे साहित्य के पाठक भी हैं - ऐसा नहीं लगता। किसी विदेशी विचारक ने कहा कि मैंने भारत को सबसे ज़्यादा समझा प्रेमचंद को पढ़कर - स्वातंत्र्योत्तर भारत को समझने के लिए शायद वैसा ही काम परसाई का साहित्य करता है, कम से कम कुछ लोगों के अनुसार। इस टिप्पणी में टेलीविज़न कहानी के बारे में कहा गया है कि वह आने वाली विभीषिका को वर्षो पूर्व देख लेती है। इसी तरह की एक कहानी अमरकांत की 'हत्यारे' थी जिसने 1950 के ही आसपास बेरोजगार नवयुवकों को अपराधीकरण की ओर बढ़ते हुए चिन्हित किया था। वस्तुत: अमरकांत की कहानी में टेलीविजन का कथ्य समाविष्ट है। उसमें नवयुवक मज़दूरीन से बलात्कार करने के बाद उसी झुग्गी-झोपड़ी के व्यक्ति की हत्या करते हैं। 'हत्यारे' इस तरह से टेलीविजन से बहुत पहले आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का संकेत करती है। आज निरन्तर बढ़ते हुए बेकार नौजवानों की संख्या, जिसे नवसाम्राज्यवाद और उसकी आर्थिक नीति अपराध-कर्म में झोंक रही है, हमारे देश की सर्वाधिक भयावह स्थिति है। हम राजनीतिज्ञों और साहित्य के सम्बन्ध की बात इसलिए नहीं करते कि इससे साहित्य का गौरव बढ़ेगा - साहित्य के गौरव घटने की आशंका ज्यादा है। हमारी समझ में राजनीतिज्ञ, हत्यारे, टेलीविजन, मुक्तिबोध, परसाई को पढ़ें तो उनकी देश की स्थिति के बारे में समझ बढ़ेंगी - हमारी यह समझ है।
भूकम्प और सुनामी के खतरे से आगाह करने के लिए पूर्वसंकेतक यंत्र लगाए जाते हैं। साहित्य सामाजिक-ऐतिहासिक भूकम्पों और सुनामियों का पूर्व संकेत करता है। पूर्व संकेत करता है तो उससे बचने का रास्ता भी बताता है। असमान बढ़ोतरी से सामाजिक मनोविज्ञान, नैतिकता, मूल्यों पर क्या असर पड़ता है - यह जानने की जरूरत आज के दृष्टिविहीन सरकारी अर्थशास्त्रियों और सत्ता-पुरुषों को नहीं है। हिन्दी के एक पुराने अध्यापक आलोचक ने कहा था - कविता अर्थियों की औषध है। 'अर्थियों' के श्लेष पर ध्यान दीजिए।
जहां तक हिन्दी कहानी की बात है। हज़रत फ़िराक गोरखपुरी के शब्दों में -
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है।
सच सच होता है, सच है, लेकिन जब उसकी सत्यता पर सवाल उठे तब, उस सवाल की अग्निपरीक्षा की आयु और परिणाम, उस सत्य के साथ खड़े लोगों के जीवट पर निर्भर हो जाती है.
कुछ वर्ष मेरे पूज्य यादवजी को इस दुनिया से भेज दिया गया था. (वो आज-भी होते अगर सत्य के साथ खड़े लोग होते और उनके जीवट होते...)
अब कम से कम मैं अपने सामने ऐसा दोबारा नहीं होने दूँगा!
आदरणीय विश्वनाथ त्रिपाठी जी सदैव स्वस्थ्य रहें.
भरत एस तिवारी
दूर से पहचान लेते है
— विश्वनाथ त्रिपाठी
आजकल हिन्दी कहानी पर कुछ सोचते ही मुझे एक कहानी अदबदाकर याद आ जाती है। उसका नाम है 'टेलीविजन'। अक्टूबर 2005 के कथादेश में निकली थी। कुछ लोगों ने इस कहानी की बात की। मैंने कहानी पढ़ी नहीं हालाँकि कहानी लेखक भीमसेन त्यागी मित्र थे। उन्होंने शेखर जोशी पर 'भारतीय लेखक' पत्रिका का विशेषांक निकाला था। लोगों ने कहानी के बारे में बताया तो मेरा मन उखड़ गया- कहा - चौंकाऊ हैं। मैंने कहानी नहीं पढ़ी। लेकिन पिछले पन्द्रह दिनों से वह कहानी हर रोज कई बार याद आ रही है। जिन लोगों ने यह कहानी पढ़ी है। वे समझ जाएंगे क्यों। यह कहानी पिता द्वारा अपनी 12-13 वर्ष की बेटी से बलात्कार की है। 'टेलीविजन' कहानी आज से 8 वर्ष पूर्व लिखी गई थी। भीमसेन त्यागी की यह अन्तिम कहानी थी। त्यागी बाल बच्चों वाले लेखक थे। वामपंथी विचारों के थे। ज्ञात कहानीकार थे बहुसम्मानित नहीं - स्टार राइटर नहीं थे।इन दिनों समाचार-पत्रों में बलात्कार की घटनाओं के जो ब्यौरे छपते हैं उन्हें देने की जरूरत नहीं है। पाठकों को वे विदित होंगे। लेकिन इन ब्यौरों को पढ़ते हुए टेलीविजन कहानी की याद दिमाग में बहुत बातों की ओर ले जाती है। कहानी अन्तत: गल्प है वह कल्पित होती है अगर किसी की जिन्दगी की किसी घटना या घटना सरणि से हूबहू मिले तो पाठक चौंकता है - इससे बचने के लिए कहानीकार शुरू में ही बता देता है कि पात्र और घटनायें काल्पनिक है कहीं मेल हो तो वह संयोगवश है। लेकिन यदि बलात्कार और मासूम बच्ची और पिता को लेकर ऐसी वारदातों की बाढ़ आ जाए ऐसी घटनायें इतनी अधिक होने लगें कि वह एक प्रवृत्ति लगे तो - यह चाहे जितना दुर्भाग्यपूर्ण हो किन्तु मानना पड़ेगा कि कहानीकार ने इतना पहले इस भयानक प्रवृत्ति को कितनी शिद्दत से महसूस किया था- ऐसी साहसी कहानी लिखने की कितनी यातना उसने भोगी होगी और यह कि कहानीकार में यथार्थ के प्रवाह को देखने की कितनी दुर्लभ क्षमता थी। हिन्दी में हमारे दौर की एकाधिक हिन्दी कहानियां ऐसी हैं जिन्हें परवर्ती दुर्भाग्यपूर्ण सामाजिक प्रवृत्तियों ने ऐतिहासिक और क्लासिक बनाया है। टेलीविजन कहानी को क्लासिक कहना तो अपुष्ट कथन है लेकिन इस कहानी की कुछ और बातों के साथ साथ कई बातें करना ज़रूरी लगता है। कहानी दिल्ली के निकटवर्ती विराट और औद्योगिक नगर नोएडा के मजदूरों की झोपड़ी-झुग्गी की है।
हरौला गांव में लच्छू चौधरी के अहाते में बाहर की तरफ दस दुकानें हैं और अन्दर लम्बोतर सहन, उसके चारों तरफ कोठरियों की कतारें, क्लर्कों, मजदूरों और फुटकर धन्धा करने वालों के कुल बत्तीस परिवार हैं। उन्हीं में स एक परिवार बलराम का भी है। सीलन भरी तंग कोठरी, उसी में खाना-पकाना, नहाना-धोना और घर गिरस्ती के तमाम काम। बलराम ने दहेज में मिले नक्काशीदार पलंग के नीचे ईटें लगाकर हाथ भर उठा दिया है, उस पर मियां-बीबी सोते हैं, नीचे बच्चों की कतार। बलराम का बाप भप्पू कोठरी के बाहर खटिया पर सोता है। जेठ की दोपहरी में लू चलती है गांव के नीम की छांव बहुत याद आती है।
बस्ती में सबसे पहले बालेसर के यहां टेलीविजन आता है। बालेसर टेलीविजन आने पर बस्ती के अन्य लोगों की इज्जत, ईष्र्या, द्वेष का विषय बन जाता है यह भी कि वह कोई न कोई गलत काम करता है इसीलिए टेलीविजन लाने का पैसा है। औरतें इस विषय पर विशेष रूप से कानाफूसी करती हैं। झगड़ा होने पर बालेसर का नाम लिया जाता है। बालेसर तो टेलीविजन ले आया। लेकिन बलराम की नींद हराम हो गई। उसके छ: लकड़े और एक लड़की 10-11 साल की लक्ष्मी उसे रात दिन तंग करते हैं। धीरे धीरे पास पड़ोस के सबके घर टेलीविजन आ गया। बलराम को कर्जा लेते डर लगता था। लेकिन बच्चों की जिद और पत्नी के तानों से आजिज आकर बलराम किश्तों पर टेलीविजन ले आया। बच्चे खुश हुए। बलराम को किश्तें भारी पड़ीं। खाना पीना कम हुआ लेकिन शोर-शराबा बढ़ा।
''टेलीविजन आने से किसी को परेशानी थी तो भप्पू को - भई बल्ले (बलराम को पुकारने का नाम) तू ये कैसी बेमारी ले आया। तेरे बालकों ने पढऩा-लिखना तो कतई बन्द कर दिया है। हर बखत हुडदंग मचाये रहवैं। और इस बहू को भी कैसा चसका लग गया। जब देखो इस डिब्बे से चिपकी बैठी रहवै, मैया, अपणे से नीं देक्खी जाती या बेसरमी। यो तो सव्हेरे कू इसे दफा कर नहीं तो हम वापस गांव चले जावेंगे।''
न टेलीविजन दफा हुआ और न भप्पू गांव गये।
यहां टेलीविजन कहानी की रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण नहीं किया जा रहा है। बल्कि यह समझने की कोशिश की जा रही है कि एक हिन्दी कहानीकार ने आने वाले दिनों की विभीषिका को इतना पहले किस प्रकार समझ लिया। यह अपने आप में आश्चर्यजनक है, ऐतिहासिक सामजिक दुर्भाग्य है देश का और हिन्दी कहानी की भविष्य को, यथार्थ के प्रवाह को देख लेने की अचूक क्षमता का सबूत है। और यह कि क्या हमारे समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के पास ऐसी क्षमता है। और यह क्षमता क्यों है हिन्दी कहानीकार के पास और क्यों नहीं है समाजशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के पास। अपवाद की गुंजाइश तो $खैर हमेशा बनी रहेगी।
''बलराम की मानसिक प्रक्रिया का विवरण कहानी में अनेक स्थितियों में दिया गया है।''
बलराम को फिल्म-विल्म का खास शौक नहीं था, दफ्तर वाले दिन में सारा लहू निचोड़ लेते हैं, शाम को खाना खाते ही नींद आने लगती है। लेकिन घर में टेलीविजन है तो वह भी कुछ देर देख लेता, अच्छा लगता। फुदकती चहकती अधनंगी लड़कियाँ! बलराम उन लड़कियों से अपनी प्रेमों (पत्नी) की तुलना करने लगता। प्रेमो के पास वह सब कुछ है जो एक औरत के पास होना चाहिए - गेंहुआ रंग, पैने नक्श, गठा हुआ जिस्म और भरपूर प्यार। लेकिन टेलीविजन की लड़कियों के मुकाबले वह हमेशा पिछड़ जाती। बलराम उन लड़कियों को देखता और ठंडी सांस लेता —
— अचानक उसके दिमाग में झटका लगता - नहीं एक शरीफ आदमी को परायी औरतों के बारे में इस तरह नहीं सोचना चाहिए।
बलराम का दिमाग़ अनेकमुखी समस्याओं और मानसिक प्रवृत्तियों का- और उसके गंवई संस्कार पर टेलीविज़न से पड़ते प्रभाव का गड़बड़झाला है। वह किश्तों से परेशान है, आफिस के कामों में व्यस्त और थका है - टेलीविजन की अधनगी छोकरियों के भाव और देह की भंगिमाओं से धैर्य की सीमा पर है और यह भी सोचता है कि ऐसा सोचना और यह सब जो हो रहा है वह पाप और अपराध है वह छ: लड़कों और एक बच्ची का बाप है।
झुग्गी के नीम अंधेरे में लड़कियां देर तक उत्पात मचाए रहतीं। मुश्किल से आँख लगी थी कि एक भड़कदार लड़की चुपके से बलराम के भीतर उतर आयी और कुछ ही देर में उसे परास्त कर के चलती बनी। बलराम सोचता है मैंने यह कैसी मुसीबत मोल ले ली-
टेलीविजन पर देह और भाव-भगिमायें फेंकती अधनंगी छोकरियों ने निम्नमध्यवर्गीय बलराम की निगाह, देह और उसका मन बदल दिया। वह रिसेप्शनिस्ट के 'हाय' कहने पर, पड़ोस की लड़कियों के हंसने पर, मुस्कारने पर खीझता है, परेशान होता है, परास्त होता है। 'परास्त होता है' का मतलब किशोर और असहाय जवांमर्द समझते हैं।
कहानी की चरम घटना का ब्यौरा इस तरह है - भूल न गए हों तो याद दिला दें उसकी बेटी का नाम लक्ष्मी था।
बलराम अपनी झुग्गी पर पहुंचा तो वहां लक्ष्मी अकेली थी। प्रेमो बाज़ार गई थी, लड़के शायद खेलने गये थे, टेलीविजन पर नशीला संगीत चल रहा था और एक अंधनंगी पतुरिया ठुमके लगा रही थी।
बलराम की नजर एक बार पतुरिया पर गयी और एक बार लक्ष्मी पर। बारह की होकर तेरहवें में चल रही है। जिस्म खिलता जा रहा है। लक्ष्मी को देखते ही बलराम का दिमाग घूम गया।
प्रेमो सब्जी लेकर गली के नुक्कड़ पर पहुंची तो उसे एक भयानक चीख सुनाई दी। वह तेजी से लपककर झुग्गी पर पहुंची लहूलुहान लक्ष्मी बेहोश पड़ी थी।
बलराम तेजी से बाहर निकला और पागल की तरह दौड़ता चला गया।
प्रेमो फटी-फटी आंखों से लक्ष्मी को ताकती रही।
टेलीविजन पर अभी तक अधनंगी पतुरिया नाच रही थी।
इस कहानी के ब्यौरे (डिटेल्स) प्रेमचंदीय शैली में है। निम्नमध्यवर्गीय जीवन का चित्रण, पत्नी, पिता, बच्चों, पड़ोसियों की लाग-डाट, आस-पास गंदगी का चित्रण - सब कुछ लगभग वैसा है - बस आखिरी झटका -बिल्कुल अलग है। प्रेमचंदीय, जैनेन्द्रीय, इलाचंद्र जोशी जैसा भी नहीं - यशपाल और मंटो की कहानियों से भी आगे साहसी भिन्नता के अर्थ में है। यह अन्तिम परिणति अगर प्रकृतवादी या अश्लील पोरनो नहीं तो सिर्फ इसलिए कि पिता - बलराम के इस अकाण्ड कार्य का कहानी में संगत नेपथ्य है। टेलीविजन में जो कुछ हो रहा है उससे सबसे अधिक दु:खित और क्षुब्ध बलराम का पिता है।
बलराम का पिता प्राचीनता और पारम्परिक मय्र्यादा का प्रतीक है। वह अंधविश्वासों और असमानता पर टिकी व्यवस्था की ही सही लेकिन उस व्यवस्था के संयम और रिश्तों के आचरण-संहिता का प्रतीक है। वह उपेक्षित है इसलिए क्षुब्ध है। क्षुब्ध है, विवश है लेकिन वह टेलीविजन युग की यानी उपभोक्तावादी मूल्य-विरोधी अपसंस्कृति से क्षुब्ध बना रहता है उसे स्वीकार नहीं करता - बलराम इस मय्र्यादा-विहीनता का शिकार होता है। पाशविक स्नायु-आवेश में वह बेटी-बहन माँ के उन सम्बन्धों की भावना को गँवा देता है जिन्हें मनुष्य के इतिहास और हमारी संस्कृति ने अर्जित किया है - कहानी सिर्फ अपने पात्रों की घटना-कथा नहीं होती। वह थाने में दर्ज की गई एफ.आई.आर. नहीं होती। वह मानवीय-रिश्तों का पाठ होती है। मनुष्य ने अपनी संघर्ष मयी काल-यात्रा में अपनी संस्कृति रची है। पशओं में सिर्फ नर-मादा होते है। वहाँ लैला मजनूं, सावित्री सत्यवान नहीं होते, भाई बहन, मां बेटी, गुरु शिष्या, प्रेमी प्रेमिका नहीं होते। परिवार नहीं होता। परिवार संयम और सहष्णिुता की भाव-भूमि पर ही निर्मित होता है। प्रकृति तो वही है जो बलराम अपनी पुत्री के साथ करता है - कामांध होकर यह आचरण पिता का नहीं, पारिवारिक संस्कृति पूर्ण नर का है। पिता मानव समाज में होता है। पिता जैविक नामकरण नहीं - सांस्कृतिक - पारिवारिक शीर्षक है। अपसंस्कृति के प्रतीक टेलीविजन (टेलीविज़न अपने आप में अपसंस्कृति का प्रतीक नहीं) के प्रभाव में उसे संस्कृति से प्रकृति के आचरण में इतिहास विरुद्ध मनो देश में किसने पहुंचा दिया।
बलात्कार की घटनायें सामाजिक माहौल से अलग-थलग नहीं हैं। कहते हैं कि रोम एक दिन में बनकर नहीं तैयार हुआ था। आज जो अगणित लूट-खसोट, स्मैक, भ्रष्टाचार, चक्कर में डाल देने वाली मोटी तन$ख्वाहें, अकल्पनीय सुविधायें ऐशो इशरत, मंहगाई, किसानों की आत्महत्याएं, कर्ज़ में डूबे छोटे व्यापारियों की मौत, किडनी व्यापार, रईसजादों की हरकतें हैं - यह सब एक दिन में नहीं हुआ है। इसके लिए माहौल तैयार किया गया है। नेहरू के माडल को धीरे-धीरे ध्वस्त किया गया है और किया जा रहा है। सोवियत संघ के विघटन, उदार यानी पूंजीवादियों की पक्षधर आर्थिक नीति और भूमंडलीकरण ने इसमें प्रभावशाली भूमिका निभाई है। नेहरू को बुद्धिजीवियों से शिकायत थी। वे कहते थे बुद्धिजीवी अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं। आज स्थिति दूसरी है बुद्धिजीवी भूमिका निभा रहे हैं, अधिकांश बुद्धिजीवियों ने देश की आम जनता के बारे में नहीं पैसे वालों और सत्ता के हित में सोचना शुरू कर दिया है। उत्तर आधुनिकता का चिन्तन विखंडनवादी है। विखंडन वैज्ञानिक पद्धति हो सकती है अगर वह किसी मूल्य की निर्मित को ध्यान में रखकर काम करें। विषम समाज में अस्मिताओं का आग्रह आगे बढऩे का लक्षण है किन्तु आगे बढऩे की दिशा का भी निर्धारण होना चाहिए और इसके लिए अस्मिताओं का परस्पर सह अस्तित्व और सहकर्म,, सहचिन्तन भी होना चाहिए। ऐसा न होने से 'इतिहास की मौत' अपने आप हो जाती है। इतिहास की मौत का मतलब हुआ अपरिवर्तन, शाश्वतता, इतिहास का ठहर जाना - यह अपरिवर्तन, इतिहास का यह अवरोध आज की वर्चस्वधारी शाक्तियों के लिए वरदान है। परिवर्तन नहीं होगा यानी पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषण और उसकी विज्ञापनी अपसंस्कृति हमेशा के लिए बनी रहेगी-सांस्कृतिक, मानसिक, आर्थिक अपसंस्कृति के विभिन्न रूप हैं बलात्कार उनमें एक है। विभिन्न वर्गों में इसका आचरण अपने अपने तौर पर दिखलाई पड़ता है।
सोवियत संघ का विघटन 1991 में हुआ। नई उदार आर्थिक नीति के भारतीय प्रवर्तक नरसिंहराव इसी समय प्रधानमंत्री हुए। उनके प्रधानमंत्री बनने के एक साल ही बाद बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ। उसके बाद नई तरह के विज्ञापन आने लगे। लखपती क्यों करोड़पती बनिये, मेरा बच्चा सबसे मंहगा कपड़ा क्यों न पहने, सैक्सी, सौन्दर्य विधायक शब्द बना, एक विज्ञापन में लड़की ज़िप खोलती है, द्वयर्थक अश्लील दृश्यों की भरमार, बलात्कार के दृश्य हिंसा के साथ। फिल्मों, टेलीविज़न के धारावाहिकों में दबंग, मसलमेन, नायकों का अवतार - और गानों की मत पूछिए। लोक संस्कृति का पैसा बनाने के लिए हिंसक सेक्स के दृश्यों में पूरा उपयोग, धार्मिक जागरणों से तथाकथित धार्मिक गानों में फिल्मी जैसे चेहरों का उपयोग - और इधर महानगरों की सड़कों पर 800 मारुति गायब, लम्बी-लम्बी विशालकाय विदेशी कारों की भरमार - मौत की पताका फहराती बी.एम.डब्ल्यू और रईसजादों की हरकतें - जो दृश्य टी.वी. चैनलों और फिल्मों में दिखाई जा रहे थे वे सड़कों पर भी दिखलाई पडऩे लगे।
मैं पत्थर के पानी होने की बात कर रहा हूँ — विश्वनाथ त्रिपाठी
और इस माहौल में - इस देश का गरीब आदमी कहां है क्या कर रहा है। टेलीविजन कहानी का नायक क्या कर रहा था - यानी उसका क्या हो रहा था।
वह रोज़ी-रोटी की तलाश में गांव से नगर-नगर से महानगर आ रहा था। वह अनपढ़-अल्पपढ़ था। लेकिन सब कुछ देखता और सुनता था। लोग समझते थे कि उसकी आकांक्षा रोटी-कपड़ा-मकान तक सीमित है। अब वह टेलीविजन देखता था, सड़कों पर विज्ञापन देखता था - उच्च मध्य वर्ग और उच्च वर्ग की 'अल्पवस्त्रा' कन्याओं को देखता था। मेरे घर में काम करने वाला लड़का पढ़ा-लिखा नहीं है लेकिन टाइम्स आफ इंडिया का डेलही टाइम्स वाले पन्ने में, चमचमाती मैगजिनों की अधनंगी माडलों के फोटो छिपछिप कर देखता है। तदनुकूल आचरण भी करता होगा। अधिकांश विचारक सोचते हैं कि गरीब आदमी को सिर्फ रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए। यह संकीर्ण विचारधारा के सीमित दायरे की दुनिया में होता होगा। गरीब का भी इन्द्रिय बोध होता है। असंतुलित, विषय, मूल्य-विरोधी, सामाजिक माहौल में वह भी सांस लेता है। माहौल उसे भी उत्तेजित, क्षुब्ध करता है। सच तो यह है कि गरीब आदमी जिस तरह कम पैसे में बिक जाता है - कांस्टेबल बीड़ी और एक बोतल के लालच में अपना ईमान खो देता है उसी तरह निम्नवर्गीय व्यक्ति यौन क्षेत्र में भी जल्दी विचलित होता है। पढ़ा-लिखा अनुभवी धनिक कायदा-कानून को सरझकर उसे धोका देता है। गरीब अनपढ़ सिर्फ रोटी का भुक्खड़ नहीं होता वह सेक्स का भी मुक्खड़ होता है। सत्ताधारियों ने ऐसा माहौल रचा है जिसमें टेलीविजन क नायक फटीचर बलराम को सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान ही नहीं चाहिए उसे राखी सावंत, प्रियंका चौपड़ा और केटरीना कैफ भी चाहिए। उसे न रोटी कपड़ा, मकान मिलता है न ये सुंदरियां - उसकी पाशविक उत्तेजना जगाने वाली सिर्फ विज्ञापनी छायायें होती हैं - मिलती है उसे अपनी ही बालिका नाबालिग आत्मजायें। असली चोर छिपना जानता है।
प्रेमचंद युगीन कहानियों में हृदय परिवर्तन होता था। हृदय परिवर्तन से आचरण में महान परिवर्तन एक झटके से होता था। नायक पुलिस अफसरी छोड़कर देश को स्वाधीन करने के लिए जेल चला जाता था। मुक्तिबोध व्यक्तित्वान्तरण की बात करते हैं। इस कहानी में भी परिवर्तन हुआ है। किन्तु पिता का बेटी से बलात्कारी के रूप में। इसके लिए कौन जिम्मेदार है। कहानीकार? नहीं। उसने यथार्थ और उसके प्रवाह को देखने की भयावह यातना भोग कर उसे चित्रित करने का जोखिम उठाया है। कहानी भयावह 'फैंटेसी' है। ब्रख्त ने कहा था जब अंधेरा होगा तब हम अंधेरे का गीत गायेंगे। कहानी का अन्तिम अंश आरोपित होता यदि कहानी के पूर्वांश में ऐसा ताना-बाना न होता। कहानी के पूर्वांश का ताना-बाना इतना अनयासी और स्वाभाविक है कि पाठक को कहानी की अन्तिम घटना का आभास तक नहीं हो पाता। वह वैसा ही है जैसा कि होता है। कहानीकार ने घटनाओं को पात्रों की ही शैली और कहन में जस का तस रख दिया है। 'जस का तस' में पिता का भीषण मानसिक द्वन्द्व भी है। टेलीविजन का असर ऐसा है कि बलराम का मानसिक ढांचा ही बदल गया है। टेलीविजन की अधनंगी छोकरियों को देखकर उसके मन में जो होता है उससे पहले वह अपराधबोधग्रस्त होता है। पडोस की चन्दरो का गदराया शरीर उसके शरीर में हडकम्प मचाने लगता है। रिशेप्सनिस्ट आफिस में काम करने वाली 'नीलम' भी उसे अधनंगी छोकरियां लगती है और आखिरकार उसकी अपनी लड़की भी। राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी 'दस्तक' याद आती है जिसमें कोठे के पास किराये में रहने वाली नायिका अपने पति से कहती है ''मुझे लगता है कि मैं भी वही (वेश्या) हो गई हूँ। जिन दिनों यह कहानी लिखी गई है उन्हीं दिनों मुम्बई में एक मशहूर सुन्दरी की एक फोटो पुरुष के साथ काम-क्रीड़ारत मुद्रा में विज्ञापित हुई थी। कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की तो सुन्दरी के पिता ने कहा - बेटी कला के द्वारा धन अर्जित कर रही है इसमें आपत्ति की क्या बात है?'' हमारे युग का असली फंडामेंटलिस्ट महाजनी सभ्यता पैसा कमाने की मूल्याधंता है। एक तरह का अंध कट्टरवाद अनेक तरह के कट्टरवाद पैदा करता है। यह कट्टरवाद पारिवारिक और मानवीय रिश्तों की भी हत्या करता है। मानवीय रिश्तों की हत्या किए बगैर आप अंधाधुंध पैसा नहीं कमा सकते। तेल या अन्य प्राकृतिक सम्पदा-रूपों की लूट के लिए बलप्रयोग करने में कामयाब नहीं हो सकते। बाज़ार जब हमारी संस्कृति हमारे रहन-सहन के तरीके पर चोट करता है तब हम पहले चौंकते हैं, प्रतिरोध भी करते हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे हमें अपना अभ्यस्त कर देता है।
इसके अनेकानेक उदाहरण हम अनेक दशकों से झेल रहे हैं। प्रतिरोध भी कर रहे हैं। प्रतिरोध के सभी प्रकार सफल नहीं होते, असफल भी नहीं होते।
'टेलीविज़न' कहानी में पिता चिराचरित पारिवारिक मय्र्यादा भंग करता है। यह मय्र्यादा मानव समाज ने कठिन संघर्ष और संयम से अर्जित की थी। कहानी में पिता द्वारा अपनी बेटी के साथ बलात्कार की घटना भयानक प्रतीक है। पूंजीवाद मय्र्यादा, बांध, सीमा को बर्दास्त नहीं कर सकता। अभी दिल्ली के पास नोएडा में जो अबाध कार-दौड़ प्रतियोगिता हुई थी, वह पूंजीवादी साम्राज्यवादी गति का प्रतीक है। जिस सड़क पर यह दौड़ होती है, उसमें लालबत्ती नहीं है, कोई बाई-पास या चौराहा नहीं है। आप सीधे अबाध सबसे आगे- सभी को पीछे धकेल कर लक्ष्य पर जल्दी से जल्दी पहुंचे। इसमें रोक-थाम, गति पर कोई कानून नहीं चलता। आप देखते होंगे कि जब से नई आर्थिक उदारनीति अपनाई गई है, एक एक करके नेहरू युग में स्थापित अधिकांश संस्थान नाकारा बनाए जा रहे हैं। निजी क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के मातहत काम नहीं कर सकता। संसद, विश्वविद्यालय (निजी विश्वविद्यालय नहीं) न्यायपालिका - महालेखा परीक्षक का पद, सी.बी.आई. - इन सबको सत्तानुकूल बनाने के लिए सुधारने की बात की जा रही है। योजना आयोग के बारे में तो अभी एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि योजना आयोग का अध्यक्ष योजना में विश्वास नहीं करता। ये संस्थान समतावादी समाज के निर्माण के साधन के रूप में खड़े किए गए थे। पूंजीवाद समतावादी नहीं, घोर विषमतावादी समाज बनाना चाहता है। आप कहेंगे इन सबका पारिवारिक सम्बन्धों से क्या मतलब? पारिवारिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर विज्ञापन नहीं किए जाते। क्या आप अपने बाल बच्चों के साथ बैठकर टी.वी. देख सकते हैं? धीरे धीरे आप ही इतना बदल जायेंगे की आपको टी.वी. बाल बच्चों के साथ देखने में कोई परेशानी नहीं होगी। रामायण, महाभारत पर भी नए ढंग से यानी बाजारू (बाज़ार के लायक) काम चल रहा है। अपसंस्कृति सिर्फ वर्तमान, भविष्य को ही नहीं, इतिहास को भी कत्ल (बलात्कार) करती है। टेलीविज़न कहानी में बलराम का आचरण आज इतना चौंकाऊ लगता है, जब कहानी छपी थी तब अपठनीय लगती थी। आज के पाठक कहेंगे अरे ऐसा तो चारों ओर होता है- यह अबाध गति है, बाज़ारू अर्थ व्यवस्था द्वारा वांछित अपसंस्कृति की।
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स्वाधीनता आन्दोलन की राजनीति संस्कृति से लगभग अभिन्न थी। कई राजनीतिक नेता लेखक थे और अनेक लेखक राजनीतिक। जवहारलाल नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, डांगे, पी. सी. जोशी आदि का साहित्यकारों से गहरा सम्बन्ध था। वे साहित्य में विशेषत: भारतीय भाषा साहित्यों के पाठक थे। उस समय में प्रेमचन्द ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था। इस समय के राजनीतिक कहने को साहित्यकारों को कभी सम्मानित करते हों पर वे साहित्य के पाठक भी हैं - ऐसा नहीं लगता। किसी विदेशी विचारक ने कहा कि मैंने भारत को सबसे ज़्यादा समझा प्रेमचंद को पढ़कर - स्वातंत्र्योत्तर भारत को समझने के लिए शायद वैसा ही काम परसाई का साहित्य करता है, कम से कम कुछ लोगों के अनुसार। इस टिप्पणी में टेलीविज़न कहानी के बारे में कहा गया है कि वह आने वाली विभीषिका को वर्षो पूर्व देख लेती है। इसी तरह की एक कहानी अमरकांत की 'हत्यारे' थी जिसने 1950 के ही आसपास बेरोजगार नवयुवकों को अपराधीकरण की ओर बढ़ते हुए चिन्हित किया था। वस्तुत: अमरकांत की कहानी में टेलीविजन का कथ्य समाविष्ट है। उसमें नवयुवक मज़दूरीन से बलात्कार करने के बाद उसी झुग्गी-झोपड़ी के व्यक्ति की हत्या करते हैं। 'हत्यारे' इस तरह से टेलीविजन से बहुत पहले आज की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का संकेत करती है। आज निरन्तर बढ़ते हुए बेकार नौजवानों की संख्या, जिसे नवसाम्राज्यवाद और उसकी आर्थिक नीति अपराध-कर्म में झोंक रही है, हमारे देश की सर्वाधिक भयावह स्थिति है। हम राजनीतिज्ञों और साहित्य के सम्बन्ध की बात इसलिए नहीं करते कि इससे साहित्य का गौरव बढ़ेगा - साहित्य के गौरव घटने की आशंका ज्यादा है। हमारी समझ में राजनीतिज्ञ, हत्यारे, टेलीविजन, मुक्तिबोध, परसाई को पढ़ें तो उनकी देश की स्थिति के बारे में समझ बढ़ेंगी - हमारी यह समझ है।
भूकम्प और सुनामी के खतरे से आगाह करने के लिए पूर्वसंकेतक यंत्र लगाए जाते हैं। साहित्य सामाजिक-ऐतिहासिक भूकम्पों और सुनामियों का पूर्व संकेत करता है। पूर्व संकेत करता है तो उससे बचने का रास्ता भी बताता है। असमान बढ़ोतरी से सामाजिक मनोविज्ञान, नैतिकता, मूल्यों पर क्या असर पड़ता है - यह जानने की जरूरत आज के दृष्टिविहीन सरकारी अर्थशास्त्रियों और सत्ता-पुरुषों को नहीं है। हिन्दी के एक पुराने अध्यापक आलोचक ने कहा था - कविता अर्थियों की औषध है। 'अर्थियों' के श्लेष पर ध्यान दीजिए।
जहां तक हिन्दी कहानी की बात है। हज़रत फ़िराक गोरखपुरी के शब्दों में -
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है।
'पहल' जुलाई २०१३ से साभार
1 टिप्पणियाँ
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