कृष्णा सोबती — मित्रो मरजानी (उपन्यास अंश)

कृष्णा सोबती जी के प्रिय उपन्यास 'मित्रो मरजानी' का यह अंश यह कहते हुए कि वह पितृसत्ता भी ख़तरनाक हो सकती है जिसके केंन्द्र में मातृ-शक्ति हो'... शब्दांकन संपादक

मित्रो मरजानी 

कृष्णा सोबती

उपन्यास अंश



नई उठ घड़ी-भर को बाहर गई। लौटकर सास से कहा — अन्दर मँझली के हँसने की आवाज़ आती है, माँ जी!

धनवन्ती ने आगे सुना नहीं। बहू का हाथ झटक धनी को झकझोरकर जगाया — उठो, जी!

आज इन लड़कों के हाथों बहू की खैर नहीं!

गुरुदास हड़बड़ा उठे — अरे, आधी रात क्या झमेला है ? कुछ बताओ तो!

धनवन्ती ने सहारा दे बिछौने से उठाया और सरदारी को दरवाज़े पर ले आई।

— अरे धनवन्ती के पुत्रो! लोक-जहान सो गया, तुम किन टंटों में ?

भिड़ा किवाड़ खुला तो गुरुदास देखते के देखते रह गए।

मँझली बहू नंगे सिर बैठी चारपाई पर हिन-हिन हँसती थी और बड़ा लड़का बनवारी छाती पर हाथ कसे खड़ा-खड़ा दाँत पीसता था।

गुरुदास गरजे — सरदारी लाल, तेरे होश ठिकाने हैं ? बहू से कह, कपड़ा करे!

बाघ की झपट से सरदारी लाल घरवाली की ओर झपटा कि कड़ी मूठ से बनवारी ने बीच में ही रोक दिया।

गुस्से के मारे गुरुदास थर-थर काँपने लगे — तेरे नालायकों को तो बाद में समझंगा, धनवन्ती, पर यह कह कि उघड़े माथे इन जल्लादों में बैठी तुम्हारी बहू क्या करती है ?

बड़े बेटे ने बड़ी आजिज़ी से माँ की ओर देखा और हाथ से रोककर कहा — कुछ न कहलवाओ, अम्मा, इससे कुछ न कहलवाओ! इसके बोल एक बन्द भी बापू ने सुन लिया तो इस घर में सवेरा न होगा।

— हरे राम! हरे राम, बनवारी लाल, ऐसा भी क्या अन्धेर ? सुनने को जो तुम्हारे बापू नहीं सुन सकते, उसे सुनने को मैं अभागिन ही क्या ज़िंदा हूँ ?

बड़ी बहू ने सास की मिन्नत की — अम्मा, बापू को कमरे में लौटा ले चलो। यह नहले-दहले उनके बस के नहीं!

धनवन्ती ने पति की बाँह थाम ली तो गुरुदास ने सिर हिला-हिला कहा — यह कलजुग है, बाह थाम ला ता गुरुदास न सिर हिलानहला कहा — यह कलजुग है कलजुग! आँख का पानी उतर गया तो फिर क्या घर-घराने की इज्जत और क्या लोक मरजाद ?

सास-ससुर को समझा-बुझा सुहाग बाहर आई तो किवाड़ में से दोनों भाइयों को गुमसुम खड़े देख सहम गई।

अन्दर जा मित्रो से कहा — मित्रो बहन, काहे का झंझट-बखेड़ा है ? देवर जो कहता है, वह मान।

मँझली ने पहले सरदारी की ओर देखा फिर बनवारी की ओर आँखें चमका दीं — अरी मेरी सयानी जेठानी, तुम क्या जानो यह किस्से प्रीति-प्यार के!

बनवारी से सुना नहीं गया। भाई का हाथ पकड़ बाहर खींचते हुए कहा — मँझली को अपने कमरे में सुला ले, सुहाग।

दोनों भाइयों ने जा साथवाले कमरे का किवाड़ भिड़ाया तो मँझली माथे पर हाथ मार हँसी — बुरे माथेवाले! मर्द जन होते तो या चटखारे ले-ले मुझे चाटते या फिर शेर की तरह कच्चा चबा डालते!

सुहाग ने देवरानी की ओर ताका नहीं। खटिया खींच बिछाई और लिहाफ़ डालकर बोली — बहन मित्रो, घनी रात गई। अब चिन्ता-जंजाल छोड़ तनिक आराम कर लो।

मित्रो ने ओठ बिचकाए — चिन्ता-जंजाल किसको ? मैं तो चिन्ता करनेवाली के पेट ही नहीं पड़ी।

छिः — छिः! सुनकर सुहाग के कान जलने लगे। मित्रो उठ खटिया के पास आई। पहले लिहाफ़ उठाया, खेस टटोला, फिर उलट-पुलट सिरहाना टटोल बोली — जिठानी, तुम्हारे देवर-सा बगलोल कोई और दूजा न होगा। न दुःख-सुख, न प्रीति-प्यार, न जलन प्यास... बस आए दिन धौल-धप्पा... लानत-मलामत!

एकाएक आँखों में कोई मद उतर आया। खींच गले की ओढ़नी उतारी। कुरता, फिर सलवार उतार परे फेंक दी और हँस-हँस बोली — बनवारी कहता है, मित्रो, तेरी देह क्या निरा शीरा है — शी — रा! उस नास-होने से कहती हूँ...

— अरे, इसी शीरे में तेरी जान को डंक मारते सों की फौजें पलती हैं!

नई बहू का चेहरा काला-स्याह पड़ गया, कानों पर हाथ रख कहा — हाथ जोड़ती हूँ, देवरानी, मेरे सिर पाप न चढ़ा!

मँझली फटाक बिछौने पर सीधी लेट गई। ऊपर कुछ ओढ़ा नहीं। देख सुहाग के बदन सुइयाँ चुभने लगीं। इस कुलबोरन की तरह जनानी को हया न हो तो नित-नित जूठी होती औरत की देह निरे पाप का घट है।

रज़ाई खींच मुँह-सिर लपेट लिया।

मित्रो ने आवाज़ दी — टुक आँखें खोल, इधर तो निरख, जिठानी!

नई ने मुँह ढंके-ढंके झिड़की दी — इन भाइयों के कान बड़े पतले हैं, री! सुन लेंगे तो ...

मित्रो लेटी-लेटी इतराई — सुन लें, इससे क्या डरती हूँ ? — फिर जिठानी से कहा — बहनेली, इतनी-सी बात मेरी रख लो। बस!

सुहाग ने खीजकर एक बार आँख खोल दी।

सिर उठाया — क्या है, री ?

मँझली लेटी-लेटी उठ बैठी। हाथों से छातियाँ ढंक मग्न हो कहा — सच कहना, जिठानी सुहागवन्ती, क्या ऐसी छातियाँ किसी और की भी हैं ?...

सुहाग का तन-बदन फूंकने लगा। बिछौना छोड़ पास आई और अपने माथे पर दोहत्थी मार बोली — फिटक जोगी, मरे पीछे पता भी न पाएगी कि कभी तू जीती भी थी! दिन-रात घुलती इस औरत की देह पर तुझे इतना गुमान ? अरी, लानत तुझ पर! घर-घर तेरे-जैसी काली-मकाली औरतें हैं। उनके भी तुझ-जैसे ही दो-दो हाथ हैं, पाँव हैं, आँखें हैं और यही तुझ-जैसी दो छातियाँ! क्या तू ही अनोखी इस जून पड़ी है ?

मँझली ने निर्लज्जता से बाँहें फैला दीं — मैं सदके-बलिहारी! अपने जेठ की सती-सावधी नार पर! जिठानी, मेरे जेठ से कह रखना, जब तक मित्रो के पास यह इलाही ताकत है, मित्रो मरती नहीं।

भले स्वभाववाली बनवारी की बहू एकाएक रणचंडी बन आई। कड़ककर कहा — चुप री धर्म-पिट्टी! उठकर कपड़े पहन, नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा!

जिठानी का गुस्सा देख मित्रो ने हँसते-हँसते लीड़े पहर लिये तो सिर हिला-हिला सुहाग जैसे अपने से ही कहती चली — ऐसा पाप-वरत गया कि डोले में लाई, परणायी बहू के ये हाल-हीले! हे जोतोंवाली देवी! इस घर की इज़्ज़त-पत रखना!

फिर आँखें फैला मित्रो से कहा — देवरानी, तेरी किस्मत बुरी थी जो तू आज इन भाइयों के हाथों बच निकली। मर-खप जाती तो तू इस जंजाल से छूटती और वे भी सुरखरू हो जाते । फिर ठुड्डी पर हाथ रख बुरे मुँह पूछा — सच-सच कह, देवरानी, तू इस राह-कुराह कैसे पड़ी ?

मित्रो झिझकी-हिचकिचाई नहीं। पड़े-पड़े कहा — सात नदियों की तारू, तवे-सी काली मेरी माँ, और मैं गोरी चिट्टी उसकी कोख पड़ी। कहती है, इलाके के बड़भागी तहसीलदार की मुँहादरा है मित्रो। अब तुम्हीं बताओ, जिठानी, तुम-जैसा सत-बल कहाँ से पाऊँ-लाऊँ ? देवर तुम्हारा मेरा रोग नहीं पहचानता।... बहुत हुआ हफ्ते-पखवारे... और मेरी इस देह में इतनी प्यास है, इतनी प्यास कि मछली-सी तड़पती हूँ!

सुहाग फटी-फटी आँखों देवरानी को ऐसे तकती रही कि पहली बार देखा हो, कि नाक नक्शा ध्यान में न आता हो, सिर हिला फीके गले कहा — देवरानी, इन भले लोकों को भुलावा दे तुम्हारी माँ ने अच्छा नहीं किया। तब एकाएक मुँह तमतमा आया — देवरानी, बहू-बेटियों के लिए तो घर-गृहस्थी की रीति ही लच्छमन की लीक। जाने-अनजाने फलाँगी नहीं कि ...

मित्रो ने कानों पर हाथ दे आँखें नचाईं — ठोंक-पीट मुझे अपने सबक दोगी तो मैं भी मुँडी हिला लूंगी, जिठानी, पर जो हौंस इस तन व्यापी है...

सुहाग से सुना नहीं गया तो हाथ से टोक दिया — बस, देवरानी!

मित्रो ने सिरहाने पर सिर रखा और आँखें मींच अपने को समझाया — मित्रो रानी! चिन्ता-फिकर तेरे बैरियों को! जिस घड़नेवाले ने तुझे घड़ दुनिया का सुख लूटने को भेजा है, वही जहान का वाली तेरी फिकर भी करेगा!

बन्द आँखों में बनारसी का यार नयामत थानेदार दीख पड़ा। ऊँचा-लम्बा, मुच्छल। पहले पास खड़ा-खड़ा हँसता रहा फिर कड़ककर कहा — अरी ओ सुभान कौर! उठकर बैठ! देखती नहीं, कौन आया है!

— मेरी तरफ से काला चोर आया है। जरा जर के नयामत राय, यह तेरा थाना नहीं, मेरी चौकी है!

नयामत ने बाँह बढ़ा ओढ़नी खींच ली।

— बस ...बस ...बहुत हुआ! पड़ी रहेगी और चौकी लुट जायेगी!

मित्रो ने खुश हो बाँहें फैला दीं — वाह रे कमज़ात बिल्ले, मलाई देख मुँह मारने आया है!

रजाई परे जा गिरी तो सुहाग ने घुड़की दी — ख्याली घोड़े न दौड़ा, देवरानी, सीधी तरह सो जा। अबकी हिलते देखूगी तो ...

मित्रो कुलबुलाई। जी तो हुआ, जिठानी से कहे, जिस भड़वे की सूरत-मूरत मेरे तन-मन में बसी है उस पर तेरा क्या जोर ? पर सोचा, जिठानी मेरी ज़रूर धर्म-सतवाली है। नहीं तो क्योंकर जान लेती कि मैं पड़ी-पड़ी नियामत से जवाब-सवाल करती हूँ!

मित्रो ने भिनसरे आँख खोली तो जिठानी के बदले सास को पास बैठे देख रात की सारी कथा-वार्ता याद हो आई। चमककर बाँहें फैलाईं, अलसाई-सी अंगड़ाई ली और सास को ऐसे घूरा जैसे आँख-ही-आँख में हँस-हँस कहती हो, सासु जी, जवानी कहीं से माँगकर तो नहीं लाई।

आँखें मटका ढिठाई से कहा — मुँह अँधेरे यहाँ कैसे, माँ जी ? मित्रो बिचारी अगले जहान तो नहीं चली कि उसका दीवा-बत्ती करवाने आई हो ?

धनवन्ती कई छिन बहू की ओर तकती रही, फिर सिर हिला बोली — बेटी, मुझ कर्म-जली के ऐसे भाग कहाँ ? इज़्ज़तमान से तेरा साईं तुझे भू पर उतारता तो मैं भी अपनी समित्रारानी को दिल खोलकर रोती, पर फूटी किस्मत मेरी, वह दिहाड़ा मुझे देखना न बँधा था।

— दिन-दहाड़े अभी बहुतेरे आएँगे, माँ जी, सारी चिन्ता-सोग आज ही न निपटा लो।

चौके से सुहाग की हाँक सुन धनवन्ती उठ बैठी और जाते-जाते माथे पर हाथ मार बोली लख लानत है, बीबी मुझे, जिसने तुम्हारी माँ से माथा लगाया!

मित्रो कुछ कहने जाती थी कि द्वार पर जेठ की ऊँची परछाईं देख ठिठक गई। कल रात की बात याद कर मसखरी से छोटा-सा घूघट निकाल बोली — जेठ जी, अपनी जिठानी के तूल तो मैं कहाँ पर एक नजर इधर भी ...


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