लमही का जनवरी-जून (संयुक्तांक) विशेष अंक कथाकार और एंथ्रोपॉलजिस्ट प्रबोध कुमार के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित हैl
कुछ लोग प्रबोध कुमार के लेखक रूप को जानते हैं तो कुछ उनके एंथ्रोपॉलजिस्ट रूप को। अंक से गुजरते हुए हम उनके दोनों पक्षों को जान पाते हैं।
अमृतराय जन्मशताब्दी विशेषांक के बाद यह अंक महत्वपूर्ण तो है ही, इस अंक को निकाल कर विजय राय जी ने जोखिम भी उठाया है। महत्वपूर्ण इन अर्थों में है कि अभी तक किसी ने भी साठ के दशक के इस अप्रतिम कथाकार प्रबोध कुमार, जिन्होंने भारतीय कथा–परम्परा में अपनी लगभग पचास कहानियों और एक उपन्यास— ‘निरीहों की दुनिया’ (प्रकाशक— संजय भारती, रोशनाई प्रकाशन, कांचरापाड़ा) का योगदान देकर, अपने तरह का अनुपम गद्य रचा, कुछ विलक्षण कथा तत्त्वों का समावेश किया, जिनकी कहानियां पाँचवें और छठे दशक में कई साहित्यिक पत्रिकाओं में यथा वसुधा, कल्पना, कृति, समवेत, राष्ट्रवाणी, कहानी आदि— में छपी थीं, जिनका साहित्यिक जीवन प्राइवेट–सा साहित्यिक जीवन भी कहा जा सकता है, की सुधि नहीं ली गई है। विजय राय जी ने 220 पृष्ठों में यह विशेष अंक निकाल कर प्रबोध कुमार के कृतित्व एवम् व्यक्तित्व पर नए ढंग से प्रकाश डाला है।
जोखिम इन अर्थों में उठाया है कि जब पत्रिकाओं के लहीम शहीम विशेष अंक उन रचनाकारों पर निकल रहे हैं, और निकाले जा रहे हैं जिन्होंने कई विधाओं में विपुल लेखन किया है और स्वयं विजय राय जी ने इस अंक के पहले 325 पृष्ठों में अमृतराय जन्मशताब्दी विशेषांक निकाला उसकी तुलना में प्रेमचंद के नाती (दौहित्र) अमृत राय के भांजे लेखक प्रबोध कुमार श्रीवास्तव की जो सामग्री है वह इस परिपाटी के लिए अनुपयुक्त है। इस अंक की कल्पना करना और निकालना मौजूदा परिदृश्य में जोखिम उठाना ही है। उनकी लिखी सामग्रियों, पत्रों व चित्रों को खोज कर, संकलित कर सम्पादित करना, कठिन और श्रमसाध्य कार्य रहा होगा। हम यह कह सकते हैं कि यह आदर और प्रेम भाव से मौन श्रद्धांजलि है।
संपादकीय में प्रधान संपादक विजय राय कहते हैं— ‘प्रबोध कुमार ने अपने को सदैव पार्श्व में रखकर प्राप्तव्य की परवाह किये बिना प्रदेय पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा था। उन्हें गहराई से जानने और समझने के लिए लमही के इस अंक का आयोजन किया।’ आगे लिखते हैं ‘प्रबोध कुमार ने सेवा निवृत्ति के बाद बेबी हालदार जैसी बड़ी रचना को अंजाम दिया, जिसकी परिणति आलो अंधारि बेबी को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कद्दावर लेखिका की पहचान दिलाती है।’
पत्रिका के प्रारंभ में विजय राय जी कथाकार प्रबोध कुमार के जीवन के वे पक्ष खोज कर सामने लाते हैं जिससे पाठक अनजान और कदाचित स्तब्ध है। शीर्षक— ‘प्रो प्रबोध कुमार को विद्वेषपूर्ण तरीके से सेवा मुक्त कर पेंशन से वंचित किया गया’ आलेख द्वारा उनके जीवन के दुखद सत्य का पता चलता है। साथ ही इस बात से हर्ष भी होता है कि ‘डॉ हरी सिंह केंद्रीय विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग में स्थापित है प्रबोध संग्रहालय’।
पत्रिका में कई सर्गों में प्रबोध कुमार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कई आयामों पर प्रकाश डाला गया है। प्रबोध कुमार की कहानी, उपन्यास, समीक्षा, अनुवाद, के साथ ही साथ उनके पत्रों को भी बड़ी खूबसूरती से स्थान दिया गया है, जिसमें प्रबोध कुमार प्रथम पुरुष में आते हैं। समाजवादी चिन्तक और लेखक श्री अशोक सेकसरिया को लिखे दुर्लभ पत्र हैं तो युवा लेखक को लिखे पत्र भी।
प्रगतिशील चेतना से प्रसूत, मील का पत्थर कहा जाने वाला उनका काम ‘आलो आंधारि’ पर विशेष सामग्री है जो शीर्षक ‘आलो आंधारि का अभिवादन, आलो आंधारि(जीवनी): स्केच बुक की खिड़की’(संस्मरण —शर्मिला जालान) में पढ़ सकते हैं। पत्रिका का मुख्य आकर्षण बेबी हालदार से लिया गया लम्बा साक्षात्कार है।
इस अंक का एक पूरा खंड प्रबोध कुमार पर केन्द्रित संस्मरण का है। कृष्णा सोबती और कमलेश की धरोहर को, उनके लिखे को सहेजा गया है। कृष्णा सोबती ने ‘हम हशमत’ में साठ के दशक के लेखक अशोक सेकसरिया, प्रयाग शुक्ल और प्रबोध कुमार को याद किया है। कमलेश उनके कहानी संग्रह – ‘सी सॉ’(रोशनाई प्रकाशन) की लंबी भूमिका— ‘कैवल्य का संगीत’ में लिखते हैं— ‘उन दिनों ‘कृति’ इस लेखन का मंच थी, उसमें भी निर्मल वर्मा की कहानियों के साथ प्रबोध कुमार की कहानियों का मुख्य स्थान था। प्रबोध कुमार की कहानियों में घटनाएं कई स्तरों पर घटित हो रही होती हैं। वे पाठक के मन में परत-दर परत खुलती जाती हैं। घटनाएं इतनी बड़ी भी नहीं होतीं, एक तरह से तो कोई घटना ही नहीं होती। भाषा के स्तर पर ही भाषा के साथ-साथ कथा का आस्वाद मिलता रहता है। यह आस्वाद लेते हुए पाठक आगे बढ़ता हुआ आत्मतोष प्राप्त करता है। कहानियां ऊपर से यथार्थपरक होती हैं। उनमें दैनंदिन जीवन की प्रकृति का, राह चलते संयोगवश मिल गए लोगों का, पक्षियों का वर्णन होता है। ’
संस्मरण एक रोचक विधा है जो पाठक को शिद्दत से जकड लेती है और व्यक्ति विशेष की मुकम्मल तस्वीर बनाने में मदद करती है। यहाँ 18 लोगों के संस्मरण है जिनमें सबके अपने-अपने प्रबोध कुमार हैं। इन लेखों के माध्यम से हम सागर, पंजाब, गुड़गांव, कलकत्ता, पोलैंड आदि जगहों में विचरण करने लगते हैंl प्रबोध कुमार के युवा दिनों के पोलिश मित्र माइकल सोल्का -प्रेजिबिलो का आत्मीय लेख उन्हें समझने के लिए जरूरी है। प्रयाग शुक्ल, गिरधर राठी, आग्नेय उदयन वाजपेयी के संस्मरण को पढ़कर प्रबोध कुमार के साहित्य को देखने का नजरिया बनता है। प्रबोध कुमार के जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं से आत्मीय संवाद अनिल राय, रमेश दीक्षित के संस्मरण से होता है। इसी खंड में प्रबोध कुमार के एंथ्रोपॉलजिस्ट रूप को हम डॉ योगेन्द्र सैनी, डॉ कल्पना सैनी, और डॉ राजेश गौतम की बातचीत के द्वारा जान पाते हैं। परिवार के सदस्यों के लेख— राहुल श्रीवास्तव, प्रभा प्रसाद, जयावती श्रीवास्तव, अनिल राय, चित्रा श्रीवास्तव के हैं, जो उन्हें समझने में हमारी मदद करते हैं। बालेश्वर राय, शर्मिला जालान के संस्मरण जहाँ आत्मीय हैं वहीँ डॉ पी के सहजपाल, डॉ विरेन्द्र पाल सिंह, डॉ कुसुम प्रभा के लेख उन पहलुओं को उजागर करते हैं जिनसे हिंदी साहित्य का पाठक अनजान है।
इस अंक में सिर्फ प्रबोध कुमार ही नहीं है बल्कि उनके पिता वासुदेव श्रीवास्तव प्रेमचंद के दामाद भी उतने ही उपस्थित हैं। उन्हें उदयन वाजपेई और राहुल श्रीवास्तव ने शिद्दत से याद किया हैl
एक खंड में प्रबोध कुमार की पाँच कहानियां, उपन्यास अंश, समीक्षाएं अनुवाद संकलित किए गए हैं। जिसे पढ़कर उनके अनुपम गद्य उनके सोचने समझने के तरीके साहित्य व संस्कृति पर उनके विचार करने के ढंग को पढ़ और देख पाते हैंl
पत्रिका के एक खंड में उनके उपन्यास ‘निरीहों की दुनिया’ पर विस्तार से चर्चा की गयी है। उपन्यास लेखन की दिशा में उन्होंने नयी प्रविधि का इस्तेमाल किया जिसकी खासियत वैज्ञानिक दृष्टि है। हिंदी पाठकों की सौंदर्य दृष्टि को बदलने की कोशिश की है। उपन्यास पर चर्चित उपन्यास कार रणेंद्र कहते हैं— ‘प्रबोध कुमार का यह उपन्यास एक अपूर्व सादे शिल्प के साथ हमारे समक्ष उपस्थित होता है और पंचतंत्र की कहानियों के विस्तार की तरह लगता है। प्रथम पाठ में यह महसूस होता है हम एक आधुनिक काल बोध की कछुए और खरगोश की कहानी पढ़ रहे हैं। इस उपन्यास के फ्लैप पर रेखांकित यह वाक्य खासा मानीखेज है की निरीहों की दुनिया एक भिन्न लोक की देहरी पर हमारी अगवानी करता है जहाँ यथार्थ और गल्प का भेद मिट जाता है। .. उपन्यासकार हमारे सामने दो वंचित समुदाय खरगोश और कछुए की जीवन गाथा के साथ उपस्थित हैं। .. हम देखते हैं कि इन दोनों वंचितों समुदाय के बीच जो सदियों के प्रगाढ़ संबंध हैं उसे बाहर से आया हुआ एक कछुआ जिसे डबल ओ सेवेन कहलाने में गर्व महसूस होता है वह कैसे धीरे-धीरे दुश्मनी में बदलने की कोशिश कर रहा है। उपन्यासकार उसे जिस रणनीति और शब्द जाल का सहारा लेते हुए दिखते हैं वह दरअसल पहचान की राजनीति की रणनीति और शब्दबंध हैं। ’
विख्यात लेखक योगेन्द्र अहूजा कहते हैं —’कछुए और खरगोश की कहानी तयशुदा सीमित अर्थों वाली वाली एक सरल नीति-कथा या बोध-कथा थी लेकिन उसका पुनर्कथन करता हुआ या लघु उपन्यास कोई नीति कथा रूपक कथा नहीं। 130 पेजों का छोटा सा उपन्यास जितना कुछ समेट पाता है, दरअसल उस से बहुत अधिक कहना चाहता है, वह जीवन और अस्तित्व इंसान के अंतर्मन, उसकी कामनाओं सपनों और साथ ही दुर्बलता, ताकत, सत्ताकांक्षा और न्यायप्रियता को उजागर करने वाले किन्ही आधारभूत भावार्थों तक पहुंचना चाहता है। ” भोला सिंह, संजय गौतम के लेख हैं, जिनसे उनके उपन्यास मुकम्मल खाका उभरता है। ’
एक खंड में प्रबोध कुमार की कहानियों पर समग्र रूप से विचार हरियश राय जयशंकर डॉ अंकिता तिवारी और आशीष सिंह ने किया है। प्रबोध कुमार की कहानी पर उदयन वाजपेयी अपने संस्मरण आलेख में कहते हैं –‘प्रबोध कुमार की कहानियाँ उनके चारों ओर फैले बल्कि बिखरे संसार की लय को पकड़ने के प्रयास में लिखी जाती हैं। इसलिए उनकी कहानियों में आदर्शवाद का लेश मात्र भी नहीं है। आदर्शवाद वास्तविकता की लय को पकड़ने के स्थान पर एक अस्वाभाविक लय को वास्तविकता पर आरोपित करता है। जिसके फलस्वरूप वास्तविकता ऊपर-ऊपर से वास्तविक लगते हुए भी कहीं भीतर से किसी हद तक कपोल सृष्टि में तब्दील हो जाती है। प्रबोध अपनी कहानियों में आधुनिक मनुष्य की लगभग उपहासजनक त्रासद स्थिति का पूरी निर्ममता से परीक्षण करते हैं। ’
कथाकार जयशंकर ने कहानियों पर विशद विवेचन करते हुए कहा है— ‘हिंदी का एक ऐसा बिरला कथाकार, जो अपने लिखने में झूठ, शॉर्टकट, लापरवाही, दुहराव, बोझिलता और एकरसता से बचता रहा। जिसने कहानी विधा को अपने ढंग से, अपनी तरह से समृद्ध करना चाहा, भाषा जिसके लिए साध्य भी रही और साधन भी, लिखना जिसके लिए जीना ही रहा और कहानी जिसका यथार्थ भी रही और स्वप्न भी। ”
अंतिम खंड में पत्राचार दिया गया है जिनमें प्रबोध कुमार प्रथम पुरुष में आते हैं। उसमें साहित्य, राजनीति, क्रिक्रेट, स्वास्थ्य, जीवन के सुख-दुख सामने आते हैं, । कई झरोखे और समझने की खिड़की खुलती है।
अंत समय में वे उपेक्षित रहे यह कथन दुःखद हो सकता है पर सत्य है।
अंक के प्रधान संपादक — विजय राय और अंक में सहयोग देने वाले सभी लेखकों, रचनाकर्मी साधुवाद के पात्र हैं।
शर्मिला जालान
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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