अणुशक्ति सिंह की कहानी 'अमरबेल' | Anushakti Singh - Kahani - Amarbel | युवा कहानीकार अणुशक्ति सिंह की कहानी 'अमरबेल' पढ़िए।

बाज़दफ़ा कहानीकार भी जिस कहानी को कहने जा रहा होता है उसके जाल में फंस जाता है, आप भी फँसिए --युवा कहानीकार अणुशक्ति सिंह की कहानी 'अमरबेल' पढ़िए। - सं० 

Anushakti Singh - Kahani - Amarbel (Photo: Bharat Tiwari)



और, अमरबेल:
एक परजीवी लता, जो बबूल, कीकर और बेर के पेड़ों पर पीले जाल की तरह लिपटी रहती है। इसमें पत्तियाँ नहीं होतीं, इसका रंग सुनहरा होता है। अमरबेल का लंबा, पतला और चिकना तना कई पतली शाखाओं से युक्त होता है, जो सहारे वाले पौधे को झुका देता है।

बचपन! चाहतें एक साथ क्रूर और मासूम हो सकती हैं, पहली बार इस बात का पता उस वक़्त ही चला था। मासूम-सी तमन्नाओं की जड़ में हज़ारों निर्दोष उम्मीद दफ़्न हो सकती हैं। न करने की एक चाह, किसी के बरसों के किए को नेस्तनाबूद कर सकती है

कहानी: अमरबेल 

अणुशक्ति सिंह

एक्टिव फेमिनिस्ट राइट्स एक्टिविस्ट। ब्रॉडकास्ट मीडिया और कम्युनिकेशन प्रफ़ेशनल के तौर पर काम करते हुए बीबीसी मीडिया, सुलभ इंटरनेशनल, रेडियो नीदरलैंड्स, ज़ी मीडिया के साथ काम करने का अनुभव। प्रकाशित कृतियाँ- दो उपन्यास 'शर्मिष्ठा' और 'कित कित '। कविता के लिए बिहार का प्रतिष्ठित युवा पुरस्कार, विद्यापति पुरस्कार 2019 व  पहले उपन्यास 'शर्मिष्ठा' को अमर उजाला शब्द सम्मान ‘थाप’ 2021 ईमेल: singh.shaktianu19@gmail.com


पूरी तरह तो नहीं मालूम पर हो सकता है, वह कमरा हस्पताल का है। दवाइयों की बू ने बाक़ी तमाम गंध की उपस्थिति पर पहरा लगा दिया है। हल्का नीला रंग और सफ़ेद, ज़िंदगी ने इन दिनों दो ही रंग बख़्शे हैं। बाहर से कोई शोर आ रहा है। आवाज़ गिजमिजी है। सुनने की बारहा कोशिश पर भी कोई स्पष्ट आवाज़ नहीं आई। 

हर्फ़ों को छानकर सुनने की कोशिश में कब आँख बंद होती गई, याद नहीं। 

बस एक परछाई जैसा कुछ जो ज़हन में बाक़ी रहा। सफ़ेद-नीला पर्दा एक बारगी हिला था। वह सफ़ेद कपड़े वाली कोई ख़ातून थी। नर्स। शायद! शायद क्या? वही होगी। उससे पूछने की तलब हुई। कितने दिन हुए यहाँ? 

पूछने के लिए शब्द इकट्ठा होते, उससे पहले आँखें डूबने लगी। 

अभी इकलौती चीज़ जिसकी दरकार है। वह होश है। केवल होश। इस ख़ातिर सब कुछ छोड़ा जा सकता है। उसका बैंक अकाउंट ख़ाली किया जा सकता है। उसके शेयर्स बेचे जा सकते है। एक-एक चीज़ नीलाम की जा सकती है। पाई-पाई लुटाई जा सकती है। 

शेयर्स! 

कितने दिन हुए उसे यहाँ आए हुए? उसे किसी ने बताया क्यों नहीं कैसा चल रहा है सब? 

फोन, कहाँ है फोन? ऐसे-कैसे उसका फोन उससे दूर किया जा सकता है? कितने का नुकसान हो जाएगा! लोग समझते क्यों नहीं। उसे जाना है। 

नर्स! आई वॉन्ट टू गो होम! 

मुझे ले चलो। अभी... डिस्चार्ज करो। 

नर्स उसकी बात क्यों नहीं सुन रही? 

वह नींद में है। यह सब सपना है। अभी नींद खुल जाएगी। सपना खत्म हो जाएगा। फोन उसके पास आ जाएगा। ज़िंदगी अपनी रफ्तार में आ जाएगी। 

हाँ! यह नींद ही है। एक खराब सपना। ब्लडी नाइटमेयर! 

जैसे बचपन के सारे भोर जैसे थे, वैसे ही होते थे। वही सुबह उठना। वही स्कूल जाना। कितनी बार उसने ऊपर वाले से दुआ की होगी। कितना कुछ मनाया होगा। कुछ अलग हो। न हो तो मम्मी को बुखार आ जाए। पापा को चोट लग जाए। खूब तेज़ बारिश हो इतनी कि शहर डूब जाए। भूकंप आ जाए और स्कूल की छत रात में गिर जाए। बस स्कूल जाने से छुट्टी मिल जाए। एक स्कूल न जाने से बचने की ये चाहतें इतनी क्रूर थीं, बचपन में कहाँ मालूम था। 

पलकों के मूँदने के साथ ही एक काला पर्दा उठता है। देखा हुआ दृश्य फिर से मंचित होता है। इस दृश्य से कोफ़्त होने लगी है। हड़बड़ाकर उठ जाने का मन चाह रहा है। हाथ-पाँव नहीं हिल रहे। छाती पर कोई भारी पत्थर रख गया है। साँस भारी हो रही है। 


रात ख़ूब गिर गई है। उसे कहीं बाहर नहीं जाना था। आज पूरा दिन और रात शांति से कमरे में बिताने की इच्छा थी। गरमा-गरम दाल-चावल का प्लेट स्टडी टेबल के ऊपर रखा हुआ उसकी राह देख रहा था। 

दाल-चावल! उसने दुनिया भर के कई व्यंजन चखे थे। एक दफ़ा विदेश में मशरूम के साथ पोर्क रिब्स भी खा लिया था। इतना स्वादिष्ट कोई शाकाहारी व्यंजन उस वक़्त वहाँ नहीं था। हाँ, दाल-भात की बराबरी में बस वही ठहरता था। 

माँ को फोन करके बताया था कि पोर्क खाया है। माँ दिन भर उदास रही थी। उसकी परंपरा में किसी ने आज तक मांस नहीं खाया था। सात पुश्तों में कोई नहीं था वैसा। हालांकि कई बार काना-फूसियाँ हुई थीं कि छोटे मामा अपने सरकारी दौरों में खूब मांस-मदिरा उड़ाया करते थे। माँ उन्हें जब-तब उसका ताना भी दे दिया करती। हालांकि, माँ के सभी भाई बहनों में अगर किसी ने उनका ख़याल रखा तो वह छोटे मामा ही थे। तमाम ताने भी उनकी हँसती हुई मुखमुद्रा पर शिकन नहीं ला पाते। उनका निर्झर कहकहा घर गुंजायमान रखता। उन कहकहों के बाद माँ होती और उनके ताने। 

ताने जिनकी शुरुआत उनके मांस खाने वाली अफवाह से होती, अक्सर वहाँ पहुँच जाती जहाँ नहीं पहुंचनी चाहिए। माँ ने जाने किन-किन उम्मीदों को छोटे मामा की कमाई से बांध रखा था। भाई बड़ा सरकारी अफ़सर है फिर भी कौन सा सुख मिला मुझे? 

“कौन-सी दुनिया देखी मैंने? कौन से गहने बनवा लिए मैंने? लोगों के मायके से एक से एक साड़ियाँ आती हैं।“ 

मामा मुसकुराते जाते। माँ बिसूरती जाती। मामा हँसते, सूटकेस से कोई तोहफा निकालकर पकड़ा देते। माँ शांत हो जाती। हर बार यह किस्सा यूं ही चलता। न माँ ताने देना, बिसूरना छोड़ती, न मामा उसे छेड़ना। 

ऐसा नहीं था कि माँ को कोई कमी थी। सरकारी हाई स्कूल में शिक्षक पति की आमदनी माँ और उनके दो बच्चों के लिए काफ़ी थी। 

पर माँ... और के बाद भी ‘और’ की इच्छा कई बार रह जाती है। माँ उस ‘और’ का चेहरा थी। जीता जागता चेहरा। उसका ‘और’ एक गहरा समंदर था, जिसका गर्त शायद मेरियाना ट्रेंच से भी नीचे था। संभावनाओं का पूरा एवरेस्ट उसमें पिघल कर लुप्त हो सकता था। 

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संभावना! किसी भी चीज़ के पूरा हो सकने के तमाम अवसर। बहुत संभावना थी कि उस रात टेबल पर रखी दाल-भात की पूरी प्लेट ख़ाली हो जाती। इस बात की भी संभावना थी कि उस प्लेट के ख़ाली होने पर उसे गहरी नींद आ जाती। संभव तो यह भी था कि नींद आती तो सुबह ही आँख खुलती। इन संभावनाओं के साथ यह जोड़ना ज़रूरी है कि सुबह आँख खुलती तो सब वैसा ही रहता जैसा था। जैसे बचपन के सारे भोर जैसे थे, वैसे ही होते थे। वही सुबह उठना। वही स्कूल जाना। कितनी बार उसने ऊपर वाले से दुआ की होगी। कितना कुछ मनाया होगा। कुछ अलग हो। न हो तो मम्मी को बुखार आ जाए। पापा को चोट लग जाए। खूब तेज़ बारिश हो इतनी कि शहर डूब जाए। भूकंप आ जाए और स्कूल की छत रात में गिर जाए। बस स्कूल जाने से छुट्टी मिल जाए। एक स्कूल न जाने से बचने की ये चाहतें इतनी क्रूर थीं, बचपन में कहाँ मालूम था। 

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बचपन! चाहतें एक साथ क्रूर और मासूम हो सकती हैं, पहली बार इस बात का पता उस वक़्त ही चला था। मासूम-सी तमन्नाओं की जड़ में हज़ारों निर्दोष उम्मीद दफ़्न हो सकती हैं। न करने की एक चाह, किसी के बरसों के किए को नेस्तनाबूद कर सकती है। 

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एक अक्स उभरता है। ग्यारह-बारह बरस का एक सलोना सा चेहरा। मोहित! 

सहपाठी! हमउम्र! 

दोस्ती करने की चाह हुई। दोस्ती हो गई। 

पापा की नज़र गई। 

“सक्सेना के लड़के से दोस्ती हुई है?”

पहला सवाल था। 

मोहित सक्सेना सर का लड़का था। सक्सेना सर! पापा के सहकर्मी। चर्चा थी कि स्कूल के अगले हेड मास्टर पापा या सक्सेना सर हो सकते थे। 

मुझे और मोहित को साथ देखने के कई दिनों बाद, मुझे एक लिफाफा दिया गया। कहा गया कि इसे मोहित को दे दिया जाए कि सक्सेना सर के वास्ते कोई ख़त है। 

महीनों बाद पापा ने उस दिन छुट्टी ली थी। यह ख़याल ही खुशी से भर देने वाला था कि आज माँ-पापा साथ वक़्त बिताएंगे। मोहित को वह लिफाफा दे दिया गया। हम अपनी जगहों पर बैठ गए। वार्षिक परीक्षा के आख़िरी पेपर्स चल रहे थे। 

जवाब लिखने में मगन सब। ध्यान अचानक टूटा। क्लास में पापा और हेड मास्टर सर थे। मोहित के बैग को तलाशा जा रहा था। मोहित हतप्रभ। वह लिफ़ाफ़ा जो सुबह उसके हवाले किया गया था, मोहित के बस्ते में था। 

पापा कह रहे थे, “मैंने बताया था न सर। सारे सवाल वही हैं। चाहें तो आप मिला लें।“

हेड मास्टर सर ने मोहित की ओर घूरकर देखा था। उस लिफ़ाफ़े से निकले पन्ने को देखते हुए उनकी त्योरियाँ चढ़ती गईं। मोहित के पापा, यानि सक्सेना सर को बुलाया गया। 

वे पहले परेशान रहे। मोहित को झिंझोड़ कर पूछा लिफ़ाफ़े के बाबत। मोहित सिर झुकाये रोता रहा। 

उसने लिफ़ाफ़ा देने वाले अपने दोस्त का नाम नहीं लिया। 

दोस्ती अचानक चुप हो गई थी। उसके पाँव अपनी जगह जड़ रहे। होंठ सिले हुए थे और आत्मा सो गई थी। 

हफ़्ते के अंदर मोहित का परिवार कहीं और चला गया था। सक्सेना सर ने शायद अपना तबादला करवा लिया था। 

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तबादला! बहुत पुराना लफ़्ज़ रहा है उसकी ख़ातिर । जिसकी याद सक्सेना सर के स्कूल और शहर छोड़कर जाने से भी अधिक पुरानी है। कितना कुछ छूटा है इन तबादलों में... पाँच बरस की उमर का इकलौता दोस्त ‘टफी।‘ टफी से इतनी ही तो दोस्ती थी कि वह रोज का बचा हुआ लंच खा लेता था और बदले में न केवल माँ की डांट से बचाता, जब भी मिलता पूंछ हिलाता घूमता। 

जिस दिन हम शहर छोड़ नई जगह जा रहे थे, टफी उस दिन भी आया था। वह अपने दोस्त से मिलने आया था। लोगों की भीड़ में दूर से देख किकियाता रहा था। दोस्त की कोशिश उसकी आँखों को पढ़ने की थी। टफी को झिड़क कर, माँ ने उसे उठाकर गाड़ी में बिठा दिया था। सब नई जगह जा रहे हैं। ऐसे बहुत सारे टफी मिल जाएंगे तुझे उधर। तबादले ने सबको एक नई जगह तो दे दी, उसे कोई टफी कभी नहीं मिला। न वे सफ़ेद कबूतर जो दाल-चावल खाते। 

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नई जगह! यही! इसी की तो तमन्ना थी। मुश्किल दिन थे। बेहद मुश्किल। चीज़ें बिखर गई थीं। तिनका-तिनका जोड़कर बनाया गया घरौंदा ताश का महल था। ऐसे भरभराकर गिरा था जैसे कभी था ही नहीं। 

उम्मीदें रेशा-रेशा बिखर गई थीं। एक बड़ा दलदल था। सांस डूब-डूब रही थी। गले तक धँसे बदन की ओर ज़िंदगी ने अचानक एक रस्सी फेंकी थी। 

जो ब्याह पिता ने कर्ज़ लेकर करवाया था, वह साल भर के भीतर अपनी ही हवन की अग्नि में समिधा बन आहूत हो गया था। गोद में महीने भर का बच्चा लिए नकारा औलाद, माँ-पापा इस बोझ को सिर से जितना जल्दी हो उतार देना चाहते थे। 

“हमारे पैसे बर्बाद करवा कर, हमारी छाती पर मूंग दल रही है।“

छोटे मामा कहा करते, माँ के पास दुनिया का सबसे मारक हुनर है। उनके ताने इतने तीखे होते हैं कि दुनिया के खतरनाक अपराधी क़ैदी भी इस यातना को न झेल पाएंगे। 

घर के मायने अलग-अलग होते हैं। घर की दीवारों पर सीलन नहीं लगनी चाहिए। कहा जाता है सीलन में फंगस पैदा होते हैं। फंगस बेहद खराब परजीवी होते हैं। जिस भी जगह लगते हैं उसे अंदर से खोखला कर देते हैं। घर में लग जाएं तो घर यातना गृह बन जाता है। 

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यातना गृह! पूरे घर में महीने भर का वह बच्चा इकलौती जगह था, जहाँ सीलन नहीं पहुँच पाई थी। उसे उस बच्चे को एक नई आबो हवा देनी थी। किसी ने उसे शेयर के बारे में समझाया था। गले में शादी की आखिरी निशानी थी। वह गहना जिसकी अहमियत उसके लिए केवल उसके मूल्य बराबर थी। 

उसने काम सीखने में कोई कसर नहीं रखी। उसका धंधा बढ़ता जा रहा था। 

बढ़ते हुए धंधे के साथ माँ-पापा के ‘और’ की चाह भी बढ़ती जा रही थी। माँ का ‘और!’

और गहने! और पैसे! और साड़ियाँ! 

और! और! और! और जो विशाल लहर की तरह रोज उसकी ओर बढ़ आता था। 

पापा रिटायर हो चुके थे। रिटायर होने का लालच के खत्म होने से किसी प्रकार का समानुपाति या व्यत्क्रमानुपाति, किसी तरह का कोई संबंध नहीं था। 

तमाम षड्यंत्रों में सिद्धहस्त पिता के लिए वह मिलियन डॉलर बेबी थी जिसे खूब कमाना आ गया था। खूब कमाने वाली संतान उनके तमाम उल्टे-सीधे शौक को हवा दे सकती थी। 

इन शौक़ों में एक शौक़ सट्टा लगाना भी था। 

उस दिन जल्दी लौटना हुआ था ऑफिस से। पापा दूर कोने में किसी से फोन पर बात कर रहे थे। अमूमन शोर मचाते रहने वाले पिता को उसने दुबका हुआ देखा। 

माजरा समझने के लिए अधिक वक़्त नहीं लगा। अगली भोर कुछ लोग गेट पर थे। उसके पिता के नाम की पर्ची के साथ। पापा के हाथ से कोई बाज़ी निकल गई थी। कुछ लाख की देनदारी आ गई थी। 

दरवाजे पर आये लोगों की धमकी और पिता की घिग्घी बंधी हुई आवाज़ सुनते-सुनते उसे एहसास हुआ कि वह अजीब-सी सीली गंध में डूब गई है। 

उसका दम घुटने लगा। उसे उबकाई आने लगी। अधखुली आँखों से उसे दिखा किसी ने पिता का गला पकड़ रखा है। उसे मोहित याद आया। साथ ही यह भी याद आया कि गला उसके पिता का ही है। 

वह उठी। आगंतुकों से जल्द पैसे चुकाने का वादा किया। 

उसे अपने बच्चे की याद आई। उसके सुरक्षित भविष्य के लिए करवाया हुआ फिक्स्ड डिपाज़ट भी। भविष्य बना लिया जाएगा। वर्तमान को बेहतर करने की कोशिश में बचत के वे पैसे धमकी देने वालों के नाम हुए। 

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पैसे! दाल-भात का पहला ही कौर लिया था उसने। कमरे के गेट पर दस्तक हुई। देखा माँ खड़ी है। पानी का गिलास हाथ में लिए हुए। वह अचकचाकर उठी। 

‘आप क्यों ले आईं? मैं खुद ले लेती ।“

कई सालों बाद पहली बार माँ ने उसे पानी का गिलास पकड़ाया था। शायद वह ही अधिक व्यस्त हो गई थी। 

“नहीं, कोई बात नहीं। पापा को कुछ बात करनी थी।“

खाने की प्लेट टेबल पर रखते नज़रें पापा की ओर उठीं। 

‘इस पर तुम्हारे दस्तखत चाहिए।‘ 

‘क्या है यह’ 

‘ये लोन के कागज हैं। मैं तुम्हारे नाम से एक करोड़ का लोन ले रहा हूँ।‘

“लोन?”

“मगर वापस कौन करेगा?”

“मैं करूंगा कोशिश की लौटा दूँ। मुझे लोन नहीं मिल सकता इसलिए तुम्हारे नाम पर लेना है।“

क्या वह पापा थे? हाँ, वह पापा ही थे। 

पापा का चेहरा कहीं खो रहा था। दीवार पर के सारे फंगस उतरकर एक हो रहे थे। एक बड़ा फंगस। राक्षस जैसा दिखने वाला परजीवी फंगस। 

माँ उसे संतान के फ़र्ज़ समझा रही थी। माँ और पापा का चेहरा एक हो रहा था। परजीवी राक्षस और बड़ा होता दिख रहा था। 

अब भी? 

पूरा जीवन नज़र के सामने कौंध गया। हर बार जब भी उठने की कोशिश की गई, अमर बेल का एक सिरा आकर कहीं से चिपक गया। 

क्या एक बार भी सोचा नहीं होगा, लोन के कागज सामने रखने से पहले? यही तो हुआ है। 

पिता की महत्वाकांक्षा और उसकी खुशियां कभी एक पलड़े में क्यों नहीं रहीं? क्यों उसका वाला पलड़ा महत्वाकांक्षा के भार से दबता रहा? 

माँ अक्सर कहती, बच्चे ही तो उम्मीद होते हैं? 

पर क्या वह उम्मीद भर थी? या अक्षय स्रोत जिसका इस्तेमाल परिवार वाले अपनी इच्छा से जब चाहे तब कर रहे थे। 

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जीवन के कई सालों में पहली बार चेतना ने उसे झिंझोड़ा था। पापा और माँ एक भी लफ़्ज़ आगे कहते उससे पहले लोन के कागज़ के टुकड़े ज़मीन पर पड़े हुए थे। माँ सुबकते और कोसते हुए कमरे से बाहर निकली थी। पापा ने ताना दिया था कि वह केवल अपना सोचती है। 

बौखलाहट में वह बाहर निकल आई थी। अंधेरी धुंध भरी काली रात में उसकी कार सरपट भागती जा रही थी। ज़हन में बचपन का एक किस्सा बार-बार कौंध रहा था। किसी के पास एक मुर्गी थी। रोज सोने के अंडे दिया करती। लालच की पराकाष्ठा में एक दिन मुर्गी के मालिक ने मुर्गी के पेट को ही काट दिया कि अंडर बहुत सारे अंडे होंगे। 

मुर्गी मर गई। नहीं! मुर्गी मुक्त हो गई। उम्मीदों और चाहनाओं से पार! 

क्या हो जो अगर वह भी मुक्त हो जाए? 

सरपट दौड़ती कार कब किस ओर मुड़ जाए किसे मालूम! 

आवेग के तूफान में वह थी, उसकी कार थी। 

कार जब मुक्ति की ओर मुड़ रही थी, ठीक उसी वक़्त बच्चे का ख़याल आया था। 

यह आखिरी स्मृति थी। 

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स्मृति! हस्पताल के उस बेड की कोई याद नहीं। आँखें फाड़कर देखने की कोशिश कर रही है। दीवार पर कोई सीलन तो नहीं। आँखें खुल क्यों नहीं रही? गंध तेज़ क्यों हो रही है। उसे जागना है। पूरी दीवार साफ कर देनी है। वह लगातार कोई पौधा खींच कर अलग कर देना चाह रही है। कैसा है यह पौधा जो चिपटता ही जा रहा है? 

“अमरबेल...”

“शी स्पोक! शी इज़ कमिंग बैक इन सेंसेस!” 

वह शब्द स्पष्ट सुन पा रही है। यह उसी सफ़ेद कपड़े वाली नर्स की उत्साहित आवाज है। 

वह उठना चाह रही है। एक छोटा सा हाथ उसे सहला रहा है। नींद शायद खुल रही है। 

सपना टूट रहा है। हाँ, बुरा सपना! 



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