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उस्ताद राशिद खान की तान से शिमला गूंजा — भरत तिवारी


Ustad Rashid Khan (Photo© Bharat Tiwari)

उस्ताद राशिद खान की तान से शिमला गूंजा

भरत तिवारी



Ustad Rashid Khan (Photo© Bharat Tiwari)

उस्ताद रशीद खान की राग मारवा की तान, शिमला के ऐतिहासिक गेयटी से होती हुई शिमला की हवाओं में, बुधवार की शाम, इस तरह घुल गई, कि भरे हुए हाल के अन्दर के श्रोताओं की मंत्रमुग्धता, थियेटर के बाहर इंतज़ार करते श्रोताओं और सैलानियों को भी उस्ताद की आवाज़ की गहराई में उतार के गई।

Rupali Thakur (Photo© Bharat Tiwari)

सरकारें जब कला और संगीत के प्रति अपने दायित्व को निभाती नज़र आती हैं, तो सुखद आश्चर्य होता है। देखा जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि संगीत, गायन, नृत्य आदि कलाओं को अनादिकाल से बढ़ावा और सरंक्षण दिए जाने की ज़िम्मेदारी अलग-अलग समय की सरकारों —  कलाप्रेमी राजाओं से लेकर नवाबों तक, और कमोबेश अंग्रेजों से लेकर आज़ाद भारत के विभिन्न सरकारी महकमों तक — ने ही सम्हाली है।

Lt Gen R K Soni, Dr. Vinay Mishra, Ustad Rashid Khan

छोटे शहरों में अब, राजाओं-नवाबों के समय की तुलना में, संगीत आदि को कम बढ़ावा मिलना, राज्य की, संस्कृति के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक से पूरा नहीं किया जाना है। ऐसे में ‘भाषा एवं संस्कृति विभाग, हिमाचल प्रदेश’ का शिमला में, 5 दिन का ‘शिमला शास्त्रीय संगीत उत्सव’ मनाया जाना, राज्य का अपनी ज़िम्मेदारी को समझना दिखाता है। 4 से 8 अक्तूबर तक होने वाले इस उत्सव का यह चौथा वर्ष है। कभी हिन्दुस्तान की ‘गर्मी-की-राजधानी’ होने वाले पहाड़ी शहर, शिमला के संगीत प्रेमी उत्सव शुरू होने के इंतज़ार में थे। उत्सव पर अनुराधा ठाकुर, प्रमुख सचिव, कला भाषा और संस्कृति ने ठीक कहा, “हिमाचली संस्कृति में समाज और संगीत का गहरा रिश्ता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान कलाकारों को शिमला का जुड़ाव रहा है, राष्ट्रीय स्तर के संगीत समारोह के लिए शिमला एक माकूल शहर है।“


‘शिमला शास्त्रीय संगीत उत्सव’ में, शास्त्रीय संगीत की महत्ता को समझते हुए, एक दिन में एक कलाकार का गायन होना, कला को श्रोताओं तक पूरी तरह पहुंचाता है। क्योंकि एक समय में एक से अधिक प्रस्तुतियां होने पर, बीच का समय, संगीत-रस में डूबे श्रोता के ध्यान को पहले तोड़ता है और श्रोता को पुनः किसी अन्य के संगीत से जोड़ने की उम्मीद रखता है। इसके अलावा गायक और श्रोता के बीच जुड़ाव एक घंटे के गायन में बनना संभव नहीं है, क्योंकि आधा-घंटा तो शास्त्रीय संगीत को, गायक को, माहौल बनाने में ही लग जाता है। कार्यक्रम का शाम 6 से रात 8:30 तक होना, यानी श्रोता को, पहले ज़माने की तरह, संगीत में डूबे 150 मिनट मिले।

Ustad Rashid Khan, Ustad Murad Ali Khan (Photo© Bharat Tiwari)

उस्ताद राशिद खान की ज़बरदस्त-ज़ोरदार आवाज़ से 4 अक्तूबर को समारोह की शुरुआत हुई । उस्ताद ने शुरुआत राग मारवा से की उसके बाद याद पिया की आयी, मिश्र पहाड़ी में ठुमरी, और अंत अपने अपने बेहद लोकप्रिय गाने 'आओगे जब तुम ओ सजना' से की। संगत में, तबले पर पंडित शुभांकर बनर्जी, सारंगी पर उस्ताद मुराद खान,  और हारमोनियम पर डॉ विनय मिश्र थे।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि लेफ्टिनेंट जनरल आर के सोनी तथा कलाकारों का स्वागत भाषा एवं संस्कृति विभाग की निदेशक रूपाली ठाकुर ने किया।

वीरवार को शिमला के अपने उस्ताद शुजात खान का सितार वादन है।


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ख़तावार: जवाब तो देना होगा — भरत तिवारी


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रवीश ने मोदीजी को ख़त लिखा, तो उनको सुशांत सिन्हा जी ने, तो अब मैं सुशांत सिन्हा जी को, क्योंकि जवाब तो देना होगा

 — भरत तिवारी 




सुशांत जी, जयसिया राम!
     औरअब सीधे मतलब पर — अर्थात  :

अपना क़द ऊंचा नहीं कर सके, तो दूसरे के ऊंचे क़द को, खींच कर छोटा करने की सोचना, मूर्खतापूर्ण है। सुशांत भाई आपके व्यक्तित्व में क्या-क्या ऐसा है कि आप की और रवीश की आपस में नहीं निभी होगी, वह सब आपने अपने ख़त में लिख दिया है, हो सके तो अपने पत्र को, अपनी कमियाँ देखने और सुधारने के लिए पढ़िए। यकीन मानिये, आपका पत्र रवीश को लिखा पत्र नहीं बल्कि डॉक्टर का, आपके लिए लिखा, परचा है।

रवीश बेशक दो हैं, (वैसे हम सब दो हैं, आप-भी) एक वह रवीश जो पत्रकार है, और दूसरा वह रवीश, जो एक सामान्य इंसान है।

हमारी किसी इनसान के लिए पसंदगी या नापसंदगी, हमारा अपना निर्णय होता है। कोई इनसान किसी को बहुत अच्छा, और वही इनसान किसी दूसरे को बहुत बुरा लग सकता है, यह हमसब जानते हैं।

किसी पत्रकारिता के लिए, हमारी पसंदगी या नापसंदगी, हमारी सोच और हमारी विचारधारा का निर्णय होती है। पत्रकारिता के कारण, कोई पत्रकार किसी को बहुत अच्छा, और वही पत्रकार किसी दूसरे को बहुत बुरा लग सकता है। किसी पत्रकार को नापसंद किये जाने का, हमारा निर्णय, यदि हमारे, उसके इंसानी-पक्ष की नापसंदगी के कारण है, तो क्या यह सही है ?

लोकतंत्र में, सत्ता के खिलाफ बोलना, सत्ता को उसकी कमियां दिखाना, बतलाना, कितना मुश्किल काम है, अगर आपको यह नहीं पता है तो एक बार अपने चैनल पर यह करने की कोशिश कीजिए, आपको सब समझ में आ जाएगा (हो सकता है आप समझते हों तभी ख़त लिखा...) यह आप सत्ता की खिलाफ़त नहीं कर सकते। वह जिसे पत्रकारिता कहते हैं, इस समय, पत्रकारों की समझ से गायब है। आसान जिंदगी की चाहत में, पत्रकारिता के कठिन रास्ते को, ओवरब्रिज बनाकर आसान तो कर दिया है, लेकिन उस ओवरब्रिज पर — जिस पर सत्ता की मखमली कालीन बिछी हुई है — कुछ गिने-चुने पत्रकार पांव नहीं रखते। वह नीचे के, कठिन रास्ते पर चल रहे होते हैं, यह वही रास्ता है, जिसके रोड़े समाज को लहूलुहान कर रहे होते हैं। रोड़े हटाने और अनभिज्ञ जनता को उन में दबकर मरने से बचाने के बजाय, जो पत्रकार मखमली ओवरब्रिज पर चढ़े, नीचे गड्ढों को भरते पत्रकारों पर हमला कर रहे होते हैं, वह पत्रकार नहीं है: सत्ता के दलाल है।

रवीश को निजी तौर पर जितना मैं जानता हूं, वह थोड़ा ही है, लेकिन उस थोड़े में भी, मुझे यह अच्छी तरह मालूम है कि रवीश किसी की सहायता कर सकने का, झूठा दावा नहीं करते, हमारे यहां कहावत है: दाता से सूम भला जो ठावें देय जवाब। रवीश का एक इंसान के रूप में, एक दोस्त के रूप में, सहायता से इंकार कर देना, कितना गलत है, और कितना सही, यह निर्णय हम नहीं ले सकते। झूठी दिलासा देने के बजाय सत्ता के सच्चे-झूठ का पर्दाफाश अधिक ज़रूरी है।



मुझे नहीं समझ में आता कि आप को, इस बात से क्या दिक्कत हो सकती है, जब कोई इंसान अपनी मेहनत के बदौलत किसी ऊंचाई पर पहुंचता है, तो वह क्यों खुश नहीं हो, वह क्यों अपनी खुशियों का इजहार, अपने माता-पिता से नहीं कर सकता? आपका अनुभव अलग हो सकता है, किंतु मेरा अनुभव यही है कि संतान के आगे बढ़ने पर, सबसे ज्यादा खुश, उसके माता पिता होते हैं, अपने संतान को ऊंचाई पर पहुंचा देखने पर, मां बाप, जितनी खुशी से, जितने उल्लास से और जितने बच्चे बनकर अपनी संतान की उपलब्धियों को बता रहे होते हैं, वह मार्केटिंग नहीं कर रहे होते हैं, वह खुश होते हैं। आखिर किस बेटे की बात आप कर रहे हैं जो अपनी उपलब्धियों को पिता से ना बताएं। या पिता को बताने के बहाने हम सबको न बताये, आपको इसमें जो दिख रहा है, उसका दूसरा पक्ष भी है: जब कोई, जमीन से जुड़ा, अपने अनुभवों को, दूसरों से साझा करता है तब वह हजारों-हजार उम्मीदों को पोषित करता है। हम, सफल लोगों की, आत्मकथाएं, किसलिए पढ़ रहे होते हैं? आपके हिसाब से तो उन सारी आत्मकथा के नायक अपने को ‘आई एम अ सेलेब्रिटी’ बता रहे हैं ?

हम पेशा लोगों की, साथियों की तनख्वाहें, हम पेशा लोगों की और साथियों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं! जितनी जलन, साथी की तनख्वाह के बढ़ने पर हो रही होती है, उतनी और कहीं नहीं, यह यूनिवर्सल है, माने आप अकेले नहीं हैं। हां, तब आप अकेले हो गए, जब आप रवीश की तनख्वाह को लेकर, अपने दुख को, अपने ख़त में लिखते हैं...

मुझे लगता है आप पत्रकारों की हत्याओं से अनभिज्ञ हैं। ज़रा पता कीजिए, मोदी-सरकार बनने के बाद से, सत्ता के खिलाफ लिखने वाले, कई पत्रकारों की, निर्मम हत्या हुई है। जो लोग मखमली ओवरब्रिज पर हैं, वह प्रोटेक्टेड है। लेकिन नीचे जहां देश है, वहां हत्याएं हो रही हैं और रवीश ही नहीं, उनके जैसे और भी लोग हैं, जिन्हें लगता है कि उनकी जिंदगी उतनी सुरक्षित नहीं है। यह अकारण नहीं है : लोगों को बाकायदा फोन आते हैं, इमेल आती हैं, सोशल मीडिया पर खुलेआम धमकियां मिलती हैं, महिला पत्रकारों को बलात्कार की धमकी दी जाती है। आपको शायद ना पता हो मगर इन धमकियां देने वालों में, ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदीजी ट्विटर पर फॉलो करते हैं, जिनकी तस्वीरें सरकार के मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक के साथ खींची होती हैं। यह आपको नहीं पता है! क्योंकि, अगर आपको पता होता तो आप के मन में, रवीश द्वारा प्रधानमंत्री को लिखी गई चिट्ठी पढ़ने के बाद, उठने वाले सवाल नहीं उठते; अगर आपको पता होता तो आप बीमार रवीश को नहीं बल्कि उस मानसिकता को, जिसके कारण पत्रकारों की हत्याएं हो रही हैं, और उन सबको, जो इस मानसिकता को पोषित कर रहे हैं, बीमार मानते और लिखते।

आप कहते हैं कि ‘टीवी पर गरीबों का मसीहा दिखने और सच में होने में फर्क होता ही है’, यह पढ़ने के बाद मुझे समझ नहीं आ रहा कि आपने यह बात रवीश के लिए लिखी है, या फिर उसके लिए जिसे बकौल आपके ‘रवीश चुनौती देकर हीरो दिख रहे हैं’?

संस्थान की बातों को खत में आपने किस कारण से लिखा है, यह आप ही जानते होंगे, क्योंकि संस्थानों को जानने वाला, यह जानता है कि संस्थानों की अपनी-अपनी राजनीति होती है, जिससे बाहर के लोगों का कोई लेनादेना नहीं होता, हां यह है कि जो नहीं जानता रहा होगा वह अब आपके ख़त से जान सकता है।



आप का एक किस्सा अच्छा लगा जिसमें आप बताते हैं कि आपने कोई फेसबुक पोस्ट प्रधानमंत्री के फेवर में लिख दी थी और आपको नौकरी से निकाले जाने की धमकी दे दी गई थी। वह धमकी थी यह तो आप खुद ही कह रहे हैं, लेकिन उस पोस्ट को लिखने का क्या फायदा हुआ, यह आज हमें दिख गया।

खैर मैं यह सब इसलिए लिख रहा हूं कि वह कुछ पत्रकार जो मखमली ओवरब्रिज पर चारण- भाट की तुरही बजा रहे हैं, वह राजदीप सरदेसाई, अभिसार शर्मा, ओम थानवी, सागरिका घोष, पुण्य प्रसून बाजपेई, रवीश कुमार, सिद्धार्थ वर्धराजन, श्रीनिवासन जैन आदि नीचे खड़े पत्रकारों को घेरने की कोशिश, नहीं करें। आप आनंद में रहिये, इन्हें और हम सब को, बीमार लोगों की बीमारियां बताने, और इलाज करने दीजिए, क्योंकि अगर देश बिस्तर पर पड़ गया तो उसे उठाने की शक्ति आप में नहीं है।

धन्यवाद
भरत तिवारी
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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कि मैं और मेरा कुछ नहीं है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना


photo: dnaindia.com

तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे...

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। — सत्येंद्र प्रताप सिंह 

विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 5

#विपश्यना, एक संस्मरण: पार्ट 1




विपश्यना की इस अवधि के दौरान सुबह 4 बजे उठकर फ्रेश होना व ब्रश करके धम्म हॉल में साढ़े चार बजे पहुंचना सबसे कड़ी सजा और एक साथ कराहती हुई तीन बार सुनाई देने वाली भवतु सब्ब मंगलं की आवाज कैद से रिहाई लगने लगी। अलार्म घड़ी की जरूरत पड़नी ही बंद हो गई। धम्म सेवक की धमक और उनकी घंटी की टुनटुनाहट का एक नैतिक दबाव होता था, जिसमें सुबह सबेरे उठ जाना पड़ता था। तीसरे रोज मे लगने लगा कि घंटी बाबा घंटी बजाकर दफा हो जाएं, आज तो मैं नहीं जाने वाला। घंटी बाबा ने उस रोज दरवाजा भी पीट दिया। हालांकि गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन मैंने दरवाजा खोलकर चींखने चिल्लाने और घंटी बाबा को खदेड़ देने के बजाय उठकर मेडीटेशन हॉल में जाने में ही भलाई समझी। जल्दी जल्दी फ्रेश होने के बाद करीब साढ़े 5 बजे हॉल में पहुंचा। उस वक्त तक असिस्टेंट टीचर लोग आकर बैठ चुके थे।




करीब एक घंटे तक ही ध्यान करना पड़ा, उसके बाद भवतु सब्ब मंगलं और साधु साधु हो गया। ध्यान कोई खास बोझिल नहीं लगा। साढ़े छह बजे नाश्ता करने के बाद कपड़े लेकर कमरे पर आया और नहाने के बाद सोया भी। मन में यह चल रहा था कि सीरियस होकर ध्यान लगाना चाहिए। इतने दिन तक घर छोड़कर यहां रह रहे हैं तो संभव है कि ध्यान लगाने से कुछ सकारात्मक हासिल हो जाए।

यह सब सोचते हॉल में पहुंच गया। लेकिन सब दर्शन धरा का धरा रह गया, जब पालथी मारकर बैठने की बारी आई। हालांकि मैं अकेला नहीं था, तकलीफ ज्यादातर लोगों को हो रही थी। तीन घंटे बैठने के दौरान एक एक घंटे के अंतराल पर 5 मिनट की दो छुट्टियां होती थीं। इस दौरान बेचैनी ने लोगों को शायद कुछ नया ईजाद करने को मजबूर किया, जिससे ध्यान केंद्रित हो सके। मैंने पाया कि कुछ लोग जब सीधे बैठते थे तो अंगूठा और पहली उंगली मिलाकर गोल आकृति बनाते थे, जैसा कि बुद्ध के फोटो में मिलता था। उस ध्यान की तकलीफ में बुद्ध बनने की दिशा में यह अच्छा प्रयत्न लगा। कुछ लोग ऐसे भी दिखे, जो एक हाथ के ऊपर दूसरा हाथ रखकर बैठते थे। यह भी बुद्ध की एक मुद्रा है, शायद इससे वह लोग बुद्ध हो जाने और दुखों से मुक्ति पा जाने की फीलिंग लेते थे।

ऐसा नहीं कि सभी लोग बेचैन ही रहते थे। अगली दो पंक्तियों में जो बैठे थे, वे ज्यादातर सीरियस रहते थे। उन्हें किसी कुर्सी की जरूरत भी नहीं हुई। एक अधेड़ से व्यक्ति तो बिल्कुल 90 अंश पीठ सीधी करके बैठे रहते। इतना ही नहीं, वह बाकायदा पैंट शर्ट पहनकर बैठते। बाल तो उनका बेहद करीने से सजा रहता। पूरी खोपड़ी के ऊपरी हिस्से का बाल उड़ चुका था। बाईं ओर कान के पास बचे बालों के अवशेष को वह कुछ ज्यादा बढ़ाए हुए थे। इतना बड़ा कि उस अवशेष बाल की लड़ियों से अपने गंजे सर को ढंकते हुए दाहिने कान की ओर ले जाते थे। वह भी बड़े सलीके से चिपके हुए। ऐसा लगता था कि कोई क्रीम लगाकर उसे गंजी खोपड़ी पर फिक्स कर लिया गया हो। कहने का मतलब यह कि अगली पंक्ति में बैठे उस अधेड़ साधक के ऊपर रूटीन बदल जाने का कोई असर नही था और वह बड़ी गंभीरता से साधना करते थे। उनकी मुद्रा में कोई बदलाव कभी नहीं आया।
हां, मैं जरूर पीड़ा में था। जब पीड़ा ज्यादा होती तो मैं अगली पंक्ति का निरीक्षण करता। राहत मिलती थी। यह फीलिंग आती कि मैं तो पहली बार आया हूं... मेरे आगे बैठे लोग तो दूसरी, तीसरी बार फंसे हैं। यह सोचकर सुकून मिलता। अगली पंक्ति में बेचैन लोगों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम थी। पहली बार आए साधकों की हालत ज्यादा खराब थी। यह सब मुझे बहुत फनी लगा। 3 घंटे बीत गए।




इस रोज मैंने पहले जाकर थोड़ा आराम किया, फिर खाने पहुंचा। मकसद यह था कि लंबी लाइन से बचा जा सके। लाइन से बच भी गया। लेकिन मुझे खाना खाने में ज्यादा ही वक्त लगता है। खासकर खाना अगर मुंह के अनुकूल न हो तो समय लग जाता है। खाने में मुझे करीब 45 मिनट लग गए। सब्जी-रोटी निगलने में दिक्कत होने की वजह से। सवा बारह बजते ही एक धम्म सेवक धमक पड़े। उन्होंने बड़े प्यार से नाम पता पूछा। पता से आशय गृह जनपद या जन्म स्थान से या आधार कार्ड पर लिखे पते से नहीं था। उन्होंने इतना जानना चाहा कि विपश्यना केंद्र में रहने के लिए मुझे कौन सा आवास आवंटित हुआ है। उन्होंने एक पर्ची काट दी और मुझे थमा दी। उन्होंने कहा कि 12 बजे धम्म हॉल में गुरु जी को दे दीजिएगा।

मैं 12 बजे जाने के मूड में नहीं था, लेकिन एक पर्ची धम्म सेवक ने थमाई थी, एक पर्ची पहले से ही मेरे आवास के बाहर लगी थी कि धम्म हॉल में पहुंचें। मतलब गुरु जी का बुलौवा पहले से चिपका था। आखिरकार मुझे गुरु जी के पास जाने का फैसला करना पड़ा। उसी ध्यान कक्ष में। उसी मुद्रा में गुरु जी के सामने बैठ गया, जैसे इसके पहले बैठा था। उन्होंने ध्यान के बारे में पूछा। मैंने कहा कि यह बहुत बोझिल काम है। इसमें कैसे मन लग सकता है, कैसे ध्यान केंद्रित हो सकता है। गुरु जी ने कहा कि पहले की तुलना में तो आप अब ज्यादा सीरियस बैठते हैं। आंख भी बंद रखते हैं। पहले तो आप दूसरों का मुंह ही देखते रहते थे। इतना बदलाव तो दिख रहा है। मैंने भी हामी भरी कि अब थोड़ा सीरियसली बैठने की कवायद कर रहा हूं।

मैंने गुरु जी को अपनी समस्या से भी अवगत कराया। तीसरे दिन मुझे पता चल गया कि यह सड़ी सी मोजे की बदबू कहां से आती है। रोजाना तेज बारिश की वजह से लोगों के पैरों की नमी हॉल में आती थी और उससे आसन में सिलन लग गई थी, जिससे हल्की बदबू महसूस होती थी। तीन रोज तक तो मैं यह ही सूंघता रह गया था कि मेरे आस पास बैठा वह कौन आदमी है, जिसका मोजा बास मारता है। इस समस्या का समाधान तो गुरु जी भी नहीं कर सकते थे। मैंने यह समस्या कही भी नहीं। दूसरी समस्या यह थी कि खूबसूरत और हवादार बने धम्म हॉल की सभी खिड़कियां धम्म सेवक लोग बंद कर दिया करते थे। इसकी वजह से हॉल में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ जाता था और बड़ी जोर की नींद आती थी। ऐसा अनुभव कभी कभी ऑफिस में भी हुआ है। छुट्टियों में टेक्निकल स्टॉफ देर से आते हैं और ऑफिस का एसी ऑन नहीं होता है तो बेचैनी, नींद जैसी समस्या मैंने फील की है। धम्म हॉल में होने वाली यह समस्या मैंने गुरु जी को बताई। उन्होंने कहा कि कुछ लोग ठंड लगने की शिकायत करते हैं, जिसकी वजह से धम्म सेवक खिड़कियां बंद कर देते हैं। मैं उनसे कह दूंगा कि कुछ खिड़कियां खुली रखें। साथ ही जब लोग बाहर निकलते हैं तो पंखे चलाकर कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकाल दें। उन्हें मेरी यह समस्या जेन्यून लगी।

गुरु जी ने कहा कि घर परिवार छोड़कर आए हैं तो प्रयास करें कि कुछ लेकर जाएं। वही इमोशनल ब्लैकमेलिंग, जो मेरे दिमाग में पहले चल चुका था कि आए हैं तो सीरियस होकर कुछ ध्यान ही कर लें। हो सकता है कि फायदा हो जाए। मैंने भी हां में हां मिला दी कि अब कोशिश कर रहा हूं कि कुछ ध्यान वगैरा केंद्रित हो जाए। गुरु जी ने कहा कि मैं चाहता हूं कि आप सबसे बेहतर अनुभव लेकर जाएं। हालांकि उनके यह कहने का मेरे ऊपर कोई क्रांतिकारी असर नहीं पड़ा।

उन्होंने पूछा, “कुछ सोचकर आए होंगे, कुछ समस्या होगी, जिसका समाधान होगा।“

मैंने कहा, “बिल्कुल नहीं। मुझे कोई समस्या है ही नहीं। और ऐसी कोई समस्या तो बिल्कुल नहीं है, जिसका समाधान यहां आने पर हो जाए। न तो मैं कोई समस्या लेकर आया हूं और न समाधान सोचकर।“






उन्होंने कहा कि कुछ सोचकर तो आए होंगे। मैंने कहा कि खूबसूरत पहाड़ियों और बुद्ध के दर्शन ने मुझे आकर्षित किया। मैंने उन्हें धम्म सेवक द्वारा दी गई दूसरी पर्ची पकड़ा दी। वह मुस्कराए और कहा कि आप आराम करने चले गए होंगे, खाना खाने देर से पहुंचे। मैंने कहा, ऐसा कुछ नहीं है। मुंह का ऑपरेशन होने से खाने में देरी लगती है और कोई ऐसी सब्जी वगैरा हो, जिसे निगलने में दिक्कत हो तो ज्यादा वक्त लग जाता है। गुरु जी ने कहा कोई बात नहीं, मैं बोल दूंगा। आप अपनी सुविधा मुताबिक वहां बैठकर खाना खा सकते हैं। यही सब खुसुर-फुसुर वार्ता हुई। फिर मैं कमरे सोने पर चला आया।

इसके बाद तपस्या से जूझना था। सामूहिक ध्यान ढाई से साढ़े तीन बजे तक हुआ। फिर हमारे बैच को गुरु जी ने बुलाया। इस बार मैंने उचककर देखा तो जिन छह लोगों को मेरे साथ बुलाया जाता था उनमें से एक एमबीबीएस, दो एमबीए, दो बीई डिग्रीधारक थे। मैं ही वहां सबसे कमजोर डिग्री वाला था। मतलब पीजी तो मैं भी हूं। लेकिन सामान्यतया माना जाता है कि जो गदहा बच्चे होते हैं, वही बीए, एमए, बीएड वगैरा करते हैं। ऊपर से मास्टर इन जर्नलिज्म। मतलब कि आदमी किसी काम का न हो तो चलो यह भी कर लें, टाइप की एक और डिग्री। संदेह तो मुझे पहले से ही था कि हॉल में बैठे ज्यादातर लोग इलीट हैं, लेकिन जब यह सूची देखी तो मेरा संदेह और पुख्ता लगने लगा।

उस रोज मुझे पगोड़ा के शून्यागार का आवंटन हो गया। मतलब तीसरे, चौथे दिन और पांचवें दिन की सुबह मैं शून्यागार में ध्यान कर सकता था। मुझे थोड़ी खुशी हुई कि शून्यागार में क्या होता है, शून्यागार कैसा होता है, यह देखने का मौका मिलेगा। वहां ध्यान लगाने पर हो सकता है कि ध्यान का कुछ केंद्रण हो।

मैं उसी रोज शून्यागार देखने चला गया। वहां खड़े धम्म सेवक ने मेरा नाम शून्यागार में लगी सूची से मिलाया और शून्यागार संख्या बता दी। नया नया साधक सबसे नीचे वाले शून्यागार में साधना करने को पाता है। मैंने कमरे का निरीक्षण किया, कुछ देर ध्यान में बैठा। फिर वापस चला गया कमरे में सोने।

विपश्यना केंद्र पर घंटा बजने में कोई सिमिट्री नहीं होती थी। अगर शाम के 5 बजे हैं तब भी करीब 8 बार टन, टन की आवाज आती थी। सुबह सबेरे 4 बजे भी आठ बार ही घंटा बजता था। मेरे पास कलाई घड़ी नहीं थी। मोबाइल ने ऐसी आदत डाली है कि कलाई घड़ी खत्म ही हो गई है। मोबाइल आने के बाद से उसी में समय देखने की आदत सी हो गई है। विपश्यना केंद्र में मोबाइल जमा करा लिया गया था, जिसकी वजह से टाइमिंग की दिक्कत होती थी। घंटी उस तरह से नहीं बजती, जैसा हम लोगों के स्कूलों में बजती थी। स्कूल में अगर पहला पीरियड खत्म होता तो एक बार, पांचवां पीरियड खत्म होने पर 5 बार और छुट्टी होने पर लगातार टन..टन.. टन.. टन.. घंटी बजती थी।

विपश्यना केंद्र पर स्कूल की घंटी से इतर व्यवस्था है। घंटी भी तीन तरह की। एक बड़ा वाला घंटा, जो कहीं दूर बजता था, तेज आवाज में। दूसरा तवे के आकार की घंटी थी, जैसा कि स्कूलों में होती है। यह धम्म हॉल के बाहर लगी होती है। तीसरा छोटी घंटी होती है, जिसका इस्तेमाल साधकों को हांकने के लिए धम्म सेवक लोग करते थे। इसे वो हाथ में लिए रहते थे और समय पूरा होने पर टुनटुनाने लगते थे।

यह घंटी और घंटे मेरे लिए व्यवस्था का प्रश्न बन गए कि आखिर इसके बजने में कोई सिमिट्री है भी या ऐसे ही जब मन होता है और जैसे मन होता है, बजाते रहते हैं। व्यवस्था संबंधी प्रश्न धम्म सेवकों से पूछने का निर्देश था। मैंने अपने मेडीटेशन हॉल के सामने एक धम्म सेवक को पकड़ा, जो घंटी बजाते थे। उन्हें मझले और छोटे आकार की घंटी बजाते हुए देखता था। छोटी घंटी का मतलब तो मैं समझ गया था। जब साधकों को हांककर धम्म हॉल में ले जाना होता था, तब उसका इस्तेमाल किया जाता था। मझले और बड़े घंटे के बजने का क्रम और वजह साफ नहीं हो रहा था। मैंने उनसे कहा कि व्यवस्था संबंधी एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं। यह घंटी आपने तीन बार क्यों बजाई। उन्होंने कहा कि ऐसे ही शुरू से ही हम लोग बजाते और सुनते आए हैं, इसलिए। फिर मैंने उनसे पूछा कि छुट्टी के वक्त भी आप तीन बार ही घंटी बजाते हैं, उस समय तो टन..टन.. टन.. टन... करके लगातार घंटी बजाना चाहिए। हमारे स्कूल में ऐसा ही होता था और हम समझ जाते थे कि छुट्टी हुई। लेकिन आप लोग तीन बार ही घंटी बजाते हैं। धम्म सेवक हंसने लगे। कहा कि यह तो मुझे नहीं पता, मैंने सोचा भी नहीं कि ऐसा क्यों किया जाता है। बहरहाल, पहली बार मैंने वहां किसी को हंसते देखा। वर्ना पहले ही तमाम जगहों पर निर्देश लिखे थे कि सर नीचे करके चलें, जिससे किसी साधक की नजर से नजर न मिले। किसी दूसरे की साधना आपकी वजह से भंग न हो। मैं नजरें नीची करके नहीं चलता था, सबको देखते-ताकते ही चलता था, लेकिन अन्य लोग भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देते और मैं भी नहीं देता था। कुछ लोग सर नीचे करके भी चलते थे। ऐसे में तीसरे दिन धम्म सेवक की हंसी थोड़ा अलग लगी, उसके पहले किसी को मुस्कुराते देखा भी नहीं हुआ। हालांकि घंटी समस्या अनुत्तरित ही रह गई कि इसको बजाने में कोई सिमिट्री है या यूं ही बजाया जाता है।

शाम पांच बजे नाश्ते के बाद धम्म हॉल में पहुंचा। शाम 6 से 9 का समय सामूहिक ध्यान और प्रवचन का होता है, उस वक्त पगोडा में नहीं ध्यान करना होता है। एक घंटे तक ध्यान के बाद गोयनका जी की मधुर आवाज में प्रवचन चला। उन्होंने बताया कि कल प्रज्ञा के क्षेत्र में अपना कदम रखेंगे। अब तक शील के आधार पर समाधि का अभ्यास करते रहे। आनापान की साधना से मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते रहे। शील का पालन कल्याणकारी है, इससे व्यक्ति तमाम दुखों से छुटकारा पाता है। व्यक्ति खुद को दुखी नहीं करता, दूसरे को दुख नहीं पहुंचाता। केवल शील पालन से सभी दुख से मुक्ति नहीं मिलती। उसके लिए समाधि जरूरी है। हमें सम्यक समाधि की ओर जाना है। सम्यक समाधि के लिए शील करना है। केवल समाधि से मुक्ति नहीं मिल सकती। जितनी बार विकार जागे और उसे समाधि से दबाया जाए तो विकार भीतर दब जाएगा। लेकिन वह विकार कभी भी फूट सकते हैं। जब तक अंतरमन की गहराइयों में दबे विकारों से छुटकारा न पा लें, तब तक सही मायने में छुटकारा नहीं मिलता। परिपूर्ण रूप से चित्त के शोधन का काम प्रज्ञा से होता है। शील, समाधि के लिए और समाधि, प्रज्ञा के लिए। प्रज्ञा, विमुक्ति के लिए। यह प्रक्रिया है।






प्रज्ञा क्या है? धम्म के 3 अंग शील में हैं, 3 अंग समाधि में। आठ अंग वाले धम्म में शेष 2 अंग प्रज्ञा में हैं। प्रज्ञा में सम्यक संकल्प, सम्यक दृष्टि। हमारे संकल्प विकल्प चलते हैं, लेकिन इसमें बदलाव आना चाहिए। नया साधक जब आता है तो जिन विकारों का असर है, उसका विचार आता है। जैसे ही सांस का काम, मन का ऑपरेशन शुरू करते हैं तो किसी के प्रति क्रोध, काम वासना, प्रेम आदि के विचार आते हैं। लेकिन कुछ चिंतन के बाद दूषित विचार खत्म होने लगते हैं। लेकिन कुछ विकार रहते ही हैं, लेकिन उसके रहते भी सम्यक दर्शन भी शुरू हो जाता हैं। दर्शन के तमाम अर्थ हैं और उसके उसके अर्थ बदलते हैं। बाहरी चीजें देखने और ध्यान करने के अर्थ में बुद्ध के काल में दर्शन शब्द का इस्तेमाल नहीं होता था। हर संप्रदाय के लोग अपनी अपनी दार्शनिक मान्यता को दर्शन कह देते हैं, लेकिन यह भी सम्यक दर्शन नहीं है।

सम्यक दर्शन वह है, जो सच्चाई अपनी अनुभूति पर उतरे। सुनी सुनाई, पढ़ी पढ़ाई, तर्क वितर्क करके मानी गई बात सम्यक दर्शन नहीं है। खुद अनुभूति करने वाला सत्य, सम्यक दर्शन है। अपनी अनुभूति का विश्लेषण व विघटन करने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। उसका विभाजन करते करते अंतिम सत्य को अपनी अनुभूति से जानने को सम्यक दर्शन कहा जाता है। सिद्धार्थ को जो प्रज्ञा, जो बोधि जागी, उसने सिद्धार्थ को मुक्ति दी उससे और किसी को मुक्ति नहीं मिली। अपनी अनुभूति के ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। श्रुति ज्ञान या सुनकर जाने ज्ञान से अंध श्रद्धा हो सकती है। दूसरा स्तर यह होता है कि सुनी बात को तर्क की कसौटी पर चिंतन करके कसा जाता है। जो विभिन्न संप्रदाय हैं, उसे अंध श्रद्धा या भय के नाते या प्रलोभन के कारण लोग उसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का भय दिखाते हैं जैसे पाप लगेगा, नर्क जाओगे, इसके आधार पर लोग इसे मानने लगते हैं। संप्रदाय मरने के बाद का लाभ भी दिखाते हैं, जैसे कि मरने के बाद अप्सराएं मिलेंगी, हूरें मिलेंगी, बहुत बढ़िया सोम रस मिलेगा आदि आदि। इन प्रलोभनों से सांप्रदायिक मान्यता में लुभाया जाता है। उसके अलावा तर्क वितर्क करके साम्प्रदायिक मान्यताओं की ओर आकर्षित किया जाता है। हालांकि तर्क की अपनी सीमा है। इस तरह से तर्क या बुद्धि से देखना भी अपना नहीं है, वह अपनी अनुभूति नहीं है। इसके बाद की स्थिति होती है कि अनुभूति से जानना। जब अनुभूति से जानकारी मिलती है तो उसे भावनामयी प्रज्ञा कहा जाता है। अनुभूति के माध्यम से सत्य का दर्शन कराने वाली प्रज्ञा यानी भावनामयी प्रज्ञा हमारा कल्याण कर सकती है। 


फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है...

श्रुत प्रज्ञा तभी कल्याणकारी है, जब वह तर्क प्रज्ञा की ओर ले जाए। तर्क वाली प्रज्ञा तभी फायदेमंद है, जब वह भावनामयी प्रज्ञा की ओर ले जाए। किसी भी सुख के समय खुशी होती है, उसके बाद जैसे ही वह सुख खत्म होता है, व्यक्ति दुखी होता है। यही अनुभूति करनी है कि यह सुख अनित्य है। उसके जाने पर क्या रोना, उसी तरह से दुःख भी अनित्य है। वह भी एक तरंग है, जिसे अनुभूति से समझा जा सकता है। शरीर की अनुभूतियों से इन तरंगों को महसूस किया जा सकता है कि कैसे यह सुख उत्पन्न होता है और कैसे दुख उत्पन्न होता है और वह तरंग गुजरने के साथ दुख या सुख खत्म हो जाता है। यह सब कुछ अनित्य है। अनात्म भाव जागने पर इसकी अनुभूति होने लगेगा। फिर साफ होने लगेगा कि मैं और मेरा कुछ नहीं है।

इसके साथ ही व्यक्ति को सांसारिक जीवन में मैं और मेरा ही कहना होगा। अगर अतिवाद करेंगे कि मैं कुछ नहीं, मेरा कुछ नहीं तो मुश्किल हो जाएगी। आसक्ति, राग और द्वेश को लेकर मध्य मार्ग अपनाना है। अंदर की प्रज्ञा पुष्ट होने के साथ बाहर की चीजों से आसक्ति कम होती जाती है।

बुद्ध के संदेशों, सांसारिक कष्टों और कुछ व्यावहारिक अनुभवों के बारे में गोयनका जी ने बताया। साथ ही उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तीसरा और पांचवां रोज सबसे कठिन लगता है साधकों को। शायद विपश्यना केंद्र ने 10 दिन के मानव व्यवहार पर अध्ययन किया होगा, जिससे यह तथ्य सामने आया होगा। निश्चित रूप से तीसरे दिन बेचैनी ज्यादा थी। प्रवचन सुनने के बाद 20 मिनट तक का सामूहिक ध्यान हुआ।

बहरहाल... भवतु सब्ब मंगलं के साथ तीसरा रोज भी बीत गया और साधु साधु कहते मैंने दिन बिता लिया।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray


Prakash K Ray

What if I’m killed in a fight? To die in GB Road! My poor parents. 

— Prakash K Ray Reviews Mayank Austen Soofi

Mayank Austen Soofi
Mayank Austen Soofi
Photo (c) Bharat Tiwari
In these three years
     in GB Road,
       have I recorded the truth?…
May be it is better this way.

It is fulfilling enough for a writer
  to get a sense of GB Road
  without stripping bare
  the lives of its people.

   — Mayank Austen Soofi




I have seen Mayank! Won’t say met him, cause couple of times we have come across, I’ve found him, a person who might not easily become comfortable with someone, he doesn’t know personally. But, one thing, that I’m sure about him is: he is loved by all those who are his friends, have seen it in their eyes. Now when Prakash K Ray, writes this review, and I read it, followed by a few hours of conversation between us (not in one go, over a span of 5 weeks). I’m seeing Mayank from a different perspective, as Prakash writes ‘Soofi, the narrator, present everywhere in the narrative, is us who witness those dark stairs, alleys and chambers through the eyes of the author.’, he is telling us, Soofi’s book is not an ordinary book. Highly recommended by Prakash, who is known for his vast knowledge of Indian Cinema, apart from his various pieces on subjects ranging from Indian Literature to International Cinema , ‘Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District / Mayank Austen Soofi’ will be my next read.

Bharat Tiwari




A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray


As per the various estimates, there are three to 15 million prostitutes in our country. Some live in marked red light areas in different cities and towns and operate from there. Some villages and communities also practice this ‘profession’ or ‘dhandha’, as it is colloquially referred.




These areas are the part of the civilization’s underbelly. They trouble us, make us uncomfortable, and also incite our curiosity. So, we have numerous legends, stories, books, songs and films about prostitutes. From being Vish Kanya to Devdasi to Tawaif, and from Randi and Rakhail to Call Girl and Escort — the prostitute has traveled a vast journey through our histories.

Mayank Austen Soofi’s Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District provides us a glimpse of contemporary scenario of ‘infamous’ GB Road in Delhi and tries to sketch out the shadowy life patterns inside the red light area through words and images. In the process, he also touches some threads of the past. He keeps one of Manto’s stories, The Black Salwar, as a talisman whenever he visits the area.

Available on Amazon
He meets RV Smith, who has chronicled Delhi for so long and was a regular at GB Road some decades ago. Soofi talks to MA Khan, a descendant of an old noble family and lives in a nearby locality. He also visits shopkeepers in the area and pimps operating there. Along with the inhabitants of kotha no. 300, whom Soofi calls ‘family’, other conversations open a huge canvas before the reader. And, Soofi, the narrator, present everywhere in the narrative, is us who witness those dark stairs, alleys and chambers through the eyes of the author.

Despite presenting an honest and panoramic view of the inside, he does not claim to tell the ultimate truth. He writes, ‘In these three years in GB Road, have I recorded the truth?… May be it is better this way. It is fulfilling enough for a writer to get a sense of GB Road without stripping bare the lives of its people.’ In his Kothagoi, that records the present and the past of a red light area in a Bihar town, Prabhat Ranjan has categorically declared, ‘whatever is written in this book is all lie.’ Journalist Ravish Kumar says in one of his reports which subject is GB Road, ‘Here everyone has uncounted stories. I don’t know what I saw peeping into their lives and what I could show you.’

A Soofi in the Brothel — Prakash K Ray
He keeps one of Manto’s stories,
The Black Salwar, as a talisman
whenever he visits the area. 
Sabir Bhai, a kotha malik, tells the author, ‘Come on, Soofi Bhai, you can’t trust anybody in GB Road.’ And he also refuses to share his own past. Soofi is perplexed, ‘Could it be they cherish the secrecy because there is no secrecy about their bodies?’ He echoes what Ravish Kumar says in his report, ‘Their life stories, especially when they focus on why they became sex workers, are almost identical. But there is something in each woman that makes her distinct.’ He expresses his frustration over his inability to grasp the whole personalities of those women.

Professor Kumkum Sangari in her book, Politics of the Possible: Essays in Gender, History, Narratives, Colonial English, underlines that the prostitute who, like the higher caste widow, signifies the failures of familial protection. She asserts that ‘prostitution’ operates ‘as a class ascription’ and has been raised ‘in binary opposition to middle-class Hindu domesticity and married respectability.’ In Soofi’s narrative, everyone wants to get out of GB Road, and aspires for a life in ‘society’. ‘I surely do not want to breathe my last here’, says Sabir Bhai.

In fact, even an outsider would not want dying in GB Road. In jest, Soofi points to this irony. One night he is followed by some ‘pimps’. He thinks about all those warning about the bad boys on the street. He thinks, ‘What if I’m killed in a fight? To die in GB Road! My poor parents.’ Sabir’s kids have dreams to get out and live elsewhere. But it is not that easy. Sabir says, ‘Once you get into a red light area, it is very difficult to get out.’




And when those from GB Road get out, their identities are altered. Sabir’s son Osman tells Soofi that when asked about his residence, he tells that he lives in a different area, and he does not invite his friends. In Ravish’s report, a person tells that his daughter’s in-laws asked him not to mention GB Road on the wedding card. Prabhat Ranjan’s Manorama comes inside Chaturbhuj Sthan as Suman. Champa goes out as Rajni in BR Chopra’s Sadhna. Soofi’s Sushma is also Shireen, or, perhaps, both are fictitious.

The names and the religions of those people are not that important. They can identify themselves with any name, and they can pray to any god or all gods. What matters most in a red light area is the body. A prostitute’s entire being is centered in the location of her body. It is the body which is rejected and accepted every time. ‘Sushma must get a customer.’

Sushma, Roopa, Nighat… are worried about their bodies and they do not want to age like Sumaira for a life beyond 35-40 is horrible in a red light area. Nobody wants to be in the trade, others also want these kothas to go, society at large does not care or dislike them. But ‘dhandha’ has to continue. As some local lad tells Soofi, ‘Duniya khatam ho jayegi/Chudai nahin hogi…‘ I am reminded of some woman from a kotha telling me, ‘Dilli mein khudai aur chudai hamesha chalti rahegi.’ I was volunteering at GB Road at that time and had asked her if this profession would end forever in future.

Mayank Austen Soofi is a flaneur. But it is not that easy to get into a brothel to record stories or just hang around with those people. Sabir Bhai’s kotha becomes familiar for the author because he invests time and trust. In return, he also gets them. He is not that welcome elsewhere, but through those brief encounters he brings out a vivid landscape of GB Road.

At times, his humour is brilliant. Smith tells about his adventures in GB Road that out of 45 women in his life, 20 were from GB Road. Soofi writes, ‘I pour more beer into Smith’s mug.’ After another episode, he orders another bottle. Through a vast collage of simple and focused conversations, we get into GB Road from almost every angle. Perhaps, the customer is only one not participating in the conversation.

Read this book. It will open a window to that area which you perhaps never know. It tells us that those women, maliks, pimps, wards are human beings with simple desires and wants. The book also shows a mirror to the ‘civilization’ or the ‘society’. Sabir Bhai is collecting all those news clips that report about the sex trade and raids in various parts of the city.




Soofi notes, ‘Gone are the days when a city needed to have a separate red light district. Massage parlours, beauty salons and friendship clubs offering sex on the pretext of other services have opened across Delhi. The red light has gone out into the city. GB Road has been left behind.’ The internet revolution is full on. We have numerous dating sites along with social media where singles and married men and women are openly seeking and offering sex, at times on the pretext of ‘love’.

How long Sushmas of the GB Road will get customers? Will this place also be a past like Chawri Bazar soon?

Review: Nobody Can Love You More: Life in Delhi’s Red Light District / Mayank Austen Soofi / Penguin / 2012

By: Prakash K Ray, Writer/Journalist
Email: pkray11@gmail.com





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हिमालयन इकोज़ : कुमाऊँ फेस्टिवल ऑफ़ लिटरेचर एंड आर्ट्स



नसीरुद्दीन शाह से गूंजेगा हिमालयन इकोज़


आज के नवोदय टाइम्स में
http://bit.ly/2htbjDc



संस्कृति के लिए कुछ करने के नाम पर, संस्कृति की चिंता करना आज का फ़ैशन है। मगर कुछ लोग हैं जिन्होंने इस ज़िम्मेदारी को ओढ़ा हुआ है, और सहेज रहे हैं। जान्ह्वी प्रसाद जिनका बचपन कुमाऊं की पहाड़ियों में बीता है और जो एक फिल्म-निर्माता और लेखिका हैं, उन्हें वहां के पहाड़ों सी सुन्दर और चोटियों सी ऊंची, साहित्य और कला की विरासत का अंदाज़ा है, जो सीमित साधनों के बावजूद, उन्हें दो-दिवसीय ‘हिमालयन इकोज़ : कुमाऊँ फेस्टिवल ऑफ़ लिटरेचर एंड आर्ट्स’ के आयोजन की शक्ति देता है।




पर्यावरण को केंद्र में रखते हुए, 7-8 अक्तूबर को होनेवाले हिमालयन इकोज़ में दोनों दिन पांच-पांच सत्र होंगे। फेस्टिवल का पहला दिन नैनीताल के अैबटस्फोरड हेरिटेज होटल (प्रसाद भवन) में और  दूसरा दिन कॉर्बेट नेशनल पार्क के जंगल में ‘गेटवे रिसॉर्ट्स’ में होना है।

उत्सव में कला और साहित्य प्रेमियों को नसीरुद्दीन शाह, इरा पांडे, अमिताभ पांडे, अमिताभ बाघेल, एम के रंजीत सिंह, जानकी लेनिन, दल्लीप अकोई, दीपक बलानी, प्रेरणा बिंद्रा, वाणी त्रिपाठी, संजीव कुमार शर्मा, सैफ महमूद, हृदेश जोशी जैसे कला-साहित्य विद्वानों के सत्रों का आनंद मिलेगा।

साहित्यकार नमिता गोखले, आयोजक 'जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल', कुमाऊँ फेस्टिवल की सलाहकार हैं, उनका सफल और विशाल अनुभव, यह तय करता है कि हिमालयन इकोज़ का आयोजन, उच्च स्तर का ही रहेगा।

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भवतु सब्ब मंगलं — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 4

तपस्या बहुत कठिन लगने लगी थी। रात को 9 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक सोने के वक्त को छोड़कर लगातार व्यस्तता। व्यस्तता भी ऐसी, जो बोझिल हो। सुबह सबेरे घंटा बजता। घंटा अगर जगाने में सफल नहीं हुआ तो घंटी वाले बाबा टपक पड़ते थे। चार बजे अगर किसी व्यक्ति के कमरे की लाइट नहीं जली रहती तो वह कमरा घंटी बाबा के खास निशाने पर रहता था। वहां लंबे समय तक रुककर घंटी बजा देते थे। मैं बहंटिया कर सोने की कवायद करता तो घंटी बाबा लौटकर भी घंटी टुनटुनाने लगे। घंटी बाबा के पास छोटी घंटी होती थी। वह तब तक घंटी बजाते रहते थे, जब तक कि आप आजिज होकर उठ न जाएं।







सुबह साढ़े चार बजे मेडीटेशन हॉल यानी ध्यान केंद्र में पहुंचने का क्रम जारी रहा। बदलाव यह आया कि पहले रोज किसी तरह काटने के बाद दूसरा दिन और बोझिल हो गया था। सिर्फ मुझे ही बोझिल नहीं लग रहा था। साथ में विपश्यना कर रहे दो चोटी वाले युवकों की चोटी पर भी असर पड़ गया। जूड़े वाली चोटी खुल चुकी थी। पोनी वाली चोटी भी खुलकर सामान्य बाल में तब्दील हो चुकी थी। सभी लोग किसी तरह से तपस्या कर रहे थे। सुबह सबेरे की दो घंटे की तपस्या किसी तरह कटी और आखिरकार साढ़े छह बजा और भवतु सब्ब मंगलं हो गया।

उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है।
ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था photo: annestravelandphotography

दूसरे दिन कपड़े देने थे धुलने के लिए। तत्काल भागकर गया नाश्ता करने। नाश्ता करने के बाद नहाया, नहाने के बाद सोने की कवायद। साढ़े सात बजे उठकर फिर भोजनालय की ओर भागते पहुंचा, क्योंकि धुलाई के लिए कपड़े देने का वक्त पौने आठ बजे तक ही निर्धारित था। वहां कपड़ा देने के बाद यह भी पूछ लिया कि कितने बजे तक धुलाई के लिए कपड़ा दिया जा सकता है। धम्म सेवक से पूछा, क्योंकि वह व्यवस्था संबंधी सवाल था। धम्म सेवक ने 15 मिनट का  राहत दिया और बताया कि 8 बजे तक कपड़े देने पर दूसरे दिन सुबह मिल जाता है, लेकिन उससे ज्यादा देरी करने पर मुश्किल होती है। उस समय मुझे पत्नी बहुत याद आईं। संभवतः उन्होंने कुछ लोगों से और इंटरनेट से जानकारी हासिल कर ली थी कि वहां हाफ पैंट नहीं चलता। फुल पाजामा या पैंट पहनना होता है। उन्होंने मुझे कहे बगैर ही 3 पायजामे और 3 जांघिया बनियान रख दिए थे। उन पायजामों में 2 वेस्टर्न स्टाइल के एलास्टिक वाले पायजामे थे, जो बहुत ही आरामदेह साबित हुए। एक गांधी आश्रम का डोरी वाला पायजामा था। थोड़ी असुविधा के साथ वह भी सुविधाजनक था। वर्ना मैंने तो जबरी हाफ पैंट रखवाई थी, जो ध्यान करने के लिए अनुमति प्राप्त कपड़ा नहीं था। वह किसी काम का साबित नहीं हुआ। पायजामे, टीशर्ट, कुर्ता, जांघिया-बनियान पर्याप्त संख्या में थे, जिससे कि बारी बारी से उसे धुलाई के लिए दिया जा सके। अगर धुलाई में मामला फंसे तो एक जोड़ा कमरे पर मौजूद रहे। हालांकि ऐसा कभी हुआ नहीं। मैं 8 बजे कपड़े दे देता था और दूसरे रोज उसी समय, उसी जगह कार्यालय के सामने बिछी चौकियों पर कपड़े मिल जाते।

कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है।

बारिश लगातार हो रही थी। जिस दिन मैं इगतपुरी पहुंचा, उस रोज भी। वहां के लोगों ने भी बताया कि 15-20 दिन से ऐसे ही बारिश हो रही है। हालांकि लोगों का कहना था कि यहां पहाड़ी पर ज्यादा बारिश हो रही है, लेकिन निचले इलाके में बिल्कुल बारिश नहीं हो रही है। विपश्यना के शांति पठार पर तो बारिश ने राहत ही न दी। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि बारिश नहीं हो रही थी और मैं बगैर छाता लिए पेशाब करने चला गया। उतने में बारिश शुरू हो गई और शौचालय से धम्म हॉल के बीच की करीब 300 मीटर दूरी भीगते हुए तय करनी पड़ी। ऐसी स्थिति में अगर कभी हल्की धूप भी नजर आती थी तो छाता लेकर ही कमरे से बाहर निकलना होता, जिससे भीगने के खतरे से बचा जा सके। साथ ही यह भी अहसास हुआ कि कभी इगतपुरी में बारिश, झरने, पहाड़ियों का आनंद लेने जाना हो तो रेन कोट और छाता दोनों लेकर जाना जरूरी है। अगर बारिश तेज हो रही हो तो छाते से उसे संभालना मुश्किल है। इस खूबसूरत बारिश में अगर पहाड़ियों पर घूमना है, झरनों का पूर्ण आनंद लेना है और बारिश एन्जॉय करना है तो छाता और रेनकोट बहुत जरूरी है। यह भी फीलिंग आई कि इस बारिश में अगर नव विवाहित जोड़ा आता है, हनीमून के लिए, तो वह प्रकृति का ज्यादा आनंद ले सकता है। तेज बारिश और उसी में रेनकोट पहने, छाता लिए, एक दूसरे का हाथ थामे घूमने का आनंद। यह कल्पना ही भीतर से गुदगुदाती रही।


विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था।




धुलाई के लिए कपड़े देने के बाद हॉल में वापस आ गया। मैंने बड़ी मेहनत से ध्यान लगाया। दिल में यह बात थी कि दो घंटे तक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर कमरे पर ध्यान करने को भेज देंगे। उसके बाद आराम से मैं जाकर कमरे पर सो जाऊंगा। लेकिन दूसरे दिन धोखा हो गया। असिस्टेंट टीचर ने नए साधकों को कुछ नहीं कहा। पुराने साधकों के लिए जरूर कहा कि जो लोग यहां ध्यान करना चाह रहे हों, यहां ध्यान करें। अगर पगोडा के शून्यागार में ध्यान करना चाह रहे हों तो वहां भी ध्यान करने को जा सकते हैं।

photo: annestravelandphotography
शून्यागार और ध्यान। यह मेरे लिए नया था। हालांकि पगोडा, शून्यागार और ध्यान के बारे में डॉक्यूमेंट्री देख चुका था, लेकिन वह केवल थियरी थी। प्रैक्टिकल में नहीं देखा था कि शून्यागार क्या होता है और कैसे ध्यान किया जाता है। नए साधकों को वहीं बैठे रहने दिया गया। इस तरह से 8 बजे से लेकर 11 बजे तक तीन घंटे तक का लंबा वक्त कुछ ज्यादा ही भारी पड़ गया। तमाम लोगों ने कमर दर्द की बात बताकर कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने की अनुमति ले ली। कुछ लोगों को वहीं आसन पर ही एक कुर्सी नुमा आसन मिल गया। उस पर पालथी मारकर बैठे रहने के बाद पीछे पीठ टिकाया जा सकता था। हालांकि मेरे खयाल में यह नहीं आया कि कुर्सी या अर्ध कुर्सी ली जाए, जिस पर पैर लटकाकर बैठने व पीठ टिकाने या पीठ टिकाने वाली सुविधा मिल सके। 11 बजे तक किसी तरह कट गया। समय पूरा होते ही हम भोजनालय की तरफ भागे। खाना खाने की जल्दबाजी इसलिए थी कि जल्दी से कमरे पर पहुंच जाएंगे। उसके बाद डेढ़ घंटे आराम करने का मौका मिल जाएगा। जल्दी भागकर खाना खाने का लाभ यह हुआ कि मैं 11.45 तक कमरे पर पहुंच गया। मेरे पास सोने के लिए करीब सवा घंटे का वक्त मिल गया।

लेकिन साढ़े बारह बजे मेरी खुशी काफूर हो गई। बहुत गहरी नींद में था, उसी समय दरवाजा पीटे जाने की आवाज आई। मैं अचकचाकर उठा। दरवाजा खोला तो सामने एक मोटे से धम्म सेवक खड़े थे। उन्होंने हाथ जोड़े। कहा कि गुरु जी ने अभी आपको बुलाया है। मुझे समझ में न आया कि कौन सी आफत आ गई। यह अचानक बुलावा क्यों आ गया। धम्म सेवक से पूछा कि कहां बुलाया है ? मुझे बताया गया कि जिस हॉल में ध्यान करते हैं, वहीं अभी पहुंचें। मैं हड़बड़ाया सा उखड़ा उखड़ा जल्दी जल्दी कपड़े पहनकर मेडीटेशन हॉल में पहुंच गया। वहां कुछ लोग पहले ही गुरु जी से ज्ञान ले रहे थे। मैं भी बैठ गया। पौने एक बजे गुरु जी के पास जाने की मेरी बारी आई। गुरु जी आसन पर ऊपर बैठे रहते और साधक को नीचे बैठाया जाता। यह व्यवस्था मुझे कुछ खास नहीं जंची कि आखिर साधक को नीचे और गुरु जी को मचान पर काहे को बैठाया गया है। लेकिन व्यवस्था का सवाल था। उनके चौकी नुमा आसन के गोड़े के पास नीचे मैं बैठ गया। उन्होंने पूछा कि कैसा चल रहा है?

मैंने बहुत साफ साफ बताया कि कुछ खास नहीं चल रहा है। गुरु जी ने पूछा कि ध्यान में मन लगता है? मैंने कहा, “कुछ देर तो लगता है, फिर इधर उधर की बातें सोचने लगता हूं।“ यह पूछने पर कि सांस का आना जाना फील होता है, मैंने साफ मना कर दिया। गुरु जी को बताया कि बिल्कुल महसूस नहीं होता, जब तेज तेज सांस लेता हूं तो जरूर थोड़ा सा मूंछ के बाल पर और अंदर आती जाती सांस फील होती है। उसके अलावा नाक की आंतरिक त्वचा पर किसी खास तरह की अनुभूति होती हो, ऐसा कुछ भी नहीं है। गुरु जी ने कहा कि अच्छा है, सांस अगर महसूस न हो तो तेजी से सांस ले लिया करें। धीरे धीरे कंसंट्रेशन बन जाएगा। शुरुआत में दिक्कत होती है। फिर कंसंट्रेशन बनने लगता है। फिलहाल इतनी सी वार्ता हुई । उन्होंने कहा कि जाकर आराम करें। शायद गुरु जी को ऐसा फील हुआ कि बंदे को सोते में जगा दिया गया है और काफी गुस्से में है।


अब आराम क्या करता। एक बजे से ध्यान का सत्र शुरू होने वाला था और सिर्फ 10 मिनट बाकी रह गए थे। मैं बाहर निकल गया। वह 10 मिनट मेरे लिए प्रकृति की खूबसूरती देखने का वक्त था। मैं उस 10 मिनट में कई गलियों में घूमा, जहां पहले नहीं गया था। एक मुख्य पगोडे के साथ वहां दो पगोडे और दिखे। उन्हें देखने के बाद याद आया कि नेट पर तपोवन 1 और तपोवन 2 के लिए भी बुकिंग हो रही थी, जिनके लिए वे दोनों पगोडा बने हुए थे। रास्ते में घूमते हुए कुछ महिला कर्मी भी मिलीं जो झाड़ू लगाने और गिरे हुए पत्तों को साफ करने का काम कर रही थीं। साथ ही बादलों के बीच ढंकी सामने की पहाड़ियां भी अद्भुत अहसास दे रही थीं। ध्यान की बोरियत के बीच प्रकृति के सौंदर्य को 10 मिनट देखकर मैं खासा रिफ्रेश फील कर रहा था।

ध्यान का वक्त होने पर मैं फिर हॉल में आ गया। ढाई बजे तक अपनी मर्जी के मुताबिक ध्यान करने के बाद असिस्टेंट टीचर ने टेप चलाया। एक घंटे का सामूहिक ध्यान शुरू हुआ (हालांकि उसके पहले भी हॉल में सामूहिक ध्यान ही था) इस ध्यान में गोयनका जी की रनिंग कमेंट्री सुनाई जाती थी। उन्होंने ध्यान के तरीके मे थोड़ा बदलाव किया। उन्होंने कहा कि सांस लेने की वजह से नाक के नीचे ऊपरी होठों पर जो तिकोना सा हिस्सा बन रहा है, वहां पर ध्यान केंद्रित करें। महसूस करें कि ऊपरी होठों के उस तिकोने से हिस्से पर सांस और उसके अलावा भी किस तरह का अहसास हो रहा है।




अब मामला थोड़ा मनोरंजक लगा। आती जाती सांस को महसूस करने से इतर नाक के नीचे और ऊपरी होठ पर जो तिकोना हिस्सा बन रहा था, वहां संवेदनाओं को महसूस करना था। गोयनका जी ने बताया कि गर्मी, सर्दी, खुजलाहट, सनसनाहट जो भी कुछ महसूस हो, उसे महसूस करें। यह महसूसना साढ़े तीन बजे तक चला। भवतु सब्ब मंगलं हो गया। उसके बाद असिस्टेंट टीचर ने लोगों को बुलाना शुरू किया। हॉल में बैठे लोगों का 6-6 लोगों का बैच बना और कहा गया कि आइंदा बैच नंबर बुलाने पर आप लोग आ जाएंगे, नाम लेकर किसी को नहीं बुलाया जाएगा।

बुलाए गए 6 लोग ठीक उसी तरह से असिस्टेंट टीचर के सामने बैठ गए, जैसा कि सारनाथ में बुद्ध अपने 5 शिष्यों को संदेश देते हुए बैठे हैं। बुद्ध को ऊंचे आसन पर पालथी मारे दिखाया गया है, जबकि शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य उनके सामने नीचे जमीन पर बैठे हैं। कुछ उसी स्टाइल में 6 साधकों को, 3 आगे और 3 उनके पीछे बिठाया गया और असिस्टेंट टीचर चौकी पर विराजमान थे। मैं आगे ही बैठा था। गुरु जी ने पूछा कि कैसा ध्यान चल रहा है। मैंने बड़ी साफगोई से कहा कि बकवास है बिल्कुल। ध्यान वगैरा कहीं केंद्रित नहीं होता है। अन्य लोगों से भी पूछा गया तो कुछ ने तो लाज लिहाज में बताया कि ध्यान केंद्रित हो रहा है और मूंछ के पास वाले इलाके में अनुभूति भी आ रही है। हालांकि मेरे अलावा एक सज्जन और थे, जिन्होंने बताया कि कोई केंद्रण नहीं होता है। आधे आधे घंटे तक कुछ और सोचते बीत जाता है। उनको गुरु जी ने वही फार्मूला बताया कि कुछ देर तक तेज तेज सांस लेकर संवेदना महसूस करें। इतने लंबे वक्त तक संवेदना महसूस न करना और दूसरी सोच में पड़े रहना सही नहीं है।




गुरुजी के साथ यह खुसुर-फुसुर पूरी हुई। गुरुजी इतना धीरे से बोलते थे कि आवाज सामने बैठे 6 लोगों को ही सुनाई दे। अन्य लोग हॉल में ध्यान करते रहें। उन्होंने कहा कि अब आप लोग जाएं। दूसरे ग्रुप को बुलाने के लिए वह मुखातिब हुए। मैंने सोचा भी नहीं कि जाएं का मतलब अपने आसन पर बैठने से है या कुछ और। मैं सरपट उस ध्यान केंद्र से बाहर निकल गया और कमरे में सोने के लिए चला गया। अच्छी नींद आई। सोकर उठा तो नाश्ता करने चला गया। नाश्ते में वही नमकीन मिक्चर वाला भूजा, केले औऱ दूध। दूसरे रोज भूजा खाने की कोशिश की, लेकिन वह खाना मेरे मुंह के लिए बहुत कष्टकर था। हालांकि ऑपरेशन के पहले भूजा मेरा सबसे फेवरेट था। ऑफिस में भी रोज एक बुढ़ऊ चाचा के ठेले से लइया, चना, नमक और मिर्च ले आता था। वही मेरा नाश्ता होता था। लेकिन विपश्यना केंद्र में खाने की दिक्कत की वजह से वह लाई भूजा मुझे बिल्कुल रास न आया। चार केले खाने के बाद दो गिलास हल्दी वाला दूध पीकर मैं निकल आया।

शाम के 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए कठिन नहीं लगता था। इसकी एक वजह यह थी कि यही वह समय है, जब हम लोग ऑफिस में मैक्सिमम टॉर्चर होते हैं। पहले कहावत सुनी थी कि मूतने की फुर्सत नहीं है, लेकिन कार्यालय के इस वक्त में मैंने अहसास किया कि मूतने की फुर्सत न होना क्या होता है। इस दौरान हालत यह रहती है कि अगर पहले मूतना भूल गए हैं तो ऐसा लगता है कि पेट के नीचे वाला पोर्शन जहां पेशाब जमा होता है, वह फट जाएगा और पेशाब बाहर आ जाएगा। लेकिन मजाल क्या है कि 6 से 9 बजे के बीच मूतने का मौका निकल पाए। उसके बाद काम खत्म होने पर पेशाब करने जाना होता है। उस समय पेशाब करने की दिव्य अनुभूति होती है। ऐसा लगता है कि कितने बोझ के नीचे दबे थे। सारा तनाव आराम से रिलीज किया जाता है। गजब की राहत मिलती है। ऑफिस में ऐसे अनुभव से गुजरने के बाद विपश्यना में शाम 6 से 9 वाला सत्र मेरे लिए बिल्कुल बोझिल नहीं होता था। उसमें एक अच्छाई और जुड़ गई थी कि शुरुआत में एक घंटे ध्यान के बाद भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। फिर गोयनका जी का डेढ़ घंटे का भाषण चलता था, जो खासा मनोरंजन कराने वाला, ज्ञानवर्धक और राहत देने वाला होता था। उसके बाद महज आधे घंटे के ध्यान के बाद एक बार फिर भवतु सब्ब मंगलं हो जाता था। हम लोग साधु साधु कहते थे और उसके बाद कराहती, लरजती आवाज आती थी। विश्राम करें, टेक रेस्ट। भवतु सब्ब मंगलं का किस्सा भी गोयनका जी ने साफ किया। उन्होंने बताया कि भवतु सब्ब मंगलं का अर्थ होता है कि मेरे इस कार्य से सबका कल्याण हो। फिर शिष्य गण साधु साधु साधु कहते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि ऐसी ही मेरी कामना है।

पढ़ें भाग 5


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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उर्दू को कोई ख़तरा नहीं है



असली स्वाद पाने के लिए रसिक मूल भाषा को अधिक पसंद करता है

- भरत तिवारी 




हर बोली का एक अपना-काव्य होता है, भाषाओं का विस्तार और भाषाओं का आपसी मेलजोल, उस काव्य को अन्य भाषाओं में भी ले कर आता है, लेकिन यह भी है कोई काव्य उसी बोली में अपनी पूरी छटा बिखेर पाता है, जिस बोली की वह उपज है। जापानी: हाइकू, पंजाबी: गीत, सिन्धी: सूफी, संस्कृत: कालिदास का काव्यं, राजस्थानी: डिंगलवीर या चारण, फ्रेंच: बैलेड, हिंदी: गाना, अवधी: दोहा, उर्दू: ग़ज़ल। ये कुछ मिसालें हैं जो दिखाती हैं कि भले ही काव्य की ये विधाएं मूल भाषा से इतर में भी लिखी, कही और पसंद की जा रही हैं , लेकिन इनका असली स्वाद पाने के लिए रसिक मूल भाषा को अधिक पसंद करता है।


ग़ज़ल आज अनको भाषाओं में कही जा रही है, हिंदी में इसका प्रचलन बहुत है। एक कारण हिंदी और उर्दू भाषा का एक दूसरे से जुड़े होना भी है, दोनों भाषाओं का व्याकरण एक जैसा है। इन दोनों से मिलकर जो बोली बनती है उसे बहुधा ‘हिन्दुस्तानी’ कहते हैं: उर्दू काव्य की विधा शायरी खासकर ग़ज़ल अपना असली रंग इसी बोली में दिखाती है। पहली दफ़ा अमीर खुसरो की कलम से निकलने के बाद हिन्दुस्तानी-शायरी लगातार आगे बढ़ती रही है, जिसमें वली, मीर, ज़फर, ग़ालिब से लेकर मोमिन, दाग़, बिस्मिल, फिराख और गुलज़ार, दुष्यंत तक शामिल हैं।

बुधवार को, दिल्ली के इस्लामिक सेंटर में, हिन्दुस्तानी शायरी में, शायर-गायक मीनू बख़्शी की खूबसूरत ग़ज़लों का एक नया दीवान 'मौज-ए-सराब: भ्रम की लहरें', जिसे रूपा पब्लिकेशन्स ने प्रकाशित किया है, ग़ज़लगोई और ग़ज़लों के पाठ और कथक के बीच रिलीज किया गया।

आज के नवोदय टाइम्स में





जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में स्पेनिश ज़बान की प्रोफ़ेसर मीनू बख़्शी, उसी हिन्दुस्तानी-शायरी का शौक रखती हैं, जिसका अभी मैंने जिक्र किया है। उनकी मातृभाषा पंजाबी है लेकिन अपनी दिल की बात कागज़ पर उतारने के लिए उन्होंने ज़बान-ए-उर्दू यानी हिन्दुस्तानी को चुना है। बेहतरीन आवाज़ में गायकी का हुनर रखने वाली प्रो० बख्शी को 2014 में हुस्नआरा ट्रस्ट ने अमीर ख़ुसरो एवार्ड और बिहार उर्दू एकाडमी ने जमील मज़हरी एवार्ड से सम्मानित भी किया है। और हाल ही में उन्हें स्पेन की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए Order of Isabella la Catolica अवार्ड, जो स्पेन का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान है, से पुरस्कृत किया गया है।

बुधवार को दिल्ली में उमस थी, लेकिन 'मौज-ए-सराब’ में पहुँच जाने से वह हसीन हो गयी। किताब को रिलीज़ किये जाने के लिए कामना प्रसाद के संचालन में बुनी शाम में चिन्तक-लेखक-डिप्लोमैट राजनीतिज्ञ पवन वर्मा, मशहूर फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली, और कलाकार-एक्टिविस्ट शबाना आज़मी मौजूद रहे।








"उर्दू को कोई ख़तरा नहीं है!" पवन वर्मा ने यह कहते हुए बताया, "हमारी बोली में उर्दू के शब्द इस तरह घुले हुए हैं कि बातचीत में वह आते ही आते हैं।"

शबाना आज़मी ने फ़रमाया, “उर्दू बहुत दिनों तक फिल्मों में सुरक्षित रही, मगर अब ऐसा नहीं है।"

जनाब मुज़फ़्फ़र अली ने कहा, "यह एक ऐसी किताब है जो आपकी हमसफ़र बनेगी, अच्छे-बुरे हर मौ़के पर यह किताब आपका साथ देगी।"






इस शाम की खूबसूरती के रंग को पुख्ता किया, कथक की माहिर शिवानी वर्मा ने। शिवानी लगातार, कथक में नए और खूबसूरत प्रयोग कर रही हैं, उनके यह प्रयोग कितने खूबसूरत हैं, इस बात का अंदाज़ा, उन्हें कॉपी किये जाने की कोशिशों, से भी लगता है। शिवानी ने आज का नृत्य मीनू बख़्शी के नए दीवान की ग़ज़ल पर परफॉर्म किया। ग़ज़ल के दो शेर देखिये —

“जब ये दिल बना है मुहब्बत का आईना
हर दम है सामने तेरी सूरत का आईना
हुस्ने-नज़र है आपका जो सुर्खरू हूँ मैं
वरना कहाँ हूँ मैं किसी अज़मत (सम्मान) का आइना”

उर्दू हिंदी का झगड़ा हमेशा से ही सियासतदानों का काम रहा है, जिसके बीज अंग्रेजों ने बोये और हम उसकी जहरीली झाड़ को अबतक पानी दे रहे हैं...यह समझना और बंद करना ‘अब’ ज़रूरी है।




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हाईस्कूल-इंटर के दिन याद आ गए — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 3

सुबह सबेरे उठना भी एक कठिन टास्क होता है। खासकर ऐसी स्थिति में जब आपको 3 बजे रात को सोने और 11 बजे दिन में उठने की आदत पड़ चुकी हो। पहले दिन परीक्षण होना था कि उठ पाते हैं या नहीं। घड़ी की घंटी भी इतनी तेज नहीं थी कि उसकी आवाज जगा सके। हां, इतना जरूर था कि थके होने की वजह से रात करीब साढ़े 9 बजे ही नींद आ गई थी। सुबह 4 बजने में 5 मिनट कम थे, तभी नींद खुल गई। 




मुझे हाई स्कूल और इंटर में पढ़ाई के दिन याद आ गए। पिता जी ने चाभी भरने वाली घड़ी खरीद दी थी, जिसकी घंटी हमें जगाती। उसमें सुबह 5 बजे घंटी बजने का टाइम सेट किया गया था। उसमें से इतनी कर्कश आवाज निकलती थी कि हम सभी भाई बहनों की नींद खुल जाए। दो चार दिन तो मैंने उस घड़ी को झेला। उसके बाद इतनी अच्छी आदत पड़ी थी कि 5 बजने के 5 मिनट पहले नींद खुलती थी और मैं घंटी बंद कर देता था। अम्मा पूछतीं कि आज घंटी सुनाई नहीं दी। मैं कहता कि घड़ी कुछ गड़बड़ होगी। कभी कभी घंटी बज भी जाने देता था, जिससे उन्हें शक न हो। हालांकि अम्मा का शक पुख्ता हो गया और उन्होंने कहा कि घड़ी गारंटी में है, उसे दिखा लो और बदल लाओ। मुझे तो पता ही था कि घड़ी का क्या खेल है... मैं घड़ी दुकान तक नहीं ले गया। घर आकर बताया कि वहां उसने खोलकर देखा। अब शायद सही चलेगी। वहां तो ठीक चल रही थी।

बड़ी धीमी चाल में वे खर्राटे ले रहे व्यक्ति तक बढ़े। चाल बहुत शांत थी। जैसा भारतीय समाज में नई नवेली बहू को निर्देश दिया जाता है कि ऐसा न चलो कि धम-धम की आवाज आए और कोई अहसास कर पाए। 

कुछ ऐसा ही विपश्यना विद्यापीठ में हुआ कि घड़ी की घंटी बजने के 5 मिनट पहले ही मैं सोकर उठ गया था। नींद पूरी हो चुकी थी। शौच और ब्रश करने के बाद सुबह सबेरे साढ़े चार बजे ध्यान करने वाले हॉल में पहुंच गया। करीब सभी लोग ध्यान करने आ गए थे। मैं 10 मिनट तक आंखें बंद कर बैठा रहा। आती-जाती सांस को महसूस करने के लिए। इसे आनापान कहा जाता है। यह काम बहुत बोरियत वाला लग रहा था। थोड़ी देर में आंखें बंद होने लगीं। झपकी सी आने लगी। मुझे अचानक दिव्य अनुभूति हुई कि तपस्या कर रहा हूं और नींद को भगाए रखना है। फिर आंख मूंदकर सांस पर ध्यान केंद्रित करने लगा। आधे पौन घंटे तक यह प्रक्रिया चली। मैंने देखने की कोशिश की कि और लोग कैसे हैं और किस हालत में हैं।



हॉल में 5 विदेशी थे। अगली पंक्ति में 3 बैठे थे और दो विदेशी पिछली पंक्तियों में थे। मतलब 3 ऐसे थे, जो एक से अधिक बार विपश्यना करने आए थे। दो युवा चुटिया धारक थे। एक ने अपनी चुटिया को जूड़े का आकार देकर बड़े करीने से सजाया था। दूसरा युवा टीनएजर दिख रहा था। उसने अपनी चोटी को पोनी के रूप में गांठ मार रखी थी। साढ़े पांच बजते ही असिस्टेंट टीचर पहुंचे। वह लोग चौकी पर बड़ी खामोशी से बैठे। पालथी बने पैर पर चद्दर रखी। टीचर भी कभी ध्यानमग्न और कभी लोगों को देखते नजर आए। एक घंटे तक ध्यान के बाद लोगों की हालत पतली थी। ज्यादातर लोग अपनी गद्दी पर बैठे हिल डुल रहे थे। कोई पैर फैलाने की कोशिश कर रहा था, कोई उकड़ूं बैठने की कवायद कर रहा था। दो लोग ऐसे थे, जो पालथी मारकर बैठे बैठे ही सो गए। उनकी नाक बजने लगी। पहली बार मुझे देखने को मिला कि पालथी मारकर सीधे बैठे होने पर भी कोई इस कदर सो सकता है कि खर्राटे निकलने लगें।

इसके अलावा बीच बीच में पादने की आवाज भी किसी शंख की ध्वनि का अहसास देने लगी। 8 बजे से 11 बजे तक चलने वाले ध्यान में लोगों की बेचैनी, पादने और डकारने की आवाज उस ध्यान केंद्र में सबसे ज्यादा ध्यान बिचलित करने लगा। 

खर्राटे निकलते ही धम्म सेवक सक्रिय हो गए। बड़ी धीमी चाल में वे खर्राटे ले रहे व्यक्ति तक बढ़े। चाल बहुत शांत थी। जैसा भारतीय समाज में नई नवेली बहू को निर्देश दिया जाता है कि ऐसा न चलो कि धम-धम की आवाज आए और कोई अहसास कर पाए। धम्म सेवक कुछ उसी स्टाइल में चलते थे, जिससे ध्यान में बैठे लोगों को पता न चले कि कोई चहलकदमी हो रही है। सो रहे व्यक्ति को धम्म सेवक धीरे से हिलाते थे। ज्यादातर यह देखने को मिला कि उस व्यक्ति को धम्म सेवक नहीं छूते थे, बल्कि उनके आसन को खींचकर हिलाते थे। जब सोने वाला व्यक्ति चेतन अवस्था में आकर धम्म सेवक को देखता था तो धम्म सेवक उनके सामने हाथ जोड़ते और वहां से चले जाते।

इस तरह से पहले दिन की तपस्या के दो घंटे गुजर गए। साढ़े छह बजे से आठ बजे तक के समय में कमरे पर जाकर आराम करने, नहाने, धुलने के लिए कपड़े देने और नाश्ता करने का वक्त मिलता है। पूरे डेढ़ घंटे तक बेतहाशा भागना, तभी इतने काम पूरे होने थे। कम से कम सोने का वक्त तो इस बीच नहीं ही मिलना था। पहले रोज मैं कमरे पर गया, जो ध्यान करने वाले हॉल से करीब 400 मीटर की दूरी पर था। नहाना भी जरूरी था, क्योंकि गरम पानी साढ़े छह से सवा सात बजे के बीच ही आने का नियम था। नहाकर वहां से भागते हुए नाश्ता करने पहुंचा। ठीक ठाक देरी हो चुकी थी। सवा सात बजे तक ही साधकों को नाश्ते का वक्त दिया जाता था, उसके बाद वहां के स्टाफ नाश्ता करते थे। मैंने जल्दी जल्दी नाश्ता ठूंसा। हल्दी मिलाकर दो गिलास दूध पिया। उसके बाद फिर कमरे की ओर भागा कि आराम किया जाए। आराम क्या होना था, करीब 15 मिनट लेटने के बाद आठ बजने वाले थे और फिर उठकर ध्यान कक्ष की ओर भागा।

इसके पहले के ध्यान दुरुस्त रहे। शाम भी अच्छी कट गई थी। सुबह साढ़े चार से साढ़े छह बजे तक भी जैसे तैसे बीत गया। लेकिन नहाने, नाश्ते और कथित आराम के बाद 8 बजे से ध्यान काफी भारी पड़ रहा था। मैंने देखा कि हॉल में अन्य लोग भी उतनी ही तकलीफ में थे, जितना कि मैं। लोग उसी आसन पर अपनी देह ऐंठने में लगे थे। आगे पीछे, दाएं बाएं मुड़ भी नहीं सकते थे। कुछ तंदुरुस्त दिखने वाले बॉडी बिल्डर टाइप युवा तो मुझसे भी पहले बेचैन हो उठे।



सिर्फ एक टाइम खाना मिलेगा और दो टाइम नाश्ता, इस दर्द में या रात की भूख में। ऐसा लगा कि लोगों ने नाश्ता कुछ ज्यादा ही कर लिया था। तमाम लोग तो इस कदर डकार मार रहे थे, जैसे किसी शेर को डराने के लिए दहाड़ लगा रहे हों। इसके अलावा बीच बीच में पादने की आवाज भी किसी शंख की ध्वनि का अहसास देने लगी। 8 बजे से 11 बजे तक चलने वाले ध्यान में लोगों की बेचैनी, पादने और डकारने की आवाज उस ध्यान केंद्र में सबसे ज्यादा ध्यान बिचलित करने लगा। असिस्टेंट टीचर भी आकर बैठे। साढ़े नौ बजे टेप ऑन हो गया। उसमें से आवाज आने लगी। फिर शुरू हो जाएं... फिर शुरू हो जाएं। उसी लरजती कंपकंपाती आवाज में बुद्ध के कुछ उपदेश चलते रहे। पहले हिंदी में, फिर अंग्रेजी में। बीच-बीच में बिचलित साधकों के लिए आवाज। फिर शुरू हो जाएं... फिर शुरू हो जाएं। आती जाती सांस को अनुभव करें। देखें कि वह नाक के भीतर कहां कहां स्पर्श करके अंदर या बाहर जा रही है। अगर महसूस न हो रहा हो तो बीच बीच में आप सांस तेज लेकर आती जाती सांस को महसूस करें। 10 बजे असिस्टेंट टीचर ने कहा कि नए साधक अपने कमरों में जाकर वहां ध्यान कर सकते हैं। अद्भुत खुशी महसूस हुई। मैं तो तुरंत जान बचाकर भागा। नए आए सभी साधक तत्काल प्रभाव से निकल गए। मैं कमरे पर जाकर सो गया। ध्यान करने का तो सवाल ही नहीं था।

खाना खाने के बाद 12 बजे मैं असिस्टेंट टीचर के पास मिलने पहुंच गया। उनसे मिलने का मकसद कोई साधना संबंधी सवाल नहीं, बल्कि यह बतलाना था कि मैं कौन कौन सी दवा खा रहा हूं। मैंने उन्हें बताया कि 3 साल पहले मुझे कैंसर हुआ था। अब ठीक हूं। सुबह शाम दवाएं खानी होती हैं। टीचर ने पूछा कि दवाएं खाने के पहले तो खाना खाने की जरूरत होती होगी। मैंने उनसे कहा कि अभी तक तो खाना अच्छा लग रहा है। दो टाइम नाश्ता और दोपहर का भोजन। मेरे लिए पर्याप्त था। घर पर भी नाश्ते की कोई आदत नहीं है। भारत में जैसे सामान्य मजदूर नहीं जानते कि नाश्ता क्या होता है, वही हाल मेरा भी है। एक बार सुबह, एक बार रात में ठूंसकर खाना खा लेने के बाद न तो मुझे किसी नाश्ते की जरूरत होती है न चाय की। विपश्यना केंद्र पर सुबह का नाश्ता ही भारी पड़ जाता था, उसके 3 घंटे बाद ही खाना। काम के नाम पर आती जाती सांस को महसूस करना। फिजिकल वर्क के नाम पर ध्यान केंद्र से आवास, आवास से भोजनालय, भोजनालय से ध्यान केंद्र की ओर भागना, जिससे समय पर सारे काम निपट जाएं। इतना शारीरिक श्रम पर्याप्त नहीं था, जो दो टाइम नाश्ता और खाने को पचा सके। टीचर को मैंने बता दिया कि खाने में कोई दिक्कत नहीं है और रात का खाना खाए बगैर भी दवा खा सकता हूं। उन्होंने कहा कि अगर कभी दिक्कत महसूस हो तो बताइए, रात को 9 बजे कुछ खाने का प्रबंध किया जा सकता है। हां, एक बात उन्होंने और पूछी। डिप्रेशन की दवा भी लेते हैं क्या?  मैंने उनसे कहा कि कभी नहीं ली, डिप्रेशन जैसा मुझे कभी हुआ भी नहीं है। इससे यह फील हुआ कि यहां मरीजों की संख्या ज्यादा है, जो ध्यान केंद्रित करने आते हैं। उम्मीद में आते हैं कि बीमारी भाग जाएगी। बहरहाल... खाने को लेकर कभी समस्या नहीं आई।

अगर उसके बावजूद कुछ लोग घंटी बाबा की तरफ ध्यान न देते तो घंटी बाबा पहले तो घटी बजाते, उसके बाद जैसे ही उनसे साधक की नजर मिलती, वो हाथ जोड़कर साधक को हॉल की ओर जाने का इशारा करते थे। इस तरह से घंटी बाबा का खौफ ऐसा था कि....

टीचर से बात करके मैं कमरे पर आराम करने साढ़े बारह बजे पहुंचा। 25 मिनट आराम करने के बात फिर ध्यान केंद्र की ओर चल पड़ा। इस 25 मिनट में जरा सी भी नींद न आई। एक बजे फिर से धम्म हॉल में पहुंचना और फिर वहां 5 बजे तक साधना करना था। यह साधना का सबसे लंबा दौर था। इसमें ढाई से साढ़े तीन बजे तक सामूहिक साधना का वक्त। जबकि शेष वक्त आपको कमरे पर ध्यान करना है या हॉल में बैठे रहकर करना है, यह टीचर को तय करना होता था। टीचर ने कुछ भी नहीं कहा कि आप लोग कब हॉल में आएं और कब कमरे पर। सभी लोग हॉल में ही ध्यान करने आ जाते थे और वह ध्यान कराते रहते थे।



पांच बजे नाश्ते के लिए भागना होता था। मैं पहले ही निकल गया कि पहले नाश्ता करके आधे घंटे सो लूंगा। लेकिन मुझसे चालाक भी वहां तमाम लोग थे और भोजनालय का दरवाजा खुलने के पहले ही 100 लोग वहां नाश्ते के लिए लाइन लगाकर खड़े हो गए। तब मुझे अहसास हुआ कि पहले नाश्ते या खाने के लिए पहुंचने में खाने की लाइन लगाना अतिरिक्त कार्य हो जाता है। बहरहाल शाम को केवल भूजा-नमकीन-कॉर्नफ्लैक्स का मिक्सचर और केले के अलावा दूध मिला। भूजा-मिक्सचर तो मेरे मुंह के मुताबिक नहीं था, लेकिन 4 केले खाकर मैंने दूध में हल्दी मिलाकर दो गिलास पी लिया। उसके बाद करीब साढ़े पांच बजे कमरे पर पहुंच गया और आधे घंटे नींद भी मार ली।

हॉल में पहुंचा तो छह बजे से कुछ ज्यादा वक्त हो गया था। साधक लोग पहुंच चुके थे। असिस्टेंट टीचर भी पहुंच गए थे। करीब एक घंटे तक कांखते कूंखते, अइंठते-गोइंठते अपने आसन पर बैठे लोगों ने ध्यान किया। सात बजे 5 मिनट की छुट्टी हुई। उतनी देर में पेशाब करने और पानी पीने का काम लोगों ने निपटाया। पांच मिनट बीतते ही घंटी लग गई। साथ ही धम्म सेवकों ने छोटी वाली टुनटुनिया घंटी बजाकर लोगों को हांकना शुरू किया। जो खड़े रह जाते और ध्यान केंद्र की ओर नहीं बढ़ते उन लोगों के पास जाकर धम्म सेवक घंटी बजाते। घंटी बाबा का इतना खौफ था कि लोग चल ही देते थे हॉल की ओर। अगर उसके बावजूद कुछ लोग घंटी बाबा की तरफ ध्यान न देते तो घंटी बाबा पहले तो घटी बजाते, उसके बाद जैसे ही उनसे साधक की नजर मिलती, वो हाथ जोड़कर साधक को हॉल की ओर जाने का इशारा करते थे। इस तरह से घंटी बाबा का खौफ ऐसा था कि लोग नियमों का पालन करते ही थे। या कहें कि नियमों का पालन करने के लिए लोग मजबूर रहते थे।

हॉल में पहुंचने पर टेलीविजन स्क्रीन वीडियो से जुड़ चुका था। वीडियो स्क्रीन पर सत्य नारायण गोयनका मौजूद थे। उन्होंने कहा कि आज साधना का पहला दिन पूरा हुआ। आप लोगों को खूब तपना है। जितना तपेंगे, उतना लाभ होगा। करीब डेढ़ घंटे भाषण चला। यह भी पता चला कि माइक पर जो कराहती हुई आवाज भवतु सब्ब मंगलं कहते हुए निकलती है, वह एक असाधारण वक्ता की आवाज है। उस तरह की की आवाज किसी शास्त्रीय संगीत की कलाकारी के अभ्यास से निकाली गई है! भाषण तो अच्छा था ही, लेकिन दिन भर तपने (मतलब पकने) के बाद वह भाषण या कहें प्रवचन कुछ ज्यादा ही प्यारा और कर्ण प्रिय लग रहा था। साढ़े आठ बजे तक भाषण के बाद 5 मिनट आराम और उसके बाद फिर आधे घंटे की तपस्या। शाम का यह सत्र बड़ी आसानी से बीत गया।  9 बजे के ठीक एक मिनट पहले माइक से आवाज आई भवतु सब्ब मंगलं... भवतु सब्ब मंगलं.... भवतु सब्ब मंगलं। उसके बाद आगे वाले लाइन में बैठे लोग साधु... साधु... साधु... बोले। साधु साधु के बाद गोयनका जी की आवाज आई। विश्राम करें, टेक रेस्ट। उसके बाद असिस्टेंट टीचर ने कहा कि अगर किसी का कोई सवाल हो तो वह पूछ सकते हैं, अगर कोई सवाल नहीं है तो अपने आवास पर जाकर विश्राम करें। यही बातें अंग्रेजी में भी दोहराई जाती थीं। ज्यादातर लोग अपने कमरे की ओर भागे। मैं भी निकल गया। देखने की कोशिश भी नहीं की कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है, जो अभी हॉल में और टिके रहकर सवाल भी पूछना चाहता है, या सभी लोग सोने के लिए अपने कमरे की ओर भाग पड़े हैं। क्रमशः...



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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