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गीता चंद्रन के भरतनाट्यम में भक्ति प्रवाह — भरत तिवारी #ClassicalMusic #Bharatnatyam



भक्ति भारतीय शास्त्रीय नृत्य के मूल में है

— भरत तिवारी

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श्रुती कोटि समं जप्यम
जप कोटि समं हविः
हविः कोटि समम गेयं
गेयं गेयः समं विदुह
         — स्कन्द पुराण में शिव
इसका अर्थ जो मैं निकाल सका — मंत्र-जप दस लाख वेदिक अध्ययन के बराबर हैं,  यज्ञ दस-लाख मंत्र-जप के बराबर हैं, और दस-लाख यज्ञ के बराबर हैं, गीत गाना, यह समझदार जानते हैं।

(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1360288/The-Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/7/2




भक्ति भारतीय शास्त्रीय नृत्य के मूल में है। नृत्य, भारतीय परंपरा में, प्रारंभ ही ईश्वर के प्रति लगाव को दर्शाने के लिए होता है। वैदिक काल से शुरू हुआ यह उपक्रम, पुराणों में नृत्य-संगीत का वर्णन, भरत मुनि का नाट्यशास्त्र रचना अकारण नहीं बल्कि समाज को धर्म से जोड़ने और निराशा जैसी भावनाओं से दूर रखे जाने के लिए किया गया। आज का समाज नृत्य के इन मूल्यों से अनभिज्ञ है, भक्ति को आज अजीबोगरीब रूप दिया जाना धर्म के लिए कितने धर्म की बात है, यह सोच का विषय है। हजारों वर्षों से धर्म के सिद्धांतों को जनमानस तक सफल रूप से पहुँचाने में यदि नृत्य जरिया रहा है, तब क्यों आज शास्त्रीय-नृत्य के इस पहलू को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है? मुख्यतः यह काम राज्य की जिम्मेदारी है; लेकिन जैसा सुखद इतिहास है कि संस्कृति को बढ़ावा, राज्य की खानापूर्ति से इतर, व्यक्तिगत रूप से होता आया है। ऐसा कार्य करने वालों में नृत्यांगना गीता चंद्रन अग्रिम पंक्ति में हैं।

पद्मश्री सम्मानित गीता चंद्रन को कुछ रोज़ पहले ‘डांस इन एजुकेशन’ (शिक्षा में नृत्य) विषय पर वक्तव्य देते सुना था, जिस तरह उन्होंने नृत्य की आवश्यकता के  सामाजिक पहलुओं को समझाया, वह ‘आवश्यक’ लगा। शनिवार को चिन्मया मिशन ने 'भक्ति प्रवाह' श्रृंखला की शुरुआत मिशन के प्रमुख स्वामी स्वामी प्रकाशानन्द ने की। और उसके बाद नर्तक-दिन की शाम शुरू हुई, जिसमें अपनी प्रस्तुति ‘हरी भक्ति विलास’, में इस वर्ष की संगीत नाटक अकादमी सम्मनित नृत्यांगना ने, स्कंध पुराण के शिव की सलाह वाले पौराणिक सत्य को, २१वीं सदी में, भरतनाट्यम नृत्य के द्वारा, वर्णन और अनावर्णन के माध्यम से, प्रदर्शित किया और आध्यात्म की तलाश के  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रास्तों को अपने बेहद संजीदा नृत्य से, दर्शकों को समझा दिया।




नृत्य प्रदर्शन, शिक्षण, सञ्चालन, गायन, सहयोग, आयोजन, लेखन के साथ युवाओं से वार्ता की ज़रिये जुडी रहने वाली गीता चंद्रन, दर्शको को ऊपर लिखित सफ़र और उसके अंजाम पर पर नृत्य के इन ठिकानो से होते हुए ले गयीं —


  • सबसे पहले विष्णु के रूप को दर्शाता ‘गोविन्द वंदना’ पर नृत्य ।
  • दास्य भाव को दर्शाता उनका अगला नृत्य एम.एस.सुब्बालक्ष्मी के जन्मदिवस पर समर्पित उनका गाया मीरा भजन ‘मने चाकर राखो जी’ पर था।
  • वात्सल्य रस में डूबा उनका नृत्य ‘ठुमक चलत राम चन्द्र’ अद्भुत था।
  • साख्य और श्रृंगार रस समाहित नृत्य, अब बार-बार अद्भुत ही कहना होगा, अद्भुत रास था, हित हरिवंश जी की रास आधारित कविता, माध्यम बनी भक्ति से मोक्ष के रास्ते के इस ठिकाने तक पहुँचने का।
  • कार्यक्रम का समापन हनुमान, जिनसे बड़ा भक्त कौन होगा, के ‘मंगलम’ पर नृत्य से हुआ।





गीता चंद्रन भारतीय संस्कृति को बढ़ाने के अपने उपक्रम में भरतनाट्यम के अलावा कर्नाटक संगीत —  जिसकी वह एक निपुण गायक हैं —  टेलीविजन, वीडियो और फिल्म, थियेटर, कोरियोग्राफी, नृत्य शिक्षा, नृत्य-एक्टिविज्म से भी सहयोग दे रही हैं। आज कार्यक्रम में उनके साथ नट्टवंगाम  पर गुरु एस शंकर; गायन  सुधा रघुरामन; मृदंगम पर मनोहर बलचंद्रिरेन; बांसुरी पर रोहित प्रसन्ना, वायलिन पर राघवेंद्र प्रसाद तकनीकी निर्देशक: मिलिंद श्रीवास्तव मेक-अप: ब्रज का था।

चिन्मय  मिशन की इस श्रंखला में 9-10 नवंबर को रमा वैद्यनाथन और टी एम कृष्णा के कार्यक्रम होने हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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कपिल मिश्रा : न्यू इंडिया पुराने तरानों पर नहीं बनेगा #RightSide


(Image courtesy: Sonu Mehta/HT Photo)

तैयार हो दोस्तों ? 

— कपिल मिश्रा

तुम लड़ नही पाओगे उनसे अगर उन्हें पहचाना नहीं। उनकी भाषा और उनके चक्रव्यूह को समझे बगैर जब जब लड़ोगे, हारोगे। उनकी ताकत है निराशा, उनकी ताकत है नकारात्मकता, उनकी ताकत है अपने देश को, समाज को और धर्म को कमजोर दिखाना और गलत साबित करना।




वो मनोबल तोड़ते है, झुके हुए सिरों को काटने में उन्हें महारत हासिल हैं। वो गैंग की तरह काम करते हैं। तुम उनके सवालों के जवाब देने लगोगे, तो देते देते थक जाओगे, उनका लक्ष्य सवालों के जवाब ढूंढना नहीं तुम्हे तोड़ना हैं।

एजेंडा उनका, सवाल उनके और जवाब तुम्हारे। कब तक खेलोगे ये खेल। चौसर के खेल में युधिष्ठिर को हारना ही पड़ता हैं।

ये सवाल चुन चुन कर करते हैं, किस के मरने पर रोना है और किस की मौत पर चुप रहना है। कौन सा दंगा गलत और कौन सा सही, ये भी ये बताएंगे।

ये अलग अलग रूप में हैं। पढ़े लिखे, कोई पत्रकार, कोई प्रोफेसर, कोई राजनेता, कोई लेखक, कोई समाजसेवी, कोई बुद्धिजीवी।

जो इनकी भाषा न बोले, इनके सवालों को अपनी जुबान और कलम से दोहराना ना शुरू कर दे उसको ये न पत्रकार मानेंगे, न लेखक, न राजनेता, बुद्धिजीवी।

खेल भी इनका, खेल के नियम भी इनके। ये बहुत थोड़े है पर बहुत घाघ हैं। इनकी पहचान क्या है? इनका हर सवाल देश, समाज और धर्म के प्रति आपको शर्मिंदा महसूस करवाएगा। इनमें होड़ है —  अपने देश, समाज और धर्म को या तो दीन हीन साबित करे या हिंसक, दुष्ट व राक्षसी।




ये कोई राजनेता हो सकता है जो सर्जिकल स्ट्राइक होते ही सवाल उठाए, कोई पत्रकार जो कश्मीर में लड़ते सेना के ऊपर सवाल उठाए। किसी एक विचारधारा के पत्रकार की हत्या देश के किये जरूरी और किसी भी अन्य विचारधारा के पत्रकार की हत्या गैर जरूरी। लालू यादव के पूरे खानदान के कच्चे चिठ्ठे खुल जाने पर भी ये चुप रहते हैं। कब भ्रष्टाचार पर बोलना है, कब साम्प्रदायिकता पर, ये भी ये निर्णय लेते हैं। कभी ये अपने देश को एक धर्म के लिए असुरक्षित बताते है, कभी उसी धर्म के 40,000 विदेशियों को सुरक्षा देने के लिए अभियान चलाते हैं।

इनसे लड़ने से पहले इन्हें जानना जरूरी हैं। जिस दिन तुम इन्हें जान जाओगे, उस दिन ये हार जाएंगे।

उस दिन सवाल तुम्हारे होंगें और इनके पास किसी सवाल का कोई जवाब नहीं होगा। इनसे उलझो मत, अपने पथ पर चलो। निसंकोच , निर्भय और लगातार। भारत देश ने लंबा इंतजार किया है। सदियों का हिसाब किताब घंटो या महीनों में नही होगा। तुम क्यों शर्मिंदा हो जब इन्हें शर्म नहीं आती। नकारात्मकता का जवाब है सकारात्मकता । निराशा का उत्तर है आशा से भरा जोश और ऊर्जा।अंधेरों में उड़ने वाले कीड़े सूरज की पहली किरण के साथ गायब हो जाते हैं। पिछले 70 साल तक इन्होंने बताया कि ये देश कैसे चलेगा। अब और नहीं।

नया हिंदुस्तान , हिंदुस्तानी बनाएंगे। आशा, ऊर्जा और सकारात्मकता की ताकत से। अब सवाल हम पूछेंगे और जवाब भी हमारी भाषा मे होंगे ।

तैयार हो दोस्तों ?

- कपिल मिश्रा


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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21वीं सदी का ज़फर: एम्ऍफ़ हुसैन वाया पार्थिव शाह — भरत तिवारी #photography



कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए 

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में  

— बहादुर शाह ‘ज़फर’  


मकबूल ‘फ़िदा’ हुसैन की तस्वीरों के सामने से एक-एक कर गुजरता हुआ, ठहरता हुआ, हुसैन की आँखों की ज़बरदस्त चमक देखता हुआ, ठहर जाता हूँ, आखरी मुग़ल बहादुर शाह ‘ज़फर’  की याद सीने में भीतर से चिपक जाती है, और उस इंसान की बदनसीबी सोचता हूँ —  जिसे उसके ही देश ने निकाला दे दिया हो, देश जिससे वह बेपनाह मुहब्बत करता हो, जहाँ से निकाल दिए जाने का उसे कोई ख़्वाब भी, कभी नहीं आया हो। 1858  में, ज़फर को, बाहरी अंग्रेजों ने बाहर किया था; और ढेड़-सदी बाद, 2006 में, हुसैन को, भीतरी हमने बाहर किया। दोनों ही अपनी मिट्टी से दूर, दूर देश में सुपुर्दे ख़ाक हुए। 
(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1357704/The-Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/11/2

हुसैन से मिलने, जब उनके एक मित्र, दिल्ली से दुबई जाने की तैयारी में लगे थे, उन्होंने हुसैन को फ़ोन किया, “आपके लिए दिल्ली से क्या लेता आऊँ?” हुसैन ने कहा खूब सारे अखबार और पुरानी दिल्ली से दीवान-ए-ग़ालिब लेते आइयेगा!“ उनके मित्र पुरानी दिल्ली गए दीवान-ए-ग़ालिब ख़रीदा और दुबई जाते समय, हवाई अड्डे से अख़बारों को ले लिए। मित्र जब दुबई पहुंचे, और उनके घर में दाखिल हुए, उन्होंने देखा कि तमाम अखबार वहां घर में घुसते ही नज़र आ रहे हैं; और ऐसा ही कुछ दीवान-ए-ग़ालिब के साथ भी था । असमंजस में पड़, जब उन्होंने सवाल किया, “हुसैन भाई आपके पास तो पहले से ही, यह सब है, फिर आपने दिल्ली से लाने को क्यों कहा?” हुसैन ने कहा “मेरे दोस्त इन अखबारों से मुझे देश की खुशबू मिलती है, दीवान-ए-ग़ालिब के साथ मैं अपनी दिल्ली की खुशबू में उतर पाता हूँ।“ दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में ...


किरण नादर में पार्थिव 
फोटोग्राफर के योगदान को, कम आंकना, पूरे भारत की एक बड़ी कमजोरी है; इस ‘पूरे’ में वह आम इन्सान तो शामिल है ही जिसे कला से कुछ लेनादेना नहीं है, वह-भी शामिल है जो ख़ुद को कला-प्रेमी मानता है और वह भी शामिल है जिसे लोग कला-प्रेमी मानते हैं, जानते हैं। यह विडम्बना ‘बड़ी’ है। और ऐसी सिर्फ उम्मीद की जा सकती है —  जबकि उम्मीद किये जाने का कारण नहीं दिखता — कि भविष्य में भारत फोटोग्राफी-कला को समझेगा। एक तरीका जो उम्मीद बन सकता है वह यह है; जिसके कारण मुझे अभी एम्ऍफ़ हुसैन याद आ रहे हैं। अभी भारत के नामी फोटोग्राफर पार्थिव शाह की खींची तस्वीरों की प्रदर्शनी ‘सड़क.सराय.शहर.बस्ती:एम्ऍफ़ हुसैन’, किरण नादर कला संग्रहालय, दिल्ली — 2010 में खुला किरण नादर पहला, आधुनिक और समकालीन कला को प्रदर्शित करने वाला, निजी संग्रहालय है — में देख और उनकी व एस कालिदास के बीच हुई बातचीत, जिसे सुनने काफी लोग आये हुए थे, सुन कर आ रहा हूँ।




पार्थिव ने हुसैन की तस्वीरों को अपने लेंस से कागज़ पर उतारा है, या ऐसे कहूँ हुसैन को उस गैलरी में ले आये हैं, ज़िन्दा। कि आप न सिर्फ हुसैन को देख सकें बल्कि — जो काम सिर्फ एक बेहतरीन फोटोग्राफर के हाथों संभव है — उन्हें महसूस सकें, उनके साथ बस्ती निजामुद्दीन की गलियों में घूम सकें, साथ चाय पी सकें। आदमकद तस्वीरों के सामने खड़े हो कर उनसे आँखें मिलाने की कोशिश कर सकें, वो अलग बात है कि जब मैंने यह करना चाहा तो हुसैन जैसे पूछ उठे, ‘तब कहाँ थे मियाँ जब 95 वर्ष के मुझ पर 900 कोर्टकेस चल रहे थे? जब मुझे 21वीं सदी का बहादुर शाह ज़फर बनाया जा रहा था?


शाह की, 72 ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों में, हर सदी के रंग है, हुसैन की आँखों में वो चमक है जो उनसे छीन ली गयी; ऐसी छायाचित्र प्रदर्शनियों में जाना और वहां वक़्त बिताकर उन्हें समझना ज़रूरी है, फोटोग्राफर से मिलना संभव हो सके तो ज़रूर मिलना चाहिए। ...वह उम्मीद जिसकी बात मैंने ऊपर कही, वह यही है। इससे भारत में फोटोग्राफी के महत्व को नहीं समझा जाना, कम हो सकता है। इससे और हुसैन होना रुक सकता है, ऐसी तस्वीरें ही आपको यह सोचने पर मजबूर कर सकती हैं कि अगर तस्वीर नहीं होती तब ...? अगर पार्थिव शाह ने हुसैन की यह तस्वीरें नहीं खींची होतीं तब... और कि काश हुसैन यहीं होते...सड़क.सराय.शहर.बस्ती:एम्ऍफ़ हुसैन अभी जारी है, जाइये देख आइये।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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प्रेमा झा की कविता : प्रद्युम्न की माँ | #Pradyuman #Poem


प्रेमा झा की कविता : प्रद्युम्न की माँ

गुड़गाँव के एक स्कूल में सात साल के प्रद्युम्न की हत्या बड़ी बेरहमी से बाथरूम में कर दी गई...


प्रेमा झा की 'प्रद्युम्न की माँ' को पढ़ते समय, पहले मैं पाठक हुआ, फिर एक बार संपादक भी हुआ, फिर दोनों में गड्डमड्ड की स्थित आयी और उससे निकल कर, मैं कविता को माँ बनकर पढ़ने लगा. उसके बाद यह कविता कई दफ़ा माँ बनकर ही पढ़ी...पुरुष होने का खामियाजा, कविता में माँ की पीड़ा पढ़ते, देखते, समझते हुए भी महसूस नहीं पाया, बारबार. और अब पता है नहीं महसूस पाने के बावजूद दोबारा माँ बन ही पढूंगा, कारण न पूछिए, प्रेमा की प्रद्युम्न की माँ पढ़िए. 
भरत तिवारी

प्रद्युम्न की माँ

 — प्रेमा झा

शब्द नहीं बचा की
उसके दुःख पर कुछ कह सकूँ
छोटे से बच्चे का शव
खून से सना कपड़ा
माँ, सुनो न!
ये क्या है?
मैंने क्या किया था?
टीचर ने मारा है क्या
क्या चॉकलेट चुराई थी?
तुमने कहा था टिफ़िन खाकर आना
तो रात को खीर बना दोगी!

माँ बेटे को स्कूल भेजकर कल के यूनिफॉर्म पर
इस्त्री कर रही है!
फ़ोन बजता है
सात साल के प्रद्युम्न का शरीर खून में डूबा
कपड़े में उसका पार्थिव शरीर अब लिपटा है
‘क्या-क्या??’
छोटे से बच्चे के शर्ट-पैंट
मूंह-नाक सब खून से लथपथ है
किसी ने बड़ी बेरहमी से उसकी
चाकू मारकर हत्या कर दी है।

            मेरा लल्ला आतंकवादी तो नहीं था
            उसने कश्मीर से सेब भी नहीं चुराई थी
            क्या उसने डाका डाला था!
            तुमनें मेरी आँचल का रेप कर डाला
            किसने मारा लल्ला को मेरे??

क्या स्कूल सीरिया में था
कि था इजरायल में
मेरे बच्चे का कसूर क्या था
उसने तुमसे छीना क्या था
रोहिंग्या मुसलमान ही बना देते
हम भाग जाते न अपने बेटे को लेकर
वहाँ ताहिरा बेग़म गर्भस्थ शिशु को
कोख में लिए भाग रही थी
यहाँ मेरे लल्ला का गला रेता जा रहा था
दुनिया शिशुखोर हो गई है
बर्मा से शवों की बू आ रही है
चील-कौवे भी रो रहे हैं!




            ऐ धरती माँ
            सुनो न...सुनती क्यों नहीं!
            तेरा दिल कितना पत्थर हो गया रे!
            तू हिल न
            सुनो, फट जाओ न धरती माँ
            चुप क्यों हो?
            तुम इतना बड़ा कलेजा कैसे रखती हो??
                                 
देखो न, औरत की जात हूँ
आंसूओं का क्या करूँ?
कलेजे की कुहकती आवाज़ मेरे गर्भाशय को चोट मार रही है
माहवारी के खून से डरने लगी हूँ
क्योंकि हत्या, बलात्कार और बेटे प्रद्युम्न की रोती आवाज़ सुनाई देती है
माँ की गोद सूनी हो गई है
मेरा आँचल फट गया रे!
दुनिया सीरिया हुई है
सब देश और सब सीमाओं पर
गली-मोहल्ले, चौराहों पर
स्कूलों में, मैदानों में
सड़क पर, स्टेशन पर
बच्चे की जान को खतरा है!

            सुनो मेरी सरकार, ये कैसा लोकतंत्र है रे!
            ये माँ किस देश की है?
            तुमको आधार कार्ड दिखाऊँ क्या
            मैं भारत की औरत हूँ
            मेरे बच्चे का खून हो गया है
            उसका गुनाह बता दो
            तुम्हारे पांव पड़ती हूँ मातहत
            लेकिन, हो सके तो मरे बच्चे को लौटा दो

चीत्कारें चारो ओर मची थी
तभी पहली माँ ने दूसरी माँ से कहा
मैं आठ माह के गर्भ से हूँ
और नवें महीनें अगर मेरा शिशु इस दुनिया में आ सका तो
उस धरती का मुझे पता नहीं जहाँ वो जिन्दा रह सकेगा
दूसरी ने कहा, “मैं नि:संतान होने की आदि हूँ
क्योंकि मेरा बच्चा जब आठ-नौ साल का होगा
मार दिया जाएगा
तभी तीसरी माँ जोर-जोर से रोने लगती है
और
कहती है,
“माँ सीरिया की नहीं
माँ इजरायल की नहीं
माँ म्यांमार की नहीं
माँ कश्मीरी या मुसलमान नहीं होती
अंग्रेजी या दलित नहीं होती
माँ तो केवल माँ होती है बस!”
माँ रोहित की,
माँ गोलू* की
माँ प्रद्युम्न की
आज दुनिया की सब माँओं से अपील है
कि कह दो इस दुनिया को
दूध की कोई जात नहीं होती
और
खून का एक रंग केवल लाल है
वो तेरा लाल भी था
और
मेरा भी!
क्योंकि हर माँ प्रद्युम्न की माँ है
और
हर बेटा प्रद्युम्न है।

 *गोलू हत्याकांड: वर्ष २००१ के सितम्बर माह में ही बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के आठ साल के गोलू की भी हत्या बड़ी निर्ममता से अपहरणकर्ताओं द्वारा स्कूल जाने के क्रम में कर दी गई थी!



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देवनागरी हो संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि — मो. क. गांधी #हिंदी_दिवस



देवनागरी की महत्ता पर बापू का ख़त

हिंदी-दिवस विशेष 






इस संस्करण को हिंदी में छापने के दो उद्देश्य हैं। मुख्य उद्देश्य यह है कि मैं जानना चाहता हूँ कि, गुजराती पढ़ने वालों को देवनागरी लिपि में पढ़ना कितना अच्छा लगता है। मैं जब दक्षिण अफ्रीका में था तब से मेरा स्वप्न है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की एक लिपि हो, और वह देवनागरी हो। पर यह अभी भी स्वप्न ही है। एक-लिपि के बारे में बातचीत तो खूब होती हैं, लेकिन वही ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे’ वाली बात है। कौन पहल करे ! गुजराती कहेगा ‘हमारी लिपि तो बड़ी सुन्दर सलोनी आसान है, इसे कैसे छोडूंगा?’ बीच में अभी एक नया पक्ष और निकल के आया है, वह ये, कुछ लोग कहते हैं कि देवनागरी खुद ही अभी अधूरी है, कठिन है; मैं भी यह मानता हूँ कि इसमें सुधार होना चाहिए। लेकिन अगर हम हर चीज़ के बिलकुल ठीक हो जाने का इंतज़ार करते रहेंगे तो सब हाथ से जायेगा, न जग के रहोगे न जोगी बनोगे। अब हमें यह नहीं करना चाहिए। इसी आजमाइश के लिए हमने यह देवनागरी संस्करण निकाला है। अगर लोग यह (देवनागरी में गुजराती) पसंद करेंगे तो ‘नवजीवन पुस्तक’ और भाषाओं को भी देवनागरी में प्रकाशित करने का प्रयत्न करेगा।

इस साहस के पीछे दूसरा उद्देश्य यह है कि हिंदी पढ़ने वाली जनता गुजराती पुस्तक देवनागरी लिपि में पढ़ सके। मेरा अभिप्राय यह है कि अगर देवनागरी लिपि में गुजराती किताब छपेगी तो भाषा को सीखने में आने वाली आधी दिक्कतें तो ऐसे ही कम हो जाएँगी।

इस संस्करण को लोकप्रिय बनाने के लिए इसकी कीमत बहुत कम राखी गयी है, मुझे उम्मीद है कि इस साहस को गुजराती और हिंदी पढ़ने वाले सफल करेंगे।

मो. क. गांधी
सेवाग्राम
21-7-‘40




पत्र उपलब्ध कराने के लिए 'नवजीवन ट्रस्ट का आभार और गुजराती से हिंदी अनुवाद में सहायता के लिए पार्थिव शाह का शुक्रिया





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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नदियाँ जोड़ने का अभियान — मृणाल पाण्डे | #RiverLinking



भारत एक नदी मातृक देश है। यहाँ की तमाम बड़ी छोटी नदियों ने ही अपने अपने तटों पर हज़ारों बरसों से नाना सभ्यताओं और परंपराओं को उपजाया और सींचा है। बचपन से ही हर बच्चा सप्तमहानदियों का गुण गान सुनता है, जब जब कोई जन किसी भी देवप्रतिमा का पवित्र जल से अभिषेक करे।

   गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति 

        नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु 

— मृणाल पाण्डे




नदियों को गैर कुदरती तरह से जोड़ने से जब दो अलग तरह के जल मिलेंगे, तो हर नदी के गिर्द अनादिकाल से मौजूद तमाम तरह की वनस्पति और जलचरों में भारी भले बुरे बदलाव आ सकते हैं।




गङ्गेच यमुने चैव गोदावरी सरस्वति /  नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधिं कुरु के परिचित मंत्र में हर पात्र के जल में सात बड़ी नदियों : गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी के समावेश की कामना है। जल ही जीवन है, इसलिये देवता भी बिना जल के अभिषेक के प्रसन्न नहीं किये जा सकते। अन्य धर्मों में भी पारंपरिक वंदना वज़ू या मस्तक पर पवित्र जल के छिड़काव बिना संपन्न नहीं की जा सकती।

जल का इस उपमहाद्वीप के जीवन में महत्व समझ कर 1858 में सर आर्थर थॉमस कॉटन नाम के एक अंग्रेज़ इंजीनियर ने पहले पहल सरकार को सुझाव दिया था, कि मानसून तो चार ही महीने का होता है, वह भी दैवनिर्भर। उसके बाद यह महादेश लगातार बाढ सुखाड़ से किसी न किसी इलाके में जूझता रहता है। लिहाज़ा भारत की कुछ बड़ी नदियों को क्यों न नहरों के जाल की मार्फत इस तरह से जोड़ दिया जाये कि एक साथ सारे देश को, हर मौसम में जीवनयापन और खेती दोनो के लिये पर्याप्त पानी मिल सके। सुझाव में दम था, लेकिन इसकी प्रस्तावित अभियांत्रिकी का काम बहुत पेचीदा और खर्चीला था। ’57वीं क्रांति की मार की मार से उबर रही ब्रिटिश सरकार के लिये करने को तब और भी कई ज़रूरी प्रशासकीय काम सर पर सवार दिखते थे। लिहाज़ा विचार कागज़ों पर ही सीमित रहा।

इसका कुल खर्च आकलन के अनुसार कम से कम तीन ट्रिलियन डालर बैठेगा जो समयानुसार और भी बढ सकता है। क्या येन केन अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिये दिन रात जूझ रहा देश इतना व्यय सह सकता है?




कोई दो सौ बरस बाद लोकतांत्रिक भारत में पानी की बढती किल्लत के दबाव से इस विचार को फिर सामने लाया गया। पर इस बार जब बात निकली तो दूर तलक गई। कुछ बड़ी बातें सामने आईं जिनके अनुसार आज की बुनियादी तौर से बदल चुकी भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों में यह मामला परवान चढाना आसान नहीं होगा। फिर बात है खर्चे की। देश के सारे जलसंसाधनों की शक्ल बदल कर 30 बड़ी नदियों और 3000 अन्य जलस्रोतों को जोड़नेवाली इस विराट् परियोजना को परवान चढाने के लिये कम से कम 15,000 किमी नहरें बनानी होंगी। इसका कुल खर्च आकलन के अनुसार कम से कम तीन ट्रिलियन डालर बैठेगा जो समयानुसार और भी बढ सकता है। क्या येन केन अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिये दिन रात जूझ रहा देश इतना व्यय सह सकता है? इस सबके बावजूद सरकार में योजना के पैरोकारों का कहना है कि तमाम जोखिमों के बाद भी नदी जोड़नेवाली जल व्यवस्था के तीन भारी फायदे होंगे। एक, यह करीब 8 करोड़ सात लाख एकड़ ज़मीन की सिंचाई की व्यवस्था सुलभ कर देगा। दो, इससे बड़े पैमाने पर पनबिजली योजनायें चालू की जा सकेंगी जिनसे हर गाँव को बिजली मिल सकेगी। फिर सालाना जल की उपलब्धि भारत की दो बड़ी तकलीफों : सुखाड़ और बाढ दोनो को भी कम करेगी, जो हर बरस लाखों को दरबदर करती और भूखा बनाती आई हैं।

पर्यावरण दशा के मद्देनज़र हिमालय में पहाडों से किसी तरह की बड़ी छेड़छाड़ के संभावित सभी नतीजों पर भी सोचना होगा

अब आइये इस प्रस्ताव के विरोधियों की आपत्तियां भी समझें। इतनी बड़ी परियोजना एक ही तरह के नक्शे की तहत नहीं चलाई जा सकती। इसके तीन बड़े भाग कर उनके लिये तीन तरह के कार्यक्रम बनाने ज़रूरी होंगे। एक भाग वह होगा, जो दुर्गम होते हुए भी उस जलसंपन्न सारे उत्तरभारत की उन बड़ी नदियों को जोड़ेगा जिन सबके गोमुख हिमालय में हैं।



पर उत्तरी जलक्षेत्र में किसी भी हस्तक्षेप से पहले दो पडोसी देशों: नेपाल और भूटान को भी अनिवार्यत: राज़ी करना होगा जिनसे हम जल साझी करते आये हैं। भूगर्भीय दृष्टि से इस बेहद नाज़ुक इलाके की लगातार बिगड़ती पर्यावरण दशा के मद्देनज़र हिमालय में पहाडों से किसी तरह की बड़ी छेड़छाड़ के संभावित सभी नतीजों पर भी सोचना होगा। दूसरे हिस्से में दक्षिण भारत की 16 नदियों का क्षेत्र आता है जो उत्तर की तुलना में कम जल संसाधनयुक्त रहा है। यहाँ की बड़ी नदियाँ एकाधिक राज्यों से हो कर बहती हैं। और इसके मद्देनज़र योजना के तीसरे तथा खासे पेचीदा हिस्से में अंतर्राज्यीय जलबँटवार तथा बाँधनिर्माण से जुड़े नाज़ुक मसलों को रखा गया है, जिन पर बहुत समय से तमिलनाडु व कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात, राजस्थान और गुजरात के बीच तनातनी चली आई है।

इस बिंदु पर गौरतलब यह है, कि नदी जोड़ने की योजना का मूल खाका बहुत पहले की भौतिक स्थिति और नदीजल स्तर पर बनाया गया था। तब से अब तक ग्लोबल वार्मिंग तथा आबादी में बेपनाह बढोतरी से भारत में बहुत बड़े पैमाने पर तरह तरह के बदलाव आ चुके हैं। उदाहरण के लिये 1901 से 2004 तक के कालखंड पर उपलब्ध मौसमी डाटा पर किये (मुंबई तथा चेन्नई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के समवेत) शोध से यह जानकारी मिली है कि सौ बरसों में आबादी तो 32 करोड़ से सवा सौ करोड़ हो गई, लेकिन उसीके साथ देश में होनेवाली कुल बारिश 19 फीसदी घट गई है। नतीजतन महानदी तथा गोदावरी सरीखी दक्षिणी नदियों के क्षेत्र में जो कभी अतिरिक्त जल से संपन्न थे आज पानी की भारी कमी हो गई है। उत्तर में भी गंगा यमुना व ब्रह्मपुत्र सभी के उद्गमस्रोत ग्लेशियर तेज़ी से पीछे सरकते जा रहे हैं।




इसके अलावा एक बात और। मूल नदी जोडो योजना सारे भारत भूमि को एक सरीखा मानकर चलती है। जबकि भारत की बनावट कहीं पहाड़ी है, तो कहीं मैदानी। हमारी तकरीबन सारी नदियाँ ऊबड़ खाबड़, रेतीली, पथरीली हर तरह की भौगोलिक ज़मीन से गुज़रती हैं। इससे उन सबके जल की कुछ रासायनिक विशेषतायें आगई हैं और उनके ही बूते हर इलाके का अलग अलग किस्म का जलचर थलचर जीवन बना, और वानस्पतिक विकास हुआ है। नदियों को गैर कुदरती तरह से जोड़ने से जब दो अलग तरह के जल मिलेंगे, तो हर नदी के गिर्द अनादिकाल से मौजूद तमाम तरह की वनस्पति और जलचरों में भारी भले बुरे बदलाव आ सकते हैं। और वैज्ञानिक कहते हैं कि उनके बारे में अभी कोई अंदाज़ा लगाना कठिन है। उधर लगभग 27.66 लाख एकड़ डूबने से कोई 15 लाख की आबादी भी बेघर हो जायेगी। उदाहरण के लिये मध्यप्रदेश की केन तथा बेतवा नदियों को लें जिन पर काम जारी है। उनको जोड़ने के दौरान उस इलाके की 5,500 हेक्टेयर ज़मीन डूब में आयेगी। इससे पन्ना का अभयारण्य दुष्प्रभावित होगा और वहाँ के संरक्षित बाघों के साथ दोनो नदियों के दुर्लभ होते जा रहे घडियालों और मछलियों की प्रजातियों के लुप्त होने की भी आशंका बनती है। राजनैतिक चुनौतियाँ भी कम नहीं। पानी की लगातार बढती कमी ने जल बँटवार के मुद्दे को राजनेताओं के क्षेत्रीय वोटर समूहों की तुष्टि के लिये बहुत महत्वपूर्ण बना डाला है। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक सभी सशंक हैं। संविधान की तहत चूंकि जल संसाधनों पर अंतिम राजकीय हक राज्य सरकारों के पास होता है, जिस भी राज्य को लगेगा कि नदी जोड़ने से उसके लोगों के लिये पानी कम होजायेगा वे तुरत योजना पर अडंगा लगा सकते हैं। कुल मिला कर नदीजोड़ योजना की जितनी तारीफ की गई है, उसके लायक नहीं साबित होती। कम से कम अपने मौजूदा नक्शे की तहत।



(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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हम सब फ़कीर हैं : ए आर रहमान — भरत तिवारी | #IndianMusic





मैं एक नया मुकाबला दूंगा — ए आर रहमान

— भरत तिवारी



(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1355186/Navodaya-Time-Magazine-/The-Navodaya-Times-Magazine#issue/1/1



'पिया हाजी अली', फिज़ा, जिस फिल्म के लिए ए आर रहमान ने अपनी पहली क़व्वाली गायी थी, और 'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा', जोधा अकबर, ए आर रहमान के इन दो सूफी नग्मों को गायन-शैली और भाषा के कारण भले ही मुस्लिम धर्म की सूफी शाखा का भक्ति गायन होने के कारण क़व्वाली कहा जायेगा — क़व्वाली को भारत उपमहाद्वीप में जाने और सुने जाने का श्रेय अमीर ख़ुसरो को जाता है, जिन्होंने अपने गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया के लिए इन्हें रचा — लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में यह दोनों कव्वालियाँ अपनी भावना, जो ए आर रहमान की आवाज़ और संगीत के कारण दिल को सुकून देती है, हर संगीत प्रेमी की पसंद में शामिल हैं। बीते दिनों ए आर रहमान से मुलाक़ात हुई, रहमान क़ुतुब मीनार परिसर में होना तय हुए सूफी संगीत समारोह ‘सूफी रूट’ के सिलसिले में दिल्ली में थे।



उनसे एक छोटी लेकिन बड़ी बातचीत हुई; जिसका फ़ायदा उठाते हुए मैंने उनसे, उनके खुद के, 'पिया हाजी अली', और 'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा' कव्वालियों पर, खयाल, अनुभव आदि के बारे में पूछा।

रहमान ने बताया, “जब फिज़ा के निर्देशक खालिद महमूद उनसे फिल्म में गाने के सिलसिले में मिले तो खालिद ने मुझसे कहा, मैं आपसे दूसरा 'मुकाबला' (ए आर रहमान का चर्चित गीत) चाहता हूं।

इस पर उन्होंने खालिद महमूद से पूछा, “फिल्म के अन्य गीतों के बारे में बताएं?

खालिद ने कहा, “एक क़व्वाली है, जिसके लिए वह संगीतकार खय्याम के बारे में सोच रहे हैं।


खालिद महमूद, बस्ती निजामुद्दीन, 3/9/2011 



तिस पर उन्होंने फिज़ा के निर्देशक से कहा, “आप उनके (खय्याम) लिए कुछ और सोच लें...मैं एक नया मुकाबला दूंगा, इसी से अपनी पहली क़व्वाली कंपोज़ करूंगा”...

रहमान जब यह सब बता रहे थे, उनकी आँखों में समर्पण का वह भाव दिख रहा था — जो उन्होंने कुछ देर पहले मेरे सवाल, “आप हज़रत निजामुद्दीन औलिया के भक्त हैं, कुछ बताएँगे?”, के जवाब में यह कहते समय, “हम सब फ़कीर हैं” — जो तब उपजता है जब किसी कलाकार को यह ‘पता’ होता है कि ‘कला’ का उद्गम, वह नहीं, कोई और, कोई दूसरी शक्ति होती है।

मैंने उन्हें और कुरेदा वह बोले,” 'पिया हाजी अली' के विषय में मुझसे डॉक्टरों से लेकर अन्य बहुत लोगों ने अपने अनुभवों को साझा किया है...इंग्लैंड में एक साहब ने मुझे बताया, उनकी कार का ज़बरदस्त ऐक्सिडेंट हुआ, कार पलट गई, लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं हुआ। उन सज्जन का कहना था कि ऐक्सिडेंट के समय उनकी कार के स्टीरियो में 'पिया हाजी अली' बज रहा था।



'ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा' के विषय में बात करते समय तो रहमान जैसे पूरी तरह भक्ति में लीन हो कर बोले “'ख़्वाजा’ मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है”...यह इन्हीं रुहानी गीतों की वजह से है, जिससे हर वर्ग के संगीत प्रेमी ने जुड़ाव और आत्मीय अनुभव महसूस किए, और इन सब की बदौलत मिली दुआओं का ही असर रहा जो मुझे ऑस्कर-सम्मान के रूप में मिला।




और सवालों के बीच मेरा उस शाम का उनसे अंतिम सवाल — इन दोनों गीतों को आये काफी वक़्त हो गया, अब तीसरा गीत कब ? — रहमान पुनः उसी भक्ति-भाव में उतरते हुए बोले, “मैं गानों के साथ ज़बरदस्ती नहीं करता, यदि किसी रचना से जुड़ा संगीत, गायक, शब्द, सुर यानी कुछ-भी मुझे पसंद नहीं आता तो वह रचना मैं वहीँ रोक देता हूँ...”। मेरे प्रश्न का जवाब तो मुझे मिला नहीं था, यह उन्हें दिख गया...बोले “आप फेस्टिवल में आइये...”।





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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धर्महीन : सोनिया बहुखंडी गौड़ की कवितायें


धर्महीन

— सोनिया बहुखंडी गौड़

    स्त्री का अपना कोई धर्म नही होता
सभी स्त्रियों की नही होती सुन्नत

सिंक में बर्तन मांजते वक़्त
    बहते पानी को समझती हैं वें आज़ाद घोड़े की पूंछ

    स्त्रियों के पर्व कहाँ होते हैं, रसोई होती है
स्त्रियाँ पका सकती हैं सभी धर्मों के भोग!

वें नींद में जागते हुए करती हैं प्रेम
बिस्तर में सभी स्त्रियों के भगवान एक हैं

    स्त्रियों का प्रश्न करना दुनिया का लाज़मी ख्याल है
पुरुषों का सटीक उत्तर ना दे पाना दुःखद घटना

स्त्रियां सेब की तरह नीचे गिरती हैं
पुरुष न्यूटन की तरह उन पर लपकते हैं

           - - - - - -

सोनिया बहुखंडी की और कविताओं को पढ़ने से पहले, आप से कुछ पूछना है, और यही कारण है, जो मेरी कविताओं पर की जाने वाली टिप्पणी शुरू में न लिखी हो कर यहाँ पहली कविता के बाद है.

— कैसी लगी आपको यह 'धर्महीन' कविता ?


आपसे कहना चाहुंगा, "मेरे इस सवाल का जवाब देने से पहले, दोबारा, एक बार और, इस दफ़ा ठहर-ठहर कर, 'धर्महीन' पढ़ लीजिये" और 'स्त्रियाँ पका सकती हैं सभी धर्मों के भोग' और 'बिस्तर में सभी स्त्रियों के भगवान एक हैं' पंक्तियों में छुपे आख्यान को समझने की कोशिश कीजिये, और तब आगे इन कविताओं को पढ़िए; और अगर वह आख्यान आपकी समझ में नहीं आता है तो ऐसे में आगे आने वाली, उनकी कविताओं को, पढ़ने की, कम से कम, आपके लिए कोई वजह नहीं है.


सोनिया !  तुम्हे धन्यवाद ऐसी कविताओं को लिखने के लिए, धन्यवाद उन कारकों को जिन्होंने तुम्हे और तुम्हारी सोच को औरतों के लिए लिखवाया : 'स्वतंत्रता असहनीय है' और 'मैंने खुद को स्वाद से ज्यादा कुछ नही समझा!' और 'मैं जीवन चुराने के लिए हाथ बढ़ाऊंगी/ मेरे हाथ लग जाओगे तुम' और 'स्त्रियों के पर्व कहाँ होते हैं, रसोई होती है'...तुम्हारी सोच की 'इन' का इंतज़ार हिंदी कविता को था, और आगे लिखे जाने वाले 'और' का इंतज़ार हिंदी कविता को है.


ढेरों बधाई और शुभकामनाएं


भरत तिवारी





बँटी औरतों के बीच आज़ाद औरतें

कुछ औरतें छोटे छोटे राज्यों में विभक्त हो गई हैं
   जिनमे राज करते हैं कुछ निरंकुश
   कुछ के भीतर से बंटे हुए देश एक विश्व होने की कल्पना में प्रलाप करते हैं।

कुछ औरतें नदी हैं, जो स्वतंत्र होकर बहती हैं
   स्वतंत्रता असहनीय है,
बांट दी जाती हैं नदियां छितरे राज्यों में
विवाद छिड़ जाता है... नदी के शरीर को लेकर
जो जीवन देता हैं इन निरंकुश शासकों को।

कुछ औरतें मछलियां हैं जो आज़ादी से तैर रही हैं नदियों में
मछुवारे तैनात किए जाते हैं, जाल फेंका जाता है
और दफना दिया जाता है उनकी आजादी को खंडित आंगन में!

कुछ औरतें बारिश हैं, कुछ हवा तो कुछ मिट्टी
हवा बहती है, बारिश की फुहारें आती है सूखी मिट्टी का कलेजा भिगाती हैं, आंगन में उगता है एक हरसिंगार का पेड़, फूल झरते हैं।
कुछ औरतें खुशबू बन जाती हैं, जो हवा में घुल जाती हैं।
बंटे हुए राज्य, नदियां दफनाई गई मछलियां मुस्कराती हैं।

निरंकुशता दफ़न होने को है!
औरतें देश बनने को हैं.. विश्व तैयार होने को है।

सोनिया बहुखंडी गौड़


अस्तित्व


मैंने देखा तुम्हारी आँखों में
जो सागर की गहराई का अंतिम छोर हैं
मैने पाया मैं एक नदी हूँ!

तुम मेरे होंठो के गुलाब ताकते रहे
शहद की मिठास का रहस्य छुपा था पंखुड़ियों में
मैंने खुद को स्वाद से ज्यादा कुछ नही समझा!

तुम मेरी पृथ्वी सी देह में विश्राम के लिए ठहरे
सूर्य समझ कर मैंने तुम्हारे चक्कर काटे
तुम्हारी देह के चक्कर काटना मेरी अंतिम गति है!




बिच्छू

    नदी की देह में झुरझुरी होती
    उसके आँचल में सरकता है जब बिच्छू!

एक बड़ी लहर फेंकती है बिच्छू को किनारे
    भुरभुरी रेत का झुरझुराना बिच्छू का डंक चुभना है

ये बिच्छू प्रेम हैं...
    झुरझुरी तुम्हारा ख्याल

    मेरे आँचल में प्रेम का सरकना
मेरी सम्पूर्ण सत्ता में सनसनी होना है

रात सरसरा रही है चुभा है मानो उसे डंक!
सन्नाटा खामोशी से दर्द को लील रहा है।




तलाश


तुम्हारी हथेलियों की नीली नसें और
उन जंगली नीले फूलों का रंग एक सा है
फूलों को चूमना, मानो तुम्हारे हाथों को चूमना।

केले के पत्तों पर सरकती ओस को संभालना
और संभालना एक बटन रोज को
जिसका रंग तुम्हारे होंठों जैसा है।

बारिश हवा के साथ नाच रही थी
जब तुम एक छोटी सी बच्ची के साथ खिलखिला रहे थे
मैंने छुपाये पानी के बीज बंद मुट्ठी में जो हँसी उगा सकते हैं!

एक नदी की रहस्यमयी लहर में छुपा होता है जीवन,
मैं जीवन चुराने के लिए हाथ बढ़ाऊंगी
मेरे हाथ लग जाओगे तुम।

फिर एक दिन तुमको तलाशने में गुजर जायेगा।
तुम एक हरा-भरा जंगल हो!




वजह तुमसे इश्क़ की

तुम्हारे पास एक रंग पड़ा था
तन्हाई का, कुछ पत्ते पतझड़ के काँपते हुए !

मेरे पास पड़े थे गूंगी गौरैया के बेबसी के रंग
और कुछ बेतरतीब से ख्याल।

हम दोनों के पास पड़े रंगों का आपसी चुम्बन
बेबसी का आकाश की अंतहीन गुफाओं में गुमना।

रंगों  का एक साथ धड़कना...
एक यही वजह थी तुम्हारे प्यार में पड़ने की
मैं जीवित भी रहना चाहती थी!




औरतें जीवन तैयार करती हैं


औरतें सूरज बोती हैं
मेरी दादी को अक्सर ऐसा करते देखा था मैंने
वे आँखें खोलती सूरज अंकुरित होता पहाड़ों में!
और कुछ ही देर में विशाल रूप धर लेता!

औरतें मौसम तैयार करती हैं, मेरी माँ को करते देखा मैंने।
उनकी खिलखिलाहट से बारिश पैदा होती है
वे मासूमियत से पहाड़ो में बर्फ की कूंची चला देती हैं
हृदय की धड़कनों से पहाड़ों में सर्दी की सांसे फैला देती हैं।

ये औरतें जीवन तैयार करती हैं भविष्य के लिए
उनके स्वप्न लहलहाती फसल की तरह है
उनके भीतर से ख्वाब हकीकत बनकर निकलते हैं।
यह मेरी खुद की सत्यकथा है!

मैने देखा है औरतों को सूरज काटते हुए
जब भी वे सांझ को प्रेम का चंद्रमा उदीप्त करती हैं
वे नींद में प्रेम करती हैं
उन्हें जागना है सुबह सूरज बोना है और चंद पलों में उसे जवान करना है

मैंने देखा है सभी औरतों को ऐसा करते हुए!




पहाड़ी औरतें


ख्यालों में नही होती एक हकीकत होती हैं ये पहाड़ी औरते
जो जाग जाती हैं शुक्र तारे के डूबने से पहले
उनके पुरुष पहाड़ हैं...
और वे खुद नदी, जो पहाड़ों के बीच से होकर निकलती हैं
वे घूँघट नही काढ़ती, वे अपने नदी से लहराते बालों को बांध लेतीं हैं साफे से
वे बो देती हैं ना जाने कितने ख्याल जमीन पर
जो हर मौसम में फसल बन जाते हैं!

अपने दुधमुये बच्चों को टूट के प्यार नहीं कर पाती
क्योंकि उनको खेत जाना है धरती को तैयार करना है प्रस्फुटन के लिए।
घास काटनी है ना जाने कितने गट्ठर, प्रतिस्पर्धा में कुछ ज्यादा ही काट लाती हैं घास।
उनकी हथेलियां नही होती मुलायम शहरी मेमों की तरह।
पहाड़ों को पसंद हैं उनकी खुदरी हथेलियां।

शाम को घर आते ही समेटनी हैं उन्हें कई बिखरी व्यवस्थाएं
सलीके से लगाना बखूबी जानती हैं ये,
नदियाँ अपना मालिकाना हक कभी नही मांगती!

बिना थके वे जुट जाती रात को पकाने में
नदियों की लहरें सोते हुए भी, पहाड़ो  को गुदगुदाती हैं
दुधमुएँ बच्चे माँ से लिपट के सो जाते हैं, बच्चों की कोमल त्वचा में चिपका रह जाता है दिन भर का नमक, जो माँ के जाने के बाद उग  आया था उनके   गालों के पास

नदी की त्वचा कांटो जैसे चुभती है
      पहाड़ उनको सहलाते हुए सो जाते हैं!




औरतें अजीब होती हैं

चलो भूल जाते हैं उस शख्स को
     औरतें भूलने का नाटक बखूबी करती हैं

पहाड़ों पर पसरे मौन से तर्क करने से बेहतर
आसमान में उड़ते बादलों के गुबारों से संवाद करते हैं
उनके ओझल होने से पहले।

ज़ेहन में फैली ख्यालों की नर्मियत को
पोत देते हैं बंजर मिट्टी के रंग से..
बांझ पैदा नही करती जीवन की बालियां।

दलील देने से बेहतर
रोक देते हैं नदियों के रुदन को
कितनी ही लहूलुहान हो जाये वे चट्टानों से टकराकर।

चलो भूल जाते हैं......
मुस्कराती नदी के होंठ सिल कर
औरतें चुप भी जल्दी हो जाती हैं।



सोनिया बहुखंडी गौड़
जन्म : 21 अप्रैल, 1982
परास्नातक जनसंपर्क एवं पत्रकारिता, परास्नातक (प्राचीन इतिहास)
स्वतंत्र लेखन, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित
संपर्क: 160/4, जे0के0 कॉलोनी, जाजमऊ, कानपुर- २08010
ईमेल : Soniyabgaur@gmail.com


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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गुंदेचा बंधुओ का शक्तिशाली ध्रुपद गायन — भरत तिवारी | #IndianClassical



पंडित क्षितिपाल मल्लिक ध्रुपद उत्सव

— भरत तिवारी 

(आज के नवोदय टाइम्स में प्रकाशित)
http://epaper.navodayatimes.in/1351611/The-Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/9/2


दरभंगा घराना या दरभंगा मल्लिक घराना भारत के दो मुख्य और जीवित ध्रुपद परंपराओं में से एक है। यह माना जाता है कि 17वीं शताब्दी में, दरभंगा मल्लिक परंपरा के पूर्वजों ने तानसेन के पडपौत्र भूपत खान से संगीत की शिक्षा ली, भूपत खान अवध के नवाब शुजा-उदौला के दरबार में मुख्य संगीतकार थे। पंडित क्षितिपाल मल्लिक दरभंगा घराने के प्रख्यात संगीतज्ञ थे; आपको समर्पित सोसाइटी द्वारा हर वर्ष ‘पंडित क्षितिपाल मल्लिक ध्रुपद उत्सव’ का आयोजन होता है।



शनिवार की शाम, दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में, दो दिवसीय उत्सव के दूसरे दिन पद्मश्री सम्मानित गुंदेचा बंधुओ ने पंडित क्षितिपाल मल्लिक ध्रुपद सम्मान ग्रहण करने के पश्चात, अब तक ध्रुपद प्रेमियों से भर चुके हाल में, राग मेघ में गायन से शुरुआत की। रमाकांत और उमाकांत भाइयों ने ध्रुपद को, बदलते वक़्त की ज़रूरत के महत्व को समझते हुए, ध्रुपद में वर्तमान परिप्रेक्ष्य के अनुरूप, न सिर्फ गायन बल्कि अन्य विधाओं, मसलन, नृत्यांगना चंद्रलेखा व आधुनिक कलात्मक नर्तक, कोरियोग्रफर अस्ताद देबू जैसे कलाकारों के काम के साथ जोड़ने जैसे, सफल प्रयोगों से ध्रुपद की कम होती लोकप्रियता को, वह उत्थान दिया है, जिससे आज संगीत की यह प्राचीन विधा अपना जादू बिखेर रही है। उनकी अगली प्रस्तुति राग अडाना में शिव भजन 'आदीदेव शक्ति' थी, जिसमें अत्यंत खूबसूरत और जिस शक्तिशाली गायन के लिए बंधुओ को सम्मान से देखा जाता है, गायन से अलौकिक माहौल बना दिया; गायन में संगत पर अखिलेश गुंदेचा, पखावज; संगीता चोपड़ा तानपुरे पर और संजीव झा तानपुरा व गायन सहयोगी रहे।

शाम के पहले चरण में प्रभाकर नारायण पाठक मल्लिक ने राग मारवा में धमार और मियां की मल्हार का गायन किया। प्रभाकर पंडित क्षितिपाल मलिक के प्रपौत्र हैं। कार्यक्रम का संचालन चन्द्र प्रकाश तिवारी ने किया।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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आपका ऑपरेशन शुरू होने वाला है — सत्येंद्र प्रताप सिंह | #विपश्यना



विपश्यना — सत्येंद्र प्रताप सिंह — संस्मरण: पार्ट 2

आप भी गजब ही ढा रहे हैं। क्या झमाझम माहौल है। नयनाभिराम। आप हैं कि इनको फैक्टरी का मजदूर या स्कूली बच्चा बना देना चाह रहे हैं, जहां सब एक ही तरह के हों, एक ही हांके पर चल पड़ें। एक ही हांके पर उठें-बैठें। वह थोड़ा सा झेंप से गए, लेकिन उन्होंने फिर कोई प्रतिकार नहीं किया। शायद उन्हें अहसास हो गया हो कि माहौल खूबसूरत, खुशनुमा और रंग बिरंगा ही बेहतर होता है।





सुबह सबेरे हम इगतपुरी स्टेशन पहुंच गए। जैसा कि देश के हर इलाके में होता है, स्टेशन से निकलते ही ऑटो रिक्शा वाले यात्रियों को दौड़ा लेते हैं, वहां भी हुआ। एक ऑटो चालक ने हमें इगतपुरी स्थित ‘विपश्यना विश्व विद्यापीठ’ पहुंचा दिया।

विद्यापीठ के गेट पर स्थित गार्डों ने अंदर जाने दिया। बाएं हाथ की ओर कार्यालय और दाहिने हाथ की ओर रेन-वाटर हार्वेस्टिंग के लिए तालाब और पहाड़। प्राकृतिक सौंदर्य की छंटा पहली बार नजर आई, क्योंकि बारिश की वजह से ऑटो पर पर्दे लगे हुए थे। वहां धम्म सेवक मिले। उन्होंने हाथ जोड़कर अभिवादन किया। विद्यापीठ में बने आवास की ओर ले गए। उन्होंने कहा कि जो बेड खाली हो, वहां अपना सामान रखें, फ्रेश हो लें। उसके बाद नाश्ता कर लें।

आवास डॉर्मेट्री की तरह था। करीब 20 बेड लगे हुए और एक या दो बेड के बीच एक दीवार। लगातार बारिश होने की वजह से डॉर्मेट्री में सिलन की बदबू आ रही थी। उसमें दो टॉयलेट और दो बाथरूम थे। मुझे थोड़ा सा असहज महसूस हुआ कि इसमें 10 रात कैसे काटी जा सकती है? मुझे ब्रश करने में ही 20 मिनट लग जाते हैं। शौचालय जाना, नहाना। अंतर्वस्त्र धुलना। कुल मिलाकर डॉर्मेट्री में अजीब फीलिंग हुई। फिर भी एक बिस्तर पर सामान जमाने के बाद नहाया, जंघिया बनियान साफ किया।

तब तक बुलावा आ गया कि नए आए लोग कार्यालय में पहुंचें। सामान छोड़कर कार्यालय में जाने लगे। धम्म सेवक ने कहा कि सामान भी ले चलना है। भीगी जंघिया-बनियान और तौलिया आदि बैग में पैक किया। इस बीच घर से फोन आया कि क्या स्थिति है, पहुंच गए क्या। मैंने कहा, कुछ खास नहीं। पहुंच गया हूं। ठीक ही है। और थोड़ी वार्ता के बाद झोला-झंटा उठाकर कार्यालय की ओर बढ़ चले।

कार्यालय एक घंटे बाद खुला। वहां धम्म सेवक तैनात थे। उन्होंने सामान जमा कराया। उसके बाद पंजीकरण की पुष्टि की गई। पंजीकरण पुष्ट होने के बाद कहा गया कि आपके पास मोबाइल, पठन पाठन सामग्री, गंडा ताबीज, कंठी माला, जेवर गहने जो भी हों उसे उतारें और जमा करा दें। 300 रुपये छोड़कर पूरे पैसे, क्रेडिट व डेबिट कार्ड भी जमा करा लिए गए। उसी समय आवास भी आवंटित हो गया।

आवास आवंटन, सामान जमा करने, कपड़े की धुलाई के लिए 300 रुपये जमा करने के बाद 11 बज चुके थे। खाने का वक्त था। एक बहुत बड़े हॉल, जिसमें करीब 400 लोगों के एक साथ बैठकर खाने के लिए कुर्सियां लगी हुई थीं, वहां हम लोगों ने खाना खाया। खाना सेल्फ सर्विस थी। भिंडी की मसालेदार सूखी सब्जी, एक रसदार सब्जी, दाल, घी लगी रोटियां और चावल। साथ में छाछ। खाना तो बेहद स्वादिष्ट लगा। यही खाना खाने की आदत सी होने की वजह से बड़ी खुशी हुई कि बगैर मिर्च मसाले वाला ऐसा खाना यहां दे रहे हैं, जिसे मैं आसानी से खा सकता हूं।

Photo from Meena Schaldenbrand's blog
खाने के बाद झोला लेकर आवास तलाशने के लिए निकल पड़े। आवास बहुत देर तक तलाशना पड़ा। वह कार्यालय से सबसे दूर स्थित आवास था। कार्यालय की पहाड़ी से करीब आधे किलोमीटर उतरकर नीचे जाने पर बना था। उन कमरों के बाद केले की खेती थी, जो शायद विपश्यना विद्यापीठ की ही थी। दूसरी ओर नंगे पहाड़ थे। बारिश होने की वजह से उन पर कुछ हरियाली लौटी थी। हिमालय के पहाड़ी इलाके के विपरीत वेस्टर्न घाट का यह पहाड़ नंगा सा था। उस पर पेंड़ पौधे नहीं थे। बारिश की वजह से कुछ घास फूस टाइप हरियाली थी।

मैं आवंटित कमरे में पहुंचा। इत्तेफाक से वह एक कमरे का सेट था, जिससे अटैच टॉयलेट-वाशरूम थे। यह देखकर थोड़ी खुशी हुई कि डॉर्मेट्री की तुलना में यह शानदार है। गजब की राहत मिली। वाशरूम का दरवाजा खोलते ही एक जोर का भभका आया। वह संभवतः विशुद्ध रूप से बगैर किसी केमिकल्स या रूम फ्रेशनर के बगैर, टट्टी की गंध से वाशरूम में पैदा हुई बदबू थी। उसमें कोई एयर फ्रेशनर नहीं था। कोई केमिकल भी नहीं था। दरवाजे पर निर्देश लिखे हुए थे कि कमरा छोड़ने से पहले शौचालय व कमरे की सफाई करके जाएं। जो भी मेरे पहले रहे होंगे, निश्चित रूप से उन्होंने अच्छी सफाई की थी। हां, यह अहसास जरूर मिला कि अगर शौचालय को साफ करने में केमिकल्स का इस्तेमाल न किया जाए, शौचालय में एयर फ्रेशनर न लगाया जाए तो उसकी स्वाभाविक बदबू कैसी हो सकती है।

कमरे में बैग रखकर ट्रेन में मिले अपने विपश्यी साथी के साथ मैं घंटी वाली घड़ी लेने निकल गया। वेबसाइट से पता चला था कि सुबह सबेरे उठना होता है। ऐसे में जगने के लिए घंटी वाली घड़ी ले आएं। साथ ही ताला, छाता, रेनकोट, नहाने का साबुन, कंघी इत्यादि जैसी छोटी छोटी चीजें ले जानी थीं। पत्नी ने जाने के पहले बैग में सारी चीजें सजा दी थीं। घंटी वाली घड़ी नहीं थी। उसे खरीदना था।

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हम लोग करीब 2 किलोमीटर पैदल चलकर विपश्यना विद्यापीठ से बाहर मोहल्ले में आए। वहां कुछ दुकानें थीं। दोपहर होने की वजह से सिर्फ एक दुकान खुली थी। वहां दुकानदार भी विपश्यना केंद्र की जरूरतों को समझते हैं। इसकी वजह से वे पानी की बोतल, घंटी वाली घड़ी, छाता, साबुन, हैंडवाश, मॉस्कीटो क्रीम वगैरा रखते हैं। मैंने घड़ी खरीद ली। उसी बीच तेज बारिश शुरू हो गई। छतरी लगाकर विपश्यना केंद्र के गेट तक आए। गेट में घुसते ही एक खूबसूरत सी गैलरी है, जहां बुद्ध के प्रारंभिक जीवन से लेकर मृत्यु व तमाम राजाओं, सेठों, अंगुलिमाल वगैरा-वगैरा के हृदय परिवर्तन संबंधी कहानियों के बारे में सचित्र जानकारी दी गई है। पूर्णतया वातानुकूलित इस हॉल में पगोडा, उसके शून्यागार और विपश्यना के बारे में डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई जाती है। डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद पता चला कि मंदिर की तरह आकार वाली जो आकृति बनी है, वह स्तूप और म्यामार की वास्तु का मिला जुला रूप है, जिसे पगोडा कहते हैं। पगोडा में शून्यागार होते हैं, जहां बैठकर साधक लोग ध्यान करते हैं।

डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद हम अंदर बढ़े तो दाईं ओर खूबसूरत पार्क बना हुआ है। हालांकि पार्क की खूबसूरती दूर से ही देखने को मिली। उस समय भी बारिश हो रही थी और पार्क को बंद कर दिया गया था। एक बोर्ड पर सूचना लगी हुई थी कि लंबे समय से लगातार बारिश के कारण सड़क व पत्थरों पर फिसलन बढ़ गई है। बुद्ध पार्क में प्रवेश रोक दिया गया है।

कमरे पर लौटे तो पता चला कि घड़ी चल ही नहीं रही है। बड़ी मुसीबत यह कि बारिश में दो किलोमीटर पैदल चलकर जाना। वहां घड़ी वापस करना या नई घड़ी खरीदना और फिर लौटकर आना। लेकिन सुबह 4 बजे तपस्या करने के लिए उठना था और शाम 5 बजे के बाद साधकों को विपश्यना केंद्र से 11 दिन बाहर जाने की मनाही होने वाली थी, इसलिए फिर भागते हुए घड़ी लेने पहुंच गया। संदेह था कि दुकानदार घड़ी बदलेगा, लेकिन उसने बड़ी शालीनता से न सिर्फ घड़ी बदलकर दी, बल्कि कई बार अफसोस भी जताया कि आपको बदलने आना पड़ा। वहां से आकर मैं कमरे पर सो गया।

शाम 5 बजे नाश्ता मिलने वाला था। 5 बजे के नाश्ते में दक्षिण भारतीय सूजी का नमकीन हलवा मिला। वह भी खाने में टेस्टी लगा। उसके अलावा दूध था। दूध भी इच्छानुसार पीने की छूट थी तो मैंने हल्दी मिलाकर दो गिलास दूध पी लिया। फिर इंतजार करने लगे कि आगे क्या होने वाला है। माउथ पब्लिसिटी से ही पता चला कि इसी हॉल में रुकने पर आगे के लिए कुछ निर्देश मिलने वाला है।

मुंबई से आए एक विपश्यी साधक ने यह बताया। उन्हें भी किसी ने बताया ही था। उनको मैंने कहा कि अगर निर्देश नहीं देते हैं, तब भी अच्छा है। अब नाश्ता कर ही लिया है। इसके बाद खाना मिलने वाला नहीं है। चुपचाप चलकर कमरे में सो जाएंगे। मुंबई वाले साधक भी नए नए थे। हम लोग जहां खड़े हुए, सामने महिलाओं के लिए पंजीकरण का कार्यालय था। एक से बढ़कर एक महिलाएं जुटी थीं। एक तो अपने बाल कई रंगों में रंगे हुए एक्सट्रा मॉडर्न दिखी। तमाम लड़कियां रग्ड जींस, स्टाइलिश चश्मे पहने नजर आ रही थीं। कुछ लड़कियां ऐसी भी लगीं, जो अपने ब्वाय फ्रेंड, पति, मित्र के साथ आई हैं। हालांकि उनमें से कुछ 40 पार वाली भी लग रही थीं और इक्का दुक्का बूढ़ी भी। मुंबई के विपश्यी को रहा न गया। उन्होंने सुझाव दिया कि यहां लोग तपस्या करने आते हैं। ड्रेस कोड होना चाहिए। मैं उनका इशारा समझ गया। मैंने प्रतिकार करते हुए कहा आप भी गजब ही ढा रहे हैं। क्या झमाझम माहौल है। नयनाभिराम। आप हैं कि इनको फैक्टरी का मजदूर या स्कूली बच्चा बना देना चाह रहे हैं, जहां सब एक ही तरह के हों, एक ही हांके पर चल पड़ें। एक ही हांके पर उठें-बैठें। वह थोड़ा सा झेंप से गए, लेकिन उन्होंने फिर कोई प्रतिकार नहीं किया। शायद उन्हें अहसास हो गया हो कि माहौल खूबसूरत, खुशनुमा और रंग बिरंगा ही बेहतर होता है। या कुछ और। उन्होंने कोई नकारात्मक या सकारात्मक टिप्पणी नहीं की।

करीब 6 बजे खाना खाने वाला हॉल पूरी तरह से भर गया। कुर्सियां तो भरी ही थीं। फ्रंट गलियारे में भी लोग नीचे बैठे थे और दीवारों के पास गलियारे में भी लोग अच्छी खासी संख्या में खड़े थे। यह देखकर अनुमान लगा कि 550 के करीब लोग विपश्यना करने पहुंच गए हैं।

वहां लगे माइक से भाषण चलने लगा कि आगे क्या होगा। नियम बताए गए, जो ज्यादातर मैंने इंटरनेट पर ही पढ़ लिया था। साथ ही यह भी कहा गया कि यह बड़ा कठिन तप है। अगर आप 10 दिन नहीं ठहर सकते हैं तो अभी भी छोड़कर जा सकते हैं। हमें कोई दुख नहीं होगा। खुशी होगी कि आपने सोच समझकर निर्णय लिया है। अगर बीच में छोड़कर जाते हैं तो आपका नुकसान हो जाएगा। छोड़कर जा सकते हैं... छोड़कर जा सकते हैं... नुकसान हो जाएगा, यह धमकी टाइप ही लगी। एक ऐसी धमकी, जिसमें आदमी मजबूर हो। कुछ ऐसी धमकी, जैसे हॉस्पिटल में चिकित्सक मरीजों को देते हैं। अगर आप कभी हॉस्पिटल में कोई ऑपरेशन कराने जाते हैं तो चिकित्सक एक कागजात पर आपसे दस्तखत कराता है। उसमें लिखा रहता है कि इस आपरेशन में फलां फलां खतरे हैं और ऑपरेशन के दौरान आप टपक भी सकते हैं। उस स्थिति में मरीज के पास सिवाय वह धमकी स्वीकार कर लेने व कागज पर हस्ताक्षर कर देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। कुछ उसी तरह से भाषण में नियम बताते समय नुकसान हो जाने की बात कही गई कि तपस्या शुरू करने के पहले सोच लें। अगर मन न बन पा रहा हो तो छोड़कर चले जाएं।

उस भाषण के टेप को चलाने वाले धम्म सेवक ने कुछ मौखिक निर्देश भी लोगों को दिए। एक व्यक्ति ने तेजी से डकार मारी तो भोजनालय में मौजूद लोगों का ध्यान उसकी ओर चला गया। सभी लोग हंसने लगे। धम्म सेवक ने कहा कि आपको कोई दिक्कत है क्या? उस व्यक्ति ने बताया कि मैं शराब बहुत पीता हूं, इसी वजह से दिक्कत है और उसी को दुरुस्त करने यहां आया हूं। धम्म सेवक ने कहा कि कोई बात नहीं, ध्यान करने वाले हॉल में इस तरह की डकार न निकालिएगा, इससे अन्य साधकों के ध्यान में व्यवधान आएगा। धम्म सेवक ने यह भी कहा कि बेहतर यह रहेगा कि आप लोग अपने कपड़े खुद साफ करने की कवायद न करें। इतनी बारिश और ह्युमिडिटी है कि कपड़ा सूख नहीं रहा है। लॉन्ड्री सेवा बहुत सस्ती है। उनके पास ड्रायर होते हैं, जिससे कपड़े सुखा दिए जाते हैं और उसके बाद दूसरे रोज प्रेस करके कपड़ा मिल जाता है। इससे मुझे व्यक्तिगत तौर पर थोड़ी राहत महसूस हुई, क्योंकि कपड़े साफ करके सुखाने की दिक्कत से मैं भली भांति वाकिफ हूं।

बहरहाल मुझे नहीं लगता कि नुकसान होने की धमकियों के कारण कोई छोड़कर गया होगा। कोई कैसे जा सकता है। ज्यादातर लोग किसी न किसी से सुनकर ही आते हैं। पूरी बात समझ में न आई हो तो ज्यादातर बातें तो जानते ही हैं कि फलां फलां काम करने हैं। फलां फलां नियम कानून हैं। इन नियम कानूनों का पालन करना है। पूरे 10 दिन तक घर परिवार, समाज व दुनिया से कटे रहना है। दिन में एक बार 11 बजे फुल खाना मिलना है। उसके अलावा सुबह में 6.30 बजे नाश्ता मिलना है और शाम को 5 बजे नाश्ता। आपके आसपास धम्म सेवक होते हैं। व्यवस्था से संबंधित कोई उलझन, दिक्कत हो तो उनसे बात करने की अनुमति होती है। अगर साधना/तपस्या से संबंधित कोई दिक्कत होती है तो हॉल में मौजूद असिस्टेंट टीचर से अपनी शंका का समाधान करना होता है। यह भी बता दिया गया कि अगर आप कोई दवा खाते हों या खानपान के लिए कुछ विशेष निर्देश हों तो अगले दिन दोपहर 12 बजे अपने असिस्टेंट टीचर को जरूर बता दें, जिससे आपको कोई असुविधा न होने पाए और किसी तकलीफ में तत्काल मदद पहुंचाई जा सके।

वहां बैठे लोगों को भाषण व नियम कानून बताए जाने के बाद दो ग्रुप बने। पहले ग्रुप में ज्यादातर लोग निकल गए। दूसरे ग्रुप में मेरी बारी आई। भोजनालय से बाहर निकलने के बाद धम्म सेवक ने तीन लाइनें बनवाईं। आगे आगे धम्म सेवक। उनके पीछे पीछे करीब 100 लोग। शाम ढल चुकी थी। चिड़ियों की तेज चहचहाहट साफ होने लगी थी। हम लोगों का मौन शुरू हो चुका था। थोड़ी देर जाने के बाद धम्म सेवक रुक गए। सभी लोग खड़े हो गए। धम्म सेवक ने पेशाब घर की ओर इशारा किया। जिन्हें पेशाब लगी थी, वे पेशाब करने गए। कुछ देर खड़े रहने के बाद धम्म सेवक फिर ठहर गए। वहां पानी पीने की व्यवस्था थी। तमाम लोगों ने पानी पिया।

धम्म सेवक के पीछे पीछे तीनों लाइन फिर बढ़ी। हम साधना के लिए बने हॉल के करीब पहुंच गए। धम्म सेवक ठहर गए। उनके साथ चल रही तीनों लाइनें फिर ठहर गईं। उसके बाद धम्म सेवक ने कहा कि जो पुराने साधक हैं, वे हॉल में जाए। पुराने साधक करीब 15-20 थे। वे निकलकर चले गए। उधर मुझे दूसरी ही चिंता सताए जा रही थी।  भोजनालय में बताया गया था कि जो पर्चा आपको मिला है, उसका निचला हिस्सा निकालकर अपने सीट के नीचे लगा देना है और उसी सीट पर रोजाना बैठकर आपको साधना करनी है। मैं वह पर्चा कमरे पर ही भूल आया था। मैंने धम्म सेवक से पूछा कि अब हॉल में जा रहे हैं लेकिन मेरे पास तो पर्चा नहीं है। कमरे से ले आऊं क्या। धम्म सेवक ने कहा कि अभी हॉल में चलें, अपनी सीट याद रखिएगा। सुबह साधना के लिए आने पर पर्चा लेते आइएगा और उसे आसन के नीचे लगा दीजिएगा। धम्म सेवक ने कहा कि अब 10-10 लोग दल बनाकर हॉल में जाएं। पहले 10 के दल में मैं हॉल की ओर बढ़ा। हॉल के बाहर जूता स्टैंड पर चप्पलें, पानी की बोतल और छाता रखकर हॉल में गया।

हॉल में करीब 100 आसन लगे थे। सामने से तीसरी लाइन में 26 नंबर का आसन मेरा था। सब लोग पर्चियां लगा रहे थे। बगल वाले सज्जन ने इशारा भी किया कि पर्ची लगाने की जगह यह है। मैंने उनसे कहा कि पर्ची नहीं लाया हूं तो वो शांत हो गए। मैंने आसन संख्या याद कर ली कि अब यहीं बैठना है। आसन की गद्दी मस्त की थी। वैसी गद्दी पर मैं कभी जीवन में नहीं बैठा था। चूतड़ के नीचे वाला पोर्शन ऊंचा था, जबकि पालथी मारने पर जिस पोजिशन में पैर आता था, वहां गद्दी नीची थी। नर्म, मुलायम, स्पंजी और गुलगुल गद्दी। मुझे ऐसा अहसास हुआ कि शायद यह गद्दियां सेठ जी लोगों की सुविधा के लिए बनाई गई है, जिससे तोंद नीचे लटकने में तकलीफ न हो और पैर व तोंद के बीच पर्याप्त गैप मिल सके। बहरहाल गद्दी अच्छी लगी। स्पेस इतना था कि अगर सामान्य से मोटा व्यक्ति भी हो तो आराम से बैठ सके और अगल-बगल, आगे पीछे बैठकर साधना कर रहे लोगों को कोई दिक्कत न आने पाए।

जब सभी लोगों ने आसन जमा लिया तो दो स्लिम-ट्रिम स्मार्ट से असिस्टेंट टीचर आए। वह टीचर इसलिए लगे कि हम लोग जिस तरफ मुंह करके बैठे थे, उधर दो छोटी चौकियां लगी थीं, जो सिर्फ बैठने के आकार की थीं। उन चौकियों के पीछे पीठ टिकाने की भी व्यवस्था थी। दोनों टीचर पालथी मारकर चौकी पर बैठ गए। चौकी के बगल में एक शॉल रखी हुई थी। दोनों टीचरों ने उसे उठाकर अधखुला ही अपने पालथी आकार में बने पैरों पर जमा लिया। एक असिस्टेंट टीचर ने टेपरिकॉर्डर की ओर हाथ बढ़ाया। उसके ऊपर लगे ढक्कन को इतने धीरे से सरकाया कि कोई आवाज न आने पाए। माइक से जुड़े स्पीकर से आवाजें आने लगीं। हॉल में बैठे लोगों से प्रतिज्ञाएं कराई गईं, जिनमें हिंसा न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, मौन रहना आदि शामिल था। शपथ ग्रहण समारोह के दौरान भी बताया गया कि यह कठिन तपस्या है। आपका ऑपरेशन शुरू होने वाला है। ऑपरेशन के दौरान आप खुला शरीर लेकर नहीं भाग सकते। इससे आपको ही खतरा हो सकता है। इसके अलावा सीमाएं बांध दी गई हैं। उन सीमाओं से बाहर आपको कदम नहीं रखना है, वर्ना नुकसान हो सकता है। यह सीमा बाद में जगह जगह दिखी भी। एक बोर्ड लिखा हुआ मिलता था कि 10 दिन की साधना में आए साधक इस सीमा से आगे न जाएं।

शपथ ग्रहण समारोह के बाद हम लोगों को ध्यान करने को कहा। अजीब अजीब सी आवाज स्पीकरों से निकल रही थी। कुछ पाली में, कुछ संस्कृत में ज्यादातर हिंदी और अंग्रेजी में। लेकिन हिंदी में भी जिस तरह की आवाज निकल रही थी, उस तरह आवाज निकालना किसी आम आदमी के वश की बात नहीं है। वाराणसी के शास्त्रीय संगीत का ज्ञाता भी शायद उस तरह लरजती आवाज न निकाल पाए। मेरे विचार में यही आया कि यह बात बेहतर तरीके से मधुर आवाज में भी कही जा सकती थी, लेकिन इतनी डरावनी सी मोटी सी आवाज में क्यों कहा जा रहा है? बहरहाल आवाज से परे तपस्या शुरू हो चुकी थी। उस माइक की आवाज ने बताया कि आप लोगों को क्या करना है। उस समय बताया गया कि आप अपने नाक के भीतर आती और उससे बाहर जाती सांस को महसूस करें। सांस को सिर्फ महसूस करना है। उसे न तो धीमा करना है, न तेज करना है। उस पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं करना है। उसे रोकना नहीं है। सिर्फ यह अनुभव करना है कि सांस आ रही है, सांस जा रही है। सांस लेते समय हवा ठंडी है या गरम। सांस छोड़ते समय हवा ठंडी है या गरम। वह सांस नाक और होठ के किसी विशेष हिस्से पर किस तरह महसूस हो रही है। यही करना था। मुझे सांस बिल्कुल ही महसूस नहीं हो रही थी। माइक से ही आवाज आई कि अगर महसूस न हो रही हो कि सांस कैसे आ और जा रही है तो थोड़ी देर तक, आधे मिनट के लिए सांस तेज कर लें। फिर सांस को नॉर्मल कर लें। महसूस करें कि सांस आ रही है, सांस जा रही है। उसके आने और जाने से किस तरह की संवेदना हो रही है।

यह संवेदना महसूस करते करवाते समय खत्म हुआ। वही लरजती आवाज आई। आखिर में आवाज आई भवतु सब्ब मंगलं। हम लोगों को निर्देश मिला कि आप लोग अपने आवास पर जाएं। आराम करें। टेक रेस्ट।

क्रमशः...

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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