विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।

बीजेपी के लिये खतरे की घंटी — पुण्य प्रसून बाजपेयी @ppbajpai



विपक्ष के जुड़ते तार तले, संघर्ष के उस पैमाने से समझा जा सकता है, जो पहली बार बिना पॉलिटिकेल फंड राजनीतिक संघर्ष कर रही है

— पुण्य प्रसून बाजपेयी 


चौथे—बरस के जश्न तले चुनावी—बरस में बढ़ते कदम
परसेप्शन बदल रहा है तो फिर चेहरा-संगठन कहां मायने रखेगा

बीते चार—बरस में कॉरपोरेट समेत जितने रास्तों से राजनीतिक दलों की फंडिंग हुई उसका 89 फिसदी बीजेपी के खाते में गया


चौथे—बरस का जश्न आंकड़ों में गुजरा। तो क्या परसेप्शन खत्म और सफल बताने के लिये आंकड़ों के जरिए दावे। कमोबेश हर मंत्री ने दावे पेश किये कि देश में कितना काम हुआ। देश भर के अखबारों में विज्ञापन के जरिए कमोबेश हर क्षेत्र में चार—बरस के दौर में सफलता के आंकड़े। तो क्या मोदी सरकार चौथे—बरस में डिफेन्सिव है। यानी जो आक्रामकता 2013 में 15 अगस्त के दिन, बाकायदा तब के पीएम मनमोहन सिंह के लालकिले के प्राचीर से देश के नाम संबोधन के खत्म होते ही, गुजरात में लालकिले का मॉडल बना कर, सीएम मोदी ने भाषण देने के साथ शुरु किया, वह पहली बार 2018 में थमा है। तो क्या अब मोदी सरकार के सामने वाकई अपने कामकाज की सफलता बताने का वक्त आ गया है। कह सकते हैं, चुनावी वर्ष शुरु हो गया तो फिर पांच—बरस के कामकाज का कच्छा-चिट्टा तो रखना ही होगा।


गवर्नेंस का सवाल हो या किसी नीति या किसी पॉलिसी या किसी भी नारे का और उसकी एवज में जो भी कहा गया, उसे बहुसंख्यक तबके ने सही माना।
पर चौथे—बरस ने राजनीति की उस परिभाषा को बदलना शुरु किया है जिस पारंपरिक राजनीति को बीते चार—बरस में बहलते हुये देश ने देखा। दरअसल मोदी के दौर ने उस दीवार को ढहा दिया जो जनता और राजनीतिक वर्ग को अलग करती थी। सत्ता किसी की भी रहे पर राजनीतिक तबके में एक ईमानदारी रहती थी कि दूसरे पर आंच ना आये। और इस दीवार के गिरने ने उस जनता को ताकत जरूर दी जो अभी तक हर नेता से डरती थी। और मोदी सत्ता ने इसी परसेप्शन को बनाया और भोगा जहां वह ईमानदार की छवि अपने साथ समेटे रही।

जिस सोशल इंजीनियरिंग के आसरे एनडीए के गठबंधन को विस्तार मिला, अब चुनावी—बरस में वही सोशल इंजीनियरिंग यूपीए में शिफ्ट हो रही है

तो फिर गवर्नेंस का सवाल हो या किसी नीति या किसी पॉलिसी या किसी भी नारे का और उसकी एवज में जो भी कहा गया, उसे बहुसंख्यक तबके ने सही माना। क्योंकि निशाने पर वह राजनीति थी। जिससे आम लोग अरसे से परेशान थे।
 क्या मोदी सरकार चौथे-बरस में डिफेन्सिव है

  • लकीर किस महीनता से खिंची गई इसका एहसास इससे भी हो सकता है कि नोटबंदी ने राजनीतिक दलों की फंडिंग के साम्राज्य को ढहा दिया। 
  • सत्ता के इशारे पर संवैधानिक संस्थाओं ने विपक्ष की राजनीति को डरा दिया। 
  • बीते चार—बरस में कॉरपोरेट समेत जितने रास्तों से राजनीतिक दलों की फंडिंग हुई उसका 89 फिसदी बीजेपी के खाते में गया। 
  • जितनी भी राजनीतिक फाइलें सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स या किसी भी संवैधानिक संस्था के तहत खुली संयोग से उस कतार में बीजेपी के किसी नेता का नाम जिला स्तर तक भी ना आया। 
  • देश में सड़क पर न्याय करने के एलान के साथ कानून को ताक पर रखकर भीड़तंत्र जहां-जहां सामने आया संयोग से उनमें भी किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई कानून करते हुये नजर नहीं आया। 
  • ये भी पहली बार नजर आया कि कोई मुख्यमंत्री अपनी पार्टी के नेता-मंत्री के खिलाफ दर्ज कानूनी मामलों को ही खत्म नहीं करा रहा है बल्कि अपने खिलाफ दर्ज मामलों में भी खुद को ही माफी दे रहा है और सबकुछ ऐलानिया हो रहा है। 



आडवाणी का चेहरा और वाजपेयी के पीएम बनने के दौर को नये तरीके से संघ ने मोदी को लेकर जो प्रयोग किया उसकी उम्र पूरी हो गई है
तो चौथे—बरस ने दो तरह के परिवर्तन दिखाने शुरु किये। पहला, जनता का परसेप्शन मोदी सरकार की ताकत को आंकड़ों में देखने लगा। यानी सत्ता जादुई आंकड़े 272 पर ही टिकी है। और कर्नाटक के जादुई आंकड़े के करीब पहुंचकर भी जब कुमारस्वामी सरीखे आठ मामलों के आरोपी को भी लगने लगा कि बीजेपी के साथ खड़ा होना भविष्य की राजनीति को खत्म करना होगा। तो फिर झटके में नया परसेप्शन भी बनने लगा कि अब बीजेपी के साथ खड़ी पार्टियों में असंतोष उभरेगा। ये सिर्फ चन्द्रबाबू नायडू या चन्द्रशेखर राव के अलग होने या शिवसेना के विद्रोही मूड भर से नहीं समझा जा सकता। न ही नीतीश कुमार का चौथे—बरस नोटबंदी को लेकर सवाल खड़ा करने से उभरता है। बल्कि विपक्ष के जुड़ते तार तले संघर्ष के उस पैमाने से समझा जा सकता है जो पहली बार बिना पॉलिटिकेल फंड राजनीतिक संघर्ष कर रही है। तो दूसरा परिवर्तन टूटते परसेप्शन के बीच आंकड़ों का सहारा लेकर अपनी सफलता दिखाने का है।


 पूंजी पर टिकी सियासत जब कर्नाटक में हार गई या हाँफती दिखी तो नया सवाल ये भी पैदा हुआ कि क्या वाकई संघर्ष करने के माद्दे का आक्सीजन विपक्ष की राजनीति को मिल गया। 
यानी बीजेपी के पास मोदी सरीखा चेहरा है जिसकी कोई काट विपक्ष के किसी नेता में नहीं है। फिर भी सफलता के लिये आंकड़े बताये जा रहे है। बीजेपी के पास सबसे बड़ा संगठन है: दस करोड़ सदस्य पार। और बूथ से लेकर पन्ना प्रमुख तक के हालात। तो भी मंत्री—दर—मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष “उज्जवला योजना” से लेकर मुद्दा योजना के आंकड़ों में अपनी सफलता के चार—बरस गिना रहे है तो संकेत साफ है। परसेप्शन बदल रहा है। और यही से बीजेपी के लिये खतरे की घंटी है —

क्योंकि मोदी सत्ता ने विपक्ष के उस राजनीतिक वर्ग के खिलाफ तो मुहिम चलायी जो फंडिंग के आसरे राजनीति नये सिरे से खड़ा कर सकता है। पर मोदी सत्ता ने अपने ही उस परसेप्शन को बदल दिया जहां बिना पूंजी या बिना फंडिंग उसकी राजनीति पाक साफ दिखायी दे। और पूंजी पर टिकी सियासत जब कर्नाटक में हार गई या हाँफती दिखी तो नया सवाल ये भी पैदा हुआ कि क्या वाकई संघर्ष करने के माद्दे का आक्सीजन विपक्ष की राजनीति को मिल गया। या फिर बीजेपी के भीतर भी चुनावी—बरस में सवाल उठेंगे। क्योंकि संगठन हो, या फंडिंग, या फिर चेहरा...  वह मायने तभी रखता है जन परसेप्शन अनुकूल हो। क्योंकि 2012-13 के दौर को भी याद कर लें तो मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते परसेप्शन ने नरेन्द्र मोदी को जन्म दिया। फिर 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को लेकर परसेप्शन खत्म हुआ तो बिना चेहरे ही हालात पलट गये। यानी चाहे अनचाहे चौथे—बरस ने यह संदेश भी दे दिया कि जिस सोशल इंजीनियरिंग के आसरे एनडीए के गठबंधन को विस्तार मिला, अब चुनावी—बरस में वही सोशल इंजीनियरिंग यूपीए में शिफ्ट हो रही है। और हिन्दुत्व के एजेंडे पर बीजेपी लौटेगी तो फिर परसेप्शन हिन्दुत्व का बनेगा न कि संगठन या चेहरे का। तो क्या आडवाणी का चेहरा और वाजपेयी के पीएम बनने के दौर को नये तरीके से संघ ने मोदी को लेकर जो प्रयोग किया उसकी उम्र पूरी हो गई है या फिर बीजेपी फिर आडवाणी युग यानी मंडल-कमंडल के दौर को नये तरीके से जीने को तैयार हो रही है। तो इंतजार कीजिये क्योंकि चौथे—बरस के संकेत साफ है :

2019 में या तो कांग्रेस एकदम बदले हुये रुप में नजर आयेगी जहाँ उसका संघर्ष उसे मथ रहा है। या फिर बीजेपी सियासत के ककहरे को नये तरीके से ढाल देगी।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

बूशो और शेरा — अनुज की 'नयी' कहानी


खस्सी के गोश्त की जगह मुर्गे-मुर्गी बहुत राहत देते थे, लेकिन 'तास' डिश की मुश्किल यह थी कि इसकी 'रेसिपी' में मुर्गे-मुर्गी के गोश्त के लिए कोई जगह नहीं होती थी। यद्यपि ऐसा नहीं था कि इस क़स्बे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई आपसी बैर-भाव था या उनके बीच तनाव रहता था, बस्ती में तो साम्प्रदायिक सौहार्द सतत बना रहता था, लेकिन दोनों सम्प्रदायों के लोग मौन-भाव और चुपके से बहाने बनाकर गोश्त में भेद कर लिया करते थे। 
अनुज की 'नयी' कहानी

बूशो और शेरा

— अनुज

अँधेरा छँटने लगा था और नीले आसमान में सूरज की लालिमा भरने लगी थी। गौरैयों की चुन-चुन भी शुरु हो चुकी थी। कौवे आते और एकबारगी 'टांय' करके उड़ जाते। जमुना ढाबे की साफ-सफाई में लगा था। झाड़ू देता हुआ मेजों के नीचे गिरे-पड़े गोश्त के टुकड़ों और अधचबाई हुई हड्डियों को एक तरफ छाँटकर अलग कर रहा था। जमुना का यह ढाबा मोतिहारी शहर के बीचो-बीच स्थित गाँधी चौक के आसपास बिखरी पड़ी बहुत सी दुकानों के रेलों में मुहाने पर था। शाम के समय तो इन ढाबों पर 'तास' के क़दरदानों की जमघट-सी लगी रहती थी। 'तास' एक खास तरह का डिश होता था, जिसकी 'रेसिपी' का मुख्य 'इन्ग्रेडियन्ट', खस्सी अर्थात् बकरी के कमसिन बच्चे का गोश्त होता था। इस डिश को तैयार करने के लिए गोश्त को विविध मसालों के साथ मैरिनेट करके रखा जाता और फिर इसे लकड़ी की हल्की आँच पर इस क़दर भूना जाता था। गोश्त इतना ही भूना जाता कि चबाने की गुंजाइश बची रहे। शराब पीने वाले मांसाहारी लोगों के लिए तो चखने के रूप में 'तास' उनकी पहली पसंद हुआ करता था। इस डिश की तैयारी में इस बात का खास ध्यान रखा जाता कि अंतिम रूप से यह सूखा ही रहे, इसीलिए इसमें प्याज के लिए कोई जगह नहीं होती थी। इस क़स्बे में बहुत सारे परिवार ऐसे थे जो मांसाहारी तो थे, लेकिन लहसुन-प्याज से परहेज रखते थे। यही कारण था कि इस क़स्बे में शराब के साथ चखने के रूप में 'तास' को बहुत पसन्द किया जाता था।

'तास' को भूने के साथ सालन के रूप में खाने का ही प्रचलन था। लेकिन ज्यों-ज्यों बिजली पर चलने वाले बड़े-बड़े मशीनी घन्सारों का चलन बढ़ने लगा, क़स्बे में मिट्टी के छोटे-छोटे घरेलू घन्सारों का धंधा बन्द होने लगा और चावल के लजीज भूने को मुरमुरों ने विस्थापित करना शुरु कर दिया था।


पहले तो ढाबों में इस डिश को अख़बार के टुकड़ों पर ही परोसने का चलन था, लेकिन ज्यों-ज्यों चीनी-मिट्टी के प्लेटों का चलन बढ़ने लगा, इन ढाबों में भी प्लेट रखे जाने लगे थे। हालांकि कुछ लोग जातीय शुद्धता का ख़याल करके अभी भी अख़बार के टुकड़ों को ही उत्तम मानते थे।

शराब की बोतल खुली रहती और जब तक 'तास' तैयार होता, 'शेफ' भूने पर झूरी डाल जाया करता। लोग भूने को इसी 'झूरी' के साथ तबतक खाते रहते, जबतक कि तैयार 'तास' तवे से निकलकर उनकी थाली तक नहीं पहुँच जाता। 'तास' को जब तवे पर भूना जाता, गर्म तेल के साथ मिलकर गोश्त से निकले हुए छोटे-छोटे टुकड़े बुरादे जैसे बनकर करारी हो जाते और तवे से चिपक जाते थे। 'शेफ' चिपके हुए उन्हीं करारे बुरादों को अपनी कलछी से खरोंच-खरोंचकर तवे से अलग निकालता और ग्राहकों में 'कॉम्प्लीमेन्ट्री' बाँट दिया करता। जले हुए बुरादेनुमा इसी चीज को 'झूरी' के नाम से पुकारा जाता था। गोश्त के इस डिश का नशा ऐसा होता था कि एक-एक आदमी आधा-पौना किलोग्राम गोश्त अकेले ही चट कर जाता था। उन दिनों महंगाई भी तो आज की तरह नहीं थी! अब तो महंगाई का आलम यह है कि लोग-बाग़ दो-चार टुकड़ों से ही काम चला लेने पर विवश हो गए से दिखने लगे हैं! हालांकि 'तास' के पुराने शौक़ीन लोग 'डाइटिंग' आदि का हवाला देकर अपनी माली हालत छुपा लेने की अथक कोशिश कर रहे होते हैं, लेकिन बड़ा मर्ज भी कहीं छुपता है भला! गाँधी चौराहे के ये ढाबे अपने इसी डिश के कारण दूर-दराज के अन्य क़स्बों में भी अपने नाम से पहचाने जाते थे।

ढाबे दो-दो बजे रात तक खुले रहते थे, लेकिन यहाँ किसी को भी निठल्ला बैठे रहने की इजाज़त नहीं होती थी। जब तक मुँह चल रहा होता, तभी तक मेज पर टिकने की अनुमति होती। यही क़ायदा था। हर मेज पर खुली बोतल और 'तास' के करारे टुकड़ों के बीच ज़मीन-जायदाद के छोटे-मोटे झगड़ों से लेकर बड़े-बड़े अन्तर्राष्ट्रीय मसलों तक की पंचायती चलती रहती और सारे मसले एक-आध घंटे में ही निपटा दिये जाते। कुछेक यमराज बने लोग सुपारी की रक़म गिनते हुए कितने ही अभागों की ज़िन्दगियों की गिनतियों को कम कर देने की पावन-प्रतिज्ञा भी इन्हीं ढाबों की मेज पर लिया करते थे। सुपारी की रक़म के साथ वायदे किए जाते और उन वायदों पर अमल किये जाने के वायदे भी लिए जाते। ऐसे कई महती व्यावसायिक कार्यों के लिए जमुना के इस ढाबे को बहुत शुभ माना जाता था। सुपारी वाले धंधे में आए नए रंगरूट तो अपनी बोहनी के लिए जमुना के ढाबे को ही खास तौर पर चुनते थे, क्योंकि पूरे इलाके में यह धारणा आम थी कि “जमुना तास वाले के ढाबे पर ली-दी गयी सुपारी बाँव नहीं जाती है। मौके पर न तो कट्टा धोखा देता है और ना ही निशाना चूकता है। इस तरह वायदों को अमली जामा पहनाने में किसी तरह की खलल नहीं पड़ती है।“ ऐन मौके पर कट्टे का धोखा दे देना इन यमराजों के लिए सबसे बड़ी समस्या मानी जाती थी। कभी-कभी तो ऐन वक़्त पर कट्टे चलते ही नहीं थे, तो कभी-कभी उल्टी दिशा में ही चल जाते थे। कट्टे की नाल का फट जाना भी एक बड़ी समस्या होती थी। लेकिन क़स्बे में इस बात की ख़ूब चर्चा थी कि धंधे में जमुना के ढाबे का शगुन बहुत शुभ होता है। ऐसा कभी सुना भी नहीं गया था कि सुपारी जमुना के ढाबे में ली गयी हो और काम को अंजाम देने में ऐसी कोई समस्या आड़े आ गयी हो। इसलिए भी जमुना के ढाबे का रसूख़ बड़ा माना जाता था और ऐसे सभी धंधों के अधिकांश वायदे जमुना के ढाबे में ही लिए और दिए जाने को प्राथमिकता दी जाती थी।

इन्हीं वायदों और क़ायदों के बीच मोतिहारी शहर के बीचो-बीच स्थित गाँधी चौराहे के लगभग सभी ढाबे देर रात तक गुलजार बने रहते थे। चूँकि जमुना का ढाबा सबसे पुराना था और जमुना का अपना व्यक्तिगत रसूख भी क़स्बे में अच्छा था, इसलिए उसका ढाबा बहुत विश्वसनीय माना जाता था। नहीं तो, प्राय: ऐसा होता था कि लोगबाग़ ढाबों का नाम देखकर ही यह तय कर लिया करते थे कि किस ढाबे में खाना चाहिए और किसमें नहीं। उन दिनों मुसलमानों के ढाबों में हिन्दू लोग गोश्त खाने से परहेज करते थे और हिन्दुओं के ढाबों को मुसलमान भी गोश्त खाने के लिए मुनासिब नहीं समझते थे। हालांकि जब कभी भी ऐसी स्थिति सामने आ जाती थी तो खस्सी के गोश्त की जगह मुर्गे-मुर्गी बहुत राहत देते थे, लेकिन 'तास' डिश की मुश्किल यह थी कि इसकी 'रेसिपी' में मुर्गे-मुर्गी के गोश्त के लिए कोई जगह नहीं होती थी। यद्यपि ऐसा नहीं था कि इस क़स्बे में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई आपसी बैर-भाव था या उनके बीच तनाव रहता था, बस्ती में तो साम्प्रदायिक सौहार्द सतत बना रहता था, लेकिन दोनों सम्प्रदायों के लोग मौन-भाव और चुपके से बहाने बनाकर गोश्त में भेद कर लिया करते थे। दोनों के पास अपने-अपने मज़हबी कारण होते थे। मुसलमानों को यह भय सताता रहता था कि कहीं कोई हिन्दू ढाबेदार उन्हें 'झटके' का गोश्त ना खिला दे! हालांकि हिन्दू 'हलाल' और 'झटके' को लेकर उस क़दर कोई भेद नहीं रखते थे, लेकिन किसी मुसलमान के ढाबे में गोश्त खाते हुए उन्हें यह आशंका सतत सताती रहती थी कि पता नहीं बकरे का गोश्त है भी या नहीं! लेकिन चौराहे के ढाबों में जमुना ने अपनी ऐसी विश्वसनीयता जमायी थी कि उसके ढाबे में हिन्दू और मुसलमान एक ही मेज पर साथ-साथ बैठकर बेख़ौफ गोश्त चबाते हुए आम दिख जाया करते थे।

************


...पहले तो बूशो भी रात की महफिल में शामिल होने की ख़ूब जुगत किया करता था, लेकिन ढाबों के खड़ूस मालिकों की मौजूदगी में उसकी एक ना चलती थी। जैसे ही ढाबों के सामने आकर खड़ा होता कि 'दुर-दुर, मार-मार' का शोर शुरु हो जाता। एक जमुना ही था कि बूशो को कुछ-ना-कुछ थमा दिया करता था। लेकिन उसके भी मूड का तो कोई ठीक रहता नहीं था! कब मूड ठीक हो और दो-दो, चार-चार टुकड़े सामने डाल जाए और कब किसी ग्राहक से ठन गयी हो या किसी बात पर मूड बिगड़ गया हो, और वह लाठी लेकर दौड़ा चले! कुछ तय नहीं रहता था। ज्यादातर स्थितियों में तो लाठी मारता भी नहीं था! लाठी देखकर ही बूशो कांय-कांय करता हुआ भाग खड़ा होता था। बूशो ढाबे से दूर भागता, थोड़ी देर इधर-उधर लुकता-छिपता, फिर थोड़ी देर बाद सारे आत्मसम्मान को आले पर रख, पूँछ हिलाता हुआ वापस लौट आता। जब आग पेट के अन्दर लगी हो तो चमड़ी की जलन तक तो महसूस होती नहीं, आत्मसम्मान की चिन्ता कौन करे!

धीरे-धीरे बूशो ने अपने अनुभवों से यह सीख लिया था कि शाम की मारा-मारी से बेहतर है कि वह शाम का उपवास ही रख ले और सुबह होने की प्रतीक्षा करे। सुबह के समय राहें बहुत आसान हो जाती थीं। शायद बूशो ने यह सोचा होगा कि “यदि थोड़ा मन मारकर बसिऔरे पर भरोसा कर लिया जाए, तो बहुत सारी दूसरी मुश्किलों से निज़ात मिल सकती है। अपने देश में इन्सान भी तो ज्यादातर ऐसे ही हैं जो एक शाम फांके पर ही गुजारा करते हुए बासी भोजन से ही काम चला लेते हैं और मन मारकर ही सही, सुखी जीवन जी रहे हैं। इन्सानों में तो फांके भरी शाम के बावजूद बसिऔरे के लिए भी मारा-मारी मची रहती है, यहाँ तो स्थिति इंसानों के मुक़ाबले फिर भी ठीक-ठाक है!

हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं था कि सुबह के समय बूशो वहाँ अकेला होता था और अधचबाई हड्डियों के लिए वहाँ कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती थी। प्रतिस्पर्द्धा तो सुबह में भी रहती थी, लेकिन रात वाली कटरा-कुटरी वाली स्थिति नहीं होती थी। रात में तो ऐसा माहौल बनता कि बात सम्भाले नहीं सम्भलती, और जब बात बहुत बिगड़ जाती तो अंतत: जमुना को ही जैसे 'भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग' बनकर सामने आना पड़ता। जैसे ही गुर्राहटें गूँजती और युद्ध का तुमुल नाद शुरु होता, जमुना बांस की तेल पिलाई हुई मोटी लाठी लेकर बाहर निकलता। जमुना की लाठी चलनी शुरु ही होती कि लहराती लाठी देख, योद्धा भाग खड़े होते। बूशो के लिए दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि सुबह में जमुना की लाठी का कोई भय नहीं होता था। जमुना ढाबे की सफाई करते हुए गोश्त के कुछ टुकड़े और हड्डियाँ स्वयं सम्भालकर एक तरफ रख दिया करता था। इस तरह हाशिये पर जी रहे बूशो जैसे मिरमिरे लमेरुआ कुत्तों के लिए राह आसान हो जाती थी। यही कारण था कि इन लमेरुआ कुत्तों को सुबह का समय ही सबसे मुफ़ीद दिखता था। इसीलिए बूशो जैसे लमेरुआ कुत्तों ने बसिऔरे पर ही संतोष करना सीख लिया था।

बूशो हर रोज सुबह-सुबह बसिऔरे की आस में ढाबे पर आकर खड़ा हो जाता। किसी दिन कम, तो किसी दिन ज्यादा, कुछ-न-कुछ तो मिल ही जाता था। कभी गोश्त के साबुत टुकड़े मिल जाते, तो कभी अधचबाई हड्डियों से ही काम चलाना पड़ता। बूशो को हड्डियाँ चबाते हुए देखना भी एक खास तरह का अनुभव होता था। कभी-कभी तो हड्डियाँ चबाते हुए उसके दाँतों से खून भी निकल आता था, लेकिन मजाल कि हड्डियाँ मुँह से छूट जाएँ!

**********

हर दिन कि तरह उस दिन भी, बूशो अपनी पूँछ समेटे, जीभ लपलपाता हुआ ढाबे के सामने भक्ति-भाव से बैठा जमुना का इन्तज़ार कर रहा था। उसके कुछ और प्रतिस्पर्द्धी भी आगे-पीछे, दायें-बायें बैठे जमुना का इन्तजार कर रहे थे। जमुना ने 'च्चु-च्चु' की चुचकारी लगायी और सभी प्रतिस्पर्द्धी अपनी-अपनी स्वामिभक्ति दिखाते हुए उसके आस-पास आकर खड़े हो गए। जमुना ने सबके सामने बराबर से बसिऔरे का बँटवारा कर दिया। सभी अपने-अपने हिस्से के बसिऔरे को चट करने में लग गए। लेकिन तभी जैसे अचानक खलबली-सी बच गयी।

लालजी भाई अपने कुत्ते शेरा के साथ सामने से चले आ रहे थे। शेरा को देखते ही सारे प्रतिस्पर्द्धी रणछोड़ भागने लगे। एक बूशो ही था जो जमा रहा। हालांकि बूशो ने भी शेरा को देखकर, अपने खाने की गति तेज कर दी थी, लेकिन वह भोजन छोड़कर भागना नहीं चाहता था। बूशो हड्डियों को जल्दी-जल्दी चबाता हुआ गुर्राता भी जा रहा था। उसे भय था कि कहीं शेरा उसके हिस्से के बसिऔरे को हड़प ना ले। हालांकि उसकी शंका निर्मूल थी। बूशो को कहाँ मालूम था कि शेरा ताजे गोश्त से भरी थाली में भी बड़ी मान-मनौव्वल के बाद ही मुँह डालता था, फिर इन रात की बासी-सूखी हड्डियों में उसकी क्या दिलचस्पी हो सकती थी? और फिर बूशो और शेरा की दुनिया तो कोई इन्सानी दुनिया थी नहीं, कि अपना पेट चाहे लाख भरा हो, दूसरों के हिस्से को भी अपने कोठार में भर लेने की मारा-मारी मची हुई रहती हो! लेकिन उस समय बूशो ने शेरा को अपना प्रतिद्वंद्वी मान लिया था और आत्मरक्षार्थ गुर्राने लगा था। दूसरी ओर, शेरा मांस के बासी टुकड़ों में भले ही उसकी कोई दिलचस्पी ना रही हो लेकिन उसे बूशो की यह गुर्राहट युद्ध की ललकार से कम ना लगा। प्रतिवाद में उसने भी गुर्राते हुए अपनी लाल-लाल आखें बूशो पर गड़ा दीं। बूशो अभी लड़ने वाले हौसले में नहीं था। वह तो अपने हिस्से की हड्डियों को जल्दी-से-जल्दी समाप्त कर, खुद वहाँ से खिसक लेना चाहता था।



लालजी भाई को देख जमुना सजदे में दौड़ा, “मालिक, प्रणाम।

प्रणाम-प्रणाम! का रे जमुना, यह क्या तुम लमेरुआ कुत्ता सब का बजार लगाये रखता है? भगाओ सबको मारके यहाँ से।“ लालजी भाई ने बूशो की ओर इशारा करते हुए जमुना को झिड़की लगायी।

भगाए ही रखते हैं मालिक, लेकिन सुबह-सुबह आके थोड़ा हड्डी-वड्डी साफ कर जाता है सब, इसीलिए छोड़ देते हैं कि तनी खा ल स एकनिओ का।

नहीं, नहीं, ऐसा मत किया करो। लमेरुआ कुकुर का जात है, उसके साँस से भी बीमारी फैलता है। यह सब कोई हमारे शेरा जैसा थोड़े ना है कि सूई-ऊई दिलावाके एकदम टनाटन रखा गया हो!

ई बात तो है ही मालिक। आपके कुत्ता जइसा सुन्दर कुत्ता पूरा इलाका में कौनो दोसरा भी है का? कहाँ आपका शानदार कुत्ता और कहाँ ई सब लमेरुआ कुत्ता! कौनो तुलना ही नइखे मलिकार!

तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया है का रे? मेरा शेरा तुमको कुत्ता दिखता है? खबरदार जो आगे से इसको कुत्ता कहा। यह हमारा बेटा है, बेटा“, यह बोलते हुए लालजी भाई शेरा के माथे पर हाथ रखकर उसे सहलाने लगे। प्यार पाकर शेरा भी दोगुने उत्साह से पूँछ हिलाता हुआ 'गों-गों' कर उठा। बूशो हड्डी चबाता हुआ अभी भी गुर्राता जा रहा था।

जमुना ने जैसे ही बूशो की गुर्राहट सुनी, लालजी भाई के संभावित गुस्से की आशंका से काँप गया। तत्काल दौड़ा लाठी लेकर और बूशो को मार भगाया। बूशो ने भी जमुना का मान रखते हुए पतली गली पकड़ ली। लालजी भाई अपने कुत्ता ब्रिगेड के साथ अबतक आगे बढ़ चुके थे।

एक रिक्शा वाला अपने ही रिक्शे की पैसेन्जर सीट पर अपना पूरा धड़ और चालक सीट के साथ-साथ रिक्शे के हैंडल तक पैर फैलाकर मुँह ढँककर सो रहा था। शेरा ने आव-देखा-ना-ताव, 'भौं-भौं' करता हुआ झपट पड़ा। रिक्शा वाला धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। लालजी भाई जोर-जोर से हँसने लगे। रिक्शे वाले ने अपने को सीधा किया और लालजी भाई को देख, अपने गुस्से पर काबू करते हुए उन्हें झुककर प्रणाम किया,

प्रणाम मालिक

प्रणाम-प्रणाम, क्या हाल है रे केसरिया?

हूँ..! कमाना नहीं है क्या कि लम्बी तानकर सो रहा है?“ लालजी भाई ने पूछा।

जी मालिक, कमाएँगे नहीं तो खाएँगे कहाँ से और बच्चा सब का पेट कइसे पलेगा?

तो उठो, भोर हो गयी है, उठकर मुँह-कान धो, थोड़ा टहला-बुला करो।

जी मालिक, अच्छा किया कि शेरा जी ने जगा दिया, अब सवारी लेने निकलेंगे,“ बोलते हुए केसरिया ने अपने को संभाला।

ठीक है, ठीक है, और सब घर-परिवार ठीक है ना?

जी मालिक, सब आप लोगन का आशीर्वाद बना हुआ है।

लालजी भाई की उसके जवाब में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे अपने कूकर ब्रिगेड के साथ आगे बढ़ चुके थे।

केसरिया ने अपने को झाड़-पोंछ रहा था। अपने को सम्भालते हुए वह अभी भी शेरा को क्रोधित और हिकारत भरी नज़रों से घूर रहा था। लालजी भाई के कारवाँ के आगे बढ़ते ही केसरिया ने दबी ज़ुबान से भुनभुनाते हुए कुत्ते और कुत्ते के मालिक, दोनों को दबी जुबान में गालियाँ बकनी शुरु कर दी, “मुफत का खाना मिले तो कुकुर भी बाघ हो जाता है, मारे सार के चार लाठी ना, सब रईसी बाहर निकल जाए। लुटेरा बेईमान सब कहीं का…।

यह लगभग रोज़ की बात होती थी। लालजी भाई अपने सहचरों के साथ शेरा को लेकर मॉर्निंग वॉक पर निकलते और इसी बहाने मेन रोड का एक चक्कर लगा आते थे। लालजी भाई शहर के जाने-माने ठेकेदार थे। जब से देश में सत्ता पर व्यापारी वर्ग का क़ब्जा बढ़ा था, लालजी भाई भी अपने को बिजनेसमैन कहने लगे थे। शेरा उनके कुत्ते का नाम था। कुत्ता क्या था, साक्षात काल दिखता था। ऐसा लगता, मानो सामने कोई गदराया हुआ बाघ खड़ा हो गया हो। चलता तो, क़दम भी ऐसे सम्भाल-सम्भालकर रखता, मानो कुत्ता नहीं, कहीं के शहंशाह-ए-आलम निकल चल रहे हों! कोई बता रहा था कि लालजी भाई ने उसे अमेरिका से मँगवाया है। लालजी भाई का ख्याल था कि “देश चाहे लाख 'लैसेज फेयरे' हो जाये, लेकिन शुद्ध विदेशी चीज अभी भी विदेश में ही मिलेगी। शुद्ध चीज तो अपने देश में मिल ही नहीं सकती, जब भी मिलेगी, मिलावटी ही मिलेगी।“ इसीलिए उन्होंने कुत्ता भी अमेरिका से ही मँगवाया था। चर्चा तो यह भी थी कि लालजी भाई ने कुत्ता भी हाथी के मोल खरीदा है! इसीलिए बस्ती के लोग शेरा को नज़रभर देखने की हसरत रखा करते थे। नहीं तो, कुत्ते भी दुकानों में बिकते हैं, क़स्बाई समाज के लिए यह सोच से परे बात थी। गाय-बैल, हाथी-घोड़े, बकरा-बकरी, मुर्गा-मुर्गी तो बिकते सुना जाना आम बात थी, लेकिन कुत्ते भी बिकते हैं, और वो भी हाथी के मोल, मोतिहारी क़स्बे के लिए यह एक नितान्त नई बात थी। क़स्बों के लमेरुआ कहे जाने वाले बूशो जैसे कुत्ते तो बेचारे मुफ्त में भी महँगे होते थे। इनकी ओर देखता ही कौन था!

हालांकि ऐसा नहीं था कि 'ग्रेट-डेन' और 'लियन-बर्गर' कह देने-भर से या फिर कि 'रॉट-वायलर' या 'चाऊ-चाऊ' नाम रख देने-भर से उन कुत्तों के नथुनों से बास आना बंद हो जाती थी या वे दुम हिलाना भूल जाते थे या फिर 'जर्मन शेफर्ड' कह देने भर से वे गंदगी में मुँह मारना बंद कर देते थे। ऐसा कुछ भी नहीं था। लेकिन, चूँकि ऐसे कुत्ते बाज़ार में बहुत महँगे मोल बिकते थे, इसीलिए इनका 'सोशल वैल्यू' बहुत बढ़ा हुआ रहता था। ऐसे कुत्ते अपने मालिकों की सामाजिक हैसियत में इज़ाफा करते रहते थे। शायद यही कारण था कि लालजी भाई जैसे लोग अपने घरों की शोभा बढ़ाने के लिए इसी तरह के अंग्रेजी नाम वाले ब्रीड के कुत्तों को सर्वोत्तम मानते थे। जिस समाज में शेरा जैसे कुत्तों से इन्सानों की सामाजिक हैसियत बढ़ती हो, वहाँ बेचारे बूशो जैसे लमेरुआ कुत्तों के हिस्से सड़कों की खाक के अलावा और आ ही क्या सकती थी!


लमेरुआ कुत्तों को लेकर लालजी भाई के विचार बहुत साफ थे। वे बार-बार कहा करते थे कि “स्ट्रीट डॉग कमज़ोर और पिलपिले होते हैं, इसलिए किसी काम के नहीं होते हैं।“ उनका कहना भी ठीक था। लमेरुआ कुत्ते दिखने में पिलपिले होते थे और उनकी हड्डी-हड्डी निकली रहती थी। वे भौंकते भी थे तो इसतरह मानो किंकिया रहे हों। अब शरीर में दम हो तब तो भौंके भारी आवाज़ में! किंकियाते रहने की आदत भी तो पड़ गयी होती थी! एक रोटी भी खानी हो, तो कम-से-कम दो लाठी तो खानी ही पड़ती थी। कोई पत्थर भी उठाता, और भले ही ना मारे, लेकिन केवल मारने का इशारा-भर ही कर दे, तो ये 'काँय' से कर देते थे। भोजन की स्थिति ऐसी थी कि बचे-खुचे में भी मारा-मारी लगी रहती थी। फिर कहाँ से लाएँ इतनी ताक़त कि भौंकने में भी 'तिब्बटन-मैस्टिफ' और 'इंग्लिश-बुलडॉग' से प्रतिस्पर्द्धा करें? वे हमेशा हाशिए पर ही रह जाते थे।

लालजी भाई ने क़स्बे में अपनी शान बघारने के लिए ऐसा ही कोई विदेशी ब्रीड का कुत्ता मँगवाया था। ख़ूब मोटा और भारी-भरकम था। पता नहीं कितने किलो का था, लेकिन दिखता ख़ूब भारी था। जब भौंकता तो ऐसा लगता मानो पूरे क़स्बे ने किसी भूखे शेर की दहाड़़ सुन ली हो। लालजी भाई ने उसका नाम रखा था - शेरा। रोज़ सुबह-सुबह उसे लेकर 'मॉर्निंग वॉक' पर निकलते। अब इस मोतिहारी क़स्बे में कोई समन्दर तो था नहीं कि समन्दर के किनारे दौड़ लगाएँ! एक गाँधी मैदान ज़रूर था, लेकिन वह उनके घर से इतनी दूर था कि वहाँ जाना मुश्क़िल का काम था। एक मेन रोड था, जहाँ 'मॉर्निंग वॉक' किया जा सकता था। सुबह-सुबह सड़कें खाली होती थीं और दुकानें बंद रहती थीं, इसलिए लोगों को टहलने-घूमने के लिए जगह मिल जाती थी। सड़क के किनारे कुछ रिक्शे वाले अपने-अपने रिक्शों पर ऊँघते पड़े दिखते होते, जबकि स्कूली बच्चे अपनी-अपनी बंद डब्बेनुमा रिक्शों, बसों और गाड़ियों का इन्तज़ार करते हुए दिख जाते। आम लोग भी सड़क के किनारे टहलते-घूमते रहते थे। ऐसे में, मेन रोड पर कुत्ते के साथ 'मॉर्निंग वॉक' करने से सामाजिक टशन के बनने या उस टशन के दोगुने-चौगुने हो जाने की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती थी।

रोज़ सुबह-सबेरे लालजी भाई अपने शेरा को लेकर 'मॉर्निंग वॉक' पर निकल पड़ते। शेरा की कमर से लेकर गर्दन तक चमड़े की मोटी चिमौटियाँ बँधी होतीं और इनसे आधुनिक क़िस्म की नायलॉन वाली रस्सी बँधी होतीं। लालजी भाई इन नाइलॉन की रस्सी का दूसरा सिरा अपने दोनों हाथों में कसकर पकड़े रहते। भारी-भरकम शेरा उन्हें खींचता हुआ चलता रहता और लालजी भाई हाँफते हुए उसके पीछे-पीछे तेज़ क़दमों से भागते चलते। शेरा तो हाँफता भी तो ऐसा लगता कि फुँफकार रहा हो। उसे देखकर ही सामने से आते हुए लोग ख़ुद-ब-ख़ुद सड़क के किनारे दुबक जाते। हालांकि लालजी भाई लोगों को बोलते रहते कि “कुछ नहीं करेगा, कुछ नहीं करेगा, डरने की जरूरत नहीं है,“ लेकिन लोग शेरा की कद-काठी से ही भयभीत हो जाया करते थे। बच्चे शेरा को कौतूहल भरी आँखों से देखते, जबकि अपने बच्चों को स्कूल बसों के स्टॉप तक छोड़ने आईं उनकी माँएँ शेरा की ओर भयभीत निगाहों से देखती रहतीं। वे शेरा को देखते ही अपने-अपने बच्चों का सिर पकड़कर अपने पेट से चिपका लेतीं, जबकि रिक्शे-टमटम वाले शेरा की ओर हिक़ारत भरी दृष्टि से देखते हुए अपना मुँह बिचका लिया करते थे। शेरा जब मेन रोड पर निकलता तो सबसे बड़ी आफ़त लमेरुआ कुत्तों पर आ जाती। शेरा घर से निकलता नहीं कि उसके क़दमों की आहट भाँपकर ही लमेरुआ कुत्ते जान बचाकर पतली गली पकड़ लेते। जिसे जहाँ जगह मिलती, वहीं दुबककर खड़ा हो जाता। शेरा एकबार भौंकता कि लमेरुआ कुत्ते अपनी दोनों पिछली टाँगों के बीच अपनी-अपनी पूँछ दबाकर बेतहाशा भागने लगते, और शेरा था कि बड़ी शान से सड़क के दोनों ओर मुँह घुमा-घुमाकर जीभ लपलपाता हुआ और झूमता हुआ ऐसे चलता रहता मानो क़स्बे की वादियों में अपने होने का अहसास भर रहा हो।

अबतक लालजी भाई का कारवाँ केसरिया के रिक्शे से आगे निकल चुका था। हमेशा की तरह रास्ते में जो भी मिल रहा था, लालजी भाई को सलाम कर रहा था। लोग उन्हें सलाम करते और शेरा को विविध निगाहों से घूरते हुए आगे बढ़ जाते। लालजी भाई का कारवाँ आगे बढ़ता जा रहा था। हालांकि जमुना की लाठी के भय से बूशो ने एक गली में शरण तो ले ली थी, लेकिन यह सोचकर कि अब सबकुछ शान्त हो चुका होगा, बाकी बची हड्डियों की लालच में दूसरे रास्ते घूमकर वापस ढाबे की ओर लौट रहा था। उधर झूमता हुआ शेरा अपनी मस्ती में चला जा रहा था। अचानक शेरा और बूशो आमने-सामने आ गए।

शेरा के कानों में जैसे बूशो की गुर्राहट ललकार बनकर गूँजने लगी। शेरा उसे दबोचने को तड़प उठा। शेरा ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी। बूशो उसे देखकर सड़क के किनारे दुबक गया। लेकिन शेरा को इतने भर से संतोष न था। वह ऐसे उमड़-घुमड़ करने लगा जैसे अभी बूशो को लील ही जाएगा। लालजी भाई भी अपनी पूरी ताक़त से उसे रोकने में लगे हुए थे। शेरा की दहाड़ सुनकर बूशो के तो जैसे प्राण-पखेरु उड़ गए। बूशो ने शेरा के गुस्से को भाँप, पूँछ को दोनों टाँगों से चिपका कर, कांय-कांय करता हुआ एक पतली गली की ओर भागा। शेरा भी अपनी पिछली टाँगों पर खड़ा होकर ऐसे दहाड़ने लगा मानो आज सारा हिसाब ही चुकता कर लेगा। उसे सम्भालने में लालजी भाई के छक्के छूट गए। आख़िरकार, शेरा पर लालजी भाई की पकड़ ढीली पड़ गयी और जंजीरनुमा रस्सी उनके हाथों से छूट गयी। शेरा ने बूशो को खदेड़ना शुरु किया। प्राण बचाकर भागते हुए बूशो ने एक सूखे नाले के कोने में जाकर अपनी अंतिम शरण ली। लेकिन पीछे से शेरा भी आ धमका। अब बूशो के पास पीछे जाने के लिए कोई और जगह बची नहीं रह गयी थी। दूसरी ओर, माथे पर सवार शेरा अपने बड़े-बड़े दाँतों को निकालकर उसे दबोचने को तैयार दिख रहा था। जब इस बेचारे लमेरुआ कुत्ते बूशो ने समझ लिया कि अब बचाव का कोई और रास्ता बचा नहीं रह गया है, तो उसने भी पैंतरा बदला। उसने “अटैक इज द बेस्ट डिफेन्स“ वाले सिद्धांत पर काम करना शुरु किया। सीधे भिड़ जाना ही उसे उचित उपाय समझ में आया। वह अब सीधी लड़ायी को तैयार हो गया। अब बूशो के भी नथुने फूलने लगे और वह भी दाँत निकालकर घोंघियाने लगा। थोड़ी देर दोनों फुँफकारते हुए एक दूसरे को तौलते रहे और फिर शुरु हुआ युद्ध - एक निर्णायक युद्ध।

बूशो के लिए ऐसी लड़ायी कोई नई बात नहीं थी, रोज़ ही होती रहती थी। कभी एक रोटी के लिए, तो कभी विश्राम हेतु एक गज जमीन के लिए। लेकिन शेरा के लिए आमने-सामने की लड़ायी का यह पहला अनुभव था। सोफे पर बैठकर बिस्कुट खाने वाले शेरा को तो पता ही नहीं था कि लड़ायी लड़ी किस तरह जाती है! युद्ध शुरु हो चुका था। शेरा भौंकने और गुर्राने के सिवा कुछ कर नहीं पा रहा था। जबकि बूशो ने आत्मरक्षार्थ ही सही, अपने दाँव चलने शुरु कर दिए थे।

इसी बीच लालजी भाई और उनके सहचर भागते हुए वहाँ पहुँच गए। फिर सबने ईंट-पत्थरों आदि फेंक-फाँककर शेरा को संरक्षण देना शुरु कर दिया। मेन रोड से और भी लोग दौड़-दौड़कर इकठ्ठा होने लगे, लेकिन कोई भी बीच में जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अब तक लोगबाग़ चारो तरफ से घेरकर इस लड़ायी को देखने लगे थे और सभी अपनी-अपनी तरह से इस युद्ध को रोकने की कोशिश करने लगे थे। शोर सुनकर रिक्शे वाले और ठेले वाले भी उस ओर दौड़ पड़े। उन्हें यह आशंका सताने लगी थी कि कहीं आज भारी-भरकम शेरा दुबले-पतले बूशो को मार ही ना डाले। धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि भीड़ भी मानसिक रूप से दो धड़ों में बँटकर इस युद्ध में शामिल हो गयी है। एक ठेले वाला दौड़कर लाठी ले आया, लेकिन लालजी भाई की उपस्थिति में उसकी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि वह शेरा पर लाठी चलाए। फिर भी, उसने दोनों कुत्तों के बीच में लाठी घुसाकर इस लड़ायी को तत्काल समाप्त करा देने की जुगत शुरु कर दी। दूसरी ओर, लालजी भाई के सहचर बूशो पर ईंट-पत्थर बरसाने लगे थे। अपने ऊपर हो रहे चौतरफा हमले को देख बूशो शेरा को छोड़ नाले से बाहर आ गया, लेकिन दाँत निपोरता हुआ लगातार गुर्राता जा रहा था। हालांकि शेरा का गुस्सा अभीतक शान्त नहीं हुआ था, लेकिन बूशो की आक्रामकता से घबराकर वह पीछे की ओर हटने लगा था। अबतक लालजी भाई उसके क़रीब आ गए थे। पीछे हटते हुए शेरा ने आख़िरकार लालजी भाई की गोद में शरण ली।

युद्ध समाप्त हो चुका था, शेरा को यह युद्ध बहुत महंगा पड़ा था। इस बेमेल युद्ध में वह बुरी तरह से परास्त हो गया था। बूशो ने शेरा को काट-कूटकर लहू-लुहान कर दिया था। लालजी भाई ने शेरा की हालत का जायजा लिया फिर रोते हुए लालजी भाई शेरा को गले से लिपटाकर पुचकारने लगे। पितृ-प्रेम पाकर शेरा का भी जैसे गला भर आया था और वह भी 'कों-कों' करता हुआ लालजी भाई का मुँह चाटने लगा था।

अगले दिन, सुबह से ही, नगरपालिका के कर्मचारी सभी लमेरुआ कुत्तों की धर-पकड़ करने लगे थे।

*****

अनुज

एम.ए., पी.एच-डी.,
सूचना प्रौद्योगिकी एवं प्रबन्धन में एडवांस डिप्लोमा, ई-गवर्नेन्स पर विशेष दक्षता उपाधि आदि। रचनात्मक उपलब्धियाँ 'कैरियर,गर्लफ्रैंड और विद्रोह' (पहला कहानी-संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित), सम्पादित पुस्तकें : 'मार्कण्डेय की श्रेष्ठ कहानियाँ', नैशनल बुक ट्रस्ट से, 'बालसाहित्य और आलोचना', वाणी प्रकाशन से, 'मार्कण्डेय का मोनोग्राफ' साहित्य अकादमी से, आदि-आदि प्रकाशित। इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के लिए पाठ-लेखन तथा विविध राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, पुस्तक समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख और विचार आदि प्रकाशित।
फोटोग्राफी और रेडियो फ़ीचर निर्माण आदि में कई विशिष्ट उपलब्धियाँ।
सम्प्रति सम्पादक : 'कथानक' सम्पर्क 798, बाबा खड़ग सिंह मार्ग, नई दिल्ली-110001.
मो. 09868009750 ई-मेल : anuj.writer@gmail.com




००००००००००००००००

बीजेपी 34% — कांग्रेस 49% — एमपी चुनाव, जानिए जनता का मूड — ब्रजेश राजपूत @brajeshabpnews



जनता का मूड नापें तो करीब 15% की बढ़ोतरी कांग्रेस के पक्ष में

बनता बिगड़ता है जनता का मूड, मूड से बच कर रहियो.... 

तब एबीपी के चुनाव-पूर्व सर्वे में 160 सीट बीजेपी को मिलने का ऐलान किया था, तो सीएम शिवराज सिंह और बीजेपी के लोग भी भरोसा नहीं करते थे। कहते थे आप बहुत ज्यादा सीटें दिखा रहे हैं। 

:: सुबह सवेरे में ब्रजेश राजपूत: ग्राउंड रिपोर्ट

दृश्य एक : भोपाल में वल्लभ भवन की पाँचवीं मंजिल, मुख्यमंत्री दफतर का चैंबर, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह कैबिनेट की बैठक खत्म होने के बाद अपने मंत्रियों के साथ अनौपचारिक चर्चा करने के लिये बैठे हैं। खुशनुमा माहौल में चल रही चर्चा में सीएम मंत्रियों से कहते हैं कि इतने सालों में आप हम सब अब परिवार के लोग हो गये हो और हमारा ये परिवार इसी तरह चले इसके लिये आपको जरूरी है कि आप सब दोबारा जीत कर आयें। अब आप सब जमकर मेहनत करिये। गांवों में जाइये जनता से बात करिये और हो सके तो गांवों में रात रुकिये क्योंकि जनता का मूड इन दिनों ठीक नहीं है। 


दृश्य दो : भोपाल में कांग्रेस दफतर इंदिरा भवन के राजीव गांधी सभागार में कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की पत्रकार वार्ता हो रही है। सवाल पूछा जाता है कि आपको आये अब काफी दिन हो गये कांग्रेस कब सड़कों पर उतर कर शिवराज सरकार को घेरेगी, क्योंकि कांग्रेस का विधानसभा घेराव दो तीन बार तारीख बढ़ाने के बाद स्थगित ही हो गया है। इस पर कमलनाथ कहते हैं, सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस सब कुछ करेगी, मगर ये तो सोचिये मुझे पद संभाले आज इक्कीस दिन ही हुए हैं।“ इस पर एक चपल पत्रकार ने फिर कमलनाथ को घेरा, “अरे आप तो एक—एक दिन गिन रहे हैं...”  मुस्कुराकर कमलनाथ ने कहा, “दिन नहीं घंटे। मेरे पास वक्त बहुत कम है।“



चुनाव के लिये वक्त बहुत कम है
सच है पार्टियों के लिहाज से विधानसभा चुनाव के लिये वक्त बहुत कम है। ठीक पांच महीने बाद छटवें महीने में चुनाव हो जाने हैं। और इस साल के आखिरी महीने के शुरुआती हफ्ते में कौन सी पार्टी सत्ता में रहेगी ये तय हो जायेगा। और ये सब कुछ तय करता है जनता के मूड पर कि जनता सरकार के कामकाज को लेकर क्या सोचती है।

देश का मूड
जनता का मूड जानने के लिये जब एबीपी न्यूज ने पिछले दिनों सबसे विश्वसनीय सीएसडीएस(CSDS) के साथ मिलकर ‘देश का मूड’ नाम से जनमत सर्वेक्षण किया तो परिणाम चौंकाने वाले रहे। मध्य प्रदेश में किये गये सर्वे में सामने आया —
बीजेपी के पक्ष में 34% तो कांग्रेस के पक्ष में 49% लोग खड़े दिखे। 
पिछले चुनाव यानी 2013 में पार्टियों के पास ये परसेंटेज एकदम उलटा था: तब बीजेपी के पास 45% तो कांग्रेस के पास 36% वोट था। यानी जनता का मूड नापें तो करीब 15% की बढ़ोतरी कांग्रेस के पक्ष में दिखी। 

सरकार के नेताओं और अफसरों का मूड बिगाड़ दिया
निश्चित ही जनता के इस मूड ने सत्ताधारी सरकार के नेताओं और अफसरों का मूड बिगाड़ दिया। आमतौर पर सर्वे में 3% से 5% की ऊंच-नीच की गुंजाइश रहती है...मगर फिर भी 10% का अंतर यदि कांग्रेस के पक्ष में है तो है न हैरानी की बात।

बेहद मेहनती मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की अगुआई में पिछले 13 साल से चलने वाली सरकार का जनता में ये प्रदर्शन निराश करने वाला है। हालाँकि इसे चुनाव प्रतिशत का अंतर मानें तो प्रदेश के पहले विधानसभा चुनाव जो 1957 में हुये थे — तब जनसंघ को दस और कांग्रेस को पचास फीसदी वोट मिले थे — मगर उसके बाद से ये अंतर लगातार घटता रहा ओर 1993 और 1998 के चुनावों में ये अंतर घटकर क्रमशः 1.5%  और 1.3%  तक आ गया था। दोनों बार कांग्रेस के दिग्विजय सिंह बेहद कम अंतर से चुनाव जीतकर सीएम बने थे। मगर 2003 में उमा भारती के आते ही ये अंतर 1% से उछलकर 11% तक जा पहुंचा...  और शिवराज सिंह की अगुआई में लड़े चुनाव 2008 में 5 फीसदी और 2013 में 8 फीसदी तक जा पहुंचा।


वैसे 15% के इस अंतर पर सभी ने असहमति जतायी...  मगर यदि पिछले विधानसभा चुनाव के पांच साल पहले के इन्हीं दिनों को देखे तो समझ आता है कि 2013 के मई-जून महीने में भी तकरीबन ऐसा ही माहौल और सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ गयी थी। भीषण गर्मी से जलाशय और नदियां सूख गयीं थी। किसानों में बेहद हताशा और जल-संकट गहराया हुआ था। लोग सरकार के खिलाफ खुलकर बोलते थे, मगर अगस्त में हुयी अच्छी बारिश और शिवराज सिंह के रात-दिन के दौरों ने माहौल बदला...  रही सही कसर 2014 में चलने वाली मोदी मोदी की सुनामी के पहले आयी आंधियों ने पूरी कर दी। 165 सीटों के साथ बीजेपी ने शानदार वापसी की।

तब एबीपी के चुनाव-पूर्व सर्वे में 160 सीट बीजेपी को मिलने का ऐलान किया था, तो सीएम शिवराज सिंह और बीजेपी के लोग भी भरोसा नहीं करते थे। कहते थे आप बहुत ज्यादा सीटें दिखा रहे हैं। कांग्रेसी नेता तो ऐसे सर्वे को कचरे की टोकरी में डालने को कहते थे मगर सीटें आयीं 165 !

इसलिये सर्वे और जनता के मूड को नकारने के पहले थोड़ा सोचिये जरूर... ... 

जाते जाते हमें मशहूर खेल कमेंटेटर जसदेव सिंह याद आ गये, उनकी भाषा में बोले तो: भई हमारी भारतीय हॉकी टीम को बड़ी पुरानी बीमारी है कि पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में बदल नहीं पाती।

एमपी के राजनीतिक कमेंटरी करने वाले पत्रकार दीपक तिवारी भी यही कहते हैं, “एमपी में कांग्रेस को भी बड़ी पुरानी बीमारी है कि — वो जनता के मूड को वोट में बदल नहीं पाती।"

आप इससे सहमत हैं ?

ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज
भोपाल


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००

रवीश कुमार को हत्या की धमकी | #ScaredBoss



NDTV’s Ravish Kumar gets death threats on phone, social media

उस सूअर रवीश कुमार को मैं चेतावनी देता हूँ, एक दिन मेरे हाथों से मरेगा तू. दौड़ा-दौड़ा कर मारूँगा...यहाँ से पाकिस्तान ले जाऊंगा जहाँ तुम्हारा घर है



NDTV’s Ravish Kumar gets death threats on phone, social media

At a time the nation is debating intolerance and threats to free speech, a special look at what journalists risk each day to do their jobs

Watch @LRC_NDTV tonight at 7 on http://ndtv.com/live   and NDTV 24x7

००००००००००००००००

धर्मयुग: हृषीकेश सुलभ की बेजोड़ कहानी 'रक्तवन्या'

केया दास की ज़िन्दगी में घाव ही घाव हैं......चोट ही चोट हैं। वह हर पल अपने शरीर से अलग होते मांस-पिंडों को रिसते लहू में डूबो कर जोड़ने-साटने के प्रयास करती है और बदलती जा रही है एक टेढ़ी-मेढ़ी आकृति में। उसकी ज़िन्दगी के पोर-पोर पर निशान बन गए हैं। कहीं चोट के काले निशान, तो कहीं टँगिया और संगीनों के जख़्म। 

हृषीकेश सुलभ 

हथेलियों को मुट्ठी में बदलने की कोशिश में असफल केया दास की आँखों के सामने से ज़िन्दगी सरक जाती है। बच जाती हैं सिर्फ़ स्मृतियों की टीसें और...शून्य।


हृषीकेश सुलभ की कहानी कोई भी पाठक (या आजकल लेखक भी) जब शब्द-शब्द पढ़ लेगा, वह अपने एकदम पास होने वाली घटनाओं, जिनसे वह ख़ुद को दूर किये होता है, अनभिज्ञ-सा दीखता होता है, को अपने अंतस को झकझोरता पायेगा, और फिर उसका इन्सान कदापि उसे पीठ नहीं दिखायेगा। साहित्यकार का धर्म जब व्यापारी के धर्म से रेस मिलाने लगता है तब वह साहित्य-संसार बनता है जो वर्तमान है। इस रेस में शामिल होते के साथ, उसका सरोकारों को पछाड़ देना, रचनाधर्मी को कुचलते हुए व्यापार-धर्म का जीत जाना है... मगर इस वर्तमान में अभी हृषीकेश सुलभ की मौजूदगी यह बतलाती है कि रचना के साहित्यकार और दुकानदार में हार बेचने वाले की ही होनी है। कोई 35 साल पहले छपी इस कहानी का आज, अभी-का सच कह देना, और कुछ भी कहने की गुंजाइश बाकी नहीं रहने देता।

'रक्तवन्या' पर, जो १९८२ में धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी, हृषीकेशजी कहते हैं, "भारतीजी (धर्मवीर भारती) ने बहुत प्यार से इसे छापा था।"

भरत तिवारी


धर्मयुग: हृषीकेष सुलभ की बेजोड़ कहानी 'रक्तवन्या'

रक्तवन्या

— हृषीकेश सुलभ

सिर्फ़ सात-आठ जवान लड़कियाँ। कसाई की दुकान में टँगे गोश्त की तरह थर-थर काँपती हुई लड़कियाँ। 


अजीब होती जा रही है केया दास। उसे अब अपने-आप से भय लगने लगा है। जंगल की ये रातें उसे तिलिस्मी लगती हैं। डरावनी। पूरे शरीर में सिहरन भर देने वाली रातें।

केया दास करवटें बदलती है। बिस्तर पर छटपटाती है। सिरहाने जलने वाले लैम्प को लगातार घूरती है। तकिए में मुँह छिपा कर रोती है। रात-रात भर जागती रह जाती है केया दास। पहाड़ी के शीर्ष से गिरने वाले तीरथगढ़ के झरने का-सा शोर उसकी कोठरी में भर जाता है। दरभा घाटी में खड़े शाल-वृक्षों को झकझोर कर बहने वाली तूफ़ानी हवा के झोंके अयाचित मेहमान की तरह आकर दस्तकें देने लगते हैं। केया दास को यह कोठरी कोटुमसर गुफा के गर्भ की तरह लगती है। गुफा-तल पर बने छोटे-छोटे गड्ढों में तैरने वाली अंधी मछलियों की तरह वह इस कोठरी में हाथ-पाँव मारती रहती है।

रात जैसे-तैसे कटती है। रोशनी का लाल टुकड़ा किसी वनपाखी की तरह दाना चुगने के लिए खिड़की से घुसता है। कोठरी में रोशनी रेंगने लगती है। सुबह के आकाश में मूँगिया रंग के बादल के टुकड़े टँगने लगते हैं। केया दास जम्हाई भरती है। कोठरी से बाहर निकलती है। आकाश की ओर मुँह उठा कर देखती है और काँप उठती है साँभरी की तरह, मानो बादल के टुकड़े मुँह उठा कर उसे दबोचने के लिए झुके आ रहे हों।

दिन होता है। जंगल का जीवनक्रम बदलता है। केया दास को लगता है, वह हिंसक वन-पशुओं के झूंड के बीच घिर गई है। जंगल के बीच इस्पाती चट्टानों की काली पट्टी की तरह बिछी सड़क पर ट्रकों का गुज़रना शुरु हो जाता है। सामने नाका पर खाकी वर्दी में बैठा फॉरेस्ट गार्ड कोठरी के दरवाज़े पर खड़ी केया दास को घूर रहा है। केया दास को लगता है, जैसे उसकी छाती पर कोई तेज़ धार वाली टँगिया से वार कर रहा हो......छप...छप...छप...!

केया दास की ज़िन्दगी में घाव ही घाव हैं......चोट ही चोट हैं। वह हर पल अपने शरीर से अलग होते मांस-पिंडों को रिसते लहू में डूबो कर जोड़ने-साटने के प्रयास करती है और बदलती जा रही है एक टेढ़ी-मेढ़ी आकृति में। उसकी ज़िन्दगी के पोर-पोर पर निशान बन गए हैं। कहीं चोट के काले निशान, तो कहीं टँगिया और संगीनों के जख़्म। कभी जख़्मों से लहू रिसता है, तो कभी मवाद। केया दास ने संगीनों की नाव पर लहू की नदी को पार किया है और तब पहुँची है टँगिया, हिंसक वन-पशुओं और तूफ़ानी बयार वाले इस जंगल में। कभी न रुकने वाली यातना के इस लम्बे सफ़र में थक चुकी है केया दास। उसके पाँवों से लिपटी हैं अतीत की लतरें।

......पूर्वी बंगाल का शहर फ़रीदपुर। पद्मा नदी के किनारे बसा शहर फ़रीदपुर। केया दास को लगता है, जैसे भूकंप आ गया हो। पृथ्वी फिरकी की तरह डोलने लगी हो। गोला-बारूद के विस्फोट......। मशीनगनों और बन्दूकों की आवाज़ें...। संगीनों से छिदते-बिंधते शरीर। चीख़ें। पुकारें। शरीर से उतरते वस्त्रों की होली। पाशविक पंजों से नुची देह। नंगी देह। केया दास के सामने पड़ी है वृद्ध बाबा की लाश। भाई का दो टुकड़ों में बँटा शरीर। तेरह वर्षीय बहन की लहूलुहान लाश। रोती-बिसूरती पीशी माँ......और इन सबके बीच पड़ी है स्वयं केया दास की नंगी-बेहोश देह।

......पद्मा का जल लाल होता जा रहा है। ...पद्मा में लहू मिलता जा रहा है। फ़रीदपुर अब शहर नहीं रहा। फ़रीदपुर धुएँ और शोलों से ढका जलता हुआ ख़्वाबगाह है। केया दास भाग रही है। जलते-सुलगते सपनों की लाशें फलाँगती हुई भाग रही है। बुढ़िया पीशी माँ के साथ संगीनों की नाव पर सवार केया दास प्रलय की धारा में बहती जा रही है।

......शरणार्थी शिविर की काली रातें। अँधेरे की मुट्ठी में मृतप्राय ज़िन्दगियाँ, जैसे घुप्प अँधेरी कोठरी में बुझती ढिबरी की लौ। मासूम बच्चे और क़ब्र में पाँव लटकाए बूढ़े लोग। कराहें, आँसू और चुप्पी। पपड़ी पड़े होठों की घाटियाँ। रीत गई आँखों का रेगिस्तान। सिर्फ़ सात-आठ जवान लड़कियाँ। कसाई की दुकान में टँगे गोश्त की तरह थर-थर काँपती हुई लड़कियाँ। क्या-क्या छूट गया फ़रीदपुर में? केया दास अँगुलियों पर हिसाब करती है। अँगुलियों के पोर ख़त्म हो जाते हैं और हिसाब करना बाक़ी रह जाता है। शिविर तक साथ आने के बाद भी कई लोग साथ छोड़ गए। किसी को संगीन का जख़्म खा गया, तो किसी का फेफड़ा बारूद के धुएँ से नाकाम हो गया। कोई अपंग ज़िन्दगी से लड़ते-लड़ते थक गया, तो कोई मन में बैठी दहशत से पागल होकर मर गया। केया दास को नहीं मालूम कि वह कैसे जीवित बच गई। उसका पेट पृथ्वी बनता जा रहा है। माह गुज़रते हैं — एक के बाद एक। ......और समूची केया दास पृथ्वी बन जाती है। वह लोगों की भीड़ में अकेली सोई रहती है — पृथ्वी की तरह ऊपर से निश्चल और शांत,...पर पृथ्वी के अन्दर कोई तूफ़ान मचाता है। समूची सृष्टि को उलट देने के लिए आकुल कोई हाथ-पाँव मारता है। पृथ्वी की छाती में बारूद के गोले फूटने लगते हैं और आँखों में रक्तवन्या की धारा तेज़-तेज़ दौड़ती है। शिविर नींद में कराह रहा है और केया दास अपने पेट पर मुक्के से प्रहार कर रही है। मुक्के......लगातार मुक्के......अनगिनत मुक्के। दाँतों तले दबा निचला होंठ दर्द से स्याह होता जा रहा है। फिर पृथ्वी रक्तवमन करने लगती है। शिविर में शोर भर जाता है। दहशत से भरे लोग रक्त में सनी केया दास को देखते रह जाते हैं।

पीशी माँ केया दास के सिरहाने बैठी सुबक रही है। डॉक्टर दवा देकर जा चुका है। शिविर की हलचल रुक गई है। केया दास के होंठ बुदबुदाते हैं, “आपनार नाम की ?”

“आमार नाम? आमार नाम मानस......मानस मुखर्जी।”

पता नहीं कब अतीत का भूला हुआ संवाद याद आने लगता है। ......मौलश्री की गझिन होती छाँव। परिचय का गाढ़ा होता हुआ रंग। पंख लगा कर उड़ते हुए सपने।



“केया, बीयेर पर आमादेर एकटि छोट्टी बाड़ी होबे......मौलश्री बने।”

“बाड़ीर दरकार हबेइबा कैनो...आमरा मौलश्री बने थाकबो। ......मौलश्रीर छायार तले।”

मानस हँसता है। मौलश्री के ढेर सारे फूल झरते हैं। केया दास आँचल फैला कर फूल बटोर रही है।

मौलश्री की छाँव..., वे झरते हुए फूल — सब कुछ बह गया पद्मा की रक्तवन्या में। इस जंगल में तो एक भी मौलश्री का पेड़ नहीं है। केवल शाल-वृक्ष हैं। संगीनों की तरह मुँह उठाए..., आकाश की छाती में चुभते हुए शाल-वृक्ष।

सूरज खिड़की से ऊपर उठ गया है। केया दास अपने लम्बे बालों को सहेजती है। समेट कर पीछे बाँधती है। दिनचर्या निबटाती है। रात का बचा हुआ खाना गर्म करती है। खाने के बाद कन्धे से झोला टाँगती है। कोठरी में ताला डाल कर बाहर निकलती है। लाल मूरम से पटी यह पगडंडी पक्की सड़क से जुड़ती है। नाके पर बैठे लोगों के शरीर में हरकतें भरने लगी हैं। फॉरेस्ट गार्ड ने बीड़ी सुलगा ली है। ठेकेदार हरसुख गोलछा के मुंशी की नाक फूलने लगी है। कम्पाउंडर राधाचरण ने ताश के पत्ते फेंक कर अपनी आँखों पर धूप-छाँह वाला चश्मा चढ़ा लिया है। केया दास नाका पार करती है। फॉरेस्ट गार्ड राग अलापता है, “हाथ चो चूड़ी कोन लेका दिलो ,”

कम्पाउंडर और मुंशी दोहरे स्वर में राग भरते हैं, “नाका पर जाउन रिलिस नाका वाला दिलो।”

केया दास के दाहिने हाथ में थरथरी भर जाती है। वह अपनी कलाई को देखती है। चूड़ियाँ एक-दूसरे से टकरा रही हैं। पीछे से आती ठहाकों की आवाज़ के व्यूह में घिरी वह छटपटा उठती है। ठहाकों की ध्वनि हिंसक वन-पशुओं की तरह दूर तक उसका पीछा करती हैं।



स्कूल में दोपहर की छुट्टी होती है। लड़के अपनी-अपनी स्लेटें और क़िताबें छोड़ कर दौड़ते हैं। देखते-देखते स्कूल का कमरा, बरामदा और फिर सहन ख़ाली हो जाता है। आड़ी-तिरछी रेखाओं पर चलते हुए बच्चे नीलगिरि के पेड़ों के बीच खो जाते हैं। ......ये पेड़ दसे भले नहीं लगते। सूख कर अलग होती छाल वाले इन पेड़ों को देख कर उसे लगता है, जैसे जंगल को कोढ़ फूट रहा हो। इन पेड़ों के बीच से गुज़रते हुए केया दास का दम घुटता है।

पूरा स्कूल चुप पड़ा है। केया दास वहीं बरामदे में बैठी नीलगिरि की फुनगियों को निहार रही है। हवा की लहरों से पत्तों में सरसराहट है,......और है एक अजीब-सी आवाज़। उसके भीतर भय पैठने लगा है। आँखों पर पड़ती सूरज की रोशनी धुँधली होने लगी है। धुँधलके में केया दास का अतीत उभरता है।

...एक कैम्प,...दूसरा कैम्प,......फिर तीसरा कैम्प।

ज्गदलपुर के पश्चिमी छोर पर लगे धरमपुरा कैम्प में आते-जाते केया दास के पास शरीर के नाम पर सिर्फ़ हड्डियाँ और सिकुड़ती चमड़ी बची है। पीशी माँ दिन-रात सेवा करती है। रात-रात भर सिरहाने बैठ कर सान्त्वना देती है। केया दास की आँखों में आँसू की लहरें डोलती हैं। पीशी माँ अपने आँचल से उसकी आँखें पोंछती है और ख़ुद सिसकने लगती है, जैसे वह सिर्फ़ केया के लिए अपने जीवन का भार ढोए जा रही हो।

एक डॉक्टर हर दिन नियम से आकर सुबह-शाम केया की जाँच करता है। उसके तपते ललाट पर अपनी हथेली रखता है। मुँह में थर्मामीटर लगा कर बुख़ार देखता है। भौंहों पर अँगूठा रख कर आँखों में झाँकता है। ललाट पर हथेली का स्पर्श पाते ही केया के सीने के भीतर सिहरन की एक रेखा खिंच जाती है।

पीशी माँ को अब दवा और राशन के लिए शरणार्थी वितरण केन्द्र तक नहीं जाना पड़ता। डॉक्टर के हाथों में कभी दवा की शीशियाँ होती हैं, तो कभी पीशी माँ के लिए राशन। पीशी माँ उसे भोलू पुकारती है। केया के पास बैठ कर अपने भोलू डॉक्टर का गुणगान करती है। डॉक्टर पीशी माँ का सम्बोधन सुन कर मुस्कराता है। केया दास डॉक्टर के मुस्कुराते चेहरे पर अपनी आँखें नहीं टिका पाती।

एक दिन डॉक्टर की हथेलियों का स्पर्श पाते ही ज्वर में तपती केया के होंठ हिलते हैं, “आपनार नाम की ?”

डॉक्टर सिर्फ़ मुस्करा कर रह जाता है। केया के तपते ललाट पर अपनी हथेली का स्नेहिल स्पर्श देकर उठ जाता है। वह डॉक्टर को जाते हुए देखती रहती है। उसके सवाल के उत्तर में दसों दिशाओं से आवाज़ आती है — “आमार नाम मानस......मानस मुखर्जी।”

दिन और माह कछुए की चाल से सरकते जा रहे हैं। धरमपुरा कैम्प की हवा में घुली-मिली कराहों और सिसकियों की गंध मिटने लगी है। अब केया बिना किसी का सहारा लिये खाट से उतर कर ज़मीन पर चलती है। अपने पाँवों पर चल कर वह हर शाम तार के घेरे तक जाया करती है और पहाड़ियों के शीर्ष पर आँखें टिका कर कुछ तलाशने की कोशिश करती है। पाँव थक जाते हैं तो पत्थर के टुकड़ों पर बैठ कर चारों तरफ़ आँखें घुमाती है — बेतरतीब फैली झाड़ियों में, जहाँ-तहाँ खड़े शाल-वृक्षों की फुनगियों पर। ......फिर वह आकर उसके पीछे खड़ा हो जाता है। चुप्प। एकदम निःशब्द। केया को जब अपने पीछे डॉक्टर के खड़े होने का अहसास होता है — वह सिहर जाया करती है। कई बार डॉक्टर के जाने के बाद उसने इस सिहरन को पहचानने का प्रयत्न किया है,...उसकी गति को मापना चाहा है, पर वह विफल रही है। अक्सर वह पूछता है, “ क्या देख रही हो ?”

कोई उत्तर दे पाना केया के लिए असम्भव होता है। वह चाहती ज़रूर है कि कुछ बोले। डॉक्टर को बतला दे कि वह क्या देख रही है......कि वह पहाड़ियों के शीर्ष से ढलान तक और पेड़ों की फुनगियों-झाड़ियों के बीच ज़िन्दगी तलाश रही है। ज़िन्दगी..., नन्हे ख़रगोश की तरह फुदकती ज़िन्दगी। ......लेकिन ये शब्द उसके होंठों तक आकर वापस लौट जाते हैं। फेफड़े के बीच जाकर दुबक जाते हैं। केया मात्र औपचारिकता के नाते डॉक्टर की ओर देख कर अपनी आँखें झुका लेती है। वह ख़ामोश केया के उत्तर की प्रतीक्षा करता है। फिर सिगरेट निकालकर सुलगाता है। कश लेते हुए काँटेदार तार के घेरे के बीच जगह चुन कर अपनी दोनों बाँहें टिका देता है।

वक़्त की चोट से केया दास की देह पर उभर आए नीले निशानों का रंग बदलने लगा है। चेहरे पर बनी खाइयाँ भरने लगी हैं। केया चाहती है कि वह स्वस्थ होकर जीने की कोशिशें करे, पर हौसला साथ नहीं देता। स्मृतियों का दबाव इतना तेज़ होता है कि वह हाँफने लगती है। आँखों के आगे फैले अँधेरे के वृत्ताकार घेरों में अतीत की लौ थरथराती है। उस लौ की मद्धिम रोशनी में केया दास अपने वर्तमान और भविष्य की अस्पष्ट छाया देखती है। वह अपनी हथेलियाँ फैला कर इस छाया को मुट्ठियों में बंद कर लेना चाहती है। ...पर अँगुलियों की पोर अकड़ जाती हैं। हथेलियों को मुट्ठी में बदलने की कोशिश में असफल केया दास की आँखों के सामने से ज़िन्दगी सरक जाती है। बच जाती हैं सिर्फ़ स्मृतियों की टीसें और...शून्य।

पुनर्वास योजना के अन्तर्गत धरमपुरा के पास ही एक गाँव में मिली झोपड़ी में केया दास के दिन सरकते हैं और रातें कटती हैं। पीशी माँ ने पासा पलट दिया है। खाट पकड़ ली है। पीशी माँ की सेवा-टहल, हिन्दी की पढ़ाई और कपड़ों पर कसीदाकारी — केया की दिनचया इन्हीं कामों की परिधि में घिर गई है।



डॉक्टर अब अक्सर सुबह आता है। महुआ के छतनार पेड़ों की छाया में अलसाई झोपड़ी के दरवाज़े पर साइकिल की घंटी ट्रिंग-ट्रिंग बजा कर आवाज़ देता है — “पीशी माँ......पीशी माँ!”......और किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अन्दर चला जाता है। पीशी माँ के सिरहाने बैठ कर घंटों उनकी बातें सुनता है। केया चाय का कप देकर अपने कामों में लग जाती है...और वह अपनी आँखों से उसका पीछा करता है। केया दास पूरे घर में थरथराती हुई डोलती फिरती है या कपड़े पर सुई-धागे से रेखाएँ बनाती है। डॉक्टर की आँखों की दबाव से अक्सर सुई-धागा अपनी लक्ष्य से अलग हो जाता है। केया की अँगुलियों की पोर से लहू रिसने लगता है। रिस-रिस कर टपकती लहू की बूँदें उसके मन में दहशत भर देती हैं। उसे लगता है, ये बूँदें धारा बन जाएँगी......रक्तवन्या की धारा।

वह बाहर जाती हैं। दरवाज़े पर बैठ जाती है। घुटनों में मुँह छिपा कर रोती है।

......और एक दिन डॉक्टर उसे दरवाज़ा के पास बैठ कर सुबकते हुए देख लेता है। उसकी धीमी आवाज़ केया दास को दुलारती है, “ केया...केया!”

केया दास उसकी आवाज़ का स्पर्श पाकर सिहरती है।

“मेरी तरफ़ देखोगी भी नहीं ?” प्रार्थना के बोल की तरह डॉक्टर की आवाज़ फिर उसे छूती है। डॉक्टर उसके सामने ज़मीन पर ही पालथी मार कर बैठ जाता है। केया डबडबाई आँखों से उसे निहारती है। पाँव के पास छिटक आए महुआ के दानों को उठा कर हथेली पर डगराते हुए डॉक्टर बोलता है, “केया, आदमी जब अकेलेपन के भँवर में घिरने लगे, तो उसका मन टूटने लगता है। टुकड़ों में बँटे मन को देह के घोंसले में छिपा कर जी पाना आसान नहीं होता।”

केया के पास अभिव्यक्ति के लिए सिर्फ़ अहसास उभरते हैं और जाने कहाँ जाकर छुप जाते हैं। केया चुप रहती है। डॉक्टर अपने संवाद को आगे बढ़ाता है, “केया! मैं जानता हूँ कि बीच राह में अकेले छूट जाना ख़ुद को मरते हुए देखने या महसूसने-सा दुःख देता है। आदमी को चाहिए कि वह नया रास्ता खोजे। कुछ नया सोचे। तुम्हें मेरी बातें पागलपन लग सकती हैं, पर मैं......”

“रतन!” केया दास के होंठ काँपते हैं। बाक़ी शब्द उसकी आँखों से पानी बन कर ढुलकने लगते हैं। डॉक्टर पहली बार केया की आवाज़ में अपना नाम सुनता है। केया आगे कुछ भी नहीं बोल पाती है।



“केया, हर व्यक्ति के भीतर जीवन को सहजता से जीने की भूख होती है। तुम उस भूख को मार रही हो। मैं तुम्हें सहानुभूति और दया नहीं देना चाहता। चाहता हूँ, तुम्हें नमी दूँ ताकि तुम्हारे मन के भीतर छिपे जीवन के बीज, जो सूखते जा रहे हैं— अंकुरित हों। वे पौद बनें। फिर उनके वृन्तों पर फूल खिलें...जीवन के फूल।”

सुरक्षा की छाँव लिये विशाल वृक्ष की तरह अपने ऊपर पसरते रतन की संवेदनाओं की छाया से अचानक बाहर निकल जाती है केया दास।

“रतन! मेरी एक बात मानोगे?”

“बोलो।”

“मत आया करो मेरे पास। मुझे लगता है, मैं जीवन भर तुम्हारे स्नेह का प्रतिदान नहीं दे सकूँगी।”

“मैंने तुमसे कोई प्रतिदान नहीं माँगा केया। ...कभी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम सहज जीवन जी सको। ...ऐसा जीवन, जिसमें उछाह हो,...लालसा हो।”

डॉक्टर रतन के शब्द बीच राह में छूट गए राहगीर की तरह ठिठक जाते हैं। केया दास दरवाज़ा बन्द कर चुकी है। डॉक्टर हतप्रभ-सा खड़ा रहता है। भीतर से आती केया की हिचकियों की आवाज़ें सुन रहा है। फिर धीरे-धीरे महुआ के दानों के ऊपर साइकिल डगराते हुए वापस लौट जाता है। केया दास उसके जाते हुए पैरों की ध्वनि से दूर होती जाती है। ...दूर......बहुत दूर।

दूर से आती हुई बच्चों की आवाज़ केया के मन में उभरते अतीत के बिम्बों पर छा जाती है। नीलगिरि के पेड़ों के बीच मृगशावकों के झुंड की तरह उछलते-कूदते हुए स्कूल की ओर आते बच्चों को वह अपनी आँखों में भर लेना चाहती है। स्कूल का सहन, बरामदा और कमरा बच्चों के शोर में तैरने लगता है। केया दास के सामने स्लेटें हैं, ब्लैकबोर्ड पर खड़िया से बने सफ़ेद अक्षर हैं, क़िताबें हैं और हैं झरने के संगीत की तरह फैलती हुई बच्चों की खिलखिलाहटें। केया दास धागा बन कर मनकों की तरह यह सब कुछ अपने साथ पिरो लेना चाहती है।



दिन ख़त्म होने वाला है।

सूरज धीरे-धीरे घाटी के गर्भ में उतर रहा है। स्कूल बन्द करके केया दास वापस लौट रही है। दिन भर की थकान और अतीत के तनाव ने पैरों और मन की गति को शिथिल बना दिया है। यह शिथिलता केया दास को भयातुर बना रही है। अपने भयातुर मन और देह की गाथा को वह इस छोर से उस छोर तक पढ़ना चाहती है। चाहती है, अतीत के एक-एक दिन को अपनी खुली हथेलियों पर रख कर हिसाब करना। केया दास सोच रही है। केया दास बुदबुदा रही है। दिन पर दिन उलझती जीवन-स्थितियों को छटपटाहट के साथ मूल्यांकित करने की कोशिश में लगी है। ज़िन्दगी की गझिन बुनावट से एक-एक धागा खिसकता जाता है। जगह ख़ाली होती जाती है और बुनावट झाँझर। ......मौलश्री की गझिन छाँह की कल्पना लिये मानस फ़रीदपुर की मिट्टी में दब गया। उसकी छाती में उछाह की थिरकन भरने की आकांक्षा लिये डॉक्टर रतन वापस लौट गया। परछाईं की तरह साथ चलने वाली पीशी माँ ने साल भर तक बिस्तर पर लोटने के बाद एक दिन दम तोड़ दिया। सब चले गए। सबने उसकी ज़िन्दगी में अपनी-अपनी यादें टाँक दी। गुज़रे हुए वक़्त के हिंसक नाख़ूनों ने उसकी ज़िन्दगी को ख़ूब खरोंचा है। केया दास खरोंच के उन निशानों को टटोलती है।

......प्राथमिक पाठशाला की शिक्षिका का नियुक्ति-पत्र अपने हाथों में लिये खड़ी है केया दास। आँखों का समुद्र उमड़ रहा है। नहीं......अब और नहीं। वक़्त के हिंसक नाख़ून अब मुर्दा हो रहे है। अब और ज़ख़्म नहीं बनेंगे। ज़ख़्मों से अब मवाद और लहू नहीं रिसेगा। केया दास अब अपने फेफड़े में स्वच्छ हवा भरना चाहती है। भागना चाहती है। दौड़ना चाहती है। केया दास अपने अतीत को अपने हाथों दफ़न कर देना चाहती है। उसके मन में अपने वर्तमान के प्रति संतोष के बीज अंकुरित हो रहे हैं। उसकी छाती में उल्लास की आँच है। ......वह दरभा जाकर नौकरी ज्वाइन करेगी। जंगल की गोद में बसे बच्चों को अपनी आँखों की उजास बाँटेगी। केया दास की ज़िन्दगी को एक ठौर मिल गया है, जहाँ खड़ी होकर वह आने वाले कल के रेखाचित्रों में भरने के लिए रंगों का चुनाव करेगी। वह साँप के केंचुल की तरह अपने अतीत को उतार कर फेंक रही है ताकि बच्चों के स्नेहिल संसार के असीम विस्तार में ख़ुद को निर्बन्ध छोड़ सके।

दरभा घाटी के घने जंगल के बीच केया दास साँभरी की तरह कुलाँचे भर रही है। इस गाँव से उस गाँव जाकर अपने स्कूल के लिए बच्चे तलाश रही है। उसके विचार एक नई ज़मीन पर अंकुरित हो रहे हैं। उसकी कल्पना की पौद उग रही है। केया दास जंगल की पगडंडियों पर तेज़-तेज़ चलती है। वन-पुष्पों को जूड़े में सजाती है। चश्मों-नालों के किनारे रुकती है। अँजुरी भर-भर कर जल पीती है। वह भागते-दौड़ते, चलते-रुकते हर समय सोचती रहती है — जीवन में परिवर्तन का चक्र कैसे-कैसे घूमता है। घटनाओं का क्रम ऐसे चलता है, जैसे सब कुछ पूर्व-नियोजित हो। ...क्या जीवन ऐसे ही चलता है? अपने आप जीवन का यह टूटना-जुड़ना सोच की गति में अवरोध नहीं बनता? वक़्त शरारती बच्चों की तरह ईंट-पत्थर फेंक कर उसे क्षत-विक्षत करता रहा,...भीड़ का रेला हर पल उसके चारों तरफ़ से गुज़रता रहा,...रोशनी की तलाश में दिशा बदलती उसकी प्रतिछाया तले गिद्ध लाश खाते रहे और वह अनन्त की ओर अपनी आँखें स्थिर किए पड़ी रही। किसी ने उसके ऊपर से ईंट-पत्थर चुन कर अलग नहीं किया। किसी ने गिद्धों को भगा कर सड़ती लाशों का जमघट साफ़ नहीं किया। किसी हथेली ने कौवों की बीट को पोंछा नहीं। ...क्यों?...क्यों?...ऐसा क्यों हुआ उसके साथ? केया दास के पाँवों की गति जैसे-जैसे तेज़ होती है, ‘क्यों‘ की कड़ियाँ लम्बी होती जाती हैं। हरेक कड़ी से रतन झाँकता है — डॉक्टर रतन। केया सिहर जाती है। भाग-दौड़ करके सप्ताह भर में ही उसने स्कूल के लिए बच्चों का जमघट खड़ा कर लिया है। क्या वह बच्चों की इस भीड़ को अनुशासित जीवनक्रम दे सकेगी? अगर रतन प्रश्नों के बीच से इसी तरह झाँकता रहा, उसे सिहरन देता रहा, तो क्या वह अपनी ज़िन्दगी के इस ठौर पर रुक कर भविष्य में सपनों में रंग भर सकेगी? निहार सकेगी अपने कल के सलोने रूप को? केया दास के सामने प्रश्न हैं। ...सिर्फ़ प्रश्न।



दरभा घाटी का जंगल केया दास के चारों तरफ़ व्यूह रच रहा है।

धीरे-धीरे व्यूह का दबाव तेज़ होता है। केया दास को झटका लगता है। उसके मन का उछाह काँप उठता है। वक़्त के हिंसक नाख़ूनों में फिर जान आने लगी है। ...पर इस बार वह समर्पण नहीं करेगी। वक़्त की देहरी पर लहूलुहान लाश की तरह नहीं बिछेगी। ...नहीं। वह जंगल के इस व्यूह को तोड़ेगी।

व्यूह के एक द्वार पर खड़ा रेंजर ज्ञान सिंह बोल रहा है, “आप पहली शिक्षिका हैं। इसके पहले शिक्षक लोग ही यहाँ आते रहे हैं। शायद तीन लोग आपके पहले यहाँ आ चुके हैं, पर टिका कोई नहीं। चार साल हुए स्कूल को खुले, पर चार दिन भी पढ़ाई नहीं हुई होगी अब तक। कोई टिकना ही नहीं चाहता। आते ही हर आदमी जाने की कोशिश शुरु कर देता है। किसी को बाघ-भालू का डर,...किसी को मलेरिया का डर, तो किसी को पत्नी-वियोग। ...इसी लिए मैंने शादी ही नहीं की। अकेले इस जंगल में पड़ा हूँ।” रेंजर ज्ञान सिंह के होंठों पर काली मुस्कान लिपट जाती है। केया दास सिहरती है। वह बोले जा रहा है, “......पर आपको यहाँ कोई तकलीफ़ नहीं होगी। मै। हूँ। ...आप जो सुविधा चाहें,...मिल जाएगी। मन भी लगेगा यहाँ। ये साले ट्राइबल्स अपनी औलाद को पढ़ाना ही नहीं चाहते। इस लिए स्कूल में छुट्टी ही छुट्टी रहती है। टहलना-घूमना,...मौज-मस्ती करना — बस यही काम है यहाँ। ख़ूबसूरत जगह है। ...तो चलूँ? बाँस का आक्षन करवाना है। डी. एफ. ओ. साहब भी आ रहे हैं। ...किसी चीज़ के लिए संकोच नहीं करेंगी। ...अच्छा...चलता हूँ।”

घुर्र-घुर्र करती जीप के इंजन की रिरियाहट में डूब जाती है केया दास। लाल मूरम वाली धूल उड़ाती हुई जीप काली सड़क पर चढ़ जाती है। वह अपने सीने में जल्दी-जल्दी साँसें भरती है।

“नमस्ते जी।”

“नमस्ते।”

“आप मास्टरनी बाई हैं?”

“जी हाँ।”

“रेंजर सहब बोले, तो हमने सोचा मिल लेते हैं। अपने एरिया में आई हैं, तो मिल लेना ज़रूरी है। इस एरिया में मेरी ठेकेदारी चलती है। फॉरेस्ट और पी.डब्ल्यू.डी. दोनों का काम मिल जाता है। अभी दरभा से कोंटा जाने वाली सड़क का काम चल रहा है। ......आपका क्वार्टर भी मैंने ही बनवाया था......और पीछे वाले दोनों क्वार्टर भी। एक में कम्पाउन्डर बाबू रहते हैं और दूसरे में तो आजकल ताला ही बन्द रहता है। पहले एक नर्स रहती थी गीता बाई। भली औरत थी...पर बेचारी...।”

केया दास ठेकेदार के थुलथुल चेहरे पर ‘बेचारी‘ शब्द का अर्थ तलाशती है। वह अचकचा जाता है। अपने को घूरती केया दास की चुभन से बचने के लिए वह बात पलटता है। ...... “कोई ज़रूरत हो तो मेरे मुंशी से मँगवा लेंगी। मैं मुंशी को भेज दूँगा। ...आप इस जंगल में अकेली आई हैं तो ठेकेदार हरसुख गोलछा का फ़र्ज़ बनता है कि आपकी देख-रेख करे। ... आपका ध्यान रखे। ...अच्छा जी अब चलते हैं। नमस्ते।”

हरसुख गोलछा सिगरेट सुलगाता है। मोटरसाइकिल स्टार्ट करता है। लाल मूरम वाली धूल फिर उड़ती है। केया दास के सीने में स्वच्छ हवा का भरना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो उसका दम घुट जाएगा।

एक और हमलावर केया दास के सामने खड़ा है। वह सुन रही है और हमलावर बोल रहा है, “आपको इस जंगल में देख कर एक अजीब ख़ुशी हो रही है। हम लोग तो इस जंगल में वनवास काट रहे हैं। बिल्कुल मन नहीं लगता। न किसी के साथ हँस सकते हैं और न ही बोल सकते हैं। एक भी ढंग का आदमी नहीं है। ......अब इन जंगलियों से क्या बात कर सकता है कोई?”

सब-इंजीनियर अप्पा राव बहुत गम्भीर आवाज़ में बोलता है। एक-एक शब्द नाप-तौल कर पूरे वज़न के साथ। उसके होंठ मूँछों के बीच ठहर-ठहर कर खुलते और बन्द होते हैं। अप्पा राव बोल रहा है, “अब आप आ गई हैं, तो कम-से-कम थोड़ा समय तो ढंग से कटेगा आपके साथ। दो-चार बातें करने लायक़ कोई तो मिला इस जंगल में। हाँ, अभी तो बहुत बिजी होंगी आप! है न? शाम को रेस्ट हाउस आइए — चाय पर। मैं वहीं रहता हूँ।”

“सॉरी।”

“सॉरी क्यों?......आज नहीं तो कल।”

अप्पा राव आगे बढ़ जाता है,...बाईं तरफ़। दाईं तरफ़ की पगडंडी पक्की सड़क तक जाती है और बाईं ओर की पगडंडी ढलान की तरफ़ नीचे उतर कर रेस्ट हाउस जाने वाली कच्ची सड़क से मिलती है।

रेंजर ज्ञान सिंह, ठेकेदार हरसुख गोलछा और सब-इंजीनियर अप्पा राव — सबके सब शातिर खिलाड़ियों की तरह अपनी-अपनी चालें चल रहे हैं। केया दास एक-एक चाल को समझ रही है। उसे अपने चारों ओर बनते व्यूह की भयावहता और शक्ति का अहसास है। फिर भी, वह इस व्यूह के बीच अपने को अपनी पूरी ताक़त के साथ जीवित रखने की कोशिश करेगी क्योंकि, गाँव का पटेल धनसी मुरिया उसके साथ है।



धनसी मुरिया कहानी सुना रहा है। बूढ़ी देह में लिपटी लँगोटी और माथे पर पगड़ी। ठुड्डी के नीचे घाव का निशान। आँखों में बच्चों की-सी उत्सुकता और आवाज़ में भोलापन। पालथी मार कर बैठा है। केया दास उसके सामने बैठी है। बीच में सुलगती शाल की लकड़ी से धुआँ उठ रहा है। धनसी मुरिया की आवाज़ धुएँ के गुंजलक में दृष्य रच रही है। धनसी बोल रहा है। केया दास चुप है। जंगल के एक-एक हमलावर का चरित्र बखान रहा है धनसी। इस जंगल में बहुत ख़तरनाक हमलावर हैं। केया दास एक-एक शब्द सहेज रही है। जोड़-जोड़ कर अर्थ निकाल रही है।

तीन साल हुए इस दरभा घाटी में एक ग्राम-सेविका आई थी — सुधा कुमारी। धनसी उसे बेटी की तरह लाड़-दुलार करता था। उसके लिए जंगल में तरह-तरह के फल-फूल बीनता फिरता था। ये तीनों, महीनों उसके पीछे पड़े रहे। एक दिन उसने अप्पा राव को तमाचा जड़ दिया और ज्ञान सिंह के मुँह पर थूक दिया। कुछ दिनों बाद उसकी लाश घाटी में मिली। पुलिस आई। धनसी सहित गाँव के कई लोगों को पीटा और चली गई। धनसी सब कुछ जानते हुए कुछ नहीं बोला। पुलिस को वही लोग लाए थे, जिन्होंने सुधा कुमारी की जान ली थी। पुलिस जाँच करने नहीं, मुँह बन्द करवाने आई थी। धनसी जानता था कि हरसुख गोलछा ने बीच सड़क से साँझ के नीम अँधेरे में उसे उठवा लिया था। फिर रेस्ट हाउस में ज्ञान सिंह और अप्पा राव के साथ मिल कर......। बाद में सुधा कुमारी की लाश साइकिल सहित घाटी में फेंक दी गई थी।

कुछ दिनों बाद नर्स गीता बाई आई थी। वह आते ही जंगल के व्यूह में उलझ गई थी। कभी अप्पा राव,...कभी ज्ञान सिंह और कभी हरसुख गोलछा। गीता बाई का सारा ख़र्च हरसुख गोलछा उठाता था। अचानक एक दिन गीता बाई के घर में ताला बन्द हो गया। वह ज्ञान सिंह के घर जाकर रहने लगी। उन दिनों अप्पा राव लम्बी छुट्टी पर गया था और हरसुख गोलछा रायपुर के अस्पताल में अपने पेट का ऑपरेशन करवा रहा था। तीन माह बाद, एक सुबह गीता बाई की लाश ज्ञान सिंह के कमरे में झूल रही थी। ज्ञान सिंह ने लाश माटी में दबवा दी। कागज़ पर रेंजर ज्ञान सिंह ने लिखा, “गीता बाई कल रात मलेरिया से मर गई।” — और धनसी मुरिया ने अँगूठा लगाया। कागज़ लेकर ज्ञान सिंह सरकारी महकमे को ख़बर करने जगदलपुर चला गया और धनसी मुरिया पागल की तरह जंगल में भटकता रहा। पेड़ों से सिर टकराता फिरा। भीमा देव-आँगा देव को गुहारता रहा। नर्स गीता बाई ने बहू और माँ बनने का सपना देखा था। पेट में पलती संतान को रेंजर ज्ञान सिंह का नाम देना चाहा था।

केया दास के कानों के पर्दे फट रहे हैं। वह बिखर रही है। क्षत-विक्षत हो रही है। उसके चारों ओर विस्फोट हो रहा है, मानो डायनामाइट से इस्पाती चट्टानें उड़ाई जा रही हों। पूरा जंगल विस्फोट की आवाज़ में डूब रहा है।

व्यूह रचने वाले हमलावरों के पंजे केया दास की ओर बढ़ रहे हैं। सारे मीठे नुस्ख़े असफल हो चुके हैं। पैंतरे बदले जा रहे हैं। युद्ध शुरु हो चुका है। केया दास लड़ रही है। एक सुबह स्कूल के बरामदे में एक मुरिया लड़की बेहोश पड़ी मिलती है। हरसुख गोलछा बोलता है, “मास्टरनी बाई, सरकारी पैसे से पेट नहीं भरता तो हमसे ले लिया करो, पर सरस्वती के मंदिर में धंधा मत करवाओ।”

दरभा घाटी में हलचल भर जाती है। भरी भीड़ में ज्ञान सिंह गालियाँ उछालता है। अप्पा राव उसके पास आकर फुसफुसाता है, “आज रात को हम भी आएँ क्या?”



गाँव के लोग चुप हैं। सब सच्चाई जानते हैं। इसके पहले भी तो अक्सर ऐसा होता रहा है। सुधा कुमारी कैसे मरी? क्या नर्स गीता बाई ने सचमुच फाँसी लगा ली थी? धनसी भी चुप है। चुप रहने को जी नहीं करता, पर लाचार है। धनसी जानता है कि गाँव की हर बेटी माँ माह भर छाती पर हाथ रख कर दिन-रात काटती है। क्या पता, कब उसकी बेटी की माहवारी रुक जाए? जब मास्टरनी बाई यहाँ नहीं थी, तब भी तो यह सब यहाँ होता रहा है। फुलिया, मनकी, रेवती, यशोदा,...न जाने कितने नाम गुम गए इस जंगल में! केया दास बदहवास जी रही है। धनसी हर रोज़ आकर उसे समझाता है, “आमचो गोठ के मान बाई। लौट जा।”

जंगल की हवा के साथ अफ़वाहें और धमकियाँ उड़ रही हैं।

......और एक रात केया दास के दरवाज़े पर दस्तकें होती हैं। वह आँखें मलती हुई दरवाज़े की कुंडी सरकाती है। एक...दो...तीन लोग भीतर घुसते हैं। कोठरी में तूफ़ान आ जाता है। दरभा घाटी भी फ़रीदपुर की तरह जलता हुआ ख़्वाबगाह बन जाती है। केया दास चीख़ती है। केया दास चिल्लाती है। धीरे-धीरे उसकी आवाज़ दम तोड़ देती है। ......हमलावर चले जाते हैं। बच जाती है सिर्फ़ केया दास। नंगी-बेहोश केया दास।



नाका सामने है। केया दास कुछ महीनों के दरभा घाटी के अपने इतिहास का एक-एक पन्ना फाड़ कर फेंक देना चाहती है। तीन माह पहले आए इस तूफ़ान के अतीत से अपना पीछा छुड़ाना चाहती है, पर इसके निशान बहुत गहरे हैं। तीसरे माह भी केया दास के रजस्वला होने की अंतिम तारीख़ आज गुज़र गई। केया दास नाका के पास पहुँचती है। सामने खड़ी जीप से एक आदमी उतर कर उसके पास आकर खड़ा हो जाता है। वह अस्फुट स्वर में बुदबुदाती है, “रतन!”

“हाँ केया। आज ही आया हूँ। कैसी हो?”

“ठीक हूँ। ...तुम?”

“तबादला हो गया। आज ही ज्वाइन किया है। दरभा के हेल्थ सेंटर में दो सालों से कोई डाक्टर आने को तैयार नहीं हो रहा था। मैंने सोचा, जब तुम इस जंगल में नौकरी कर सकती हो, मैं क्यों नहीं! बस आ गया। फॉरेस्ट के डाकबँगले में ठहरा हूँ। कल क्वार्टर में शिफ्ट कर जाऊँगा। तुम्हारे क्वार्टर पर गया, तो पता चला, स्कूल गई हो। स्कूल जा ही रहा था कि तुम आती हुई दिख गई। ...कैसा चल रहा है स्कूल?”

“ठीक ही चल रहा है। ......जैसे-तैसे।”

“जैसे-तैसे? गाँव के लोग तो बड़ी तारीफ़ कर रहे थे तुम्हारे स्कूल की।”

“हूँ!” केया दास हुँकारी भरती है।

“केया, मैं थेड़ी देर बाद तुम्हारे यहाँ आ रहा हूँ। वहीं इत्मिनान से बातें करेंगे। हाँ,...रात का खाना भी तुम्हारे घर ही खाऊँगा।”

केया दास चुप है। उसके पास कोई उत्तर नहीं है। रतन जीप स्टार्ट करके आगे निकल जाता है। अब केया को सड़क से नीचे उतरना है। पगडंडी पकड़ कर अपने क्वार्टर तक जाना है।


जंगल का जीवनक्रम बदल रहा है। दरभा घाटी में अँधियारा भर चुका है। केया दास अपनी कोठरी में लस्त-पस्त पड़ी है। दरवाज़ा और दोनों खिड़कियाँ बन्द हैं। कोठरी में उमस है। अँधियारा है। सिरहाने टेबुल पर रखा लैम्प माचिस की एक तीली की बाट जोह रहा है। पसीने से सराबोर केया दास अँधेरे में निर्णय का बिन्दु तलाश रही है। उसे लगता है, जैसे वह फिर शरणार्थी शिविर में डाल दी गई हो। चीख़ों, कराहों और यातना के स्मृति-दंश के बीच छटपटाती केया दास का पूरा शरीर एक बार फिर पृथ्वी की शक्ल में बदलने लगा है। ......फिर पृथ्वी के अन्दर कोई तूफ़ान मचाएगा। ......समूची सृष्टि को उलट देने के लिए हाथ-पाँव मारेगा। ...केया दास की साँसें धौंकनी की तरह चलने लगी हैं। रगों में रक्त-प्रवाह तेज़ होने लगा है। ...नहीं!......केया दास अब पृथ्वी नहीं बनेगी। उसे पृथ्वी बनाने का सिलसिला लोग भले जारी रखें, पर वह हर बार विरोध करेगी। केया दास सोचती है। ......कहीं कोई अंतर नहीं है। हमलावरों का चरित्र एक ही होता है। देश-काल का कोई प्रभाव उन पर नहीं पड़ता। उसके लिए फ़रीदपुर और दरभा घाटी में कोई भेद नहीं। अप्पा राव, ज्ञान सिंह और हरसुख गोलछा...और उसके सोनार बाँग्ला पर हमला करने वाले पिशाचों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं है।

हृषीकेश सुलभ Hrishikesh Sulabhकेया दास अँधेरे में अपनी आँखें स्थिर कर देती है। रगों का रक्त-प्रवाह और तेज़ हो उठता है। पूरे शरीर में झनझनाहट भर जाती है। ऊपर के दाँत नीचले होंठ पर आकर टिक जाते हैं। अँगुलियाँ सिमटने लगी हैं। ......और धीरे-धीरे दोनों हथेलियाँ मुट्ठियों की शक्ल में बदल जाती हैं। ...दरवाज़े पर कोई दस्तक देता है। फिर पुकारता है, “केया...केया!” वह आवाज़ पहचानती है। रतन है। ...क्या करे वह! उठ कर दरवाज़ा खोल दे और लिपट जाए रतन से!...सच बता कर बहा ले जाए रतन को अपनी हिचकियों की धारा में!

......दरवाज़े पर दस्तकों और पुकारों का क्रम जारी है। केया दास पल भर के लिए दुविधा में डोलती है। फिर उसकी मुट्ठियों का कसाव तेज़ होता है। ...नहीं! वह किसी हमलावर की संतान को अपने गर्भ में शरण नहीं देगी। ......केया दास मुक्कों से अपने पेट पर प्रहार कर रही है। रतन उसे पुकारते हुए लगातार दरवाज़े की साँकल बजाता जा रहा है। केया दास की कोठरी शरणार्थी शिविर में बदल जाती है। केया दास डूब रही है। ......केया दास उतरा रही हैं। ......केया दास रक्तवन्या की तेज़ धारा में बहती जा रही है।
(धर्मयुग, 1982)


००००००००००००००००

वो एक लम्हा — #सुनोकहानी — रश्मि नाम्बियार



रश्मि नाम्बियार भारत में हिंदी ऑडियो बुक की उभरती दुनिया की पहली कहानीकारों में हैं। अपने 11 साल के कॉर्पोरेट कैरियर के बाद उन्होंने 4 साल पहले रेडियो के लिए लिखना शुरू किया। सरल भाषा में, वो अपनी कहानियों में रिश्तों की बारीकियों को बुनकर, भावनाओं के नए आकर गढ़ती हैं। 

यह अभी पहली पहल है कि उनकी कहानी शब्द और आवाज़ दोनों में साहित्य के पब्लिक प्लेटफ़ॉर्म शब्दांकन पर आप सब के लिए पेश की जा रही है। 

सुनोकहानी, रश्मि नाम्बियार की आवाज़ में, या पढ़ें, या दोनों का आनंद उठायें। बताइयेगा ज़रूर यह अनुभव कैसा रहा कि शब्दांकन की यह कोशिश कैसी गयी...  

भरत तिवारी



वो एक लम्हा — #सुनोकहानी ( क्लिक तो कीजिये ) — रश्मि नाम्बियार


वो एक लम्हा

 — रश्मि नाम्बियार 

मकान में सर तो छुपा सकते है, पर रूह को आराम सिर्फ घर में ही मिलता है। मुझे लगता है, मकान को घर बनाती है हमारी यादें, आदतें और उसमे रहनेवाले लोग। मुझे सरकार की तरफ से 5 बेडरूम वाला बड़ा सा बंगला मिला तो था, देख रेख और बाकी काम के लिए लोग भी थे। दरबान से लेकर खानसामा तक, उस मकान को घर बनाने की कोशिश करते रहते लेकिन जो आराम इस छोटे से शहर के इस घर में था, वो कहीं और नहीं मिलता था।

माँ की हथेलियों पर शायद संजीवनी बूटी उगती थी, वो सामने बैठकर खिलाती तो मरी हुई भूख भी अचानक जिंदा हो जाती।

“माँ, दाल में इतना घी मत डाला करो, तोंद निकल आई तो नौकरी से निकाल देगी सरकार” मैं माँ की चुटकी लेता तो वो झुंझला कर कहती “ऐसे कैसे निकाल देंगे नौकरी से...सिविल सर्विसेज पास किया है मेरे बेटे ने...आईपीएस है वो” फिर उसकी आँखें डबडबा जाती “साल भर बाद घर आया है तू, पहले ट्रेनिंग फिर पोस्टिंग और फिर तुम्हारा काम, कितना कमज़ोर लग रहा है”

माँ कहाँ जानती थी, इस कामयाबी के पीछे के दर्द को...कहाँ जानती थी कि कितनी अधूरी थी मेरी कामयाबी।

माँ ने रोटी के एक निवाले के साथ अपने प्यार का एक बड़ा सा हिस्सा मेरे मुंह में ठूंस दिया। वैसे, दोपहर को सोने की आदत नहीं थी फिर भी नींद आ रही थी, नींद भगाने के लिए मैंने सोचा कि कोई किताब ही पढ़ लूं, सालों हो गए थे कोई पेपरबैक पढ़े हुए। याद आया, दिल्ली से बरसाती खाली करते वक़्त मैंने सारी किताबें एक बोरे में भर दी थी। यहाँ, शायद बेसमेंट में रखा होगा वो बोरा, सोचकर मैं बेसमेंट की तरफ चल पड़ा। बेसमेंट में धूल की एक मोटी परत पड़ी थी।

वेंटीलेटर से छन कर आती रौशनी में वो किताबों से भरा बोरा मुझे कोने में दिखाई दिया। मैं उसकी सिलाई खोलकर किताबें निकालने लगा तो मन ने कोसा, “उफ़, कितनी किताबें इकट्ठी कर लेता था मैं बुक फेयर के दौरान”। एक एक कर किताबों को दिन की रौशनी दिखा रहा था कि अचानक, मेरे हाथ में लीओन उरिस की किताब एक्सोडस आ गयी। मेरे कांपते हाथों ने उसे खोला तो, एक झटके से ढेर सारी यादों की तितलियाँ उस किताब से निकलकर मेरे चारों तरफ मंडराने लगी। हर तितली के परों पर अदृश्य अक्षरों में लिखा था...मानसी...मानसी...मानसी !

मानसी से मैं पहली बार पुरुषोत्तम एक्सप्रेस में मिला था। वो पुरुलिया से चढ़ी थी। छोटी कद काठी, बड़ी बड़ी आँखें और बाल खींच कर जुड़े में बांधे हुए थे। ट्रेन ने पुरुलिया स्टेशन छोड़ा तो उसकी आँखों में मोटे मोटे आंसू आ गए। मैं कनखियों से उसे देख रहा था। पुरुलिया छूट गया था लेकिन वो अब भी खिड़की के बाहर देख रही थी मानो वो पुरुलिया से छूट नहीं पा रही थी। टीसी ने उस से आकर टिकेट माँगा तो मुझे पता चला वो भी दिल्ली जा रही थी।

आज याद नहीं आ रहा लेकिन बात कुछ मैंने ही शुरू की थी। वो ज्यादा बोल नहीं रही थी लेकिन ये जानकारी निकालने में मुझे भी वक़्त नहीं लगा कि उसने ग्रेजुएशन पटना से किया था और अब उसे लैंग्वेज कोर्स के लिए दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिला मिला था। वो लीओन उरिस की किताब एक्सोडस पढ़ रही थी, मैंने भी पढ़ी थी वो किताब, लेकिन बातचीत का सिलसिला बरक़रार रखने के लिए मैंने उससे किताब मांगी और उसे उलट पुलट कर देखने लगा। पहले ही पन्ने पर, दायें भाग में उसने लाल स्याही से अपना नाम लिखा रखा था। मैंने उसे छेड़ने के लहजे में कहा “ह्म्म्म नाम लिखकर किताब पर कब्ज़ा?” वो हंस पड़ी “नहीं नहीं...ये पुरानी आदत है, नाम लिखने से लगता है मैं भी उस किताब, उस कहानी की पार्ट हो गयी हूँ” फिर अचानक वो गंभीर हो गयी जैसे कुछ याद आ गया हो।

मैं भी तो 6 साल पहले ग्रेजुएशन करने टाटानगर से दिल्ली आया था, मैं जानता था, पहली बार घर छोड़ का किसी महानगर के लिए निकलना कैसा लगता है।

“आप क्या करते हैं दिल्ली में?” शायद ये उसका औपचारिक सवाल था लेकिन उसकी जिज्ञासा मुझे अच्छी लगी थी” मैंने बस इसी साल दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम्एससी किया है और अब सिविल सर्विसेज की तैयारी करने जा रहा हूँ” वो मुस्कुरायी, थोड़ी इम्प्रेस्सेड-सी लगी।

आगे बातें हुई तो पता चला कि हम दोनों सफ़र में तो साथ थे ही और हमारी मंजिल भी एक थी। दोनों को नार्थ कैंपस के पास की कॉलोनियों में ही जाना था।

वो सफ़र लगा मानो पलक झपकाते ही ख़त्म हो गया हो। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वो औपचारिक सी “बाय” कहकर उतर गयी थी, लेकिन पीछे छोड़ गयी थी वो किताब और उसमे बसा उसका एक भाग। मैं वो किताब जब अपने बैग में रख रहा था तो इस बात से अनजान था कि वो मेरी ज़िन्दगी के किसी कोने में अपना नाम लिखकर प्लेटफार्म नंबर 5 की भीड़ में गुम हो गयी थी।

पता नहीं क्यूँ मुझे लग रहा था कि उस लड़की का मेरी किस्मत से कुछ तो लेना देना ज़रूर था। मुझे यकीन था कि वो मुझे मिलेगी, दोबारा। और दो महीने बाद मेरा यकीन रंग लाया...।

एक सन्डे बजाज कार्नर पर वो मुझसे टकराई। वो मुझे देख मुस्कुरायी। मेरे चेहरे पर ख़ुशी और बौखलाहट दोनों ही थे और मेरी जुबां ने अजीब से लहजे में कहा “कहाँ गुम हो गयी थी तुम? कितना खोजा तुम्हे?” मैंने तो दो महीने से जमा अपने दिल की बात कह दी लेकिन वो घबरा गयी...उसने पूछा “क्यूँ...क्या हुआ?”

मैं झेप गया, सच बताता तो शायद वो उस दिन ही भाग जाती...”वो लीओन उरिस वाली किताब तुम ट्रेन में छोड़ आई थी न...वो मेरे पास है?”

उसकी घबराहट पल भर में छू हो गयी...उसने कहा “वो तो मैंने एक दोस्त से लेकर पढ़ भी ली”

मैंने चुटकी ली “किसी और की किताब का हिस्सा बनने में डर नहीं लगा?” इस बार उसकी हंसी उसकी आँखों तक पहुँच गयी। इस बार हम औपचारिक बातों से आगे बढें, उसने मुझे अपना एड्रेस और फ़ोन नंबर दिया और मैंने अपना।

उस दिन के बाद हम अक्सर एक दूसरे से टकरा जाते। कभी फोटोकॉपी की दुकान पर कभी रघु टी स्टाल पर तो कभी यूँ ही चलते-चलते।

ऐसी ही एक शाम, हम किरोरिमल कॉलेज के फेस्टिवल में टकरा गए। एक दोस्त के बुलावे मैं फेस्ट में चला तो आया था लेकिन उस शाम कोई रॉक बैंड का परफॉरमेंस था और मैं ठहरा ग़ज़ल और नज़्म वाला इंसान, ये रॉक-वाक से बोरियत होने लगी। मैं ग्राउंड में पीछे बैठे जम्हाईयाँ ले रहा था , और फिर, वो दिख गयी। उसके खुले बाल कमर तक आ रहे थे, उसने लाल कुरता और जीन्स पहन रखा था। उस एक लम्हे में मेरे दिल ने मुझसे साफ़ साफ़ कह दिया कि वो प्यार में पड़ गया है और वो अब मेरे दिमाग की बात नहीं सुनेगा।

मुझे महसूस हुआ कि वो भी मुझे देख रही थी। भीड़ से निकलकर मुझ तक आई, उसने बताया कि उसे भी ऐसी म्यूजिक पसंद नहीं। हम दोनों भीड़ से दूर फील्ड के कोने में जा बैठे। उदास लग रही थी वो, उसने आसमान की तरफ देखते हुए कहा “पुरुलिया में भी यही चाँद निकला होगा न, अनुज?”

मैंने उसे हँसाने के लिए कहा “हाँ अगर कोई मेसेज भेजना है घर, तो इसके हाथ भेज दो” वो मुझे देख मुस्कुरायी और हवा में अपनी ऊँगली से दो बिंदु और एक लाइन ऐसे खींच दी मानो चाँद का स्माइली बना रही हो। उस रात शायद हम दोनों के बीच कुछ दोस्ती जैसा जुड़ गया था। इसका एहसास मुझे अगले दिन हुआ जब मेरी बरसाती की बैल बजी।

नीचे झांककर देखा तो मानसी खड़ी थी। वो आई तो थी किसी किताब के बारे में पूछने लेकिन हम घंटों बातें करते रहे। अपने अपने स्कूल के बारे में, कॉलेज, घर परिवार, बचपन, सपने सब की यादें उन चंद घंटों में बाँट ली थीं हमने। वो मेरे कमरे में जाकर हॉट प्लेट पर चाय बना लायी और मेरी वो 10X10 की निर्जीव बरसाती उस दिन सांस लेने लगी थी। आने वाले महीनों में रोज़ मेरी बरसाती को सांस लेने की वजह मिल जाती

मानसी किसी न किसी बहाने से मेरी बरसाती तक आती। बाहर छत पर बैठ हम कभी कोई गुलज़ार की नज़्म पर चर्चा करते तो कभी बगल वाले छत पर बैठे कबूतरों के जोड़ों को निहारते। बारिशों में परछत्ती के नीचे सूखी ज़मीन पर बैठ हम अपने अपने मन को गीला करते। हँसते तो दोनों साथ और रोते तो एक दूसरे के कंधे पर। कई ऐसे लम्हे हम दोनों के बीच गुज़रे जब मैं उसका हाथ पकड़ कर अपने प्यार का इज़हार कर सकता था लेकिन हर बार मन कहता “नहीं ऐसे नहीं...बस कुछ दिन और इंतज़ार करो” उसने भी कभी कुछ नहीं कहा, शायद पढाई से मेरा ध्यान नहीं हटाना चाहती थी।

उसने मुझे बताया था कि उसके पापा ने उसे साल भर की मोहलत दी है, वो पढाई करके नौकरी कर सकती है लेकिन उसकी शादी की बात वो शुरू कर देंगे। इस बीच अगर उसने अपने लिए लड़का देख लिया तो ठीक वरना वो उसके लिए रिश्ता देखेंगे।

मैंने सिविल सर्विसेज के लिए जोर शोर से पढाई शुरू कर दी। दिन रात पढता रहता और मानसी इसमें मेरे साथ देती। वो मेरी मिट्टी में कभी हवा बनकर समा जाती ताकि मुझे आराम मिले तो कभी हवाओं में मिट्टी बनकर लिपट जाती कि मेरा आकार, मेरा सपना बना रहे।

शाम को किंग्सवे कैंप की गुलमोहर से ढकी सड़कों पर इवनिंग वाक हो या बत्रा सिनेमा पर कोई फ्लॉप मूवी देखना, हम साथ होते तो ऐसा लगता जैसे कोई सिम्फनी बज रही हो। हम दोनों एक दूसरे के दिल की हालत से वाकिफ़ थे लेकिन उन तीन शब्दों को हमने एक जमे हुए ठोस लम्हे के लिए बचा रखा था। मैंने तो माँ को उसकी तस्वीर तक भेज दी थी। माँ का जवाब आया था “सुन्दर है”।

आठ महीने कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। प्रीलिम्स हुआ और रिजल्ट भी आ गया और मैं उस एक हर्डल को पार कर गया था। मानसी को लेकर सपने और बुलंद हो गए मगर फिर भी इज़हार बाकी था। डर था, सपने टूटने का, मेरे नहीं मानसी के ! अब इंतज़ार था तो सिर्फ मेन्स के रिजल्ट का और इस बार मुझसे ज्यादा उत्सुक मानसी थी।

मेन्स का रिजल्ट आया और उसमें फेलियर ने मुझे तोड़ दिया। मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ा दी। मैं घंटों अपने अँधेरे कमरे में बैठा रहता। मानसी बहुत समझाती, लेकिन खुद को नकारा मानने की कसम खा ली थी मैंने।

एक दिन अचानक मानसी ने कहा “पापा शादी का पूछ रहे हैं, क्या बोलूँ?”

नाउम्मीदी और मायूसी से घिरा मेरा मन बस बोल पाया था “अभी तो...?”

“इस साल सगाई और अगले साल शादी के लिए मना लूंगी उनको “मानसी के इस सुझाव में कुछ अनकहे शब्द भी थे और वो थे “अगर तुम हाँ कहो तो”

पर मैं कैसे हाँ कहता? क्या था मेरे पास? शादी में सिर्फ बंधना ही नहीं होता है, उसके बाद गृहस्थी जमानी होती है, ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं। नहीं, मैं मानसी के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता था। क्या पता अगले साल भी पास नहीं कर पाऊँ , तो?

मैंने दबी आवाज़ में कहा “तुम पापा को रिश्ते देखने, कह दो...”

हम दोनों के बीच का, वो एक लम्हा, दोनों से मिन्नतें कर रहा था “मुझे रोक लो, मत जाने दो मुझे, मुझे तुम दोनों को जोड़ने वाली कड़ी बन जाने दो”...लेकिन मैंने उस लम्हे की बात नहीं सुनी।

कितना बेबस हो कर पूछा था मानसी ने वो सवाल और किस बेख़याली में मैंने उस लम्हे को जाने दिया था।

मानसी की आँखों में सैलाब आ गया था रोते हुए, हिचकियाँ लेते हुए बोली थी “तो तुम कह रहे हो कि शादी उससे कर लूं जिससे प्यार भी न हो”

मैंने हमारे रिश्ते में प्यार की छोटी सी भी गुंजाईश को नकारते हुए कहा “मानसी, ज़रूरी नहीं कि हर शादी की शुरुआत प्यार से हो, साथ रहते रहते प्यार हो ही जाता है” मैं जानता था उसके दिल की हालत को क्यूँकि मेरा दिल भी हज़ार टुकड़ों में टूटा जा रहा था और मैं था कि अपने दर्द को एक आह तक नहीं दे पा रहा था। वो सुबकती हुई चली गयी थी।

अगले ही दिन वो कोर्स अधूरा छोड़कर, पुरुलिया के लिए निकल गयी। फ़ोन किया तो स्विचड ऑफ़ आया। मन को समझाया कि उसे जाने देना ही शायद उसके हित में था।

उसके जाने के बाद मैं एक और साल उस घुटन में डूबी हुई बरसाती में रहा। दर्द से बचने के लिए खुद को पढाई में डुबो दिया।

अगले साल जिस दिन यूपीएससी का रिजल्ट आया, मैं खूब रोया था। कामयाबी तो हाथ लगी थी लेकिन तब तक वक़्त निकल चुका था। फिर वक़्त बस निकलता ही गया।

आज सालों बाद लीओन ओरिस की वो किताब फिर मेरे हाथ में थी और मानसी का नाम अब भी मेरे दिल पर लिखा हुआ था। पता नहीं क्यूँ लग रहा था कि कहानी में अभी कुछ बाकी है।

बेसमेंट से ऊपर आया तो मेरे हाथ में मानसी की किताब थी। मैंने वो किताब टेबल पर रखी तो माँ ने उठा ली। उसके पहले पन्ने पर मानसी का नाम पढ़ते हुए बोली “अरे अनुज, तुम्हे पता है तुम्हारी ये दोस्त इसी शहर में है?”

“कौन मानसी?”मैंने हैरानी से पुछा

“हाँ बाज़ार में मिली थी एक दिन, मैंने ही उसे पहचाना था...जानते हो, शादी के कुछ महीने बाद ही उसके हस्बैंड का एक्सीडेंट हुआ, रीढ़ में चोट लगी थी...टाटा-मेन हॉस्पिटल के स्पाइनल इंजरी सेक्शन में एडमिट है काफी दिनों से”

मानसी की किताब हाथ में लिए मैं उस शाम गुस्से से हॉस्पिटल पहुँच गया। थोडा गुस्सा खुद पर था और ढेर सारा उसपर। हॉस्पिटल के स्पाइनल इंजरी विंग के रिसेप्शन पर उसका नाम बताकर रूम नंबर लिया। रूम के दरवाज़ा पर मैंने दस्तक दी तो दरवाज़ा एक औरत ने खोला। धंसे हुए गाल, आँखों के नीचे काले घेरे , उसने बाल बेतरतीब। मन में आया फिर से रिसेप्शन पे जाकर रूम नंबर कन्फर्म करूं। अस्त व्यस्त सी ये लड़की मानसी नहीं हो सकती।

 उसने हौले से कहा “आओ” तो यकीन हुआ कि सामने मानसी ही थी। हैरान सा मैं, खड़ा उसे देख रहा था मगर उसके चेहरे पर कोई हैरानी नहीं थी, जैसे उसे पता था कि मैं आनेवाला था।

बेड पर उसके पति थे, उनकी आँखें बंद थी। मुझे लगा वो सो रहे थे। उसने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया तो मैंने फुसफुसाते हुए गुस्से से पूछा “इतना कुछ हो गया, तुमने बताया क्यूँ नहीं”

“तुम्हारी ज़िन्दगी में भी तो बहुत कुछ हो गया अनुज, तुमने कहाँ बताया” उसने मेरे सवाल के बदले सवाल किया

बेड पर सोये उसके पति कुछ बडबडाये। उसने फुर्ती से उनके पास जाकर उनका मुंह पोंछा और एक कटोरे से सूप पिलाने लगी। एक चौथाई सूप उनके अन्दर जाता और बाकी मुंह के बाहर आ जाता,। मानसी एक तौलिये से उसे साफ़ करती जाती। ये देखकर मेरा दिल दहल गया। जिस मानसी को मैंने खुश रहने के लिए आज़ाद कर दिया था वो आज इस हाल में थी? मन किया एकबार उससे कहूं कि “छोडो ये सब और चलो मेरे साथ” लेकिन अचानक मेरे सामने वो लम्हा आकर खड़ा हो गया जिसने हमें रोक लेने की मिन्नत की थी...वो लम्हा जिसका रंग तब गुलाबी था, अब वो लगभग काला पड़ गया था, वो रुखाई से बोला “वक़्त लौटकर कभी नहीं आता, अनुज बाबू, अब किस हक से आये हो यहाँ?”

मैं अपनी गलतियों से शर्मसार मानसी को देखता रहा, बात तो सच ही थी, उस लम्हे के साथ मैंने मानसी पर अपना हक भी जाने दिया था

उसकी बदहाली देखते हुए भी मैं औपचारिकता से मानसी से पूछा “कैसी हो?”, तो उसने पूरी तन्मयता से अपने पति का मुंह पोंछते हुए कहा “ठीक हूँ”

“प्यार के बिना?” ये खुद को मैं ताना दे रहा था या उसे, पता नहीं, लेकिन मेरी आवाज़ की खटास मुझे ही चुभ रही थी।

उसने मेरी तरफ गौर से देखा और फिर पलट कर अपने पति को सूप पिलाते हुए बोली “तुम्ही ने तो कहा था, साथ रहते रहते प्यार हो जाता है”

उस शाम जब मैं हॉस्पिटल से निकला तो मानसी की किताब मेरे साथ नहीं थी। मैं उसे चुपके से हॉस्पिटल के उस कमरे में छोड़ आया था। मानसी अब किसी और की कहानी का हिस्सा बन गयी थी।



००००००००००००००००