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मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप — पंकज शर्मा


मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप

— पंकज शर्मा

अनंत ने पूरी दुनियाभर के जनसंघर्षों को एक नया आयाम प्रदान करने वाले महानायक के निजी जीवन संदर्भों के हवाले से उन्हें खलनायक घोषित कर दिया और भारतीय सामाजिक परंपरा के परिप्रेक्ष्य में उनका मूल्यांकन करने के फिराक में गच्चा खा बैठे...

'मार्क्सवाद का अर्धसत्य के बहाने एकालाप' में, दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक पंकज शर्मा जो विभिन्न पत्र्-पत्रिकाओं में लेखन के साथ ही कई वर्षों तक ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के संपादन से जुड़े रहे हैं, हाल ही  में प्रकाशित लेखक-पत्रकार अनंत विजय की चर्चित पुस्तक 'मार्क्सवाद का अर्धासत्य' का आलोचनात्मक पाठ लिखते हैं। 

साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' के दिसम्बर २०१९ अंक में प्रकाशित मित्र अनंत विजय की किताब की इस आलोचना को यहाँ प्रकाशन हेतु भेजने का मित्र पंकज शर्मा को शब्दांकन पत्रिका के सुधि पाठकों की तरफ से आभार.

भरत एस तिवारी

पंकज शर्मा

क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध नहीं जताया जा सकता है? क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है? (मार्क्सवाद का अर्धसत्य, पृ-121, अनंत विजय)


आधुनिकता की जमीन पर मनुष्य को ज्यादा समर्थवान बनाने के लिए अनगिनत विचारधाराओं और जीवन दर्शनों का अनुसंधान हुआ। उन्हीं विचारधाराओं और दर्शनों के जोर पर मनुष्यों ने मनुष्यता को बचाने का बीड़ा उठाया। समय-समय पर इस प्रयोजन में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करने वाले जीवन-दर्शन का क्षरण भी होता रहा। अनेक विचारधारा वक्त के साथ-साथ फीके पड़े, नतमस्तक हुए। पश्चिम में डार्विन, मार्क्स और फ्रायड ऐसे तीन विचारक हुए जिन्होंने अपने सिद्धांतों के बूते समूचे संसार को उद्वेलित किया। डार्विन ने प्रकृति के वैशिष्ट्य को रेखांकित किया तो दूसरी ओर मार्क्स ने ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ के जरिये दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या करने के बजाय उसे बदलने का प्रस्ताव रखा। मार्क्स के विचारों में शोषित-उत्पीड़ित समाज को एक दिव्य रौशनी की झलक दिखी। एक नये सिरे से फिर दुनिया को देखने-समझने की कवायद शुरू हो गई। तीसरी तरफ फ्रायड ने मानव मन को प्रयोगशाला बनाया और अवचेतन मन के अनगिनत परतों को समझने की विधिवत शुरुआत कर दी।

लेकिन ‘विचारधारा के अंत’ जैसी घोषणाओं ने स्थापित विचारधाराओं के रास्ते में रोड़ा अटका दिया। कल तक जो मार्क्सवाद शोषक-शोषित रिश्तों की धारदार व्याख्या कर अपनी अहम भूमिका साबित करने में सफल हो चुका था, अब उसमें भी तमाम तरह की समस्याएं दिखने लगी। मार्क्सवादी विचारक विचलन के शिकार होने लगे। भारतीय मार्क्सवादियों ने पुराने ढर्रे को कायम रखा और धीरे-धीरे अपनी उर्वरा जमीन गंवाते चले गए। भारतीय जनता की नब्ज पकड़ने की बात तो दूर, यहां की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप न खुद को ढाल सके, न वक्त की जरूरतों के हिसाब से खुद को अपडेट कर सके। फिर भी मार्क्सवाद का ताप कम न हो सका। आज तक इस विचारधारा की पुनर्व्याख्या के प्रति आकर्षण कमोबेश कायम है। हालांकि इस कड़ी में अनंत विजय की चर्चित किताब ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ को नहीं देखा जाना चाहिए जो हाल में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।

संदर्भित पुस्तक के बारे में सबसे पहले यह बात बता देना बहुत आवश्यक है कि इस पुस्तक का शीर्षक ही भ्रामक है। दरअसल, इस किताब का मार्क्सवाद के सिद्धांतों से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। इसकी पुष्टि लेखक स्वयं अपनी पुस्तक की भूमिका के 17वें पृष्ठ पर दर्ज करते हैं: ‘‘अपनी इस किताब में मार्क्सवाद को एक सिद्धांत के तौर पर परखने की बिल्कुल कोशिश नहीं है, बल्कि इस वाद के बौद्धिक अनुयायियों और भक्तों के क्रिया-कलापों को सामने रखने का प्रयत्न किया है।’’ निःसंदेह लेखक की ईमानदारी भरी आत्मस्वीकृति का कायल हुआ जाना चाहिए वरना हिंदी में ऐसी पुस्तकों की भरमार है जिसमें पुस्तक के शीर्षक से समूचे पुस्तक का नाता महज ‘एक पंक्ति’ (शीर्षक) का ही रहता है।

अनंत विजय ने मार्क्सवाद से इत्तेफाक रखने वाले जिन गिने-चुने प्रभावशाली अनुयायियों को कठघरे में खड़ा किया है, उनमें सबसे चर्चित नाम फिदेल कास्त्रो और माओ का है। फिदेल के विषय में लेखक की मान्यता हैः भारत में हमारे वामपंथी बौद्धिकों ने माओ से लेकर कास्त्रे तक का मूल्यांकन भक्ति भाव के साथ किया, लिहाजा उन्हें उनके व्यक्तित्व में कोई खामी, उनके कार्यों में कोई कमी, उनके चरित्र में कोई खोट आदि दिखाई ही नहीं दिया। (पृ-10) संदर्भित पुस्तक के लेखक की शिकायत वाजिब है। किसी व्यक्ति का सही मूल्यांकन उनके चरित्र और कार्यों के आधार पर ही किया जाना चाहिये। लेकिन प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किसी व्यक्ति के गहरे निजी प्रसंगों का हवाला देकर सही मूल्यांकन मुमकिन है? लेखक ने कास्त्रे के रहस्यमयी चरित्र से पर्दा उठाते हुए लिखा है: फिदेल कास्त्रे शादीशुदा होते हुए एक शादीशुदा महिला से न केवल संबंध बनाये बल्कि उनके बच्चे के पिता भी बने। (पृ-14) इसी तथ्य के आधार पर अनंत ने मार्क्सवाद जैसे ठोस वैज्ञानिक सिद्धांत को अविभाजित रूस में प्रचलित ‘एक गिलास पानी’ की धारणा के ‘निकृष्टतम’ रूप से नत्थी करते हुए अपनी पुस्तक में दावा किया है कि ‘‘फिदेल का समग्र मूल्यांकन अब तक नहीं हो सका है। इस तरफ भी बौद्धिकों का ध्यान जाना चाहिए।’’ क्यों नहीं ध्यान जाना चाहिए? यदि कोई नई बात फिदेल के बुनियादी व्यक्तित्व को नये सिरे से गढ़ने वाली हो तो जरूर ध्यान जाना चाहिए।

लेखक मार्क्सवाद के अर्धसत्य के बहाने जबरन कास्त्रे के विवाहेतर संबंध के आधार पर उनके महान अवदान को नकारने की जिद ठान बैठते हैं। ताज्जुब होता है कि फिदेल के संबंध में वे जिस ‘ज्ञान’ को ‘छायावादी’ अंदाज में बयां कर रहे हैं, आज पूरा ‘विकिपीडिया’ और ‘गूगल’ इस तरह के ‘ज्ञान’ के खजाने से अटा पड़ा है। यह बात किसी को भी हतप्रभ करने के लिए पर्याप्त है कि इतने तेजतर्रार पत्रकार-लेखक अनंत विजय के लिए फिदेल के निजी जीवन प्रसंग की घटना बड़ी गहरी बात हो जाती है और अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में क्यूबा जैसे एक अदने से देश को मजबूत चट्टान की तरह खड़ा कर देना मामूली बात। यह कहना मुनासिब होगा कि लेखक ने निहायत ही सतही, गैरजरुरी और सुनी-सुनाई धारणाओं के आधार पर कास्त्रे जैसे प्रभावी शख्सियत की व्याख्या में अपना बेहद कीमती समय जाया कर दिया।

कास्त्रे के जीवन से संबंधित किसी तरह की धारणाओं को निर्मित करने के दौरान लेखक ने क्यूबाई संस्कृति, परंपरा और मूल्यों के विषय में  थोड़ी-बहुत जानकारी जुटाने की जहमत उठा लिया होता तो वे फिदेल के नायकत्व को लेकर इतने सरलीकृत निष्कर्ष की ओर रुख न करते।

अनंत ने पूरी दुनियाभर के जनसंघर्षों को एक नया आयाम प्रदान करने वाले महानायक के निजी जीवन संदर्भों के हवाले से उन्हें खलनायक घोषित कर दिया और भारतीय सामाजिक परंपरा के परिप्रेक्ष्य में उनका मूल्यांकन करने के फिराक में गच्चा खा बैठे। अब तो देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने भारत में विवाहेतर संबंध के विरोध को दकियानूसी करार देते हुए इस आदिम प्रचलन को गंभीर अपराध की श्रेणी से अलगा दिया है। फिर केवल मार्क्सवाद के अर्धसत्य के नाम पर लेखक इस तरह मनमानी निष्कर्षों की ओर मुखातिब हो जाय तब पाठक इसे उनकी नासमझी मान बैठे, क्या आश्चर्य!

हां, जहां तक फिदेल के तानाशाही मिजाज के संदर्भ में लेखक ने जो विचार व्यक्त किए हैं, उसे थोड़ा अलग से समझ लेने की जरूरत है। दरअसल कास्त्रे दमनकारी राज्य के प्रति हिंसक कार्रवाई के सख्त पैरोकार थे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी रहे थे। ऐसे में अमेरिकी साम्राज्य के हितैषियों ने उन्हें तानाशाह कह कर प्रचारित करना शुरू कर दिया। एक तबके ने उनकी छवि को धूल-धुसरित करने का स्वांग भी खूब रचा। लेकिन ‘एल काबाजो’ अपने विरोधियों को हमेशा की तरह धत्ता साबित करते रहे और जीते-जी किंवदंती बन कर उभरे।

फिदेल के संदर्भ में ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ के लेखक ने रियनाल्डो सांचेज की पुस्तक ‘द डबल लाइफ ऑफ फिदेल कास्त्रे’ के हवाले से एक और नई जानकारी प्रस्तुत की हैः कास्त्रे की हवाना में बीस आलीशान कोठियां हैं, वो एक कैरेबियन द्वीप के भी मालिक हैं। इस तरह के खुलासों से साफ है कि मार्क्सवाद की आड़ में उनके रहनुमा रहस्यमयी सेक्सुअल लाइफ से लेकर तमाम तरह की भौतिकवादी प्रवृत्तियों को अपनाते रहे हैं और विचारधारा की आड़ में व्यवस्था बदलने का सपना दिखाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। (पृ-14) फिदेल के जीवन से थोड़ा-बहुत इत्तेफाक रखने वाले लोग खूब जानते हैं कि कास्त्रे ताऊम्र निजी और सार्वजनिक जीवन में  बेशुमार विवादों से घिरे रहे। उन पर अकूत संपत्ति के मालिक होने का बेबुनियाद इलजाम लगाया गया। बगैर किसी ठोस सबूत के ‘फोर्ब्स’ पत्रिका ने उन्हें दुनिया के अमीरों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। उस समय ‘फोर्ब्स’ पर मुकदमा करते हुए ‘योद्धा फकीर’ ने कहा था कि विदेशी बैकों में एक डॉलर भी जमा वह साबित कर दे तो वे तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। बहरहाल, फिदेल कास्त्रे जैसे महानायक का मूल्यांकन उनके निजी जीवन-प्रसंगों के आधार पर किया जाना कितना सार्थक है, यह ‘मार्क्सवाद का अर्धसत्य’ के सुधी पाठक अपने विवेक से समझें।

इस पुस्तक में कुल नौ विशालकाय लेख हैं। प्रायः सभी लेख के शीर्षक बेहद आकर्षक, अनूठे और चौंकाने वाले हैं। मसलन, ‘बुद्धिजीवी, वामपंथ और इस्लाम’, ‘साहित्य जलसा, विवाद और बौद्धिकों की बेचैनी’, ‘जब रचनाएं भी मजहबी हो गईं है’, ‘विचारधारा की लड़ाई या यथार्थ की अनदेखी’, ‘विचारधारा की जकड़न में आलोचना’, ‘साहित्यिक बाजार, मेला और लेखकीय छप्र’, ‘प्रगतिशीलता की ओट में राजनीतिक आखेट’ और ‘बौद्धिक छलात्कार के मुजरिम।’ इन नौ लेखों में सात लेख ऐसे हैं जो भिन्न-भिन्न उप-खंडों में विभाजित हैं। इन लेखों को पढ़ते समय सहज आभास हो जाता है कि लेखक ने किसी मुकम्मल तैयारी के साथ पुस्तक में शामिल लेखों को नहीं लिखा है वरन वक्त की जरूरतों, मसलों और रुचियों के लिहाज से छोटी-छोटी अखबारी टिप्पणियों को किताब में विषयानुकूल जबरन जोड़ने का प्रयास किया है। कई मर्तबा एक लेख जितने उप-खंड में विभक्त है, उसके अंतर्वस्तु का मूल विषय से कोई सीधे-सीधे तालमेल नहीं बैठ पाता। दरअसल, अनंत विजय ने अखबारी कतरनों के पुलिंदे को सतही तौर पर पुस्तक के आकार में पेश कर दिया है। इस वजह से प्रायः सभी लेख आकृति में (पृष्ठों पर) विशालकाय दिखते जरूर हैं लेकिन पढ़ने के उपरांत अधूरेपन का खटका लगा रह जाता है।

पुस्तक का पहला लेख हैः ‘बुद्धिजीवी, वामपंथ और इस्लाम।’ यह लेख एक नए उप-शीर्षक से ही शुरू होता है ‘बरकती, ममता और फतवा।’ इसी तरह आगे ‘जायरा वसीम पर बौद्धिक पाखंड’, फिर ‘मुजीब की प्रतिमा पर मजहब का साया’, ‘रुश्दियों पर खामोशी क्यों’, ‘अपने अभिव्यक्ति की आजादी का अर्धसत्य’, ‘राजनीति के अनुगामी’, ‘अफवाह से बढ़ती कट्टरता’, ‘बुद्धिजीवियों की चुभती चुप्पी’, ‘कट्टरता को सींचती प्रगतिशीलता’, ‘सेलेक्टिव सेक्युलरिज्म के खतरे’, ‘अभिव्यक्ति की आजादी की राजनीति’ और ‘विनायक पर बवाल क्यों?’ जैसे उप-शीर्षकों को एक ही लेख के साथ नत्थी किया गया है। अलग-अलग संदर्भों और मुद्दों को लेकर लिखे गए छोटी-छोटी टिप्पणियों को एक लेख के शीर्षक में पिरोने के लोभ से यदि लेखक बच पाते तो वे अपने विचारों के बिखराव से बचते और घनघोर पुनरावृत्ति के दोष से भी मुक्त होते।

पुस्तक में खास तौर से वही मुद्दे उठाये गए हैं जिनपर बीते वर्षों के दौरान देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने मोदी सरकार को घेरने का प्रयास किया या इस सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े किये। लेखक ने उन्हीं बुद्धिजीवियों को वामपंथी मानकर उनपर कड़ा प्रहार किया है। मार्क्सवाद के अर्धसत्य के बहाने लेखक अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों को कोसते हैं जबकि जानने वाले यह बात बखूबी जानते होंगे कि अशोक वाजपेयी का मार्क्सवाद के साथ सौतेला रिश्ता भी नहीं रहा है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर मंडराते संकट को लेखक बेबुनियाद करार देते हैं। हालांकि अपने इसी लेख के एक प्रसंग में उन्होंने लिखा हैः भारत में लेखकों और साहित्यकारों द्वारा सत्ता और फैसलों के विरोध की एक लंबी परंपरा रही है। लेकिन हाल के दिनों में उसका क्षरण रेखांकित किया जा सकता है। (पृ-41) संदर्भित पुस्तक के लेखक को यदा-कदा ‘लेखक और बुद्धिजीवी समुदाय की खामोशी’ अखरती भी है लेकिन उनकी वास्तविक मंशा का भान इसी लेख के अंतिम पैरा की कुछ पंक्तियों में हो जाता है, देखिये: बुद्धिजीवियों को अगर देश के संविधान और कानून में आस्था है तो उनको धैर्य रखना चाहिए और न्यायिक प्रक्रिया पर दबाव बनाने के लिए किये जा रहे धरना प्रदर्शन की प्रवृत्ति को तत्काल रोका जाना चाहिए। (पृ-55) फिर इसी मुद्दे पर बात करते हुए लेखक एक प्रसंग में खुद सवाल खड़ा करते हैं: क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध नहीं जताया जा सकता है? क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है?   एक मुद्दे पर एक साथ इतने अंतर्विरोधी मान्यताओं को समझ पाना किसी भी पाठक के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा।

अनंत विजय जेएनयू में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा लगाए गए राष्ट्र विरोधी नारेबाजी से बेहद खफा हैं। निश्चित ही उस घटना की जितनी निंदा की जाए कम है। लेकिन हमें यह भी देख लेना जरूरी होगा कि इस नारेबाजी के पीछे असलियत क्या है? कही ऐसा तो नहीं कि हर कीमत पर अस्वीकार इस नारेबाजी की आड़ में कोई बड़ा खेल रचा गया हो। देश के इतने प्रतिष्ठित संस्थान को बदनाम करने की चाल को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। दुर्भाग्य से इस पुस्तक के लेखक भी भेड़चाल में शरीक हो जाते हैं। जेएनयू के नारेबाजी प्रकरण पर अनंत एक सुलझे पत्रकार या विचारक की भूमिका में नजर नहीं आते हैं बल्कि सरपंच की तरह फैसला देने की मुद्रा में अपना मत इस तरह से व्यक्त करते हैं: देशद्रोहियों को देशद्रोही ही कहना होगा। भारत की बर्बादी के नारों के समर्थन में किसी तरह की बात करने वालों को भी देशद्रोहियों की श्रेणी में रखना ही होगा। वो लाख चीखें लेकिन उनके नापाक मंसूबों को बेनकाब करने का वक्त आ गया है। (पृ-27) क्या सचमुच यही ‘सही वक्त’ है, सभी देशद्रोहियों के नापाक मंसूबों पर शिकंजा कसने के लिए! लेखक ने यह ‘सही वक्त’ ज्योतिषानुसार निकाला है? यदि जेएनयू प्रकरण में कन्हैया कुमार जैसे लोग वास्तव में दोषी हैं तो उसे खुले घूमने का अधिकार देना ज्यादा खतरनाक है। लेखक को चाहिए था कि इस विवादित मसले पर वर्तमान सरकार को घेरते और उनसे सवाल पूछते कि इतनी जबरिया राष्ट्रवादी सरकार होने के बावजूद कोई देशद्रोही देश के खिलाफ़ नारेबाजी कर कैसी आजादी की मांग कर रहा है? तुर्रा यह कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने के नापाक मंसूबा पाले ऐसे देशद्रोही मोदी सरकार को पानी पी-पीकर कैसे ललकार रहा है? संदर्भित पुस्तक के लेखक की समझ सिर्फ जेएनयू के वामपंथियों तक क्यों सिमटकर रह गई है, समझना बहुत कठिन है। इस पुस्तक के पाठक देखेंगे कि जो कोई वर्तमान केंद्र सरकार के विरोध करने की हिमाकत करता है, संयोग से ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के लेखक के सीधे निशाने पर आ जाता है।

पुस्तक का दूसरा अध्याय (लेख) है ‘साहित्यिक जलसा, विवाद और बौद्धिकों की बेचैनी।’ संयोग से यह अध्याय भी एक उप-शीर्षक से शुरू होता है: ‘वैचारिक समानता की ओर बढ़ते कदम।’ अपने इस लेख में लेखक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के बहाने राष्ट्रीय स्वयं संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य का पक्ष रखते हैं। लेखक का मानना है: बगैर संघ के विचारों को सुने, बगैर उनसे संवाद किए उस विचारधारा को खारिज किया जाता रहा। (पृ-58) लेकिन लेखक अपनी तरफ से संघ की विचारधारा के किसी खास बिंदु को रेखांकित करने का प्रयास नहीं करते हैं। कम-से-कम उन्हें मोटे तौर पर ही सही, संघ की बुनियादी अच्छी बातों को स्पष्ट करना चाहिए था। हां, इस लेख में फिर पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को कोसते हैं और जश्न-ए-रेख्ता (2017) में तारिक फतेह को लेकर हुए विरोध को नाजायज करार देते हैं। इस बात का आकलन करना तनिक भी कठिन नहीं है कि क्यों तस्लीमा और तारिक जैसे सांसारिक प्राणी अनंत की निगाह में ‘कोहिनूर’ हैं।

अपनी पुस्तक में अनंत विजय ने प्रो. एम.एम. कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और दाभोलकर की नृशंस हत्या और देश भर में व्याप्त असहिष्णुता के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने वाले रचनाकारों की जमकर खबर ली है। पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों का भी उन्होंने ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ कहकर माखौल उड़ाया है। इस दौरान वे यह मान कर चलते हैं कि उनके द्वारा मार्क्सवादी बेनकाब हो रहे हैं। असल में, यह उनका मकसद नहीं है। लेखक की पक्षधरता यदि स्पष्ट होती तो वे इन मसलों का सार्थक और ठोस विश्लेषण प्रस्तुत करते। पुरस्कार वापसी की मुहिम को अनंत विजय छद्म प्रगतिशीलता का पर्याय मनाते हैं। अकारण नहीं है कि वे पूरी किताब में जहां-तहां इस प्रसंग का जिक्र करते नहीं थकते। अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल और उदय प्रकाश जैसे हिंदी के लेखक अनंत के खास निशाने पर हैं। उनका स्पष्ट मानना है: उस वक्त एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस मुहिम को हवा दी गई थी ताकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके और बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की अगुवाई करने वाले महागठबंधन को फायदा हो सके। (पृ-64) लेखक साहित्य अकादमी की पुरस्कार वापसी की घटना की मूल वजह और साहित्यिक बिरादारी पर लगातार हो रहे हमले को अनदेखा करते चलते हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि एक-दो रचनाकारों की पुरस्कार वापसी की देखा-देखी दर्जनों लेखकों में पुरस्कार वापस करने की होड़ मच जायेगी और मामूली-सी दिखने वाली घटना राष्ट्रीय बहस में तब्दील हो जाएगी। यह किसी पार्टी को नुकसान या फायदा पहुंचाने की गरज से किया गया फैसला नहीं था और न ही ‘प्रचार पिपासा’ का कोई खोज निकाला गया नायाब तरीका था। (जैसा कि इस पुस्तक के लेखक मानते हैं।) जिन रचनाकारों ने पुरस्कार वापसी की घोषणा की थी, वे सभी बड़े और नामी रचनाकार थे। अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, नयनतारा सहगल और मंगलेश डबराल जैसे लेखक मात्र अपने प्रचार के लिए ऐसा कर रहे होंगे, इस पर गहरा संदेह किया जाना चाहिए।

लेखक यहां अपने निजी अनुभवों का जिक्र करते हैं, मसलनः मुझे ट्विटर पर कई लोगों ने ब्लॉक कर दिया है--- मैंने देखा कि विश्व प्रसिद्ध लेखक सलमान रुश्दी ने भी मुझे ब्लॉक कर रखा है। (पृ-69) इस ब्लॉक-अनब्लॉक के खेल से आजिज आकर लेखक ने सलमान रुश्दी के ऊपर टिप्पणी करते हुए लिखा हैः मर्यादा में रहते हुए अगर आपकी टिप्पणियों की धज्जियां उड़ेगी तो उसको झेलना होगा अन्यथा अभिव्यक्ति की आजादी की ध्वजा लहाराने वाले सलमान रुश्दियों की बातें खोखली लगेंगी। (पृ-71) यहां सवाल उठना लाजिमी है कि मर्यादा में रहकर कैसे किसी की धज्जियां उड़ाई जा सकती है? सचमुच यह हुनर समझ से परे है। लेखक स्वयं लिखते हैंः साहित्य में भाषा की एक मर्यादा होनी चाहिए। (पृ-124) लेकिन वे स्वयं जब कोई विचार व्यक्त करते हैं, तब भाषा की मर्यादा ताक पर रखकर भूल जाते हैं। यहां कुछ वाक्यों को उद्धरित करना जरूरी है ताकि पाठक स्वयं तय करें कि वे भाषा की ऐसी मर्यादा का बोझ उठा पाने में सक्षम हैं अथवा नहींः

‘‘उदय प्रकाश के इस कदम पर तमाम छोटे-बड़े और मंझोले वामपंथी विचारक लहालोट होकर उनको लाल सलाम करने लगे थे।’’


‘‘सोशल मीडिया आदि पर सक्रिय लेखकों ने छाती कूटनी आरंभ कर दी थी।’’ 


‘‘समाज में बढ़ती असहिष्णुता, अगर सचमुच यह बढ़ रही है तो छाती कूटने वाले लेखकों का साहित्य में बढ़ती असहिष्णुता नजर नहीं आती।’’


‘‘जब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश को कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ अपने कर कमलों से पुरस्कृत करते हैं तो अशोक वाजपेयी चुप रह जाते हैं।’’


‘‘अभिव्यक्ति की आजादी के चैंपियनों ने शोरगुल मचाना शुरू कर दिया।’’


‘‘कई लोग इस बात पर छाती कूटने लगे कि ये अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है।’’


‘‘नयनतारा सहगल और उनके ऐलान के बाद उनको लाल सलाम कर लहालोट होने वाले उनके समर्थकों को यह समझने की आवश्यकता है कि हर घटना को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़कर देखने का चुनिंदा फैशन बंद होना चाहिए।’’


ये सारे वाक्यांश उद्धरण मात्र नहीं हैं। ऐसे वाक्यांशों से पूरी पुस्तक पटी पड़ी है। पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को ‘गैंग’ करार देने वाले अनंत खासतौर से कहानीकार उदय प्रकाश के प्रति नाराजगी व्यक्त करते हैं जबकि तकरीबन तीन दर्जन से अधिक लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी। तीसियों रचनाकारों का वे जिक्र तक नहीं करते हैं जबकि उदय प्रकाश को प्रसंग-अप्रसंगवश कोसते दिखाई पड़ते हैं। कोसने के इस भेद को लेखक अपने एक लेख में खुद खोल देते हैंः ‘‘उदय प्रकाश मेरे साथ मंच साझा करने से इंकार करते हैं।’’ यह घटना मुंबई फिल्म फेस्टिवल में घटती है। सनद रहे कि यह उन्हीं दिनों की बात है, जब पुरस्कार वापसी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था।

अनंत विजय मार्क्सवादियों को कई प्रसंगों में ‘प्रगतिशीलों’ या ‘वामपंथियों’ कहकर संबोधित करते हैं। उन्होंने ‘मार्क्सवाद’, ‘वामपंथ’ और ‘प्रगतिशील’, तीनों को एक ही माना है। मतलब, जो मार्क्सवादी हैं, वही प्रगतिशील भी होंगे। इस कारण प्रगतिशीलों की धुनाई करते हुए लेखक एक जगह लिखते हैंः प्रगतिशील जमात ने ही धर्मनिरपेक्षता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। (पृ-44) ऐसा लगता है मानो प्रगतिशील होने का ठेका सिर्फ वामपंथियों ने उठा रखा है। कोई दक्षिणपंथी प्रगतिशील नहीं हो सकता? और कलावादी? गांधीवादी? लोहियावादी? आम्बेडकरवादी? इन्हें प्रतिक्रियावादी की कोटि में डाल दिया जाए? अपनी इस पुस्तक में लेखक ने ‘प्रगतिशीलता’ शब्द को इतने तरीके से और इतनी बार इस्तेमाल किया है कि इसका वास्तविक अर्थ विलुप्त हो गया है। अनंत विजय अपना पक्ष रखने की हड़बड़ी में यह भूल जाते हैं कि ‘प्रगतिशीलता’ एक जीवन मूल्य है, एक जीवन पद्धति है। यह किसी खास विचारधारा वाले लोगों की जागीर नहीं है। किसी भी धर्म, विचारधारा, पंथ या संस्था से संबंध रखने वाला व्यक्ति प्रगतिशील हो सकता है और मार्क्सवाद का कट्टर समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हो जाये, उसमें कोई अनोखी बात नहीं हो सकती।

अनंत विजय मानते हैं किः सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है। सरकार चाहे किसी भी दल की हो उनका व्यवहार एक जैसा होता है। (पृ-67) लेकिन कई प्रसंगों में आरएसएस और मोदी सरकार की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। संघ की पैरवी करते हुए उन्होंने एक गंभीर सवाल खड़ा किया हैः क्या संघी होने से कोई भी शख्स अस्पृश्य हो जाता है? (पृ-116) संघ और मोदी सरकार की एकतरफा प्रशंसा कहीं-कहीं भारी बेसुरा और बेहद उबाऊ हो जाता है, कहीं-कहीं भयानक अंतर्विरोधी भी।

2014 के बाद से सरकारी संस्थानों में नियुक्तियों के मामले में लेखक को मोदी नेतृत्व वाली सरकार पर खूब भरोसा है। वे इस बात पर जोर देकर स्वीकार करते हैं कि मोदी सरकार नियुक्तियों में कोई भेदभाव नहीं करती है। इस संदर्भ में उन्होंने बिलासपुर विश्वविद्यालय में बतौर कुलपति प्रो. सदानंद शाही और बदरी नारायण को मानव संसाधन विकास मंत्रलय में निदेशक नियुक्त किये जाने का मिसाल देते हुए लिखा हैंः बदरी नारायण की नियुक्ति इस बात का उदाहरण है कि मोदी सरकार नियुक्तियों में भेदभाव नहीं करती है। केंद्र की मोदी सरकार इस मायने में थोड़ी अलग है। (पृ-137) यदि पाठक सच में अनंत की लेखकीय ‘ईमानदारी’ की पराकाष्ठा देखना चाहते हैं तो किताब की पृष्ठ संख्या 226 में दर्ज एक और विस्मयकारी स्थापना पढ़ लीजियेः ‘‘नरेंद्र मोदी विचारधारा को लेकर सजग ही नहीं है बल्कि उसको स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रयत्नशील भी है। इस बार सरकार ने तय किया कि सभी संस्थानों पर अपने लोग बिठाये जायें। अब इन्हीं अपने लोगों को बिठाने की प्रक्रिया में गजेंद्र चौहान जैसे लोगों की नियुक्तियां हुई। विश्वविद्यालय के कुलपतियों से लेकर भाषा, कला और सांस्कृतिक संगठनों तक में यह सच है कि बौद्धिक जगत में वामपंथी विचारधारा की तुलना में दक्षिणपंथी विचारधारा के विद्वानों की संख्या कम है। लेकिन जो हैं उसके आधार पर ही सब कुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है। और आगे भी होते रहेगी।’’ उदाहरण वाकई थोड़ा लंबा हो गया है लेकिन ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के लेखक की ठोस मान्यताओं को स्पष्ट करने के लिए जरूरी था।

लेखक यहां दो बिल्कुल भिन्न-भिन्न तरह के दलील देते हैं। एक तरफ लिखते हैं कि मोदी सरकार सरकारी संस्थाओं की नियुक्तियों में ‘भेदभाव’ नहीं करती है, दूसरी तरफ ताल ठोककर किसी पार्टी के प्रवक्ता की तरह वक्तव्य जारी करते हैं कि ‘सब कुछ अपने माफिक करने की कोशिश हो रही है और आगे भी होती रहेगी।’ उपरोक्त बातें वे किन तथ्यों के हवाले से लिखने का जोिखम उठा रहे हैं, वे स्वयं जाने, लेकिन पुस्तक के पाठक इस बात को बखूबी समझ लेंगे कि वास्तव में, तथाकथित वामपंथियों और दक्षिणपंथियों के बीच कोई खास बुनियादी नैतिक अंतर नहीं है। मामला केवल मौका हाथ लगने तक सीमित है।

इसी तरह वे ‘स्वाभिमानी लेखक को दयनीय बनाते कुछ लेखक’ शीर्षक से एक उप-लेख में श्रीलाल शुक्ल के लिए सरकारी सहायता की अपील की तीखी भर्त्सना यह कहकर करते हैं कि श्रीलाल शुक्ल एक लेखक के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी थे। इसलिए सरकारी सहायता की गुहार लगाना उनके आत्मसम्मान को धक्का देने जैसा है। कुछ लेखकों द्वारा किए गए इस अपील के लिए उन्हें माफी मांग कर अपनी गलती सुधारने का नसीहत तक देते हैं, वहीं भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए सरकारी सहायता की गुहार को जायज ठहराते हैं।

अनंत विजय के पास जानकारियों का खजाना है। वे हर विषय पर अधिकार पूर्वक लिख-बोल सकते हैं। इस पुस्तक में उन्होंने तमाम ज्वलंत विषयों पर अपनी बेबाक राय प्रस्तुत कर इसे साबित भी किया है। जहां कहीं जरूरत पड़ी है उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार किया है लेकिन वे अपने मजबूत आक्रमणों से कुछ विशेष जन को साफ-साफ बचा ले जाना चाहते हैं। मतलब विरोधियों के खेमे में विचारों का गोला फेंकने से पहले वे अपने कुछ अंतरंग परिचितों को सचेत कर देते हैं, जरूरत पड़ने पर कवच तक पहना देते हैं। ‘साहित्यिक बाजार, मेला और लेखकीय छप्र’ शीर्षक से एक लेख है। अनुक्रम से छठा लेख। वैसे यह लेख भी एक ‘उप-शीर्षक’ से शुरू होता हैः ‘पौराणिक चरित्रें से परहेज क्यों?’ इस लेख में वरिष्ठ रचनाकार नरेंद्र कोहली को अब तक साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिल सका, इस मसले पर सवाल उठाते हुए उन्होंने लिखा हैंः नरेंद्र कोहली को अकादमी पुरस्कार के योग्य क्यों नहीं माना गया। इस पर विमर्श होना चाहिए। साहित्य अकादमी के पास भूल सुधार का मौका है। (पृ-188-189) निःसंदेह नरेंद्र कोहली की योग्यता पर रत्ती भर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। फिर सवाल उठता है किन-किन लेखकों को साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलने पर ‘विमर्श’ किया जाए? राजेंद्र यादव इस पुरस्कार के योग्य नहीं थे? राही मासूम रजा के ‘आधा गांव’ से दिक्कत थी लेकिन उनके उत्कृष्ट लेखन पर क्या कोई प्रश्नचिन्ह् लगा सकता है? मन्नू भंडारी की योग्यता किस मायने में कम है? विश्वनाथ त्रिपाठी? ज्ञानरंजन? स्वयं प्रकाश? संजीव? शिवमूर्ति? कितनी भूल सुधार करेगी अकादमी? अनंत विजय साहित्य अकादमी की पारदर्शिता पर सीधे-सीधे सवाल खड़े करते हैं। सचमुच वे उन तमाम जानकारियों से लैस हैं जिससे बहुत कम लोग अवगत हो पाते हैं। अनंत किसी कोने में ढके-छिपे तथ्यों को खोज निकालने में सिद्ध भी हैं, फिर अकेले नरेंद्र कोहली को साहित्य अकादेमी न दिए जाने पर ही सवाल क्यों?

साहित्य अकादमी पुरस्कार में हो रहे खेल को लेकर लेखक का एक मत देखिये: एक बड़े लेखक के साथ हुआ पुरस्कार का सौदा (पृ-236) अनंत क्यों नहीं उस ‘बड़े लेखक’ को एक्सपोज करते हैं। वे इतने खुले तौर पर लेखन करते हैं, फिर उस ‘बड़े लेखक के सौदे’ पर रहस्यमयी आवरण का लेप क्यों चढ़ा देते हैं। इसी तरह जब वे यह बात भी स्वीकार कर लेते हैंः हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति कितनी दयनीय है, किस तरह से खेमेबाजी होती है या फिर किस तरह से पुरस्कार बांटे जाते हैं यह सबको ज्ञात है।(पृ-234) जब लेखक स्वयं इस हाल से अवगत हैं तो उन्हें साहित्य अकादमी से ‘भूल सुधार’ की उम्मीद कतई नहीं करनी चाहिए। और क्या फर्क पड़ता है, जब लेखक इस तथ्य का उल्लेख तक कर देते हैं: अब इस संस्थान का उदेद्श्य अपने लोगों में रेवड़ी बांटने तक सीमित हो गया है। पुरस्कार, विदेश यात्रा, देशभर में गोष्ठियों के नाम पर पसंदीदा लेखक-लेखिकाओं के साथ पिकनिक के अलावा साहित्य अकादमी के पास उल्लेखनीय काम नहीं है। (पृ-236) इसके बाद लेखक के लिए इस संस्था से किसी तरह की अपेक्षा रखना ही बेमानी है।

प्रगतिशीलता की ओट में राजनीतिक आखेट’ शीर्षक लेख में अनंत जिक्र करते हैंः भीष्म साहनी की अगुवाई में प्रगतिशील लेखक संघ ने इमरजेंसी में इंदिरा गांधी का समर्थन किया। जिसके एवज में इंदिरा गांधी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को कालांतर में वामपंथियों के हवाले कर दिया। (पृ-202) फिर आगे चलकर लिखते हैं: मार्क्सवादी सांसद सीताराम येचुरी की अगुवाई वाली कला और संस्कृति पर बनी संसदीय कमेटी ने संसद में पिछले साल पेश रिपोर्ट में इस बात के पर्याप्त संकेत दिये थे कि कला और साहित्य अकादमियों में काहिली और भाई-भतीजावाद चरम पर है। इन अकादमियों के कामकाज पर गंभीर सवाल खड़े किये गए थे। (पृ-236) दोनों बातें किसी भी सूरत में मेल नहीं खाती। यदि साहित्यिक सांस्कृतिक-संस्थाएं वामपंथियों के कब्जे में थीं तब सीताराम येचुरी वाली कमेटी ने इन संस्थाओं के खिलाफ़ क्यों रिपोर्ट पेश की। इस कार्य के लिए कम से कम वामपंथियों की ईमानदारी के लिए संदर्भित पुस्तक के लेखक को सराहना नहीं करनी चाहिए?

लेखक अपनी पुस्तक के कई प्रसंगों में अपने ही विचारों से पक्षपात कर बैठते हैं। ‘पाठकों की कमी का जिम्मेदार कौन?’ शीर्षक से एक तीन-साढ़े तीन पृष्ठ का उप-लेख है, जिसमें उन्होंने लिखा हैः पिछले कई दशकों में कुछ प्रकाशकों और लेखकों ने मिलकर पाठकों को जबरदस्त तरीके से ठगा है। (पृ-193) यहां प्रकाशक ‘कुछ’ है और लेखक प्रायः ‘सभी’। न जाने क्यों अनंत विजय पाठकों की कमी की जिम्मेदारी ‘कुछ’ ही प्रकाशकों के सर मढ़ कर ठहर जाना चाहते हैं। यह जानना और दिलचस्प होगा कि ‘कुछ का’ बचाव करने की उनकी क्या खास मजबूरी हो सकती है? इस प्रसंग में वे हिंदी के लेखकों (लेखक ने पटना के पुस्तक मेले में जिन लेखकों को लगभग तानाशाह घोषित कर खलबली मचा दी थी।) की खिंचाई यह कहकर करते हैंः प्रिय, चर्चित, पसंदीदा, दस-ग्यारह आदि के नाम से प्रकाशित होने के बाद संचयन और सब कुछ चूक जाये तो समग्र या संपूर्ण कहानियां प्रकाशित होती हैं और उसके बाद रचनावली। (पृ-194) वे इस मौके पर प्रकाशकों का बचाव  करते हुए लिखते हैं कि ‘प्रकाशक कारोबारी है, लिहाजा उनका दोष कम है’ या ‘प्रकाशक तो कारोबारी है उसको जहां लाभ दिखाई देगा वो उसको छापेगा’ अथवा ‘प्रकाशक तो कारोबारी हैं उन पर हम ज्यादा तोहमत नहीं लगा सकते।’ घोर अचरज की बात है कि अनंत विजय पाठकों की कमी के जिम्मेदार लेखकों को दंडित करने की हद तक चले जाते हैं और उन पर आक्रमण करने का कोई मौका नहीं गंवाते, वहीं ज्यादातर प्रकाशकों को सीधे-सीधे बचाकर क्लीन चिट थमा देते हैं।

पुस्तक का आठवां शीर्षक (अध्याय)  है ‘बौद्धिक छलात्कार के मुजरिम?’ दिलचस्प है कि यह लेख भी एक नये उप-शीर्षक से शुरू होता हैः ‘तुलसी और कबीर के निकष अलग’। यह लेख महज तीन-चार पन्नों में सिमटकर रह गया है। इस छोटे से लेख में लेखक का उद्देश्य कबीर के बनिस्बत तुलसी को महान साबित करना है। अजीब लग सकता है कि इतने पढ़ाकू लेखक किसी विषय में कैसे इस हद तक सरलीकरण के शिकार हो गए? तुलसी और कबीर के साहित्य पर विचार करते वक्त लेखक रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी का हवाला कुछ इस तरह से देते हैंः आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक में तुलसीदास को लेकर अपनी मान्यताओं को स्थापित किया था। जब बीसवीं शताब्दी में हजारी प्रसाद द्विवेदी आये तो उनके सामने यह चुनौती थी कि वो खुद को आचार्य से अलग दृष्टि वाले आलोचक के तौर पर स्थापित करें। (पृ-248) लेखक यहां भूलवश दोनों आचार्यों को अलग-अलग सदी का मान बैठे हैं जबकि दोनों आचार्य बीसवीं सदी के ही हैं। खैर, उनकी शिकायत हैः आचार्य द्विवेदी ने तुलसीदास पर गंभीरता से स्वतंत्र लेखन नहीं करके उनको उपेक्षित रखा। (पृ-248) काश, संदर्भित पुस्तक के लेखक वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण ‘गंगा स्नान करने चलोगे’ पढ़ लिया होता! उनका यह भ्रम भी जाता रहता। अपने संस्मरण में त्रिपाठी जी बड़ी मार्मिक ढ़ंग से उस प्रसंग का जिक्र करते हैं कि द्विवेदी जी किस तरह तुलसीदास पर काम करने के लिए व्याकुल रहा करते थे। उनकी अंतिम इच्छा थी कि बाबा तुलसी पर एक स्वतंत्र पुस्तक लिखे। हां, यह सच है कि उनकी कामना अधूरी रह गई।

अपने इस लेख में अनंत ने जिस तरह से द्विवेदी जी और उनके शिष्यों पर गहरे आक्षेप लगाए हैं, उस पर हिंदी साहित्य का साधारण से साधारण विद्यार्थी भी असहमत हो सकता है। संदर्भित पुस्तक के लेखक बहुत जोर देकर एक सवाल उठाते हैं कि द्विवेदी जी के शिष्यों ने तुलसी को कमतर साबित करने का खूब प्रयास किया। संभव है द्विवेदी जी के प्रिय शिष्यों में एक विश्वनाथ त्रिपाठी के द्वारा लििखत पुस्तक ‘लोकवादी तुलसी’ से वे न गुजर सके हों।

संदर्भित पुस्तक की पहली और सबसे बड़ी समस्या यह है कि अनंत ‘मार्क्सवाद के अर्धसत्य’ के नाम पर हिंदी पट्टी के कुछ चुनिंदा लेखकों का चुनाव करते हैं। इससे न मार्क्सवाद के अनुयायियों की कमजोरियां स्पष्ट हो पाती हैं, न बुद्धिजीवियों की खामियां। यह सच है कि ज्यादातर मार्क्सवादी अपनी अराजक जीवन-शैली को बेबुनियाद तरीके से जस्टिफाइ करने में अपनी समस्त गाढ़ी ऊर्जा झोंकते रहे। अनंत विजय जिन मार्क्सवादियों के ‘अर्धसत्य’ को उजागर करने का दावा करते हैं, असल में वे अपनी निजी भड़ास निकालने की वजह से भयानक भटकाव के शिकार हो जाते हैं। उन्हें बगैर किसी पूर्वाग्रह के ठोस तथ्यों और तर्कों के सहारे तथाकथित मार्क्सवादियों के बनावटी व्यवहार और खोखले क्रांतिकारी चरित्रें का ‘अर्धसत्य’ ही सही पर सार्थक तरीके से शिनाख्त करनी चाहिए थी। मगर ऐसा कर पाने से अनंत विफल रह गए हैं।

पूरी पुस्तक पढ़ चुकने के बाद एक बात तो साफ है कि संदर्भित पुस्तक के लेखक के लिए असल समस्या न मार्क्सवाद है, न वामपंथी, न प्रगतिवादी, न इस्लाम, न जेएनयू के विद्यार्थी, न बुद्धिजीवी। असल समस्या है उनके निजी प्रसंग के कड़वे अनुभव। वे जिन लेखकों की आलोचना करते हैं, उनमें से कइयों की वामपंथ से दूर की रिश्तेदारी भी नहीं रही है। न जाने किस दैवीय प्रेरणा से लेखक उन गैर मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को घसीट लाने का उपक्रम करते हैं।

पुस्तक की दूसरी बड़ी कमजोरी है भयंकर पुनरावृति की। इस वजह से पुस्तक की पठनीयता क्षीण हो गई है। विभिन्न संदर्भों में पूरा-पूरा पैरा जस-के-तस कई बार व्यक्त हुए हैं। पुस्तक में 40-50 पृष्ठ कम न करने के लोभ से लेखक को बच निकलना चाहिए था। फिर ऐसी दिक्कत न के बराबर रह जाती। 

इस पुस्तक की तीसरी दिक्कत यह है कि लेखक किसी गंभीर मसले की आलोचना करते-करते कई अवसरों पर निजी संस्मरण का हवाला देने में दिलचस्पी लेने लगते हैं। अनंत अपनी इस पुस्तक में यदि मार्क्सवादियों की खामियों-कमियों-कमजोरियों को कलात्मक तरीके से सार तत्व में पेश कर पाते तो सचमुच यह पुस्तक काम के लायक हो सकती थी। यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि वक्त के हिसाब से किसी भी विचारधारा में खामियां आ जाती है। फिर इस तथ्य से हर कोई वाकिफ हैं कि समय के साथ-साथ कई चीजें अप्रासंगिक हो जाती है जिसे वक्त रहते रेखांकित किया जाना चाहिए।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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संवेदनशील समझे जाना वाला ‘भद्रलोक’ का मानुष जब नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शनों को धर्म के आयने से परखने लगता है तब संकट गहरा जाता है



निश्चित ही हरेक के पास पूरी आजादी है कि वह किस विचारधारा को अपनाए। लेकिन किसी को भी यह अधिकार नहीं कि अपनी विचारधारा को पोषित करने के लिए तथ्यहीन टिप्पणिया करे या फिर सोशल मीडिया में प्रतिदिन लाखों की तादात में फेंके जा रहे ‘कूड़े’ को अपना समर्थन दे — अपूर्व जोशी

संवेदनशील समझे जाना वाला ‘भद्रलोक’ का मानुष जब नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शनों को धर्म के आयने से परखने लगता है तब संकट गहरा जाता है

संवेदनशील समझे जाना वाला ‘भद्रलोक’ का मानुष जब नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शनों को धर्म के आयने से परखने लगता है तब संकट गहरा जाता है

— अपूर्व जोशी

कॉलेज के दिनों में ही 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ था। मुझे भलीभांति याद है कि हम तीनों ही बढ़ती सांप्रदायिकता से चिंतित रहते थे। धर्म के आधार पर समाज को बंटते देखना हमारे लिए पीड़ादायक था। कह सकते हैं कि हम तब तक धर्मनिरपेक्ष हुआ करते थे। मार्क्स का कथन कि धर्म अफीम माफिक होता है, निजी तौर पर मैंने अपने प्रिय मित्र पंकज भटनागर के संदर्भ में समझा। — अपूर्व जोशी

कितना बदल गया इंसान — अपूर्व जोशी


पंकज भटनागर और मैं लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज, लखनऊ विश्वविद्यालय में साथ पढ़े। दोनों ने बीएससी साथ किया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी से तीन वर्ष का पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स भी हमने ज्वाइन किया। पंकज मेधावी छात्र थे इसलिए पार हो गए। मैं और एक अन्य मित्र मंजुल भटनागर ‘गंजिंग’ करने के चक्कर में रहे, डूब गए। ‘गंजिंग’ ठेठ लखनऊ शब्द है जो प्रसिद्ध हजरतगंज में आवारागर्दी के लिए प्रयोग में लाया जाता है। बरहाल कॉलेज की मित्रता आज भी यथावत है। हम तीनों ने ही व्यावहारिक जीवन या व्यासायिक जीवन साथ शुरू किया। नोएडा संग-संग आए। एक साथ काम करने लगे। फिर मैं पत्रकारिता में आ गया। पंकज ने दवाओं का व्यापार शुरू कर दिया और मंजुल टेलीकम्युनिकेशन की दुनिया के हो गए। पंकज ‘दि संडे पोस्ट’ में भी लंबे समय तक सक्रिय रहे। हमारे उत्तर प्रदेश संस्करण के वे ही प्रभारी थे। लब्बोलुआब यह कि पंकज मेरे घनिष्ठ मित्र आज भी हैं।
धर्म के नाम पर विद्वेष का जहर व्यक्ति की चेतना हर लेता है, उसके विवेक पर घातक प्रहार कर डालता है
कॉलेज के दिनों में ही 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ था। मुझे भलीभांति याद है कि हम तीनों ही बढ़ती सांप्रदायिकता से चिंतित रहते थे। धर्म के आधार पर समाज को बंटते देखना हमारे लिए पीड़ादायक था। कह सकते हैं कि हम तब तक धर्मनिरपेक्ष हुआ करते थे। मार्क्स का कथन कि धर्म अफीम माफिक होता है, निजी तौर पर मैंने अपने प्रिय मित्र पंकज भटनागर के संदर्भ में समझा। समझ में आया कि धर्म के नाम पर विद्वेष का जहर किस प्रकार व्यक्ति की चेतना हर लेता है, उसके विवेक पर कैसा घातक प्रहार कर डालता है। पंकज बीते एक दशक के दौरान पूरी तरह कट्टर हिंदुवादी हो चुके हैं। उनकी फेसबुक पोस्ट मुझे भयभीत और कुछ हद तक अवसादित करने लगी हैं। तो चलिए उनकी फेसबुक पोस्ट के जरिए चलिए तनिक समझा जाए कि कैसे धर्म का नशा हमारी सोच को अपने वश में कर मानवीय सरोकारों की मृत्यु का कारक बन जाता है। पिछले लंबे अर्से से उनकी फेसबुक पोस्ट पर मैं नजर रखे हुए हूं।

विचारधारा को पोषित करने के लिए तथ्यहीन टिप्पणियाँ

निश्चित ही हरेक के पास पूरी आजादी है कि वह किस विचारधारा को अपनाए। लेकिन किसी को भी यह अधिकार नहीं कि अपनी विचारधारा को पोषित करने के लिए तथ्यहीन टिप्पणिया करे या फिर सोशल मीडिया में प्रतिदिन लाखों की तादात में फेंके जा रहे ‘कूड़े’ को अपना समर्थन दे। खेदजनक कि मेरे मित्र ऐसे ही वीडियो, ऐसी पोस्ट शेयर करते हैं जो पूरी तरह तथ्यहीन और घृणा फैलाने वाली होती हैं। कितना घातक है धर्म का नशा पंकज भटनागर सरीखे संवेदनशील व्यक्ति तक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। मैं सहम उठता हूं कि इस नशे की चपेट में यदि पंकज जैसे आ सकते हैं, तो उन धर्मांधों की सोच किस तरह धर्म के नाम पर विकृत हो चुकी होगी जिन्हें न तो इतिहास बोध है, न ही सामाजिक बोध। हिंदू, हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र और इस्लाम के नाम पर ऐसे बबालों का गलत इस्तेमाल कितना खौफनाक मंजर पैदा कर सकता है।

सच यह कि बार-बार झूठ को बोलने, उसे प्रचारित-प्रसारित करने के बावजूद वह झूठ ही रहता है

पंकज मुस्लिम महिलाओं की पर्दानशीनी पर ऊंगली उठाते हैं। वह जेएनयू में हुए ताडंव पर चुटकी लेने वाली पोस्ट को शेयर करते हैं। उत्तर प्रदेश की पुलिस नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध- प्रदर्शन करने वालों को अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर धमकाती है तो उसका वीडियो वे शेयर करते हैं। हद तो यह कि वे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर निम्नतर स्तर की छींटाकशी करने वाली, उन्हें मुसलमान बताने वाली घटिया और झूठी पोस्ट भी बड़े फख्र के साथ साझा करते हैं। बहुत सारे लोग स्व राजीव दीक्षित के प्रशंसक हैं और उनके ‘ज्ञान’ भरे वीडियो को शेयर करते हैं। दीक्षित भी अपने एक ऐसे ही वीडियो में नेहरू को मुसलमान बताते हैं। सच यह कि बार-बार झूठ को बोलने, उसे प्रचारित-प्रसारित करने के बावजूद वह झूठ ही रहता है। सच यह कि नेहरू कश्मीरी पंडित, गौर सारस्वत ब्राह्मण थे। आज भी कश्मीर के कौल ब्राह्मणों की बड़ी तादाद अपने नाम के आगे नेहरू लिखतें हैं। नहर के किनारे घर होने के नाते इन लोगों को कौल नेहरू कहा जाने लगा था जो कालांतर में नेहरू बन गया। जवाहरलाल के पिता मोतीलाल नेहरू थे। उनके दादा गंगाधर नेहरू थे जिनकी बाबत मिथ्या प्रचार किया गया कि उनका असली नाम गयासउद्दीन था। सच यह कि गंगाधर नेहरू के परपिता तक का इतिहास उपलब्ध है जिनका नाम राज कौल था जो संस्कृत और फारसी के बड़े विद्वान थे। बहरहाल इंटरनेट से लेकर कई ‘प्रदूषित पुस्तकों’ तक में नेहरू के साथ-साथ फिरोज गांधी की बाबत ऐसा लिखा मिलता है जिनका सच से कोई सरोकार नहीं।

मुझे निजी तौर पर पकंज भटनागर के इस कट्टर हिंदुवादी अवतार पर बेहद अफसोस तो होता ही है, मैं भयभीत हो जाता हूं, सिहर उठता हूं, यह सोच-सोच कर कि कैसे धर्म के नाम पर हम अमानुष होते जा रहे हैं। 

सच कहूं तो मुझे अपने हिंदू होने पर इस बिना पर गर्व होता था कि हम बेहद खुले विचारों वाले हैं, कि हमारे धर्म में असहिष्णुता का कोई स्थान नहीं, कि हमारे धर्म की बुनियाद कई हजार बरस पुरानी है इसलिए वह अपने भीतर हरेक धर्म को समाहित करने की ताकत रखती है, कि मुस्लिम धर्म असहिष्णु है, कि मुस्लिम समाज में पर्दादारी, अशिक्षा का बोलबाला और धार्मिक कट्टरता होती है, जो हमारे धर्म में नहीं है। बहुत बाद में समझ आया कि अपने यहां ये सब कुछ पूरी शिद्दत्त से समाया हुआ है। अस्पृश्यता हो, नारी को पूजने के नाम पर छला जाना हो, जातिवाद हो, सबरीमाला में ‘देवी’ के प्रवेश का मामला हो या फिर अन्य किसी भी धर्म में व्याप्त जाहिलपना, सब अपने यहां भी बड़ी तादाद में मौजूद है। फिर भी यह भ्रम बना रहा, लंबे अर्से तक, कि हम गंगा- जमुनी संस्कृति वाला देश हैं तो केवल हिन्दुत्व के कारण जो उस पवित्र पावन मां गंगा के समान है जिसमें सब कुछ सहेजने- संवारने की शक्ति है। अब यह मुगालता भी दूर हो गया है। पिछले तीन दशक के दौरान देश में सबसे बड़ा बदलाव यही आया है। भले ही भौगोलिक विभाजन नहीं हुआ हो सामाजिक विद्वेष ने हिंदू- मुस्लिम के मध्य विभाजन रेखा खींच दी है।

आज जब देश ज्वलंत समस्याओं से जूझ रहा है तब 

जिन मुद्दां पर बहस होनी चाहिए उन पर बात तक नहीं हो रही। कथित तौर पर देश का पहरुवा, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया से लेकर आमजन तक बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, बढ़ती अराजकता, बढ़ती असहिष्णुता, घटती आर्थिकी, घटती नैतिकता के बजाए चर्चा कर रहा है राम मंदिर निर्माण की, हाउडी मोदी की, पाकिस्तान की, हिंदू राष्ट्र की।


‘भद्रलोक’ का मानुष जब नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शनों को धर्म के आयने से परखने लगता है तब संकट गहरा जाता है

हैदराबाद की जांबाज पुलिस एक बलात्कार और हत्या के कथित तौर पर आरोपित चार नवयुवकों को ‘इन्काउंटर में ढेर कर देती है तो उसकी जयकारे में शामिल वे नाम भी हो जाते हैं जिनसे समाज उम्मीद करता है कि वे समग्र दृष्टि रखते हैं। न्याय व्यवस्था से आजिज आ चुके आम आदमी की ऐसी त्वरित प्रक्रिया तो समझ में आती है, लेकिन संवेदनशील समझे जाना वाला ‘भद्रलोक’ का मानुष जब नागरिकता संशोधन कानून पर हो रहे प्रदर्शनों को धर्म के आयने से परखने लगता है तब संकट गहरा जाता है। स्थापित, संविधान सम्मत जांच अथवा न्याय प्रक्रिया को धता बताने वालों को जनता जनार्दन से लेकर भद्रलोक तक हीरो बनाने लगें तब समझ लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से जनमानस की आस्था डगमगाने लगी है। संकट तब ज्यादा गहराता नजर आता है जब समाज को जाति अथवा धर्म के आधार पर बांटने की साजिश सफल होती नजर आने लगती है। हमारे मुल्क में इन दिनों यही सब हो रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर बहुत कुछ ऐसा चल रहा है जो भले ही बहुसंख्यक आबादी को अभी समझ नहीं आ रहा, वह भारी मुगालते में जी रही हो कि वर्तमान निजाम ने भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बना डाला है, हकीकत इससे ठीक उलट है। हम नैतिक, मानवीय, सामरिक और आर्थिक दृष्टि से लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। फिर भी यदि हमारी समझ पर ताला लगा हो तो जाहिर है बहुत सोची समझी रणनीति के तहत ऐसे ज्वलंत मुद्दों से जनता जनार्दन का ध्यान भटकाया जा रहा है। चारण-भाट बन चुके पत्रकार, दब्बु, रीड़विहीन नौकरशाही और भयभीत न्यायपालिका आज के दौर का कटु सत्य है। शर्म आती है कि अब हमारे यहां फैज अहमद फैज जैसे महान शायरों की नज्म को भी हिन्दू-मुस्लिम के फेर में डाल दिया गया है। नेहरू के राष्ट्र निर्माण में योगदान पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता, चर्चा का मुद्दा उनके मुस्लिम होने, परस्त्रीगामी होने का रहता है। अरे मूर्खों कुछ तो शर्म-हया रखो, इतने भी भक्त न बनो कि देश के निर्माण, देश की आजादी में अहम भूमिका वाले नेहरू को कोसने लगो। अपना योगदान जरा परखो। नेहरू ने साहसी निर्णय लिये, एक मजबूत भारत की नींव रखी। शिक्षा, स्वास्थ्य, अंतरिक्ष, विज्ञान, जमीन बंदोबस्त, रियासतों का एककीकरण, अन्न में आत्मनिर्भरता, जम्मू- कश्मीर का भारत में विलय आदि ऐसे कदम उठाए कि आज हम एक मजबूत लोकतंत्र बन पाए हैं। निश्चित ही उनसे कई बड़ी भूलें भी हुईं, कई निर्णय प्रतिगामी भी रहे, लेकिन इससे उनके राष्ट्र निर्माण में योगदान को कमतर नहीं किया जा सकता। बहरहाल मुद्दा नेहरू को गाली देने से कहीं ज्यादा गंभीर इस असहिष्णु मानसिकता के विस्तार पाने का है जो मेरे संवेदनशील, संस्कारी, ईमानदार और मानवीय सरोकारों वाले मित्र को पूरी तरह बदल पाने में सक्षम नजर आ रहा है। डरता हूं कि आज धर्म के नाम पर रंगों का बंटवारा तक हो चुका है कल सब्जियों का बंटवारा भी हो न जाए। बेचारा शाकाहारी मेरा दोस्त हरी सब्जियों से वंचित हो केवल टमाटर, पपीता आदि तक सीमित न हो जाए। जागिए, समझिए इस धर्म रूपी अफीम के नशे में चूर हम कितना बदल गए, कितने अमानुष हो चुके हैं। अभी भी वक्त है, कल कहीं देर न हो जाए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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अवध नारायण मुद्गल की बेमिसाल कहानी — और कुत्ता मान गया


अवध नारायण मुद्गल की बेमिसाल कहानी "और कुत्ता मान गया"


मैं जब साहब के घर से फाइलें लेकर काफी रात गए अपने घर लौटने लगता हूँ, कुत्ता पंजे उठा-उठाकर हाथ मिलाता है, गुड नाइट कहता है, गले मिलता है। मैं प्रसन्नता से भर उठता हूँ। लगता है, जैसे साहब भी हाथ मिला रहे हों, गले मिल रहे हों। फिर सोचता हूँ—मैं भी कितना मूर्ख हूँ, भला साहब ऐसा क्यों करने लगे? साहब कुत्ता थोड़े ही हैं।

'बेमिसाल कहानी' बोलना और बेमिसाल कहानी को पढ़ना दो पूर्णतया अलग-अलग घटनाएं हैं. पहली वाली से तो अनेकों दफ़ा मन-बेमन रु-ब-रु हुआ है, यह पाठक, दूसरी वाली की चपेट में अभी फ़िलवक्त है और चाह रहा है कि आप भी इस साहित्यिक-घटना के साक्षी बन पायें.

पढ़ें अवध-जी की कहानी "और कुत्ता मान गया". यदि वरिष्ठ कथाकार सुश्री चित्रा मुद्गलजी के पति स्व० श्री अवधनारायण मुद्गल के बारे में कम या न जानते हों तो उनका परिचय कहानी से पहले दे रहा हूँ, पढ़ सकते हैं .

भरत एस तिवारी

अवध नारायण मुद्गल 
अपनी कविताओं और कथा दृष्टि में मिथकीय प्रयोगों के लिए विशेष रूप से जाने जाने वाले कवि, कथाकार, पत्रकार, सिद्धहस्थ यात्रावृत लेखक, लघुकथाकार, संस्मरणकार, अनुवादक, साक्षात्कारकर्ता, रिपोर्ताज लेखक और संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ, चिंतक विचारक अवध नारायण मुद्गल, लगभग 27 वर्षों तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 'सारिका' जैसी कथा पत्रिका से निरंतर जुड़े ही नहीं रहे, बल्कि 10 वर्षों तक स्वतंत्र रूप से उसके संपादन का प्रभार भी संभाला और कथा जगत में मील का पत्थर कई विशेषांक संयोजित कर उसे नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया।

28 फरवरी 1936 को आगरा जनपद के ऐमनपुरा गाँव में एक मामूली से जोत के मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे मुद्गल जी के पिताजी पंडित गणेश प्रसाद मुद्गल जाने माने शिक्षाविद थे और माँ पार्वती देवी सहज गृहणी। अपने चार भाई बहनो में वे सबसे छोटे थे और खेतीबारी के बजाय उच्च शिक्षा के आकांक्षी। मंझले भाई के आकस्मिक मृत्यु ने उन्हें बहुत तोड़ा।

उन्होंने साहित्य रत्न और मानव समाज शास्त्र में लखनऊ विश्विद्यालय से एम. ए. किया और संस्कृत में शास्त्री। शिक्षा के दौरान संघर्ष के दिनों में उन्होंने यशपाल जी के साथ काम किया और अमृतलाल नागर, लखनऊ में उनके स्थानीय अभिवावक ही नहीं थे बल्कि उनका पूरा परिवार उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानता था। जनयुग, स्वतंत्र भारत, हिंदी समिति में कार्य करते हुए 1964 में वे  टाइम्स ऑफ़ इंडिया (मुंबई) से जुड़े। आगे चलकर मुद्गल जी को सारिका के साथ साथ वामा और पराग के संपादन का भार भी कुछ अरसे के लिए सौपा गया। इस बीच लिखना उनका निरंतर जारी रहा लेकिन उन्होंने अपनी सर्जना को प्रकाशित करने में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई।  उनकी रचनाएँ हैं 'कबंध', 'मेरी कथा यात्रा' (कहानी संकलन), 'अवध नारायण मुद्गल समग्र'( 2 खंड), 'मुंबई की डायरी '(डायरी ), 'एक फर्लांग का सफरनामा' (यात्राव्रत), 'इब्तदा फिर उसी कहानी की '(साक्षात्कार), 'मेरी प्रिय सम्पादित कहानियां' (संपादन), तथा 'खेल कथाएं' (संपादन)।

उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के 'साहित्य भूषण', हिंदी अकादेमी दिल्ली के 'साहित्यकार सम्मान', एवं राजभाषा विभाग बिहार के सम्मान से भी सम्मानित किया गया।

कहानी:  और कुत्ता मान गया

— अवधनारायण मुद्गल


दिन-रात घटते रहते हैं। ऋतुएँ बदलती रहती हैं। भूगोल में लिखा है तो किसी न किसी के लिए ठीक ही होगा। शायद मेरी बीवी, मेरे साहब या भूगोल पढ़ाने वाले मास्टर जी के लिए ही ठीक हो, क्या मालम? मैं जब तक काम करता हूँ, दिन ही दिन लगता है। मुझे हर ऋतु में पसीना आता है, हर ऋतु में जाड़ा लगता है, इसलिए कभी अनुभव नहीं हुआ कि ऋतुएँ बदलती हैं। या शायद हुआ ही हो, जब मेरी बीवी किसी से मेरी तारीफ करती है याद नहीं। फुर्सत भी नहीं कि यह सब अनुभव कर देखें। मुझे अपनी बीवी को देखकर और कुछ देखने की ज़रूरत ही नहीं रहती।

मेरी बीवी श्रीमती है, लेकिन मैं श्रीमान् नहीं; बीवी जवान है, जो दूसरों के लिए खूबसूरत भी है। शायद वह भी अपने को वैसा ही समझती है। मेरे समझने न समझने का प्रश्न ही नहीं, मेरी तो बीवी है ही।

ऐसी बीवी भाग्यशालियों को मिलती है। मुझे मिली है, मैं भी भाग्यशाली हूँ। बड़े-बड़े आदमी उसे देखकर, उससे मिलकर अनजाने-पहचाने मुझसे, मेरे भाग्य से ईर्ष्या करते हैं, इसलिए मैं छोटा आदमी भी नहीं। हाँ, बीवी के सामने लगता है, जैसे अपरिचित बौनी आकृतियाँ मुझसे ही नहीं, मेरी कल्पना के भीमसेन से भी आठ हाथ बड़ी होकर मुझे चिढ़ा रही हैं। मेरा कुबड़ा व्यक्तित्व एक बिंदु से सिमटकर दृष्टि से ओझल हो जाता है।

मैं बीवी की तुलना में छोटा हुआ तो, बड़ा हुआ तो, आखिर वह है तो मेरी बीवी ही। आजकल अपनी बीवी के आगे कौन म्याऊँ नहीं करता? नानियों ने कहा है, आदमी अपनों से ही डरता है, अपनों से ही छोटा होता है। बीवी से अधिक कौन अपना हो सकता है?

मुझे बचपन की एक बात अकसर याद आती रहती है—अम्मा पिताजी से कहा करती थीं—औरतें जिन्स सेंतकर अपने लिए थोड़े ही रखती हैं, उनके पास जो कुछ बचा होगा, वक्त-ज़रूरत घरवालों के ही काम आएगा। संतोष अनुभव होता है-बीवी का बड़प्पन वक्त-ज़रूरत मेरे ही काम के लिए है।

मैं हाई स्कूल हूँ, बीवी इंटर। मैं मामूली क्लर्क या क्लर्क से भी छोटा, कुर्सी-मेज़ पर बैठकर काम करने वाला कोई नौकर हो सकता है, तो समझिए, नहीं हूँ। बीवी समाज-सेविका, विशेष रूप से नारी समाज-सुधारिका है। बड़े-बड़े बँगलों के बड़े-बड़े आदमियों में उसकी इज़्ज़त है, शोहरत है।

मेरी बीवी मेरे साहब के घर भी, कभी-कभी समस्या में सहयोग, परामर्श या किसी सामाजिक कार्य के लिए चंदा लेने आती-जाती रहती है। मैं भला इतने बड़े देश की समस्याओं, बड़े-बड़े लोगों और इतनी बड़ी समाज-सेविका के उत्तरदायित्व को क्या समझ सकता हूँ? समझता हूँ सिर्फ एक बात-मेरे साहब भी मेरी बीवी को मानते हैं। और वैसे न जाने कितनों के कितने साहब उसे मानते हैं।

संध्या समय प्रायः ही सुपरिटेंडेंट या हैडक्लर्क मुझे साहब के बँगले पर दस्तखत करवा लाने के लिए अर्जेंट फाइलें देकर भेज देते हैं। साहब की कृपादृष्टि पाने के लिए बँगले के छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटा देता हूँ। अकसर साहब का सामीप्य पाने और उनकी नज़र में बने रहने के खयाल से ड्राइंगरूम में चाय लगाने का काम मैं सँभाल देता हूँ। कभी-कभी चाय के समय मेरी बीवी भी वहाँ पहुँच जाती है। साहब और उनके बीवी-बच्चों के साथ या कभी अकेले साहब के ही साथ बैठकर चाय पीती है। मैं आँगन में बैठा फाइलों की प्रतीक्षा करता हूँ।

साहब के यहाँ बड़े-बड़े भूरे बालों वाला ठिगना-सा एक कुत्ता है। जब साहब चाय पीते हैं, कुत्ता उनके पास पहुँच जाता है। साहब पुकार उठते हैं, "भाई, वहाँ ब्रोनी को भी कुछ दे दो। ब्रोनी, बाहर जाओ (आँगन में मेरी ओर इशारा करते हैं, वहाँ मिलेगा)।" दीक्षित कुत्ता, साहब की सिफारिश उगाह लेने के लिए आँगन में आकर मेरी ओर देखने लगता है। मैं उसे साहब के बेबी का छोड़ा हुआ जूठा दूध या कभी-कभी (उसी के लिए) मँगाया गया सैपरेटा का दूध और एक-आध बिस्कुट साहब के घरु नौकर बुद्ध (बुद्धसेन) से माँगकर देता हूँ।

जब मेरी बीवी साहब के घर आती है और यदि मैं कत्ते को दूध पिलाता होता हूँ, मेरा ध्यान कुत्ते से हटकर उनकी बीवी और अपनी बीवी के बेतरतीब-बेमतलब कहकहे “हँसी-मज़ाक” । साहब मेरी बीवी से समाज-सेवा के संबंध में कोई बात छेड़ देते हैं। कुत्ता मेरे हाथ-पैर चाटकर ध्यान वापस बुला लेता है, जैसे समझा रहा हो—”भाई, सेवा कर सेवा" मेरी, अपने साहब की वे बड़े आदमियों की बातें हैं, तुम उसमें क्या लोगे? मेरी आँखों के सामने किसी बड़े-से अपरिचित समाज का धुंधला चित्र उभरता है और धीरे-धीरे सारा समाज दो आकृतियों में सिमट जाता है-एक कुत्ते की, दूसरी साहब की।

कभी सुनाई देता है-मेरी बीवी साहब और उनकी बीवी से अपने पति की प्रशंसा कर रही है, “मेरे पति बहुत अच्छे हैं, उदार विचार के, मॉडर्न" मुझे पूरे अधिकार दिए हैं बराबर के ही नहीं, उससे भी ज़्यादा उससे भी बड़े।"
साहब की धीमी, दबी-सी आवाज सुनाई देती है, जैसे अपनी बीवी की नजरें बचाकर कह रहे हों, “यही“ यही तो चाहिए वाकई आपके पति बहुत नेक इंसान हैं।"

साहब की बीवी टोक देती है, “अजी, इंसान नहीं, फरिश्ता कहिए, फरिश्ता बहन जी, कभी हमें भी दर्शन कराइए कभी यहाँ भी लाइए न!" और और पल-भर मुझे लगता है—दिन-रात घट-बढ़ रहे हैं, ऋतुएँ बदल रही हैं आगे कुछ नहीं सुन पाता। कुत्ता फिर मेरे हाथ-पैर चाटने लगता है।

मैं लगभग दो साल से साहब के घर फाइलें ला रहा हूँ, फिर भी यही लगता है, जैसे नई जगह आ गया हूँ, जहाँ मुझे कोई नहीं पहचानता।

उस घर का असर ही कुछ ऐसा है कि वहाँ मेरी बीवी भी मुझे नहीं पहचान पाती। हाँ, पहचानता है तो वही कुत्ता, जिसका मैं आदर करता हूँ, जिससे मेरी भावात्मक आत्मीयता हो गई है।

मैं जब साहब के घर से फाइलें लेकर काफी रात गए अपने घर लौटने लगता हूँ, कुत्ता पंजे उठा-उठाकर हाथ मिलाता है, गुड नाइट कहता है, गले मिलता है। मैं प्रसन्नता से भर उठता हूँ। लगता है, जैसे साहब भी हाथ मिला रहे हों, गले मिल रहे हों। फिर सोचता हूँ—मैं भी कितना मूर्ख हूँ, भला साहब ऐसा क्यों करने लगे? साहब कुत्ता थोड़े ही हैं।

कुत्ता मुझे अपना दोस्त मानता है। प्यार करता है, प्यार माँगता भी है। कभी-कभी आँख बचा मेरे गाल चाटकर चूम लेता है। क्या करूँ? मुझे प्यार करना ही पड़ता है। मेरे लिए उसका दिल तोड़ना, साहब का दिल तोड़ना बराबर है।

मैं जिस तरह साहब को नाराज़ करके नौकरी नहीं कर सकता हूँ, उसी तरह उसे (कुत्ते को) नाराज़ करके नौकरी नहीं कर सकता और मुझे नौकरी करनी है। अगर नौकरी नहीं करूँगा तो क्या इतनी सम्मानित, प्रसिद्ध समाज-सेविका का निखट्टू आवारा शौहर होकर भरे समाज में बीवी की नाक काटूँगा? उसकी शान-शौकत और इज़्ज़त की पीठ पर झाड़ मारूँगा?

अब मैं उस कुत्ते को सचमुच प्यार करने लगा हूँ। उससे अपनी कोई बात नहीं छिपाता।

साहब के घर अकेला कुत्ता ही जानता है—वह औरत, जो समाज-सेविका है, जिसके आदर में साहब मझसे भी एक हाथ छोटे लगते हैं, जिसके आने पर मैं कुत्ते की ओर ध्यान नहीं दे पाता मेरे कान, जिसके चाय की चुस्कियों पर नाचते कहकहे सुनते रहते हैं और जिसे देखकर मेरे मुँह की लार मेरी आँखों में आ जाती है मेरी बीवी है। यह बात वहाँ और कोई नहीं जानता। उस बेजुबान कुत्ते के जानने न जानने से मेरा या मेरी बीवी का बनता-बिगड़ता ही क्या है? इसीलिए उसे मैंने स्वयं सब कुछ बता दिया है। यद्यपि उसकी छोटी-छोटी पनीली आँखों में हमेशा एक अविश्वास, एक संदेह तैरता है। मैं कभी उसकी आँखों में नहीं झाँकता।

मेरा वह दोस्त, कुत्ता, कभी नहीं पूछता—मैं अपनी बीवी के साथ बैठकर चाय क्यों नहीं पीता? वह क्यों नहीं बताती कि मैं ही उसका ‘फरिश्ता' शौहर हूँ? वह जानता है। आखिर क्यों न जाने? मेरे साहब का कुत्ता होकर इतनी मामूली-सी बात भी नहीं जानेगा?

वह जानता है—मेरी बीवी मुझे अपना पति बताकर मेरे मुँह पर तमाचा कैसे मार दे? भला कोई हिंदुस्तानी औरत अपने पति के मुँह पर तमाचा मार सकती है? वह मेरी बेइज्जती नहीं कर सकती। मेरी बेइज्जती, उसकी बेइज्जती है। अपने हाथों अपनी बेइज्जती कैसे कर ले?

वह यह भी जानता है—साहब मुझे इतनी बड़ी समाज-सेविका महिला का शौहर जानकर मामूली-सी नौकरी मेरी शान के खिलाफ समझेंगे “और” और मैं निखट्टू, आवारा हो जाऊँगा, भरे समाज में बीवी की नाक काटूँगा, उसकी शान-शौकत और इज्जत की पीठ पर झाड़ मारूँगा “जो मैं पसंद नहीं करता, जिसे वह नहीं पसंद करेगी। फिर भला कैसे कह देती कि”

वह यह भी जानता है—मेरी बीवी पढ़ी-लिखी, समझदार है और कोई भी समझदार बीवी अपना, अपने घरवालों का अपने हाथों नुकसान कैसे कर सकती है? उनकी बदनामी कैसे सह सकती है? मुझे उसका पति जानकर मेरे साहब (गलत होते हुए भी) शायद उससे कहेंगे, 'हम चंदा समाज-सेवा के लिए देते हैं, किसी का घर चलाने के लिए नहीं।'

साहब की बीवी, चोट खाई पागल कुतिया की तरह, उसे काटने को दौड़ेगी। अपनी और मेरी बीवी की जान-पहचान के हर बँगले की बीवियों के सामने ज़ोर-ज़ोर से, फटी-फटी, भद्दी आवाज़ में भौंकेगी, 'यह चार सौ बीस है-इसे जेल भिजवाना चाहिए।'

मेरी बीवी आज जो कुछ अपनी इच्छा से करती है, शायद तब वही सब उसे अपनी अनिच्छा से करना पड़ेगा, क्योंकि समाज-सेवा के बिना उसका खाना ही हजम नहीं होता।

और वह यह भी जानता है—यदि मेरी बीवी बता ही दे कि मैं ही उसका पति-शौहर हूँ, तो अब विश्वास भी कौन करेगा? भला एक अदना नौकर, एक कुत्ते का (तब दोस्त नहीं) नौकर, इतनी सम्मानित समाज-सेविका महिला का शौहर कैसे हो सकता है? लोग हँसेंगे। क्यों न हँसें? यह भी कोई गंभीरता से सोचने, स्वीकार करने और विश्वास करने योग्य बात है? साहब क्या, मामूली से मामूली आदमी भी विश्वास नहीं करेगा। कहेगा, 'भाई, बड़ों के मज़ाक भी बड़े होते हैं। फिर वह विश्वास न करने योग्य सच्ची बात अपनी बड़ी ज़बान से कैसे कह दे? वह अपनी बात का वज़न जानती है

अब वह कुत्ता काफी समझदार हो गया है। जब भी मेरी बीवी आती है, कुत्ता संभवतः साहब के आदर में या मेरे परिचय की गहराई जाहिर करने के लिए सहानुभूति में, उसके पास चला जाता है। मेरी बीवी उसे गोद में बैठा लेती है और प्यार से आहिस्ता-आहिस्ता उसके सिर और पीठ पर अपना कोमल हाथ फिराती है तो मेरी पीठ और सिर के बालों में कुछ होने-सा लगता है। मुझे बुरा लगता है कि इस गोद में वह मेरे या अपने बच्चे, 'मुन्ना' को लेकर कभी इतना प्यार नहीं करती, जितना उस कुत्ते को करती है। फिर सोचता हूँ—होगा, वह मेरा या उसका और इंसान का बच्चा थोड़े ही है। वह मेरे साहब का बच्चे से भी अधिक प्यारा कुत्ता है। तब मुझे अपनी बीवी पर शायद गर्व अनुभव होने लगता है। लगता है, मेरी बीवी ने गर्व का सही-सही अहसास कराने के लिए मेरी हमेशा झुकी रहने वाली गर्दन सीधी करके और खींचकर साहब की छत से बाँध दी है। लेकिन, न जाने क्यों, उस रात घर जाकर मैं अपने मुन्ने को किसी न किसी असली या अकली बात के लिए पीटता अवश्य हूँ।


कुत्ता मेरी बीवी की गोद में चुपचाप बैठा ही नहीं रहता, मुँह उठाकर उसका मुँह, गाल, नाक, कान चाटने लगता है। जैसे जानना चाहता हो—मेरी और मेरी बीवी की त्वचा का स्वाद-गंध एक-सा ही है, एक-दूसरे में घुला-मिला और क्या वह सचमुच मेरी ही बीवी है? फिर न जाने क्या सोचकर चुपचाप, मुँह लटकाए, गंभीर मुद्रा में मेरे पास आ जाता है और अपने कान-पूँछ हिलाने लगता है।

मेरे मन में एक टीस-सी अनुभव होती है। इसलिए नहीं कि वह मेरी बीवी नहीं है, मेरी तो बीवी है ही, मेरे लिए इसमें संदेह या अविश्वास की कोई बात नहीं। टीस सिर्फ इसलिए होती है कि वह मेरा दोस्त और विश्वासपात्र होकर भी विश्वास नहीं करता।

मैं उदास मन से कुत्ते को समझाने लगता हूँ। न जाने क्यों, मुझे अपनी बीवी को भी बीवी कहने के लिए अपने उस दोस्त के सामने बार-बार यह कहना पडता है. 'सच मानो, वह मेरी बीवी है।’ लेकिन उसके चेहरे की गंभीरता नहीं हटती, मेरी उदासी दूर नहीं होती।

कुछ सोचकर कुत्ता मेरी बीवी के पास फिर चला जाता है। अगले पंजे सोफा-कुर्सी की बाँह पर रख लेता है और कुछ उचककर उसके कानों के पास कूँ-कूँ करता है, जैसे मेरी उदासी न सहकर, दोस्ती और प्रेम की फर्ज़-अदाई के लिए मेरी बीवी को 'भाभी' कहा हो और मुझे समझा रहा हो, 'बुरा न मानो दोस्त, मुझे तुम पर विश्वास है।' फिर लौट आता है। मैं बिना उसकी आँखों में झाँके प्रसन्नता के उन्माद में उसे अपनी बाँहों में भर लेता हूँ।

रोज़ मैं दफ्तर चला जाता हूँ, बीवी समाज-सेवा के लिए निकल जाती है। मुन्ना दिन-भर पड़ोसिन चाची के बच्चों के साथ उन्हीं के घर खेलता रहता है। पड़ोसिन चाची मेरी रिश्तेदार भी हैं।

कल सबह. तडके ही बीवी काम से जाने लगी तो मझसे कहती गई, "सुनते हो, दाल-चावल चढ़ा दिए हैं, उतारकर खा लेना, मुन्ना को खिला देना। मैं शाम तक लौट सकूँगी।"

मैं मुन्ना को चाची के घर छोडने गया तो चाची बोली, "बेटा, आज हम सब देहात जा रहे हैं। न हो, मुन्ना को साथ ही लेते जाओ।"

क्या करता? कपड़ों का पता नहीं कहाँ रखे थे? ढूँढ़ने में देर होती, फिर भी मिलते या न मिलते, इसलिए मुन्ना जैसे भी कपड़ों में था, उन्हीं में उसे ऑफिस लेता गया।

रास्ते-भर चाची पर भुनभुनाता गया—आखिर इन्हें भी आज ही देहात याद आया। जाना ही था, पहले बता देतीं, कम से कम मुन्ना को कपड़े तो पहना देता।

ऑफिस के पास चपरासियों की कोठरियाँ हैं। मुन्ना को इकन्नी रिश्वत देकर दीनू चपरासी के बच्चों के साथ खेलने को राजी कर लिया। संध्या साहब के घर जाना पड़ गया। मुन्ना को कहाँ छोड़ जाता? साथ ही लेता गया। मेरे वहाँ पहुँचने के कुछ ही देर बाद मेरी बीवी भी आ गई। मैं मुन्ना को किचन में छोड़, साहब के नाम का हौवा उसके अल्हड़ मस्तिष्क में बैठाकर, ड्राइंगरूम में चाय देने चला गया। कुत्ता अपना हक माँगने आ पहुँचा। साहब ने ट्रे में से दो बिस्कुट मुझे देते हुए कहा-“बाहर दे देना। ब्रोनी, गो अवे।"

साहब की बीवी बोल पड़ी, “अरे, ऐ क्या नाम है किचेन में बेबी का छोड़ा दूध रखा है, ब्रोनी को पिला देना।"

मैं कुत्ते के साथ आँगन में आ गया और उसे दूध पिलाने लगा।

मुन्ना आकर मेरी गोद में बैठ गया था। कुत्ता उसे ध्यान से घूरने लगा। मैंने एक हाथ मुन्ने के सिर पर, दूसरा कुत्ते के सिर पर फिराकर जैसे बता दिया—यह मेरा बेटा मुन्ना है। कुत्ता मुन्ने की ओर पंजा उठाने लगा, जैसे आशीर्वाद दे रहा हो या नमस्ते कर रहा हो। कुत्ता कुछ सनक गया था। वह मुन्ना को चाटने लगा। मुन्ना मेरी गोद में सिमटकर रुआँसा हो गया था। कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से कान-पूँछ हिलाने लगा, मानो पूरे विश्वास से कह रहा हो, 'दोस्त, मानो चाहे न मानो, यह बच्चा तुम्हारा नहीं।' फिर ड्राइंगरूम की ओर, जिसमें मेरी बीवी बैठी थी, मुँह उठाकर इशारा-सा करने लगा, 'और न वह औरत ही तुम्हारी बीवी है। किसी की त्वचा का स्वाद-गंध एक-सा नहीं।

मैंने उदासी दबाकर, बड़े प्यार से कुत्ते को समझाया, “भाई, मैं पूरा मर्द हूँ, वह औरत है और यह बच्चा। तीनों की अवस्थाएँ और श्रेणियाँ अलग-अलग हैं। फिर त्वचा का स्वाद-गंध एक-सा कैसे हो सकता है?”

कुत्ता कान-पूँछ हिलाने के साथ-साथ कूँ-कूँ भी करने लगा, जैसे डाँटकर और ज़ोर देकर कह रहा हो, "चुप, झूठे कहीं के! मेरी जीभ और नाक झूठी नहीं हो सकती। मुझे दुनिया में उन पर सबसे अधिक विश्वास है, तुमसे भी अधिक । मैं नहीं मान सकता कि"

मैंने बहत समझाया, कसमें खाईं, लेकिन उसके कान-पूंछ का हिलना बंद न हुआ।

उसी समय, असावधानी या घबराहट में मुन्ना का दायाँ पैर कुत्ते के दूध वाले तसले में गिर गया। कुत्ते ने पैर में दाँत गड़ा दिए, जैसे मेरी बात पर बिलकुल विश्वास न हो, मुन्ना का खून मेरे खून से मिलाना चाहता हो। मुझे लगा—मेरे पैर में दाँत गड़ गए हों। क्रोध में मेरी फुकार छूट गई, जैसे कहा हो, 'इतना विश्वास!' और उठकर दूध का तसला कुत्ते के सिर पर दे मारा। कुत्ता के-कें करने लगा। मुन्ना की ऐं-ऐं और बढ़ गई।

मुन्ने का चीखना, कुत्ते का चिल्लाना और तसले की फन-फन सुनकर आतंकित-से साहब, साहब की बीवी और उनके पीछे-पीछे मेरी बीवी आँगन में दौड़ आई। मुन्ना की नज़र अपनी माँ पर पड़ गई। मेरी बीवी ने भी मुन्ना को देख लिया था। वह चौंक पड़ी, जैसे कुत्ते ने अचानक भौंककर उसे काट खाया हो।

मेरी आँखें मुन्ना और मुन्ना की माँ पर थीं, लेकिन सुन्न हो गए मस्तिष्क के अँधेरे प्रकोष्ठ में भी जैसे दिखाई दे रहा था—'के-कें' करता साहब का कुत्ता, उससे भी तेज़ भौंकती हुई-सी साहब और उनकी बीवी की भद्दी भयानक आँखें, आँगन में फैला कुत्ते की लार से चिपचिपाता सफेद दूध।

मुन्ना दौड़कर अपनी मम्मी की टाँगों से लिपट गया था। मस्तिष्क की सुन्नता में भी मुझे अपनी बीवी कुछ कमज़ोर लगी और छोटी भी—साहब से, साहब की बीवी से, अपने से, मुन्ना से, और शायद कुत्ते से भी अधिक छोटी। लग रहा था, जैसे जन्मजात रोगिणी हो या समाज-सेवा के लिए अपना पंसेरियों खून दान देकर आई हो। एक बार फिर अपने को बीवी से छोटा अनुभव किया।

साहब को देखकर कुत्ते का भौंकना बंद हो गया था।

मुन्ने की दम सधी। वह और जोर से अपनी माँ से लिपट गया। हिचकियों के स्वर में बोला, “मम्मी, मम्मी कुत्ते ने काट लिया।"

साहब और साहब की बीवी, उस समाज-सेविका महिला को, मुन्ना की माँ या मेरी बीवी के रूप में पहचानकर चौंक पड़े। मुझे लगा—उनके पिटे-पिटे, सूजे चेहरे मेरी ओर घूर रहे हैं। साहब का चेहरा विकृत, अनपहचाना हो गया था। उन लोगों की आँखें अविश्वास, आश्चर्य, घृणा या क्रोध में बिना किसी कारण विशेष के, बेतरतीब फैलकर और अधिक डरावनी लग रही थीं।

मेरी बीवी ने मुन्ने को झकझोरा, दो चाँटे लगाए और ऊबकर उठाए रद्दी के टोकरे की तरह बाँहों से झिंझोड़कर कमर पर पटक लिया। वह बिना किसी की ओर देखे, होंठ चबाती-सी तेज़ी से दरवाज़े की ओर मुड़ गई।

साहब और साहब की बीवी की आँखें और भी अधिक फटकर दरवाजे की ओर घूम गईं, घूमी रहीं, जैसे छिटककर मेरी बीवी की पीठ पर जा गिरी हों और उसे धक्के देकर कह रही हों, 'निकल जा, निकल जा।’
मैं जड़वत् खड़ा रहा। संभवतः उस समय, सीधी खड़ी तराजू के ज़बरदस्ती हिला दिए गए पलड़ों की तरह, दिन-रात तेजी से घट-बढ़ रहे थे “सारी ऋतुएँ एक साथ, एक ही बिंदु पर सिमटकर निःशब्द, निरपेक्ष, तेज़ गति से, बड़े-से धब्बे के रूप में बदल गई थीं।

सहसा, पैरों पर गुनगुने, चिपचिपे, कोमल स्पर्श ने मुझे चौंका दिया। नीचे देखा—साहब का कुत्ता मेरे पैर चाट रहा था, जैसे सच्ची श्रद्धा और विश्वास के साथ कह रहा हो, 'माफ कर भाई, माफ करना दोस्त, मुझे पूरा विश्वास हो गया है—मुन्ना तुम्हारा ही बेटा है और वह औरत भी तुम्हारी ही बीवी है।'



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डीपीटी: देवी प्रसाद त्रिपाठी "वियोगी जी": साहित्य-जगत की एक बड़ी राजनीतिक शख़्सियत का अवसान — भूमिका द्विवेदी अश्क


DP Tripathi Dies, DP Tripathi, a big literary figure of politics, Senior NCP Leader Passes away

हाल ही में हिंदी को वर्तमान राजनीति में उसके सबसे बड़े साहित्यप्रेमी देवी प्रसाद त्रिपाठी के निधन का सामना करना पड़ा है.  प्रखर युवा कहानीकार भूमिका द्विवेदी अश्क के उनसे साहित्यिक व पारिवारिक सम्बन्ध रहे हैं, उन्हें याद करते हुए भूमिका ने डीपीटी का एक मार्मिक ख़ाका उकेरा है... स्व देवी प्रसाद त्रिपाठी जी को श्रद्धांजलि... भरत एस तिवारी

डीपीटी: देवी प्रसाद त्रिपाठी "वियोगी जी": साहित्य-जगत की एक बड़ी राजनीतिक शख़्सियत का अवसान

— भूमिका द्विवेदी अश्क


"जो तेरी बज़्म से निकला,
वो परीशाँ निकला..."

देवी प्रसाद त्रिपाठी यानी डीपीटी यानी इलाहाबाद के "वियोगी जी" यानी मेरे 'देवी चाचा'!!

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के वरिष्ठ नेता, कवि, संस्कृतिकर्मी और आम इलाहाबादी लोकप्रिय राजनेता डी पी त्रिपाठी का नये वर्ष के दूसरे ही दिन, गुरुवार 2 जनवरी, 2020 को राजधानी दिल्ली में लंबी बीमारी के बाद ये फ़ानी दुनिया छोड़ गये। वह 67 वर्ष के थे। वह कई सालों से कैंसर से जूझ रहे थे।

नीलाभ जी की पहली बरसी में रखी गई 'स्मृति सभा' का निमंत्रण पत्र जब जुलाई 2017 को मैं उन्हें देने गई थी, तब भी वो बहुत बुरे हाल मे थे। श्वास नली लगाये हुये, हाथ में मनोहर पर्रिकर सर जैसे ग्लूकोज़ की बोतल लिये उनको देखकर एकबारगी मैं सहम गई थी। इतना दुर्बल मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था।

कहीं बाहर निकलने को तैयार, जब अपने शयनकक्ष से निकलकर ड्रॉइंग-रूम में मेरे पास आकर बैठे, निमंत्रण-पत्र देखकर बोले, "तेईस तारीख़ को यही दिल्ली में रहूँगा...आई.आई.सी. भी नज़दीक ही है, मैं आ जाऊँगा.. तुम्हारे लिये कॉफी बनाने को कह दिया है.. जब तक पियोगी, मैं लौट आऊंगा.. बस एक साइन मारकर लौट आना है.. मुश्किल से दस मिनट लगेगा..."

"अगर कॉफी ख़त्म होने तक आप न आये, तो मैं चली जाऊंगी..." कहते कहते मैं और गंभीर हो गई।

"पक्का..." हाथ मिलाकर वो तेज़ कदमों से अपने सांसद आवास, डी 13 फ़िरोज़शाह रोड से बाहर निकल गये। ये वो दर था, जहाँ कोई भी उनसे कैसी भी मदद लेने दिन के चौबीस घण्टे जा सकता था। मैं भी हमेशा बिना इत्तिला दिये न जाने कितनी बार गई थी।

उस रोज़ मानसून सत्र की अनिवार्य उपस्थिति दर्ज करने वो मुझे डायनिंग-टेबल पर सख़्त हिदायतों के साथ बिठा कर गये थे। उन्होंने अपने हंसमुख किशोर कुक को भी कठोर आदेश दिया कि, "इस पण्डिताइन को कुछ न कुछ खिलाते-पिलाते रहना, वरना ये उठकर चली जायेगी... तुम तो इसका सुभाव जानते हो..."


उनकी कार की आवाज़ आते आते कॉफी का मग और उनकी एक बुज़ुर्ग नर्स मेरे सामने आ गई थी।

बताने लगी, "अपने चाचा को बदपरहेज़ी से रोकिये... ही इज़ इन अ क्रिटिकल मोड नाओ.."


"...आई विल ट्राई माय बेस्ट..." कहकर मैंने भी अपने ड्राइवर को आवाज़ दी।

मेरी कार अभी मंडी हाउस से कुछ कदम आगे बढ़ी ही थी कि मेरा मोबाइल फोन बजने लगा।

नाराज़गी स्पष्ट थी, ".... तुम इतनी ज़िद्दी लड़की हो, जिसकी कोई लिमिट ही नहीं.. कॉफी तक नहीं पी हो.. मैं कितना हड़बड़ाकर लौटा हूँ सदन से, तुम्हें क्या मालूम...?"

"मुझे नीलाभ जी याद आ रहे थे.. पिछली बार तो हम दोनों साथ आये थे आपके घर..." मैंने कुनमुनाते हुये अपने लौटने की वजह बताई।


"... और उसके भी पिछली बार, जब तुम्हारे हाथ में फ्रैक्चर था.. जब प्लास्टर समेत आईं थीं.. तब का कुछ याद नहीं आया.. कितनी तक़लीफ़ में थीं तुम.."

फिर हम दोनों फोन पर ही इतिहास के पन्ने पलटने लगे। अश्क साहब, माता कौशल्या जी, नीलाभ जी समेत मेरा पूरा मायका, मेरी लिखी कहानियां (तब तक मेरी कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई थी..), इलाहाबाद, जनेवि भी उन पन्नों में बार-बार फड़फड़ाता रहा।
बेशक मैंने नीलाभ जी से अपनी मर्ज़ी से, घर में बिना किसी को बताये शादी की थी। मैं तो दिल्ली पढ़ने आई थी। लेकिन देवी चाचा ही वो शख़्स थे जिन्होंने मायके के हर फ़र्ज़ बिना कहे ताउम्र निभाये।

जब उन्होंने मेरे हाथ टूटने की ख़बर सुनी, उस वक़्त भी उनका फोन आया, "क्या ये जो मीडिया में ख़बरें आ रहीं हैं... वो सब सच है...?"

मैं चुप रही।

वो फिर बोले, "कल सुबह गाड़ी भेज रहा हूँ घर आओ..."

मेरा प्लास्टर वाला हाथ देखकर वो बहुत ज़्यादा परेशान हुये, एक पिता जैसे, एक अभिभावक जैसे, एक हमदर्द जैसे, परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य जैसे।

उन्होंने तत्काल तत्कालीन महिला आयोग की अध्यक्षा को फोन लगाया।

नीलाभ जी भी आये।

सारा मामला वहीं उसी फ़िरोज़शाह रोड वाले मकान में चुटकियों में सँभाल लिया गया।

मैं अपने ताज़िन्दगी याद रखे जाने वाले अनुभवों के आधार पर कह सकती हूँ, देवी चाचा, मेरे सर पर एक पितृवत् वरद्हस्त थे।

कुछ समय पहले ही मालूम हुआ रिटायरमेण्ट के बाद वो फ़िरोज़शाह रोड वाला मकान छोड़कर, बसंत कुंज वाले फ्लैट में रहने लगे हैं। वहाँ भी बहुत बार तय हुआ मिलना, लेकिन मैं कभी जा नहीं सकी। महज एक बार १, केनिंग रोड (पंडित रवि शंकर मार्ग) जहाँ एनसीपी का दफ़्तर था, वहीं मिली। भारतीय ज्ञानपीठ से आये मेरे दूसरे उपन्यास (किराये का मकान) के प्रकाशन की ख़ुशी में वो मिठाई लिये बैठे थे।

 नीलाभ जी के बग़ैर अकेले, मेरा आना-जाना बेहद सीमित हो गया था। मेरा कहीं भी, जी नहीं लगता था।

हालांकि देवी चाचा मेरे जन्म से बहुत पूर्व भी मेरे संबंधी रहे।

घर के लोगों ने बताया, मेरा जन्म नब्बे के जिन प्राऱभिक वर्षों में हुआ, देवी चाचा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से विदा लेकर दिल्ली में एक स्थापित नेता हो चुके थे। मेरे जन्म का सुनकर दिल्ली से खिलौने वाली एक बैटरी से चलने वाली गुड़िया लेकर इलाहाबाद में नेता जी की 'लाल कोठी' (यानी मेरे पिता के आवास) आये थे। मुझ एक लगभग तीन माह की संतान को बहुत दुलार से देखते रहे, सिर पर आशीष भरा हाथ फेरते रहे, एक फांउटेन पेन भी मेरे बगल में रख गये। पता नहीं उन्हें क्या सूझा कि मेरे पितामह, जो कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में देवी चाचा के शिक्षक भी रहे, उनसे कह गये, "...कुछ बड़ा बनेगी ये.. देख लीजियेगा"।

उनके यूँ तो तीन बेटे हुये, लेकिन बेटी का चाव उन्हें सदा रहा।

कालान्तर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के अध्यापक नियुक्त होने पर मेरे कई सगे-संबंधियों को पढ़ाया भी।

बड़े प्यार दुलार और हड़क के साथ नीलाभ जी उलझ जाते थे, "परम आदरणीय नीलाभ भाईसाहब पूरी दुनिया में आपको यही एक लड़की मिली थी विवाह योग्य....?? अरे सर आप ही कहिये, जिसकी बरहीं छट्टी मेरे सामने हुई हो, जिसका जन्म मेरे सामने हुआ हो... पूरी दिल्ली में ये अकेली बिटिया थी, जो मुझे इतने स्नेह से 'देवी चाचा' पुकारती थी... उन्हें भाभी कैसे कहूँ... किस मुँह से कहूँ... और आप, साहित्य जगत के ख़ानदानी पुरोधा लोग..  अनगिन बार रहा हूँ आपके यहाँ.. न जाने क्या कितना खाया पिया होगाआपके दर पर... अब आपको दामाद कैसे कह दूँ...."

उस रोज़ देवी चाचा बहुत सुरूर में थे। हम लोगों को लौटने नहीं दे रहे थे। सोफे पर बैठे हुये नीलाभ के पास ज़मीन पर बैठ गये थे, ज़ोर ज़ोर से गा रहे थे, "अभी ना जाओ छोड़ कर, कि दिल अभी भरा नहीं..." कभी नीलाभ जी के घुटनों पर अपना सर टिका लेते, कभी गिलास लुढ़का देते। एक से बढ़कर एक जानदार शेर पर शेर उछाल रहे थे। हम लोग मुस्कुराते हुये कभी उन्हें, कभी एक दूसरे को देखते रहे।

हम सभी लोग आई आई सी डायनिंग-हॉल में सैकड़ों बार मिले। फ़ैज़ विशेषांक, "थिंक इण्डिया" के लोकार्पण समारोह में फ़ैज़ साहब की बेटी मुनीज़ा हाशमी से भी मुझे उन्होंने ही परिचित कराया। बोले, "ये भूमिका है, ग़ालिब की दीवानी, इलाहाबादी और जेएनयू-प्रॉडक्ट... मुनीज़ा जी कुछ नशा उतारिये इन मैडम का..."

हम लोग कई बार और भी देवी चाचा से मिलने उनके उसी घर गये। कभी अंग्रेजी के प्रोफेसर सचिन तिवारी सर से हाल लेने, कभी मेरे मायके से आये लोगों से मेरे लिये लाये गये मेरे पसंदीदा इलाहाबादी अमरूद या गजक या 'लकी स्वीट हाउस' के संदेश (बंगाली मिठाई) लेने। दरअसल ये सब दिल्ली में देवी चाचा के यहाँ ही ठहरते थे। लड़की के घर का पानी उन सबों के लिये हराम जो था। सभी परंपरा निभा रहे थे। जैसे वे ख़ुद कई सारी परिपाटियाँ एक साथ आगे बढ़ा रहे थे।

देवी प्रसाद त्रिपाठी सोलह साल की उम्र में ही राजनीति में शामिल हो गए और पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी के सहयोगियों में से एक बन गए। बाद में उन्होंने सोनिया गांधी के विरोध में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और वह 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। और इसी NCP के आजीवन महासचिव एवं मुख्य प्रवक्ता रहे। सबसे पहले वह पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के साथ जुड़े और उनकी राष्ट्रीय एकता यात्रा के आयोजकों में शामिल रहे लेकिन जल्दी ही वह उनसे भी अलग हो गए और राजीव गांधी के क़रीब पहुंच गए. इतना क़रीब कि एक ज़माने में कोई भी फ़ैसला लेने से पहले राजीव गांधी डीपीटी को ज़रूर याद करते थे. लेकिन डीपीटी और राजीव जी का साथ लंबे समय तक नहीं रह पाया।

वैसे तो वह शुरू से ही राजनीतिक प्राणी थे और पहले माकपा के छात्र संगठन एसएफआई और बाद में व्यापक वामपंथी छात्र एकता के हिमायती रहे लेकिन प्राध्यापकी छोड़ने के बाद उनकी सोच में भारी बदलाव हुआ. कई वर्षों तक वह नरसिंह राव के साथ रहे और दूर हुए तो कांग्रेस से इतने दूर चले गए कि विदेशी मूल के मसले पर डीपीटी शरद पवार और पीए संगमा के क़रीब पहुंचे। उन्हीं सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ खड़े हो गए जिनके साथ एक ज़माने में राजीव गांधी के चलते घर जैसी निकटता रही थी. आख़िर तक डीपीटी शरद पवार के ही साथ रहे और एनसीपी ने ही उन्हें राज्यसभा में भी भेजा।

दक्षिणी दिल्ली का लुटियन ज़ोन उन्हें डीपीटी के नाम से जानने लगा था.

सुल्तानपुर के बेहद ग्रामीण परिवेश में सन् 1952 में जन्मे और उसी माहौल में पले-बढ़े डी.पी.टी. का असली नाम भले ही देवी प्रसाद त्रिपाठी था. लेकिन कई परम प्रिय मित्रों ने उन्हें कई और भी नाम दे रखे थे, जैसे वियोगी जी, गुरु जी, आचार्य जी इत्यादि।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के बाद वह जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू ) में पढ़े और वहां के बहुचर्चित छात्र संघ अध्यक्ष भी बने. जेएनयू से पढाई पूरी करने के बाद डीपीटी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में प्राध्यापक भी रहे. लेकिन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की प्राध्यापकी उन्हें अधिक रास नहीं आई और जल्दी ही उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी थी.

एक मज़ेदार ज़माना यह भी रहा, कि जिस मशहूर डीपीटी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने छात्र संघ के चुनाव में यूनियन के सबसे निचले पद प्रकाशन मंत्री के लिए कभी हराया था वही शख्स एक दिन जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष बन गया और कालान्तर में देश के सबसे शक्तिशाली राजनीतिक दल को छोड़ नया दल सृजित किया।

उन्होंने 'थिंक इण्डिया' नामक त्रैमासिक पत्रिका सहित "भारत और ताइवान', 'सेलिब्रेटिंग फ़ैज़', 'भारतीय अर्थव्यवस्था', 'संक्रमण में नेपाल' एवं 'भारत चीन संबंध' का कुशल सम्पादन कार्य भी किया।

देवी प्रसाद त्रिपाठी भारत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अतिरिक्त कुछेक विदेशी भाषाएँ भी जानते थे।

डीपीटी में अद्भुत प्रतिभाएं थीं. वह एक साथ कम से कम हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, उर्दू, बांग्ला और कुछ दक्षिण भारतीय भाषाएं धारा प्रवाह बोल सकते थे. उनकी एक आंख क़रीब-क़रीब समाप्त थी लेकिन एक आंख से ही किसी भी पुस्तक को तेज़ गति से मिनटों में पढ़ कर पूरा कर देने में उन्हें महारत हासिल थी।

देवी त्रिपाठी जी का इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लगभग सभी उन छात्रों से अजीब किस्म की मित्रता का भी एक गहरा रिश्ता था, जो दिल्ली में आने के बाद तक यथावत बना रहा. उन्होंने नये लड़कों की हरसंभव, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, पत्रकारिता संबंधित सहायता लगातार की। कभी अहम आड़े नहीं आया। ग़ुरूर, घमंड, सस्ती राजनीति का दोगलापन कभी उन्हें छू भी ना सका।

 ख़ालिस उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर की पैदाइश डीपीटी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव भी रहे थे। उनकी कविताभी उनके मित्रों, परिचितों, सहपाठियों के बीच लोकप्रिय रहीं। यही वजह थी कि 1971/72 में इलाहाबाद से प्रकाशित कविता-संग्रह ‘प्रारूप’ में दिनेश कुमार शुक्ल, कमलाकांत त्रिपाठी आदि कवियों के साथ देवी प्रसाद त्रिपाठी की कविताएँ भी संकलित हुई थीं।

इलाहाबाद से वे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए आये लोकप्रिय नेता 1973 में एस.एफ.आई. की ओर से जवाहरलाल विश्वविद्यालय में डंके की चोट पर छात्र-संघ के अध्यक्ष बने।  मीसा ऐक्ट के तहत त्रिपाठी जी की पहली बार 1975 में आपातकाल के दौरान गिरफ़्तारी भी इसी दौरान हुई और इसके चलते उनकीलोकप्रियता में स्वाभाविक इजाफा भी देखा गया।

उनकी तमाम विशिष्टताओं में एक लाजवाब याद्दाश्त भी थी. एक बार कोई भी किताब पढ़ने के बाद उसमें लिखी बातों की समीक्षा पेज नंबर तक बताते हुए कर लेते थे. विदेश नीति, कूटनीति, राजनीति से लेकर समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र तक, साहित्य से लेकर समस्त ललित कला तक की लगभग हर विधाओं साहित्यिक विषयों, कृतियों तथा रचनाकारों पर पूरे अधिकार के साथ बोलते थे,

और देश दुनिया की हलचलों तक पर वह समान अधिकार से बहसें करते थे, उन पर लंबे भाषण देते थे। ये एक ग़ैर मामूली बात थी कि त्रिपाठी जी हर एक अनछुये विषय पर यहाँ तक कि मोहम्मद साहब की जन्मतिथि

 पर जेएनयू में आयोजित प्रोग्राम में लाजवाब व्याख्यान पेश कर दिया करते थे। जिन क़ुरान की आयतों को बड़े बड़े इस्लामिक ज्ञानी भी इतनी सहजता से ये नहीं समझा सकते जिस तरह वे अरब के समाज में सामाजिक न्याय के क्षेत्र में, महिलाओं के अधिकार और क़बीलाई संस्कृति में पैग़म्बर के क्रांतिकारी योगदान के लिए उस वक़्त समझाने के लिए मक़बूल हुये थे।

 फ़िरोज़ शाह रोड का उनका आवास एक छोटी सी लाइब्रेरी में तब्दील हो गया था, पूरा गलियारे में किताबें करीने से सजी थीं, अब वहाँ नये सांसद का निवास हो गया है। लेकिन एक स्कॉलर एक लोकप्रिय नेता हरदिल अज़ीज़ विद्वान की ऐतिहासिक जीवनी का गवाह आज भी बना हुआ है।

त्रिपाठी जी के भूतपूर्व निवास से, उनके कैनिंग रोड दफ्तर तक, यहाँ तक की अंतिम सफ़र में लोदी रोड शमशान घाट तक उन्हें अनगिनत लोग विदाई देने आये।

 एनसीपी के तमाम बड़े नेता शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल से लेकर, वर्तमान रक्षामंत्री रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, सी.पी.आई. के डी राजा, दिनेश, सी.पी.एम. की वृंदा करात, कांग्रेस के संदीप दी़क्षित, आसिफ़ मोहम्मद खान शरद यादव तक भी पहुँचे थे।  उनके क़रीबी मित्रों में इलाहाबाद से लेकर जेएनयू के साथी, मीडिया जगत, साहित्यिक क्षेत्र सामाजिक कार्यकर्ता सभी तो विदा करने को एनसीपी दफ़्तर केनिंग रोड तक लगातार मौजूद रहे।

मेरे घर-ख़ानदान, बामन्ह-कुनबे में देवी चाचा, एकलौते व्यक्ति थे जिन्हें मेरा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाख़िला लेना पसंद आया था। बाक़ी सब तो ऐसा रियेक्ट कर रहे थे, गोया मुझसे कोई जघन्य पाप हो गया हो।

27 दिसम्बर 2019 को किसी घरेलू मामले में मैंने उन्हें फोन लगाया था। मालूम हुआ वो अस्पताल में भर्ती हैं। बहुत धीमी आवाज़ में बोले, "...गुड़िया अगले हफ्ते घर पंहुचकर कॉल करता हूँ।"

मैंने पूछा भी था, "...चिंता की कोई बाततो नहीं..."

"कैसी बात करती हो, क्या देवी चाचा को पहचानती नहीं..." वो धीमी से हंस दिये।

अगले हफ्ते ज़िन्दगी में ऐसा पहली बार हुआ जब पलटकर उनका फोन आया ही नहीं। जो कि अब कभी नहीं आयेगा....


"जाने वाला चला गया
ये दर, ये गलियाँ छोड़कर
याद करने वाले अब
उम्र भर रोया करें..."



भूमिका द्विवेदी अश्क,
नई दिल्ली
9910172903.

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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दुःख या सुख कई जगहों से आता रहता है और जाता भी रहता है - शर्मिला बोहरा जालान



दुःख या सुख कई जगहों से आता रहता है और जाता भी रहता है - शर्मिला बोहरा जालान

समीक्षा: जयशंकर की प्रतिनिधि कहानियां

दुःख या सुख कई जगहों से आता रहता है और जाता भी रहता है। यह सब कुछ बहुस्तरीय चेतना से होता है जिन्हें मैं इन कहानियों में हर बार नए ढंग से पढ़ और समझ पाती हूँ। इन कहानियों के पात्र खूब आत्म मंथन आत्म विश्लेषण करते हुए , सोचते हुए पात्र हैं  और इस तरह ये कभी रूसी लेखकों की याद दिलाते हैं तो कभी  साठ के दशक के असाधारण लेखक अशोक सेकसरिया की कहानियों की...

अनामिका के उपन्यास 'आईना साज़' का अंश | Excerpt from Anamika's Hindi Novel 'Aaiinaa Saaz'


'आईना साज़' — अनामिका — उपन्यास अंश


ज़रूरी है कि दुनिया की सारी ज़ुबानों के शब्द मुल्कों और मज़हबों के बीच की सरहदें मिटाते हुए सूफ़ी जत्थों की तरह आपस में दुआ-सलाम करते दिखाई दें। आसमान में सात चाँद एक साथ ही मुस्कुराएँ।


अनामिका दीदी, जिस-जिस क्षेत्र में हैं इंसान के रूप में सर्वोत्तम हैं. उनके साथ ह० निजामुद्दीन औलिया और अमीर ख़ुसरो की दरगाहों पर दो-तीन दफ़ा जाना हुआ है और कैसे ईश्वर से एक होते हैं, यह उनमें देखता रह जाता हूँ. एक बार सालाना गुसल की शाम में जीजाजी (डॉ अमिताभ-जी) भी साथ थे .

एक क़िस्सा याद आता है: मैं उनके साकेत वाले घर के ड्राइंगरूम में बैठा था. घंटी बजती है, जीजाजी ऑफिस से वापस आते हैं. उनसे छोटी ही मुलाक़ात है सो वो नहीं ही पहचानते थे. दीदी ने उन्हें याद दिलाया...फ़लाने हैं आपसे निज़ामुद्दीन की दरगाह में मिले थे! उनके चेहरे पर अजीब से भाव आते हैं. खैर मैंने दीदी-सब से नमस्ते की और वहाँ से निकल आया. बाद में दीदी ने फ़ोन किया और बोलीं, "तुम्हारे जीजा जी ने समझा कि तुम किसी दरगाह से आये हो..जाने कौन हो और कैसे उनके घर की बैठक में हो और क्या कर रहे हो"... फ़ोन पर ही हम भाई-बहन के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ गए.

अनामिकाजी के नए उपन्यास 'आईना साज़' का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेले में 11 जनवरी 2020 को, प्रकाशक 'राजकमल प्रकाशन'  के  'जलसाघर' (हाल 12A) में होना है. आइये 'आईना साज़' का एक अंश पढ़ते हैं और हिंदी कविता की प्रिय कवि की भाषा और किस्सागोई के कमाल की झलक उनके पहले पहले उपन्यास में महसूस करते हैं.

बहुत बहुत बधाई अनामिका जी को और उपन्यास को प्रकाशित करने का राजकमल प्रकाशन को  शुक्रिया.

भरत एस तिवारी

Chhapaak Review: छपाक से देखो | #छपाक_से_देखो #Chhapaak


Chhapaak Review: छपाक से देखो  

छपाक हर उस युवती की फिल्म है जिसने कुछ कर दिखाने का सपना देखा है


Chhapaak Review: दीपिका और मेघना की जुगलबंदी ने किया कमाल, तपाक से देख आइए छपाक

साभार अमर उजाला छपाक का रिव्यु 


कलाकार: दीपिका पादुकोण, विक्रांत मैसी, मधुरजीत, अंकित बिष्ट आदि
निर्देशक: मेघना गुलजार
निर्माता: फॉक्स स्टार स्टूडियोज, दीपिका पादुकोण, गोविंद सिंह संधू और मेघना गुलजार

दिल्ली, इन्द्रप्रस्थ से शाहजहांबाद तक ― नलिन चौहान | Delhi, Indraprastha se Shahjahanbad tak ― Nalin Chauhan



दिल्ली, इन्द्रप्रस्थ से शाहजहांबाद तक

— नलिन चौहान

दिल्ली हिंदुस्तान की राजधानी है। यह अकेला ऐसा शहर है, जिसका इतिहास देश के इतिहास से गुंथा हुआ है। इस शहर की पहचान यानि उसके नामों को लेकर कई ऐतिहासिक मत हैं। समय की धारा में इस शहर के अनेक पर्यायी नाम प्रचलन में रहे हैं। पर इस बात में कोई दो राय नहीं कि सबसे अधिक प्रसिद्व नाम दिल्ली ही है।

जेनयु हिंसा: नए दुश्मन तलाशती सर्वनाशी राजनीति — प्रताप भानु मेहता


जेनयु  हिंसा: नए दुश्मन तलाशती सर्वनाशी राजनीति

— प्रताप भानु मेहता

प्रताप भानु मेहता

यह तिहरे अर्थ में सर्वनाशी है. मीडिया के सहयोग से गृह मंत्री के बढ़ावे से “टुकड़े टुकड़े गैंग” मुहावरे का सामान्यिकरण किये जाने ने, बहसों में इस तरह की हिंसा की ज़मीन तैयार की. 

प्रताप भानु मेहता के वैज्ञानिक राजनीतिक विश्लेष्ण तथ्यपरक होते हैं. आज के इंडियन एक्सस्प्रेस का उनका लेख "JNU violence reflects an apocalyptic politics driven by a constant need to find new enemies" पढ़ने के बाद लगा कि यदि यह हिंदी में भी हो तो बेहतर होगा, यदि अनुवाद में त्रुटी हो तो अवश्य बताएं .

भरत एस तिवारी

(अनुवादक)


देशज भाषा सबल कहानी — दूसरी भग्गो — विनीता शुक्ला | Aanchalik Bhasha Kahani in Hindi


विनीता शुक्ला जी को पहली दफ़ा पढ़ा है. पढ़कर इस बात की ख़ुशी है कि देशज भाषा का सुन्दर प्रयोग करते हए लिखी गयी सबल कहानी पढ़ने का आनंद मिला.

भरत एस तिवारी


दूसरी भग्गो 

—  विनीता शुक्ला


सुमेर मिसिर हिचकते हुए, उस दहलीज़ तक आ पहुंचे थे, जहाँ कभी आने की, सोच भी नहीं सकते थे। क्या करते? चाचाजी का आदेश था...आना ही पड़ा। उन्हें दरवाजे पर खड़ा पाकर, रमेंद्र सुकुल दौड़े चले आये, “ अरे भगत! कब आये? कबसे खड़े रहे? आवाज नहीं दे सकत रहे...सांकल ही खटका दिए होते।” “कोई बात नहीं साढू भाई...आप काम में लगे रहे, सो हम बाधा नहीं डाले” यह सुनकर, सुकुल संकोच से भर गये। वे तो अपने छोटे सुपुत्र के कान उमेठ रहे थे; संभवतः मिसिर ने वही देखा होगा। खींसे निपोरते हुए कह उठे, “खिंचाई काहे करित हो, ई त राजकाज हय...चलत ही रहत हय।” “काहे नाहीं! आप राजा और छुटका आपकी परजा!” “छोड़ो भी महराज...आपन कहो...आप तो दरसन के लिए तरसा दिए। हम ठहरे मूढ़मति। आपकी संगत में हमहूँ, थोड़ी भगतई सीख लेत!” रमेंद्र ने झेंपते हुए बात को मोड़ा, “और कहिये, गरीबन के घर का रस्ता, कइसे भूल गये?”

उनके बोलने के ढंग ने, सुमेर को भी संकुचित कर दिया था। बोले, ‘आप तो शर्मिंदा करित हो...चाचाजी सोनू-मोनू के जनेऊ का न्यौता भेजे हैं।” कहते हुए उन्होंने, सत्येन्द्र भैया के जुड़वां बेटों के, यज्ञोपवीत का आमन्त्रण-पत्र निकाला और सुकुल को थमा दिया। सोनू-मोनू ने, हाल में ही, अपनी आठवीं वर्षगांठ मनाई थी। उसी के बाद से, रमेंद्र सुकुल का मुंह फूला हुआ था। नातेदारी में कहते फिरते, “हद है! इतना बड़ा कारज हुआ। हजारों लोगन की खवाई-पियाई...गली के आवारा कुत्ते भी आकर जीम गये...घर ही के मनई का, कोउ न पूछिस” रमेंद्र की नाराजगी दूर करने, सुमेर चले आये थे। सुमेर को बैठने के लिए, जर्जर सी कुर्सी दी गयी। उसके ऊल-चूल हिल रहे थे। वहीं बरामदे में, एक खटिया भी पड़ी थी। सुकुल जी उस पर विराजमान हो गये। उनके बैठते ही, वह चरमरा उठी। सुमेर को रमेंद्र की हालत पर तरस आने लगा। वे सोच में पड़ गये। रिश्तेदारी निभानी थी...नहीं तो दूरदराज के इस कस्बे का रास्ता, क्यों नापते? उन्हें पास के शहर तक, सरकारी काम से आना था। परिवार में और किसी को फुर्सत नहीं थी; लिहाजा उन्हें ही, ठेलकर यहाँ भेजा गया।

यह मजबूरी तो बस कहने की थी, असल मजबूरी तो दूसरी ही थी, जिसके तहत...! सहसा किसी कर्कश आवाज ने, उनका विचार-क्रम भंग कर दिया। उजड्ड...सत्यानासी! अब का तोड़ दिहिस?! ई लरिका, सिरिफ बवंडर मचा सकित हय...हमरी तो किस्मत ही फूट गयी।” रमेंद्र अब और भी अधिक झेंप गये थे। उन्होंने प्रतिकार किया, “ई का तरीका है? मेहमान आये बइठ हंइ; फिरौं कच-कच बंद नांय भई। ना चाय का आसरा न पानी का...जेका आपन होस नाहीं, ऊ दुसरे का खियाल कइस करी?” मेहमान का जिक्र सुनते ही, ‘गृहलक्ष्मी’ के कान खड़े हो गए। वह झट बाहर चली आई। उसे देख भगत, मानों जमीन में ही गड़ गये। अस्त-व्यस्त वेशभूषा, बिखरी हुई रूखी लटें, कमर में खुंसा पल्ला...जैसे कोई युद्ध लड़ने जा रही हो! उसने उड़ती हुई नजरों से उन्हें देखा। देखने पर, उन नजरों में, कुछ कौंधा जरूर...किन्तु दूसरे ही पल, वह कौंध मंद पड़कर, अपरिचय में ढल गयी! सुमेर का दिल डूबने लगा! धीरे-धीरे पुराने परिचित, अजनबी बनते जा रहे थे...ठीक भगवती की तरह। समय कुलांचें भर रहा था और लोग पीछे छूटते जा रहे थे। समय के इस खेल ने तो उनका हुलिया ही बदल डाला। सात बरस पहले, उनकी ऐसी घनी दाढ़ी और मूंछ नहीं थी...रामनामी अंगौछा और रुद्राक्ष की माला भी कहाँ थे!

इसी हुलिए को देखकर, रमेंद्र उन्हें भगत बुलाते हैं। रमेंद्र सुकुल तो उनसे मिलते ही रहते हैं...अक्सर वे उनके शहर आते हैं। वहां अपनी दुकान के लिए, चीजें खरीदते हैं; पर भगवती, पूरे सात साल बाद दिखाई पड़ी। क्या वास्तव में भगवती उन्हें पहचान न सकी...या फिर! हो सकता था, वह उनको, ठीक से देख नहीं पाई...तभी तो! “ऐ जी...” इस बार भगवती, पानी का लोटा और पेठे से भरी कटोरी लिए खड़ी थी। उसने सर पर पल्ला कर रखा था। उसका स्वर भी धीमा था। रमेंद्र आगे बढ़े। उन्होंने तिपाई खींचकर, मिसिर के आगे रखी और पत्नी के हाथ का सामान, उस पर जमा दिया। मिसिर को जोरों से प्यास लगी थी। गट-गट करके, लोटे का पूरा पानी डकार गये। रमेंद्र के इसरार पर, एकाध पेठा भी चबा लिया। कुछ देर इधर-उधर की बातें चलीं। सुमेर उठने को हुए तो रमेंद्र ने रोक दिया, “अरे महराज, किधर जात हो? भोजन का समय, हुइन गवा।”

“हमें आज्ञा दें...देर हो जाएगी” भगत ने हाथ जोड़ दिए। “काहे भाई? पहिली बार आये हो...खाना त खांय का परी” “लेकिन...” “लेकिन-वेकिन कछू नाहीं” कहते हुए वे, कमरे के भीतर चले गये। दो मिनटों में बाहर भी आ गये; बुदबुदाकर कह उठे, “ई छुटका त बहुतै उत्पाती हय। उत्पात करत-करत सोइ गवा...” फिर जमीन पर दरी बिछाते हुए, सुमेर से बोले, “आलू-टिमाटर की तरकारी अही...अम्बिया, गुड़ की चटनी...गर्म-गर्म पूरी उतारके लाय रही हैं” मिसिर समझ गये कि विरोध करने से कोई लाभ न था। सुकुल महराज मस्ती में, कोई आंचलिक गीत गाने लगे थे। वे हैण्डपम्प से, बाल्टी में पानी भर लाये। फिर भीतर से, मिर्ची-प्याज-नींबू लाकर, काटने लगे। इस बीच भगवती, खाने की व्यवस्था करने लगी। सीमित साधनों में भी वे, अतिथि का, यथायोग्य सत्कार कर रहे थे। व्यंजनों में, भगवती के हाथों का, वही पुराना जादू था। पेट-पूजा ख़तम होने को आई। भगवती हाथ धुलाने के लिए, दीवार से टिककर खड़ी थी; आँखें शून्य में, टिकी थीं...अनिद्रा से सूजी हुई, थकी-थकी, काले घेरों वाली आँखें! ये आँखें पहले कितनी सुंदर हुआ करती थीं!

किसी कपोती की तरह भगवती, उन्हें नचाती, मटकाती और उनसे पूछ बैठती, “आ गये छोटे जीजा! सहर से हमरे लिए का लाये?” सुमेर कुछ न कुछ, उसके लिए जरूर ले जाते; मालूम था कि ऐसा न किया तो वह उनका सर खा जायेगी। एक बार तो पॉपकॉर्न का पैकेट और लेमनचूस, उसे थमा दिया। वह छूटते ही बोल पड़ी, “ई का...जनावर का चबेना और कम्पट? हम तोहसे बोले रहे ना...हमका सुनहरा रिबन अउर डिजाइनर टिकुली चही” वह तब बेतरह खीज गया था। बोला, “आपन बड़के जीजा और जीजी से बोलो...उहै देबे करिहैं। अत्ते महंग आइटम...ऊ भी औरतन के...हम काहे खरीदी? नाक कटांय का है?? “कुछ और लेहौ भगत?” सोच में डूबे पाहुन से, रमेंद्र ने प्रश्न किया। इस प्रश्न ने भगवती और सुमेर, दोनों के अनमनेपन को, तोड़ दिया। “नाहीं...” भगत ने उठते हुए कहा। रमेंद्र ने भगवती को इशारा किया। वह बाल्टी और मग लाकर, हाथ धुलवाने लगी। फिर एक बार, सुमेर ने, उसे चोर निगाहों से देखा।

पल्ले का फटा हिस्सा, वह कांख में दबाकर, छुपाये हुई थी। उनका मन जोरों से कसकने लगा। यह संयोग ही था कि उससे लम्बे समय बाद मिलना हुआ। मायके से अलग-थलग, वह इस सुदूर कस्बे में पड़ी थी। कहीं आना न जाना। अपने ही माँ-बाप उसे बुलाना नहीं चाहते; यदि बुलाते भी हैं तो बहुत मजबूरी में। जाने पर ऊपरी मन से स्वागत करते हैं। वह उनकी नजरों से उतर जो चुकी है। बच्चों में ऐसी उलझी रहती है कि और कहीं जाना हो नहीं पाता। मिसिर ने कल्पना तक नहीं की थी कि इतने साल बाद, इस तरह...इस दशा में उसे देखेंगे! उनके आराम के लिए, रमेंद्र ने दरी के ऊपर गद्दा बिछा दिया था। पुराना सा मसनद भी उस पर लगा दिया। मिसिर ने प्रतिवाद नहीं किया। वे खुद भी आलस में थे और यात्रा से थक गये थे। भोजन के बाद शरीर ढीला पड़ गया। सरकारी काम पहले ही निपटाकर यहाँ आये थे; सो उसकी भी जल्दी नहीं थी।

गद्दे पर लेटते ही, पुनः चिंतन-प्रक्रिया चल निकली। तीन बच्चों की माँ, यह दलिद्दर से जूझती हुई औरत, कभी जिजीविषा से भरपूर थी। १४ बरस की उमर से ही, बड़ी-बड़ी बातें किया करती, “छोटे जीजा...हमका बहुत पढ़ैं का है। तुम्हरी तरह पहिले बी।ए। करिहैं, फिर एल।टी।, ओहिकै बाद टीचर बन जैहें। “पगली...ई बड़ी-बड़ी डिग्रियन के बारे मां, तोका को बताइस? कउन तोसे कहिस कि हम बी।ए। कइ रहे हैं? हम त बी।कॉम। करत रहे” २० वर्षीय सुमेर ने, भगवती उर्फ़ भग्गो को स्नेह से झिड़क दिया था लेकिन उसकी सयानों जैसी सोच से, उन्हें अचंभा जरूर होता। भग्गो का मानना था कि उसकी बड़ी और छुटकी जीजियों का विवाह, आठवीं पास करते ही हो गया। वह अपने साथ ऐसा नहीं होने देगी। अध्यापिका मौली दीदी, उसकी आदर्श थीं। उनका गरिमामय व्यक्तित्व, उसे आकर्षित करता। मौली दी सब लड़कियों को समझातीं कि उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होना है। छोटी उम्र में शादी, शादी नहीं...बरबादी है। भगवती उनके चचेरे भाई, सत्येन्द्र की साली थी। सत्येन्द्र भैया ने बारहवीं के बाद, पुलिस की नौकरी कर ली। तब उनका ब्याह, फूलवती से हो गया। फूलवती के प्यार का नाम फूलो था। फूलो भाभी के साथ ही, भग्गो का, सुमेर के जीवन में प्रवेश हुआ। सुमेर तब पढ़ाई के सिलसिले में, सत्येन्द्र भाई के साथ ही रहते थे।

भगवती तेल से चुपड़ी हुई, दो एंटीने जैसी चोटियाँ बनाती थी। उसकी उटंगी-सी सलवार के ऊपर, चोली जैसी कुर्ती रहती। उसे देख, सुमेर को हंसने का मन होता; पर भाभी का लिहाज कर, वह अपनी हँसी जब्त कर लेते। तब भगवती तेरह बरस की थी और सुमेर उन्नीस के। भाभी को उनके मायके ईसपुर छोड़ना और मायके से लाना, सुमेर का काम था। इसी क्रम में भग्गो से टकराना, होता ही रहता। भग्गो के लिए, छोटे जीजा, किसी हीरो से कम ना थे। फटफटिया चलाते हुए, वह बड़े होशियार लगते। उनसे शहर के बारे में, गाँव से बाहर की दुनियां बारे में सुनना, रुचिकर लगता। सुमेर अक्सर, भाभी के हाथ के बने हुए लड्डू और मठरियां, भगवती के लिए लेकर आते। भाभी उन्हें कुछ रुपये भी पकड़ा देतीं--उनका मेहनताना! वे रुपए रास्ते में, कोल्डड्रिंक और जूस पीने के काम आते। कुछ तो, भग्गो के नजराने में, चुक जाते। ईसपुर में खूब स्वागत होता...और भगवती संग मीठी-मीठी बातें भी। लौटते हुए, उन्हें ‘देसी’ उपहारों से लाद दिया जाता-भुनी हुई शकरकंदी, भुट्टे, ईख, गुड़ की भेलियाँ, सत्तू, सरसों का तेल वगैरह-वगैरह। कुछ तो वह बाइक की पिछली वाली सीट से बाँध लेते, कुछ को डिग्गी में फिट कर लेते और कुछ पिट्ठू-बैग में भर देते। भगवती हाथ हिलाकर विदा करती... फटफटिया के ओझल हो जाने तक। मोह-सा हो गया, इस बालिका से। उनके लिए वह बच्चा ही बनी रही, जब तक कि...!

इतने में शोर सुनाई पड़ा और मिसिर फिर वर्तमान में लौट आये। उन्होंने अधखुली आँखों से देखा। सुकुल के दोनों बड़े लड़के, खेलकूद कर, कहीं से आये थे। उन्हें देखते ही, सुकुल का पारा चढ़ गया। नाक बहाते और धूल में सने हुए, वे घुसे चले आ रहे थे। रमेंद्र ने पहले तो उन्हें, एक-एक चपत लगाई फिर कोसना शुरू किया, “तनिकौ बुद्धि नाहीं, आवारा अस घूमत–फिरत हैं...कितनौ सिखा लेई, सहूर नाहिं आइ सकित।” इतने में छुटका भी जाग गया। तीनों बालकों के रोने-चिल्लाने से, माहौल बिगड़ गया था। भगवती ने किसी तरह, उन्हें पेठा देकर बहलाया और फिर सुकुल ने डपटकर, उन सबों को, हैंडपंप से नहला दिया। सुमेर आँख मूंदकर लेटे रहना चाहते थे; किन्तु उस ‘महाभारत’ के चलते, यह न हो सका। वे बैठकर तमाशा देखते रहे।

भगवती की कुगत पर, उन्हें अफ़सोस हो रहा था। सात बरसों में छह, साढ़े चार और ढाई साल के तीन-तीन बच्चे! तीनों एक बड़े थाल से, खाना खा रहे थे। फिलहाल शांति थी। रमेंद्र ने सुमेर से कहा, “भगत...सहर की बस का टैम होंय वाला है...हम तांगा ले आइत है’ “अरे नाहीं...आप तकलीफ ना करो...हम चले जइबे” लेकिन रमेंद्र नहीं मानें। वे एक डिबिया में सौंफ, सुपारी और इलायची भर ले आये, जिसे उन्होंने भगत की सेवा में पेश किया। तीनों बच्चे आकर खड़े हो गये थे। बस का किराया छोड़कर, जितने भी नोट बचे थे, मिसिर ने बालकों को पकड़ा दिए। इतना पैसा देखकर, सुकुल की आँखें चौड़ी हो गयीं। उन्होंने हल्की-सी आपत्ति दर्ज की किन्तु उनके चेहरे से स्पष्ट था कि वह पैसा मिलने पर, अति प्रसन्न थे।

जैसे ही सुकुल तांगा लेने बाहर गये, भग्गो झट दालान में आ गई। उसने मिसिर को गहरी दृष्टि से, घूरकर देखा। पल भर को, सुमेर की आत्मा काँप उठी! तत्क्षण वे समझ गये कि भगवती, जानकर अनजान बनी हुई थी; पहचान तो वह उन्हें, पहले ही गयी थी! बस में बैठे हुए, यादें करवटें लेने लगीं। वह भगवती को, वक्त की उस दहलीज पर छोड़ आये थे, जहाँ आज उनकी मेघना खड़ी थी...उनकी अपनी बहन मेघना! वयःसंधि की वह देहरी, जिसे पार करते ही, जीवन में नये रंग भर जाते हैं...देह और मन भ्रमित होने लगते हैं...वह नादान उमर बहका भी सकती है। सुमेर की पत्नी मालिनी भी यह सोचकर, डरी हुई थी; इसी से, ननद पर सख्ती करने लगी। वह उसे आधुनिक पहनावे से दूर रखती। सुमेर भी परोक्ष रूप से, पत्नी का समर्थन करते थे। बिन माँ-बाप की मेघना, आखिर उनकी जिम्मेदारी थी। एक दिन मालिनी ने मेघना को, छोटे कपड़ों में, आईने को ताकते हुए पाया। कठोरता से पूछने पर, सच्चाई सामने आ गई। वह ड्रेस मेघना को, उसके दोस्त निशांत ने, तोहफे में दी थी। मेघना ने उनको, एक बड़ा झटका दिया था...और भगवती...वह भी तो...!

भग्गो उनके लिए शायद...एक छोटा सा, प्यारा सा टेडी-बेयर थी...बोलती हुई गुड़िया; लेकिन उनकी यह स्नेह-भावना, बदलकर, कुछ और ही हो गई! भगवती अपने पन्द्रहवें जन्मदिन पर, भाभी का दिया हुआ लहंगा पहनकर बैठी थी। काजल की क्षीर्ण रेखा...छोटी सी बिंदी, बिखरी हुई जुल्फें! पहली बार उसके रूप में, नवयौवन का आकर्षण था। सुमेर ने, उसे दूसरी नजरों से देखना शुरू कर दिया। उनका भटका हुआ मन, उसको भी बरगलाने लगा। वे अपनी टैब पर, रूमानी गाने, डाउनलोड कर लाते और उसे भगवती को पकड़ा देते। कभी चुपके से उसे, दिल के आकार की चॉकलेट थमा देते या फिर लाली-लिपस्टिक। भग्गो के दिल में भी सुमेर को देखकर, गुदगुदी होने लगी। फिर भी वह उनसे, एक मर्यादित दूरी बनाये रखती। वह नवीं में गई थी और दसवीं हर हाल में, पास कर लेना चाहती थी। सुमेर ने तब, बी।कॉम फाइनल में दाखिला लिया था।

भगवती अजब कशमकश में फंसी थी। एक तरफ ‘छोटे जीजा’ और दूसरी तरफ उसकी महत्वाकांक्षाएं! वह इतनी परिपक्व नहीं थी कि स्थिति को स्वयं संभाल सके। भाग्य ने उसके लिए, दूसरा लेख लिख रखा था। एक दिन फूलो भाभी ने सुमेर को, ईसपुर भेजा। भगवती को उधर से लाना था। भैया अपनी सासू माँ को, पहले ही ले आये थे; घर में कथा का आयोजन जो ठहरा। ईसपुर में भगवती के पिता और चाचा-चाची थे। सुमेर को वे कुटुंब का सदस्य मानते थे, इसलिए बेधड़क होकर, लड़की को साथ भेज दिया। दोनों बाइक से, शहर पहुँचने को थे कि रास्ते में मेले का पंडाल पड़ा। उसमें कई लुभावने स्टाल और झूले थे। वहां रोमांस की प्रबल संभावनाएं नजर आ रही थीं। सुमेर का जेबखर्च, पिताजी ने बढ़ा दिया था; इसलिए आराम से, पैसे उड़ाए जा सकते थे। भग्गो फिर भी, मेले में घूमने के लिए, राजी न हुई। स्त्री-सुलभ मर्यादा उसे रोक रही थी।

सुमेर अपनी जिद पर अड़े रहे। दोनों के बीच इसे लेकर, बहुत बहस हुई। अंत में भगवती को, घुटने टेकने पड़े। वे झूलों पर साथ-साथ बैठे। रोमांटिक मुद्रा में फोटुएं भी खिचवाईं। बायस्कोप का वह शो देखा, जिसमें एक से एक, आइटम-सांग थे। एक ही नारियल में, दो स्ट्रॉ डालकर, नारियल पानी पिया। एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाए... गुब्बारों पर निशाना लगाया...और ना जाने क्या, क्या किया! अब भग्गो को भी मजा आने लगा था। मस्ती के आलम में, सुमेर जान न पाए कि भैया के दो पड़ोसी, जगन और नरेश, उन पर आँख, गड़ाए थे। दोनों हद दर्जे के बकवादी थे। प्रेमी जोड़े के घर पहुँचने से पहले ही, वे नमक-मिर्च के साथ, लगाई-बुझाई कर चुके थे। फिर जो भूचाल आया, उसका तो कहना ही क्या!

अम्मा ने झोंटा पकड़कर, भग्गो की वह कुटाई करी, जिसे देख, फूलो का कलेजा, मुंह को आ गया। उन्होंने तुरत-फुरत ऑटो बुलाया और भगवती को लेकर, ईसपुर का रास्ता पकड़ा। भग्गो पर यह हिमाकत बहुत भारी पड़ी। नाकारा बेरोजगार के साथ, प्रेम की पींगे बढ़ाना, छोटा अपराध नहीं था! उसके सपने, खुलकर अंगड़ाई भी न ले सके और एक साधारण पंसारी संग, गांठ बाँध दी गयी। शिक्षिका बनने की उसकी आस टूट गई...भविष्य अभावों का पर्याय बन गया। इसके लिए, कहीं न कहीं सुमेर, खुद को जिम्मेदार पाते हैं। तब भगवती नाबालिग, नासमझ थी पर वह तो वयस्क थे। अपनी थोड़ी देर की तफरी के लिए, उन्होंने भग्गो को अंधेरों में धकेल दिया।

आज मेघना भी उसी मकाम पर है। सुमेर और मालिनी, हाथ से बेहाथ हुई बालिका को, ब्याह करके निपटाने वाले थे; लेकिन भगवती की दशा देखने के बाद, सुमेर ने इरादा बदल दिया है। भग्गो को लेकर ग्लानि पहले भी थी किन्तु अब वह तीव्र से तीव्रतर होती जा रही है। वर्तमान, अतीत को दोहरा रहा है। मेघना ने तो हाथ जोड़कर, उनसे माफी भी मांगी थी। निवेदन किया था कि विवाह के कारण, उसकी शिक्षा रुक जायेगी...कि वह महज बारहवीं पास कहलाएगी... उसे और पढ़ने दिया जाए। किन्तु वे पसीजे नहीं थे। लेकिन अब...अब उन्होंने सोच लिया है कि मेघना को, दूसरी भग्गो नहीं बनने देंगे...कभी नहीं!

विनीता शुक्ला 
टाइप ५, फ्लैट नं. -९, 
एन. पी. ओ. एल. क्वार्टस, 
‘सागर रेजिडेंशियल काम्प्लेक्स, 
पोस्ट- त्रिक्काकरा,  कोच्चि, केरल- ६८२०२१ 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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शर्मिला बोहरा जालान की कहानी ‘ई-मेल’ | Heart touching story in Hindi by Sharmila Bohra Jalan


शर्मिला बोहरा जालान की कहानी ‘ई-मेल’ | Heart touching story in Hindi by Sharmila Bohra Jalan...

शर्मिला बोहरा जालान किसी कहानी को कहने से पहले उस कहानी की सोच में गहरी पैठ तक जाने वाली युवा कहानीकार हैं. उनके लेखन से यह अहसास होता है कि जहाँ एक तरफ आज की पीढ़ी के वह लेखक हैं जिनमें अपने से पहले की पीढ़ी का कम सम्मान और ज्ञान है वहीँ शर्मिला जैसे कथाकार भी हैं जो इससे नावाकिफ, बेख़बर और ला ताल्लुक़ नहीं हैं. उनकी कहानी ‘ई-मेल’ भी कुछ ऐसा ही दिखाती है. दौर कोई भी हो और उसमें तकनीकी कहाँ तक आगे बढ़ पायी कितना भी हो, परिवार यानी माँ-बाप की अपनी संतानों से लगाव की मात्रा उतनी ही रहती है.

भरत एस तिवारी