मैं जो जीवन जी सका वह मेरे वश में नहीं था - केदारनाथ सिंह | Editorial Drishyantar Doordarshan Kedarnath Singh Gulzar Ajit Rai


जिन गुलज़ार के साथ फोटो खिंचाने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है वे केदारजी के साथ फोटो खिंचवाने का इसरार कर रहे थे।

केदारनाथ सिंह के बारे में उदय प्रकाश ने लिखा है -”क्या आइंस्टाइन का वह वाक्य याद नहीं आता, जो गांधीजी के बारे में कहा था? क्या हिंदी कविता की धरती पर ऐसा आदमी भी चलता था? हद है कि हमने उसे छुआ भी था।... यह एक वास्तविकता है कि केदारनाथ सिंह मुक्तिबोध के बाद हिंदी कविता में घटने वाली एक बड़ी और महत्वपूर्ण परिघटना हैं।...वे आग के कान में कोई ‘मंत्रा’ कहते हैं और हमारे आपके लिए, हमारी-आपकी भाषा में हवा उसका अनुवाद करती जाती है।” (कथादेश, 1998)

        अब जरा विष्णु खरे की टिप्पणी देखिए- “केदारनाथ सिंह की कविताएं चीजों को दो तरह से ‘सेलिब्रेट’ करती हैं-एक तो उनके भौतिक या अ-भौतिक अर्थों और परिणामों के लिए और दूसरे, वे जो हैं, सिर्फ उनके लिए।

        नामवर सिंह जब दूरदर्शन के अपने नियमित साप्ताहिक कार्यक्रम ‘आज सवेरे’ में पुस्तक चर्चा की रिकॉर्डिंग के लिए आए तो उनके हाथ में केदारनाथ सिंह का नया संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ (राजकमल प्रकाशन) था। यह उनका आठवां संग्रह है जो अस्सी वर्ष की उम्र में आया है। मैंने नामवर जी से पूछा-”कैसा है?”

        उन्होंने कहा-”बहुत अच्छा है। अरे भाई, इस उम्र में भी केदारजी इतनी अच्छी कविताएं लिख रहे हैं, खुशी होती है। इस संग्रह में उन्होंने एक नई काव्यभाषा रची है।”

        “‘दृश्यांतर’ के फरवरी अंक में उनकी कविता छाप रहे हैं। यदि एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखवा दें तो अच्छा रहेगा,” मैंने अनुरोध किया।

        “हां-हां, क्यों नहीं, परसों आना घर पर,” उन्होंने कहा और गाड़ी में बैठ गए। मैं ‘परसों’ उनके घर गया तो उन्होंने डायरी देखी, फिर बोले-”अरे भाई माफ करना, आज कुछ दूसरी चीजों में उलझा हुआ हूं। परसों त्रिवेणी में विजय अग्रवाल की किताब का लोकार्पण करना है। मैं लिखकर लेते आऊंगा। तुम मुझसे वहीं ले लेना।”

        मैंने जब परसों फोन किया तो उन्होंने बेचारगी से कहा-”भाई, मैं लिख नहीं पाया हूं। फिर कभी कोशिश करूंगा।” वह ‘फिर कभी’ आज तक नहीं आया, खैर।

        केदारनाथ सिंह को सबसे पहले मैंने 1991 की सर्दियों में पटना के ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट में देखा था, फिर 21 दिसंबर, 1991 को आकाशवाणी, पटना द्वारा आयोजित काव्य पाठ में कविता पढ़ते हुए। उसके ढ़ाई साल बाद 1994 की गर्मियों में हैदराबाद से दिल्ली आते हुए ए.पी. एक्सप्रेस में वे मिल गए। तब वे 16, दक्षिणापुरम, जे.एन.यू. में रहते थे। रेलगाड़ी के लंबे सफर में उन्हें पहली बार ठीक से जानने-समझने का मौका वे आग के कान में कोई ‘मंत्र’ कहते हैं और हवा उसका अनुवाद करती जाती है मिला। वे दिन मेरे ‘नवभारत टाइम्स’ के स्वर्णिम दिनों में से एक थे। उसी समय एन.सी.ई.आर.टी. के लिए प्रवीण कुमार द्वारा उन पर बनाई गई फिल्म देखकर मैंने एक समीक्षा लिखी जो ‘नवभारत टाइम्स’ (1 जनवरी, 1995) में छपी “क से होता है कवि और क से कबूतर।”

        उनके संग-साथ रहते हुए अब मुझे बीस वर्ष हो चुके हैं। उदय प्रकाश की टिप्पणी का अर्थ तब समझ में कम आया था, जब छपी थी। अब उसे समझ पा रहा हूं। सचमुच, यह हमारे समय का सौभाग्य है कि हम आज केदारनाथ सिंह को छू सकते हैं, उनसे बतिया सकते हैं, उन्हें आमने-सामने देख सकते हैं। हममें से बहुत कम लोगों को पता होगा कि वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण पिछले एक साल से अस्वस्थ हैं और लिख-पढ़ नहीं पा रहे हैं। जब अक्टूबर में ‘दृश्यांतर’ के लोकार्पण समारोह में आने का आग्रह किया तो उन्होंने कहा-”अजित, मैं बहुत दिनों से-कई महीनों से किसी कार्यक्रम में नहीं गया। मैं चलना तो चाहता हूं पर मुझे अच्छा नहीं लगता कि इस तरह लाचार अवस्था में जाऊं।” जब मैं उनसे कविताएं लेने गया तो उन्होंने कहा-”कभी केदारजी को साथ लाना, उनको देखे हुए जमाना गुजर गया।” भारतीजी ने भी कई बार कहा। मैंने जब केदारजी से कहा तो वे फौरन राजी हो गए।

        सात फरवरी की वह शाम अविस्मरणीय थी। कुंवरजी के चितरंजन पार्क स्थित घर (एच-1544) में हिंदी के दो विलक्षण कवियों के मिलन के गवाह बने मैं और विनोद भारद्वाज। कुंवरजी की पत्नी भारती नारायण और बेटे अपूर्व नारायण तो थे ही। उस शाम जैसे भारतीय कविता या विश्व कविता की एक पूरी शताब्दी हमारे सामने से गुजर गई।

        साहित्य अकादेमी के एक सेमिनार में हम दोनों मुंबई गए थे (पंडित नरेंद्र शर्मा जन्म शतवार्षिकी संगोष्ठी 26-27 फरवरी, 2014)। 26 फरवरी की शाम का तत्व चिंतन ‘नवभारत टाइम्स’ (मुंबई) के संपादक सुंदरचंद ठाकुर के घर पहले से तय था। हम कोलाबा के एक गेस्ट हाउस में रुके हुए थे। सुंदर अंधेरी (ईस्ट) में रहते हैं। हम चाहते थे कि विष्णु खरे भी हों तो सबको अच्छा लगेगा। वे मुंबई से बाहर थे। रास्ते में केदारजी ने संकोच से बताया-”अरे, गुलजार मिलल चाहत बाड़न। काल्हू दिन में चले के बा। तैयार रहिह।” (गुलजार मिलना चाहते हैं। कल दिन में चलना है, तैयार रहना।) मुझसे वे हमेशा भोजपुरी में बात करते हैं।

        दूसरे दिन (27 फरवरी) सेमिनार में जैसे ही मेरा भाषण पूरा हुआ, उन्होंने कहा-”अब हो गईल, जल्दी चलेके बा।” हम चल दिए। मरीन ड्राइव पर जैसे ही उन्होंने समुद्र देखा, खिल उठे-”आहो, कुछ त जादू जरूर बा समुद्र के।” और फिर उन्होंने बताना शुरू किया-”इटली में कवि बायरन एक बार अपनी बालकनी से समुद्र को देखते हुए इतना विह्नल हो गया कि वह कूद गया। एक-डेढ़ किलोमीटर तैरने के बाद वह किनारे आया। वहां उसका स्मारक बना हुआ है...। गुलजार के घर (पालीहिल, बांद्रा) पहुंचने तक मैं दुनियाभर के उन समुद्र तटों को केदारजी की जबानी देख चुका था जिनका रिश्ता किसी न किसी समय में कवियों से रहा है।

        गुलजार की बैठक में हम जैसे ही पहुंचे-उनकी निगाह सामने रखी मिर्ज़ा ग़ालिब की मूर्ति पर पड़ी। “देखो, क्या बात है, मिर्ज़ा भी हैं यहां।” उन्होंने कहा। फिर वहां बैठे यशवंत व्यास की ओर मुखातिब हुए-”हम पहली बार मिल रहे हैं वरना मैं तो सोचता था कि सारी उम्र फोन से ही गुजारा करना होगा।” तभी उन्हें कुछ याद आया। गुलजार के पास गए और उनसे मेरा परिचय कराने लगे। जिन गुलजार के दीवाने करोड़ों हैं, मैंने उन गुलजार को केदारजी का दीवाना पाया।

        मैंने गुलजार से कहा कि मुझे उनकी कहानियां पसंद हैं। मैंने उन्हें ‘हंस’ में पढ़ा है। खासतौर से भारत-पाक विभाजन की कहानियां और मुंबई में आई बाढ़ पर लिखी गई कहानियां। वह अपनी कुर्सी से उठे और अलमारी में कुछ खोजने लगे। पीछे मुडें तो उनके हाथ में एक किताब थी। उन्होंने वह किताब मुझे देते हुए कहा-”वे कहानियां इसी किताब में हैं।” मैंने उस किताब को लेकर उलटा-पलटा और उन्हें लौटाने लगा तो वे तपाक से बोले-”यह किताब आपके लिए ही है, लाइए मैं लिखकर इसे आपको देता हूं।” उन्होंने वह किताब मुझे भेंट की। यह उनकी कहानियों का नया संग्रह ‘ड्योढ़ी’ (वाणी प्रकाशन) था। फिर उन्होंने केदारजी को अपनी कविताओं का नया संग्रह ‘प्लूटो’ भेंट किया। उस किताब पर उन्होंने केदारजी के लिए उर्दू में चार लाइन लिखीं, फिर बोले-”मैं केवल उर्दू में ही लिख पाता हूं।” तभी मैंने उन्हें ‘दृश्यांतर’ के अब तक प्रकाशित चारों अंक भेंट किए और पूछा-”क्या आप हिंदी पढ़ लेते है?” उन्होंने पत्रिका पलटते हुए जवाब दिया, “हां-हां पर धीरे-धीरे।” मैंने कहा-”पटना ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ में मैंने ये पत्रिकाएं आपको इसलिए नहीं दीं कि मुझे इन्हें यहां आपके घर में देना था।” केदारजी ने पटना के बारे में उनकी राय पूछी। उन्होंने कहा-”मुझे बहुत अच्छा इसलिए लगा कि वहां अंग्रेजी-अंग्रेजी जैसा कुछ नहीं था। बाकी जगह तो सब कुछ अंग्रेजी-अंग्रेजी जैसा होता है।”

        मैं कभी गुलजार से मिला नहीं था। मैं उन्हें बहुत अहंकारी समझता था। लेकिन इस बार मैं एक नए गुलजार को देख रहा था। गुलजार ने बताया कि वह एक व्यवसायी परिवार में पैदा हुए। लिखने-पढ़ने के कारण परिवार ने उन्हें कभी अपना नहीं माना। वे उसी तरह घर से बहिष्कृत थे जैसे प्लूटो को ग्रहों की जमात से बाहर निकाल दिया गया है। वे 1960 के आसपास मुंबई के एक मोटर गैराज में काम करते थे और फिल्मों में गीत लिखने को कमतर समझते थे। तभी विमल राय ने उन्हें बुलाया और ‘बंदिनी’ के लिए गीत लिखने को कहा। वे लिखना नहीं चाहते थे लेकिन शैलेन्द्र की डांट खाकर गीत लिखना शुरू किया। उनका पहला गीत -‘मोरा गोरा रंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे।’ सुपहरहिट हो गया और यह सिलसिला चल पड़ा। फिर हम भारतीय कविता पर बातें करने लगे।

        दोपहर के भोजन के बाद जब हम चलने लगे तो गुलजार ने अपने सहयोगी बिंदलजी से गुज़ारिश की-”केदारजी के साथ मेरी एक तस्वीर खींच दें।” मैं फिर अवाक् था। जिन गुलज़ार के साथ फोटो खिंचाने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है वे केदारजी के साथ फोटो खिंचवाने का इसरार कर रहे थे। वे हमें बाहर तक छोड़ने आए। पूछा-”गाड़ी कहां है?” मैंने जल्दी से कहा-”हम टैक्सी बुला लेंगे।” उन्होंने तुरंत अपने ड्राइवर को आवाज दी, कहा-”एयरपोर्ट छोड़कर आओ।” मुझसे पूछा-”एयर इंडिया है न।” मैंने कहा-”जी, हां।” उन्होंने ड्राइवर को समझाया-”ऊपर वाले टर्मिनल पर छोड़ना जहां से एयर इंडिया जाती है।” फिर वे खुद ही फाटक खोलने लगे ताकि कार बाहर निकल सके।”

        जब हम हवाई अड्डे की ओर जा रहे थे तो केदारजी थोड़े शर्मिंदा थे। मैं उनका दुख समझ रहा था। उन्होंने कहा-”हमनी के पहिले से ही टैक्सी मंगा लेवे के चाहत रहे।” मैंने बेशर्मी से जवाब दिया-”कौनो बात ना। सब ठीक भइल।” केदारजी को एयरपोर्ट छोड़कर ड्राइवर ने मुझे मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ा जहां शफात खान थियेटर महापरिषद के आयोजन के सिलसिले में मेरा इंतजार कर रहे थे।

        केदारजी के साथ पिछले बीस वर्षों में जितना समय मैंने बिताया है, जितनी उनसे कहानियां सुनी हैं जैसे हम बचपन में बाबा से सुनते थे अपनी खेतों की मेड़ पर बैठकर, जितना उनसे स्नेह पाया है, उतना मेरी पीढ़ी में शायद ही किसी को मिला होगा। यह मेरा सौभाग्य रहा है कि वे अक्सर मेरे घर पर आते रहे हैं (अब उनका आना लगातार केदारनाथ सिंह के साथ गुलजार कम होता गया है) और मैंने बहुत बार उनके आतिथ्य का सुख उठाया है। कई बार यह अनायास हुआ है कि फोन पर ‘मैं आ रहा हूं’ की संक्षिप्त सूचना के थोड़ी देर बाद दरवाजे पर उनकी उंगलियों की खटखट सुनाई दी है। उनसे उनकी यात्राओं आदि के वृत्तांत सुनते हुए कब अंधेरा घिर आया, कब रात हो गई पता ही नहीं चलता। जाने से पहले यह जरूर कहते हैं-”आहो, हमार मन करता कि एइजे रहिजाईं।” सुंदर ने जब कहा कि केदारजी दिल्ली में बहुत ठंड पड़ती है, आप सर्दियों में मेरे पास रहिए मुंबई आकर, तो मैंने भी उसकी बात का समर्थन किया। उदय प्रकाश के गाजियाबाद में वैशाली स्थित घर की छत पर जब भी हम मिले, केदारजी ने सहज भाव से कहा कि “मेरा मन करता है कि यहीं रह जाऊं।” यह सच है कि दिल्ली में उनका मन नहीं लगता।

        मैंने एक बार उनसे कहा-”आप जब अपने जीवन के पिछले साठ सालों पर नजर डालते हैं तो क्या यह नहीं लगता कि चकिया गांव में एक मामूली किसान परिवार में जन्मे एक व्यक्ति को जितना मिला वह अविश्वसनीय सा लगता है?”

        “असंभव, मैं जो जीवन जी सका वह मेरे वश में नहीं था। पता नहीं कैसे यह सब होता गया,” उन्होंने गंभीरता से कहा। मैंने पूछा-”क्या आपके गांव वालों को पता है कि आप देश के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं? क्या आपके घरवालों को मालूम है कि वे किसके साथ रहते हैं?”

        उन्होंने परेशान होकर खीझते हुए कहा-”ए भाई, तू बहुत बदमाश हो गइल बाड़। पिटईब का।” फिर एक अवसादग्रस्त चुप्पी के बाद धीरे-से कहा-”बतिया तोहार ठीक बा, तका कइल जाई। इहे संसार ह।”

        कोलकाता, पटना, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, भोपाल, चंडीगढ़, जयपुर, जोधपुर, मुंबई, नागपुर, मास्को, पेरिस, बर्लिन, लंदन, अमेरिका, इटली, लाटविया-एक गांव से चलते-चलते जैसी सारी दुनिया उनके आंगन में उतरने लगती है। पेरिस में जब वे ज्यां पाल सार्त्रा की कब्र पर जाते हैं तो उन्हें मेट्रो का एक टिकट दिखता है जिस पर लिखा है-”नींद से उठें तो मेरे घर आ जाइएगा।” जब वे एक समारोह में ‘मेरा दागिस्तान’ के मशहूर लेखक रसूल हमजातोव से मिलते हैं तो उन्हें पता चलता है कि उस देश में भी लेखकों की जमात में जातिवाद हावी है। अमेरिका में ‘मौत की घाटी’ के पार डी.एच. लारेंस के स्मारक पर उन्हें याद आता है कि ‘लेडी चैटर्ली’ज लवर’ कैसे लिखा गया होगा या एमिली डिकिंसन की वह यातना जो एक पादरी के प्रति एकतरफा प्यार में कविताएं लिखती हुई एक दिन संसार को अलविदा कह गई।

        हमारे समय में केदारनाथ सिंह का होना उस नाजुक धागे की तरह है जिसके सहारे गांव शहर से जुड़ते हैं, देश विदेश से, परंपरा आधुनिकता से और निर्दयी विकास की अमानवीयताओं का पता-ठिकाना मालूम पड़ता है।

        मैं कई बार सोचता हूं कि एक व्यक्ति जिसने पूरी ईमानदारी से अपना पारिवारिक-सामाजिक दायित्व निभाया। पडरौना के कॉलेज की प्रिंसिपली से देश के सबसे महत्वपूर्ण जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में प्रोफेसर और अध्यक्ष पद से रिटायर हुआ, देश के लगभग सभी शीर्ष साहित्यिक पुरस्कार मिले, दुनिया भर में मुख्यधारा के साहित्य में जिसको जगह मिली, जिसने सारे देश में कविता के एक नए ‘स्कूल’ का निर्माण किया। आखिर अस्सी साल की उम्र में उनकी बेचैनी का रहस्य क्या है? हम कैसे देश में जी रहे हैं जहां एक बड़े रचनाकार से हर कोई उसकी आजादी-उसकी स्वायत्तता ही मांग रहा है और उसे अकाल मृत्यु की ओर धकेल रहा है। मुझे बद्रीनारायण की कविता ‘प्रेमपत्र’ की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-

        “ऋषि आएंगे/दान में मांगेंगे/प्रेमपत्र।”

        कुमार अंबुज ‘क्रूरता’ में लिखते हैं-

        “धीरे-धीरे आएगी/क्रूरता/और हमें पता भी नहीं चलेगा।”

        मैं समझने की कोशिश करता हूं कि उनमें हमेशा बनी रही इस बैचेनी का रहस्य क्या है? उनके रूप में मैं एक ऐसे मुल्क की त्रासदी को देखता हूं जो इतने बड़े कवि को संभाल नहीं पा रहा। केदार जी जैसे निर्मल और प्राकृतिक स्वभाव वाले व्यक्ति को जो आजादी मिलनी चाहिए क्या हिंदी समाज और हमारे देश की यह जिम्मेदारी नहीं बनती? यदि वे दुनियादार होते और हमारी-आपकी तरह अपनी आजादी को ‘कैलकुलेट’ कर पाते तो क्या वे वह होते जो वह हैं?

        मुलायम सिंह यादव जब केदारजी को फोन कर रहे होते हैं तो आदर और कृतज्ञता से भरे होते हैं। नीतीश कुमार पिछले दिनों ही उनकी चर्चा कर रहे थे। पूर्व प्रधानमंत्राी चंद्रशेखर तो उन्हें अपने घर का सदस्य मानते थे। अब इस उम्र में केदारजी को क्या चाहिए? एक छोटा-सा कमरा, एक आवागमन का अपना साधन, शाम का थोड़ा बहुत ‘तत्व चिंतन’ और एक सूखी रोटी और दाल...और इस सबसे अधिक अपने मनमाफिक जीने की आजादी। हमारे आर्यावर्ते भरतखंडे नामक देश में सब कुछ मिल सकता है, आप राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री हो सकते हैं, लेकिन अपने मनमाफिक जीने की आजादी नहीं मिल सकती। क्या केदारनाथ सिंह की नई कविता ‘हुसेन का घोड़ा’ इस ओर इशारा नहीं करती।

संपादकीय
अजित राय (दृश्यांतर फरवरी 2014 )
Ajit Rai in Drishyantar Doordarshan

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2 टिप्पणियाँ

  1. Bharat ji , aap jo chuninda samagree dhoondh kar laate hain uske liye aapko bharpoor daad detaa hun . Ajit Raay ji kaa yah lekh dil mein utar gayaa hai .

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  2. अच्छा लगा पढ़ कर । गुलजार जी से मिलने की तमन्ना है :)

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