जिंदा मुहावरे - नासिरा शर्मा
Zinda Muhavare by Nasera Sharma
'जिंदा मुहावरे' नासिरा शर्मा जी की एक महत्वपूर्ण उपन्यासिका है, जिसमे उन्होंने देश विभाजन के पश्चात व्याप्त आशंका, अशांत, द्वंद, संघर्ष विघटन’ के भावनात्मक पहलुओं को छुआ है। 'जिंदा मुहावरे' समाज तथा साहित्यिक संदर्भों के साथ मुस्लिम समाज का एक समाजशास्त्रीय रचती है। इस ज़रूरी उपन्यास की पृष्ठभूमि 'फैजाबाद' की है... ख़ुशी की बात है कि नासिरा जी 19 अक्टुबर 2014 को 'फैजाबाद पुस्तक मेला' में रहेंगी... जहाँ वो बच्चों की कहानियों पर "नेशनल बुक ट्रस्ट" के कार्यक्रम में हिस्सा लेंगी तथा आयोजक ‘‘नारायण दास खत्री मेमोरियल ट्रस्ट’’ के कार्यक्रम में अपने लेखन पर बात करेंगी। उपन्यास का पहला अध्याय उपलब्ध कराने के लिए 'वाणी प्रकाशन' को आभार (वाणी की वेबसाइट पर उपलब्ध है
http://bit.ly/NaseraZM) के साथ - आप के लिए 'शब्दांकन' पर ....... भरत तिवारी
लालमुनिया का पिंजड़ा साथ था । आगे बीहड़ अनजान रास्ता और पीछे गहरी जड़ों वाला भरापूरा खानदान, जिसकी फैली शाख़ का नमूना वह खुद था जो अपनी हदों को पार कर बाहर निकल आया था । उसके दिल में अजीब वलवला था, जो अब भी हिलोरें ले रहा था ।
‘ज़मीन–––! ज़मीन से चिपके रहना तभी भला, जब वह पहचान हो, इज़्ज़त हो, अपने बीज़ अपनी फसल हो–––मगर जब वह कुछ बेगाना बना दिया जाए और साबित करना पड़े कि यह मिट्टी–––इससे अच्छा वह टुकड़ा है, जो काट कर दामन में डाल दिया गया हो । अब उसी को पालना–पोसना और अपना समझना होगा ।’ निज़ाम के घने पेड़ के नीचे बैठ पैर से काँटे निकालते हुए सोचा ।
दोपहर की धूप घनघना कर ज़मीन पर पालथी मारकर बैठ गई थी : लाल मुनियाओं ने दाना चुगना और पिंजड़े में झूला झूलना बन्द करके गाना गाना शुरू कर दिया था । उनके गाने के सुरों में जाने क्या था कि आँखों के सामने घर का आँगन तैर गया और अमरूद के घने पेड़ की शाख पर टँगा और अम्माँ की पुकार, “कहाँ जात हो, नन्हें ? तवे पर रोटी डल रही है, अब खाना खाए के बाहर निकलो ।”
अम्माँ के इस तरह टोकने पर ड्योढ़ी से बाहर निकलते निज़ाम के कदम ठिठक जाने और वहीं से गुल्ली–डंडा खेलते गोलू को आवाज़ देते हुए वह घर के में दाख़िल हो जाते, जहाँ तामचीनी के फूलदार रकाबी में घीसे बघरी अरहर के पीली दाल भाप उड़ाती उसका इन्तज़ार करती होती और भाभी, बहन की चूड़ियों की खनखनाहट के साथ मिल पर पिसती हरे धनिये की चटनी और गर्म तवे से उतरती रोटी की महक उसे बाधे लेती ।
“ए, रज़्जो! चटनी अब पीसे बैठी हो का ?” अम्मा सबको बावचींखाने में फैली धूप में पटरे पर बैठा देख दालान से हाँक लगातीं ।
“अभै तो कुट कर आई है सिल, अन्नाँ ।” रजिया सिल पर तेजी से बट्ट रगड़ते हुए जवाब देती ।
“हमार घी गुड़ कहाँ है ?” गोलू कटोरी न देखकर ठुनकता ।
“ले नदीदे!” शमीमा बेटे की तरफ कटोरी बढ़ाते हुए धीरे से कहती ।
“देखो, दादी, अम्मां हमका फिर नदीदा कहते हैं ।” गोलू चीखा ।
एकाएक निज़ाम की आँखें भर आर्इं । उसने कमीज़ की आस्तीन से आँखें खुश्क कीं और झोले से मुट्ठी भर कँगनी निकाल कर पिंजड़े की कटोरी में डाली । लालमुनियाएँ लपकीं और दाना तोड़ कर कुटुर–कुटुर कँगनी खाने लगीं । निज़ाम ने बोतल से पानी का घूँट भर गला तर किया, फिर पिंजड़े की दूसरी कटोरी को पानी से भर दिया ।
“जाओ भैया, तुम्हें बहुत गुमान है न, मगर याद रखो कि एक दिन बिलाई भी सूँघत–सूँघत अपने पुराने ठिकाने को लौटत है, चाहे बोरा में भर कोसों दूर छोड़ के आओ, तुम तो भला इन्सान ठहरे ।” भावज ने कोसने के अन्दाज में अपने दुपट्टे से आँसू पोंछते हुए कहा ।
‘बखत से पहले ससुरे को गधा पच्चीसी सवार होय गई है । दू दिन बाद, घूम टहल कर मुँह मा कालिख पोत इ मरदुदवा लौट अइहै । नया जोस, नई जवानी है । करे देव जी भरकर मनमानी । जाए देव सब लोगन एका । आखिर भोर का भूला सांझ गए तो घर लौटत है ।’ बाहर चबूतरे पर बिछी चारपाई पर बैठे रहीमउद्दीन ने हुक़्का गुड़गुड़ाते हुए बेटे की बात सुनकर दिल ही दिल में कहा!
“भूल मत करो, ज़मीन सबकी छिनेगी । जब मुल्क से जमींदारी ख़त्म हो रही है, तो इसका मतलब है, हर छोटा–बड़ा चाहे वह हम हों या कोई और––– । पढ़–लिखकर नादान मत बनो । बटवारा मूल्क का हुआ है, हमारे इस गांव का तो नहीं ? हमारा पुश्तैनी घर, खेत, रिश्तेदारी, बिरादरी, सब कुछ यहीं है । वह तो किसी ने नहीं छीना ?” बड़े भाई इमाम ने समझाते हुए कहा ।
“मसला अपना और पराया नहीं है । माना कि हमारा घर–आँगन नहीं बटा तो क्या हुआ । हमारा आब–ब–दाना तो उठ गया यहाँ से । बेहतर है कि हम कूच करें । अभी आप लोगों के बात पल्ले नहीं पड़ रही है, मगर वक़्त आने पर समझेंगे । बरसों रहने के बाद आज ढाक के वही तीन पात ? बटवारे के बाद हमारी हैसियत ? इस गाँव से बाहर निकलकर देखें, फिर कहें कि कौन किस को खदेड़ रहा
है ?” निज़ाम का सारा वजूद सुलग रहा था । ऊँची आवाज़ आँगन की दीवार फलाँग गई ।
“कमरबन्द बाँधे की तमीज नाहीं, बच्चू, बित्ता भर के जबान दिखाए रहे हैं ।” कहते हुए रहीमउद्दीन तैश में चारपाई से उठे । कन्धे पर पड़े अँगोछे से मुँह पोंछा और खखारते हुए घर में दाखिल हुए ।
“आग खाय और अंगारा हगै की ज़रूरत नहीं है, बेटवा, हमार लोगन पै तू खोक डालो, हिआँ कोई तोहर राह खोटा करै का नाही बैठा है । जाय देव इमाम ऐका । कहत है न, चढ़ते पानी क कौनव रोक सकते है और न ढलते सूरज का कौनव पड़ सकत है ।” रहीमउद्दीन का लहजा शुरू में जितना गर्म था, अन्त में उतना ही हारा हुआ । घर में सन्नाटा छा गया और रहीमउद्दीन बाहर निकल गए ।
“चचा कहाँ जात हो ?” तीन साल के गोलू ने परेशानी में निज़ाम से पूछा ।
“जन्नत मा––– ।” शमीमा ने जलकर कहा ।
“चचा मर गए का, दादी ?” गोलू ने घबरा कर पूछा ।
“हाँ,–––सभै के लिए मर गए हैं, आजै से, अबहीं एहीं पल से––– ।” कहता हुआ निज़ाम उफर्’ नन्हें ताव से भरा आगे बढ़ा और डाल से पिंजड़ा उतार कर घर से बाहर की तरफ़ भागा ।
“हमार मुनिया को कहाँ ले जात हो चचा ?” गोलू रोता हुआ लपका, फिर जाने क्या सोचकर कंगनी का थैला आंगन की दीवार से उतार निज़ाम के पीछे दोड़ा ।
“छुट्टे साँड की तरह डोलव हिआँ से हुआँ । ऐही दिन देखे के वास्ते ख़्वाजा साहब से तौका मांगा रहा ।” रहीमउद्दीन ग़म और गुस्से से बड़बड़ाए ।
“बताओ तो चचा, कहाँ जात हो अकेले ?” रुहाँसा गोलू दौड़ कर निज़ाम के सामने रास्ता रोक कर खड़ा हो गया ।
“हम जात हैं, गोलू । हिंया हम लोगन के वास्ते कुछ नहीं बचा । पहुँचत ही तोका हम अपने पास बुलाई लै बै ।” निज़ाम ने भतीजे को गोद में उठा जोर से सीने से चिपकाते हुए कहा ।
“अच्छा, एका तो साथ लेते जाओ ।” गोलू ने झोला की तरफ बढ़ाया । और मुनिया को देख आँखों से आँसू पोंछने लगा ।
“अच्छा, गोलू अब तुम जाओ––– ।” निज़ाम ने आँसू पीते हुए कहा । भतीजे को देखा और तेज़ी से आगे खेत की मुँडेर पर चढ़ गया ।
गोलू चचा को इस तरज जाते पहली बार देख रहा था । सका दिल कह रहा था कि जरूर कुछ गड़बड़ है, मगर सामने खेत के बीच में पीपल का अकेला दरख़्त खड़ा देख उसकी हिम्मत चचा के पीछे जाने की नहीं हुई । सुन्दर काली पीपल वाली चुडैल की कहानी कई बार सुना चुकी थीं । जब उसने चचा को उसके पास से गुज़रते देखा तो भयभीतर–सा रोता घर की तरफ़ भागा ।
‘सबै का खून सफ़ेद होय गवा है । ज़मीन की ख़ातिर हम से मुँह मोड़ लीहिन । हमका भी अब केही की परवाह नाही । न अम्मा, न अब्बा, न भाई–भावज, न बहन । जहां जात हैं अब वही हमार वतन कहलइहे । नया ही सही अपना तो होइए । जहां रोज–रोज ओकी खुद्दारी को कोई ललकारिये तो नाही । कोई ओके गरिबान पर हाथ डालै की जुर्रत तो न करिहे––– ।’ निज़ाम दिल ही दिल पेच–ताव खाता हुआ आगे बढ़ रहा था ।
आदत के मुताबिक जब वह खेत से बाहर निकल आया, तो आम के पेड़ पर चढ़ कर दूर खड़े अपने घर को आखिरी बार देखना नहीं भूला । उसे अब किसका इन्तजार था ? हवा अपने साथ अब्बा की आवाज लाकर उसके कानों में घोल गई ।
“जाओ,––––––सब जाओ–––– । जेकी जिधर सींग समाए ।”
“इन लोगन को कुछ नाही मालूम कि कैसा–कैसा फसाद, खून–ख़राबा बाहर मचा है । सावन के अन्धे की तरह इनका तो सब कुछ हरा–हरा ही दिखत है ।” निज़ाम पेड़ के नीचे उतरा और उसी हालत में आगे बढ़ गया ।
गोलू को अकेला लौटते देख रहीमउद्दीन ने पगडंडी से आँखें हटालीं और सामने से मसूद अली को आता देख करअनजान बन पलंग पर बैठे, जैसे गली के सामने से किसी को आता देख ही न रहे हों, फिर एकाएक चारपाई पर वह लेट गए और इस तरह अँगोछा मुँह पर डाल कर करवट बदली, जैसे गहरी नींद में डूब गए हों । मसूद अली सब कुछ देख चुके थे, मगर मुह से कुछ न बोले । धीरे–धीरे चलते हुए आकर ठहर गए । जाने से पहले आखिरी बार दोस्त से गले मिलने के इंतजार में सर झुकाए चबूतरे के नीचे खड़े रहे फिर लम्बी साँसं खींच कर भारी कदमों से आगे बढ़ गए ।
“इन सबके बगैर हम अकेले जी नाही सकत हन का ?” मसूद अली के चमरौधे जूतों की आवाज को अपने से दूर होता सुन रहीमउद्दीन का गुस्सा मामे की तरह पिंघला, मगर अँगोछे की ओट क कारण गिरती बूँदों को कोई नहीं देख पाया ।
शाम से रात घिर आई । चूल्हा ठंडा–औंधा पड़ा था । शमीमा मुँह लपेटे पड़ी थी । इमाम सर झुकाए माँ के पास चुपचाप बैठा था । किसी के मुँह में खिल तक उड़कर नहीं गयी थी । सुन्दर काली भी दम साधे बैठी रहीं । उसके सामने नन्हें का चेहरा घूम रहा था ।
“काकी, पंजीरी देबो न खायेका ?” वह उनको झिंझोड़ता ।
“हाँ–हाँ ।” वह उलझकर कहती ।
“तो देव न ?” चिढ़ कर नन्हें धान पछोड़ती काकी की पीठ को धक्का देता ।
“अब साथ लेकर थोड़े आए हन ।” काम में उलझी काकी झुँझलाती ।
“तो फिर हम घर जाये के खुद निकल लेबै ।” कहता हुआ नन्हें बाग़ी सूरमा बन भागता, उसी के साथ ब्रजलाल और दोनों के पीछे काकी बकती–बकती घर पहुँचती और दोनों की मुट्ठियाँ भर हँसती–कोसती लौटतीं ।
घर में छाया सन्नाटा देखकर मँगरू काका गोलू की गोद में उठा ले गए, ताकि लच्छू के साथ खेल–कूद में उसका दिल बहला रहे । ब्रज बहू ने हलवा–पूरी बना दोनों का पेट पूजन कर दिया था । इस वक्त वह दोनों खेलने में डूबे गीली मिट्टी की मिठाइयां बना रहे थे ।
उधर चबूतरे पर लेटे रहीमउद्दीन की पहली रात थी, जो जागते गुजरी थी । उन्हें अब भी यकीन नहीं आ रहा था कि निजाम उन्हें छोड़कर चला गया है, तभी हरखटके, हर आहट पर वह चैंक पड़ते कि जाने कब निजाम आकर घर की कुंडी बना दे ।
निजाम के साथ गाँव छोड़कर पाकिस्तान जाने वालों की बहुत लम्बी चैड़ी क़तार नहीं , मगर आस–पास देहात, क़स्बे से जम़ा हाने वाले लोगों ने अलबत्ता एक क़ाफ़िला–सा रास्ते में बना लिया था । सबके साथ जरूरत का सामान, ज़ेवर और रुपयों की पोटली थी । खाना–पीना, बिस्तर कपड़े और तरह–तरह की चीजों से लदी–फदी पाकिस्तान जाने वालों की यह आखिरी खेप थी ।
निज़ाम एक ऐसा शख़्स था, जो अकेला खाली हाथ जा रहा था । इन सब के बीच वह अजनबी था । न कोई उसे जानता था, न वह ही किसी को पहचानता था । जो भी थे, वे सब लुटे–पिटे आहत थे । कुछ भयभीत से घर–बार छोड़कर भाग निकले थे । कुछ दूसरों की देखा–देखी साथ ही लिए थे । इनमें से कई के दिल व दिमाग़ में कुछ भी साफ नहीं था । भगदड़ में सिर्फ इतना सोच पाए थे कि जान बचाने के लिए जाते हुए लोगों में शामिल हो जाओ, जब कल खतरा टल जाएगा, फसाद ठंडा हो जायेगा, तो फिर पुराने ठौर–ठिकाने को लौट आएंगे । कुछ बूढ़े यह भ्रम पाले हुए थे कि वह कहीं दूर थोड़े ही बल्कि अपने मुल्क के दूसरे हिस्से में पनाह लेने जा रहे हैं, हालात के ठीक होते ही अपने गाँव वापस आ जाएँगें । उनकी बातें सुनकर निज़ाम तख्ती से हँसा था ।
‘इन्हें कुछ भी नहीं पता कि मुल्क दो हिस्सों में बँट चुका है - पाकिस्तान और हिन्दुस्तान । हम पाकिस्तान रहने, बसने जा रहे हैं, न कि वहाँ से लौटकर आने के लिए––– ।’
बीच सफ़र में, जाते हुए क़ाफ़िले पर कुछ हथियार बन्द टूट पड़े और ग़ाफ़िल मुसाफ़िरों को लूटा, मारा और क़त्ल किया । कुछ ज़वान औरतें और लड़कियाँ गायब हो गर्इं । शायद उनकी क़िस्मत का पड़ाव यही था । उनके मर्दों की लाशें खाक–खून में लिथड़ी पड़ी थीं । चील, कव्वे और गिद्धों से आसमान भर उठा था । बचे लोगों की कमर के टांके जैसे टूट गए थे । दिल कम से और ज़हन सदमों से चूर हो चुके थे । लुटा क़ाफ़िला पीछे लौट नहीं सकता था, सो फिर चल पड़ा आगे की ओर––– ।
रास्ता तकलीफ़ों से भरा था । कुछ छूटै, कुछ भरे, कुछ अधमरे से बूढ़े–अधेड़ रोते–पीटते ख़ौफ़ से काँपते रास्ता तय कर रहे थे । उनके जवान लड़के और दिलासा दे रहे थे । हिम्मत बँधा रहे थे । पनाहगार की क़तार दर क़तर सिर्फ़ आह व बुका बनी हुई थी । यहां पर भी किसीका कोई छूटा, कोई मरा, कोई खोया था ।
निजाम इन सबके बीच घिरा सोच रहा था, ‘वह तो इन जंजीरों को खुद तोड़ आया है । इस भरी दुनिया में वह निपट अकेला है । उसकी ज़िन्दगी की नाव एकाएक हल्की हो गई है । अब इस तूफान में उल्टे, या डूबे, या किनारे लगे, इसकी फिक्र उसे इतनी नहीं सताएगी––– ।’
“अरे, मेरी सकीना को कोई ढूँढो तो–––! सब सो गए कब्र में जाकर ? उठो–––जागो–––! सकीना को ढूँढो–––! निगोड़ी जाने कहाँ निकल गई ?”
बैन की आवाज से निज़ाम का दिल केले के पत्ते की तरह चिर गया । वह अपनी जगह से चुपचाप उठा और बाहर निकल, सूनी जगह की तलाश में चल पड़ा । कुछ दूर जाकर वह ज़मीन पर बैठ गया । अँधेरा कुछ ज़्यादा घना था । यहाँ से बैठकर पनाह की खोज में निकला क़ाफ़िले का पड़ाव निज़ाम को फीकी टिमटिमाती रोशनियों की वहज से एक बस्ती–सा नज़र आया । ऊपर आसमान साफ था तारे कुछ ज़्यादा ही दमक रहे थे । निज़ाम वहीं ज़मीन पर चित्त लेट गया ।
नींद में डूबती आँखों के बीच रज़्जो का चेहरा उभरा और अँधेरे में चीखती आवाज उसे झिंझोड़ गई ।
“अम्माँ–––ए अम्माँ, देखौ तो कऊन लोग घर मा घुसे आत हैं ?”
निज़ाम का दिल उलटने लगा! बेचैन होकर उठा और माथे पर आए पसीने को आस्तीन से पोंछने लगा । फिर एकाएक घबरा कर खड़ा हो गया घर लौटने के लिए–––अँधेरे में भागते क़दम दिशाहीन हो कुछ दूर जा तेज़ी से सुस्त पड़ने लगे और वह वहीं उजाड़ मैदान में घुटनों पर सिर रख फफक पड़ा ।
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