कहानी
इनसानी नस्ल
नासिरा शर्मा
खिड़की से घुसती गरम हवा अपने साथ पत्तियाँ-तिनके और सूखी, बेकार की चीज़ें उड़ाकर ला रही थी। ट्रेन लू के थपेड़ों को चीरती आगे बढ़ रही थी। गरमी इस ग़ज़ब की थी कि खिड़की बंद करना मुश्किल था। प्यास से गला और होंठ ख़ुश्क हो रहे थे। गरम पानी का घूँट भर नवाब ने अपना गला तर किया और रूमाल से अपने चेहरे पर जमी धूल की परत को पोंछा। उसका ज़हन भटक रहा था। माँ की बीमारी का तार उसे कल मिला था। तब से अब तक उसके गले से खाने का एक कौर भी नीचे नहीं उतरा था।“भूख तो मुझे भी नहीं है( मगर सोचती हूँ, ज़बरदस्ती ही सही, हमें कुछ खा लेना चाहिए। वरना ख़ुद की तबीयत ख़राब हो गई तो माँ की सेवा भी भली प्रकार नहीं कर पाऊँगी।” सविता ने मुँह पोंछ माथे की बिंदिया ठीक करते हुए कहा।
“मुझे कुछ नहीं होगा... तुम ज़रूर कुछ खा लो।” कहकर नवाब ने टििफ़न की बास्केट उठाई और पत्नी की तरफ़ प्यार से देखा।
“आपके बिना मैंने कभी कुछ खाया है !” सविता हँस पड़ी।
उसके इस भोलेपन से नवाब हमेशा हथियार डाल देता, सो इस समय भी वही हुआ। वह मुस्कराकर हाथ धोने लगा और सविता ने चारख़ाने की नैपकिन पर खाना लगा दिया। कुछ देर के लिए दोनों एक-दूसरे में गुम हो गए। हँसी, प्यार और खाने के स्वाद ने माँ की बीमारी की चिंता भुला दी।
ज़ैनब को बुख़ार में तपते हुए आज पंद्रहवाँ दिन था। छोटी बहू के आसरे एक कोने में पड़ी ज़रा-ज़रा-सी बात को तरसती थीं। वह कोई मजबूर औरत नहीं थीं( मगर इस बीमारी ने उन्हें तोड़कर रख दिया था, वरना वह तो सुबह होते ही पूरे मोहल्ले में टहलतीं सबकी ख़ैर-ख़बर लेती रहती थीं। उनके इसी दोस्ताना बरताव के कारण उनकी दवा, फ़ल और ज़रूरत की चीज़ें उन तक पहुँच जाती थीं( मगर हर समय तो कोई खड़ा नहीं रह सकता था। सबके घर-द्वार थे( फि़र घर में बहू और बेटे के रहते सबको इस बात का गुमान भी न होता कि जै़नब की दवा का टाइम गुज़र जाता है और वह पानी माँगती पड़ी रहती हैं। बहू नसरीन अपने कमरे में या फि़र बच्चों में बुरी तरह उलझी होती। वह कभी शिकायत न करतीं। घर की बातें लोगों के मुँह पर चढ़ें, यह उन्हें पसंद न था।
दरवाज़े की घंटी बजी( एक बार, दो बार, मगर दरवाज़ा नहीं खुला। नसरीन बच्चों और मियाँ को भेज अभी-अभी नहाने गई थी। ज़ैनब कराहती हुई उठीं और दरवाज़े तक पहुँच बेदम हो उठीं। बिना पूछे उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया। दोनों हक्के-बक्के रह गए-माँ बेटी-बहू को देख और नवाब व सविता माँ को सामने खड़ा देख। नवाब ने आगे बढ़कर माँ को सहारा दिया और सविता ने उनके पैर छू, सामान अंदर ला दरवाज़ा बंद किया। माँ बदहवास-सी बिस्तर पर लेट गईं। नवाब ने पानी दिया। सविता पलंग के पायताने आकर बैठ गई। उसके चेहरे पर भय की हलकी परत थी। माँ की आँखों में सवाल-सा झाँकता देख नवाब ने धीरे से कहा, “पन्ना चाचा का तार मिला था।”
सुनकर माँ ने आँखें बंद कर लीं। सविता ने बढ़ते भय के बावजूद धीरे-धीरे सास के पैर दबाना शुरू कर दिया। तभी नसरीन भीगे बाल झटकती आँगन में आई। कमरे में किसी को बैठा देख वह चौंकी। दिमाग़ में शक उभरा कि दरवाज़ा किसने खोला ? कहीं मैं ही दरवाज़ा बंद करना भूल गई थी क्या ? आगे बढ़कर बोली, “कौन ?”
“मैं हूँ... नवाब।”
“भाई साहब ! आदाब! कब आए ?”
“बस अभी पहुँचा हूँ।” नवाब ने धीरे से कहा।
नसरीन ने सविता को देखा और हलके से मुस्कराई, जिससे सविता को हौसला मिला। वह भी मुस्कराती हुई बावर्चीख़ाने में नसरीन के पीछे-पीछे गई। सामान बिखरा पड़ा था। सविता का मन चाहा कि बिखरी रसोई समेट दे, मगर अंदर की झिझक तोड़ नहीं पाई। नसरीन ने चाय बनाकर बिस्कुट की प्लेट रखी और उसी तरह मुस्कराती सविता को देखती बाहर निकली। सविता फि़र उसके पीछे चल पड़ी।
“बुख़ार कब से आ रहा है, अम्माँ ?”
“हो गए होंगे कोई आठ-दस दिन।”
“डॉक्टर ने क्या बताया ?”
“यहाँ का डॉक्टर मुआ क्या बताता है, बस दवा थमा देता है। मैं तो हकीम की दवा से हमेशा ठीक हुई हूँ( मगर नसरीन और जावेद की िज़द थी कि डॉक्टर अच्छा है।”
“मिश्रा जी के बेटे की शादी में क्यों नहीं आए ? लिखकर भी ख़ूब इंतज़ार कराया !” नसरीन ने प्याली थमाई। चेहरे पर कटाक्ष उभरा।
“बस।” इतना कह बेटे ने माँ को ताका। जै़नब के चेहरे पर कई साये आकर गुज़र गए।
“शादी बहुत शानदार हुई। सब आपको पूछ रहे थे।” नसरीन इतना कहकर कमरे से निकल गई।
“मैं डर रही थी कि कहीं... ” ज़ैनब ने सफ़ाई दी।
“कैसी बात कर रही हैं, अम्मा, जो गुज़र गया सो गुज़र गया।”
कमरे में ख़ामोशी छा गई। नवाब किसी गहरी सोच में डूब गया। माँ ने कमज़ोरी के कारण आँखें बंद कर लीं। ख़ाली प्याली रखते हुए नवाब ने सविता से नहाने को कहा और ख़ुद ऊपर छत पर चला गया। मिश्रा जी का आँगन उसी तरह लिपा-पुता था और नीम के पेड़ के नीचे भैंस की नाँद रखी थी। चबूतरे पर दो-चार खटोले पड़े थे। जावेद, नवाब और दिलशाद तीन भाई हैं, जिसमें से दिलशाद को मिश्रा जी ने गोद लिया। उसका रहना-सहना सब वहीं था। उसी की शादी थी। नवाब चाहता था, मगर माँ ने मना कर दिया कि सारी बिरादरी जमा होगी। इस मौके़ पर आना ठीक नहीं है। सुनकर नवाब ने ग़ुस्से में क़सम खाई कि वह कभी घर नहीं जाएगा। आखि़र यह भी कोई बात हुई कि अपनी दोस्ती में मँझला लड़का मिश्रा जी को गोद दें और वह जब सविता से शादी कर ले तो उसे बिरादरी का डर दिखाया जाए ! माँ की बीमारी ने गु स्सा काफ़ ूर बनाकर उड़ा दिया और वह सविता को लेकर गाँव चला आया। वह अकेले भी आ सकता था, मगर वह जानबूझकर सविता को लाया है, ताकि माँ सारी बिरादरी के सामने उसे स्वीकार करे या फि़र दिलशाद को बहू समेत अपने घर वापस बुलाए।
सविता ने नहाते-नहाते जो नल बंद किया तो नसरीन की गु़स्से से भरी आवाज़ उसके कानों से टकराई। सहमकर उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और बाहर निकली। ज़ैनब और नसरीन की बातचीत उसके कानों से साफ़-साफ़ टकराई।
“मुझसे जिसकी क़सम चाहे ले लो, जो मैंने इन दोनों को बुलाया हो।”
“बस-बस, रहने दीजिए। मैं तो कुछ करती-धरती नहीं हूँ। दिलशाद की बेगम साहिबा रिज़या सुल्तान जो ठहरीं। वह तो सारा वक़्त मिश्रा जी के घर काटती हैं।”
“धीरे बोलो बहू, पड़ोस का मामला है।”
“असली मामला तो मेरे बच्चों का है ! कहाँ होगी इनकी शादी ?” सविता को अलगनी पर साड़ी फ़ैलाते देख नसरीन ने आवाज़ तेज़ कर दी।
“थके-हारे सफ़र से आए हैं, उनको नाश्ता-पानी दो। मैं बीमार हूँ, वरना... ”
“वरना क्या ? जैसे मैं कुछ करती नहीं हूँ। रिज़या जो नहला जाती है तो समझती हैं कि उसका बड़ा अहसान है।” नसरीन बावर्चीख़ाने की तरफ़ बढ़ी।
“तुम्हारे भरोसे बैठती, बहू, तो जाने कब मुझ पर घास उग आती, यह तो बस मेरा दिल जानता है।” जै़नब की आँखें भर आईं।
सविता ने आँगन से और नवाब ने सीढ़ी उतरते हुए सारी बातें सुन लीं। तख़्त पर नाश्ता लग चुका था। आलू की सब्ज़ी में शायद नसरीन ने मुट्ठी-भर नमक डाल दिया था। सविता सिर झुकाए उसे निगलती गई। इससे बुरा स्वागत उसके घर में नवाब का हुआ था। कोई भी बुरा शब्द बचा नहीं था जो नवाब को कहा न गया हो। मगर दोनों ने तय कर रखा था कि वे पलटकर किसी का अपमान नहीं करेंगे। नवाब शादी से पहले ज़ैनब के पास आया था( मगर वह गाँव के घर से ब्याह करने पर राज़ी न हुई। मजबूर हो दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली।
‘ज़माना बदल गया है। प्यार-मुहब्बत सब कुछ जायज़ है, तो भी... दिल्ली हो सका तो मैं ख़ुद आ जाऊँगी।’
ज़ैनब तो नहीं जा सकी थी, मगर मिश्रा जी बड़े ताया बन कन्यादान जैसा कुछ कर आए थे। नवाब माँ से ख़ूब लड़ा था। सब कुछ सुनकर माँ ने सिफ़ऱ् इतना कहा था कि ‘भैया, दूसरे मज़हब वालों से दोस्ती हो सकती है, मगर नस्ल नहीं चल सकती।... अपनी कोख से अपना बच्चा पैदा किया जा सकता है, पराया नहीं।’
‘पराया बच्चा इनसान की नस्ल का नहीं होता है क्या ?’
‘होता है, मगर दीन-मज़हब, क़ानून, रीति-रिवाज का भी तो कुछ ख़याल करो।’
‘ये सब क़ानून, अम्माँ, इनसान के बनाए हुए हैं। इनसान ही इन्हें बदल सकता है।’
‘बदलो, जो बूता है तो बदलो, मगर पराई लड़की को दर-बदर मत करना।’
‘बदलूँगा, ज़रूर बदलूँगा। बदलकर दिखा दूँगा।’
सविता और नवाब के विवाह को कई साल गुज़र गए, मगर आज फि़र वही तनाव चँदोवा तानकर खड़ा है। अम्माँ की शक्ल में न सही तो नसरीन की आवाज़ में।
सविता के मन का डर कहीं भाग गया। उसने बड़े विश्वास से जूठे बरतन उठाए और रसोई में जाकर रखे, फि़र नवाब से कुछ कहा। नवाब डॉक्टर को बुलाने चला गया। सविता ने सास का कमरा साफ़ किया, चादर बदली, भीगे तौलिये से उनका बदन पोंछा। नसरीन यह सब देखकर मन ही मन झुलस रही थी। डॉक्टर को आया देख उसके ग़ुस्से का बाँध टूट गया। तेज़ी से चलती हुई कमरे में गई और आवाज़ दबाकर बोली, “बड़ा बेटा आ गया तो छोटे की क्या िफ़क्र ! सारी कमाई बीमारी पर लुटा दी, मगर... ”
“ख़ुदा करे, मेरा बेटा इतना कमाए कि अपनी माँ का नाम भूल जाए( फि़र तुमसे कभी पूछे कुछ याद है, हमारी अम्माँ का नाम क्या था ?”
“क्या हुआ, जै़नब बहन ?” डॉॉ वर्मा कमरे में दाखि़ल होते हुए बोले।
“बुख़ार है, जो टूटता ही नहीं। आज कोई पंद्रह दिन हो गए हैं।”
“इलाज किसका चल रहा है ? नुस्खा दें।”
“हाल बताकर यह दवा हस्पताल से ले आते थे।” इतना कहकर नसरीन कमरे से बाहर निकल गई।
“सरकारी हस्पतालों का हाल बहुत बुरा है। क्या कहा जाए !” डॉॉ वर्मा ने नब्ज़ देखी, आँख, ज़बान और सीने पर आला लगाकर देखा( फि़र कुछ दवाएँ लिख दीं।
मिश्रा जी और अय्यूब दोनों पड़ोसी थे। मिश्रा के घर औलाद न थी और अय्यूब के घर तीन लड़के तथा तीन लड़कियों की खेती तैयार थी। दिलशाद अपने सभी भाइयों से अलग था। मारपीट करना, पढ़ाई में दिल न लगाना और सारी दोपहर लंगूर की तरह इस पेड़ से उस पेड़ पर उचकना। अय्यूब को जिस दिन ग़ुस्सा चढ़ जाता उस दिन दिलशाद की कमर और पीठ बेंत की मार से ज़ख़्मी हो जाते। घर से निकालते तो वह मिश्रा जी के घर के सामने पीपल के चबूतरे पर जाकर बैठ जाता और रात को मिश्रा उसे प्यार से घर में ले जाते, हल्दी-चूना लगवाते, खाना खिलाते, फि़र घर पहुँचा आते। धीरे-धीरे संबंध बदलने लगा। दिलशाद लंबा-चौड़ा जवान बन गया। अय्यूब का क़द छोटा पड़ गया। दूसरे, मिश्राइन ने पिछवाड़े की अमराई की तरफ़ वाला कमरा दिलशाद को दे दिया। दिलशाद के घर से चले जाने से दोनों भाइयों ने राहत की साँस ली और ज़ैनब ने ऊपर वाले का शुक्र अदा किया कि रोज़-रोज़ की मारधाड़ से बच्चे की जान छूटी। उधर, देशी घी में चुपड़ी रोटी और सब्ज़ी जिस प्यार से मिश्राइन खिलाती थीं उससे एक सहज वात्सल्य उभरा और कुछ वर्षों बाद लोग अय्यूब के दो लड़कों की गिनती करते थे और दिलशाद को मिश्रा का बेटा कहते। नए लोग जब यह सब सुनते तो उलझकर रह जाते थे। उनको रिश्तों का कोई सिर-पैर समझ में नहीं आता था।
रात को जब तीनों भाई मिले तो उनकी आँखें बचपन की यादों से चमक उठीं। दिलशाद ने शादी में न आने का शिकवा करते हुए रिज़या को मिलवाया। नई बहू सविता पहली बार ससुराल आई थी। जै़नब बिस्तर से लगी थी, सो मिश्राइन ने रात के भोजन पर बुला साड़ी, ज़ेवर और सिंदूर की डिबिया दी। गई रात तक हँसी-मज़ाक़ चलता रहा। सविता दिल्ली की लड़की थी, शहर में पली-बढ़ी थी। उसके लिए तो यह गाँव अजूबा था। ऊपर से रखरखाव अजीब था।
“अपने माँ-बाबा को ले के आना अगली आम की फ़सल पर।” मिश्राइन ने सविता के गाल पर हाथ फ़ेरा।
“हमारे अम्माँ-अब्बा को इस प्यार से कभी न बुलाया।” नसरीन ने आँखें मटकाईं।
“उनके घर अम्माँ प्यार से आम के टोकरे जो भेजती हैं।” रिज़या ने हँसते हुए कहा।
दो हफ़्ते पलक झपकते गुज़र गए। ज़ैनब भी सही इलाज पाते ही पनप गईं और उनका चलना-फि़रना पहले की तरह होने लगा। सविता को अपनी ससुराल और मिश्रा ताया का घर बड़ा भाया। हर बात में अपनापन था। किसी भी तरह का तनाव न था। ऐसी कोई कठिनाई नहीं थी जो हल न हो पाती। ऐसी कोई उलझन न थी जो सुलझ न पाती।
रात को सविता जब छत पर सोने को गई तो नवाब से बोली, “मैं तुम्हें पहले से कहीं ज़्यादा प्यार करने लगी हूँ।”
“एकाएक यह बारिश कैसी ?”
“तुम्हारे घर वाले बहुत अच्छे हैं।”
“तुम्हारा मतलब नसरीन से है ?”
“मज़ाक़ छोड़ो ! सच कह रही हूँ, अब तो मैं हर लंबी छुट्टी यहीं गुज़ारने आऊँगी।”
“और बच्चे, वे राज़ी हो जाएँगे ?”
“बिलकुल ! देखना, उन्हें कितना मज़ा आएगा !”
दोनों की मि)म हँसी हवा में तैर गई। उनके सपने में इनसानी नस्ल का एक बच्चा रोज़ रात को खिलखिलाता है( मगर महीनों गुज़र जाने के बाद उनका सपना सिफ़ऱ् सपना रह गया। इस समय भी वे अपनी साझी संस्कृति की दहलीज़ पर सपना सँजोए खड़े थे। तभी उन्हें दूर से शोर जैसा सुनाई पड़ा।
“नवाब ! नीचे उतरो।” नीचे से किसी ने पुकारा।
“क्या बात है ?” दोनों चकित-से नीचे उतरे।
“सामान बाँधो, जीप खड़ी है और... ” दिलशाद, जावेद मोहल्ले के दूसरे लड़कों के साथ खड़े थे।
“मगर क्यों ? आखि़र हुआ क्या है ?” नवाब ने परेशान होकर पूछा।
“सवाल-जवाब बाद में... रास्ता लंबा है।”
रिज़या और नसरीन ने उनका सामान बाँध दिया था, जिसको जावेद जीप में रख रहा था। ज़ैनब ने सविता की बलाएँ लीं, बेटे का माथा चूमा और फ़ुसफ़ुसाकर कहा, “मैं दिल्ली मिलने आऊँगी।”
“मगर अम्माँ, इस तरह से... कोई बताता क्याें नहीं है ?” तंग आकर नवाब ऊँची आवाज़ में बोला।
“पास के गाँव में बेहने की लड़की को कोई चिकवे का लड़का उठा ले गया था। शादी करके कई माह बाद आज दुलहन के साथ वह घर लौटा था। लड़की की माँ को पता चला तो वह बेटी को घसीट ले गई और अब लड़के की हत्या के लिए उसे ढूँढ़ा जा रहा है... हालात तनाव-भरे हैं।” दिलशाद का दोस्त बोला।
“यार ! मेरा उनसे क्या लेना-देना ! फि़र मैं कोई... स्पेशल मैरिज एक्ट में हमारी शादी हुई है। अजीब बदतमीज़ी है !” नवाब अपमान से भर उठा।
“ये लोग कुछ भी कर सकते हैं। तुम्हारी रक्षा हमारा धर्म है, भाई!”
“सबको पता है, तुम सविता भाभी के साथ आए हुए हो और... हमें कुछ आशंका-सी है... ।”
“घर में सब ठीक है, किसकी हिम्मत पड़ेगी भला इधर आने की !” नवाब आक्रोश से बोला।
“मगर घर से बाहर के हालात ठीक नहीं। तुम नहीं जानते, ये भोले-भाले गाँव पहले जैसे नहीं रह गए हैं।”
टूटा-सा नवाब सविता के संग जीप में बैठ गया। रात की चादर को चीरते हुए जीप आगे बढ़ रही थी और नवाब सोच रहा था कि ऐसे हालात में नई इनसानी नस्ल के बच्चे को पैदा करना क्या ज़रूरी है ? हो गया तो उसे हम क्या देंगे साझी संस्कृति या बँटा हुआ हिंदुस्तान ?
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