आरम्भ, नरेश सक्सेना और जयकृष्ण — विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा - 18: | Vinod Bhardwaj on Aarambh




सच वाला बेमिसाल संस्मरण। 

कल के संस्मरणनामा में विनोद जी ने जब लिखा कि, 'ये मेरी कोविद लॉकडाउन डायरी की विदाई किस्त है, कुछ और लिखूँगा , स्टैम्प साइज़ संस्मरण नहीं। तो मैंने उन्हें सन्देश भेजा कि, 'सर रुकना नहीं है आपको!!!' और आज सुबह जब उठा तो उनकी ईमेल आ चुकी थी. बेमिसाल 'आरम्भ, नरेश सक्सेना और जयकृष्ण' की यादों को समेटे. ... भरत एस तिवारी / शब्दांकन संपादक



आरम्भ, नरेश सक्सेना और जयकृष्ण

— विनोद भारद्वाज संस्मरणनामा

1967 में लखनऊ से एक छोटी पत्रिका निकली थी आरम्भ। वह त्रैमासिक थी, उसके कुल छह अंक निकल पाए। आप ग़ौर कीजिए, उस पत्रिका का दबदबा इतना था की कमलेश्वर जैसे बड़े लेखक को सारिका में अनिल कुमार घई के नाम से आरम्भ के ख़िलाफ़ एक लेख लिखना पड़ा था, बड़े लेखकों की छोटी पत्रिका

हाल में राजेन्द्र शर्मा धूमिल पर मेरी यादों को रेकर्ड कर रहे थे, तो आरम्भ का ज़िक्र आना ही था। मैंने उन्हें बताया, आरम्भ के तीन संपादक थे—मैं, नरेश सक्सेना और जयकृष्ण। पंजीकरण की ज़रूरतों को देखते हुए संपादक के रूप में नाम मेरा ही जाता था। उससे पहले ग्यारहवीं क्लास में पढ़ते हुए मैंने उन्मेष नाम से एक पत्रिका निकाली थी, जिसके तीसरे और अंतिम अंक में राजकमल चौधरी की दो कविताएँ छपी थीं। राजकमल को मैंने छोटा सा ख़त लिखा और फ़ौरन बड़े अलग तरह के गहरे गुलाबी काग़ज़ पर उनकी तीन कविताएँ आ गयीं। इस पत्रिका के शुरू के दो अंक साधारण थे, पर तीसरे अंक में लखनऊ के प्रतिभाशाली प्रिंटमेकर जयकृष्ण ने पत्रिका के लिए अपना साइन किया हुआ प्रिंट हर प्रति के साथ मुफ़्त दिया। उन दिनों स्वामीनाथन ने कांट्रा पत्रिका में यह परंपरा शुरू की थी। राजकमल की एक कविता आधी नींद में पूरी बातचीत बाद में मरणोपरांत आरम्भ के दूसरे अंक में छपी। कमाल के कवि थे राजकमल , एक अनजान छोटे अपरिचित लड़के के ख़त को पा कर तीन अच्छी कविताएँ भेज दीं। वो ज़माना लघु पत्रिकाओं का था, जैसे आज फ़ेसबुक लाइव प्रसारण का है।

उन्मेष का तीसरा अंक बेहतर था, पर एक सहपाठी ने उसी वक़्त एक अपना उन्मेष छाप दिया। दूसरे अंक में वह साथ था पर हम दोनों की समझ में मेल नहीं था। ज़ाहिर है उस उम्र में मेरा भी धीरे धीरे विकास हो रहा था। आरम्भ की जब योजना बनी तो उसे रजिस्टर कराना ज़रूरी हो गया ताकि उस नाम से एक अन्य पत्रिका न आ जाए। नरेश पेशे से इंजीनियर थे, नौकरी करते थे। जय कला महाविद्यालय में प्रिंट सेक्शन के प्रमुख थे। दोनों का नाम पत्रिका में संबद्ध के रूप में जाता रहा। वो दोनों मुझसे आठ साल सीन्यर थे। आरम्भ की चर्चा इतनी हुई कि इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका में यह छपा कि आरम्भ के असली संपादक तो कृष्णनारायण कक्कड़ हैं। उनका राजकमल के मुक्ति प्रसंग पर अद्भुत लेख आरम्भ में ही छपा था। वह लखनऊ के युवा लेखकों के अघोषित गुरु थे। पर उनका आरम्भ से कोई लेना देना नहीं था। थोड़ी बहुत राय तो हमें श्रीकांत वर्मा या कुँवर नारायण भी देते थे।



जय ने पत्रिका के कला पक्ष को अद्वितीय बना दिया। नामी कलाकारों के रेखांकन छपे। दूसरे अंक का कवर तो अद्भुत था। लोग नहीं जान पाए कि कैसे एक लघु पत्रिका का कवर इतने रंगों में हो सकता है। लीनोकट तकनीक के विशेषज्ञ जय ने लखनऊ के पुराने इलाक़े नक्खास में ख़ुद मेरे साथ खड़े हो कर ट्रेडिल मशीन पर एक एक कवर की बाक़ायदा जाँच की। आरम्भ को कविता और कला की पत्रिका नाम दिया गया था। पहले अकाल अंक में तो नामी कलाकारों के रेखांकन थे, जय के कारण।

नरेश का योगदान उतना ही बड़ा था। वे कवि के रूप में प्रसिद्ध थे, विनोद कुमार शुक्ल उनके दोस्त थे।

सूचना विभाग उन दिनों डेढ़ सौ रुपए का विज्ञापन देता था। ठाकुर प्रसाद सिंह वहाँ उप निदेशक थे। मैं उनके पास विज्ञापन के चक्कर में गया, उन्होंने अकाल पर अपनी कविता दी और सबसे बड़ी बात धूमिल का सहारनपुर का पता दिया ये कह कर कि उनके पास अकाल पर बहुत अच्छी कविताएँ हैं।

आरम्भ की असाधारण सफलता में धूमिल की कविताओं का भी बड़ा हाथ था। वे बनारस अपने तबादले के लिए परेशान थे। आइटीआइ में इंस्ट्रकटेर थे, ट्रान्स्फ़र के चक्कर में लखनऊ कई बार आए और मेरे घर में ही रुके। शीला नाम की एक लड़की हमारे यहाँ काम करती थी, वो मेरी माँ से लड़ती थी कि यह विनोद का दोस्त कैसे हो सकता है, उसका तो यह चाचा लगता है। मेरी एक कविता शीला मंगलेश डबराल ने जनसत्ता में छापी भी थी। उसमें धूमिल का संदर्भ है। धूमिल ने छत के कमरे में अपनी मोची राम कविता का अविस्मरणीय पाठ किया था, यह कह कर कि त्रिलोचन के बाद इस कविता के तुम दूसरे श्रोता हो। नामवर सिंह की चर्चित पुस्तक कविता के नए प्रतिमान में आरम्भ के संदर्भ भरे पड़े हैं। धूमिल उनके लिए अकविता के विरुद्ध एक कड़ी कार्यवाही थे।

धूमिल की कविता मोची राम आरम्भ में छपी और लीलाधर जगूडी भी मेरे घर ठहरने लगे, प्रयाग जी तो आए ही थे। उस औरत की बग़ल में लेट कर मैंने पहली बार जाना कि नंगापन अंधा होने के ख़िलाफ़ एक सख़्त कार्यवाही है, धूमिल की यह अद्भुत कविता आरम्भ में ही छपी थी। मेरी प्रिय कविता।

रघुवीर सहाय, कुँवर नारायण, श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी, मलयज, विनोद शुक्ल, नरेश, मृणाल पांडे, वीरेन डंगवाल, लीलाधर, गिरधर राठी, दूधनाथ सिंह , अजय सिंह, प्रयाग, महेंद्र भल्ला, पुष्पेश पंत, राजकमल, कक्कड़ , कमलेश जैसे बड़े रचनाकार आरम्भ में छपे जिनके कारण उसे बड़े लेखकों की छोटी पत्रिका कहा गया। आरम्भ की अनोखी डाक छप चुकी है किताब के रूप में। वह उस समय का अद्भुत दस्तावेज़ है। अशोक वाजपेयी तब सीधी में कलेक्टर थे, पर उनकी लम्बी चिट्ठियाँ उस दौर का बहुत अच्छा परिचय हैं।

धूमिल ने मुझे सत्ताईस ख़त लिखे थे जो उनके जीवन और कविता के बारे में अनोखा दस्तावेज़ है। मैंने अपनी एक ही कविता आरम्भ में छपी, लखनऊ की पीली बस में नहीं भी हो सकती है कविताआलोक धन्वा एक बार उस कविता को याद कर रहे थे, यही काफ़ी है।

आज याद आ रहा है एक शाम नरेश जी का मेरे घर पर दोस्तों के बीच बाँसुरी बजाना, जय के घर की पार्टियाँ, नरेश की सुंदर और संवेदनशील पत्नी विजय की याद रह जाने वाली बातें, आरम्भ की ढाई सौ प्रतियाँ साइकल के पीछे बाँध कर घर लाना, और काफलपानी से मंगलेश डबराल का पोस्टकार्ड कि मैं सिर्फ़ उन्नीस साल का संघर्षशील लड़का हूँ, जबकि मैं उनसे भी उम्र में थोड़ा छोटा था।

नरेश और जय के बिना आरम्भ का कोई अस्तित्व न होता, मुझ जैसे उत्साही लड़के को उन दोनों ने प्यार से बढ़ावा दिया।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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श्रीलाल शुक्ल की यादें

विष्णु कुटी और कुँवर नारायण की यादें

यशपाल:: विनोद भारदवाज संस्मरणनामा 

निर्मल वर्मा :: विनोद भारदवाज संस्मरणनामा


केदारनाथ सिंह की यादें — विनोद भारदवाज संस्मरणनामा



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