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‘हंस’ वार्षिक साहित्योत्सव: 28 से 30 अक्टूबर, बीकानेर हाउस, नई दिल्ली | 'Hans' Annual Literature Festival: 28 to 30 October, Bikaner House, New Delhi

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'Hans' Annual Literature Festival: 28 to 30 October, Bikaner House, New Delhi


तीन दिवसीय राजेंद्र यादव स्मृति समारोह

हिंदी साहित्य जगत की प्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ अपने वार्षिक साहित्योत्सव का आयोजन कर रही है. ‘हंस साहित्योत्सव’ का आयोजन 28 से 30 अक्टूबर तक नई दिल्ली स्थित बीकानेर हाउस में किया जा रहा है.

वरिष्ठ कथाकार राजेंद्र यादव स्मृति समारोह के नाम से चर्चित ‘हंस साहित्योत्सव’ में हिंदी जगत के साहित्य, रंगमंच और सिनेमा पर चर्चा होगी. साहित्य उत्सव में देशभर के प्रमुख लेखक, प्रकाशक, अनुवादक, रंगमंच कलाकार, निर्देशक और फिल्मी हस्तियां शिरकत कर रही हैं. ये हस्तियां विभिन्न सत्रों के माध्यम से पाठकों-दर्शकों से संवाद करेंगी.

तीन दिन चलने वाले राजेंद्र यादव स्मृति समारोह में अनेक रोचक सत्रों का आयोजन किया गया है. इनमें लिंग समानता; महिला और हिंसा; सिनेमा के पर्दे पर महिला का बदलता चेहरा; अनुवाद के महत्व, लेखक के जीवन में प्रबंधक का महत्व आदि सत्र शामिल हैं. इन सत्रों का केंद्र बिन्दु साहित्य, कला और सिनेमा में महिलाओं की भूमिका होगा.

‘हंस’ की प्रबंध निदेशक रचना यादव ने बताया कि ‘हंस साहित्योत्सव’ के पीछे का उद्देश्य देशभर में हिंदी की अपार साहित्यिक और रचनात्मक प्रतिभाओं को पहचानना और उनका जश्न मनाना है. उन्होंने कहा कि यह हमारी समर्थ एवं समृद्ध हिंदी भाषा का भी जश्न है जिसमें रचनात्मक अभिव्यक्ति की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. यह कार्यक्रम एक रचनाकार (विशेष रूप से महिला रचनाकार) के समक्ष आने वाली चुनौतियों एवं उनके समाधानों को तलाशने और जानने की भी एक कोशिश है.

हंस साहित्योत्सव के सत्र 28 अक्टूबर दोपहर 12.15 बजे ‘स्त्री कथा का सारा आकाश और हंस’ विषय पर चर्चा होगी. इसमें शिरकत कर रही हैं चर्चित लेखिका ममता कालिया, अनामिका, अलका सरावगी, रोहिणी अग्रवाल और संजीव कुमार.

दोपहर 1.15 बजे परंपरा के आईने में स्त्री छवि विषय पर सुशीला टाकभौरे, उर्वशी बुटालिया, पंकज बिष्ट, रश्मि भारद्वाज, माने मकर्तच्यान और मनीषा पांडे शिरकत रही हैं.

शाम 3 बजे ‘हिंदी साहित्य में स्त्री आलोचकों की पहचान’ विषय पर सुधा सिंह, वीरेंद्र यादव, रश्मि रावत, प्रज्ञा रोहिणी और नीलिमा चौहान अपने विचार व्यक्त करेंगी.

शाम 4 बजे ‘स्त्री और हिंसा’ विषय पर एक सत्र का आयोजन किया जाएगा. इस सत्र में कथाकार सुधा अरोड़ा, गरिमा श्रीवास्तव, प्रियंका दुबे, नीला प्रसाद, मीना सोनी और सुदीप्ति अपने-अपने विचार व्यक्त करेंगी.

29 अक्टूबर को प्रात: 11 बजे कितनी बराबरी, कैसी आजादी नामक सत्र में वृंदा ग्रोवर, सविता सिंह, जया जादवानी, अंजली देशपांडे, सुजाता और देवयानी भारद्वाज भाग ले रही हैं.

इसी दिन दोपहर 2.30 बजे ‘कविता में स्त्री और स्त्री में कविता’ विषय पर असद जैदी, गगन गिल, शुभा, कात्यानी, लीना मल्होत्रा, ज्योति चावला और पूनम अरोड़ा अपने विचार प्रस्तुत कर रही हैं.

30 अक्टूबर को प्रातः 11 बजे जिलियन राइट, सुकृता पॉल कुमार, रख्शंदा जलील, मधु बी. जोशी, सुयश सुप्रभ और कुणाल रे स्त्री ‘लेखन और अनुवाद’ विषय पर संवाद करेंगे.


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हिन्दी कहानी 'अज़ाब' - विजयश्री तनवीर | Vijayshree Tanveer - Hindi Story - Azab




लेखन के बहाव की लय तय कर रही होती है कि जो लिखा गया वह कहानी बना या नहीं। युवा कहानीकार विजयश्री तनवीर की कहानी ‘अज़ाब’ इस पाठक को अपने साथ बहा ले गई। ~ सं० 

हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर नासिरा शर्मा की कविताएं | Nasera Sharma - Poetry

नासिरा शर्मा




नासिरा शर्मा की कविताएं!

चौंकिए नहीं, पढ़िए साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि से सम्मानित हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर नासिरा शर्मा की कविताएं। 



शब्द-परिंदे 

शब्द जो परिंदे हैं। 
उड़ते हैं खुले आसमान और खुले ज़हनों में 
जिनकी आमद से हो जाती है, दिल की कंदीलें रौशन। 

अक्षरों को मोतियों की तरह चुन 
अगर कोई रचता है इंसानी तस्वीर, तो 
क्या एतराज़ है तुमको उस पर?

बह रहा है समय, सब को लेकर एक साथ 
बहने दो उन्हें भी, जो ले रहें हैं साँस एक साथ। 
डाल के कारागार में उन्हें, क्या पाओगे सिवाय पछतावे के?

अक्षर जो बदल जाते हैं परिंदों में, 
कैसे पकड़ोगे उन्हें?
नज़र नहीं आयेंगे वह उड़ते, ग़ोल दर ग़ोल की शक्ल में। 
मगर बस जायेंगे दिल व दिमाग़ में, सदा के लिए। 
किसी ऊँची उड़ान के परिंदों की तरह। 

अक्षर जो बनते हैं शब्द, शब्द बन जाते हैं वाक्य। 
बना लेते हैं एक आसमाँ, जो नज़र नहीं आता किसी को। 
उन्हें उड़ने दो, शब्द जो परिंदे हैं। 

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दुनियाँ के क़लमकारों के नाम

किताबें क़रीनें से सजी
रहती हैं अलमारियों में बंद
मगर झाँकती रहतीं हैं शीशों से हरदम। 

रहती हैं खड़ी एक साथ 
झाड़ते हैं धूल उनकी, सहलाते हैं उन्हें प्यार से
दे जाती हैं रौशनी दिल व दिमाग़ को
यह करिश्मा है लिखनेवालों का 
जिनके पास अक्षरों की दौलत है
जिसको जोड़ कर, वह खड़ी करते हैं मिनारें
विचारों की, जो चूमती हैं आकाश के सीने को। 

भले ही शरीर छोड़ दे साथ उनका
जला दिए जायें या दफ़्न हो जायें उनके मुर्दा शरीर
मगर रहते हैं वह ज़िंदा, मरते नहीं कभी वह। 

इसलिए 
उन्हें लिखने के लिए आज़ाद छोड़ दो
मत बाँधो, उनके क़लम को, सूखने न दो, उन की सियाही को 
उनके शब्द बरसते हैं बंजर धरती पर
उगाते हैं विचारों की खेती, बोते हैं नए बीज
जो चलते हैं शताब्दियों तक, सीना ब सीना, पीढ़ी दर पीढ़ी 
उन्हें ख़त्म करना या मिटा देना, किसी के बस में नहीं
क्योंकि, वह लिख जाते हैं, कह जाते हैं, कुछ आगे की बातें। 


`````````````````

मैं शामिल हूँ या न हूँ। 

मैं शामिल हूँ या न हूँ मगर हूँ तो 
इस काल-खंड की चश्मदीद गवाह! 
बरसों पहले वह गर्भवती जवान औरत
गिरी थी, मेरे उपन्यासों के पन्नों पर
ख़ून से लथपथ। 
ईरान की थी या फिर टर्की की
या थी अफ़्रीका की या फ़िलिस्तीन की
या फिर हिंदुस्तान की 
क्या फ़र्क़ पड़ता है वह कहाँ की थी। 

वह लेखिका जो पूरे दिनों से थी
जो अपने देश के इतिहास को
शब्दों का जामा पहनाने के जुर्म में
लगाती रही चक्कर न्यायालय का
देती रही सफ़ाई ऐतिहासिक घटनाओं 
की सच्चाई की, और लौटते हुए 
फ़िक्रमंद रही, उस बच्चे के लिए 
जो सुन रहा था किसी अभिमन्यु की तरह
सारी कारगुज़ारियाँ। 

या फिर वह जो दबा न पाई अपनी आवाज़ और
चली गई सलाख़ों के पीछे 
गर्भ में पलते हुए एक नए चेहरे के साथ। 
यह तो चंद हक़ीक़तें व फसानें हैं
जाने कितनों ने, तख़्त पलटे हैं 
हुकमरानों के
छोड़ कर अपनी जन्नतों की सरहदें। 

चिटख़ा देती हैं कभी अपने वजूद को
अपनी ही चीत्कारों और सिसकियों से
तोड़ देतीं हैं उन सारे पैमानों व बोतलों को
जिस में उतारी गई हैं वह बड़ी महारत से
दीवानी हो चुकी हैं सब की सब औरतें। 

मैं शामिल हूँ या न हूँ, मगर हूँ तो
इस काल-खंड की चश्मदीद गवाह। 

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लाकडाउन में पदयात्रा

सुनो, मज़दूरों! 
मेरी बचपन की यादों में
तुम्हारी यह तस्वीर न थी। 
तब
बाँस और बल्लियों के भारा पर तुम्हें 
सुपरमैन की तरह चढ़ते उतरते देखा था। 
सिमेंट-बालू के ढेर को, आटे की तरह
फावड़े से गूँधते देखा था। 
शाम ढले नारंजी लपटों पर, 
खाना पकाते देखा था। 
पूछा था, ‘क्या पका रहे हो?’
जवाब मिला था, ’दाल का दूल्हा‘ सुन कर
हम हँसी से लोट-पोट हुए थे। 

बाद में कई बार सीढ़ी फिसलने और 
संतुलन बिगड़ने से, 
ऊँचाई से ज़मीन पर उल्का की तरह, तुम्हें 
गिरते देखा था। 
न जीवन-बीमा था न कोई नियम क़ानून, 
सारी ज़िंदगी तुम्हें लंगड़ाते देखा था। 

सूरज सवा नेज़े पर हो, या बदली भरी
कड़कड़ाती सर्दी हो। 
तुम दीवारें उठाने, ढोला खोलने व प्लास्टर 
करने में मस्त रहते। 
और जब काम ख़त्म करते तो, तसले से करनी तक, धोना नहीं भूलते थे। 
नहीं भूलते थे औज़ारों की पूजा करना। 

तुम्हारे मज़बूत बोझा ढोते बदन में, 
भीम और अर्जुन हमेशा नई महाभारत रचते
दिखते थे। 
तुम, 
ऐसे ही बसे थे मेरी बचपन की यादों में। 

मगर अब! 
नहीं सहन कर सकती तुम्हारी इस नई तस्वीर को। 
बना कर कल-कारख़ानें, अस्पताल, घर और स्कूल। 
लौट रहे हो तुम, हर जगह से ख़ाली हाँथ?
जो सड़कें तुमने बनाई थीं, बेशक ले जायेंगी तुम को, तुम्हारे घर तक। 
जो पदयात्रा देख रहे हैं तुम्हारी, 
वह संतुष्ट हैं यह कह कर, ’तुम मज़दूर हो! 
ले चुके हो पहले ही अपनी दहाड़ी, बाक़ी 
जो बची है, जब लौटोगे तो ले लेना।’

‘रिश्ता क्या है तुम से, इस कोरोना के लाकडाउन में?
मौत का भय, जब कुतर रहा 
हो इंसानियत को। 
तो ऐसी महामारी में, तुम्हारे लिए 
नहीं क़ुर्बान कर सकते औरों को।’
अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते, वह सब लगा बैठे हैं ताले, अपनी तिजोरियों में। 

सुनो मज़दूरों! 
मत लौटना यहाँ, फिर फँसोगे यहाँ, इसी तरह। 
सपनों के जिस बोरे को कंधों पर लाद, 
यहाँ चले आए थे कमाने। 
सपनों के उन्हीं चिथड़ों से हो सके तो 
सँवारों अपने गाँव और क़स्बों को। 
लेकिन! 
मुझे पता है
तुम लौटोगे, लौटोगे नहीं तो खाओगे क्या?

तो फिर सुनो मज़दूरों! 
अगर तुम लौटे इस बार तो, 
एक नए इरादे से लौटना। 
नई शर्तों का अनुबंध साथ लाना। 
जो फिर तुम्हें मीलों भूखा न चलवाए। 
छोड़ न दे तुम्हें लावारिस और
झाड़ न ले हाथ अपना ऐसी आपदाओं में। 
अपनी मेंहनत को हरगिज़ गिरवीं न रखना
इस बार। 
बल्कि यह अहसास दिलाना कि तुम हो, 
उनकी योजनाओं को साकार करने वाले
मज़दूर योद्धा! 
तुम हो उत्पादन और निर्माण के कलपुर्ज़े! 
जिसके बिना नहीं चल सकता, 
रोज़मर्रा का भौतिक जीवन एक भी क़दम। 

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जो लगते हैं कुछ अलग से

पता नहीं क्यों, हम सहन नहीं कर पाते उन्हें 
जो नहीं लगते अपने से
जो लगते हैं कुछ अलग से
यहाँ तक कि नहीं पसंद कर पाते हैं उन्हें
जो अलग ख़ुदा को मानते हैं। 

मार डालते हैं उन्हें या फिर जी भर, 
करते हैं अपमान उनका। 
जार्ज फ़्लोयड हो या अख़लाक़
रोहित वैमुला हो या राहुल सोलांकी
कर जाते हैं झोंक में ग़लती और
रंग लेते हैं अपने हाथ उनके ख़ून में। 
नहीं रोते बाद में, अपने किए पर
न पछताते हैं आत्मग्लानि से। 

पूछता है जब कोई 
मेरी क्या ख़ता है कि बनाने वाले ने
नहीं बनाया मुझको तुम्हारी तरह! 
हर बार— बारम्बार 
यही सवाल पूछता है ब्लैक - व्हाइट से
यलो - ब्राउन से मगर 
जवाब किसी के पास माक़ूल नहीं। 

न स्वीकार करते हैं कि सब को
बनाया है ख़ुदा ने एक ही मिट्टी से। 
बहता है ख़ून रगो में एक ही रंग का
मगर वह नकारता है बाक़ियों को। 

जला डालता है तैश में आकर क़ुरान, 
बाइबिल, तौरेत और किताबेअक़दस को
फिर नाचता है लाल लपटों में 
किसी शैतान की तरह। 
ढाह देता है स्तूपों, मंदिरों, मस्जिदों और
गिरजाघरों को अपने उन्माद में आकर। 
बना डालता है मलबा, पल भर में
इंसानी मेहनत और कला का। 
और फिर 
टहलता है रात -दिन उस पर, 
किसी बदरूह की तरह दर- ब-दर। 

हम खुद, क्या कम हैं
जो जात-पात, गोत्र, नुतफा और हड्डी 
दलित, ब्राह्मण, सैय्यद, मुग़ल, कैथोलिक, 
प्रोटेस्टेंट, भील, यहूदी, अरमनी
बाँट लेते हैं फल-फूल, नदी-पहाड़ और पशु-पक्षी। 

छीन लेते हैं रोज़ी-रोटी मार कर लात, 
दूसरों के पेट पर। 
सिखाते हैं भेदभावऔर नफ़रत 
फिर देते हैं दुहाई मज़हब की। 
यह लोग कौन हैं जो हमारे अंदर की दबी चिंगारी को हवा देकर, 
बाक़ी लोगों की ज़िंदगी में लगा देते हैं ग्रहण और समझते हैं ख़ून बहा कर, 
किया है पुन्य का काम
पता नहीं क्यों, हम सहन नहीं कर पाते
अपने अलावा दूसरे इन्सान को

पूछना है मुझे, 
क्यों नही एजाद कर पाई मेडिकल साइंस 
कोई भी ऐसा इंजेक्शन। 
जो कर सके इस पुरानी बीमारी का
इलाज तुरंत। 
जब हो चुके हैं पैग़म्बर और फ़्लासफर के
हर शब्द बेअसर। 
जिसके लगते ही आदमी के अंदर की
वहशत और खू़ँख़ारपन, 
पलक झपकते ही ग़ायब हो जाए। 
और वह मुक्त हो जाएअचानक
अपने गुनाहों से। 

अरसा हो गया है, 
इन के अंदर की आग पिघलती नही। 
नहीं भीगती इनकी ऑंखें, 
किसी इंसान की तरह। 
नहीं थमता इनका प्रतिशोध, 
बारिश की तरह। 

कहाँ होगा अंत हमारा, 
जब नहीं सीख पाए प्यार करना। 
नहीं दे पाए आदर - सम्मान हम, 
दूसरे इंसान को। 

जो नहीं लगते अपने से, 
जो लगते हैं कुछ अलग से। 

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सुनहरे लम्हे

क्यों टीसती हैं कनपटी की नसें
क्यों दिल हरदम डूबा रहता है?
उठती है हौल दिल में, जैसे कुछ घटने वाला हो। 

सुबह हो, या हो शाम, दिल बुझा-बुझा सा रहता है
पूछती हूँ अपने से, किस अनहोनी का इंतज़ार है तुम्हें?
जजब दिन हो चमकीलाऔर गुज़र गया हो बहुत कुछ। 

शाहीन बाग़ का धरना उठ गया, 
मज़दूर लौट चुके हैं अपने घरों को, 
झूठ भी खुल रहे हैं धीरे-धीरे। 
लाकडाउन से निकल, टक्कर ले रहे हैं लोग 
इस महामारी से। 
छूटती नौकरी, बढ़ती महंगाई और बेकारी से, जूझने को तैयार हैं सब के सब। 
फिर भी दिल घबराता रहता है जैसे कुछ घटने वाला हो। 

पूछती हूँ आप से, 
क्या कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं आप भी?
कुछ आहटें, कुछ सरसराहटें, जैसे कुछ होने वाला हो। 

सूरज तो रोज़ निकलता है, बारिश भी होती है। 
रात को चाँद हँसता है तारों के बीच। 
सब से बड़ी बात, ज़मीन ठहरी हुई है पाँव के नीचे। 
सब कुछ चल रहा है, उसी तरह से
फिर भी ख़दशा दूर नहीं होता दिल से। 

शायद
फँस गई हूँ मैं हालात के भँवर में, 
जैसे अब कुछ नया घटने वाला हो। 
इसी इंतज़ार में खो रही हूँ मैं, 
अपने सुनहरे लम्हे ज़िंदगी के। 

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प्रकृति का गीत

जब सब परेशान और बेहाल हैं। 
उस समय यह क़तारों में खड़े चुपचाप दरख़्त! 
राहत की लम्बी साँसें खींच, 
मुद्दतों के बाद आज वह सब के सब। 
फैला कर अपनी हरी शाखाओं के डुपट्टे, 
लहरा रहे हैं नीले आसमान की तरफ़। 

हवा के न्योते पर आईं चिड़ियाएँ, 
डाल-डाल पर फुदकती चहचहाती हुई। 
उतरतीं हैं सब एक ख़ास अदा के साथ, 
घाँस के मख़मली मैदानों पर। 

चुगती हैं जाने क्या-क्या, 
फिर सब्ज़ टहनी पकड़ झूलती हुई। 
लेती हैं पेंगे बादलों के घेरों की तरफ, 
बतियाती हैं जाने कहाँ कहाँ के क़िस्से। 

कैसा बदला है यह ज़माने का चरखा?
जब सब बंद हैं, घरों में उदास और फ़िक्रमंद। 
मौसम भी हो उठा है अनमना सा, 
कभी बारिश, कभी गर्मी, कभी आँधी-धक्कड। 
देख कर बेवक़्त की तड़ातड़ गिरती, 
मेंह की बूँदों को। 
दरख़्तों ने फुनगी से लेकर जड़ तक, 
धो डाली सारी धूल और मिट्टी अपनी। 

खिली धूप की पिलाहट में, 
झूमते पेड़ों ने झटक कर अपनी, 
आकाश की नीली अलगनी पर, 
फैला दी अपनी शोख़ पत्तियाँ सारी। 

जब अपने -अपने घरों से दूर, 
फँसें हैं जहाँ -तहाँ सब लोग। 
भूखे हैं, बीमार हैंऔर निराश। 
तो उड़ती हैं चिड़ियाएँयह कहती हुई, 
‘कैसी ताज़ा हवा, न बू न धुआँ, न हार्न का शोर! 
मज़ा है अब अपने घोंसले बनाने का, 
जब आसमाँ भी अपना और ज़मीन भीअपनी। 

दरख़्तों ने सुना, और झूम कर यह कहा, 
‘खड़ा हूँ मैं, अरसे से यहाँ। 
न समझो! यह दुनिया अकेली हमारी रहेगी, 
जो देखा है वह सब, कल कहानी बनेगी। 

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मीडिया के बंद होते दरवाज़े 

जो सिखाते थे रोज़ जीना हमें, 
अपनी लिखित रपटों और मौखिक 
समाचारों से। 
जो ख़बर लेने पहुँच जाते थे रणक्षेत्रों में, 
फटते बमों और बरसती गोलियों के बीच। 
ख़बर भेजते रहते थे दम -ब -दम, 
अपने मीडिया हाऊजों को। 
सब कुछ चलता रहता था बिना ख़ौफ़ बिना किसी रूकावट के। 
जब तक नहीं होता था अपहरण, बना लिए नहीं जाते थे बंदी। 

कूद पड़ते थे, जलते इलाक़ों में, कैमरा कंधे पर उठाए। 
पहुँच जाते थे, भूकंप पीड़ित इलाक़ों में, 
सैलाब से उजड़े परिवारों के बीच माईक लेकर। 
पूछते थे सवाल और लथाड़ते थे प्रशासन को, 
राहत टुकड़ी के अब तक न पहुँचने पर। 

मैं कैसे मान लूँ इस ख़बर को कि पत्रकार 
कर रहे हैं ख़ुदकुशी, अब किसानों की तरह। 
मैं कैसे विश्वास कर लूँ कि वह डूब रहे हैं
अवसाद में, आम आदमियों की तरह। 
जो सिखाते थे रोज़ जीना हमें, दौड़ रहे हैं, 
मौत की अंधी सुरंग में। 

याद है मुझे, अच्छी तरह से वे दिन, जब
पूँजीपतियों ने बेच डाला था इन्हें, अपनी कम्पनियों के संग। 
तब पत्रकार आहत थे, हताश नहीं। 

याद है वे दिन भी मुझे, जब रपट में, 
पेर-बदल कर डालते थे सम्पादक। 
घुट कर अंदर ही अंदर, सुन लेते थे उनका
यह वक्तव्य! 
‘मैं भी नौकर हूँ किसी का तुम भी प्यारे! 
चलता रहे सब का दाना-पानी। ’
सर हिलाकर मान लेते थे, बास की मजबूरी में अपनी भी। 

भले ही सीट पर लौट कर, फाड़ बैठते थे
असली रपट, ली थी जो बहा कर पसीना अपना। 
आक्रोश में भर कर कभी, लिख बैठते थे 
इस्तीफ़ा अपना। 
फिर पटख़ देते थे क़लम अपना, मार कर 
ठोकर कूड़ेदान को। 
फिर बुदबुदाते थे तैश में आकर, 
‘भाड़ में जाए ऐसी पत्रकारिता! ’ 
बुझे दिल से कह उठते थे। 
‘कर लूँगा कुछ और, नहीं झुकूँगा अब और। ’

लेकिन ऐसा क्या घटा, जो सहन नहीं कर 
पाए, बंद होते दरवाज़े मीडिया के?
कहाँ टूटा हौसला तुम्हारा, जो सिखाते थे 
दूसरों को रोज़ जीना?
नहीं स्वीकार कर सकती तुम्हारी यह निराशा। 

ज़रूर पुरानी झक में, अचानक उठा बैठे होगे ऐसा क़दम। 
टूटती साँस से पहले तुम, पछताए तो होगे ज़रूर। 
आया होगा ख़्याल अपनों का और भर आईं होंगी, आँखें तुम्हारी। 
‘अलविदा ‘ कहने से पहले, कौंधी होगी यह आवाज़, 
‘मुश्किलें पड़ें जितनी भी, यूँ मौत को गले मत लगाना। 
अपनों को यूँ मँझधार में छोड़, फ़रार कभी मत होना। ’

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डूबती कश्ती 

काम है, न कोई जमाखाता। 
निकाल सकूँ कुछ नोट! 
और मिटा सकूँ, भूख अपनी। 
चूना काट रहा है, मुसलसलआँतें मेरी। 

घर से दूर, फँसा पड़ा हूँ मैं यहाँ। 
जाना था घर मुझे, अगले रविवार को। 
हल्दी की रस्म थी मेरी वहाँ। 
माँ ने कहा था, ’कम पड़ रहे हैं पैसे बेटवा! 
मिल जाए अगर, मालिक से कुछ रूपये उधार! 
तो कर लेना, यह कुछ ज़रूरी ख़रीदारी। 
बड़ा शहर है, मिलेंगी चीजें यहाँ से सुंदर वहाँ’। 

तैयारी पूरी थी, मेरी ब्याह की गाँव में। 
पुत गया था घर और दे दिया था पेशगी, 
हलवाई, बिजली और टेंट वालों को। 
बुक हो गए थे टिकट सारे, 
सभी पास व दूर के रिश्तेदारों के सब। 

एलान हो गया, अचानक लाकडाउन का 
जब। 
बंद हो गए बाज़ार, रोडवेज़, रेल, कम्पनियाँ एक साथ । 
कैसे कहूँ माँ तुम से! छँटनी में निकाल दिया गया हूँ मैं। 
भटक रहा हूँ भूख-प्यास और पैसे की कमी से यहाँ। 

याद नहीं मुझ को, होने वाली दुल्हन का चेहरा अब। 
न याद है गाँव लौटना, न ब्याह का दिन और तारीख़! 
जो याद है वह बस इतना, पेट भर रोटी खाना, जी भर सोना। 
मेरी चेतना को यह क्या हो रहा है?
जो जी रहा हूँ मैं, डूबती कश्ती केअहसास को यहाँ। 

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कुत्ते बहुत उदास हैं। 

मोहल्ले सूने हैं और घर के दरवाज़े बंद। 
कुत्ते बहुत उदास हैं। 
बासी रोटी उछालते हुए, घुमा कर लात मारते हुए, सभी चेहरे रूपोश हैं। 

सड़कों पर दौड़ते वाहनों के आगे, 
तन कर खड़े होने वाले। 
न दिखने वाली चीज़ों को ताड़ने वाले, 
बात बे बात भौंक पड़ने वाले। 
कुत्ते बहुत उदास हैं। 

बाज़ारों की चहल-पहल
पकवानों की लहराती सुगंध 
खाते -पीते, चलते -फिरते
कहाँ गए हमें भगाने वाले?

बच्चों से भरीं बसें, कारों से उतरती औरतें
मोटर साइकलों पर फ़र्राटे भरते लड़के
आख़िर कहाँ जा उड़े जो दिखते नहीं
बरसों हो गए हैं किसी वाहन के पीछे 
भौंकते हुए भागे नही। 
कुत्ते बहुत उदास हैं। 

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अम्माँ दौड़ो 

अम्माँ दौड़ो, बाहर आओ
आकर तो तुम देखो
साड़ी तुम्हारी उड़ चुकी है
ऊपर जाकर चिपक गई है। 

माँ घबरा कर बाहर निकली
नज़रें उठा जो ऊपर देखा 
धुएँ का घूँघट हटा
आसमाँ को हँसते पाया 
हैरत में खड़ी रह गई वह
बचपन के आँगन में उतर गई वह। 

माँ को चुपचाप खड़ा
देख बेटा हँस कर बोला, 
‘अम्मा! अम्मा! खींच न लेना साड़ी अपनी
लगती है मुझको अच्छी, यूँ ही टँगी टँगी
मोती जैसे जड़ी हुई। ’

माँ ने हँसकर बेटे को गोद उठाया
चूम कर वह मुँह उसका बोली, 
‘पहली बार जो देख रहे हो आसमाँ
जिसको समझ रहे हो तुम, साड़ी उड़ी हुई। ’

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डॉ शशि थरूर को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जाने की श्रीमती सोनिया गाँधी से अपील | Shashi Tharoor Should be President Congress

कांग्रेस अध्यक्ष कौन बनेगा, भविष्य बताएगा, वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा स्वयं को सम्हाल नहीं पाना निराशाजनक है। ओवरसीज कांग्रेस, अमेरिका के उपाध्यक्ष जॉर्ज अब्राहम सोनिया गांधी को इस चिट्ठी में डॉ थरूर को अध्यक्ष बनाए जाने के लिए कुछ तथ्य रख रहे हैं। पढ़ें । ~ सं 

एक नक़्शा, एक ख़्वाब और कुछ तितलियां — उमा शंकर चौधरी की लम्बी कहानी | a long story by Uma Shankar Chaudhary - ek naqsha, ek khvaab aur kuchh titaliyaan


और फिर उस रात उनके सपने में काली मिर्च खरीदते एक अंग्रेज दिखा। वह अंग्रेज दालचीनी को बहुत गौर से देख रहा था। उस अंग्रेज ने किशोरी बाबू को एक हैट गिफ्ट में दिया और कहा ‘तुमने हमारे खाने को टेस्टी बनाया हम तुमको धूप से बचायेगा।’ अभी दूसरे दृश्य में शकुन्तला उस हैट में दिख रही है समुद्र के किनारे घूमती हुई। किशोरी बाबू समुद्र किनारे सीप ढूंढ़ते हैं और फिर अपने हाथ से उसकी माला बनाते हैं और शकुन्तला को पहनाते हैं। 


'कहानी में जाने आगे क्या घट जाए' वाला इंतज़ार और कुछ अप्रत्याशित होने की ग्रैविटी से कहानी की रोचकता और उससे पाठक के जुड़ाव को यदि आँका जा सकता हो तो यह पाठक 'एक नक़्शा, एक ख़्वाब और कुछ तितलियां' और उसके लेखक, प्रिय कथाकार मित्र उमा शंकर चौधरी को सौ में सौ नंबर देगा। पढ़िए और आनंद लीजिए इस खूबसूरत रचना के हर एक दृश्य का ...  ~ सं०  
 

विपश्यना : जीवन-सत्य का अन्वेषण ~ डॉ व्यास मणि त्रिपाठी | इन्दिरा दाँगी के उपन्यास ‘विपश्यना’ की आलोचना | Critical review Indira Dangi's novel 'Vipshyana'


इन्दिरा दाँगी के उपन्यास ‘विपश्यना’ की आलोचना | Critical review Indira Dangi's novel 'Vipshyana'

विपश्यना : जीवन-सत्य का अन्वेषण

डॉ व्यास मणि त्रिपाठी

[अब तक 21 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त  29  पुस्तकों  में सहलेखन।    साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की साधारण सभा सहित कई संस्थानों-समितियों के सदस्य/दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में ‘विश्व हिंदी सम्मान’ सहित कई पुरस्कार-सम्मान प्राप्त। संप्रति जवाहरलाल नेहरू राजकीय महाविद्यालय पोर्ट ब्लेयर, अंडमान के हिंदी विभाग में एसोशिएट प्रोफेसर तथा अध्यक्ष। | मोबाइल: 9434286189 ईमेल: tripathivyasmani@gmail.com ]

'स्वतन्त्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना स्मृति सम्मान' सोपान जोशी को | 'Freedom Fighter Ramchandra Nandwana Memorial Award' to Sopan Joshi

'Freedom Fighter Ramchandra Nandwana Memorial Award' to Sopan Joshi


'स्वतन्त्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना स्मृति सम्मान' दिल्ली निवासी युवा लेखक सोपान जोशी को उनकी चर्चित कृति 'जल थल मल' के लिए दिया जाएगा।

राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान 2022 | कहानी | गाँठ - विजयश्री तनवीर | Vijayshree Tanveer, Hans Award 2022 Hindi Kahani


कहानी: राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान 2022 

गाँठ 

विजयश्री तनवीर

[शिक्षा : एम.ए. हिंदी व समाजशास्त्र, पत्रकारिता और जनसंपर्क में डिप्लोमा (जामिया मास कम्युनिकेशन सेंटर) /  प्रकाशन : तपती रेत पर (कविता संग्रह). अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार (कहानी संग्रह). प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लेख, कविता और कहानियां प्रकाशित. / संपर्क: जी-4/1, फ्लैट नं. 302, तीसरी मंजिल, गुलमोहर अपार्टमेंट, शाहीन बाग, ओखला, नई दिल्ली-110025 / मो. 8506850600 / ईमेल : vijayshriahmed@gmail.com]

राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान 2022 | कहानी | एक चट्टान गिरती है खामोशी की नींद में - ट्विंकल रक्षिता | Twinkle Rakshita Hans Award 2022 Hindi Kahani



एक चट्टान गिरती है खामोशी की नींद में 

(कहानी की हर बात झूठ हो सकती है पर हर झूठ की डबल सच्चाई है...)

टि्वंकल रक्षिता
[ट्विंकल रक्षिता, गया जिले के नेयाजीपुर गाँव से आती हैं और हिन्दी विभाग के स्नातक द्वितीय वर्ष की छात्र हैं। लोक नृत्य एवं अभिनय में गहरी रूचि। उन्हें 2022 का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान प्रस्तुत कहानी पर प्राप्त हो चुका है।]

विवेक मिश्र के उपन्यास 'जन्म-जन्मांतर' का अंश | An excerpt from Vivek Mishra's novel Janam Janmantar

'जन्म-जन्मांतर', विवेक मिश्र के उपन्यास का अंश




तेज गति वाले उपन्यास मुझे पसंद आते हैं। वह उपन्यास भी जो बहुत लंबे नहीं होते लेकिन, जिनकी पकड़ में बेहद गंभीर और संवेदनशील मुद्दे आ जाते हैं। यह उपन्यासकार की लेखन शक्ति पर निर्भर होता है कि उपन्यास मुद्दे से भटके नहीं। विवेक मिश्र का ताज़ा उपन्यास ”जन्म जन्मांतर” इन सारी खूबियों को तो खुद में समेटे ही है, साथ ही, उसमें जासूसी उपन्यास सरीखा सस्पेंस भी लगातार बना रहता है। सामयिक प्रकाशन से छपा यह उपन्यास पढ़िएगा ज़रूर (खरीदने का लिंक यह https://amzn.to/3ySnCgH है)। मित्र विवेक को बधाई। फ़िलहाल, पढ़िए उपन्यास का एक अंश। ~ सं० 

शुभ्रवस्त्रा — रघुवंश मणि की कहानी | Shubhravastra - Story by Raghuvansh Mani

आलोचक, कवि, प्रो रघुवंश मणि को कहानियाँ ज़रूर लिखनी चाहिए। उनकी नई कहानी 'शुभ्रवस्त्रा' पढ़िए, आप भी शायद मेरी बात से सहमत होंगे। ~ सं० 


यह एक अलग किस्म का स्पर्श था सहानुभूतिपूर्ण और ममतामयी। एक अजीब-सा ठंडापन था उस हाथ में। वह छुवन जो तुरंत धुले हाथों में होती है। यह स्पर्श ठीक उसके माँ के स्पर्श जैसा था, जब वह बर्तन मांजने के बाद उसे सुलाने आती थी। उसने युवती के हाथों को मस्तिष्क की गहराई तक महसूस किया। ऐसी ठंडक का अहसास हुआ जैसे वह कड़ी धूप से गुजरते-गुजरते किसी घने पेड़ की छाया में आ गया हो, हालाँकि वहाँ न तो धूप थी और न ही कोई घना पेड़। उसे हाथ की यह ठंडक असामान्य-सी लगी।

सुनो मिरांडा की कहानी मंजुल भगत की ज़बानी | Manjul Bhagat's Miranda House Memoir

मंजुल भगत जी की आज 22 जून 2022, को 86वीं जयंती है। उन्हे नमन और उनकी छोटी बहन, हमसबकी प्रिय मृदला गर्ग का शुक्रिया कि उन्होंने मंजुल भगत जी का यह बेहतरीन संस्मरण — जिसका हर शब्द हीरे की तरह तराशा और चमकता हुआ है — आप शब्दांकन पाठकों के लिए भेज दिया।   ~ भरत तिवारी 

योगिता यादव की कहानी 'भाप' | Yogita Yadav Ki Kahani 'Bhaap'

तनाव वाली कहनियों के बीच सुखद बयार है प्रिय कहानीकार योगिता यादव की कहानी 'भाप'। जिस तरह प्रिय ममता कालिया जी की कहानियाँ हौले से पाठक के भीतर उतर जाती हैं, योगिता भी यहाँ आसपास की पोसीटिविटी को देख लेती हैं और मासूम अप्रोच के साथ समाज में हो रहे बदलावों की कहानी लिख पाती हैं।  पढ़िएगा! ~ भरत तिवारी 




भाप 

~ योगिता यादव 


सफारी सूट में स्कूटर पर आगे-आगे धाणियां साहब और पीछे-पीछे सामान से लदा उनका ट्रक। सोफा, टीवी, फ्रिज, कूलर, बोरों में ठुंसे बर्तन-भाण्डे, घर-गृहस्थी का छोटा-बड़ा सामान, बहुओं के दहेज में आने वाला बड़ा सा संदूक और….और कांच की एक सुंदर सी अलमारी। अलमारी के साथ ही दोहरी चादर में बंधी किताबों की दो बड़ी-बड़ी गठरियां। 

स्कूटर रोक कर धाणियां साहब ने सिर उठाकर हसरत भरी निगाह से अपने नव निर्मित घर को देखा और आंखें मूंद लीं-- जैसे उसकी खुशबू को अपने भीतर उतार लेना चाह रहे हों। 

रुकते-बनते आखिर पांच साल लगे थे इस घर को पूरा होने में। पहले भरत पड़ी फिर काम रुक गया। फिर ऐसा हुआ कि दिनों दिन मकान की सभी दीवारें ऊंची होती चली गईं और लैंटर पड़ गया।  

इसी स्कूटर पर आते थे धाणियां साहब हर रोज, पहले दीवारों की और फिर लैंटर की तराई करने। उसी पानी के पाइप से ओक लगा कर पानी पी भी लेते थे। क्या हुआ जो जेट पंप का पानी खारा होता है, कौन जाए अड़ोस-पड़ोस में मांगने-- कि जी एक बोतल मीठा पानी दे दो। मिठास का ऐसा भी क्या लोभ। उन्होंने खारे को ही मीठा मान लिया था। प्यास तेज हो तो पानी मिल जाए वही बहुत है। मिठास सबको कहां मिल पाती है। 

थके हुए दफ्तर से लौटते और बस आते ही अपने मकान की ईंट, बजरी, मिस्त्री और मजदूरों में व्यस्त हो जाते। उनकी बगलों में पसीने के दो पूरे चांद स्थायी हो चले थे। कभी-कभी तो देर रात तक अधबने मकान के भीतर ही जाने क्या-क्या उठा पटक करते रहते। 

अब जाकर मकान पूरा हुआ है। जमा-जुड़ा, नाखूनों से भी पैसा निकाल कर लगा दिया धाणियां साहब ने इस मकान में। अब मय सामान धाणियां साहब गृह प्रवेश को तैयार हैं।

सुबह से ये तीसरा चक्कर होगा घर का। सुबह-सुबह आए थे, उसी पानी वाले पाइप से सारा घर धोकर गए हैं। फिर दोपहर में आए कुछ फूल और एक काली हांडी का मुखौटा टांग गए गेट के ठीक ऊपर -- कि सुंदरता और नजर दोनों का उपाय हो गया। 

अब आए हैं अपने साथ सामान का पूरा ट्रक लेकर। 

“अरे भाई आराम से, हां हां ले आओ, धीरे…. संभाल कर भई! उनका एक पैर अंदर और एक बाहर। बाहर ट्रक तक आएं और फिर सामान के साथ-साथ घर के अंदर तक। मोहल्ले भर के लोग ओट से उन्हें देख रहे थे। मोहल्ला नया-नया बस रहा है, जगह-जगह के लोग यहां रहने लगे हैं। देखते ही देखते इस एक गली में भी कई मकान बन गए, पर कभी किसी मर्द को घर के लिए इस तरह दीवाना होते नहीं देखा। 

“आदमी है कि लुगाई…. कभी झाड़ू मार रहा है, कभी फूल बांध रहा है, और अब देखो सामान के संग कती बांदर सा नाचै जा है।” मलिक साहब ने साथ वाले घर में गोयल साहब को जरा धीमी आवाज में कहा। 

हंसी का फव्वारा छूट पड़ा। 

“अजी कोई बात नहीं, जिनके लुगाई न हो क्या वे घर नहीं बसाएंगे। कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।” 

हंसी का फव्वारा और घना हो गया। 

मर्दों में जो चुटकुला बनी, उसी अदा पर औरतें आहें भर रहीं थीं, “कैसा सलीकेदार आदमी है, सब काम खुद कर रहा है, पर मजाल है कि कपड़ों पर छींट भी आई हो। पूरा दिन बीत गया और कपड़े अब भी वैसे के वैसे। ” 

एक-एक करके जब सारा सामान उतर गया, तब सब से अंत में हौले हौले कांच की वह अलमारी उतारी गई। दो मजदूर आगे, दो मजदूर पीछे। फिर पीछे वाले मजदूर कूद कर ट्रक से नीचे, कि बस सारा काम इतनी एहतियात से हो कि अलमारी पर खरोंच तक न आए। 

“अरे रे...जरा संभलकर”, उतारने की कोशिश में जरा लचकी ही थी अलमारी कि धाणियां साहब की सांस अटक गई। पर कुशल मजदूरों ने गिरने नहीं दी अलमारी। गत्ते के टुकड़ों से दबी-ढकी अलमारी गेट के ठीक सामने एकदम भीतरी दीवार के सहारे टिका दी गई। 

आहा! क्या रौनक आई है। अलमारी के खड़े होते ही सोफा, टेबल, कुर्सियों और पूरे घर में जैसे निखार आ गया। 

“ओहो मैडम जी तो अब आई हैं।” थ्री व्हीलर से जब एक दुबली-पतली लंबे कद की औरत को तीन लड़कों को पिट्ठू बैग टांगे उतरते देखा तो मलिक साहब और गोयल साहब आपस में कनखियों से इशारा करने लगे।

लड़कों की उम्र में एक-दूसरे से दो ढाई साल का ही फर्क होगा। मलिक साहब ने बच्चों की उम्रों का अंदाजा लगाया और आंखों ही आंखों में पति-पत्नी का कद भी तौला। 

“दूर से ही नाटा लग रहा था, हैं तो दोनों बराबर के से।” 

हाथ में बड़ा सा सूटकेस उठाए श्रीमती जी अंदर घर के बाहर लगे पत्थर के सामने रुकीं। सफेद संगमरमर के पत्थर पर काले रंग से लिखा था - एसपी धाणियां यानी सरला प्रवीण धाणियां। इसके नीचे की पंक्ति में तीन नाम खुदे थे संजय, रोहित, मोहित। इसे पढ़कर वे पुलकित हो गईं। बच्चे भी खिलखिला पड़े। ये पांचों का घर था, नाम पट पर पांचों का नाम खुदा था। चार जन अंदर जा रहे थे और पांचवे यानी प्रवीण धाणियां ट्रक को गली से बाहर निकलवा, मजदूरों का हिसाब कर रहे थे। 

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नाम पट को सबने पढ़ा पर समझ नहीं पाए।  

“धींवर होते हैं शायद”, गोयल साहब ने कहा। 

“धींवर कौन?” शर्मा जी ने जिज्ञासा प्रकट की। 

“अरे वही मल्लाह, पानी वानी का काम करते हैं न अपने गांवों में।” गोयल साहब ने और जोड़ा। 

“क्या गोयल साहब आपने भी ‘ध’ से ‘ध’ जोड़ दिया। मल्लाहों में धाणियां गोत्र ही नहीं होता। निषाद, राजभर, कश्यप धींवरों के कई घर हैं हमारे गांवों के पास। पर धाणियां कोई नहीं।” मलिक साहब ने प्रतिवाद किया। 

“आजकल पता नहीं लोग क्या-क्या लगा लेते हैं जी। कुछ पता ही नहीं चलता।”, शर्मा जी ने झुंझला कर कहा। 

सुबह-सुबह ये बहुत जरूरी परिचर्चा थी। जो किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई। प्रवीण धाणियां इस सबसे अनजान, हाथों में दूध का डोल उठाए चले आ रहे थे। मंडली को चर्चा करते देखा तो शिष्टाचारवश नमस्कार किया। 

अभी तक विचार विमर्श में मगन मंडली धाणियां साहब के यूं अचानक आ जाने से झेंप गई। अब नमस्कार का जवाब तो देना ही था। 

“यहां कोई अखबार वाला आता है क्या? हमें भी अखबार शुरू करवाना था। और दूध वाले का भी नंबर मिल जाता तो…”

“हांजी अखबार वाला तो आता है। पर दूध तो जी सब अपना अलग-अलग ही लेते हैं। अब ये गोयल साहब का तो बहुत पुराना दूधिया आता है, पीछे गांव।” 

“भई हम तो जाकर डेयरी से ले आते हैं।” शर्मा जी ने स्पष्टीकरण दिया। 

“आप कहां से लाए दूध?” 

“अजी कहां, पूछते-पाछते डेयरी तक पहुंचे तो दूध ही खत्म हो गया था। ज्यादा टाइम नहीं था। दफ्तर के लिए भी निकलना है और बच्चे भी लेट हो रहे होंगे।”

“तो मैडम ले लेंगी बाद में, आप क्यों चिंता करते हैं?”

“नहीं जी, वो भी बच्चों के साथ ही निकल जाती हैं। पढ़ाती हैं न स्कूल में।” 

 “ओहो! अब कैसे करेंगे।”

“बस जी संतोष करेंगे।” 

“वैसे दफ्तर कहां है? कहां काम करते हैं आप?” 

“दिल्ली विधानसभा में।”

 

सुनते ही सबके चेहरों पर चमक आ गई और आंखें अचरज में फैल गईं।

मंडली ने फिर उन्हें ऊपर से नीचे तक और गौर से देखा। 

“मैं भिजवा देता हूं दूध, गौरव की मम्मी ने रखा होगा बचाकर। हमारे वाला आएगा तो हम थोड़ा फालतू ले लेंगे। भई बच्चे बिना दूध के स्कूल जाएं ये भी तो अच्छा नहीं।” गोयल साहब एकदम दौड़ते से अपने घर के अंदर दाखिल हो गए। 

मलिक साहब और शर्मा जी बस जहां थे वही खड़े रह गए। गोयल साहब के इस अतिउत्साह पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 

धाणियां साहब आभार में मुस्कुरा उठे, ना ‘हां’ कह पाए, ना ‘न’ कह पाए। 

जितनी देर में वे कुछ और कह पाते, तब तक दूध का भरा लोटा लिए गोयल साहब बाहर चले आए।

धाणियां साहब न न करते रह गए मगर गोयल साहब ने उनके हाथ से डोल लिया और दूध उसमें पलट दिया। लगभग आधा लीटर दूध का यह डोल इतना भारी हो गया कि धाणियां साहब चल ही नहीं पा रहे थे। वे बार-बार सोच रहे थे पत्नी को जाकर क्या कहेंगे। 

और फिर ये अहसान कैसे उतारेंगे। साथ ही उन्हें सुकून भी हुआ कि पड़ोस तो अच्छा है। अच्छी जगह रहने का यही फायदा है। लोग पढ़े-लिखे होते हैं। उनके दिमाग खुले हुए होते हैं। एक-दूसरे की इज्जत करना, एक-दूसरे के काम आना जानते हैं। 

नए मोहल्ले की पहली सुबह इतनी प्यारी होगी, प्रवीण धाणियां ने सोचा भी नहीं था। एक-एक कर तीनों बच्चे और सरला धाणियां भी घर से निकल गए। सबसे अंत में निकले वे खुद अपने उसी स्कूटर पर, वैसा ही आधी बांह का सफारी सूट पहने, करीने से एक तरफ काढ़े गए बाल और भरा हुआ कुछ-कुछ चौकोर सा चेहरा। 

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यही उनका रोज़ का रुटीन था। संजय, मोहित, रोहित तीनों बेटे और सरला एक साथ निकल जाते। प्रवीण धाणियां गेट में ताला लगाकर सब के बाद में दफ्तर के लिए निकलते। लौटते समय भी यही होता। बच्चे और मां पहले घर आ जाते और प्रवीण धाणियां सबके बाद शाम को दफ्तर से लौटते। गोयल साहब को समय नहीं मिल पा रहा था, कि कब धाणियां साहब से मिलना हो। खानदानी कपड़ों की दुकान छोड़कर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की राह चुनी थी और अब एक सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे थे। पर नियुक्ति ऐसे इलाके में मिली जहां उनका रहना मुश्किल हो रहा था। वे चाहते थे कि कहीं आसपास ही उनका तबादला हो जाए। पर कई बार अर्जियां डालने के बाद भी यह संभव नहीं हो पा रहा था। अब अर्जी में कैसे लिखें कि सीलमपुर की इस बस्ती में आते-जाते उन्हें उबकायी आती है। लूटपाट, जेबतराशी का डर अलग से। एक बार एक गरीब आईसक्रीम वाला भी लड़कों ने लूट लिया था। तब उन्होंने अपनी जेब से चार सौ रुपये निकाल कर उसे दिए। 

सुकून बस इतना है कि स्कूल दोपहर की पाली में है, तो खा-पीकर घर से निकलते हैं। वरना स्कूल में तो उनका खाना खाने को भी जी नहीं करता। स्टाफ की चाय पार्टियों से भी वे बचते ही रहते हैं। पर जब से उन्हें पता चला है कि धाणियां साहब दिल्ली विधानसभा में नौकरी करते हैं, तब से उन्हें उम्मीद की एक किरण नजर आने लगी है। अब उनकी उम्मीदों का सूरज धाणियां साहब के घर की तरफ से ही उगता है। 

“ए जी, ये चमार हैं क्या?” गोयल साहब टकटकी लगाए धाणियां साहब को ताला बंद करते देख रहे थे कि उनकी पत्नी ने उन्हें टोक दिया। उनका ध्यान भंग हो गया?  

“कौन?” 

“वही नए मकान वाले।”

“कैसी बात करती हो, किसने कहा तुम्हें?” 

“मलिक बहनजी कह रहीं थीं।” 

“तुम्हें क्या मतलब इस सबसे?” 

“नहीं, बस पूछ रहीं हूं।” 

“ये सब फालतू की बातें मत किया करो। न तो मलिक साहब को कोई काम है, न तुम्हारी मलिक बहनजी को। 

सीमेंट की फैक्टरी है, पति को दिन भर नोट छापने हैं, बीवी को उसकी कमाई उड़ानी है। बस खाली बैठे-बैठे यही सब करते रहना है। 

इतना बड़ा बंगला है, घर में दो-दो कुत्ते हैं। पर कभी एक अखबार आते भी देखा उनके घर?

हम नौकरी पेशा लोग। पढ़े-लिखे हैं। तुम मत पड़ा करो इन सब बातों में। कोई भी हों, हमें क्या लेना।”

गोयल साहब जैसे उस चर्चा को पूरी तरह भूल ही चुके थे, जिसे वे कुछ दिन पहले अपनी मंडली में कर रहे थे। 

“वो गौरव जब बीमार पड़ा था, तो मैंने मन्नत मांगी थी। अब माता की पिन्नी करनी है। सारी औरतें आएंगी, सोच रही हूं, नए घर वाली सरला मैडम को भी बुला लूं। गौरव बता रहा था किसी स्कूल में पढ़ाती हैं।” 

“हां, तुम्हें नहीं मालूम। पढ़ी-लिखी फैमिली है। बीवी स्कूल में पढ़ाती है और पता है धाणियां साहब की नौकरी दिल्ली विधानसभा में हैं। कितने मंत्रियों, कितने आईएएस अफसरों के साथ उठना-बैठना होगा उनका। 

बुला लो, बुला लो, इसी बहाने तुम्हारी भी थोड़ी जान पहचान बढ़ जाएगी उनसे।

पढ़े-लिखे लोगों के साथ परिचय हो, तो अपना भी विकास होता है। नहीं तो घी-दूध तो अपने गांव में यहां से बढ़िया मिल रहा था।”   

पर जाउं कब बुलाने, वो तो घर पर होती ही नहीं हैं दिन भर। 

अब वो तुम देखो, मुझे नहीं पता। शाम को एक बार चक्कर लगा कर देख लेना, क्या पता मिल जाएं। 

एक-एक कर तीन दिन बीत गए, आखिर श्रीमती गोयल इस उधेड़बुन से निकल नहीं पाईं कि श्रीमती धाणियां को माता की पिन्नी जीमने बुलाया जाए कि नहीं। एक तरफ पति का सुझाव कि बना कर रखनी चाहिए और दूसरी तरफ मलिक बहन जी की टेढ़ी सी नजर और जातीय अभिमान। 

क्या पता शर्मा बहनजी, साथ वाली मिसेज कटोच और सैनी आंटी भी बुरा न मान जाएं। सभी के साथ उठना-बैठना है उनका तो। जब भी कोई जरूरत होती है, मलिक बहनजी कभी न नहीं करतीं। और पूजा-पाठ, दिन त्यौहार पूछने तो उन्हें मिसेज शर्मा के पास ही जाना पड़ता है। सैनी आंटी का तो पूरा परिवार है, तीन बेटे, बहुएं, उनके बच्चे… पूरी गली की रौनक है उनसे।

ये सहेलियां न हों, तो वे शाम की वॉक पर निकल ही न पाएं। क्यों न सैर के लिए पूछ कर देखूं। 

इसी में धाणियां मैडम और सब का व्यवहार पता चल जाएगा। 

तो बस जैसे ही शाम के पांच बजे मिसेज गोयल ने धाणियां जी के घर की घंटी बजा दी। 

दरवाजा उनके बेटे ने खोला 

“बेटा मम्मी हैं घर पर?” 

“हांजी”, 

“बुलाना ज़रा, मैं आपके पड़ोस में रहती हूं।” 

“नमस्ते आंटी, आइए अंदर।” 

“नहीं जल्दी में हूं, यही बुला लो ज़रा”

“ओके” 

बेटा अंदर गया और सरला दरवाजे पर आ गईं। उन्होंने मुस्कुरा कर नमस्कार किया पर उनकी आंखें बता रहीं थीं कि वे अभी सोकर उठी हैं। 

“हम सब गली की औरतें शाम को वॉक पर जाती हैं। सुबह-सुबह तो टाइम मिलता नहीं, तो शाम को ही अपने लिए वक्त निकाल लेते हैं। यहीं थोड़ी दूरी पर है पार्क। आप अभी नई आई हो, तो सोचा आपको भी पूछ लें। अगर आप चाहें तो आप भी हमारे साथ चल सकती हैं।” 

“ये तो बहुत अच्छी बात है”, सरला ने खुश होकर कहा। “पर मेरी तो सारा दिन वैसे ही वर्जिश हो जाती है। बस अभी थोड़ा आराम किया। अब बच्चों को लेकर बैठूंगी, बड़ा बेटा दसवीं क्लास में है, दूसरा आठवीं में। इनके साथ तो मेहनत करनी है अभी। छोटा अभी छठी क्लास में है।” 

“अच्छा हां, बताया था गौरव के पापा ने, आप भी टीचर हैं स्कूल में। क्या पढ़ाती हैं?”  

“मेरा सब्जेक्ट तो मैथ्स है, पर अपने बच्चों के तो सारे सब्जेक्ट देखने पड़ते हैं।” 

“हां जी ये तो आपने सही कहा। वैसे हमारा गौरव भी आठवीं में है, लेकिन मेरे बस का नहीं है पढ़ाना। इसके पापा ही लेकर बैठते हैं। मगर आजकल आने में बहुत लेट हो जाते हैं, तो ट्यूशन लगवा रखी है।” 

“गौरव की मम्मी…. चलें क्या?”, शर्मा बहन जी ने आवाज़ देकर मिसेज गोयल को टोका। 

“आई बस।” अच्छा जी चलती हूं। कभी चलने का मन हो, तो आ जाना। हम हर रोज शाम को पांच बजे निकलते हैं। बस रविवार छोड़कर। उस दिन सब घर पर रहते हैं न, तो टाइम ही नहीं मिल पाता और फिर कोई आया गया लगा ही रहता है छुट्टी वाले दिन। ऐसे तो सब अलग-अलग रहते हैं, पर जी बड़ा परिवार है हमारा। सास, पीतस, जेठानियां, ननदें, देवरानियां….  “

“क्या बात हो गई गौरव की मम्मी”, अबकी बार मिसेज मलिक ने टोका। 

अच्छा जी चलती हूं। राम राम जी। सहेलियां न बुलातीं तो खानदान कथा शायद आज खत्म न हो पाती। 

सरला धाणियां तो बस बातचीत खत्म होने का इंतजार कर रहीं थी। उन्होंने तुरंत नमस्कार किया और मिसेज गोयल के मुड़ते ही दरवाज़ा बंद कर लिया। 

मिसेज गोयल की पीठ पर दरवाजा बंद हुआ इसका या सरला धाणियां ने उन्हें अपनी व्यस्तता दिखाई इसका, जो भी हो, उनका मन कुछ खट्टा सा हो गया। 

“उस पर सैर समूह की सखियों ने इसी बात पर उन्हें खींचना शुरू कर दिया। आप ही गईं थीं उन्हें बुलाने। आ गईं?” 

“क्या बोलीं?” 

“बोलीं कि मेरी तो सारा दिन ही वर्जिश हो जाती है।” 

“हां जी हम तो दिन भर पलंग तोड़ते हैं, हमें है वर्जिश की जरूरत। नौकरी का गुरूर देखो।” मिसेज शर्मा ने और तुनक कर कहा। 

“नहीं आती तो, न आए, हमारा कौन सा काम रुक रहा है उसके बिना। होगी मैडम अपने स्कूल में। 

आप ही चलीं थीं गौरव की मम्मी उसे अपनी भायली बनाने। वरना हम तो नहीं इन लोगों को मुंह लगाते।” 

“अब छोड़ो भी बहन जी, अब क्या बस उन्हीं की बात करते रहेंगे।” 

मिसेज गोयल ने मन ही मन तय कर लिया कि अब जब तक वे खुद पहल न करें, वे दोबारा अपनी ओर से कोई उत्सुकता नहीं दिखाएंगी। गौरव के पापा की बातों में आकर आज सहेलियों के बीच अच्छी भद्द पिटी उनकी। 

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गोयल साहब बिस्तर पर लेटे तो उन्हें पिन्नियों वाली बात याद आई और पूछ बैठे, “हुई कोई बात-मुलाकात धाणियां साहब की मिसेज से?” 

“हूंउउ, भाड़ में जाए।” 

“अरे क्या हो गया?” 

“होगा क्या, वो घमंड में किसी को कुछ समझती ही नहीं। दोनों बखत मिले सो रही थी और कहती है टाइम ही नहीं मिलता। बताओ शाम को भी कोई सोता है, कैसे बरकत आएगी घर में!”  

“भतेरी बरकत है उनके घर में, तुम बताओ, तुम तो पिन्नियों का न्यौता देने गईं थीं न?” 

“मैं नहीं बुला रही उसे पिन्नियों पर। शाम को गई थी उन्हें सैर के लिए बुलाने, कि नई-नई आई है, थोड़ी जान-पहचान हो जाएगी। सौ काम होते हैं गली में एक-दूसरे से। पर उसकी तो नाक ही इतनी लंबी है, बोली मेरे पास टाइम नहीं है। और धम से दरवाजा बंद कर दिया।” 

“तुम्हारे मुंह पर?” 

“न, किया तो पीठ पर था, पर थोड़ी देर रुक ही जाती। ऐसी क्या जल्दी।” 

“अरे तो नहीं होगा टाइम, सही तो कह रही थी। स्कूल में पढ़ाने में थकान हो ही जाती है। फिर बच्चे भी तो तीन हैं। काम ज्यादा होता होगा।”   

“मैं सोच रहा हूं, मैं ही मिल आउं किसी दिन उनके घर जाकर।” 

“छोड़ो न, क्या जरूरत है, बदतमीज से लोग हैं। न किसी से बोलते बतलाते, कम से कम लुगाई तो तमीज है नहीं।” 

“धाणियां साहब तो सज्जन लगते हैं। बातचीत में भी मुस्कुराते रहते हैं। उस दिन मिले थे सुबह-सुबह।” 

गोयल साहब कुछ कन्फ्यूज हो गए। एक तरफ तबादले की ख्वाहिश, दूसरी तरफ ऐसा बेरुखी सा व्यवहार। बात कैसे आगे बढ़े, कुछ समझ नहीं आ रहा। पर अध्यापक हैं, जानते हैं कि समय से ही हर चीज़ होती है और मेहनत करने का फल जरूर मिलता है।

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धाणियां साहब के परिवार के साथ देखा-देखी तो सब की चलती रही, पर व्यवहार किसी से न बन पाया। धाणियां साहब के लिए भले ही सम्मान हो पर सरला धाणियां से औरतों ने एक बैर की रेखा खींच ली। संजय, रोहित, मोहित तीनों बच्चों के बस नाम ही पता थे गली के बच्चों को, वरना वे कभी उनके साथ नहीं खेले। बस स्कूल जाते और वापस आते दिखाई देते। उसके अलावा सारा दिन गेट बंद रहता और बच्चे गेट के अंदर। ऐसी किलेबंदी में कौन सेंध लगाता। बस आपसी बातचीत में जितनी छींटाकशी हो सकती, कर लेते। 

ये पहले नवराते थे, इस मोहल्ले में आने के बाद। हर रोज़ किसी न किसी के घर में कीर्तन होता रहा। पर न किसी ने सरला को बुलाया, न वे खुद गईं। मलिक साहब की सीमेंट की बड़ी फैक्टरी, तो सातवें दिन उन्होंने जगराते का आयोजन किया। धाणियां साहब जब सुबह दूध लेकर लौट रहे थे, तो एक सामूहिक न्यौता उन्हें भी मिला। मलिक साहब ने अपनी फैक्टरी के टर्नओवर की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए बताया कि जो कुछ भी है सब भगवान का ही दिया हुआ है,तो थोड़ा बहुत भगवान के नाम पर दान पुण्य भी कर लेना चाहिए। आज रात जगराता है और कल सुबह अष्टमी का भंडारा। आप भी फैमिली के साथ आना। धाणियां साहब ठहरे व्यवहारिक आदमी उन्होंने हांजी हांजी कर दिया। 

पूरी गली में टेंट लगा दिए गए, बड़ा सा मंच बना और रात भर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर पर माता की भेंटें चलती रहीं। ऐसे माहौल में नींद किसे आ सकती थी। अंदर बाहर दोनों जगह रतजगा ही था, तो पति-पत्नी दोनों बाहर ही आ गए। पहली बार सरला औरतों के साथ इतना लंबा समय बिता रहीं थीं। यह अच्छा भी था साथ होते हुए भी कोई साथ नहीं था, सब माता के जयकारों में मस्त थीं, राम-राम, श्याम श्याम के बाद सब गीतों, भजनों में मगन। पर बैर की रेखा कुछ हल्की पड़ने लगी। महिलाओं को लगा कि सरला इतनी बुरी नहीं हैं, जितनी अब तक लग रहीं थीं, क्या पता बेचारी सचमुच बीजी रहती हों। सरला को भी अहसास हुआ कि सब भोली भाली प्यारी औरतें हैं, बस दुनिया उनकी थोड़ी सीमित है। 

भेंट, भजन गाते, परिचय बढ़ाते रात बीत गई और सुबह तारा रानी की कथा कही जाने लगी। अलग-अलग जातियों में जन्मी दो पूर्वजन्म की बहनों की कथा सभी ने भावुक होकर सुनी। बहुतों को तब तक नींद आने लगी थी, पर लाउडस्पीकर पर गूंजती कथावाचक की आवाज़ लोगों को जगाए रखने का पूरा प्रयास कर रही थी। कथा समाप्त हुई और प्रसाद बंटने लगा।

सब महिलाएं कुछ न कुछ मदद कर रहीं थीं, तो सरला भी खड़ी हो गईं और प्रसाद का टोकरा लेकर आगे बढ़ाने लगीं। पर मिसेज मलिक ने टोकरा उन्हें न देकर मिसेज गोयल को पकड़ा दिया। दोनों हाथों से टोकरा थामे मिसेज गोयल खड़ी थीं और अब जरूरत थी उसमें से प्रसाद के पैकेट निकालकर सब को देने की। सरला ने उसमें से पैकेट उठाकर बांटने शुरू कर दिए। सबने लिए सिवाए मलिक साहब की मां और मिसेज शर्मा के। दोनों ने ही कहा कि उन्हें शुगर है। मीठा नुकसान देगा।  

मलिक साहब की मां तो महीनों तक इस बात पर रूठी रहीं और जब भी कोई विवाद होता, वे बहू को ताना देतीं, “बता चूड़ी ही मिली थी, प्रसाद बंटवाने को। इतना भी लक्खन नहीं है।” 

असल गुस्सा उन्हें सरला पर था कि ऐसी तत्परता दिखाने की क्या जरूरत थी। उनके लिए गली की सब औरतें, यानी उनकी बहू की सब सहेलियां फूहड़ थीं। जिनमें से किसी ने भी सरला को प्रसाद बांटने से नहीं रोका। कोई भी चाहती तो आगे बढ़कर ये काम कर सकती थी। 

इस क्लेश की उड़ती-उड़ती खबर सरला, प्रवीण, संजय, रोहित और मोहित धाणियां तक भी पहुंची। वे आहत हुए, क्रोध भी आया पर अनजान बने रहे। इस मोहल्ले में उन्होंने बहुत अरमान से घर बनाया था और अब उन्हें यहीं रहना था। 

मोहल्ले में होते हुए भी अलगाव की भावना थोड़ी और घनी हो गई। 

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आखिर एक दिन गोयल साहब ने अपने दिल की बात धाणियां साहब से कह ही दी, कि वे इस स्कूल से तबादला चाहते हैं। किसी तरह वे उनका तबादला आसपास के किसी स्कूल में करवा दें। 

अपने खानदानी कारोबार की कथा सुनाते हुए गोयल साहब ने बताया कि कैसे भाइयों के क्लेश और पिताजी के गुस्से के कारण उन्हें दो कपड़ों में घर छोड़ना पड़ा था। वे पढ़ना चाहते थे और पिताजी उन्हें दुकान पर बैठने के लिए जोर देते। वे चाहते थे कि चारों भाई मिलकर दुकान संभालें और बिजनेस बढ़ाएं। थोड़ा और वक्त मिल जाता, तो वे भी किसी अच्छी पोस्ट पर होते। बारहवीं पास करके बस जेबीटी करने का रास्ता ही उन्हें आत्मनिर्भरता का सबसे नजदीकी रास्ता दिखा। और इस तरह वे सीलमपुर प्राथमिक विद्यालय में दोपहर की पाली में अध्यापक हो गए। पर अब भी वहां जाते उन्हें उबकायी आती है। यहां आसपास ही दस पंद्रह किलोमीटर के दायरे में कितने सारे स्कूल हैं। धाणियां साहब किसी में भी उनका तबादला करवा दें। 

धाणियां साहब को भी समझ आ गया कि गोयल साहब की सहृदयता का असल कारण क्या है। चुप्पी और अलगाव का इतना लंबा पुल पार करके सिर्फ गोयल साहब ही उन तक क्यों और कैसे पहुंच पाते हैं। पर स्वार्थ से किया जा रहा यह सम्मान भी उन्हें अच्छा ही लगा। घर से और परिवार से निकलने की दोनों की ख्वाहिश एक सी थी पर रास्ते की मुश्किलें बिल्कुल अलग-अलग। गोयल साहब अगर खानदानी दुकान छोड़ना चाहते थे, तो उनके लिए गांव से निकलने का कारण जाति की आग थी। पढ़ाई और नौकरी ने इस पर कुछ छींटें डाले हैं, पर अब भी एक अदृश्य तपिश उन्हें महसूस होती ही रहती ही है। जैसे कि भाप का कोई सेंक। स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, पड़ोस हर जगह। कितने अरमानों से उन्होंने इस नई कॉलोनी में घर बनाया था, पर सेंक यहां भी उनसे पहले पहुंच गया।   

इसके बावजूद कोई तो है इस गली में जो उनसे जुड़े रहना चाहता है। चाहें यह जुड़ाव स्वार्थ से ही क्यों न हो। उन्हें महसूस हुआ कि हम सब भी किसी न किसी स्वार्थ से ही एक-दूसरे से जुड़ते हैं। इस मदद में कम से कम प्रसाद छू देने जैसा थोपा गया अपराध तो नहीं है। अगला जिंदगी भर अहसान मानेगा सो अलग। धाणियां साहब के मन में एक गर्व का भाव आ गया कि वे दाता की मुद्रा में होंगे। उनका हाथ गोयल साहब के हाथ से ऊपर होगा। उन्होंने तय किया कि वे गोयल साहब की मदद करने की पूरी कोशिश करेंगे। इस मदद से ही वे उन्हें हमेशा के लिए अपना ऋणी बना सकते हैं। 

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आखिर मेहनत सफल हुई और गोयल साहब के ट्रांसफर के ऑर्डर आ गए। उन्हें नजदीकी स्कूल में तबादला मिल गया। ये खुशी की खबर मिली तो गोयल साहब मिठाई लेकर धाणियां साहब के घर पहुंच गए। सब रात के खाने की तैयारी कर रहे थे, पर इस समय भी गोयल साहब से रुका नहीं गया और वे प्रवीण धाणियां का धन्यवाद करते लगभग दोहरे हुए जा रहे थे। आखिर उनकी बरसों की आस पूरी हुई थी। उनके चेहरे पर अथाह विनम्रता और कृतज्ञता उतर आई थी। इस चेहरे और इस पर आई खुशी को देखना धाणियां साहब को अद्भुत सुख दे रहा था। यह सुख केवल महसूस किया जा सकता है, इसे बता पाना मुश्किल है। कि जैसे कोई नशा। 

ये खबर इन दो घरों से निकल कर गली में और गली से निकल कर पूरे मोहल्ले में फैल गई कि धाणियां साहब की बहुत पहुंच है। उन्होंने इतने सालों से अटका हुआ गोयल साहब का ट्रांसफर करवा दिया वो भी बिल्कुल पास के स्कूल में। 

गली में उनका सम्मान और बढ़ गया इतना कि मोहल्ले में उस गली को धाणियां साहब वाली गली कहा जाने लगा। डाकिया भी आता तो सबसे पहले धाणियां साहब वाली गली में जाता।  

यूं लगता है कि धाणियां साहब को अभी और मशहूर होना था। एक दिन मलिक साहब का सीमेंट का ट्रक बिना बिल्टी के पकड़ लिया गया। अब क्या करते, लाखों के नुकसान की बात थी। मलिक साहब ने सीधे धाणियां साहब को फोन मिला दिया और गिड़गिड़ाने लगे। 

“धाणियां साहब आप ही कुछ कर सकते हैं। कुछ ले देकर ही मामला रफा दफा करवा दीजिए, नहीं तो बहुत नुकसान हो जाएगा।” 

यूं अकड़ कर अपने कुत्तों के साथ घूमता आदमी, किसी दिन इस तरह गिड़गिड़ाएगा धाणियां साहब ने सोचा भी नहीं था। यही मौका था, उन्होंने पूरी विनम्रता से मलिक साहब को डांट लगाई। 

“क्यों करते हैं मलिक साहब ऐसे काम? इतना बड़ा कारोबार है आपका। जरा सा टैक्स बचाने के लिए ये सब?” 

मलिक साहब फिर गिड़गिड़ाने लगे, जरूरत जो न करवाए, वो कम। 

ये धाणियां साहब के लिए अहसान की बड़ी भारी डोज का वक्त था। उन्होंने पूरे गुमान में कहा, “अच्छा कोशिश करके देखता हूं। पर इस तरह के काम मत करवाया कीजिए भई। कई लोगों की ऑब्लिगेशन लेनी पड़ती हैं।” 

प्रवीण धाणियां ने सारा काम छोड़कर, मलिक साहब का ट्रक छुड़वाने में पूरी जुगत लगा दी, कई लोगों को फ़ोन किए। रुपये-पैसे की भी बात करनी पड़ी। कुछ लोगों के सामने उन्हें बिल्कुल बिना रीढ़ का हो जाना पड़ा। पर आखिर ट्रक छुड़वा लिया गया और मलिक साहब हाथ बांधे सीधे उनके घर। वे तो दफ्तर ही आ जाते, पर धाणियां साहब ने दफ्तर आने से मना कर दिया। 

वो अकड़ी हुई बूढ़ी औरत जिसने उनकी पत्नी का छुआ प्रसाद नहीं लिया था, उसका बेटा आज उनके सामने हाथ जोड़े खड़ा है। आहा! क्या सुखद स्थिति है। प्रवीण धाणियां अगर नहीं होते, तो आज यह आदमी जेल में होता। गर्व से उनका सीना चौड़ा हो गया। इशारों इशारों में मलिक साहब ने कई प्रस्ताव रखे, साथ पीने से लेकर, रुपये पैसे तक। पर धाणियां साहब को इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए था। 

अभी कुछ ही साल पहले बना उनका ये छोटा सा घर आज मलिक साहब के शानदार बंगले से भी बड़ा लगने लगा था। 

नशे कितने अजीब तरह के होते हैं, लोग जानते ही नहीं। उपकार, अहसान, गर्व, अद्भुत नशे हैं। आदमी खुद से ही बड़ा और बड़ा होता जाता है। धाणियां साहब नशे का ये पौधा अपने परिवार में भी रोप देना चाहते थे पर सरला धाणियां का व्यवहार एकदम संयत रहा। वे बस अपने स्कूल और अपने बच्चों में व्यस्त रहीं। उनकी एकनिष्ठ मेहनत का ही नतीजा था कि बड़े बेटे ने आईएएस की परीक्षा पास कर ली। वो किशोर लड़का जो एक दिन कंधे पर अपना स्कूल का बस्ता टांगे यहां आया था, अब प्रशासनिक अधिकारी बन जाएगा, इस बात पर तो पूरी गली में खुशियां मनाई गईं। 

औरतों को भी अब जाकर समझ आया कि सरला धाणियां का व्यस्त होना कितना अच्छा था। मां ने मेहनत की और बेटे ने फल दिया। 

इस पर भी मिसेज शर्मा बोलीं, “इन लोगों का जल्दी हो जाता है सब कुछ। हमारे बच्चों को मेहनत करनी पड़ती है।” पर इस बार वे अकेली पड़ गईं। मिसेज गोयल और मिसेज मलिक दोनों ने ही उनका साथ नहीं दिया- 

“किसी का कितना कोटा हो, मेहनत तो सभी को करनी पड़ती है। और बच्चे कभी किसी ने बाहर घूमते भी नहीं देखे। बस पढ़ते ही रहते हैं। तीनों लड़कों में से कोई ऐबी नहीं है। भई जो मेहनत करेगा फल तो मिलेगा ही।” मिसेज मलिक की बात पर मिसेज शर्मा खिसियानी सी रह गईं। 

दो साल ही बीते थे कि दूसरे बेटे ने भी सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर ली। ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है। धाणियां साहब के घर में यश और समृद्धि की वर्षा होने लगी थी। अब सब ने कयास लगाने शुरू कर दिए, कुछ साल और रुक जाओ, अपने मोहल्ले में तीन आईएएस अफसर होंगे। 

और हुआ भी यही। तीनों बच्चे प्रशासनिक अधिकारी बन कर अपने-अपने पद पर पहुंच गए। और अब सरला धाणियां ने नौकरी छोड़कर घर में आराम करने का मन बनाया। अब वे सचमुच आराम करना चाहती थीं। गली और मोहल्ले भर में अब तक सब उन्हें धाणियां मैडम कहकर पुकारने लगे थे। दूर-दूर तक यह बात भी मशहूर हो गई थी कि धाणियां मैडम ने अपने तीनों बेटों को खुद पढ़ाया और आज वे आईएएस बन गए हैं। कितने ही लोग चाहते कि वे उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ा दें। पर सरला धाणियां नहीं मानीं। 

दिन भर किताबें पढ़तीं और घर संभालतीं। नई भूमिका में भी उन्होंने खुद को एडजस्ट कर लिया था। घर में कच्ची जगह तो नहीं थी, पर गमलों में ही मिसेज धाणियां ने अच्छा-खासा बगीचा बना लिया था। तरह तरह की फूलों वाली बेलें, सब्जियों के पौधे और कुछ सजावटी पौधे। बच्चों से खाली हुआ घर अब हरियाली से भरने लगा था। उस हरियाली के बीच ही देर शाम तक सरला और प्रवीण धाणियां ताश खेलते रहते। 

तीनों बेटों की तीन अलग-अलग जातियों की बहुएं आ चुकीं थीं और अब तीनों ही अपनी-अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त थे। तीनों बेटे उन्हें अपने-अपने पास रहने को कहते, पर दो-चार दिन बाद ही उन्हें वहाँ ऊब होने लगती और वे वापस अपने घर लौट आतीं।  धाणियां साहब भी अब रिटायर हो चुके थे। क्या हुआ जो वे अकेले हैं, बेटों ने उनका कद और बढ़ा दिया था। 

शर्मा जी ने जब पत्नी के साथ अमरनाथ यात्रा पर जाने की इच्छा जताई, तो धाणियां साहब ने बेटे से कहकर उनके लिए विशेष इंतजाम करवाया। सैनी आंटी का बड़ा सा कुनबा, पूरी बस भरकर शिरडी गए थे, तो भी विशेष आरती में बैठने की व्यवस्था करवाई थी धाणियां साहब के बेटे ने। प्रवीण धाणियां अब भी गर्व के सुखद नशे में थे। अब कौन था यहां जो धाणियां साहब को नहीं मानता था। 

पर अब भी कभी-कभी कोई पीठ पीछे पूछ ही लेता था, धाणियां कौन होते हैं? 

धींवर? नहीं चूड़े, अरे नहीं शायद चमार! 

आग से जलते हैं तो दिखते हैं, पर भाप का जला भी कम नहीं दुखता।  

बहुत सारे बिल्डर आते हैं, जो चाहते हैं कि इस मकान को खरीद लें और चार फ्लोर के फ्लैट बना लें। छोटा बेटा भी चाहता है कि मम्मी-पापा उनके साथ पंडारा रोड वाले बंगले में आकर रहें। पर गली वाले नहीं चाहते कि धाणियां साहब यहां से जाएं। 


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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सेकुलर समाज में ही मुसलमानों का भविष्य बेहतर है - क़मर वहीद नक़वी | Qamar Waheed Naqvi on Indian Muslims

क़मर वहीद नक़वी (Qamar Waheed Naqvi) भारत के सम्मानीय पत्रकार हैं और उनके चाहने वाले हर वर्ग से आते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक लम्बी (थ्रेड) ट्वीट की है जिसे हर भारतीय को और ख़ासकार भारतीय मुसलमानों (Indian Muslims) को ज़रूर पढ़ना चाहिए। थ्रेड को इकट्ठा किया है और यहाँ शब्दांकन पर आपके लिए लगा रहा हूँ, इसे ख़ूब शेयर कीजिएगा – भरत तिवारी 




भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग यदि यह सोचता है कि अरब समर्थन से उसका सीना चौड़ा हो गया है तो यह निरी मूर्खता है। 

क़मर वहीद नक़वी

(स्वतंत्र स्तम्भकार. 38 साल से पत्रकारिता में. आठ साल तक (2004-12) टीवी टुडे नेटवर्क के चार चैनलों आज तक, हेडलाइन्स टुडे (अब इंडिया टुडे), तेज़ और दिल्ली आज तक के न्यूज़ डायरेक्टर. 1980 से 1995 तक प्रिंट पत्रकारिता में नवभारत टाइम्स, रविवार, चौथी दुनिया में वरिष्ठ पदों पर काम किया. उनके ब्लॉग राग देश  पर भी उन्हें पढ़ा जा सकता है।)

नूपुर शर्मा टिप्पणी विवाद पर भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग दो हफ़्ते बाद जो ग़ुस्सा जता रहा है, वह बिलकुल बेतुका है और राजनीतिक नासमझी का सबूत है। उनका ग़ुस्सा इतने दिनों बाद क्यों भड़का? क्या उनके पास इस सवाल का कोई तार्किक जवाब है? 

सेकुलर चिन्तकों ने हिन्दू साम्प्रदायिकवाद की तो खुल कर आलोचना की, लेकिन मुसलमानों के ऐसे क़दमों पर बोलने से बचते रहे, जब उन्हें बोलना चाहिए था। क्योंकि इससे उनके उदारवादी लेबल को नुक़सान पहुँचता।

ज़ाहिर है कि व्यापक अरब प्रतिक्रिया के बाद भारतीय मुसलमानों के इस वर्ग को लगा कि उन्हें भी कुछ करना चाहिए। मैंने अपने पिछले ट्वीट में कहा था कि “अरब देशों में प्रतिक्रिया न होती तो बीजेपी शायद ही अपने प्रवक्ताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की सोचती। बीजेपी को समझना चाहिए कि भारतीय मुसलमान भारत के है। वे किसी मुल्क का मुँह नहीं ताकते। बीजेपी ऐसे ग़लत संकेत क्यों दे रही है कि भारतीय मुसलमान अरब की ओर देखें?” -- और वही हुआ भी।

हालाँकि अरब प्रतिक्रिया के बाद मोदी सरकार के पास ऐसा क़दम उठाने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था। सरकार ने यही क़दम पहले उठा लिया होता तो मामला बढ़ता ही नहीं। सरकार की तरफ़ से यह बड़ी ग़लती हुई। अब इस मामले में विलम्बित प्रदर्शन कर भारतीय मुसलमान जवाबी ग़लती कर रहे हैं।

वे कौन लोग हैं जिन्होंने नूपुर शर्मा और नवीन कुमार जिन्दल को धमकियाँ दीं और क्यों? जुमे की नमाज़ के बाद देश के कई हिस्सों में क्यों हिंसा की गयी? ऐसा करके इन लोगों ने उस व्यापक भारतीय जनमत की अवहेलना की है, जो इस मामले में पूरी एकजुटता से उनके साथ खड़ा था।

भारतीय मुसलमानों का एक वर्ग यदि यह सोचता है कि अरब समर्थन से उसका सीना चौड़ा हो गया है तो यह निरी मूर्खता है। भारतीय मुसलमानों का हित केवल और केवल इस बात में ही है और रहेगा कि व्यापक भारतीय जनमत का समर्थन उसके साथ रहे। यह बात समझनी ही पड़ेगी।

मैं इस बात का सख़्त विरोधी हूँ कि भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व उलेमा या पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे किसी धार्मिक संगठन के हाथ में हो। दो कारण हैं। पहला यह कि धार्मिक नेतृत्व किसी समाज को प्रगति के रास्ते पर ले ही नहीं जा सकता क्योंकि ऐसा नेतृत्व अनिवार्य रूप से रूढ़िवादी होता है। दूसरा कारण यह कि आज़ादी के बाद से अब तक मुसलमानों के इस धार्मिक नेतृत्व ने लगातार साबित किया है कि उनमें रत्ती भर भी राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता नहीं है। शाहबानो विवाद, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, बाबरी मसजिद समेत तमाम मुद्दों पर यह राजनीतिक नासमझी खुल कर सामने आ चुकी है। इस नेतृत्व ने भारतीय मुसलमानों को धार्मिक आवेश के हवाई गुब्बारे में फुला कर ज़मीनी सच्चाई से उनका मुँह मोड़ दिया, वे प्रगति के मोर्चे पर तो पिछड़े ही, उनकी सोच और छवि पर भी बुरा असर पड़ा। दूसरे, इस नेतृत्व की लफ़्फ़ाज़ियों से संघ का समर्थन लगातार बढ़ा, उसे नये तर्क मिले।

ओवैसी समेत कुछ कोशिशें मुसलमानों की अपनी राजनीतिक ताक़त खड़ी करने की भी हुई, लेकिन सभी नाकाम हुईं और आगे भी होंगी। तीन कारण हैं। पहला, उन्होंने हमेशा मुसलमानों के धार्मिक नेतृत्व के एजेंडे को ही आगे बढ़ाया, उसे बदलने की कोई कोशिश कभी की ही नहीं। दूसरा, केवल मुसलमानों के नाम पर बनी पार्टी को व्यापक भारतीय जनमत का समर्थन कभी मिल ही नहीं सकता, तो वोट की राजनीति में ऐसी पार्टी कुछ कर ही नहीं सकती। ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे नेता जोशीले नारे और भड़काऊ भाषण देकर सभाओं में तालियाँ बजवा सकते हैं, बस। फिर ऐसी कोई भी पार्टी अन्ततः ‘जिन्ना सिंड्रोम’ को जन्म देकर हिन्दुत्ववादी ताक़तों को हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना भड़काये रखने के लिए नये तर्क देती है। ज़ाहिर है इससे मुसलमानों का कभी कोई भला नहीं हो सकता। इसका राजनीतिक लाभ हमेशा हिन्दुत्ववादी ताक़तों को ही मिलता है।

मुसलमानों का सबसे बड़ा संकट यही है कि उनके पास कोई ऐसा नेतृत्व नहीं है, जो उन्हें धार्मिक कटघरे से निकाल कर उनमें नयी सोच जगा कर लोकतंत्र में अपना जायज़ हिस्सा पाने के लिए उन्हें रास्ता दिखा सके। हिन्दुत्ववादी ताक़तें इस स्थिति से ख़ुश हैं क्योंकि इससे उनका जनाधार लगातार बढ़ता गया है। तथाकथित सेकुलर दलों ने भी मुसलमानों का हमेशा नुक़सान ही किया है क्योंकि वे मुसलिम नेतृत्व की नासमझियों की आलोचना कर उन्हें सही रास्ता दिखाने के बजाय चुप रहे। वोट बैंक की मजबूरियाँ!

सेकुलर चिन्तकों ने हिन्दू साम्प्रदायिकवाद की तो खुल कर आलोचना की, लेकिन मुसलमानों के ऐसे क़दमों पर बोलने से बचते रहे, जब उन्हें बोलना चाहिए था। क्योंकि इससे उनके उदारवादी लेबल को नुक़सान पहुँचता। इन सब कारणों से मुसलमान ज़मीनी सच्चाइयों से दूर एक अलग लोक में जीते रहे। 

पढ़े-लिखे मुसलमानों और मुसलिम युवाओं को नये सिरे से सोचना होगा, नया विमर्श चलाना होगा और नयी सोच का एक नया मुसलिम समाज गढ़ना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि भावनाओं के ज्वार में बह जाने के बजाय अपनी जायज़ बातें रखने और उन्हें मनवा लेने के और रास्ते क्या हैं?

यह बात मुसलमानों को समझनी ही होगी कि एक सेकुलर समाज में ही उनका भविष्य बेहतर है और रहेगा। इसलिए उन्हें अपना नेतृत्व भी सेकुलर राजनीतिक ढाँचे में ही देखना होगा। और धार्मिक मुद्दों के बजाय अपने आर्थिक मुद्दों और सामाजिक सुधारों पर ही पूरा ध्यान लगाना होगा।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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