चौंकिए नहीं, पढ़िए साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान आदि से सम्मानित हिन्दी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर नासिरा शर्मा की कविताएं।
शब्द-परिंदे
शब्द जो परिंदे हैं।
उड़ते हैं खुले आसमान और खुले ज़हनों में
जिनकी आमद से हो जाती है, दिल की कंदीलें रौशन।
अक्षरों को मोतियों की तरह चुन
अगर कोई रचता है इंसानी तस्वीर, तो
क्या एतराज़ है तुमको उस पर?
बह रहा है समय, सब को लेकर एक साथ
बहने दो उन्हें भी, जो ले रहें हैं साँस एक साथ।
डाल के कारागार में उन्हें, क्या पाओगे सिवाय पछतावे के?
अक्षर जो बदल जाते हैं परिंदों में,
कैसे पकड़ोगे उन्हें?
नज़र नहीं आयेंगे वह उड़ते, ग़ोल दर ग़ोल की शक्ल में।
मगर बस जायेंगे दिल व दिमाग़ में, सदा के लिए।
किसी ऊँची उड़ान के परिंदों की तरह।
अक्षर जो बनते हैं शब्द, शब्द बन जाते हैं वाक्य।
बना लेते हैं एक आसमाँ, जो नज़र नहीं आता किसी को।
उन्हें उड़ने दो, शब्द जो परिंदे हैं।
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दुनियाँ के क़लमकारों के नाम
किताबें क़रीनें से सजी
रहती हैं अलमारियों में बंद
मगर झाँकती रहतीं हैं शीशों से हरदम।
रहती हैं खड़ी एक साथ
झाड़ते हैं धूल उनकी, सहलाते हैं उन्हें प्यार से
दे जाती हैं रौशनी दिल व दिमाग़ को
यह करिश्मा है लिखनेवालों का
जिनके पास अक्षरों की दौलत है
जिसको जोड़ कर, वह खड़ी करते हैं मिनारें
विचारों की, जो चूमती हैं आकाश के सीने को।
भले ही शरीर छोड़ दे साथ उनका
जला दिए जायें या दफ़्न हो जायें उनके मुर्दा शरीर
मगर रहते हैं वह ज़िंदा, मरते नहीं कभी वह।
इसलिए
उन्हें लिखने के लिए आज़ाद छोड़ दो
मत बाँधो, उनके क़लम को, सूखने न दो, उन की सियाही को
उनके शब्द बरसते हैं बंजर धरती पर
उगाते हैं विचारों की खेती, बोते हैं नए बीज
जो चलते हैं शताब्दियों तक, सीना ब सीना, पीढ़ी दर पीढ़ी
उन्हें ख़त्म करना या मिटा देना, किसी के बस में नहीं
क्योंकि, वह लिख जाते हैं, कह जाते हैं, कुछ आगे की बातें।
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मैं शामिल हूँ या न हूँ।
मैं शामिल हूँ या न हूँ मगर हूँ तो
इस काल-खंड की चश्मदीद गवाह!
बरसों पहले वह गर्भवती जवान औरत
गिरी थी, मेरे उपन्यासों के पन्नों पर
ख़ून से लथपथ।
ईरान की थी या फिर टर्की की
या थी अफ़्रीका की या फ़िलिस्तीन की
या फिर हिंदुस्तान की
क्या फ़र्क़ पड़ता है वह कहाँ की थी।
वह लेखिका जो पूरे दिनों से थी
जो अपने देश के इतिहास को
शब्दों का जामा पहनाने के जुर्म में
लगाती रही चक्कर न्यायालय का
देती रही सफ़ाई ऐतिहासिक घटनाओं
की सच्चाई की, और लौटते हुए
फ़िक्रमंद रही, उस बच्चे के लिए
जो सुन रहा था किसी अभिमन्यु की तरह
सारी कारगुज़ारियाँ।
या फिर वह जो दबा न पाई अपनी आवाज़ और
चली गई सलाख़ों के पीछे
गर्भ में पलते हुए एक नए चेहरे के साथ।
यह तो चंद हक़ीक़तें व फसानें हैं
जाने कितनों ने, तख़्त पलटे हैं
हुकमरानों के
छोड़ कर अपनी जन्नतों की सरहदें।
चिटख़ा देती हैं कभी अपने वजूद को
अपनी ही चीत्कारों और सिसकियों से
तोड़ देतीं हैं उन सारे पैमानों व बोतलों को
जिस में उतारी गई हैं वह बड़ी महारत से
दीवानी हो चुकी हैं सब की सब औरतें।
मैं शामिल हूँ या न हूँ, मगर हूँ तो
इस काल-खंड की चश्मदीद गवाह।
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लाकडाउन में पदयात्रा
सुनो, मज़दूरों!
मेरी बचपन की यादों में
तुम्हारी यह तस्वीर न थी।
तब
बाँस और बल्लियों के भारा पर तुम्हें
सुपरमैन की तरह चढ़ते उतरते देखा था।
सिमेंट-बालू के ढेर को, आटे की तरह
फावड़े से गूँधते देखा था।
शाम ढले नारंजी लपटों पर,
खाना पकाते देखा था।
पूछा था, ‘क्या पका रहे हो?’
जवाब मिला था, ’दाल का दूल्हा‘ सुन कर
हम हँसी से लोट-पोट हुए थे।
बाद में कई बार सीढ़ी फिसलने और
संतुलन बिगड़ने से,
ऊँचाई से ज़मीन पर उल्का की तरह, तुम्हें
गिरते देखा था।
न जीवन-बीमा था न कोई नियम क़ानून,
सारी ज़िंदगी तुम्हें लंगड़ाते देखा था।
सूरज सवा नेज़े पर हो, या बदली भरी
कड़कड़ाती सर्दी हो।
तुम दीवारें उठाने, ढोला खोलने व प्लास्टर
करने में मस्त रहते।
और जब काम ख़त्म करते तो, तसले से करनी तक, धोना नहीं भूलते थे।
नहीं भूलते थे औज़ारों की पूजा करना।
तुम्हारे मज़बूत बोझा ढोते बदन में,
भीम और अर्जुन हमेशा नई महाभारत रचते
दिखते थे।
तुम,
ऐसे ही बसे थे मेरी बचपन की यादों में।
मगर अब!
नहीं सहन कर सकती तुम्हारी इस नई तस्वीर को।
बना कर कल-कारख़ानें, अस्पताल, घर और स्कूल।
लौट रहे हो तुम, हर जगह से ख़ाली हाँथ?
जो सड़कें तुमने बनाई थीं, बेशक ले जायेंगी तुम को, तुम्हारे घर तक।
जो पदयात्रा देख रहे हैं तुम्हारी,
वह संतुष्ट हैं यह कह कर, ’तुम मज़दूर हो!
ले चुके हो पहले ही अपनी दहाड़ी, बाक़ी
जो बची है, जब लौटोगे तो ले लेना।’
‘रिश्ता क्या है तुम से, इस कोरोना के लाकडाउन में?
मौत का भय, जब कुतर रहा
हो इंसानियत को।
तो ऐसी महामारी में, तुम्हारे लिए
नहीं क़ुर्बान कर सकते औरों को।’
अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते, वह सब लगा बैठे हैं ताले, अपनी तिजोरियों में।
सुनो मज़दूरों!
मत लौटना यहाँ, फिर फँसोगे यहाँ, इसी तरह।
सपनों के जिस बोरे को कंधों पर लाद,
यहाँ चले आए थे कमाने।
सपनों के उन्हीं चिथड़ों से हो सके तो
सँवारों अपने गाँव और क़स्बों को।
लेकिन!
मुझे पता है
तुम लौटोगे, लौटोगे नहीं तो खाओगे क्या?
तो फिर सुनो मज़दूरों!
अगर तुम लौटे इस बार तो,
एक नए इरादे से लौटना।
नई शर्तों का अनुबंध साथ लाना।
जो फिर तुम्हें मीलों भूखा न चलवाए।
छोड़ न दे तुम्हें लावारिस और
झाड़ न ले हाथ अपना ऐसी आपदाओं में।
अपनी मेंहनत को हरगिज़ गिरवीं न रखना
इस बार।
बल्कि यह अहसास दिलाना कि तुम हो,
उनकी योजनाओं को साकार करने वाले
मज़दूर योद्धा!
तुम हो उत्पादन और निर्माण के कलपुर्ज़े!
जिसके बिना नहीं चल सकता,
रोज़मर्रा का भौतिक जीवन एक भी क़दम।
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जो लगते हैं कुछ अलग से
पता नहीं क्यों, हम सहन नहीं कर पाते उन्हें
जो नहीं लगते अपने से
जो लगते हैं कुछ अलग से
यहाँ तक कि नहीं पसंद कर पाते हैं उन्हें
जो अलग ख़ुदा को मानते हैं।
मार डालते हैं उन्हें या फिर जी भर,
करते हैं अपमान उनका।
जार्ज फ़्लोयड हो या अख़लाक़
रोहित वैमुला हो या राहुल सोलांकी
कर जाते हैं झोंक में ग़लती और
रंग लेते हैं अपने हाथ उनके ख़ून में।
नहीं रोते बाद में, अपने किए पर
न पछताते हैं आत्मग्लानि से।
पूछता है जब कोई
मेरी क्या ख़ता है कि बनाने वाले ने
नहीं बनाया मुझको तुम्हारी तरह!
हर बार— बारम्बार
यही सवाल पूछता है ब्लैक - व्हाइट से
यलो - ब्राउन से मगर
जवाब किसी के पास माक़ूल नहीं।
न स्वीकार करते हैं कि सब को
बनाया है ख़ुदा ने एक ही मिट्टी से।
बहता है ख़ून रगो में एक ही रंग का
मगर वह नकारता है बाक़ियों को।
जला डालता है तैश में आकर क़ुरान,
बाइबिल, तौरेत और किताबेअक़दस को
फिर नाचता है लाल लपटों में
किसी शैतान की तरह।
ढाह देता है स्तूपों, मंदिरों, मस्जिदों और
गिरजाघरों को अपने उन्माद में आकर।
बना डालता है मलबा, पल भर में
इंसानी मेहनत और कला का।
और फिर
टहलता है रात -दिन उस पर,
किसी बदरूह की तरह दर- ब-दर।
हम खुद, क्या कम हैं
जो जात-पात, गोत्र, नुतफा और हड्डी
दलित, ब्राह्मण, सैय्यद, मुग़ल, कैथोलिक,
प्रोटेस्टेंट, भील, यहूदी, अरमनी
बाँट लेते हैं फल-फूल, नदी-पहाड़ और पशु-पक्षी।
छीन लेते हैं रोज़ी-रोटी मार कर लात,
दूसरों के पेट पर।
सिखाते हैं भेदभावऔर नफ़रत
फिर देते हैं दुहाई मज़हब की।
यह लोग कौन हैं जो हमारे अंदर की दबी चिंगारी को हवा देकर,
बाक़ी लोगों की ज़िंदगी में लगा देते हैं ग्रहण और समझते हैं ख़ून बहा कर,
किया है पुन्य का काम
पता नहीं क्यों, हम सहन नहीं कर पाते
अपने अलावा दूसरे इन्सान को
पूछना है मुझे,
क्यों नही एजाद कर पाई मेडिकल साइंस
कोई भी ऐसा इंजेक्शन।
जो कर सके इस पुरानी बीमारी का
इलाज तुरंत।
जब हो चुके हैं पैग़म्बर और फ़्लासफर के
हर शब्द बेअसर।
जिसके लगते ही आदमी के अंदर की
वहशत और खू़ँख़ारपन,
पलक झपकते ही ग़ायब हो जाए।
और वह मुक्त हो जाएअचानक
अपने गुनाहों से।
अरसा हो गया है,
इन के अंदर की आग पिघलती नही।
नहीं भीगती इनकी ऑंखें,
किसी इंसान की तरह।
नहीं थमता इनका प्रतिशोध,
बारिश की तरह।
कहाँ होगा अंत हमारा,
जब नहीं सीख पाए प्यार करना।
नहीं दे पाए आदर - सम्मान हम,
दूसरे इंसान को।
जो नहीं लगते अपने से,
जो लगते हैं कुछ अलग से।
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सुनहरे लम्हे
क्यों टीसती हैं कनपटी की नसें
क्यों दिल हरदम डूबा रहता है?
उठती है हौल दिल में, जैसे कुछ घटने वाला हो।
सुबह हो, या हो शाम, दिल बुझा-बुझा सा रहता है
पूछती हूँ अपने से, किस अनहोनी का इंतज़ार है तुम्हें?
जजब दिन हो चमकीलाऔर गुज़र गया हो बहुत कुछ।
शाहीन बाग़ का धरना उठ गया,
मज़दूर लौट चुके हैं अपने घरों को,
झूठ भी खुल रहे हैं धीरे-धीरे।
लाकडाउन से निकल, टक्कर ले रहे हैं लोग
इस महामारी से।
छूटती नौकरी, बढ़ती महंगाई और बेकारी से, जूझने को तैयार हैं सब के सब।
फिर भी दिल घबराता रहता है जैसे कुछ घटने वाला हो।
पूछती हूँ आप से,
क्या कुछ ऐसा ही महसूस करते हैं आप भी?
कुछ आहटें, कुछ सरसराहटें, जैसे कुछ होने वाला हो।
सूरज तो रोज़ निकलता है, बारिश भी होती है।
रात को चाँद हँसता है तारों के बीच।
सब से बड़ी बात, ज़मीन ठहरी हुई है पाँव के नीचे।
सब कुछ चल रहा है, उसी तरह से
फिर भी ख़दशा दूर नहीं होता दिल से।
शायद
फँस गई हूँ मैं हालात के भँवर में,
जैसे अब कुछ नया घटने वाला हो।
इसी इंतज़ार में खो रही हूँ मैं,
अपने सुनहरे लम्हे ज़िंदगी के।
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प्रकृति का गीत
जब सब परेशान और बेहाल हैं।
उस समय यह क़तारों में खड़े चुपचाप दरख़्त!
राहत की लम्बी साँसें खींच,
मुद्दतों के बाद आज वह सब के सब।
फैला कर अपनी हरी शाखाओं के डुपट्टे,
लहरा रहे हैं नीले आसमान की तरफ़।
हवा के न्योते पर आईं चिड़ियाएँ,
डाल-डाल पर फुदकती चहचहाती हुई।
उतरतीं हैं सब एक ख़ास अदा के साथ,
घाँस के मख़मली मैदानों पर।
चुगती हैं जाने क्या-क्या,
फिर सब्ज़ टहनी पकड़ झूलती हुई।
लेती हैं पेंगे बादलों के घेरों की तरफ,
बतियाती हैं जाने कहाँ कहाँ के क़िस्से।
कैसा बदला है यह ज़माने का चरखा?
जब सब बंद हैं, घरों में उदास और फ़िक्रमंद।
मौसम भी हो उठा है अनमना सा,
कभी बारिश, कभी गर्मी, कभी आँधी-धक्कड।
देख कर बेवक़्त की तड़ातड़ गिरती,
मेंह की बूँदों को।
दरख़्तों ने फुनगी से लेकर जड़ तक,
धो डाली सारी धूल और मिट्टी अपनी।
खिली धूप की पिलाहट में,
झूमते पेड़ों ने झटक कर अपनी,
आकाश की नीली अलगनी पर,
फैला दी अपनी शोख़ पत्तियाँ सारी।
जब अपने -अपने घरों से दूर,
फँसें हैं जहाँ -तहाँ सब लोग।
भूखे हैं, बीमार हैंऔर निराश।
तो उड़ती हैं चिड़ियाएँयह कहती हुई,
‘कैसी ताज़ा हवा, न बू न धुआँ, न हार्न का शोर!
मज़ा है अब अपने घोंसले बनाने का,
जब आसमाँ भी अपना और ज़मीन भीअपनी।
दरख़्तों ने सुना, और झूम कर यह कहा,
‘खड़ा हूँ मैं, अरसे से यहाँ।
न समझो! यह दुनिया अकेली हमारी रहेगी,
जो देखा है वह सब, कल कहानी बनेगी।
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मीडिया के बंद होते दरवाज़े
जो सिखाते थे रोज़ जीना हमें,
अपनी लिखित रपटों और मौखिक
समाचारों से।
जो ख़बर लेने पहुँच जाते थे रणक्षेत्रों में,
फटते बमों और बरसती गोलियों के बीच।
ख़बर भेजते रहते थे दम -ब -दम,
अपने मीडिया हाऊजों को।
सब कुछ चलता रहता था बिना ख़ौफ़ बिना किसी रूकावट के।
जब तक नहीं होता था अपहरण, बना लिए नहीं जाते थे बंदी।
कूद पड़ते थे, जलते इलाक़ों में, कैमरा कंधे पर उठाए।
पहुँच जाते थे, भूकंप पीड़ित इलाक़ों में,
सैलाब से उजड़े परिवारों के बीच माईक लेकर।
पूछते थे सवाल और लथाड़ते थे प्रशासन को,
राहत टुकड़ी के अब तक न पहुँचने पर।
मैं कैसे मान लूँ इस ख़बर को कि पत्रकार
कर रहे हैं ख़ुदकुशी, अब किसानों की तरह।
मैं कैसे विश्वास कर लूँ कि वह डूब रहे हैं
अवसाद में, आम आदमियों की तरह।
जो सिखाते थे रोज़ जीना हमें, दौड़ रहे हैं,
मौत की अंधी सुरंग में।
याद है मुझे, अच्छी तरह से वे दिन, जब
पूँजीपतियों ने बेच डाला था इन्हें, अपनी कम्पनियों के संग।
तब पत्रकार आहत थे, हताश नहीं।
याद है वे दिन भी मुझे, जब रपट में,
पेर-बदल कर डालते थे सम्पादक।
घुट कर अंदर ही अंदर, सुन लेते थे उनका
यह वक्तव्य!
‘मैं भी नौकर हूँ किसी का तुम भी प्यारे!
चलता रहे सब का दाना-पानी। ’
सर हिलाकर मान लेते थे, बास की मजबूरी में अपनी भी।
भले ही सीट पर लौट कर, फाड़ बैठते थे
असली रपट, ली थी जो बहा कर पसीना अपना।
आक्रोश में भर कर कभी, लिख बैठते थे
इस्तीफ़ा अपना।
फिर पटख़ देते थे क़लम अपना, मार कर
ठोकर कूड़ेदान को।
फिर बुदबुदाते थे तैश में आकर,
‘भाड़ में जाए ऐसी पत्रकारिता! ’
बुझे दिल से कह उठते थे।
‘कर लूँगा कुछ और, नहीं झुकूँगा अब और। ’
लेकिन ऐसा क्या घटा, जो सहन नहीं कर
पाए, बंद होते दरवाज़े मीडिया के?
कहाँ टूटा हौसला तुम्हारा, जो सिखाते थे
दूसरों को रोज़ जीना?
नहीं स्वीकार कर सकती तुम्हारी यह निराशा।
ज़रूर पुरानी झक में, अचानक उठा बैठे होगे ऐसा क़दम।
टूटती साँस से पहले तुम, पछताए तो होगे ज़रूर।
आया होगा ख़्याल अपनों का और भर आईं होंगी, आँखें तुम्हारी।
‘अलविदा ‘ कहने से पहले, कौंधी होगी यह आवाज़,
‘मुश्किलें पड़ें जितनी भी, यूँ मौत को गले मत लगाना।
अपनों को यूँ मँझधार में छोड़, फ़रार कभी मत होना। ’
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डूबती कश्ती
काम है, न कोई जमाखाता।
निकाल सकूँ कुछ नोट!
और मिटा सकूँ, भूख अपनी।
चूना काट रहा है, मुसलसलआँतें मेरी।
घर से दूर, फँसा पड़ा हूँ मैं यहाँ।
जाना था घर मुझे, अगले रविवार को।
हल्दी की रस्म थी मेरी वहाँ।
माँ ने कहा था, ’कम पड़ रहे हैं पैसे बेटवा!
मिल जाए अगर, मालिक से कुछ रूपये उधार!
तो कर लेना, यह कुछ ज़रूरी ख़रीदारी।
बड़ा शहर है, मिलेंगी चीजें यहाँ से सुंदर वहाँ’।
तैयारी पूरी थी, मेरी ब्याह की गाँव में।
पुत गया था घर और दे दिया था पेशगी,
हलवाई, बिजली और टेंट वालों को।
बुक हो गए थे टिकट सारे,
सभी पास व दूर के रिश्तेदारों के सब।
एलान हो गया, अचानक लाकडाउन का
जब।
बंद हो गए बाज़ार, रोडवेज़, रेल, कम्पनियाँ एक साथ ।
कैसे कहूँ माँ तुम से! छँटनी में निकाल दिया गया हूँ मैं।
भटक रहा हूँ भूख-प्यास और पैसे की कमी से यहाँ।
याद नहीं मुझ को, होने वाली दुल्हन का चेहरा अब।
न याद है गाँव लौटना, न ब्याह का दिन और तारीख़!
जो याद है वह बस इतना, पेट भर रोटी खाना, जी भर सोना।
मेरी चेतना को यह क्या हो रहा है?
जो जी रहा हूँ मैं, डूबती कश्ती केअहसास को यहाँ।
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कुत्ते बहुत उदास हैं।
मोहल्ले सूने हैं और घर के दरवाज़े बंद।
कुत्ते बहुत उदास हैं।
बासी रोटी उछालते हुए, घुमा कर लात मारते हुए, सभी चेहरे रूपोश हैं।
सड़कों पर दौड़ते वाहनों के आगे,
तन कर खड़े होने वाले।
न दिखने वाली चीज़ों को ताड़ने वाले,
बात बे बात भौंक पड़ने वाले।
कुत्ते बहुत उदास हैं।
बाज़ारों की चहल-पहल
पकवानों की लहराती सुगंध
खाते -पीते, चलते -फिरते
कहाँ गए हमें भगाने वाले?
बच्चों से भरीं बसें, कारों से उतरती औरतें
मोटर साइकलों पर फ़र्राटे भरते लड़के
आख़िर कहाँ जा उड़े जो दिखते नहीं
बरसों हो गए हैं किसी वाहन के पीछे
भौंकते हुए भागे नही।
कुत्ते बहुत उदास हैं।
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अम्माँ दौड़ो
अम्माँ दौड़ो, बाहर आओ
आकर तो तुम देखो
साड़ी तुम्हारी उड़ चुकी है
ऊपर जाकर चिपक गई है।
माँ घबरा कर बाहर निकली
नज़रें उठा जो ऊपर देखा
धुएँ का घूँघट हटा
आसमाँ को हँसते पाया
हैरत में खड़ी रह गई वह
बचपन के आँगन में उतर गई वह।
माँ को चुपचाप खड़ा
देख बेटा हँस कर बोला,
‘अम्मा! अम्मा! खींच न लेना साड़ी अपनी
लगती है मुझको अच्छी, यूँ ही टँगी टँगी
मोती जैसे जड़ी हुई। ’
माँ ने हँसकर बेटे को गोद उठाया
चूम कर वह मुँह उसका बोली,
‘पहली बार जो देख रहे हो आसमाँ
जिसको समझ रहे हो तुम, साड़ी उड़ी हुई। ’
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