कवितायेँ : समीर शेखर | Poetry : Sameer Shekher


समीर शेखर

जन्म:  24 अक्टूबर 1989
शोधार्थी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मूल रूप से मैं लखीसराय, बिहार का निवासी हूँ. कला के विभिन्न क्षेत्रों जैसे ग़ज़ल गायन, गजल एवं कविता लेखन तथा चित्रकारी में बचपन से ही मेरी रुचि रही है. हालांकि कविता सृजन में मेरी विशेष रुचि है. मेरी कविताएँ विश्वविद्यालय हिन्दी पत्रिका, त्रैमासिक हिंदी साहित्य की पत्रिका एवं समाचार पत्र में छप चुकी है.
वर्तमान पता: रूम नंबर- 09 , डाo इकबाल नारायण गुर्टू छात्रावास, वाणिज्य विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, 221005 (उ.प्र.)ई-मेल: sameershekhar86@gmail.com
मोबाईल: +91-8004438239, +91-8577089571

सब मरते हैं पागल पागल

दरिया, रेत, समंदर, बादल,
सब फिरते हैं पागल-पागल,
पशु,विहग और व्योम,धरा,नग
सब मरते हैं पागल-पागल,

मन बौखलाए, तन बौखलाए,
धरती का जन-जन बौखलाए,
सावन में भी आग लगी है,
घर- घर मरता पागल-पागल,

शहर ये भटके पागल-पागल,
गाँव ये भटके पागल-पागल,
धूप ये भटके पागल-पागल,
छाँव ये भटके पागल-पागल,

खेत, फसल, खलिहान तड़पते,
शाम-सहर किसान तड़पते,
बीच अधोजल राह निहारे,
नाव भटकते पागल-पागल !

खेत, फसल, खलिहान तड़पता,
शाम-सहर किसान तड़पता,
बीच अधोजल राह निहारे,
नाव भटकता पागल-पागल !

आँखों के आँगन में अतीत 

अतीत पत्थरों में तरासा हुआ,
कैद दीवारों पर,
ढेर सारे शब्द संवाद लिए हुए,
कुछ कहता है,
निर्वस्त्र, निःशब्द,
और हम भी सुनते होते हैं
बधिर बने,
कुछ ऐसे की,
निर्वस्त्रता के पार सिर्फ
यथा चित्र,
वो निर्वस्त्र स्तन और
उभारने वाले दुर्जन ही नज़र आते हैं,
दिखता नही हमें,
वो रहस्य,
और निर्वस्त्रता के उस पार की विवशता,
आँखों के आँगन में अतीत,
ढूँढता है अस्तित्व,
लड़ता है अपनी लड़ाई,
मगर थक कर हार जाता है,

संभव है, मैं भी
कैद कर दिया जाऊं
आलोचना के घेरे में...
बस एक हूक है
कौन समझेगा
निर्वस्त्रता के उस पार की विवशता !

साँसें कहाँ-कहाँ

आज कल मैं चुप हूँ,
आज कल मैं गुम हूँ,
आज कल मैं हूँ भी ?
पता नहीं !

हाँ, शोर तो है
बंद कमरे में,
चाय की दूकान पर,
रसोईखाने में,
खेल के मैदान पर,
दो राहे पर,
चौराहे पर,
मंदिर के चबूतरे पर,
अच्छा अब समझ आया !

आज कल मैं मुद्दा हूँ,
आज कल मैं मसला हूँ,
कुम्हार के पैरों की माटी हूँ,
चमार के हाँथ का चमड़ा हूँ,
लोहार की भट्टी का तपता लोहा,
बढ़ई के हथौड़े तले की कांटी,
ठठेरी के हाँथ का तसला हूँ,
मस्त हालात हैं,
आज कल मैं मुद्दा हूँ,
आज कल मैं मसला हूँ !

बीज 

आपके उत्साहवर्धक शब्द
मेरे लिए मोती हैं,
बहुत कीमती,
आपके हर शब्द
मेरे सृजन का एक और बीज,
जिन्हें समेटता हूँ मन के आँचल में,
और
ह्रदय की जमीन पर
कुछ और हर्फ़ निकलते हैं,
उनिंदी चेतना को चीरते हुए,
कभी प्रेम लिखते हुए,
कभी विरह लिखते हुए,
कभी रिश्ते लिखते हुए,
कभी जिरह लिखते हुए,
कभी तृप्ति लिखते हुए,
कभी आश लिखते हुए,
कभी दूर लिखते हुए,
कभी पास लिखते हुए,
कभी सहसा कुछ मिल जाने का एहसास,
तो कभी शाश्वत तलाश लिखते हुए,
कभी मकान लिखते हुए,
कभी शमशान लिखते हुए,
कभी ज़मीन लिखते हुए,
कभी आसमान लिखते हुए,
कभी उदास लिखते हुए,
कभी उल्लास लिखते हुए,
कभी माँ की ममता का छाँव,
कभी पिता के स्नेह का उजास लिखते हुए,
फिर कभी जब थकने लगता हूँ,
आपके दिए 
मोतियों से उत्साहवर्धक शब्द,
जो होते हैं मेरे सृजन के बीज,
जिन्हें समेटता हूँ मन के आँचल में,
और
ह्रदय की जमीन पर
कुछ और हर्फ़ निकलते हैं,
उनिंदी चेतना को चीरते हुए ! 
nmrk5136

एक टिप्पणी भेजें

2 टिप्पणियाँ

ये पढ़ी हैं आपने?

Hindi Story आय विल कॉल यू! — मोबाइल फोन, सेक्स और रूपा सिंह की हिंदी कहानी
गिरिराज किशोर : स्मृतियां और अवदान — रवीन्द्र त्रिपाठी
कोरोना से पहले भी संक्रामक बीमारी से जूझी है ब्रिटिश दिल्ली —  नलिन चौहान
मन्नू भंडारी की कहानी — 'रानी माँ का चबूतरा' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Rani Maa ka Chabutra'
टूटे हुए मन की सिसकी | गीताश्री | उर्मिला शिरीष की कहानी पर समीक्षा
मन्नू भंडारी की कहानी  — 'नई नौकरी' | Manu Bhandari Short Story in Hindi - 'Nayi Naukri' मन्नू भंडारी जी का जाना हिन्दी और उसके साहित्य के उपन्यास-जगत, कहानी-संसार का विराट नुकसान है
ईदगाह: मुंशी प्रेमचंद की अमर कहानी | Idgah by Munshi Premchand for Eid 2025
मन्नू भंडारी, कभी न होगा उनका अंत — ममता कालिया | Mamta Kalia Remembers Manu Bhandari
एक स्त्री हलफनामा | उर्मिला शिरीष | हिन्दी कहानी
मन्नू भंडारी: कहानी - एक कहानी यह भी (आत्मकथ्य)  Manu Bhandari - Hindi Kahani - Atmakathy