कभी-कभी...प्रयाग शुक्ल की कविता का मौसम


प्रयाग शुक्ल

छूट गयी डाल 

—  प्रयाग शुक्ल

हाथ से छूट गयी डाल
कहती हुई मानो, नहीं,  और मत तोड़ो
फूल बहुत हैं जितने हैं हाथ में
कुछ कल की  सुगंध के लिए भी छोड़ो।

i want to relax

धीरज धरो धीरज

धीरज धरो धीरज
कहता है धीरज।

धरते हैं धीरज।
प्रेम में, प्रतीक्षा में,
कामना में,  इच्छा में, पीड़ा में, उनींद में --
धरते ही आए हैं धीरज।
कहते ही आए है
दुहराते आए हैं
धीरज धरो धीरज।

अकुलाहट लेकिन कुलबुलाती है
कभी कभी धीरज को
चूंटी सी काटती।

धीरज फिर भी कहता
कहता  धीरज  धरो धीरज।।





कभी कभी 

कभी कभी उलझा लेता है कोई कांटा।
कभी कोई तार। कभी चलते चलते
कोई कील। किसी कुंडी का सिरा।
या ऐसा ही कुछ और।
उलझ कर रह जाता है कोई वस्त्र।
उलझा लेता है कभी कभी
कोई सन्नाटा।
कभी कोई  शोर। कोई तारा। पथहारा।
कभी कभी कोई  फूल।
उलझा लेती है  कोई धारा।
कभी कभी उलझा लेती है
किसी ठौर
कोई दृष्टि सृष्टि बन
और हम ठगे से रह जाते हैं खड़े
जैसे जाना न हो
कहीं  और।।



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चिन्ह 

चिन्ह रह जाते हैं बाढ़ के।
चढ़ाव के उतार के।
कहीं चोट लगने के
घाव के।
रेती पर चलने के
घटना प्रति घटना के।
पर जो न रहते हैं
मिट जाते हैं जो फिर
रह करके थोड़ी देर,
छोड़ती ही नहीं चीजें
चिन्ह कभी अपने जो
उन्हीं की तलाश में
रहते हम जीवन भर।

वृक्ष स्मृतियों  का।
शायद फल  टपक पड़े
कभी किसी मौसम में
कोई।।


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चिड़ियों की आवाज 

यह चिड़ियों की आवाज है
कहीं से आती हुई,
सुंदर है।
यह चिड़ियों की आवाज है,
यहीं यहीं यहीं कहीं
यह उनका और मेरा
घर है।
यह चिड़ियों की आवाज है
देर से, दूर से भी न आती
हुई।
यह एक डर है।

यह चिड़ियों की आवाज है
यात्रा में।
यह यात्रा उन्हीं पर
निर्भर है।


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