कृष्णा सोबती: प्रतिरोध की आवाज़ —ओम थानवी


कृष्णा सोबती: प्रतिरोध की आवाज़ 

—ओम थानवी 


कृष्णाजी से पाठक के नाते मेरा रिश्ता पुराना था। दिल्ली आने के बाद कुँवर नारायण, कृष्ण बलदेव वैद, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी आदि से तो जल्द निकट के संबंध बने। मगर कृष्णाजी से बहुत बाद में। बने तो ऐसे कि मित्रों की तरह बात होने लगी। उनका यह स्नेह हमेशा बना रहा। साहित्य-संसार से लेकर राजनीति और घर-परिवार तक की बातें उनसे होती थीं। इतनी कि अब उन्हें याद कर समेटना मुश्किल काम जान पड़ता है।

वे बुज़ुर्गों से हासिल यह 'सभ्याचार' निभाकर चलती थीं कि सार्वजनिक छवि में दूसरों के प्रति सम्मान में सिर 'नंगा' नहीं होना चाहिए।

वे मेरी माँ से ज़्यादा उम्र की थीं। लेकिन उम्र को मैंने उन पर छाते हुए कभी नहीं देखा। अपनी बैठक में सदा वे अपनी अनूठी पोशाक धारण करके आतीं, जिसे उन्होंने कभी ख़ुद 'डिज़ाइन' किया था। एक दफ़ा, उसी बैठक में, अनौपचारिक चर्चा में उनके हाथों की मुद्राएँ देखते बनती थीं। मैंने मोबाइल का कैमरा साधा। उन्होंने कहा, एक मिनट। और विमलेश से अपनी टोपी मँगवाई।

कृष्णा सोबती व ओम थानवी (फ़ोटो: भरत एस तिवारी)


ऐसे ही, बीमारी के दौरान हम भीतर के कमरे में बैठ उनके और दिवंगत पति शिवनाथजी के नाम से बनने जा रहे न्यास की बात कर रहे थे। अशोकजी और मनीष पुष्कले साथ थे। उन्होंने मुझे प्रबंध न्यासी बनने को कहा। कुछ और बातें तय हुईं। फिर विमलेश को कहा गया कि इस घड़ी की तसवीर हो जाय। तभी कृष्णाजी बोलीं, एक मिनट। और दुपट्टा लेकर पहले अपना सिर ढका। वे बुज़ुर्गों से हासिल यह 'सभ्याचार' निभाकर चलती थीं कि सार्वजनिक छवि में दूसरों के प्रति सम्मान में सिर 'नंगा' नहीं होना चाहिए।

इसका उन्हें अफ़सोस रहता था कि रेणु को आलोचकों ने स्वीकार किया, जबकि उनकी भाषा में पंजाबी की छाया से वे छड़क खाते रहे

लेकिन परंपरा की इस मामूली छाया को छोड़ उनमें आधुनिकता कूट-कूट कर भरी थी। उनका कथा-साहित्य जड़ता को तोड़ता है। उनकी भाषा और शिल्प भी। वे हिंदी की सबसे जुझारू कथाकर थीं। उनके पात्र — ख़ासकर स्त्री-पात्र — दबंग और मूर्तिभंजक हैं। जैसे पात्रों में विद्रोही मानसिकता मिलती है, वैसी उनके जीवन में भी मिलेगी। उनके मुरीद बहुत थे। पर दोस्त उन्हें कम ही मिले। या कहें कि उन्होंने कम दोस्त बनाए। वे कहती थीं — मैं अपने साथ रहना ज़्यादा पसंद करती हूँ, और अपने आप से कभी ऊबती नहीं।

भाषा को वे अपनी शैली में गढ़ती थीं। खुलकर लोकभाषा के शब्द और मुहावरे चलाती थीं। जैसा बोलती थीं, वैसा लिखती थीं। लिख-लिख कर काटती थीं। अंतिम ड्राफ़्ट का ख़ुद पाठ करती थीं। साहित्य में गालियों की तो उन्होंने डंके की चोट पर प्रतिष्ठा की। मित्रो मरजानी, उससे भी आगे यारों के यार  की भाषा ने दक़ियानूसी समाज को हिलाकर रख दिया। तब उनको ताल ठोककर कहना पड़ा - गालियाँ भाषायी संस्कृति का अहम हिस्सा हैं, वह एक "मानवीय शब्दावली" है जो समाज के विद्रूप और विसंगतियों को प्रकट करती हैं। उनकी दृष्टि में वह भाषा "क्रोध, घृणा, बेबसी, हिंसा, विरोध, धिक्कार, रोष, विक्षोभ, उत्पीड़न और शोषण के ख़िलाफ़ अपने घावों को खोल देने वाली कर्कश मगर सटीक आवाज़" थी।

विचारों और भाषा की तरह उनका रहन-सहन भी रूढ़िग्रस्त न था। वे (तब के) कनॉट प्लेस के एम्बेसी रेस्तराँ में अक्सर चाय पीने जाती थीं, गेलॉर्ड में में खाना खाने, वेंगर्स से ब्रेड मँगाती थीं और घर में शाम को आए मेहमान को चाय-कॉफ़ी के साथ रम या वाइन परोसने को कहती थीं। ख़ुद पसंदीदा कोन्याक (ब्रांडी) की चुस्कियाँ लेते हुए। अंगरेज़ी धड़ल्ले से बोलती थीं, हिंदी साहित्य नियम से पढ़ती थीं। पर अपने आप को 'बोली' की लेखिका कहती थीं। रेणु को बहुत मानती थीं। पंजाबी के शब्द निस्संकोच, बल्कि गर्व के साथ, इस्तेमाल करती थीं।

हिंदी की असल प्रयोगवादी कृष्णा सोबती हैं, अज्ञेय नहीं —ओम थानवी

इसका उन्हें अफ़सोस रहता था कि रेणु को आलोचकों ने स्वीकार किया, जबकि उनकी भाषा में पंजाबी की छाया से वे छड़क खाते रहे। भाषा को लेकर अमृतलाल नागर ने लखनऊ में उन्हें प्यार से झिड़का था। लेकिन वे अपनी धारा पर अडिग रहीं। पहले उपन्यास 'चन्ना' का अंश 'प्रतीक' में अज्ञेय ने छापा था। उन्होंने पंजाबी शब्द नहीं बदले। उनके इलाहाबादी प्रकाशक के संशोधक ने बदल दिए तो वे उपन्यास के छपे फ़रमे लागत चुकाकर उठा लाईं। हालाँकि बरसों टालते रहने के बाद अंतसमय 'चन्ना' का जो रूप छपा, वह कमलेश्वर द्वारा 'माँजी' गई भाषा अधिक जान पड़ता है।

"ज़िंदगीनामा" उनकी कालजयी रचना है। उसे बँटवारे के संदर्भ में देखा जाता है। पीछे छूटे वक़्त और बिछुड़े समाज की पीड़ा उसमें ज़रूर है, पर बँटवारे की टीस — जो कृष्णाजी में हमेशा रही — वे बयान कर ही न सकीं। जैसा कि वे बताती थीं, पाकिस्तान से आए लोग दिल्ली में गुज़रे वक़्त का ज़िक्र तक पसंद नहीं करते थे। उन्होंने मानो अतीत को दफ़ना दिया था। इसलिए बहुत कम कथा-साहित्य हिंदी में लिखा गया। कविताएँ तो अज्ञेय ने ही लिखीं। "ज़िंदगीनामा" को कृष्णाजी तीन खंडों में लिखना चाहती थीं। दूसरे खंड का कुछ हिस्सा लिखा। फिर छोड़ दिया। दुबारा हाथ नहीं लगाया।

एक दफ़ा विश्व पुस्तक मेले में उनके साहित्य पर चर्चा आयोजित हुई थी। उसमें मैंने कहा कि हिंदी की असल प्रयोगवादी कृष्णा सोबती हैं, अज्ञेय नहीं। कृष्णाजी के साहित्य का कथ्य देख लें, चाहे उनकी भाषा। यह बात उनको जँची थी।

हालाँकि अज्ञेय की वे बहुत क़द्र करती थीं। हमने अक्सर उनको साथ बैठकर स्मरण किया। मैं अपने क़िस्से सुनाता था, वे अपने। गुजरात (पाकिस्तान) से शिमला होते जब कृष्णाजी के पिता दिल्ली में अतुल ग्रोव मार्ग पर आ बसे, तब अज्ञेय पास ही फ़िरोज़शाह मार्ग पर रहते थे। उन्होंने यह प्रसंग कई बार सुनाया होगा कि वे पैदल अज्ञेयजी के घर पहुँचीं। कपिलाजी उस घड़ी बाहर निकल रही थीं, जिनसे परिचय न हो सका। 'सिक्का बदल गया' कहानी वे 'प्रतीक' के लिए अज्ञेय को दे आईं। छपने की उम्मीद उन्हें कम थी। मगर कहानी छपी तो उन्हें लगा कि उनका आत्मविश्वास 'सातवें आसमान पर' है।

अज्ञेय जन्मशती पर मैंने 'अपने अपने अज्ञेय' का सम्पादन किया और कृष्णाजी का वह संस्मरण उसमें शामिल किया, जो 'हशमत' ऋंखला के लिए लिखा गया था। जन्मशती का जश्न हमने कोलकाता में किया, जिसमें उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के अलावा शंख घोष, सुनील गंगोपाध्याय, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, कृष्णबिहारी मिश्र आदि शामिल हुए; अज्ञेय की कविताओं के बांग्ला अनुवाद का पाठ सौमित्र चटर्जी ने किया। कृष्णाजी लम्बी यात्रा अब नहीं कर सकती थीं, पर आयोजन के विवरण से वे बहुत प्रसन्न हुईं। अनेक प्रसंग उसके बाद उन्हें याद आए। अंतिम दिनों में जब मैं सफ़दरजंग बस्ती के अस्पताल में उनके पास बैठा था, उन्होंने बरबस कहा - जब अज्ञेयजी का ख़याल आता है, मैं आपको याद करती हूँ; आप आते हैं तो मुझे अज्ञेयजी के क़िस्से ख़याल आते हैं! अज्ञेय का ज़िक्र करते हुए वे एक कान को छूती थीं, जैसे पुरानी पीढ़ी के कलावंत गुरु के ज़िक्र पर छूते थे।

जब मेरा यात्रा-वृतांत सा कुछ 'मुअनजोदड़ो' नाम से छपा, उसे देख वे भावुक हो उठी थीं। उनकी प्रशंसा ने मेरा हौसला बढ़ाया। भावुक वे इसलिए हुईं, क्योंकि किताब में उस इलाक़े का ज़िक्र था, जहाँ से वे आती थीं। अपनी ख़ुशी के इज़हार में उन्होंने मुझे उपहारस्वरूप एक कला-पुस्तक भेजी और साथ में हाथ से लिखी एक पर्ची में यह आत्मीय इबारत:

"दोस्तो और दुश्मनो, संपादकश्री इस मैदान में उतरें तो हम बिचारों का क्या होगा! पेशी किसके सामने होगी! -- हशमत"

जब उन्हें पता चला कि मैंने कुछ संस्मरण और लिखे हैं, उन्होंने राजकमल प्रकाशन के मित्र अशोक महेश्वरी को कहा वह किताब जल्द छपनी चाहिए। मैंने शर्त रखी कि कृष्णाजी भूमिका लिखें तो। उन्होंने भूमिका लिख दी। मेरा आलस्य देखिए कि पांडुलिपि सहेज कर ही बैठा रहा! अब तक बैठा हूँ।

इस बीच कृष्णाजी ने कुछ और ग़ज़ब किया। क्या आपने किसी मशहूर लेखक को 86 बरस की उम्र में किसी युवतर क़लमघसीट की छोटी-सी किताब पर समीक्षा लिखते-छपवाते सुना है? मेरे हिस्से कृष्णाजी का यह आशीर्वाद भी आया। उन्होंने 'मुअनजोदड़ो' पर विस्तार से एक समीक्षा लिखी और उसे चुपचाप साहित्य अकादेमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' के सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय (अब दिवंगत) को भिजवा दिया। टिप्पणी "विवेचना" के रूप में छपी; शीर्षक था - 'मुअनजोदड़ो में साथ-साथ'। समीक्षा क्या थी, छोटा-मोटा निबंध समझिए। उसके कुछ अंश उद्धृत करने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ:

"समय और काल के पंखों को चीन्हती, खोजती, छानती, पहचानती, पुरातत्‍व के सन्नाटों के धड़कते मौन का लिप्यंतर करती कृति 'मुअनजोदड़ो' सिंधु घाटी सभ्यता और संस्कृति का रोमांचक आख्यान है। हम थानवी साहिब से रश्क कर रहे हैं कि लाड़काणा की ओर जाती बस में हम न हुए। ... वक्त है क्या भला? वक्त पहले ऋतुओं और मौसमों को बुनता है। उस बुनत में से उघड़ता है। धीरे-धीरे छीजता है। फिर परिवर्तनों के ताने-बाने में से नया होकर उभरता है। फिर किसी एक दिन प्रकृति की संहारक हलचलों में मुअनजोदड़ो मुर्दों का टीला बन खड़ा का खड़ा रह जाता है। हजारों वर्ष पहले कभी दहाड़ते सिंध दरिया के किनारे बसा वह शहर आज भी अपने पुराने वुजूद में मौजूद है। भले ही खंडहर होकर।"

" ... विविध प्रसंग, संदर्भ, विवरण, वृत्तांत संयोजित करते हुए 'मुअनजोदड़ो' का पाठ अपने में उपन्यास का कौशल और रोचकता समेटे हुए है। प्रस्तुति की बुनत में खास तरह की सघनता गठित है, जैसे चरखे के सूत पर सुच्चे पट की गुलकारी हवा में लहरा रही हो। हमने गहरे संतोष और सराहना से एक बार फिर 'मुअनजोदड़ो' का आवरण देखा और अलमारी में वापस रखने को हाथ बढ़ाया ही था कि उसकी जिल्द में कुछ सरसराया। किसी ने तगड़ी हांक दी थी: घणी खम्मा थानवी महाराज! बिना चूनर-घाघरे वाली उस नचनिया ('डान्सिंग-गर्ल') की इतनी बड़ाई और इस भरपूर ठसियोड़ी चालवाले वजूद की ओर उस्तादों ने आंख तक न उठाई!"

कृष्णा सोबती (फ़ोटो: भरत एस तिवारी)


पार के पंजाब से आने की वजह से उन्हें राजस्थान लुभाता था। दिल्ली आने के बाद पहली नौकरी उन्होंने गुजरात सीमा से लगे सिरोही में की। उस प्रवास के अधूरे संस्मरण उन्होंने मुझे पढ़वाए थे। बाद में उन्हें "गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक" नाम से उपन्यास का रूप दे दिया। जब सोबती-शिवनाथ न्यास का पुनर्गठन हुआ, उन्होंने मृत्यु के बाद दिल्ली के निवास को बेचकर जैसलमेर या रानीखेत में लेखक-आवास बनाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। अस्पताल में मैंने उस लेखक-गृह का नाम "ज़िंदगीनामा" रखने का सुझाव रखा जो उन्हें, संकोच से सही, भा गया था।

पहाड़ों के बारे में उन्होंने एक बातचीत में कहा है: "पहाड़ हमारे वजूद पर ही नहीं, आत्मा पर छा जाते हैं। हम कुछ और हो उठते हैं। नीचे मैदानों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा पारदर्शी, आत्मीय और गरमीले।" पहाड़ से इस लगाव का बड़ा कारण तो यह था कि उनका बचपन शिमला में बीता। अंगरेज़ों की राजधानी गर्मियों में शिमला आ जाती थी। पिता सरकार में अधिकारी थे।

शिमला में निर्मल वर्मा उनके छोटे भाई जगदीश (जिन्हें त्रिवेणी में हुई दो स्मृतिसभाओं में सुना) के सहपाठी थे। दशकों बाद उच्च अध्ययन संस्थान से बुलावा आया तो वहाँ वे बड़े चाव से गई थीं। निदेशक मृणाल मीरी के सुझाव पर कृष्ण बलदेव वैद के साथ उन्होंने एक लम्बी बातचीत रेकार्ड की। वैदजी और निर्मलजी में बनती न थी। पर कृष्णाजी की दोनों से बनी। शिमला में जन्मे निर्मल वर्मा और उनके बड़े भाई कथाकर-चित्रकार रामकुमार के बारे में उनका कहना था कि दोनों भाइयों ने हिमाचल की धरती से जो लिया और दिया, वह सचमुच "अपूर्व" बना।

रामकुमारजी पिछले बरस जब गुज़रे, कृष्णाजी लगातार अस्पताल आ-जा रही थीं। महान कलाकार और सिद्ध कथाकर को विदा कहने निगम बोधघाट पर बहुत थोड़े लोग आए। अचानक हमने देखा - पहिए वाली कुर्सी पर तिरानबे की वय वाली कृष्णाजी चली आ रही हैं। कैसा जीवट पाया था उन्होंने। चिता से थोड़ी दूर वे गगन गिल और कल्पना साहनी (भीष्मजी की बेटी) के साथ सहज बैठी रहीं। कृष्णाजी उनको बता रही थीं कि यह जो ठीक सामने वाला चबूतरा है यहीं पर तो अज्ञेयजी की अंत्येष्टि हुई थी। मैंने कहा, मैं भी तब जयपुर से आया था। उतने लोग फिर किसी लेखक की विदाई में नहीं देखे। कृष्णाजी तुरंत बोलीं - वैसा बंदा भी तो दूसरा नहीं हुआ!

गांधीजी से वे बहुत प्रभावित रहीं। उनके पहले 'दर्शन' शिमला में हुए, छोटा शिमला में किसी वक़ील के घर। फिर दिल्ली में। उनकी हत्या ने किसको नहीं हिलाया था। कृष्णाजी शायद गांधीजी की अंतिम यात्रा की भी साक्षी रहीं।

उन्हें अनेक पुरस्कार मिले। भले उनकी दिलचस्पी पुरस्कार लेने से ज़्यादा लौटाने में रहती थी। मुद्दों पर आधारित असहमति या प्रतिरोध में उन्होंने साहित्य अकादेमी सम्मान, पद्मभूषण तक लौटाए। वे कहती थीं कि लेखक को शासन से दूरी बनाकार चलना चाहिए। लेखकों की हत्या और साहित्य अकादेमी की सरकारपरस्ती के ख़िलाफ़ जब अवार्ड वापसी अभियान चला तो वे स्वेच्छा से पुरस्कार वापस करने वालों में सबसे आगे थीं।

उन्हें ज्ञानपीठ बहुत देर से मिला। २०१७ में घोषणा हुई। बीस साल पहले मिलना चाहिए था। २०१६ में जब बांग्ला कवि शंख घोष को ज्ञानपीठ मिला, मैंने फ़ेसबुक-ट्विटर पर लिखा था - "शंख घोष का काव्य अनुपम है। उन्हें ज्ञानपीठ मिलना ही चाहिए था। जैसे कृष्णा सोबती को। मगर 'ज़िंदगीनामा' जैसे क्लासिक की रचयिता, गद्य में आंचलिकता की चितेरी, बँटवारे के ज़ख़्मों और स्त्री-शक्ति की बुलंद आवाज़ ... कृष्णाजी को ज्ञानपीठ अब तक नहीं क्यों मिला, यह बात मेरी तरह आपको भी सालती होगी।" अगले साल कृष्णाजी को सम्मान मिला तो वे बहुत प्रफुल्लित नहीं थीं। बहरहाल, सम्मान समारोह संसद सभागार में रखा गया। राष्ट्रपति को आना था। कृष्णाजी अस्पताल में भरती हो गईं। राष्ट्रपति नहीं आए। लेखक की ओर से अशोक वाजपेयी ने सम्मान लिया, स्वीकृति-पत्र पढ़ा जिसमें कृष्णाजी ने कहा था कि "पुरस्कार लेने-देने की भी एक अवस्था होती है; अच्छा होता कि यह पुरस्कार किसी युवतर साहित्यकार को दिया जाता"।

वे किसी राजनीतिक विचारधारा की अनुयायी नहीं थीं। किसी लेखक संघ की खेमेबाज़ी से भी नहीं जुड़ीं। अपनी विचारधारा को "मानवीय" भर बताती थीं। इसके बावजूद राजनीतिक स्तर पर वे बहुत जागरूक थीं। सांप्रदायिकता और असहिष्णुता से गहरे आहत होती थीं। हर गतिविधि पर प्रतिक्रिया व्यक्त करतीं। मेरे आग्रह पर 'जनसत्ता' में तीन-चार लेख भी लिखे, जो पहले पन्ने पर छपे। देश की दुर्दशा पर राष्ट्रपति के नाम लिखी उनकी सार्वजनिक पाती ख़ासी चर्चित हुई थी।
जब नरेंद्र मोदी अच्छे दिनों का भुलावा देकर सत्ता में आए, कृष्णाजी का फोन आया कि "जनसत्ता के लिए एक लेख लिखा है; मोदी-शैली की राजनीति देश के लिए खतरे की घंटी है, लगा कि कोई स्टैंड लेना चाहिए"। उनका वह दो टूक लेख "देश जो अयोध्या है और फैजाबाद भी" शीर्षक से छपा। उन्होंने लिखा था -
"किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए। .. हमारा देश सदियों से समावेश और सामंजस्य का पर्याय रहा है। .. धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। .. यह भारत देश किसी राजनैतिक विचारधारा के मंसूबों के नीचे न किसी एक धर्म का है न किसी जाति का। वह अयोध्या है तो फैजाबाद भी है। यहां सांची है तो सिकंदराबाद भी है। बनारस है और मुगलसराय भी। भुवनेश्वर और अहमदाबाद भी। हरिद्वार है, अलीगढ़ भी। रामपुर है और डलहौजी भी। इंद्रप्रस्थ है और गाजियाबाद भी। पटियाला और मैकलोडगंज भी। गुरुकुल कांगड़ी है, देवबंद भी। प्रयागराज और अजमेरशरीफ भी। सदियों-सदियों से ये भारतीय संज्ञाएं इस महादेश की शिराओं में बहती हैं- वे इतिहास के पन्नों में स्थित हैं। ऐसे में हिंदुत्व का गौरवगान इन्हें भला क्योंकर बदल पाएगा?"

ढलती और अशक्त अवस्था के बावजूद कृष्णाजी का यह जज़्बा उस वक़्त और मुखर रूप में सामने आया जब २०१५ में कांस्टीट्यूशन क्लब में हमने आततायी शासन और सांप्रदायिकता के विरुद्ध "प्रतिरोध" सिलसिले का आग़ाज़ किया। रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, जस्टिस राजेंद्र सच्चर, कुमार प्रशांत, पी. साईनाथ, डॉ पुष्पमित्र भार्गव और शर्मिला टैगोर (रिकॉर्डेड) आदि बहुत-से साथी वहाँ थे। लेकिन हम आयोजकों -- अशोक वाजपेयी, एमके रैना, अपूर्वानंद, वंदना राग -- सबकी एक ही ख़्वाहिश थी कि काश कृष्णाजी आ जाएँ। और उन्होंने हमारा आग्रह टाला नहीं। वे हिमाचली टोपी में वीलचेयर पर बैठकर माँवलंकर हॉल आ पहुँचीं। "बाबरी से दादरी" तक की राजनीति को तेजस्वी स्वर में ललकारा। वे पुरजोश मगर ठहर-ठहर कर पढ़ रही थीं, मैं बग़ल में माइक थामे उपस्थित मानस की प्रतिक्रिया ताड़ रहा था। थोड़ी ही देर में ऐसा तारतम्य बना कि लोग मानो उनके हर वाक्य को साँस रोककर सुनने लगे। तालियों पर तालियाँ बजने लगीं। हम सबके सामने प्रेरणा की जीती-जागती हुंकार मौजूद थी।

जब कृष्णाजी का संबोधन पूरा हुआ तो सारा हॉल अपने पैरों पर खड़ा था। वे वीलचेयर से मंच से नीचे आईं और अपनी सीट पर बिठाई गईं, तब तक लोग नहीं बैठे, न उनकी करतलध्वनि थमी। अब भी मैं उस दृश्य को जब-जब याद करता हूँ, सुखद सिहरन-सी हो उठती है। इसके बाद वे 'प्रतिरोध' के दूसरे आयोजन में भी आईं।

कृष्णाजी के अनेक संस्मरण कौंधते हैं। क्या भूलूँ, क्या याद करूँ। फ़ोन की गप। रह-रह कर उपहार; कभी किताबें, कभी वस्त्र। बड़े हरफ़ों की इबारत: जनाब ... हशमत। खान-पान की आवभगत। संगीत ख़ासकर अल्लाहजिलाई बाई, रेशमा और मेहदी हसन की चर्चा। क्रिकेट की बात। रोगशैया पर मेरे पिताजी को सुदूर क़स्बे में स्वास्थ्यवर्धक चीज़ों की खेप। हमारी शादी की चालीसवीं सालगिरह पर उनके घर जश्न; इसरार कर प्रेमलताजी से राजस्थानी गीत सुनना, झूमना। छब्बीस साल चले लेखकीय अधिकार के मुक़दमे में कोर्ट-कचहरी के क़िस्से। निंदा-सुख की साझेदारी। वाट्सऐप के ठिठोली वाले वीडियो। अस्पताल के टीवी पर स्पाइडरमैन फ़िल्म का अवकाश। वहीं पर हमारे समूचे परिवार की हलवे से ख़ातिरदारी। पौत्र को आशीर्वाद। अख़बारों की दुर्दशा पर चिंतन। उत्तरप्रदेश में सपा-बसपा के गठजोड़ पर बात। आशा बनाम केसर-कस्तूरी। मृत्यु के बाद न्यास की योजनाएँ। आदि-इत्यादि।

हाँ, एक प्रसंग अंत में ज़रूर सुनाऊँगा। मैं पोलैंड गया था। लौटकर तुरंत उनसे न मिल सका। वे अस्पताल में थीं। जाता तब उन्हें बातचीत में ही लगाता था। बहरहाल उनके ख़याल में मैं अब भी विदेश में था। देखा कि नए साल के संदेशों के बीच 94 बरस छू रहीं कृष्णाजी का ऑडियो संदेश आया हुआ था, विमलेश के मोबाइल से, कविता की-सी छाया लिए:

“आपके देहली में न होने से देहली कुछ कम देहली लग रही है। नया साल मुबारक हो!”

कृष्णाजी के निधन पर उस संदेश के हवाले से एनडीटीवी की साइट पर मित्रवर प्रियदर्शन ने क्या ख़ूब लिखा -- "कृष्णा सोबती के बिना भी दुनिया कुछ कम दुनिया हो गई है, हिंदी कुछ कम हिंदी हो गई है और दिल्ली कुछ कम दिल्ली रह गई है।"

वाक़ई।

कृष्णा सोबती की 2 मिनट की झंकझोरती कहानी "पितृ हत्या" 


(हंस से साभार/ ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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