इम्तियाज़ अली की ज़बरदस्त वापसी - अमर सिंह चमकीला :पंकज दुबे | Pankaj Dubey: CineSohabat-Chamkila: Imtiaz Ali

सिने-सोहबत

अमर सिंह चमकीला  

धार्मिक कट्टरपंथियों की राजनीति और दमित कामुकता पर इम्तियाज़ अली का एक धारदार व्यंग्य 

::पंकज दुबे

मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब  चैट शो , “स्मॉल टाउंस बिग स्टोरीज़ “ के होस्ट हैं । ईमेल: carryonpd@gmail.com


शब्दांकन  SHABDANKAN Pankaj Dubey CHAMKILA review Imtiaz Ali



इम्तियाज़ अली की हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'अमर सिंह चमकीला' से निर्देशन में उनकी ज़बरदस्त वापसी हुई है। साथ ही इस फ़िल्म ने कई ज़रूरी सामाजिक विमर्शों के लिए दरवाज़े खोल दिए हैं। एक तरफ़ ये फ़िल्म हमारी जड़ों में अश्लीलता से मनोरंजन के समाजशास्त्र को टटोलती है तो दूसरी तरफ़ समाज में गालियों के पीछे की जेंडर पॉलिटिक्स के विवाद को भी अभिव्यक्ति का मंच देती है।

पंजाब के बेहद लोकप्रिय लेकिन बदनाम गायक 'अमर सिंह चमकीला' की ज़िंदगी पर बनाई गई इस फ़िल्म में 'चमकीला' की भूमिका दलजीत दोसांझ ने कुछ ऐसी निभाई कि अब कभी खुली आँखों से भी 'चमकीला' को याद करने पर दलजीत का ही चेहरा दिखता रहेगा। चमकीला की पत्नी अमरजोत की भूमिका में परिणीति चोपड़ा ने भी बेहतरीन अभिनय किया है।

दरअसल, 80 के दशक में 'चमकीला' और उनकी पत्नी अमरजोत को कुछ नक़ाबपोश बंदूकधारियों ने गोलियों से छलनी कर दिया था। हत्या के पहले से ही चमकीला को अश्लील गाने लिखने और गाने को लेकर कई धमकियाँ मिलती रही थीं। उनके गानों को महिलाओं के लिए आपत्तिजनक बताया जाता था। चमकीला धमकियों से बचने का विकल्प ढूँढता हुआ अपना काम करता रहना चाहता है। ये फ़िल्म 80-90 के दशक के धार्मिक कट्टरपंथियों की राजनीति और दमित कामुकता पर भी एक धारदार व्यंग्य है।

पंजाब की आबोहवा में ही कुछ तो है जहाँ लोग 'शिद्दत से कुछ करने' और शिद्दत की मात्रा बढ़ाकर 'आपा खो देने' के भेद में ज़्यादा फ़र्क़ करते कम ही दिखते हैं। फिर चाहे वहाँ सबकुछ 'हद से ज़्यादा' कुछ भी क्यों न हो जाए। प्यार हो जाए तो दीवानों की तरह और अगर बात बिगड़ गई तो अर्श से फ़र्श तक लाने में कोई वक़्त नहीं। 'चमकीला' भी इसी दीवानगी के हत्थे चढ़ी एक त्रासदी है।

इम्तियाज़ अली और उनके भाई साजिद अली ने इस फ़िल्म की पटकथा और संवाद पूरी कसावट के साथ लिखे हैं। कई दृश्यों में 'चमकीला' के संवाद चीख-चीख कर अपने उद्देश्य को रेखांकित करते हैं। 'चमकीला' का एक संवाद जो दर्शकों को पूरी फ़िल्म की अंतरात्मा से बख़ूबी वाक़िफ़ करा देता है –  

ये बंदूक वालों का तो काम है गोली चलाना, तो चलाएँगे। हम गाने बजाने वाले हैं, हमारा काम है गीत गाना तो हम गाएँगे। न वो हमारे लिए रुकेंगे ना हम उनके लिए। जब तक हम हैं, तब तक स्टेज पर हैं और जीते जी मर जाएँ, इससे तो अच्छा है मर के ज़िंदा रहें।

इस फिल्म की एक और ख़ासियत ये भी है कि इसमें कथ्य की बेबाक़ी के साथ-साथ शिल्प के स्तर पर भी कई नए प्रयोग किए गए हैं। फ़िल्म की कहानी एक ही ढर्रे पर सपाट नहीं चलती बल्कि नॉन-लीनियर स्टोरीटेलिंग का सहारा लेते हुए बीच-बीच में दर्शकों को रोकती, टोकती और सोचने पर विवश करती चलती है। इस फ़िल्म में शानदार निर्देशन के लिए इम्तियाज़ अली को टोरंटो में आयोजित इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑफ़ साउथ एशिया (इफ़सा) में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के अवार्ड से भी नवाज़ा गया है।  

'अमर सिंह चमकीला' कई मायनों में इम्तियाज़ अली की दूसरी फिल्मों से अलग है। ये बात ज़रूर है कि 'इम्तियाज़' ने इससे पहले भी एक गायक पर आधारित म्यूज़िकल 'रॉकस्टार' बनाई है लेकिन, इस फ़िल्म में जिस तरह से 'रियलिज़्म' को दर्शाया गया है वो इस फ़िल्म को भारतीय फ़िल्म इतिहास में एक क्लासिक की जगह देती है। इम्तियाज़ अली अपने दर्शकों को 'अमर सिंह चमकीला' के माध्यम से मोरल पुलिसिंग, जातिगत भेदभाव, सामाजिक विसंगतियाँ और पूर्वाग्रह में डूबी एक त्रासदी में क्या ख़ूब उतारते हैं। ये फ़िल्म एक ख़ूबसूरत नदी के बहते पानी की तरह है जो ज्वलंत भावनाओं को जगाती है। इम्तियाज़ अली की फ़िल्मों के किरदारों की ख़ासियत होती है कि वो समाज की आम सोच से अलग धारणा रखते हैं। वो आज़ादी के आशिक़ होते हैं और खुद की तलाश के परवाने।

इम्तियाज़ अली की यह फिल्म पंजाबी गायक 'अमर सिंह चमकीला' को लेकर एक बिलकुल ही नॉन-जजमेंटल नज़रिया रखती नज़र आती है। 'चमकीला' फ़ैक्टरी में जुराबें बनाता था और काम के बाद कुएँ के किनारे बैठकर रियाज़ करता था। बाद में एक नामी गायक के घर नौकर का काम भी करता था। धीरे-धीरे उसे कुछ मौक़े ऐसे मिलते हैं जिनकी मदद से दुनिया की नज़र में बेहद मामूली-सा लगने वाला अमर सिंह, अमर सिंह 'चमकीला' बन जाता है।

फिल्म न तो 'चमकीला' के गीतों के चयन, उनमें व्याप्त अश्लील शब्दों-मुहावरों या फिर तौर-तरीकों का महिमामंडन करती है और न ही उन्हें ख़ारिज करती है। यह केवल उसे सुनने का मंच और मौक़ा देती है। ये फ़िल्म कई दूसरे सवालों को भी जन्म देती है कि समाज में नैतिकता की लकीर कहाँ तक खींची जा सकती है? नैतिक मूल्यों को परिभाषित करने का ठेका किन मठाधीशों के हाथ में है? ये कौन तय करता है कि कौन सी बातें नैतिकता की परिभाषा के अंतर्गत हैं और कौन सी नहीं? क्या जो भी लोकप्रिय है वो सबकुछ सतही है? क्या आलोचना का अधिकार अपनी तमाम सीमाओं को लांघता हुआ किसी कलाकार की हत्या के फ़तवे जारी कर सकता है, उसकी हत्या तक करवा सकता है?


इस फ़िल्म के संगीत की बात करें तो एक बार फिर से लेजेंड्री संगीतकार ए. आर. रहमान, मुक़म्मल गीतकार इरशाद क़ामिल के साथ मोहित चौहान, अरिजीत सिंह और जॉनिता गांधी की गायकी ने अपना जादू बिखेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्म में कुल 6 गाने हैं जो दर्शकों के दिल में बेहद स्वाभाविक तरीके से उतर जाते हैं। रहमान के संगीत की ख़ासियत ये है कि उसका सुरूर चढ़ता तो धीरे-धीरे है पर वो काफ़ी लंबे समय तक उतरने का नाम ही नहीं लेता। अमर सिंह चमकीला के एल्बम का एक गाना, 'विदा करो' की भव्यता तो गुरुदत्त की 1957 की क्लासिकल 'प्यासा' में साहिर लुधियानवी के गाने, 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' की भव्यता और असर की याद दिलाता है।

'अमर सिंह चमकीला' भी उसी समाज और परिवेश की उपज था, जो उसके गीतों की अश्लीलता के नाम पर उसकी जान के पीछे पड़ गया। उसने अपने बचपन से अपने आसपास तथाकथित सभ्य समाज की नज़र में आपत्तिजनक क़िस्से, वर्जित कविताएँ और अवैध रिश्ते देखे थे। बाद में जब वो अपनी कल्पना और अनुभव यात्रा को संगीत में बुनकर परोसने लगा तो उसके दर्शकों को अपने दूसरे तनावों के बीच में एक मनोरंजक फ़ुर्सत-सी मिलने लगी। ये तमाम भावनाएँ फ़िल्मकार इम्तियाज़ अली ने रुपहले पर्दे पर इस खूबसूरती से इस फ़िल्म में उतारी हैं जैसे कि ये सबकुछ अपने आसपास ही घटित हो रहा हो। अमर सिंह चमकीला ने लाखों लोगों को संगीत और गीतों से खुशियाँ दीं, लेकिन एक दलित मज़दूर से एक मशहूर संगीतकार बन जाने की सफलता को पूरी तरह स्वीकार नहीं सका। फ़िल्म में ही एक संवाद है, “एक बात चमकीला की बहुत ग़लत सी, अपने सुनने वालों का गुलाम था वो।”

फ़िल्म नेटफ़्लिक्स पर है। देख लीजिएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं। 
साभार : “नया इंडिया”)

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