विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।
जनसत्ता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जनसत्ता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मोदी का मुखौटा - ओम थानवी | Mask of Modi - Om Thanvi

अगर वे (मोदी ) 2002 के कत्लेआम में अपने शासन की विफलता के लिए ही माफी मांग लें तो ‘मोदी-मोदी’ का जयघोष करता वर्ग उनसे फौरन छिटक जाएगा - ओम थानवी


मुंबई में चुनाव सभा में उनकी मौजूदगी में शिवसेना के रामदास कदम ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और मोदी की ओर इशारा कर कहा कि ‘‘वे (मोदी) सत्ता में आए तो छह महीने के भीतर पाकिस्तान को खत्म कर देंगे।’’
तब मोदी सुनते रहे। उस सभा का ठीक उस घड़ी का वीडियो देखें तो मोदी के चेहरे पर परेशानी या झुंझलाहट के भाव जरा नहीं दिखाई देते। दरअसल, यही मोदी का असल चेहरा है। 
एक दफा गोविंदाचार्य ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था कि वे भाजपा का मुखौटा हैं। यानी दिखाने वाले दांत। सच बोलने के लिए गोविंदाचार्य हमेशा के लिए भाजपा से बाहर कर दिए गए।

         नरेंद्र मोदी मुखौटा नहीं हैं। संघ की मरजी से उनकी प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी तय हुई है। मोदी की विजय के लिए स्वयंसेवक जितनी भाग-दौड़ कर रहे हैं, पहले उन्होंने शायद ही कभी की होगी। वे घर-घर जा रहे हैं। सभाओं में सक्रिय हैं। सोशल मीडिया पर भी पांव पसारे हैं।

         लेकिन नरेंद्र मोदी ने अपना संघ का चेहरा, लगता है, कुछ छुपा लिया है। अब उनके चेहरे पर स्वेच्छा से ओढ़ा हुआ मुखौटा है। वे खुले संदेश भेजकर उन नेताओं को भाषा की तमीज और विचार की शुचिता समझा रहे हैं, जो कट्टर ढंग से पेश आ रहे हैं। मसलन पार्टी के नेता गिरिराज सिंह और विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया के बयानों पर उनकी प्रतिक्रिया।

         गिरिराज सिंह ने पूर्व पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी की मौजूदगी में कहा था कि मोदी को रोकने वालों के लिए भारत में कोई जगह न होगी, उनके लिए पाकिस्तान में ही जगह बचेगी। तोगड़िया ने मुसलमानों को हिंदू-बहुल बस्तियों से खदेड़ने की बात कही थी। गिरिराज सिंह के बयान पर ट्वीट करते हुए मोदी ने कहा कि इस तरह के बयान देने वालों से वे ‘‘अपील’’ करते हैं कि इनसे बचें। तोगड़िया का बयान आने पर उन्होंने कहा- इस तरह के संकीर्ण बयान देकर खुद को भाजपा का शुभचिंतक बताने वाले विकास और अच्छे शासन के मुद्दे से भटक रहे हैं।

         इसी बीच मोदी ने टीवी पर अपने चेहरे पर नरमी का इजहार शुरू किया है। वे मुस्कुराते हैं, हंसी-ठठ्ठा भी करते हैं। कभी इंटरव्यू में करण थापर के शुरुआती सवाल पर ही बिदक कर उठ खड़े होने वाले मोदी लंबे-लंबे इंटरव्यू दे रहे हैं। वे एकाधिक पत्रकारों- ज्यादातर श्रवणशील- के सामने भी ढेर सवालों के जवाब देते हैं। उनके ये जवाब प्रचार कंपनी के जुमलों (मिनिमम गवर्मेंट, मेक्सिमम गवर्नेंस!) से हटकर हैं।

         लेकिन क्या सचमुच हमारे सामने बदले हुए नरेंद्र मोदी आ गए हैं? क्या ये उदार विचार और नरम तेवर उनके मानस की किसी ‘फॉरमेटिंग’ का संकेत देते हैं?

         कोई नादान ही उनकी इस ‘मासूमियत’ पर फिदा होना चाहेगा। कुछ चीजें उनके संकीर्ण मानस की पहचान बन चुकी हैं। नहीं लगता कि उन पर वे किसी भी सूरत में आंच आने देना चाहेंगे। वे जानते हैं उनकी हार-जीत का दारोमदार हिंदू मतों पर ही है। अगर वे 2002 के कत्लेआम में अपने शासन की विफलता के लिए ही माफी मांग लें तो ‘मोदी-मोदी’ का जयघोष करता वर्ग उनसे फौरन छिटक जाएगा।

         इसी तरह, मुसलिम टोपी न पहनने की जिद को इन्हीं चुनावों में उन्होंने दिखावे का ‘‘पाप’’ ठहरा डाला। जबकि उनकी पार्टी के ही अध्यक्ष राजनाथ सिंह यह ‘‘पाप’’ लखनऊ में कर रहे थे।

         अभी दो रोज पहले, इस उदार दौर में, बरबस उनके असल चेहरे की पहचान उभर आई। मुंबई में चुनाव सभा में उनकी मौजूदगी में शिवसेना के रामदास कदम ने मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला और मोदी की ओर इशारा कर कहा कि ‘‘वे (मोदी) सत्ता में आए तो छह महीने के भीतर पाकिस्तान को खत्म कर देंगे।’’
तब मोदी सुनते रहे। उस सभा का ठीक उस घड़ी का वीडियो देखें तो मोदी के चेहरे पर परेशानी या झुंझलाहट के भाव जरा नहीं दिखाई देते। दरअसल, यही मोदी का असल चेहरा है। वे इससे छुटकारा पाना चाहते हैं, इसका कोई प्रमाण ‘अच्छे दिनों’ के चुनाव प्रचार में अब तक कहीं देखने को नहीं मिला। उलटे उनके सबसे विश्वस्त अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में ही मुसलमानों से बदला लेने की हुंकार भरी।

         क्या अमित शाह मोदी से विपरीत विचार लेकर चलते हैं? क्या मोदी को उनके प्रचार अभियान, प्रचार के क्षेत्र और प्रचार की विषय-वस्तु की कोई जानकारी नहीं। यह नामुमकिन है।

         मोदी के चुनाव प्रचार की विषय-वस्तु पर शोध करने, लिखने, तरतीबवार करने पर कोई ढाई सौ लोग तैनात हैं। इनके साथ मोदी के नजदीकी सलाहकार सक्रिय हैं। विषय-वस्तु को अंतिम रूप मोदी की सहमति से ही मिलता है। ‘द टेलीग्राफ’ ने इस बंदोबस्त और प्रक्रिया पर विस्तार से जानकारी दी है।

         जाहिर है, उदारता का तेवर मोदी का ताजा फैसला है। उन्हें जीत के लिए उस सहिष्णु वर्ग का समर्थन भी जरूरी लगने लगा है, जो शायद तटस्थ है। संभव है कि उनके शोधकर्ताओं ने हिंदुत्व के भरोसे दाल गलते न देखी हो। वरना मोदी खुलेआम मुसलमानों और पाकिस्तान के बारे में खुद जहर बुझी बोली बोलते आए हैं। उनके समर्थकों ने उनकी प्रशासनिक काबिलियत के इजहार के लिए यू-ट्यूब पर इंडिया टीवी की ‘अदालत’ का एक टुकड़ा प्रचारित किया। उसमें यह पूछने पर कि आतंककारियों के मुंबई हमले के वक्त आपके हाथ कमान होती तो  क्या करते? मोदी कहते हैं- वही करता जो मैंने गुजरात में किया था। पाकिस्तान? उसे उसकी भाषा में जवाब देंगे। पाकिस्तान हमला कर चला जाए तो अमेरिका नहीं, पाकिस्तान ‘में’ जाना होगा। विरोधियों को पाकिस्तानी एजेंट ठहराने का विचार भी पहले-पहल खुद मोदी के दिमाग में ही कौंधा था।
लेकिन यह उनका पुराना तेवर है। अब ऐसा बोलने वाले को वे रोकेंगे। 272 का लक्ष्य दूर नजर आने लगा है। राजग मिलकर भी बेड़े को पार न लगा सका तो? नैया कौन पार लगाएगा? और किस शर्त पर। क्या शर्त   मोदी पर आकर रुक जाएगी?

         इन्हीं संशयों ने अचानक एक ‘नया’ मोदी हमें दिया है। जो राममंदिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 के एजेंडे के मानो खिलाफ खड़ा है- ‘‘संविधान देश को चलाता है, वही सर्वोच्च है।’’ लेकिन चुनाव प्रचार में सामने आए तेजी के तेवर? वे तो ‘‘चुनावी’’ होते हैं जी!

         अगर नरेंद्र मोदी का यह बुनियादी सोच होता तो पूरा चुनाव प्रचार अलग धुरी पर खड़ा होता। मगर चुनाव प्रचार उसी तर्ज पर है। अमित शाह, गिरिराज सिंह या रामदास कदम की गूंज यहां-वहां बनी रहेगी। लेकिन ‘भावी प्रधानमंत्री’ की नरम, नम्र, ‘स्टेट्समैन’ छवि अब वे मजबूरन पेश करेंगे।

         हिसाब लगाया गया है कि ‘मोदी सरकार’ की संभावना खड़ी करने में पांच हजार करोड़ रुपया खर्च हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार से मोहभंग के बाद कारपोरेट लॉबी ‘विकास पुरुष’ मोदी की गद्दीनशीनी के लिए कमर कसे बैठी है। इसलिए साधनों की कमी कैसे हो सकती है! इतना सघन, व्यक्ति-केंद्रित प्रचार शायद ही पहले हमारे यहां हुआ होगा।

         राजीव गांधी ने ‘रीडिफ्यूजन’ के जरिए जब मगरमच्छों वाले डरावने चुनाव प्रचार का सहारा लिया था, वह अभियान भी इतना पेशेवराना न था। मोदी की ब्रांडिंग प्रचार-प्रबंधकों ने साबुन-तेल की तरह शुद्ध व्यावसायिक शैली में की है। वह इतनी आक्रामक है कि खुद पार्टी के दिग्गज हैरान- और कुछ बेचैन भी- हैं।
लेकिन लगता है यह चुनाव प्रचार जो संदेश अब तक नहीं दे सका- या उन्होंने देना न चाहा- उसे मोदी अब टीवी के जरिए घरों में जा-जा कर खुद दे रहे हैं। एकबारगी बड़ा सुखद लगता है। सबको साथ लेकर चलना है। एक नया भारत बनाना है। संविधान माईबाप है। पड़ोसी भाई हैं। भाईचारा बढ़ाना है।

         जैसे मोदी में देवता जागा हो। लेकिन यह सब चुनावी रणनीति का दूसरा तेवर है। चेहरे पर दूसरा चेहरा। मुखौटा। सच्चाई क्या है, यह वक्त साबित कर देगा- अगर मोदी सत्तासीन हो सके।

साभार जनसत्ता 25.04.2014

लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का सैद्धांतिक संहार - कृष्णा सोबती | Carnage of democracy in the name of democracy - Krishna Sobti


किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए।


देश जो अयोध्या है और फैजाबाद भी

कृष्णा सोबती

हमारे राष्ट्र का तानाबाना यहां रहने वाले विभिन्न समाजों की विविधता को सहेजे-समेटे जोड़-जमा से निर्मित है। प्राचीन धर्म-संस्कृति के नाम पर इसकी गुणा को भाग में विभाजित करने का श्रेय किसी एक समाज को नहीं जाता, बहुसंख्यक समाज के हिंदुत्व अखाड़े में हर-हर भांज रहे बुद्धिमानों को इसे समझना चाहिए।

अपने प्यारे देश का भूगोल, इतिहास और सांस्कृतिक-सामाजिक विन्यास सघन है। वह सजग और बहुरंगी-बहुधर्मी राग में निबद्ध है। यही हमारी विपुलता और बौद्धिक संपन्नता की कसौटी है। भारतीय कवि-मन ने अपनी पुण्यवती धरती की प्रशंसा में जितने भी महिमा गान रचे हैं- बंदिश में बांधे हैं- उनमें राष्ट्र की चारों दिशाओं के सुर-ताल समादृत हैं। वे देश प्रेम के गहरे भावों में समाहित हैं।

          देश के इन स्तुति गानों की प्रस्तुतियां हर भारतीय के वजूद में उम्र भर धड़कती रहती हैं!

          मेरी जन्म भूमि, मेरी मातृ भूमि, मेरा मादरे वतन। वन्दे मातरम्। सारे जहां से अच्छा हिन्दतोस्तां हमारा; हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा।

          इन पंक्तियों से, शब्दों से उभरते अहसास हर नागरिक की सांसों में, रूह में आत्मा में प्रवाहित होते चले जाते हैं। तन-मन को सरसाते चले जाते हैं। यह न किसी धर्म की बपौती हैं, न किसी राजनीतिक दल की विरासत, न किसी समूह विशेष की, न समुदाय-संप्रदाय की।

          इस विशाल देश की ऋतुएं, मौसम, धूपछांही गन्ध हर भारतीय नागरिक के तन-मन को आह्लादित करती है। अपने गांव, कस्बे, नगर, महानगर, प्रदेश एक दूसरे की परस्परता में जीते हैं। एक देश के निवासी होने के रिश्ते को जीते हैं। गरीबी, अमीरी और बेहतर जिंदगी की खुशहाल लालसा पीढ़ियों के साथ भारत के मौसमों में घुल जाती है। इसी प्राचीन उद्गम से उभरती रही हैं विविध वैचारिक दार्शनिक चेतना की उत्कृष्टता। प्रबुद्धता। साधारण भारतीय मन की अभिव्यक्ति हमारे रचनात्मक साहित्य में संकलित है।

          भारतीय लोकतंत्र में जनहित कल्याण की व्यापक अवधारणाओं को ध्यान में रख राष्ट्र के विभिन्न जाति-समूह, समुदाय-संप्रदाय और विभिन्न धर्मों को संविधान के तहत बराबरी का दर्जा दिया गया। धर्मनिरपेक्षता इस राष्ट्र का महामंत्र है। हमारे प्रबुद्ध लेखकों की अंतरदृष्टियां समय और काल के परिवर्तनों को अंकित करती रही हैं। उनके पार ले जाती रही हैं। इस तरह वे मानवीय मूल्यों को इन्सानी संघर्ष की कशमकश से ऊपर रखती रही हैं।
हिंदुत्व सिर्फ वह नहीं जो चित्त-पावनी राजनीति से सबको निकृष्ट समझते हुए खुद के पवित्रतम होने का दम भरता है
          राष्ट्र की नागरिक संहिता के अनुरूप हर भारतीय स्त्री-पुरुष, गरीब-अमीर, हिंदू-मुसलमान, सिख-ईसाई, जैन-बौद्ध, पारसी-यहूदी एक-से नागरिक अधिकारों के स्वामी हैं। लोकतंत्र की इन्हीं कद्रों-कीमतों के सहारे आज के नए समय का भारतीय नागरिक बेहतर जीवन की ओर उन्मुख है। अग्रसर है।

          ऐसे में किसी भी छोटी-बड़ी राजनैतिक पार्टी द्वारा धार्मिक-सांप्रदायिक संकीर्णता का प्रचार करना भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति के विरुद्ध अपराध माना जाना चाहिए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र की संप्रभुतापूर्ण सत्ता-व्यवस्था, लोकतंत्र के हित में, धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध रही है।

          हमारे राष्ट्र का तानाबाना यहां रहने वाले विभिन्न समाजों की विविधता को सहेजे-समेटे जोड़-जमा से निर्मित है। प्राचीन धर्म-संस्कृति के नाम पर इसकी गुणा को भाग में विभाजित करने का श्रेय किसी एक समाज को नहीं जाता, बहुसंख्यक समाज के हिंदुत्व अखाड़े में हर-हर भांज रहे बुद्धिमानों को इसे समझना चाहिए।

          भारत देश की महानता के सूत्र किसी भी एक धर्म के पाले में नहीं हैं, वे देश-प्रदेश से उभरे राष्ट्रीय यथार्थ की  संरचना में हैं। भारत में रहने वाले विभिन्न धार्मिक समूह आपसी टकराहटों, संग्रामों के बाद भी सहअस्तित्व की संभावनाओं से प्रभावित और संचालित होते रहे।

          ये समूह अपने-अपने प्रेरणा-स्रोतों के मुहानों से एक-दूसरे से संवाद, वाद-विवाद, विचार-विमर्श करने की प्रक्रियाओं में से गुजरते हुए सारगर्भित व्याख्याएं प्रस्तुत करते रहे। हमारा देश दर्शन, अध्यात्म और कलाओं की तार्किक विधाओं का प्रणेता रहा है। आक्रमणकारी विजेताओं द्वारा पराजित होने की दुखदाई परिधियों में भी यहां के निवासियों ने अपनी भारतीय विशिष्टता को बनाए रखा है। भारत के गौरवमय अतीत और ‘दूसरों’ के आधिपत्य में भी अपने मूल स्वरूपों को बचाए रखा है। हमारा देश सदियों से समावेश और सामंजस्य का पर्याय रहा है।

          ‘हिंदुत्व’ के गौरव को उछालने, उघाड़ने और दहाड़ने से न उसकी खूबियां कम होंगी, न चुनावी समर में आगे निकलने से उनमें इजाफा होगा। हिंदुत्व सिर्फ वह नहीं जो चित्त-पावनी राजनीति से सबको निकृष्ट समझते हुए खुद के पवित्रतम होने का दम भरता है। इसकी विशाल सीमाओं का वैभव प्रकृति और सृष्टि की संपदा से भरपूर है; वह (‘हिंदुत्व’) अपने में बहुत कुछ जज्ब करने और कचरे को निकाल फेंकने का सामर्थ्य भी रखता है। हमारे लोकतंत्र की ताकत और रफ्तार इससे जाहिर होती है। भारतीय नागरिक की मानसिकता और नीतिगत विवेक किसी भी तानाशाही विचारधारा को मैत्री भाव से नहीं देखता।
धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। 
          भारतीय जनमानस का नागरिक व्याकरण खासा पुख्ता है। वह भ्रष्टाचार को एक हद तक सहन करता है, उसके बाद रोक देता है। वह जानता है कि मतदाता किसी भी दल का चुनाव कर सकता है, किसी दल को ऊंचाई से उतार भी सकता है। विस्मयकारी  है  कि  राजनीतिक  पार्टियां  जनता  जनार्दन  को  ऐसी  स्वेच्छाचारिता  से  सम्बोधित  करती  हैं  मानो  नेताओं  के  मुख  से  वे  कुछ  भी  स्वीकार  कर  लेंगी।

          लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया जनता और राजनीतिक दलों के संदर्भ में नागरिक की भाषाई संस्कृति और शब्दावली को प्रत्यक्ष करती है। अधिनायकवाद से हट कर वह दूसरे दृष्टिकोण को भी सुनने-समझने की तालीम   रखती है। जो हम आज देख रहे हैं, वह लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का सैद्धांतिक संहार है और दूसरों का मुंह बंद करने की महज जूतम-पैजार।

          करोड़ों शिक्षित मतदाता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने वाली गाली-गलौज की चुनावी शैली को लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान समझते हैं। सलीकों के तर्कों से परे, दूसरों को लगभग धमकाते हुए अपमान करना, बराबरी के लोकतंत्र का चिह्न नहीं। विज्ञापन एजेंसी के कौशल के बावजूद किसी भी पार्टी की विचारधारा की मुंहजोर तानाशाही ज्यादा देर चलती नहीं। धार्मिक पक्षधरता के साये में राष्ट्र के एकत्त्व से छेड़छाड़ करना गंभीर मसला है। यह चाहे हिंदुत्व के गौरव-गान के लिए हो या सदियों की गुलामी को भुलाने के लिए- बहुसंख्यक समाज की नुमाइंदगी करने की गरज से धिक्कारती-फटकारती ये मुद्राएं दुखद नजरिए की ऐतिहासिकता को ही प्रकट करती हैं।

          यह भारत देश किसी राजनैतिक विचारधारा के मंसूबों के नीचे न किसी एक धर्म का है न किसी जाति का। वह अयोध्या है तो फैजाबाद भी है। यहां सांची है तो सिकंदराबाद भी है। बनारस है और मुगलसराय भी। भुवनेश्वर और अहमदाबाद भी। हरिद्वार है, अलीगढ़ भी। रामपुर है और डलहौजी भी। इंद्रप्रस्थ है और गाजियाबाद भी। पटियाला और मैकलोडगंज भी। गुरुकुल कांगड़ी है, देवबंद भी। प्रयागराज और अजमेरशरीफ भी। सदियों-सदियों से ये भारतीय संज्ञाएं इस महादेश की शिराओं में बहती हैं- वे इतिहास के पन्नों में स्थित हैं। ऐसे में हिंदुत्व का गौरवगान इन्हें भला क्योंकर बदल पाएगा?

मैं सेफ सीट का खेल नहीं खेल रहा - अरविंद केजरीवाल (रपट: सिद्धांत मोहन तिवारी) I am not playing game of safe seat - Arvind Kejriwal

मैं सेफ सीट का खेल नहीं खेल रहा - अरविंद केजरीवाल


- सिद्धांत मोहन तिवारी

समय तुरत-फुरत बदलावों का है। इस बदलाव भरे समय में बनारस की जनता ने मंगलवार दोपहर और शाम के बीच के वक्फ़े में एक व्यापक और मौजूं खेल देखा। इस बदलाव ने हाल ही में राष्ट्रीय राजनीति में सकुचा-मिचमिचा कर उतरते बनारस को लगभग उस डर से मुक्त करने का साहस दिखाने की चेष्टा की, जिसमें यह शहर अपने भविष्य की ओर बड़ी चिंतित निगाह से देखता है। दृश्य में अकारण अंतर व्याप्त हो रहे हैं। इन अंतरों में बहुत सारा नागरिक दायित्व निभाना भी ज़रूरी है।

          दृश्य एक


          बेनियाबाग से लहुराबीर तक सारे वाहन सड़क की एक ही ओर से चल रहे हैं, ‘मैं हूं आम आदमी’, ‘मुझे चाहिए पूर्ण स्वराज’, बदलेगा अमेठी, बदलेगा देश’, ‘आम आदमी पार्टी ज़िन्दाबाद’ के नारों से साजी भीड़ दूसरी ओर चल रही है। पता चलता है कि अरविंद केजरीवाल मैदान की तरफ़ जा रहे हैं। सामने भारी माल ढोने वाली गाड़ी पर केजरीवाल, सिसोदिया, संजय सिंह, आनंद कुमार और दूसरे सदस्य सवार हैं। पूरी गाड़ी और आम आदमी पार्टी के शीर्ष दल के कपड़ों पर स्याही के गहरे निशान हैं।

          हम आगे बढ़ते हैं और आगे लगभग पच्चीस लड़के भगवे रंग में ‘जो बच न पाया खांसी से, वो क्या लड़ेगा काशी से’ की तख्तियां लेकर खड़े हैं। पता चलता है तो शक यकीन में बदल जाता है। वे भाजपा और भाजयुमो के कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने केजरीवाल के काफ़िले पर काली स्याही फेंकी है। तस्वीर आगे चल थोड़ी और साफ़ हो जाती है, जब सड़क पर अंड़ों के टुकड़े दिखाई दिए हैं, थोड़ी और जब कुछ काले झंडे सड़क पर फेंके दिखाई दे रहे हैं।

          उस जगह तैनात पुलिसवाले से बात होती है, तो बताते हैं कि उन्होंने ‘आप’ की टोपी पहने कुछ लोगों को मारा भी है, कुछ गाड़ियों के शीशे फोड़े हैं और आने-जाने वाले लोगों को मां-बहन की गालियां दे रहे हैं। हमने पूछा कि आपने कोई गिरफ़्तारी नहीं की, तो बोले कि इनके अध्यक्ष को गिरफ़्तार किया है, बाकी तो आप जानते ही हैं।

          दृश्य दो


          बेनियाबाग मैदान में मंच खुले आसमान में बना हुआ है। गाड़ी से टंगकर आए केजरीवाल एंड टीम भीड़ के बीच से होते हुए मंच पर आ गई है। मंच की कोई छत नहीं है और मंच की ऊंचाई सिर्फ़ इतनी कि औसत लंबाई का आदमी खड़ा हो तो गर्दन मंच के बराबर आएगी। इस तरह से यह जनसंपर्क रैली उन मुट्ठी भर रैलियों में शामिल हो जाती है, जहां वक्ता और जनता सभी धूप झेल रहे हैं। भीड़ के एक बड़े हिस्से में मुसलमान हैं, फ़िर उनके बाद दलित, मजदूर और अन्य पिछड़ी जाति के लोग हैं। बनारस के इमाम ने मंच से ऐलान कर दिया है कि मुफ्ती बोर्ड का सचिव होने के नाते मैं ये कहता हूं कि मुफ्ती बोर्ड तन-मन-धन से अरविंद केजरीवाल की मुहिम का हमसफर है। इमाम ने साफ़ किया है कि हिंदुस्तान जालिमों का नहीं है। यह हिंदू-मुस्लिम एकता का है। रोज़ी-रोटी-सफ़ाई का मसला बाद में है, पहला मसला अमन-ओ -आवाम का है। भीड़ इशारा समझने में कोई चूक नहीं कर रही है।

          संजय सिंह ने ‘थर-थर मोदी, घर-घर झाड़ू’ का नारा दे दिया है। उन्होंने याद दिलाया है कि अरविंद केजरीवाल ने जनलोकपाल की लड़ाई लड़ी। उसके लिए वादे किए और कहा कि नहीं पूरा कर पाया तो इस्तीफा दे दूंगा, इसलिए इन्होंने इस्तीफा दिया है। संजय सिंह ने अपील की है कि जाति-धर्म पर नहीं, मुद्दों पर वोट करिए। संजय सिंह ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि कांग्रेस-भाजपा के सहयोगी दल और प्रदेश की प्रमुख पार्टियां सपा-बसपा बिना एजंडे के जाति-धर्म पर चुनाव कैसे जीत रही हैं। संजय सिंह ने राजनीति के परिवारों और परिवारों की राजनीति पर रोशनी फेंकी।

इसने दिवास्वप्न दिखाए हैं, यह सफल होने की पूरी तैयारी के साथ आया है
          मनीष सिसोदिया अंबानी पर निशाना साध रहे हैं। वो गैस के दामों में भाजपा-कांग्रेस की चालूपंती को दिखा रहे हैं। यह भी बताते चल रहे हैं 49 दिन के अंदर आम आदमी पार्टी ने क्या-क्या किया। उन्होंने बताया कि उनका इस्तीफ़ा देना भागना नहीं था। यह अपना वादा न निभा पाने का प्रायश्चित था।

          कुमार विश्वास ने साफ़ किया है ‘आप’ का प्रमुख एजंडा धर्म और जाति की राजनीति का बहिष्कार करना है। रैली स्थल तक के रास्ते में हुए हमलों पर चुटकी लेते हुए बता रहे हैं कि अमेठी से लड़ रहा हूं और अक्सर ऐसे छिटपुट हमलों का शिकार होता रहा हूं। विश्वास केजरीवाल को समझा रहे हैं कि अरविंद तुम्हारे पर पांच हमले हुए हैं, जब छ: हमले हो जाएँ तो मान लेना कि तुम राजनीति में घुस चुके हो। मौजूदा हालात पर बेहद संजीदा मजाक करते हुए कुमार विश्वास कह रहे हैं कि एक हमारे प्रधानमंत्री हैं, जो मानते नहीं कि मैं हूँ और एक भाजपा का उम्मीदवार है, जो मान के बैठा है कि मैं ही हूं। भाजपा के पुरनियों की हालत पर तंज़ कसते हुए कुमार विश्वास कह रहे हैं कि भाजपा की हालत ऐसी है कि बारात उठी नहीं और फूफा नाराज़ हो गए। कुमार विश्वास ललकारते हुए बात करते हैं, वे बीच-बीच में उर्दू ज़बां में कलमें पढ़ दे रहे हैं। भीड़ लहलहा उठ रही है। वे उद्धव ठाकरे को ललकार रहे हैं कि वे सामना में लिखें कि शिवसेना उत्तर भारतीयों पर हमले नहीं करेगी तो अरविंद केजरीवाल मोदी को जीतने देंगे। अपनी पारी खत्म करते-करते वे काशी की जनता से एक बड़ी अपील करके जा रहे हैं, वे उनसे मोदी से पूछने को कह रहे हैं कि क्या उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यदि शिवसेना ऐसे हमले जारी रखती है, तो क्या वे सरकार बचाएंगे या आप लोगों को, मासूम जनता अभी हां कर रही है, लेकिन सभी जानते हैं कि मोदी के आने के बाद इन्हें कोई नहीं पूछेगा।

          अब केजरीवाल हैं, जो रास्ते में स्याही फेंकने वाले लोगों के बारे में बता रहे हैं कि भाड़े के टट्टओं से भाजपा चुनाव लड़ रही है। वे पूछ रहे हैं क्या कांग्रेस और भाजपा ने कभी एक दूसरे को काले झंडे दिखाए या स्याही फेंकी। वे कह रहे हैं कि कमलापति त्रिपाठी के बाद बनारस का विकास रुक गया। मीडिया पर पुन: निशाना साधते हुए वे कह रहे हैं कि ‘कुछ’ मीडिया वाले प्रचार कर रहे हैं कि गुजरात में विकास बहुत है, लेकिन ये सरासर षड्यंत्र है, यह अरविंद केजरीवाल की अब तक की सभी रैलियों का निचोड़ है। यहां केजरीवाल ने कोई मुरव्वत नहीं बरती है। उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वे सेफ सीट का खेल नहीं खेल रहे हैं। वे लड़ने आए हैं और लड़कर जीतेंगे। जीतकर भागने वालों के साथ उनका नाम न रखा जाए। स्विस बैंक खातों के नंबर सार्वजनिक कर दिए हैं। गुजरात के विकास मॉडल का काला सच उजागर कर दिया है। उन्होंने भाजपा और कांग्रेस का असली चेहरा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। गुजरात में सबसिडी की पोल खोल दी है। जनता को सा़फ़-साफ़ बता दिया है कि इनको वोट करेंगे तो क्या होगा। जनता यह पसंद कर रही है। यह ‘वन मैन शो’ है।

          इन आरोपों के साथ केजरीवाल को लड़ना है कि उन्होंने दिल्ली चुनाव बांग्लादेशियों और विदेशी पैसों के बल पर जीता है या सोमनाथ भारती ने लड़कियों के साथ बदतमीज़ी की है। लेकिन सनद रहे कि वर्तमान में यह भारतीय लोकतंत्र की अकेली ऐसी पार्टी है जिसके दामन पर किसी खून, दंगे या हिंसा के दाग नहीं हैं। केजरीवाल के पास एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं है, जिसकी जिह्वा कुशलता नरेंद्र मोदी या दिग्विजय सिंह जैसी हो। लेकिन कयासों के विपरीत अरविंद केजरीवाल ने बनारस में ‘आप’ के लिए कुछ खड़ा तो किया है, अब वह जनाधार बनता है या नहीं वह तो वक्त ही बता पाएगा। लेकिन एक बात साफ़ है इसने दिवास्वप्न दिखाए हैं, यह सफल होने की पूरी तैयारी के साथ आया है।
साभार जनसत्ता 26.3.14

‘मैं जानती हूं, वे (मोदी) एक दिन प्रधानमंत्री बनेंगे’ - लक्ष्मी अजय | Lakshmi Ajay - I know he (Modi) will become PM

‘मैं जानती हूं, वे (मोदी) एक दिन प्रधानमंत्री बनेंगे’

लक्ष्मी अजय

अमदाबाद, 1 फरवरी। जिस इंसान के बारे में वे दावा करती हैं कि वे आज भी उनके पति हैं वह शख्स भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार है। माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री पद की दौड़ में यह दावेदार सबसे आगे दौड़ रहा है।

बासठ साल की सेवानिवृत्त स्कूल शिक्षिका जशोदा बेन सियासी दुनिया की उठा-पटक से कोसों दूर हैं। जशोदा जब 17 साल की थीं तब उनकी शादी नरेंद्र मोदी से हुई थी जो आज गुजरात के मुख्यमंत्री हैं।
उन्होंने कभी भी मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अपने राजनीतिक झुकाव के बारे में नहीं बताया। - लक्ष्मी अजय
सत्ता के कोलाहल के केंद्र मोदी की पत्नी जशोदा बेन आज अपनी शांत और छोटी सी दुनिया में खुश हैं। चौदह हजार रुपए की मासिक पेंशन से उनका गुजारा चलता है। वे अपने भाइयों के संग रहती हैं और अपना ज्यादातर समय भगवान की प्रार्थना में बिताती हैं।

अमदाबाद में अपने फैले हुए परिवार के साथ रह रहीं जशोदा बेन हमसे बातचीत करने के लिए तो राजी हो गर्इं लेकिन अपनी तस्वीर देने से साफ मना कर दिया। मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने के बाद मीडिया में आया यह उनका पहला साक्षात्कार है। उनसे बातचीत के मुख्य अंश को हम अपने पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं।


अगर मैं उनकी पत्नी नहीं होती तो क्या आप यहां आकर मुझसे बात करते?

आपकी शादी को कितने समय हो गए। अपनी वैवाहिक स्थिति को किस तरह देखती हैं? 
जब मैं 17 साल की थी, तब हमारी शादी हुई। ससुराल आने के बाद मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी। लेकिन वे अक्सर मुझसे कहते थे कि मुझे अपनी पढ़ाई जारी रखनी चाहिए। वे मेरे साथ पढ़ाई पूरी करने की ही बातें किया करते थे। शुरू में वे मुझसे बातें करना पसंद करते थे। यहां तक कि रसोईघर के मामले में भी रुचि दिखाते थे।


क्या आपको कभी यह रिश्ता बोझ नहीं लगा, खासकर जब मीडिया आपसे इस तनावपूर्ण रिश्ते के बारे में सवाल-जवाब करता है? कहीं आपको मीडिया से दूरी बरतने और चुप्पी बनाए रखने के लिए खास निर्देश तो नहीं मिला है?
हम रिश्तों के बेहतर मोड़ पर जुदा हुए थे। हमारे बीच कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ था। अलगाव के बाद हम कभी एक-दूसरे के संपर्क में नहीं आए। मैं मनगढ़ंत कोई भी चीज नहीं बोलूंगी। उनके घर तीन साल रहने के दौरान भी हम तीन महीने से ज्यादा साथ नहीं रहे। उनका घर छोड़ने के बाद से लेकर आज तक हमारी कोई बातचीत नहीं हुई है।



क्या आप नरेंद्र मोदी से जुड़ी खबरों को ढूंढ़ती हैं?
उनसे जुड़ी जो भी चीज मेरे हाथ में आती है मैं उसे जरूर पढ़ती हूं। अखबारों में उनके बारे में छपी सभी खबरों, आलेख को पढ़ती हूं। टेलीविजन पर उनकी सभी खबरों को देखती हूं। उनसे जुड़ी चीजों को पढ़ना मुझे अच्छा लगता है।


अगर वे देश के अगले प्रधानमंत्री बनते हैं और दिल्ली रवाना हो जाते हैं, तब अगर वे आपको बुलाएंगे तो क्या आप उनकी जिंदगी में लौटेंगी? क्या आप उनसे मिलने की कोशिश करेंगी?
मैं कभी भी उनसे मिलने नहीं गई और हम कभी संपर्क में नहीं रहे। मुझे नहीं लगता कि वे मुझे कभी बुलाएंगे। मैं नहीं चाहती की मेरी इस बातचीत से उन्हें किसी तरह का नुकसान पहुंचे। मैं तो बस यही कामना करती हूं कि वे जो भी करें उन्हें उसमें कामयाबी मिले। मैं जानती हूं कि एक दिन वे प्रधानमंत्री बनेंगे।



क्या उन्होंने कभी आपको छोड़ने या शादी तोड़ने के बारे में कहा?
एक बार उन्होंने मुझसे कहा था-मैं पूरे देश की यात्रा करूंगा और वहां जाऊंगा जहां मुझे अच्छा लगेगा। मेरे पीछे आकर तुम क्या करोगी? जब मैं उनके परिवार के साथ रहने के लिए वादानगर आई तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम अपनी ससुराल रहने के लिए क्यों आ गई। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, इन चीजों के बजाय तुम्हें अपना पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर लगाना चाहिए। ससुराल छोड़ने का फैसला मेरा अपना था। इस मसले पर हमारे बीच कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। उन्होंने कभी भी मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अपने राजनीतिक झुकाव के बारे में नहीं बताया। जब उन्होंने मुझसे कहा कि वे अपनी मर्जी के अनुसार पूरे देश का भ्रमण करना चाहते हैं तो मेरा जवाब था कि मैं भी आपके साथ चलूंगी। हालांकि, उसके बाद विभिन्न अवसरों पर जब भी मैं अपनी ससुराल गई वे वहां मौजूद नहीं थे। उन्होंने वहां आना ही छोड़ दिया था। वे अपना ज्यादातर समय संघ की शाखाओं में बिताते थे। तो, एक समय के बाद मैंने भी वहां जाना छोड़ दिया और अपने पिता के घर लौट आई।


क्या आप आज भी कानूनी रूप से मोदी की पत्नी हैं?
जब भी लोग उनका नाम लेते हैं तो उस पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं मेरे नाम का भी जिक्र जरूर होता है। इन चीजों का तो आपको भी पता होगा। क्या आपने मेरे बारे में बिना कोई जानकारी जुटाए मुझे खोज डाला और यहां बातचीत करने आ गए? अगर मैं उनकी पत्नी नहीं होती तो क्या आप यहां आकर मुझसे बात करते?


क्या कभी आपको इस बात का अपमान महसूस होता है कि इन सालों के दौरान उन्होंने कभी आपको अपनी पत्नी के रूप में कबूल नहीं किया है?
नहीं। मैंने इसका कभी बुरा नहीं माना। मेरा मानना है कि उन्होंने वही किया जो किस्मत में लिखा था। वह एक बुरा दौर था जिस कारण ऐसा हुआ। हालात की वजह से उन्हें कभी कुछ कहना पड़ जाता है तो कभी झूठ भी बोलना पड़ता है। मैं अब इन चीजों का बुरा नहीं मानती क्योंकि किस्मत ने तो थोड़ा-बहुत मेरा भी साथ दिया है।


आपने दोबारा शादी क्यों नहीं की?
इस अनुभव के बाद मैं इसके बारे में नहीं सोच सकती थी। मेरा दिल इसके लिए तैयार नहीं हुआ।


पिता के घर लौटने के बाद आपने खुद को कैसे संभाला?
मेरे ससुराल वालों ने मुझे बहुत प्यार से रखा। लेकिन उन्होंने कभी भी मेरी शादीशुदा जिंदगी पर बात नहीं की। मेरे पिता ने मेरी फीस भरी। पढ़ाई जारी रखने के लिए भाइयों ने भी आर्थिक रूप से मदद की। दो साल की उम्र में मैंने अपनी मां को खो दिया था। दोबारा पढ़ाई शुरू करने के दो साल बाद जब मैं दसवीं में थी तो मेरे पिता का देहांत हो गया। हालांकि, दूसरी पारी शुरू करने के बाद मुझे पढ़ाई में आनंद आने लगा। मैंने 1974 में बारहवीं की और 1976 में अध्यापक प्रशिक्षण पूरा किया। 1978 में मैं शिक्षिका बनी।


सेवानिवृत्ति के बाद वक्त कैसे गुजारती हैं?
मुझे पढ़ाने में बहुत आनंद आता था। पहली से लेकर पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को सारे विषय पढ़ाए। इन दिनों मैं सुबह चार बजे उठ कर मां दुर्गा की प्रार्थना में लीन हो जाती हूं। मेरा ज्यादातर समय माता की भक्ति में बीतता है। वैसे तो मैं अपने बड़े भाई अशोक मोदी के साथ उनझा में रहती हूं। लेकिन जब भी मन करता है अपने दूसरे भाई के यहां भी चली जाती हूं जो पास ही ब्राह्मण वादा में रहते हैं। मैं मानती हूं कि मुझे दो बहुत अच्छे भाई मिले हैं जो मेरा पूरा खयाल रखते हैं।
साभार जनसत्ता

अशोक वाजपेयी - कभी-कभार : कहां जा रहा है?

 इन दिनों देश कहां जा रहा है। इसको लेकर बड़ी व्यापक चिंता हो रही लगती है। उन तबकों में भी, जिनमें देश अभी तक किसी तरह के जिक्र के काबिल नहीं माना जाता था।

      इन दिनों बड़ी देश-चिंता व्याप्त है। सभी को हर ओर दुर्दशा ही दुर्दशा दिखाई दे रही है। लगता है कि हमारे
an Indian poet in Hindi, essayist, literary-cultural critic, apart from being a noted cultural and arts administrator, and a former civil servant. He remained the Chairman, Lalit Kala Akademi India's National Academy of Arts, Ministry of Culture, Govt of India विकास में जो तेज गति आई थी वह धीमी पड़ गई है: वह गति कितनी समावेशी थी इसका जिक्र अक्सर नहीं होता। शहरों में नागरिक सुविधाएं कैसे चरमरा रही हैं, इस पर बहुत विलाप होता है, गांववालों की जिंदगी कितनी दूभर है इसका पता भी इन चिंतामगनों को नहीं होता। इस पर सभी  एकमत हैं कि देश गलत दिशा में जा रहा है और उसे सही दिशा में मोड़ने की जरूरत है। यह सही दिशा क्या हो इस पर मतभेद है। विकास की दिशा तो प्राय: सभी मान रहे हैं कि सही है, पर राजनीति उसे पथभ्रष्ट या दूषित-लांछित करने में लगी है। राजनीति से सभी उकताए हुए हैं।

      लेकिन सच यह भी है कि राजनीति ही देश की दिशा बदल सकती है। ऐसा और कोई माध्यम हमारे लोकतंत्र में नहीं बचा, जो यह करने में सफल हो सके। इसलिए बहुतों को लग रहा है कि राजनीतिक अंधाधुंधी और निष्क्रियता से उबारने के लिए कोई राजनेता चाहिए। अब राजनेता अगर इस कदर मसीहाई और उद्धारक भूमिका निभाने आएगा तो अपनी राजनीति भी साथ ही लाएगा। उस राजनीति में कुछ खूंखारी, दमन, हिंसा आदि भी हों तो क्या किया जाए। इतनी कीमत हमें तो चुकानी ही पड़ेगी। भ्रष्टाचार से हिंसा भली: कुछ लोग मारे जाते हैं, तो यह दुखद होगा, पर जगन्नाथ के रथ तले कुछ तो पिस ही जाते हैं।

      कार के नीचे पिल्ला आकर पिस जाए तो कष्ट तो होता है, पर इतना नहीं कि कार रोक दी जाए और ऐसी दुर्घटना पर शोक मनाते हम देर तक बिसूरें। काल की गति अबाध है: उसे रोका-थामा या धीमा नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर कुछ अन्याय पीछे हो गया हो तो उसे भूल कर हमें आगे बढ़ना होगा। अगर विकास की गति तेज हो गई तो उसके धरमधक्के में ऐसी घटनाएं, भले एक वक्त उन्हें जनसंहार आदि कह कर अतिरंजित किया गया हो, भुला दी जाएंगी। समावेशी नहीं है तो न होने दो, अर्थव्यवस्था को पहले गति में तो लाओ। अन्याय, अपवर्जन आदि को बाद में देखा जाएगा।

      राजनीति में शेखचिल्लीपन और उसके प्रति आकर्षण नए नहीं हैं। लेकिन जो तरह-तरह के युवा उसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, वे सभी पढ़े-लिखे और समझदार लोग हैं। अगर, दुर्भाग्य से, उनकी समझ यह बन गई है कि सामाजिक विभाजन की खुल्लमखुल्ला वकालत करने वाला, उस विभाजन को अपने प्रदेश की राजनीति और अर्थनीति का मूलाधार बना कर अमल में लाने वाला, सामाजिक न्याय की परवाह किए बिना विकास के मॉडल को अर्द्धसत्यों के आधार पर पेश करने वाला हमारा उद्धार करेगा। तो ऐसी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है। युवा मानसिकता को बड़े परिवर्तन की आकांक्षा जरूर करनी चाहिए और एक बेहतर भारत का बड़ा सपना भी देखना चाहिए। पर उसे साथ ही यह भी जानना चाहिए कि टुच्ची विभाजक राजनीति ऐसी आकांक्षा और सपने कतई पूरी नहीं कर सकते। बहुलता और सामाजिक न्याय के बिना हमारा कोई भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता।

जनसत्ता से साभार

प्रेमचंद की परंपरा का संकुचन करते वरवरा राव - जनसत्ता

हमारे लोकतांत्रिक जीवन को हिंसा, धर्मांधता, सांप्रदायिकता, अनियंत्रित बाजार आदि से जितना खतरा है, हमारे बौद्धिक जीवन में बढ़ती संकीर्णता से उससे कम खतरा नहीं है। ‘हंस’ पत्रिका के वार्षिक आयोजन में ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर बोलने आने के लिए राजी होकर अंतत: न आने का कोई कारण सार्वजनिक तौर पर अरुंधती राय ने तो नहीं दिया, लेकिन वरवरा राव ने एक बयान में जो कहा, वह इस बढ़ती संकीर्णता का नया और चिंताजनक उदाहरण है। वरवरा राव माओवादी कवि और कार्यकर्ता हैं। उनके संघर्ष और उस कारण सही गई यातनाओं के कारण उनका, उचित ही, व्यापक सम्मान है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा है कि अव्वल तो अन्य दो वक्ता अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य प्रेमचंद की परंपरा में नहीं आते हैं और वे उनके साथ मंच साझा नहीं कर सकते, क्योंकि वे उनसे विरोधी विचार रखते हैं। दुर्भाग्य से यह दोहरी संकीर्णता है।

varavara rao jansatta hans      वरवरा राव प्रेमचंद की परंपरा को इतनी संकरी कर देना चाहते हैं कि उसमें हिंदी साहित्य के कई बड़े लेखक और कृतियां आएं ही नहीं! ऐसा करने का हक उन्हें कहां से मिल गया? अलबत्ता अपनी संकीर्ण व्याख्या का हक जरूर उन्हें है। स्वयं प्रेमचंद का साहित्य और उनका सार्वजनिक आचरण ही वरवरा राव की धारणा की पुष्टि नहीं करता: प्रेमचंद एक दिन प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हैं और दूसरे दिन आर्यसमाज की सभा की अध्यक्षता करते हैं। दूसरी बात यह है कि अगर लोकतंत्र में सभी मंच इस तरह विचारों की दृष्टि से एकतान हो गए तो जिस वैचारिक और सांस्कृतिक बहुलता को हम अपने लोकतंत्र का असली आधार मानते हैं, वह समाप्त हो जाएगी। कोई सचमुच क्रांतिकारी विचार इतना छुई-मुई और आत्मविश्वासहीन नहीं हो सकता कि अपने से भिन्न या विरोधी विचार के साथ मंच साझा करने से आहत हो जाए। अगर हर मंच पर एक जैसे ही विचार वाले होंगे और वही-वही विचार परोसेंगे तो ऐसी एकरसता से आप्लावित होने जाएगा कौन? हर विचार में अपने से अलग और विरोधी विचार का सामना करने और उनसे निपटने का हौसला होना चाहिए। संकीर्ण और आत्मकेंद्रित होकर अच्छा से अच्छा विचार नष्ट हो सकता है।

     ‘हंस’ का अकेला पड़ गया आयोजन दरअसल एक खुला मंच था, जहां विभिन्न विचारों और दृष्टियों को ससम्मान जगह दी गई थी। उससे अपने को अलग कर और दूसरे कवि पर अतर्कित और अपुष्ट आरोप लगा कर एक क्रांतिकारी कवि ने जो संकीर्णता दिखाई है, वह उनकी छवि को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी। सबको पता है कि गुजरात के दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिल्ली में लेखकों-कलाकारों और अन्य बुद्धिजीवियों को एक मंच पर लाने में अशोक वाजपेयी ने पहल की थी, वरवरा राव ने इस वरिष्ठ हिंदी कवि में ‘कारपोरेट सेक्टर’ का संबंध खोजने की कोशिश की है। दरअसल, साहित्य में ओछी राजनीति पहले से व्याप्त है। युवा लेखकों का एक गुट वरिष्ठ और उदार प्रकृति के लेखकों पर कीचड़ भी उछालता आया है। लेकिन वरवरा राव जैसे गंभीर और प्रतिबद्ध कवि के नाम से दूसरे स्थापित कवि के खिलाफ आया कारपोरेट संबंधों का आरोप संदेह पैदा करता है कि कहीं वरवरा राव को साहित्य की राजनीति का मोहरा तो नहीं बनाया गया है। अरुंधती राय को भी एक कवि ने ‘हंस’ के मंच पर शिरकत करने से आगाह किया, ऐसी जानकारी सामने आई है। लेकिन इस सब में दोष अंतत: उकसाने वालों में नहीं, उनके बहकावे में आकर संवाद की संभावनाओं को दुश्कर बनाने वालों में ही देखा जाएगा। उन्हें ही सोचना होगा कि जहां धर्मनिरपेक्ष और प्रगति-केंद्रित तबका विचार की दुनिया में पहले ही सीमित है, वैचारिक दुराग्रह और भ्रांतियां क्या उस घेरे को और संकुचित और गैर-लोकतांत्रिक नहीं बनाएंगी?

जनसत्ता 2 अगस्त, 2013 से साभार 

साहित्य में फिर सीआइए - ओम थानवी

आज के समय में सच के लिए लड़ने वाले और निर्भयता से झूठों के चेहरों का पर लगी नक़ाब उतारने इन्सान विरल हैं. राजनीति, पैसा, झूठी शान आदि समाज पर इतनी हावी हैं कि सच बोलने वाले को अक्सर ही सुझाव मिलते रहते हैं – “इससे आप को क्या मिलेगा” ? – “ये आप के स्तर के नहीं हैं” – “इनसे बनाकर रखो, कल ज़रूरत पढ़ सकती है”...  अवश्य ही ये सुझाव कहीं ना कहीं अपना असर दिखाते होंगे और सच को दबाने वाला झूठ जीत जाता होगा. बहरहाल इन परिस्थितियों को और इनसे बने मायावी दृश्यों के पीछे के सच को सामने लाने की मुश्किल जिम्मेवारी “जनसत्ता” संपादक श्री ओम थानवी ने अपने ऊपर स्वेच्छा से ली है... ये प्रशंसनीय है.

      फेसबुक जैसे सोशल मीडिया, जो आज हर तबके के लोगों पर अपना असर रखता है और उनकी सोच की दिशा भी निर्धारित करता है. उस पर यदि झूठ का प्रचार हो रहा हो तो उसके परिणाम बहुत घातक हैं. यदि बात सिर्फ साहित्य की करें तो कई दफा युवा पीढ़ी और अनुभवी लोगों को भी साहित्य में योगदान देने वालों की वरिष्ठता का पता नहीं होता, ऐसे में यदि उनकी छवि को गलत ढंग से रखा जाए तो कैसे पता चलेगा कि सच क्या है और झूठ क्या. ये बात तब और खतरनाक रूप ले सकती है जब यही काम कोई ऐसा इंसान करे जिसकी बातों को सोशल मीडिया में महत्व दिया जाता रहा हो. श्री थानवी का ना सिर्फ फेसबुक पर वरन अपने स्तम्भ “अनन्तर” में ऐसे लोगों पर लिखना और समाज को सच बताना, वो काम है जिसे करने की इक्षा रखने वाले तो बहुत होंगे लेकिन कर के दिखाने वाले उतने ही कम.

अपने उपर “अख़बारों की जूठन से काम चलाने” का आरोप लगने के बावजूद “शब्दांकन” अपनी निष्पक्षता पर अडिग है और जनसत्ता से साभार, श्री ओम थानवी का लेख आप के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ.

साहित्य में फिर सीआइए 

ओम थानवी
     
प्रोपेगैंडा यानी दुष्प्रचार के डैने बड़े होते हैं। खासकर तब, जब वे फेसबुक जैसे असंयमित और भड़ास भरे ‘सोशल मीडिया’ में उड़ान भरते हों। इन डैनों का प्रयोग सांप्रदायिक मामलों में संघ परिवार निरंतर करता है। लेकिन साहित्य में यह शायद मार्क्सवादी अतिवादियों का हथियार बन चला है। वह कब सफल होता है, कब नहीं, यह शोध का विषय है। पर इस दफा उसने मुंह की खाई है। हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और विश्व-साहित्य के गहन अध्येता कमलेश को हिंदी के ही कतिपय लेखकों ने जबरन सीआइए की गोद में बिठाने की कोशिश की। हालांकि इन लेखकों में शायद ही कोई पाये का होगा। अर्चना वर्मा ने ‘कथादेश’ में एक लंबा लेख लिखकर उस अभियान को ‘‘युवजनोचित उत्साह का अतिशय और अबोध निष्ठुरता की अभिव्यक्ति’’ बताया है। अगर कहूं कि अर्चनाजी ने निहायत कुटिल और बचकाने हमले के खिलाफ सुविचारित और अकाट्य तथ्यों के साथ किसी कवि के समर्थन में खड़े होकर मिसाल कायम की है, तो गलत न होगा। यह बात जोर देकर इसलिए कह सकता हूं, क्योंकि मैंने- और अलग से कुलदीप कुमार, प्रकाश के. रे जैसे कुछ स्वतंत्रचेता लेखकों ने भी- कवि कमलेश के हक में खड़े होने का जतन किया था। क्षोभ की बात यह रही कि कमलेशजी के खिलाफ वह क्षुद्र अभियान एक ऐसे युवक ने शुरू किया, जिसे कभी प्रतिभावान कवि समझा जाता था। गिरिराज किराडू ने फेसबुक पर एक शिगूफा छोड़ा कि वह कौन-सा प्रसिद्ध हिंदी लेखक है, जिसने कहा कि मानवता को सीआइए का ऋणी होना चाहिए। सवाल उछाल दिया, मगर न लेखक का नाम दिया, न स्रोत कि कहां किस संदर्भ में कहा गया है। बस, एक सुरसुरी छोड़ दी गई जो सनसनी में तब्दील होती चली गई। धीमे-धीमे बात खुली कि रज़ा फाउंडेशन की ‘समास’ पत्रिका में कमलेशजी के 70 पन्नों के इंटरव्यू में से किराडू चंद शब्द उठा लाए हैं। विचित्र बात यह रही कि मूल इंटरव्यू का न उन्होंने हवाला दिया, न ठीक-ठीक उद्धरण। ‘मानव जाति’ को अपनी तरफ से ‘मानवता’ कर दिया। इंटरव्यू के पन्ने स्कैन करवा कर बीच बहस में मैंने जुड़वाए, ताकि लोग कम से कम संदर्भ जान सकें।

कमलेशजी ने उस इंटरव्यू में कहा था कि शीतकाल के दौरान भारत में हमें अमेरिका और सीआइए की बदौलत ऐसी किताबें कम दाम में उपलब्ध हो गर्इं, जो विश्व-स्तरीय थीं। सीआइए ने अपना दुष्प्रचार-साहित्य भी प्रसारित किया होगा, जैसे केजीबी किया करती थी। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों एजेंसियों की बदौलत महान साहित्य सस्ते में सर्वसुलभ हुआ। कमलेशजी भावुक इंसान हैं। इस बात के प्रति शायद सजग भी नहीं कि निजी या घरेलू (सोशल) मीडिया के जमाने में बात समझने की नहीं, उसका बतंगड़ बनाने की कोशिशें ज्यादा होती हैं। सो अच्छी किताबों की समयोचित सुलभता के लिए उन्होंने अमेरिका और सीआइए के प्रति ‘‘मानव जाति’’ को ‘‘ऋणी’’ क्या बताया, मार्क्सवादी कट्टरपंथी मानो उनके खून के प्यासे हो गए। जबकि उसी इंटरव्यू में कमलेशजी ने यह भी कहा था कि ‘‘अवश्य ही उसमें बहुत सारा कम्युनिस्ट-विरोधी प्रचार-साहित्य भी था।’’ कमलेश-विरोधी अभियान में किराडू का साथ अशोक कुमार पांडे, वीरेंद्र यादव, आशुतोष कुमार, मोहन श्रोत्रिय, बटरोही, शिरीष कुमार मौर्य और आश्चर्यजनक रूप से कमलेशजी के ‘प्रतिपक्ष’ के जमाने में सहयोगी रह चुके मंगलेश डबराल ने भी दिया। बीच में कथाकार प्रभात रंजन भी आए। लेकिन जल्दी ही व्यक्तित्व और रचनाकार के भेद को समझ वे बहस से अलग हो गए। एक वजह शायद यह भी रही हो कि किराडू-पांडे ने बहस को किसी रंजिश या लड़ाई की शक्ल दे दी थी। बेटे की बीमारी में भी किराडू ने अपने शहर से लिखा- ‘‘प्रभातजी, मीर (बेटे) को उलटी-दस्त हो रहे हैं, कम रह पाऊंगा ऑनलाइन। लेकिन आपने बेटन थाम लिया है, अब यह (बहस) अंजाम तक पहुंचेगी।’’ किराडू से अशोक कुमार पांडे: ‘‘तुम मीर का खयाल रखो... यहां की चिंता छोड़ो अभी।’’ प्रभात हट गए, पर ‘बहस’ परवान चढ़ती गई। ‘मानव जाति’ को तो ‘मानवता’ कर ही दिया गया था, फिर वह ‘मानव कल्याणकारी’ हुआ, फिर सिर्फ ‘सीआइए-सीआइए’ होता रहा। यानी किताबों की सर्वसुलभता की बात करने वाले कमलेश सीआइए समर्थक घोषित कर दिए गए। जिन्होंने उनका पक्ष लिया, वे भी। जैसे कि यह खाकसार। मुझे लखनऊ में शमशेर सम्मान मिला। काव्य में नरेश सक्सेना को। बताते हैं कि निर्णायक-मंडल में ज्ञानरंजन, राजेंद्र शर्मा, विष्णु नागर, लीलाधर मंडलोई और मदन कश्यप थे। सब वामपंथी थे, मगर कुछ कट्टर मार्क्सवादियों को मेरा चयन खल गया। इनमें एक वीरेंद्र यादव कार्यक्रम में तो नहीं बोले, पर घर लौटकर फेसबुक पर शमशेर सम्मान के संस्थापक प्रतापराव कदम को उन्होंने इस तरह कोसा- ‘‘... क्या कोई साझा मंच सांप्रदायिकों और सीआइए के समर्थकों का भी बनाना चाहिए?’’

आप समझ सकते हैं, ऐसे दुराग्रहों के बीच कोई बहस क्या सचमुच बहस रह सकती है? मैंने तो यहां तक कह दिया था कि आप चाहे कमलेशजी को किसी भी एजेंसी का एजेंट मान लीजिए, लेकिन अब उनकी कविता की तो बात कीजिए क्योंकि मूलत: वे कवि हैं। कुलदीप कुमार ने कमलेशजी के इतिहास-बोध पर उनसे कड़ी बहस ‘जनसत्ता’ में की थी। पर उनके कविता-संग्रह ‘बसाव’ की उन्होंने ‘नेशनल दुनिया’ में तारीफ की। प्रकाश के. रे ने अनेक लेखकों-फिल्मकारों आदि के हवाले देकर समझाया कि सारे संसार में रचनाकार को रचना से समझा जाता है। लेकिन हिंदी जगत- और उसमें भी घरेलू मीडिया की सीमित दुनिया- में यह भेद शायद बुद्धि से दूर रहता आया है। कुलदीप कुमार मार्क्सवादी हैं, पर उस समीक्षा के लिए वे भी कट्टरपंथी मंडली के निशाने पर आ गए। उनके काव्य विवेक पर जो सवाल उठाए वे तो अपनी जगह ठहरे, अशोक कुमार पांडे ने यह आरोप भी जड़ दिया कि समीक्षा किसी ‘सौदे’ के तहत लिखी गई है। बात का सिर-पैर हाथ न लगने और निंदा से घिरने पर आरोप उन्हें वापस लेना पड़ा। मुझे किराडू-पांडे की जुगलबंदी पर हैरानी नहीं होती। साहित्य में उनकी कोई पहचान नहीं है। पत्थर उछाल कर ध्यान खींचने का भी अपना तरीका होता है। लेकिन मंगलेश डबराल अच्छे कवि हैं, वे पता नहीं इस मंडली में कैसे जुड़ गए! उनकी राजनीति वे जानें, पर उन्होंने कवि कमलेश पर अपना निर्णय सुनाया तो अंत में यह भी जोड़ा: ‘‘पोलिश कवि मिलोष के अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित चयन का नाम ‘खुला घर’ है तो कमलेश जी के संग्रह का नाम ‘खुले में आवास’ है, और फिर अगला कमजोर संग्रह है ‘बसावट’ (सही नाम है ‘बसाव’ -सं.)। और ये सभी नाम सचमुच के महाकवि पाब्लो नेरुदा के ‘रेजीडेंस ऑन अर्थ’- रेसिदेंसिया एन ला तियेरा- के फालआउट्स हैं। तो हिंदी में यह सब चलता है तात्कालिक और क्षणिक महानताओं के नाम पर।’’ कविता संग्रहों के नाम मिलते-जुलते हों, तो इससे क्या साबित होता है? पता नहीं कितनी किताबों के नाम पहाड़ पर हैं, उनका ‘पहाड़ पर लालटेन’ से क्या लेना-देना? तर्क की यह गिरावट हिंदी साहित्य की दयनीय दशा को चिह्नित करती है।

इस संबंध में एक रहस्य भरी चर्चा यह भी सुनने में आई कि सारे हमलों का निशाना कमलेश नहीं, कोई और है! ‘समास’ रज़ा फाउंडेशन की पत्रिका है, जिसके संचालक अशोक वाजपेयी हैं। ‘समास’ के संपादक उदयन वाजपेयी हैं। गिरिराज किराडू खुद एक पत्रिका निकालते हैं, जिसकी थोक खरीद के लिए उन्होंने रज़ा फाउंडेशन को आवेदन किया था। अशोक वाजपेयी ने उसे अस्वीकार कर दिया। वाजपेयी कहते हैं, रज़ा फाउंडेशन सरकारी विभाग नहीं है। फिर हजार पत्रिकाएं निकलती हैं, संस्था किस-किस की खरीद करे। बहरहाल, कमलेश विवाद के थमते-न-थमते इसी समूह की ओर से रज़ा फाउंडेशन से ‘मोटी राशि’ पाने वाले फेलो व्योमेश शुक्ल को भी घेरा गया। फिर अशोक वाजपेयी पर सीधा प्रहार शुरू हो गया, मुंबई में कथित रूप से एक सांप्रदायिक मंच पर शिरकत को लेकर। 
अब कौन किनके बीच कविता पढ़े, वरिष्ठ कवियों को इसका फतवा भी युवा पीढ़ी दिया करेगी? ऐसे माहौल में अर्चना वर्मा का आना और एक साफ स्टैंड लेना मुझे अच्छा लगा। वे उदार विचारों की हैं। पिछले दिनों जन संस्कृति मंच के कार्यक्रम में भी गई थीं। वत्सल निधि के शिविरों में भी जाती थीं; मेरी उनसे मुलाकात पहले-पहल तीस वर्ष पहले बरगीनगर (जबलपुर) में आयोजित वत्सल निधि के ऐसे ही एक शिविर में हुई थी। हालांकि यह समझना नादानी होगी कि अर्चनाजी के हस्तक्षेप के बाद वाचाल समूह अपनी अतार्किक और असाहित्यिक मुहिम पर नए पहलू से सोचने लगेगा। गिरिराज किराडू ने अर्चना वर्मा के लेख पर फेसबुक पर छिड़ी ताजा बहस में यों प्रतिक्रिया की है- ‘‘अर्चनाजी की दिलचस्पी सिर्फ इसमें है कि किसको किससे लड़ाना है... (उन्होंने) अपनी वृद्धोचित गफलतों का अच्छा प्रदर्शन कर दिया है।’’ तर्क के बाद यह भाषा की गिरावट है।

कहना न होगा, इन लोगों की रणनीति सोची-समझी चालों पर काम करती है। अर्चनाजी का लंबा विवेचन इसे साबित करता है। हालांकि उन्होंने जिस ‘बहस’ को आधार बनाया है, वह किराडू-पांडे की जोड़ी ने ही संपादित कर इ-मेल के जरिए प्रसारित की है। दोनों की नीयत में खोट है, इसलिए वह पाठ भी विश्वसनीय नहीं है। मूल बहस में कई बातें थीं, जहां उनकी कलई खुलती थी। मसलन कुलदीप कुमार की समीक्षा को प्रायोजित करार देने और फिर वह आरोप वापस लेने का प्रसंग। वह संवाद आखिर इसी बहस का तो हिस्सा था। कुलदीपजी पूछते हैं, वह हिस्सा निकाल कैसे दिया गया? बहस ने धीमे-धीमे जो रूप लिया, उसे एकांगी दिखाने का फैसला कोई कैसे कर सकता है, जब- उस प्रसारित मेल के मुताबिक- ‘‘दूसरी तरफ थे मुख्यत: जनसत्ता संपादक ओम थानवी, कुलदीप कुमार और उनके समर्थक’’। यह जानते हुए भी कोई संवाद, दूसरे पक्ष की जानकारी के बगैर, अपनी समझ से काट-पीट कर लोगों को पढ़वाना क्या जाहिर करता है? अगर अर्चना वर्मा ने पूरी ‘बहस’ पढ़ी होती तो उनके लेख का कलेवर और बड़ा होता। अर्चना वर्मा ने कमलेश और अशोक वाजपेयी को लेकर की गई अनेक छिछली टिप्पणियों का जायजा लेकर इस ‘‘संवाद’’ के बारे लिखा है- ‘‘औपचारिक बहस की तरह फ्रेम किए जाने के पहले बुजुर्गों की हंसी उड़ाता, भड़ास निकालता, युवा दोस्तों का आपसी लापरवाह और अनौपचारिक वार्तालाप जो फेसबुक की किसी पोस्ट के बाद टिप्पणियों में चलता रहता है। आपसी, लेकिन सार्वजनिक। जैसा कहा, सर्वत्र युवजनोचित उत्साह का अतिरेक और यत्र-तत्र एक अबोध निष्ठुरता और दंभ की अभिव्यक्ति। शायद इसी बड़बोले युवासुलभ अहंकार का लक्षण है कि अपने ‘होने’ और अपने आपे को साबित कर चुके होने की ऐसी आश्वस्ति कि दूसरे के (अपनी तरह से सिद्ध, लेकिन आपको अज्ञात) वजूद को निश्शंक अनहुआ किया जा सके। इन प्रतिक्रियाओं को सिर्फ गैर-जिम्मेदार, चलताऊ टिप्पणी कह कर छोड़ देना चाहती हूं, इनको ‘‘बयान’’ जैसा भारी-भरकम, जवाबदेह नाम मैं नहीं देना चाहती।’’

Archana Varmaअर्चना जिसे बयान तक मानने को तैयार नहीं, वह उन लोगों के लिए बहुत गंभीर संवाद बना हुआ है! मगर नितांत इकतरफा। इकतरफा इस मायने में कि न कमलेश फेसबुक पर हैं, न अशोक वाजपेयी, न उदयन वाजपेयी। जहां मूल निशाना कमलेश या अशोक वाजपेयी या उदयन हों, और वे फेसबुक से कटे होने के कारण फेसबुक पर लगाए जाने वाले आरोप न जान सकते हों, न उन पर अपनी बात कह सकते हों, वहां समर्थकों के साथ इकट्ठे होकर बारी-बारी से उन लेखकों पर हमला करना क्या साबित करता है? यह अनैतिक ही नहीं, पीठ पीछे वार करना है। उसे संवाद या बहस या महाबहस कह देना हास्यास्पद है, क्योंकि बहस में हमेशा दूसरा पक्ष मौजूद रहता है। इन लेखकों के हम जैसे ‘समर्थक’ अपने स्तर पर भले वहां कुछ कह आएं, वह दूसरे पक्ष की शिरकत नहीं कहलाएगी। जाहिर है, हिंदी साहित्य में पीठ पीछे वार का यह नया पहलू सामने आ रहा है। ‘समास’ के सत्तर पृष्ठों का इंटरव्यू के जिसकी एक पंक्ति ठीक से उद्धृत नहीं हुई, (उस ‘महाबहस’ में पता नहीं किसने उसे पूरा पढ़ा होगा) पाठ के बाद अर्चनाजी उसे आधुनिक भारतीय मानस की औपनिवेशिक बनावट के बरक्स भारतीय मेधा की मौलिकता के अनेक परतीय विश्लेषण का एक संग्रहणीय उदाहरण बताती हैं। ऐसे में इन विशद विचारों को- जिनमें कुछ से सबकी सहमति भले न हो- फेसबुक के वीर लेखकों द्वारा ‘अनर्गल’ ठहराने पर अर्चनाजी स्वाभाविक ही खीझ प्रकट करती हैं। वे कहती हैं कि ‘‘अब तक के पढ़े-लिखे, जाने-सुने से अलग किसी बात को इतनी आसानी से ‘‘अनर्गल’’ मान लेना शायद शुरू में ही अंत पर जा पहुंचने का, सब कुछ जान चुके होने के दंभ का पर्याय हो या फिर यह कि ऐसी भी बातें दुनिया में हैं, जिनको समझने की शुरुआत ही अंत पर जा पहुंचने के बाद होती है; इसलिए वहां जा पहुंचने का, सब-कुछ जान लेने का दंभ चाहे मौजूद हो, वहां तक वाकई जा पहुंचने में अभी देर है।’’

अर्चना वर्मा के लेख का सबसे महत्त्वपूर्ण अंश वह है, जहां उन्होंने कमलेशजी की बात- कि शीतयुद्ध में कैसे बेहतर किताबें मिलने से पाठक समुदाय का भला हुआ- शोध से प्रमाणित की है। वे बताती हैं कि ऐसी किताबें किसी भारतीय प्रकाशक के साथ आर्थिक सहयोग द्वारा प्रकाशित की जाती थीं। इनमें से एक राजकमल प्रकाशन का सहयोगी प्रगति प्रकाशन था जिसका पता तो राजकमल प्रकाशन का हुआ करता था, लेकिन राजकमल के सूचीपत्र में उसकी किताबों के नाम नहीं होते थे। यहां से अमेरिकी सूचना विभाग द्वारा आर्थिक सहयोग वाली किताबें छपती थीं। संस्था पर श्रीमती शीला संधू का अधिकार होने के बाद सोवियत सूचना विभाग की किताबें वहां से छपने लगीं। इन किताबों के नाम भी राजकमल के सूचीपत्र में नहीं होते थे। दरियागंज में ही एक नेशनल एकेडमी नाम का प्रकाशन था। उर्दू के शायर और आलोचक गोपाल मित्तल उसके मालिक थे। उन्होंने हिंदी, अंगरेजी, उर्दू में कई सौ किताबें छापी थीं। बोरिस पास्तरनाक की डॉ. जिवागो, सेफ कंडक्ट, ऐन ऐसे इन ऑटोबायोग्राफी, अब्राम टर्ट्ज की द ट्रायल, बिगिन्स दूदिन्त्सेव की नॉट बाइ ब्रेड अलोन, सोल्जेनित्सिन की वन डे इन द लाइफ ऑफ़ ईवान डेनिसोविच, द फर्स्ट सर्कल, द कैंसरवार्ड और गुलाग आर्किपेलेगो इत्यादि। ऐसे ही उस सब्सिडी ने महत्त्वपूर्ण किताबों को सवर्सुलभ बनाकर एक बौद्धिक पर्युत्सुकता का वातावरण तैयार किया, अर्चना जी यह भी बताती हैं। रेमों आरो की ओपियम आफ द इंटेलक्चुअल्स, द फिलासफी ऑफ हिस्ट्री, मेन करेंट्स ऑफ सोशियॉलॉजिकल थॉट, येस्लॉव मिलोष की द कैप्टिव माइंड, डैनियल बेल की द एंड ऑफ आइडियॉलॉजी, द कमिंग ऑफ पोस्ट इंडस्ट्रियल सोसायटी, पैट्रिक मोयनिहन की द पॉलिटिक्स ऑफ गारंटीड इन्कम, इर्विंग क्रिस्टल की मेमॉयर्स ऑफ ए कन्जर्वेटिव जैसी अनेक गंभीर वैचारिक किताबें दो महादेशों की तकरार में सामान्य जेब वाले पाठकों तक आ पहुंचीं। बीसवीं शताब्दी के महान रूसी कवियों अन्ना अख्मातोवा, ओसिप मान्देलश्ताम, मारीना त्स्वेतायेवा, निकोलाई बोलोत्स्की की कविताएं और गद्य-रचनाएं, मिखाइल बुल्गाकोव, यूरी ओलेशा, आइजक बाबेल जैसे कथाकारों की रचनाएं तीस-चालीस साल तक रूस में ही नहीं छापी गई थीं, क्योंकि क्रांति के बाद सारी प्रकाशन संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण और पुनर्गठन हुआ था। फिर, पुस्तकों का प्रकाशन सेंसर से गुजरने के बाद ही हो सकता था।

जाहिर है, उस दौर में विभिन्न किताबों के प्रसार में अमेरिका की भूमिका की पड़ताल की जा सकती है। कई किताबें अमेरिकी प्रचार-तंत्र का हित भी साधती रही होंगी- आखिर मास्को का प्रगति प्रकाशन भी दिल्ली में तोल्सोतोय के साथ स्तालिन की किताबें भी बांटता था- लेकिन एक पाठक के नाते कोई इन किताबों की उपलब्धि पर खुशी जाहिर करे तो उसकी भावना समझी जा सकती है। हां, शब्दों के चुनाव पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन उनके आधार पर किसी को सीआइए एजेंट करार देने की मूढ़ता तो नहीं की जा सकती? दूसरे, उन विचारों के आधार पर क्या कवि के दाय का मूल्यांकन किया जा सकता है? कवि का काव्य छोड़कर किसी एक टिप्पणी पर इतना बखेड़ा करने का उद्देश्य क्या हो सकता है? साहित्य में ये संगीन आरोप किस चीज की याद दिलाते हैं? क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी में यह कुछ उस दौर की वापसी की पदचाप है, जब अज्ञेय जैसे कृती साहित्यकार को भी कभी अंगरेजों से, कभी सीआइए से जोड़ दिया जाता था? साहित्यकारों का अपमान अपनी जगह, क्या यह साहित्य को भी दुत्कारने की कार्रवाई नहीं है?

प्रतिवाद का जवाब - आशुतोष कुमार/ ओम थानवी

Jansatta Om thanvi Ashutosh Kumar जनसत्ता ओम थानवी आशुतोष कुमार जनसत्ता संपादक श्री ओम थानवी के स्तम्भ 'अनंतर' में अपने आंशिक जिक्र के प्रतिवाद में श्री आशुतोष कुमार ने एक लम्बा आलेख 'जनसत्ता' को भेजा था। जनसत्ता संपादक ने उन्हें सूचित किया कि आलेख उपलब्ध स्पेस से लंबा होने के कारण वे इसे अगले रविवार इसे प्रकाशित करेंगे। रविवार का इंतजार न कर श्री आशुतोष कुमार ने वह आलेख दो ब्लॉग पर प्रसारित करवा दिया- यह कहते कि जनसत्ता संपादक "कायर" हैं और अपनी आलोचना का सामना नहीं कर सकते। इसके साथ फेसबुक के कुछ हलकों में जनसत्ता को लेकर निंदा अभियान शुरू हो गया, जिसमें अपनी लोकतांत्रिक छवि के लिए जाने जाने वाले संपादक को "अलोकतांत्रिक" भी करार दे दिया गया।

जनसत्ता में रविवार (26/05/13) को श्री आशुतोष कुमार का वह आलेख पूरा छप गया है। सवाल उठा है कि इसके बाद संपादक पर 'कायर' और 'अलोकतांत्रिक' होने का आरोप क्या लोग वापस लेंगे? क्या श्री आशुतोष कुमार ने जल्दबाजी से काम नहीं लिया? श्री ओम थानवी ने अपनी वाल पर कहा है, लगता है कुछ लोगों के लिए "लोकतंत्र" की उम्र महज एक सप्ताह होती है। काश, जनसत्ता संपादक के वादे को सप्ताह भर रुक कर चुनौती दी जाती। लेकिन अब प्रतिवाद छपने के बाद उनके कैंप में शायद कहने को ही कुछ नहीं रह गया है। हम यहां शब्दांकन पर श्री आशुतोष कुमार का प्रतिवाद और जनसत्ता संपादक श्री ओम तानवी का जवाब जनसत्ता से साभार प्रकाशित कर रहे हैं।

प्रतिवाद

बदचलनी की नैतिकता

आशुतोष कुमार

बहस दो हर्फों के बीच नहीं, भाषा और संस्कृति के बारे में दो नजरियों के बीच है।

‘गाली-गलौज’ कोशसिद्ध है, प्रयोगसिद्ध भी।  मैंने ‘गाली-गलौच’ लिखा। बहुत से लोग लिखते-बोलते हैं। ओमजी के हिसाब से (अनंतर, जनसत्ता, 5 मई) यह गलत है। शिक्षक ऐसी गलती करें, यह और भी गलत है। गलती कोई भी बताए, आभार मानना चाहिए। निरंतर सीखते रहना शिक्षक की पेशागत जिम्मेदारी है।

जिम्मेदारी या जिम्मेवारी? कोश या कोष?

ओमजी को ‘जिम्मेवारी’ पसंद है। फेसबुक पर फरमाते हैं, कोश में तो ‘जिम्मेदारी’ ही है। फिर भी, अपने एक सहयोगी का यह खयाल उन्हें गौरतलब लगता है कि ‘जिम्मेदारी’ का बोझ घटाना हो तो उसे जिम्मेवारी कहा जा सकता है। लेकिन इसी तर्ज पर हमारा यह कहना उन्हें बेमानी लगता है कि ‘गलौच’ बोलने से ‘गाली-गलौज’ लफ्ज की कड़वाहट कम हो जाती है। कि गलौज से गलाजत झांकती है, जबकि गलौच से, हद से हद, गले या गालों की मश्क। भोजपुरी में गलचउर और हिन्दी में  गलचौरा  इसी अर्थ में प्रचलित हैं। हो सकता है इनका आपस में कोई संबंध न हो। लेकिन वे एक दूसरे की याद तो दिलाते ही हैं। सवाल बोलचाल में दाखिल दो  प्रचलित शब्दों में से एक को चुनने का है। चुनाव का मेरा तर्क अगर गलचउर है तो ओमजी का भी गैर-जिम्मेदाराना। (गैर-जिम्मेवाराना नहीं।)

हिंदी में, तमाम भाषाओं में, एक दो नहीं, ढेरों ऐसे शब्द होते हैं जिनके एक से अधिक उच्चारण / वर्तनियां प्रचलित हों। श्यामसुन्दर दास के प्रसिद्ध ‘हिंदी शब्दसागर’ में एक ही अर्थ में शब्दकोष और शब्दकोश दोनों मौजूद हैं।

भाषा में इतनी लोच जरूरी है। यह भाषाओं के बीच परस्पर आवाजाही का नतीजा भी है, पूर्वशर्त भी। आवाजाही ओमजी का चहेता शब्द है। क्या यह सही शब्द है? हिंदी के सवर्मान्य वैयाकरण किशोरीदास वाजपेयी और उनकी रचना ‘हिंदी शब्दानुशासन’ के अनुसार हरगिज नहीं।  उनके लिए राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्द है- आवाजाई। वे मानते हैं कि हिंदी का यह शब्द पूरबी बोलियों से प्रभावित है। लेकिन हिंदी की प्रकृति के अनुरूप है। (शब्दानुशासन, पृ. 522, सं. 1998) आचार्य की रसीद के बावजूद आवाजाई समाप्तप्राय है, आवाजाही चालू।

हिंदी के सामाजिक अध्येता रविकांत के मुताबिक भाषाएं बदचलनी से ही पनपती हैं। शुद्ध हिंदी के हिमायती सुन लें तो कैसा हड़कंप मचे! हड़कंप? या ‘भड़कंप’? वाजपेयीजी का शब्द  ‘भड़कंप’ है। (वही, पृ. 02)। आज सभी हड़कंप लिखते हैं।

‘बदचलनी’ चलन बदलने का निमित्त है। समय के साथ जो चले गा, वही बचे गा। चले गा? या चलेगा? ‘शब्दानुशासन’ में अधिकतर पहला रूप है। कहीं कहीं दूसरा भी है। क्या मैं किशोरीदास वाजपेयी पर गलत हिंदी लिखने का इल्जाम लगा रहा हूं? उनका अपमान कर रहा हूं?

मैं ने कहा था- अज्ञेय ने भी गाली-गलौच लिखा है। फेसबुक पर मौजूद हिंदीप्रेमी मित्रों ने मूर्धन्य लेखकों की रचनाओं से ‘गाली-गलौच’ के ढेरों उदाहरण पेश कर दिए। आप ने पुस्तकालय की तलाशी ली और संतोष की गहरी प्रसन्न सांस लेते हुए घोषित किया- सब की सब प्रूफ की गलतियां हैं। लेखकों के जीवित रहते छपे  संस्करणों में ‘गलौज’ लिखा  है ।

मान भी लें कि बाद की तमाम किताबों के ढेर सारे संस्करणों में गलौच का आना महज प्रूफ की गलती है। लेकिन सारे के सारे प्रूफ-रीडर एक ही गलती क्यों करते हैं? कोई असावधान प्रूफ-रीडर गलौझ या गलौछ क्यों नहीं लिखता? क्योंकि कोशकारों के अनजाने-अनचाहे गलौच अपनी जगह बना चुका है।

बेशक भाषा के मामले में लोच की एक लय होती ही है। बदचलनी की भी नैतिकता होती है। अंगरेजी में इसे ‘पागलपन में छुपी पद्धति’ कहते हैं। भाषाएं नयी ‘चाल’ में ढलती हैं। लेकिन चरित्र और चेहरा उस तरह नहीं बदलता। व्याकरण शब्दानुशासन है। अनुशासन शासन नहीं है। अनुसरण भी नहीं है। भाषा के चरित्र और चेहरे की शिनाख्त है।  अंतर्निहित लय की पहचान है। उस के स्व-छंद की खोज है। इसी अर्थ में वह स्वच्छंद भी है, अनुशासित भी। चाल, चरित्र, चेहरा, छंद और लय- इन्हीं तत्वों से भाषा की ‘प्रकृति’ पहचानी जाती है। वैयाकरण का काम है, भाषा की प्रकृति की पहचान कर भाषा के नीर-क्षीर विवेक को निरंतर जगाये रखना ।

हिंदी की प्रकृति को परिभाषित करनेवाली एक विशेषता यह है कि वह ‘हिंदी भाषा-संघ’ में शामिल है। ‘हिन्दी भाषा-संघ’ आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की सुविचारित  अवधारणा है। एक भाषा के मातहत अनेक बोलियों का परिवार नहीं , ‘बराबरी’ पर आधारित संघ। ‘संघ’ की सभी भाषाओं में शब्दोंं, मुहावरों, भावों, विचारों और संस्कारों की  निरंतर परस्पर आवाजाही रही है। लेकिन इस तरह, कि भाषा विशेष की प्राकृतिक विशेषताएं प्रभावित न हों। इन्हीं भाषाओं ने कुरु जनपद की ‘खड़ी बोली’ को  छान-फटक,  घुला-मिला, सजा-संवार व्यापक जनभाषा का रूप दिया। यों ही नहीं मुहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’  ने उर्दू अदब के बेहद मकबूल इतिहास ‘आबे हयात’ की शुरुआत इस वाक्य से की- ‘‘यह बात तो सभी जानते हैं कि उर्दू भाषा का उद्गम ब्रजभाषा है!’’ जानते तो लोग यह हैं कि उर्दू / हिंदी की आधार बोली ब्रजभाषा नहीं दिल्ली-मेरठ की बोली है। फिर भी ‘आज़ाद’ ब्रजभाषा को हिन्दी / उर्दू की गंगा की गंगोत्री के रूप में रेखांकित करते हैं। जबकि जनसत्ता-संपादक को डर है कि बोलियों के बेरोकटोक हस्तक्षेप से हिंदी की स्वच्छ नदी गंदे ‘नाले’ में बदल जायेगी। कहते हैं- ‘पंजाबी में कीचड़ को चीकड़,   मतलब को मतबल, निबंध को प्रस्ताव कहते हैं। क्या हम इन्हें भी अपना लें?’ न अपनाइए। चाह कर भी अपना न सकेंगे। चीकड़, मतबल, अमदी, अमदुर, चहुंपना आदि भोजपुरी में अनंत काल से प्रचलित हैं। लेकिन हिंदी  की प्रकृति के अनुरूप नहीं हैं। सो हिंदी के न हो सके। ध्वनि-व्यतिक्रम हिंदी की विशेषता नहीं है। लोकाभिमुखता, सरलता और मुख-सुख है। आए कहीं से भी  लेकिन चले वे ही हैं, जो यहां के लोगों की उच्चारण-शैली में ढल गए।

कुछ दिन पहले मेरे ही अदर्शनीय मुंह से पंजाबी का ‘हरमनप्यारा’ लफ्ज सुन कर पाव भर आपका खून बढ़ गया था।  ‘आकर्षण’ के लिए पंजाबी में शब्द है- खींच! खींच में अधिक खींच है या आकर्षण में? पंजाबी ने हिंदी-संघ की भाषाओं के साथ अधिक करीबी रिश्ता बनाए रखा, इसलिए आज उसके पास अधिक रसीले-सुरीले शब्द हैं। हम पहले संस्कृत और अरबी -फारसी और अब अंगरेजी का मुंह ज्यादा जोहते रहे, सो जोहड़ में पड़े हैं।

‘गलौच’ के बारे में एक कयास यह है कि यह पंजाबी से आया है। पंजाबी में लोग गलोच लिखते-बोलते हैं। हिंदी ने गलोच को अपने हिसाब से ढाल कर चुपचाप  गलौच बना लिया। यानी हिंदी पड़ोसी भाषाओं की छूत से नाले में न बदल जाएगी। आप ‘शुद्धिवादी’ न हों, लेकिन ‘नाला’ खुद एक प्रकार के पवित्रतावादी नजरिए की ओर इशारा करता है। नाला मतलब अपवित्रता, गन्दगी और धर्म-भ्रष्टता। भाषा की पवित्रतावादी दृष्टि हिंदी के ऊपर सांस्कृतिक या भाषाई राष्ट्रवाद के आरोप लगाने वालों का हौसला बढ़ाती है। इसके दीगर खतरे भी हैं।

जनसत्ता ने मेरे एक लेख में आए ‘‘कैननाइजेशन’’ शब्द को बदल कर ‘प्रतिमानीकरण’ कर दिया था। इस तरह एक परिचित परिभाषित शब्द की हिंदी तो कर दी गयी, लेकिन इस हिंदी को समझने के लिए पहले अंगरेजी शब्द जानना जरूरी है, यह न सोचा गया। हिंदी का अंगरेजीकरण जितना बुरा है, उतना ही संस्कृतीकरण या अरबी-फारसीकरण। ये सारे ‘करण’ सत्ताओं और स्वार्थों के खेल हैं। लेकिन भाषा की प्रकृति को कृत्रिम रूप से बदलने की असली प्रयोगशाला शब्द नहीं, वाक्य है। औपनिवेशिक प्रभाव के चलते अंगरेजी वाक्यविन्यास, मुहावरे, अंदाज और आवाज ने हिंदी को कुछ वैसा ही बना दिया है, जैसा मैकाले ने अंगरेजी शिक्षा के बल पर हिंदुस्तानियों को बनाना चाहा था। ऊपर से भारतीय, लेकिन भीतर से अंगरेज।

आपने भी लिखा है- ‘‘... (अमुक) कुमार यह बोले: ‘‘मुझे मालूम था कि बात प्रूफ पर आएगी।’’ यह हिन्दी का वाक्य-विन्यास है या अंगरेजी का?

------------------------------------------------------------------------------

जवाब

शब्द बनाम भाषा

ओम थानवी

जिद में तथ्यों का गड्डमड्ड  होना सहज संभव है। जिम्मेदार सही शब्द है। पर इसलिए जिम्मेवारी को गलत ठहराना जल्दबाजी होगी। जिम्मा और जिम्मादारी अरबी से आए। ‘वारी’ प्रत्यय से हिंदी क्षेत्रों में जिम्मावारी शब्द पनपा। फिर जिम्मेवारी। बाबू श्यामसुंदर दास का हिंदी शब्दसागर आप भी प्रामाणिक मानते हैं। समय निकालकर उसे (खंड-4, पृष्ठ 1756, संस्क. 2010) देखिए। जिम्मावार/जिम्मेवार को तरजीह देते हुए कोश निराला की पंक्ति का साक्ष्य भी सामने रखता है- ‘‘जिस गांव के हैं, वहां का जमींदार जिम्मेवार होगा।’’

जीवंत भाषा में वक्त के साथ प्रयोग बदलते हैं। जिम्मावार या जिम्मादार (‘मद्दाह’ में यही रूप है, जिम्मेदार नहीं है) अब प्रयोग नहीं होता। जिम्मेदार ही ज्यादा चलता है। जिम्मेवार उसके मुकाबले बहुत कम। फिर भी गूगल में दोनों प्रयोगों वाले वाक्य हजारों की संख्या में मिल जाएंगे। पत्रकारिता के काम में भी हम दोनों प्रयोग देखते हैं; बारीक पड़ताल करने पर जिम्मेदारी शब्द ‘ड्यूटी’ और जिम्मेवारी ‘सरोकार’ के करीब ठहरता अनुभव हुआ है।

लेकिन यह विवाद आपने क्यों उठाया है? इसलिए कि जब मैं ‘जिम्मेवारी’ लिख सकता हूं तो आपके प्रयोग ‘गाली-गलौच’ को क्यों गलत ठहराता हूं? यह भेद आप शायद समझना नहीं चाहते। ‘जिम्मेवारी’ कोशसम्मत है, ‘गलौच’ नहीं है। यह बात दर्जन भर कोश (शब्दसागर, मानक हिंदी कोश सहित) देखकर कह रहा हूं। बाकी जिसको जो जंचे, लिखे। पर खयाल रखें कि शिक्षक के नाते आप पर अपना नहीं, पीढ़ी का बोझ रहता है। भाषा में चलन का महत्त्व है- साहित्य में विशेष रूप से- पर वह मानक हिंदी की काट नहीं होता। हिंदी शिक्षण में तो बिलकुल नहीं।

आप कहते हैं, मेरा ‘चहेता’ (?) शब्द ‘आवाजाही’ क्या सही शब्द है? आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की कृति ‘शब्दानुशासन’ के हवाले से आप बताते हैं हिंदी का शब्द ‘आवाजाई’ है। ‘शब्दानुशासन’ 1958 में आया। पर बाबू श्यामसुंदर दास ग्यारह खंडों का ‘शब्दसागर’ 1929 में दे गए थे। उसमें आवाजाही ही मिलता है। बाद के कोशों में भी।

रही बात आचार्य वाजपेयी के ‘सर्वमान्य वैयाकरण’ होने की। तो ‘‘सर्वमान्य’’ तो कामताप्रसाद गुरु भी नहीं हो सके। आपको पता है या नहीं, आचार्य वाजपेयी उर्दू को ‘मुसलमानी’ और हिंदी को हिंदुओं की भाषा मानते थे: ‘‘अंगरेजी राज आने पर एक नया जागरण जनता में हुआ। हिंदुओं ने अपनी चीज पहचान ली और सोचा कि उर्दू का विदेशी जामा हटा दिया जाए, तो वह हमारी हिंदी ही तो है।’’ (भारतीय भाषाविज्ञान, अध्याय आठ, पृष्ठ 218, संस्क. 1994)

विद्वत्ता का पता इससे चलता है कि हम किन्हें उद्धृत करते हैं। आपने मेरे मित्र रविकांत के हवाले से कहा है ‘‘भाषाएं बदचलनी से ही पनपती हैं’’। यह मूलत: डॉ. राममनोहर लोहिया का विचार था: भाषा ऐसी हो जो ‘‘छिनाली’’ के भी काम आए। हिंदी में उनके कथन से कहीं कोई ‘हड़कंप’ नहीं मचा था, बल्कि लोहिया का वह कथन सबसे पहले मुझे अच्छी हिंदी (‘शुद्ध’ आपका शब्द है) के हिमायती अज्ञेय जैसे साहित्यकार के मुख से सुनने को मिला था। जोधपुर में अगस्त 1980 में, जब मैंने उनसे ‘इतवारी पत्रिका’ के लिए एक इंटरव्यू किया।

‘बदचलनी’ का अर्थ ‘चलन बदलने’ और ‘समय के साथ’ चलने से है, यह आपकी अपनी व्याख्या है जो मनोरंजक है।

आप शब्दकोश को शब्दकोष लिखते और प्रचारित करते हैं। निश्चय ही किसी वक्त दोनों रूप चलन में थे, दोनों सही हैं, लेकिन अब दशकों से शब्द-संग्रह या ज्ञान के संदर्भ में कोश और धन-संचय के लिए कोष वर्तनी रूढ़ हो चुकी है। इसलिए हमें शब्दकोश और राजकोष रूप लिखे दिखाई पड़ते हैं। आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश से लेकर मानक हिंदी कोश, बृहत् हिंदी शब्दकोश, उर्दू-हिंदी शब्दकोश, अंगरेजी-हिंदी कोश, हिंदी-अंगरेजी कोश, समांतर कोश, मुहावरा-लोकोक्ति कोश, इतिहास कोश, पुराण कोश, अहिंसा कोश- इन सबके बीच आपका ‘कोष-कोष’ करना क्या उसी जिद का प्रमाण नहीं है?

सबसे विकट है आपकी तर्क-पद्धति का शीर्षासन। ‘गलौच’ के समर्थन में आप कोश को नहीं मानते थे, चलन (या ‘बदचलनी’) को प्रमाण मानते थे। अब आप कहते हैं- ‘‘हिंदी शब्दसागर में एक ही अर्थ में शब्दकोष और शब्दकोश दोनों मौजूद हैं।’’ किस खूबसूरती से आपने अपनी सुविधा से इन दोनों शब्दों का क्रम भी बदल लिया है। खैर, यह खास फेर नहीं। खास बात यह है कि आपने उसी कोश में ‘‘कोष/कोश’’ शब्दों की ओर जाने की जहमत ही नहीं उठाई। शोधार्थी शोध ऐसे तो नहीं करते।

शब्दसागर में (मात्र एक जगह, जहां आप पहुंचे) वर्तनी के दोनों रूप इसलिए मौजूद हैं क्योंकि दोनों ‘अशुद्ध’ नहीं हैं; कोई भी जिज्ञासु किसी भी वर्तनी से अर्थ देखने वहां पहुंच सकता है। लेकिन अब जरा शब्दसागर में ‘‘कोष’’ शब्द पर आइए: कोषाध्यक्ष को छोड़कर एक जगह भी ‘‘कोष’’ का अर्थ तक नहीं बताया गया है। लिखा है: ‘‘कोष: देखिए ‘कोश’; कोषकार: देखिए ‘कोशकार’; कोषफल: देखिए ‘कोशफल’; कोषिन: देखिए ‘कोशिन’; कोषी: देखिए ‘कोशी’ ...’’

शब्दसागर में ‘‘कोश’’ शब्द के पचासों अर्थ दिए गए हैं, जिनमें एक यह है- ‘‘वह ग्रन्थ जिसमें अर्थ या पर्याय के सहित शब्द इकट्ठे किए गए हों। अभिधान। जैसे अमरकोश। मेदिनीकोश। ...’’ ऐसे ही ‘‘कोशकार’’ भी देखें: ‘‘शब्दकोश बनाने वाला ..’’ गौर करने की बात है कि यहां कोशकार ‘‘शब्दकोश’’ ही लिखते हैं, ‘‘शब्दकोष’’ नहीं।

बाबू श्यामसुंदर दास के कोश आप इस तरह देखते और उद्धृत करते हैं तो मुझे कोई हैरानी नहीं जो उस फेसबुकिया ‘‘बहस’’ में   आप अज्ञेय को और आपके एक सद्भावी प्रेमचंद, रेणु, सियारामशरण गुप्त से लेकर कमलेश्वर तक को ‘‘गलौच’’ यानी ‘बदचलनी’ हिंदी वाला बता जाते हैं। खोज करने पर उनके पुराने संस्करणों में वर्तनी सही (यानी गलौज) मिली। अज्ञेय की तीन किताबों में छपी वही कहानी (सभ्यता का एक दिन), विविध प्रसंग/प्रेमचंद के विचार (भाग-3) में प्रेमचंद का लेख ‘गालियां’ या रेणु रचनावली (भाग-1) में कहानी ‘टौंटी नैन का खेल’ आप भी तो देख सकते थे। क्या आपको मालूम नहीं कि लेखक किताब लिखता है, उसे छापता कोई और है?

अपनी बात रखने के लिए महान कोशकारों और लेखकों को गलत उद्धृत करना अनैतिक ही नहीं, आपराधिक है। इससे उनके भाषा-ज्ञान और चरित्र पर बेवजह ‘बदचलनी’ के छींटे जा गिरते हैं। रेणु जैसे लेखक कल्पना से कहीं ज्यादा प्रयोग हिंदी के साथ कर गए हैं, लेकिन सोच-समझ कर। ठीक से समझें तो उनके प्रयोग भाषा के साथ हैं, वर्तनी के साथ नहीं।

दरअसल, भाषा और वर्तनी दो अलग चीजें हैं। प्रयोगशाला शब्द या वाक्य नहीं होते, अभिव्यक्ति होती है। मैंने कई लेखकों की हस्तलिपि में रचनाएं पढ़ी हैं, वर्तनी और वाक्य-विन्यास में भूल-चूक के बाद भी शानदार गद्य उनकी कलम से निकलते पाया है। इसका मतलब समझने का प्रयास कीजिए, तब शब्दों में चोंच गड़ाना बंद कर देंगे। जिद एक किस्म की बीमारी ही है, जो बचपन से लग जाती है। बाद में लाख पैर पटकें, तब भी जाती नहीं है।

श्यामसुंदर दास और अज्ञेय आपके हाथों गलत उद्धृत हो जाएं तो मैं किस खेत की मूली हूं। आप समझते हैं मुझे डर है कि ‘‘बोलियों के बेरोकटोक हस्तक्षेप से हिंदी की स्वच्छ नदी गंदे ‘नाले’ में बदल जायेगी।’’ बोलियां नहीं, मैंने अंगरेजी के गैर-जरूरी शब्दों और हिंदी शब्दों की लापरवाह वर्तनी की बात उठाई थी। रहा आपका प्यारा शब्द हरमनप्यारा। तो वह जल्द ही ‘हरदिलअजीज’ का पंजाबी अनुवाद निकला!

आपका कहना सही है कि मेरी हिंदी खराब है। किसी को बताइएगा नहीं, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, कैलाश वाजपेयी, केदारनाथ सिंह आदि लेखक कोरी हौसला-अफजाई के लिए मेरी पीठ थपथपा गए। पर आपका प्रमाण-पत्र मेरे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है। मैं अपनी हिंदी सुधारने का जतन करूंगा।

हरा समंदर नीला अंबर - सुमन केशरी

suman kesri सुमन केशरी

सुमन केशरी

बिहार के मुज्जफरपुर में जन्मीं सुमन केशरी ने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से बी.ए. करने के बाद जवाहरलाल नेहरुविश्वविद्यालय से एम. ए और सूरदास के भ्रमरगीत पर शोधकार्य किया.
विस्तृत परिचय...



हरा समंदर नीला अंबर


    हरा समुन्दर गोपी चन्दर  बोल मेरी मछली कितना पानी- लिखने या कहने वाले ने हो ही नहीं सकता कि लक्षद्वीप देखे बिना ही हरे रंग के अथाह जल वाले इस दृष्य की कल्पना कर ली हो...सचमुच अगाती उतरते ही सामने समुद्र देख कर बचपन की यह कविता गले से फूट पड़ी –हरा समुन्दर गोपी चन्दर बोल मेरी मछली कितना पानी- और हवाई जहाज से साथ ही उतरने वाले कुछ यात्रियों ने स्वतः ही सुर में सुर मिला दिया और उसके बाद हम सब ऐसे खामोश हो गए कि जाने किस लोक में कदम रख दिया हो हमने. हम लोगों की कमोबेश वही हालत थी जो प्रवेश द्वार पार करके औचक ही सामने ताजमहल के  आ जाने पर होती है.कितने ही पल हम निःशब्द खड़े सागर को इस तरह निहारते रहे-मानो सामने विधाता ने एक विशाल अखंड पन्ना रख दिया हो, जिसकी हरित आभा सब तरफ़ फैल रही थी.

     लक्षद्वीप अरब सागर में भारत के दक्षिण-पश्चिम में स्थित द्वीप समूह है और इसीलिए इसे लाखों द्वीपों का समूह कहा जाता है कि एक तो यह छोटे बड़े 39 द्वीपों से मिलकर बना है तथा दूसरे संभवतः इस कारण भी कि यहाँ के समुद्र के इतनी कम गहराई में कोरल हैं कि जरा जरा-सी दूरी पर काले काले गोल चकत्ते से दिखाई देते हैं और वे शब्दशः लाखों हैं. इन्हीं कोरलों की वजह से समुद्र हरा दिखाई पड़ता है साधारण नीला या गहरे पानी सरीखा गहरा नीला या काला नहीं.

    25 दिसंबर 2012 को हम यानी कि मैं, पुरूषोत्तम और हमारे बच्चे ऋत्विक और ऋतंभरा कोच्चि से एक बत्तीस सीटर विमान से लक्षद्वीप के एक कदरन बड़े और पूरी तरह बसे द्वीप अगाती पहुंचे. संघशासित लक्षद्वीप की राजधानी कवाराती है, पर वहां हवाई अड्डा नहीं है.  लक्षद्वीप मुस्लिम बहुल स्थान है, जहाँ अधिकतर मलयालम बोली जाती है. मिनिकॉय में महल बोली जाती है. लक्षद्वीप की आबादी करीब 66 हजार है. यूँ  तो यहाँ कोच्चि से जहाज द्वारा भी आया जा सकता है, जो आपको कई द्वीपों का सैर करा देगी, पर हम सी-सिकनेस के डर से हवाई जहाज से  अगाती पहुंचे.अगाती लगभग 8 कि0मी0 लंबा और अधिकतम 1 कि0मी0 चौड़ा द्नीप है जिसकी कुल आबादी लगभग सात हजार है. यह शतप्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला इलाका है. यहाँ की बोली जेसरी है. यहाँ के निवासी मलयालम खूब बोल समझ लेते हैं पर मलयालम भाषी जेसरी बूझ-बोल नहीं पाते.यहाँ लोग बहुत कम हिन्दी जानते हैं, नहीं ही समझिए- अंग्रेजी ही लिंगुआ-फ़्रैंका है. दूकानों के बोर्ड, राजनैतिक-सार्वजनिक और सरकारी पोस्टर आदि या तो मलयालम में या अंग्रेजी में ही दिखेंगे, वैसे भी इन दिनों हिन्दी में लिखे बोर्ड दिखते ही कहाँ हैं? सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है और हो भी क्यों न ? जो भाषा  पेट भरे पूजा-अर्चना भी तो उसी की होगी. सो यहाँ के लोग कोशिश करते हैं अंग्रेजी में बात करने की. हमारे कॉटेज के मालिक मुकबिल मियाँ भी ऐसे ही  हैं. पर उनकी एक और खासियत है- वे  अपनी सारी बात केवल संज्ञा या सर्वनाम के सहारे कह देने में माहिर हैं. क्रिया-क्रियापद तथा  संयाजकों से सर्वथा मुक्त उनकी भाषा-बैननऔर नैनन का अद्बुत संयोजन रचती है- “सर फूड होम फ्रेश डेली थ्री टाइम्स यस ...”यानी साधारण भाषा में लोग इसे यूँ कहना चाहेंगे- “ सर वी विल सर्व यू होम मेड फ़्रेश फ़ूड डेली थ्री टाइम्स ” पर देखिए कितने कम शब्दों में मुक़बिल मियाँ ने अपनी बात कह डाली और वह भी कितनें व्यंजना पूर्ण ढंग से!  आज भी जब कभी पुरूषोत्तम उनके कहे वाक्यों को मिमिकरी करते दुहराते हैं तो हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाते हैं. कम लोगों को पता होगा कि पुरूषोत्तम कितनी मजेदार मिमिकरी करते हैं, कैसे कैसे आँखें नचा कर, कंधे उचका कर नकल उतारते हैं!  बच्चों के लिए तो वे शुरू से मजेदार जोकर दोस्त रहे हैं.सभी बच्चे तुरंत उनसे नाता जोड़ लेते हैं. इस यात्रा में उनका यह रूप खूब देखने को मिला.  

      अगाती में  सबसे ज्यादा हमारा ध्यान आकर्षित किया खामोशी से मुस्कुरातीं  स्त्रियों  और लड़कियों ने जिनकी आँखों में हमें जानने की हमसे बात करने की कितनी खामोश चाहत थी. मुझे लगता रहा कि हमारे और उनके बीच एक अलक्ष्य-अलंघ्य कंटीला तार बाँध  दिया गया हो. सभी के सर ढंके हुए. यहाँ तक कि चार-पाँच वर्ष की नन्हीं बच्चियाँ भी सिर उघाड़े शायद ही दिखीं.सभी के  सिर खिजाब या बुर्के से हरदम ढंके रहते थे. याद नहीं पड़ता कि किसी भी लड़की को हमने उघाड़े सिर देखा हो. स्कूल जाते हुए भी वे सफेद हिजाब पहने रखती हैं! हाँ साइकलें खूब चलाती हैं पर दौड़ती भागती- खेलती लड़कियाँ नहीं दिखीं!  लड़के समुद्र में तैरते- अठखेलियाँ करते हैं, लड़कियाँ या औरतें समुद्र को दूर से ही देखा करती हैं अपनी माँ –बहनों , रिश्तेदारों के साथ बैठ कर, वे कभी अकेले भी नहीं दिखीं!

    इस द्वीप की एक खास बात यह भी रही कि हम वहाँ 6 दिन रुके और पर्यटकों को छोड़ बस एक हिन्दू हमें दिखा- जाने वह खुद भी पर्यटक ही था या कोई सरकारी मुलाजिम. 25 दिसंबर यानी कि क्रिसमस के दिन हम वहाँ पहुंचे थे और अपेक्षा कर रहे थे कि देश के बाकी हिस्सों की तरह वहाँ भी खूब धूमधाम होगी. धूमधाम थी भी क्योकि पहुँचने पर   हमने पाया कि हमारे तथाकथित कॉटेज के बाहर समुद्र तट पर खूब जोर शोर से गाने चल रहे हैं लोग बाग बीच पर बैठे हैं और पास ही बने एक और अकेले  कियॉस्क से खरीद कर  खा-पी रहे हैं. पर सावधान यहाँ पीने का मतलब वो नहीं जो आमतौर से होता है-  यहाँ पीना मतलब चाय या कॉफी  पीना या हद सा हद कोक. बताया न कि यह पूरी तरह से मुस्लिम आबादी वाला इलाका है और यहाँ शराब हराम है. अक्सर ही छापे पड़ते हैं. तो उस दिन देर रात तक गाने बजते रहे पर  अगली शाम फिर वही मंजर!  देखा कि फिर से तट पर भीड़ जमा हो रही है और अगले ही पल गाने बजने लगे. वही अल्ला की शान में हम्द और हुजूर की शान में नात ! धुन हिन्दी फिल्मी गानों की बोल धार्मिक!  पूछने पर पता चला कि वह तो रोज का ही सिलसिला था. हर शाम वहाँ हम्द और नात बजते. यहाँ तक कि 27,28,29 दिसंबर के तीन शामों को लोग वहाँ एक बड़े से पर्दे पर टैलेंट शो का पहले से रिकॉर्ड किया हुआ प्रोग्राम देखते रहे और इन प्रोग्रामों में भी लड़के लड़कियों ने, या शायद सारे  प्रतियोगी केवल लड़के ही थे, ने हम्द और नात ही गाए. कोई फिल्मी गीत नहीं न ही कोई लौकिक गान-  हाँ धुन जरूर हिन्दी के मशहूर फिल्मी गीतों की. दरअसल वह अगाती का चौक था जहाँ रोज ही लोग इकठ्ठा होते और सामूहिक रूप से मनोरंजन करते. सच पूछें तो  वहाँ मनोरंजन का कोई और साधन भी तो नहीं है. न कोई सिनेमा हॉल या सभागार जैसा कुछ भी. केबल में चैनल भी गिने चुने, पता नहीं वहाँ सासबहू वाले सीरियल भी आते हैं या नहीं, क्योंकि हमारे कमरे का  केबल कनेक्शन खराब था और  नेट भी कभी-कभार ही चालू होता था.एक तरह से इस दौरान हम अगातीमय हो गए थे इस तरह यहाँ का  समाज कुल मिला कर बेहद धार्मिक और समुदायपरक है.

     अगाती में चारों और केवल नारियल के पेड़ दिखाई पड़ते है. पूरे द्वीप में एक बरगद, एक नीम और चंद करीपत्ता और केले के पेड़. हरियाली के नाम पर बस इतना और कुछ सरकारी कोशिश चंद सब्जियां उगाने की. एक नन्हीं पौध आम की भी दिखी. बड़े जतन से लगाई हुई.चारों ओर रेत ही रेत और उसके पार हरा समुंदर. यह समुंदर जितना सुंदर, द्वीप उतना ही गंदा. सब ओर सूखे खाली डाब, पत्तियां, कूड़ा-कर्कट, पुराने कपड़ों और  पॉलिथीनों से भरे  घूरे .इधर-उधर बकरियां चरती- मिमयातीं और मुर्गे-मुर्गियाँ कूड़ों के ढेर पर किट-किट कुट-कुट करते चारा ढूंढते. सारा द्वीप बुरी तरह से इमारतों से पटा हुआ. नए नए भवन नई नई सज्जा के साथ बन रहे हैं और उनसे उपजा गंद- हर जगह बिखरा हुआ है. यहाँ दो-तीन छोटी बावड़ियाँ भी दिखीं पर उनका पानी बेहद गंदा, पत्तों और काई से भरा, कोई रखरखाव नहीं- बिल्कुल मुख्यभूमि जैसा या शायद उससे भी बदतर. हम भारतीय वैसे भी गंदगी फैलाने और अपनी प्राकृतिक एवं सास्कृतिक धरोहरों को बिगाड़ने- गंवाने में माहिर हैं.यहाँ अपवाद ढूंढना बेकार ही था!

अगाती का बीच बहुत लंबा है आप लगातार चलते चलिए और जब आप उस द्वीप के बीचों-बीच पहुंचेंगे तो वहाँ से समुद्र यूँ दिखेगा जैसे कि आधी कटी  पृथ्वी! 
    सच में बड़ा विचित्र अनुभव है यह. मैं वहाँ कई बार गई और लौटने वाले दिन तो वहीं बैठी रही देर तक, उसे निहारती, उससे विदा लेती...पर क्या विदा ले पाई या मन का एक हिस्सा वहीं छूट गया सागर मीत के पास! बीच पर आपके पैरों के पास से छोटे छोटे सफेद कैंकड़े भागते या किसी बिल में दुबकते दिखेंगे. रात को तो तट पर कैंकड़ों की बहार आ जाती है. कदरन बड़े  कैंकड़े झुण्ड के झुण्ड इधर उधर भागते दिखाई पड़ेंगे..कहीं काट न लें इसका डर बराबर बना रहता है. जाने से पहले किसी ने बताया था कि द्वीप में ढेरों साँप हैं, किन्तु हमें तो एक न दिखा. कमाल की बात यह कि बिल्लियाँ तो कई दिखीं पर कुत्ता एक न मिला.

    लगभग रोज ही हम द्वीप पर दूर  दूर तक पैदल घूमते . रोज नया रास्ता पकड़ते , कभी छोटा आरक्षित वन मिल जाता तो कभी वो झोपड़ीनुमा कारखाना जहाँ एक नाव निर्माणाधीन थी. बन रही नई नकोर नाव जिससे अजीब गंध आती थी- धीरे धीरे सूखती जीवित लकड़ी की, रंग और लोहे की, आग की,  पानी  की . एक दिन यूं ही घूमते घूमते हम कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मा) के कार्यालय के सामने जा पँहुचे. मजदूरों की बस्ती में छोटा-सा कार्यालय! आस पास अंधेरा और दूर दूर तक कोई नहीं. हम देर तक वहाँ खड़े रहे- भारत में कम्यूनिस्ट आंदोलन पर बात करते हुए इस उम्मीद में  कि शायद कोई आ जाए, पर वहाँ का ताला अगले दिन भी  बंद ही मिला...हाँ वहाँ से वापस अपने ठीए पर लौटते हुए कई मस्जिद मिले- चिरागों से जगमगाते...कइयों में तो बकायदा बच्चे पढ़ रहे थे, नौजवान बहसों में उलझे  थे...सामने स्कूटरों-मोटरसाइकलों की कतारें लगी थीं.

    अगाती में घूमने फिरने की जगहें सीमित ही हैं. आप बीच पर चले जाइए और समुद्र के रंगों का लुत्फ उठाइए और मन करे तो  कुछ वाटर स्पोर्ट्स – तैराकी, ग्लास बॉटम बोट से कोरल दर्शन, कयाकिंग और  स्कूबा डाइविंग कीजिए. स्कूबा डाइविंग में निष्णात कमरुद्दीन आपको बढिया ढंग से स्कूबा के बारे में बताते सीखाते हुए समुद्र के भीतर की दुनिया दिखा लाएंगे. वे पूरे लक्षद्वीप में अपनी जानकारी और योग्यता के लिए विख्यात हैं.  इन्हीं कमरुद्दीन महाशय ने मुझे और पुरूषोत्तम को स्कूबा न करने की सलाह दी.मेरा तो सच कहें मन ही बुझ गया. मुझे तैरना आदि भले ही न आता हो पर नई दुनिया देखने का उत्साह मुझे किसी भी हाल में कहीं भी जाने को सदा प्रेरित करता है और इसी कारण डर मेरे मन में समाता ही नहीं. पर ये सिखावनहार भी कम न थे..उन्होने अपने न को किसी भी हाल में हाँ  में न बदला और मैं समुद्र के भीतर जाकर वहाँ की जीवंत दुनिया देखने और उनसे सीधे नाता  जोड़ने से वंचित रह गई. खैर मैंने इस कमी को पूरा किया बंगाराम में जहाँ मैंने  घंटे भर से ज्यादा ही  स्नॉर्क्लिंग की. ऋतंभरा अपने पहले ही प्रयास में स्कूबा डाइविंग करती हुई करीब दस मीटर की गहराई तक गई और  उसने कई तरह की मछलियां, उसके अपने शब्दों में हिलते-डुलते मस्त कोरल और जीवित सीपियां देखीं पर साथ ही देखे लेज़ के खाली पैकेट और प्लास्टिक के चम्मच! उसने बाहर निकल पहले तो जी भर के सैलानियों को कोसा पर  तुरंत ही वह किसी बात को याद करते हुए हंसती हंसती दोहरी हो गई !  उसने बताया कि उसे  समुद्र के भीतर मछलियों के मनुष्य की तरह बोलने का अहसास हुआ!   अचानक उसे पानी के भीतर अजब आवाजें सुनाई पड़ने लगीं, जो उसीसे मुखातिब थीं, लगा मछलियाँ उससे कुछ कह रही हैं- उसे समझ ही न आया कि वह कॉमिक की दुनिया में है या एलिस के वंडरलैंड में!  जहाँ कोई भी प्राणी मनुष्य की तरह हरकत करता है! आश्चर्य के मारे उसके पैर उखड़ गए और वह  डूबने उतराने लगी! तब उसके ट्रेनर और साथी  कमरुद्दीन  लपके और झट सहारा देकर उसे सीधा खड़ा किया और तब ऋतंभरा ने जाना कि मछलियाँ नहीं ये कमरुद्दीन महाशय थे जो लगातार बोल रहे थे !  पानी के भीतर मुँह में ब्रीदिंग ऑपरेटस संभाले ! बच्ची के लिए यह आसमान से वापस जमीन पर आ जाने जैसा अनुभव था..पर हम जानते ही हैं कि यह जगत ही अनोखा है- कभी आसमान पर चढ़ा देता है तो कभी ....

    इस दौरान  जब तक बिटिया रानी  पानी के भीतर थी तब तक मैं उस हरियाले कंत से बातें करने और नाता जोड़ने में लगी रही- यह लिखते हुए उसकी व्याकुल पुकार मुझे सुनाई पड़ रही है- हाँ मुझे फिर लौटना है तुम तक प्रिय!

    जैसा कि ऊपर लिखा है कि लक्षद्वीप अनेक द्वीपों से बना है और इनमें से कुछ  द्वीप एक दूसरे के काफी निकट हैं. अगाती के नजदीक ही कलपेत्ती और बंगाराम हैं. बिना किसी प्रकार के बसावट वाला नन्हा-सा कलपेत्ती तो अगाती के  बिल्कुल निकट है. मोटर बोट द्वारा वहाँ पहुंचने में कुल 10-12 मिनट लगते हैं.सागर के इस हिस्से में ढेरों कछुए हैं. पानी के भीतर उन्हें सरपट तैरते देखना अपने में एक अनूठा अनुभव है.इसे अतिश्योक्ति न माना जाए कि आते जाते हमने सैकड़ों की संख्या में कछुए देखे. द्वीप पर भारत सरकार ने आधिपत्य सूचित करते हुए  अशोकशीर्ष वाला एक स्तंभ लगवाया है. पूरे द्वीप की सैर आप 15 मिनट में कर लेंगे. कुछ जंगली पेड़ हैं तो कुछ नारियल के पेड़. पत्थर से तोड़ तोड़ हमने वहाँ नारियल खाए. छोटी सख्त पर बेहद मीठी गिरी. संभवतः ये पेड़ जंगली हैं- अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो कृषि वैज्ञानिकों के प्रयोगों से अछूती बचीं बिरला प्रजाती(!). कलपेत्ती में हम द्वीप घूमते रहे और इस बात पर खीजते रहे  कि वहाँ शराब की खाली बोतलें, कपड़ों के चिथड़े और पुराने जूते आदि बिखरे पड़े थे. हमें घुमाने ले जाने वालों ने बताया कि वहाँ अगाती के निवासी मौज मस्ती के लिए अक्सर ही आते हैं!

    अगाती और कलपेत्ती के बारे में एक बहुत विचित्र बताऊं- वहाँ छह दिनों में हमने केवल एक चिड़िया देखी.  और तो और वहाँ कौए तक नहीं हैं. इसका संभवतः एक कारण यह हो सकता है कि वहाँ मीठा जल सहज उपलब्ध ही नहीं है. वहाँ लोगों के लिए कुछ कुएं खोदे गए हैं, जिसके पानी को साफ करके प्रयोग में लाया जाता है. तो पानी नहीं तो खेती नहीं , न कोई पेड़ ही- तो चिड़ियाँ खाएंगी क्या और रहेंगी कैसे? इसी तरह कोई जंगली जानवर भी वहाँ नहीं हैं. हाँ बंगाराम में जरूर समुद्री पक्षी दिखे- नजदीक ही बालू के एक लघु द्वीप पर झुंड के झुंड!

     इस यात्रा का सबसे सुन्दर पड़ाव बंगाराम द्वीप था. अगाती से इस जगह पहुंचने के लिए मोटर बोट से करीब डेढ़ घंटे लगते हैं. कहाँ तो इस जगह पर हमें अपनी यात्रा के दूसरे दिन ही जाना था. पर प्राइवेट टूर वालों के चाल-चलगत से भला कौन न परिचित होगा? महोदय हमारे अगाती पहुंचने और उनके द्वारा बुक किए गए तथाकथित “ सी फे़सिंग  हट” में पनाह लेते ही गोया लक्षद्वीप विजय के लिए कूच कर गए. कभी पता चलता कि बंगाराम में किसी बिजनेस मीटिंग में हैं तो कभी कवाराती में! आखिर हमारी यात्रा का अंत भी नजदीक आता जा रहा था और धीरज का भी. तीसरे दिन रात को जब हमारा गुस्सा एकदम शिखर पर पहुंच गया तो हमें बतलाया गया कि हम अगले ही रोज बंगाराम ले जाए जा रहे हैं. सुबह सुबह तैयार होकर बैठे तो ज्ञात हुआ कि हवा की रफ़्तार इतनी तेज है कि मोटरबोट चलाने की अनुमति ही नहीं मिली और अगले दिन भी मौसम में किसी खास बदलाव की संभावना नहीं है. मन एकदम उदास हो गया. लगा कि  बंगाराम देखे बिना ही यहाँ से लौट आना पड़ेगा. खैर हमारी किस्मत इतनी खराब न थी. अगले रोज 10 बजते न बजते हवा की रफ्तार कुछ कम हुई और हम बंगाराम के लिए रवाना हो गए.पर हालत में ज्यादा सुधार न था.
गहरे पानी में पहुंचते ही हमारी नौका छलांगे भरने लगी. लहरें इतनी ऊंची और व्यग्र थीं कि बोट पर बैठे रहना कठिन था. हम लुढ़क-लुढ़क जा रहे थे और तब कुछ ऐसा हुआ कि जी जुड़ा गया और मन से आशीषें फूटने लगीं. ऋत्विक ने बड़ी मजबूती से पापा को पकड़ लिया था और ऋतंभरा ने मुझे. मन में एक फूल दो माली का गीत – तुझे सूरज कहूँ या चंदा की ये पंक्तियाँ – आज उँगली थाम के तेरी/तुझे मैं चलना सिखलाऊँ/कल हाथ पकड़ना मेरा /जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ/तू मिला तो मैं ने पाया/जीने का नया सहारा..गूंजने लगीं और आँखें नम हो आईं. सच संबंधों का राग कैसा विचित्र होता है !
    बंगाराम में अभी कुछ महीने पहले तक एक प्राइवेट  ग्रुप द्वारा बेहद जाना माना शानदार होटल-रिसॉर्ट चलाया जाता था. सरकार से हुए करारनामें के मुताबिक वहाँ सीमित मात्रा में ही भूमिगत  जल निकाला जा सकता था और कूड़ा कचरा फेंकने के लिए भी कुछ शर्तें थी . पर जैसा कि होता है खूब तो पानी निकाला जाने लगा और तमाम कचरा समुद्र की कोख में फेंका जाने लगा और उसके ऊपर से लाइसेंस फीस बढ़ाने को भी होटल वाले राजी नहीं हुए तो मामला न्यायालय पहुंच गया और इन दिनों होटल बंद है और बंगाराम नाआबाद! इस द्वीप का पूरा चक्कर करीब घंटे भर में लगाया जा सकता है. यहाँ तीन तालाब हैं जहाँ आप चिड़ियों को देख सुन सकते हैं- कई बगुले दिखे हमें. एक डीजलचालित छोटा सा पावर प्लांट भी है और कुछ लोग भी जो मच्छी सुखा  रहे थे और डिजाइन डाल डाल के चटाइयाँ बुन रहे थे. मनुष्य कहीं भी हो वह सौन्दर्य की सृष्टि करना चाहता है, भले ही वह उस जगह अकेला ही क्यों न हो और उसके सृजन को देखने –सराहने के लिए कोई दूसरा मौजूद न हो तब भी वह अपने आनंद के लिए भी कुछ नया, कुछ सुंदर रचेगा- यही प्राणी को मनुष्य बनाता है. कुछ स्त्रियाँ नारियल सुखा रही थीं तो कुछ गिरी का चूरा बनाने में व्यस्त थीं.

    द्वीप का चक्कर लगा लेने के बाद हम स्नॉर्क्लिंग के लिए रवाना हुए. वाह बंगाराम का अंडर वाटर वर्ल्ड अद्भुत है. इतने प्रकार की रंगबिरंगी मछलियाँ और कितने तरह के कोरल, सी-कुकुम्बर, सी-हॉर्स! समुद्र के भीतर देखते देखते जाने किस प्रेरणा से मैंने पानी के ऊपर सर निकाला तो जो दिखा वह अवर्णनीय है- सैकड़ों नन्हीं बाल  मछलियाँ सागर की लहर पर सवार हो करीब पाँच-सात फीट ऊपर उठीं और फिर जल में समा गईं..एक रंग-बिरंगी झिलमिल चादर! ऐसा लगा जैसे सैकड़ों मछलियाँ परिंदों के मानिंद हवा में उड़ रही हों....गजब !ऐसे दृष्य की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी!

    शुरु में मेरा तैराक पार्टनर उंगली से इशारा कर कर के मछलियाँ या कोरल आदि मुझे दिखाता था पर कुछ देर बाद किसी नए दृष्य को देख मैं उसका ध्यान आकर्षित करने लगी. सच में एक गजब की बॉंडिंग हममें विकसित हो गई थी उस पल. जहाँ कोरल श्रृंखला थी उससे सट कर ही थी एक गहरी खूब गहरी खाई- एक दम पहाड़ों का सा दृष्य. हम किनारे तक जाकर कोरल देख आए पर गहराई की ओर  देखते ही जी घबराने लगता था...  मैं बहुत देर थी सागर में, पर मन भरता ही न था. प्यास बुझती ही न थी मुझे रह रह कर आस्ट्रेलिया  का ग्रेट रीफ़ बैरियर याद आता रहा. वहाँ स्नॉर्क्लिंग की ऐसी  व्यक्तिगत व्यवस्था नहीं है.यदि आप खुद अच्छे तैराक नहीं हैं और आपने पहले कभी स्नॉर्क्लिंग नहीं की तो आप  कोरल का आनंद केवल ग्लास बॉटम बोट से ही ले सकते हैं वैसे नहीं जैसी मैंने बंगाराम में देखी. लाइफ़ जैकेट पहना कर हमारे तैराक पार्टनर ने हमें इतनी खूबसूरत दुनिया दिखलाई  कि एक बार तो ऐसा लगा कि अब जग-संसार में क्या सच में लौटा जाए? आह कितना विनीत कर देने वाला पल था वो...इतने विराट को सामने ला दिखाने वाला पल...मन को कोमल तान से भर देने वाला पल... प्रकृति के सम्मुख नत मस्तक हो जाने वाला पल..अपने को पा लेने वाला पल..ऐसे ही क्षणों में जयशंकर प्रसाद के मन में यह कविता फूटी होगी- ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे... तो क्या वहाँ से लौटना लिखना होगा....शायद  उसकी जरुरत नहीं...ये जो चित्र देख रहें हैं न उस मनोरम स्थान के इन्हें और सैकड़ों अन्य चित्र बिटिया ऋतंभरा ने लिए हैं बड़े मनोयोग से...

    लक्षद्वीप को देखना  कभी न समाप्त होने वाला अनुभव है- वैसा अनुभव जो आपके साथ रहता हुआ आपको पल पल आपकी जड़ों तक ले जाता है,आपको आकाश की उंचाइयों तक पहुँचाता है और  उस सर्जक के सतत दर्शन करवाता है, जो आपके भीतर और बाहर हर जगह मौजूद है..जरूरत है तो बस यह कि आप उसे महसूस करते रहें.

सुमन केशरी, नई दिल्ली


फोटो: ऋतंभरा

हैदराबाद , खुफिया तंत्र की नाकामी - जनसत्ता

jansatta editorial, जनसत्ता, सम्पादकीय    हैदराबाद में बीते गुरुवार को हुए धमाकों पर स्वाभाविक ही विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया और संसद के दोनों सदनों में खुफिया तंत्र की नाकामी पर सवाल उठाए। लेकिन चाहे गृहमंत्री का बयान हो या विपक्ष की टिप्पणियां, उनमें समस्या की तह में जाने की दिलचस्पी नजर नहीं आई। जबकि इस चर्चा की सार्थकता इसी बात में हो सकती थी कि आतंकवाद से लड़ने का मजबूत राष्ट्रीय संकल्प प्रतिबिंबित हो और उसके लिए एक समन्वित नजरिया दिखे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दोनों सदनों में वही दोहराया जो वे पहले मीडिया के सामने कह चुके थे, वह यह कि सरकार को पहले से अंदेशा था कि आतंकवादी घटना हो सकती है और इस बारे में चेतावनी जारी कर दी गई थी। पर जब यह सवाल उठा कि खुफिया सूचना होने के बावजूद हमले को नाकाम क्यों नहीं किया जा सका, तो शिंदे ने स्वीकार किया कि यह एक सामान्य चेतावनी थी। यानी खतरे की निशानदेही करने लायक सूचना सरकार के पास नहीं थी। यह सच है कि इतने बड़े देश में चप्पे-चप्पे पर नजर रखना बहुत मुश्किल है। मगर हैदराबाद के दिलसुखनगर में इससे पहले, 2002 और फिर 2007 में, आतंकवाद की बड़ी घटनाएं हो चुकी थीं। लिहाजा, वहां निगरानी रखने में कसर क्यों रह गई? दूसरा सवाल यह उठता है कि चेतावनी के मद्देनजर राज्य सरकार ने क्या कदम उठाए; हैदराबाद पुलिस पर्याप्त सतर्क क्यों नहीं थी?
   दहशतगर्दी का यह वाकया खुफिया तंत्र की नाकामी है या खतरे की सूचना होने के बावजूद एहतियाती कदम न उठाने का नतीजा है? इस हमले ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि केंद्र और राज्यों के समन्वित प्रयासों से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। पुलिस तंत्र राज्यों के अधीन है, और पुलिस की तत्परता के बगैर कोई भी खुफिया जानकारी मददगार साबित नहीं हो सकती। हैदराबाद में हुए आतंकी हमले पर विरोध जताने के लिए भाजपा ने आंध्र प्रदेश में बंद आयोजित किया और लोकसभा में बहस के दौरान विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि यह जांच होनी चाहिए कि एमआइएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के कुछ दिन पहले दिए भड़काऊ भाषणों से तो इस त्रासदी का संबंध नहीं था। इस तरह की टिप्पणियों से जो भी सियासी हित सधता हो, पर उनसे आतंकवाद की जटिल चुनौती को समझने में कोई मदद नहीं मिलती। अंदेशे की खुफिया सूचना के बावजूद हमले को रोका नहीं जा सका, इससे केंद्र और राज्यों के बीच रणनीतिक समन्वय का अभाव ही जाहिर होता है।
   चूंकि केंद्र के साथ-साथ आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार है, इसलिए विपक्ष के लिए निशाना साधना आसान है। पर एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का गठन क्यों अधर में लटका हुआ है? जबकि नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद से ही ऐसे तंत्र की जरूरत शिद््दत से महसूस की जाती रही है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी अपना काम कर रही है। अलबत्ता नेटग्रिड यानी खुफिया सूचनाओं के नेटवर्क का काम सुस्त गति से चल रहा है। पर एनसीटीसी का गठन तो राज्यों के एतराज के कारण ही अब तक नहीं हो पाया है। एनसीटीसी पर विरोध जताने वालों में विपक्ष के अलावा कांग्रेस की भी कई राज्य सरकारें शामिल थीं। उनकी दलील थी कि एनसीटीसी को छापा डालने, गिरफ्तार करने जैसे पुलिस के अधिकार देने से राज्यों के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होगा और इस तरह संघीय ढांचे को ठेस पहुंचेगी। उनकी आपत्तियों के मद्देनजर एनसीटीसी के स्वरूप में केंद्र सरकार ने फेरबदल किया। फिर भी, कोई नहीं जानता कि उसका गठन कब होगा। यह बेहद अफसोस की बात है कि संसद में आंतरिक सुरक्षा की खामियों को चिह्नित करने के बजाय परस्पर दोषारोपण की प्रवृत्ति और एक दूसरे को घेरने की फिक्र अधिक नजर आई।

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष

नई दिल्ली, 18 फरवरी।
The famous poet, literary critic and writer Vishwanath Prasad Tiwari is appointed as the new president of the Sahitya Academy. He would be  12th president of Sahitya Academy. It is the first time, when a Hindi author has received this distinction. Vishwanath Tiwari was working as executive chairman after the death of former president Sunil Gangopadhyay .    सुपरिचित कवि और आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को सोमवार को यहां सर्वसम्मति से साहित्य अकादेमी का अध्यक्ष चुना गया। वे अकादेमी के अध्यक्ष बनने वाले हिंदी के पहले साहित्यकार हैं। अध्यक्ष चुने जाने के बाद तिवारी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं और सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य को अनुवाद के जरिए बढ़ावा दिया जाएगा। उन्होंने कहा, यह जरूरी है कि भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य की पहचान दूर-दूर तक बने।
   सोमवार को हुई साहित्य अकादेमी की सामान्य परिषद की बैठक में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को अकादेमी का 12वां अध्यक्ष चुना गया। इसके अलावा कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक, कवि और फिल्म निर्देशक चंद्रशेखर कंबार अकादेमी के उपाध्यक्ष चुने गए। तिवारी और कंबार का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा। इस मौके पर हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक सूर्य प्रसाद दीक्षित चुने गए।
   अकादेमी के रवींद्र भवन सभागार में हुई सामान्य परिषद की 77वीं बैठक में बोर्ड के 86 सदस्यों में से 79 सदस्य उपस्थित थे। उन्होंने तिवारी को निर्विरोध अकादेमी का अध्यक्ष चुना। कंबार भी निर्विरोध चुने गए। साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष और प्रसिद्ध बांग्ला कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का 23 अक्तूबर 2012 को दक्षिण कोलकाता स्थित उनके आवास पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। इसके बाद से अकादेमी के उस वक्त के उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बतौर कार्यकारी अध्यक्ष काम कर रहे थे। साहित्य अकादेमी की स्थापना 12 मार्च 1954 में की गई थी। इसके पहले अध्यक्ष देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे, जो 1954 से 1964 तक अकादेमी के अध्यक्ष रहे। पहले उपाध्यक्ष डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे, जो 1954 से 1960 तक इस पद पर रहे।
   तिवारी ने अपने कक्ष में मिलने आए पत्रकारों से बड़ी विनम्रता से कहा कि वे साहित्य अकादेमी के अब तक अध्यक्ष रहे तमाम भारतीय भाषाओं के शीर्ष साहित्यकारों के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश करेंगे। उन्होंने कहा, उनका प्रयास होगा कि अकादेमी के जरिए पिछड़े और दूरदराज क्षेत्रों की प्रतिभाओं को सामने लाया जाए। इससे पहले अकादेमी के उपाध्यक्ष और उसके पहले हिंदी परामर्श मंडल के सदस्य रहे तिवारी ने अपने कार्यकाल में सारी भाषाओं को साथ लाने के अपने प्रयासों से हिंदी को लेकर फैले भ्रम और शंकाओं को दूर करने की कोशिश की। उनकी कोशिश के सकारात्मक नतीजे सामने आए होंगे, इसका संकेत इस बात से मिलता है कि सामान्य परिषद के 46 सदस्यों ने अध्यक्ष के रूप में उनके नाम का प्रस्ताव किया। हिंदी भाषा का पहला अध्यक्ष बनने पर तिवारी ने कहा कि इससे उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
   कवि-आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का जन्म 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में हुआ। तिवारी के सात कविता संग्रह, शोध और आलोचना की 11 पुस्तकें, यात्रा संस्मरण, साक्षात्कार आदि की चार पुस्तकें प्रकाशित हैं। ‘दस्तावेज’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका के संपादन के अलावा उन्होंने 14 पुस्तकों का संपादन भी किया है। तिवारी की रचनाओं के अनुवाद ओड़िया, पंजाबी, मलयालम, मराठी, बांग्ला, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, उर्दू के अलावा अंग्रेजी, रूसी और नेपाली भाषा में भी हुए हैं।
   दो जनवरी 1937 को जन्मे चंद्रशेखर कंबार कन्नड़ भाषा के प्रतिष्ठित कवि, नाटककार, फिल्म निर्देशक और लोक-साहित्यविद हैं। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कंबार कन्नड़ विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति हैं। वे वर्ष 1996 से 2000 तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष भी रहे। कंबार के 25 नाटक, 11 काव्य-संग्रह, पांच उपन्यास और 16 शोध ग्रंथ प्रकाशित हैं।
साभार : जनसत्ता