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हिन्दी सिनेमा की भाषा - सुनील मिश्र

Sunil Mishr - Language of hindi movies  
आलोचनात्मक ढंग से चर्चा में आयी अनुराग कश्यप की दो भागों में पूरी हुई फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर से एक बार फिर हिन्दी सिनेमा में सिने-भाषा को लेकर बातचीत शुरू हुई है। एक लम्बी परम्परा है सिनेमा की जिसके सौ बरस पूरे हुए हैं। सिनेमा हमारे देश में आजादी के पहले आ गया था। दादा साहब फाल्के ने हमारे देश में सिनेमा का सपना देखा और उसको असाधारण जतन और जीवट से पूरा किया। भारत में सिनेमा का सच बिना आवाज का था। दादा फाल्के की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म थी। आलमआरा से ध्वनि आयी लेकिन इसके पहले का सिनेमा मूक युग का सिनेमा कहा जाता है।
Sunil Mishr - Language of hindi movies
ध्वनि आने तक परदे पर सिनेमा के साथ पात्रों के संवादों को व्यक्त किए जाने की व्यवस्था होती थी। परदे पर संवादों को लिखकर प्रस्तुत करने की पहल भी दर्शकों को तब बड़ी अनुकूल लगती थी। जब सिनेमा में आवाज हुई तभी संवाद सार्थक हुए। यहीं से पटकथा और संवाद लेखक की भूमिका शुरू होती है।

हमारा सिनेमा संवादों की परम्परा के साथ सीधे ही रंगमंच और तत्समय व्याप्त शैलियों से बड़ा प्रभावित रहा है। सिनेमा से पहले रंगमंच था, पात्र थे, अभिव्यक्ति की शैली थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में नाटकों में पारसी शैली के संवाद बोले जाते थे। पृथ्वीराज कपूर जैसे महान कलाकार नाटकों के जरिए देश भर में एक तरह का आन्दोलन चला रहे थे जिससे अपने समय के बड़े-बड़े सृजनधर्मी जुड़े थे। नाटकों, रामलीला, रासलीला में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का असर सिनेमा में लम्बे समय तक रहा है। सोहराब मोदी, अपने समय के नायाब सितारे, निर्माता-निर्देशक की अनेक फिल्में इस बात का प्रमाण रही हैं। बुलन्द आवाज और हिन्दी-उर्दू भाषा का सामन्जस्य उस समय के सिनेमा की परिपाटी रहा। आजादी के बाद का सिनेमा सकारात्मकता, सम्भावनाओं और आशाओं का सिनेमा था। धरती के लाल, कल्पना और चन्द्रलेखा जैसी फिल्में उस परिवेश की फिल्में थीं। नवस्वतंत्र देश का सिनेमा अपनी तैयारियों के साथ आया था। कवि प्रदीप जैसे साहित्यकार पौराणिक और सामाजिक फिल्मों के लिए गीत रचना कर हिन्दी साहित्य का प्रबल समर्थन कर रहे थे। हिन्दी में सिनेमा बनाने वाली धारा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों से आयी। निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, विभिन्न चरित्र कलाकारों में जैसे श्रेष्ठता की एक श्रृंखला थी। इन सबमें हिन्दी के जानकार और अभिव्यक्ति की भाषा में हिन्दी के सार्थक उपयोग की चिन्ता करने वाले लोगों के कारण सिनेमा को एक अलग पहचान मिली।

राजकपूर, बिमलराय जैसे फिल्मकार छठवें दशक से अपनी एक पहचान कायम करने मे सफल रहे थे। राजकपूर के पास अपने पिता का तर्जुबा था। उनके पिता ने उनको एक सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा था बल्कि उनको उन सब संघर्षों से जूझने दिया था, जो एक नये और अपनी मेहनत से जगह बनाने वाले कलाकार को करना होते हैं। राजकपूर संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति गहरा समर्पण रखते थे। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस आदि फिल्मों में हिन्दी के संवादों में कहीं कोई समस्या नहीं है। इधर बिमलराय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति और भाषा से श्रेष्ठ चुनकर हिन्दी के लिए काम किया और अपने समय का श्रेष्ठ सिनेमा बनाया। Sunil Mishr - Language of hindi movies
 वे नबेन्दु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो कि आगे चलकर बड़े फिल्मकार भी बने और अनेक महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं, इन सबके साथ मुम्बई में काम करने आये थे। उनकी बनायी फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बन्दिनी आदि मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार ही याद नहीं आते बल्कि मन में ठहरकर रह जाने वाले दृश्य, संवाद और गीत भी यकायक मन-मस्तिष्क में ताजा हो उठते हैं। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाये रखने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी क्योंकि सब कुछ स्वतः ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिन्दी को कोई खतरा नहीं था। बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नये जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है।
  Sunil Mishr - Language of hindi movies
दर्शक एकरूपता से उकता गया है जबकि ऐसा नहीं था। दर्शक समाज इतना बड़ा समूह है कि वह स्तरीयता की परख करना जानता है और यकायक भाषा में भोथरा किया जाने वाला नवाचार उसकी पसन्द नहीं हो सकती। ठीक है, पीढि़याँ आती हैं, जाती हैं, अपनी तरह से वक्त-वक्त पर अपनी दुनिया भी गढ़ी जाती है लेकिन अपनी सहूलियत और बदलाव के लिए मौलिकता और सिद्धान्तसम्मत चीजों को विकृत किया जाये, यह बात गले नहीं उतरती।
    यह एक अच्छी बात रही है कि हिन्दी के साथ उर्दू का समावेश करके सिनेमा को एक नया प्रभाव देने की कोशिश की गयी, वह स्वागतेय भी रही क्योंकि उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका अपना परिमार्जन है। फिल्मों मे संवाद लेखन करने वाले, गीत लेखन करने वाले उर्दू के साहित्यकार, शायरों का भी लम्बे समय बने रहना और सफल होना इस बात को प्रमाणित करता है कि दर्शकों ने इस नवोन्मेष का स्वागत किया। इसी के साथ-साथ हिन्दी के साथ निरन्तर बने रहने वाले लेखकों, पटकथाकारों और निर्देशकों ने अपनी एक धारा का साथ नहीं छोड़ा। अब चूँकि सत्तर के आसपास एक टपोरी भाषा भी हमारे सिनेमा में परिचित हुई जिसका एक विचित्र सा उपसंहार हम मुन्नाभाई एमबीबीएस में देखते हैं, उसने सिने-भाषा का सबसे बड़ा नुकसान करने का काम किया। उच्चारण, मात्रा और प्रभाव सभी स्तर पर इस तरह की बिगड़ी हिन्दी लगभग चलने सी लगी। हालाँकि साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचन्द से लेकर अमृतलाल नागर, नीरज, शरद जोशी, फणिश्वरनाथ रेणु आदि का सरोकार भी हिन्दी सिनेमा से जुड़ा मगर इन साहित्यकारों का हम ऐसा प्रभाव नहीं मान सकते थे कि उससे सिनेमा का समूचा शोधन ही हो जाता। वक्त-वक्त पर ये विभूतियाँ हिन्दी सिनेमा का हिस्सा बनीं, नीरज ने देव आनंद के लिए अनेकों गीत लिखे, शरद जोशी ने फिल्में और संवाद लिखे, रेणु की कहानी पर Sunil Mishr - Language of hindi movies
तीसरी कसम बनी, नागर जी की बेटी डॉ. अचला नागर ने निकाह से लेकर बागबान जैसी यादगार फिल्में लिखीं। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव की कृतियों पर फिल्में बनी, पण्डित भवानीप्रसाद मिश्र दक्षिण में लम्बे समय एवीएम के लिए लिखते रहे लेकिन सकारात्मक विचारों की विरुद्ध प्रतिरोधी विचार ज्यादा प्रबल था लिहाजा वही काबिज हुआ। बच्चन जैसे महान कवि के बेटे अमिताभ बच्चन तक मेजर साब फिल्म में सेना के अधिकारी बने अपने सीने पर जसवीर सिंह राणा की जगह जसविर सिंह राणा की नेम-प्लेट लगाये रहे, लेकिन एक बार भी उन्होंने निर्देशक को शायद नहीं कहा होगा कि जसविर को जसवीर करके लाओ।
    सत्तर के दशक में जब नये सिनेमा के रूप में सशक्त और समानान्तर सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ तब हमने देखा कि एक तरफ से श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अपने सिनेमा में भाषा और हिन्दी के साथ-साथ उच्चारणों की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। अगर कहूँ कि निश्चय ही उसके पीछे स्वर्गीय पण्डित सत्यदेव दुबे जैसे जिद्दी और गुणी रंगकर्मी थे तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। दुबे जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने मुम्बई में हिन्दी रंगकर्म की ऐसी अलख जगायी कि अपने काम से अमर हो गये। वे हिन्दी की शुद्धता और उसके उच्चारण तक अपनी बात मनवाकर रहते थे। यही कारण है कि Sunil Mishr - Language of hindi movies
मण्डी, जुनून, निशान्त, अंकुर, भूमिका जैसी फिल्में हमें इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि कम से कम एक लड़ाई भाषा के सम्मान के लिए प्रबुद्ध साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों द्वारा जारी रखी गयी। यह काम फिर उनके समकालीनों में Sunil Mishr - Language of hindi movies सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बी.आर. चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में डॉ. राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण धारावाहिक बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। भारत एक खोज धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर एक सशक्त हस्तक्षेप माना जाता है। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यासकार गुलशन नंदा का उल्लेख भी यहाँ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे सामाजिक उपन्यासों के एक लोकप्रिय लेखक थे और उनकी कृतियों पर अपने समय में सफल फिल्में बनीं जिनमें फूलों की सेज से लेकर काजल, सावन की घटा, पत्थर के सनम, नीलकमल, कटी पतंग, खिलौना, शर्मीली, नया जमाना, दाग, झील के उस पार, जुगनू, जोशीला, अजनबी, महबूबा आदि शामिल हैं।
Sunil Mishr - Language of hindi movies    बिमल राय के सहायक तथा उनकी फिल्मों में सम्पादक रहे प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा भी भाषा एवं हिन्दी के स्तरीय प्रभाव के अनुकूलन का सिनेमा रहा है। उन्होंने सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा, आशीर्वाद, आनंद, मिली, चुपके-चुपके, खट्टा-मीठा, गोलमाल जैसी अनेक उत्कृष्ट फिल्में बनायीं। स्मरण करें तो इन सभी फिल्मों में भाषा के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों को बड़े महत्व के साथ पेश करने काम किया गया है। हाँ, चुपके-चुपके में हिन्दी भाषा-बोली को हास्य के माध्यम से एक कथा रचने में हृषिदा को बड़ी सफलता मिली। फिल्म का नायक प्यारे मोहन जो कि परिमल त्रिपाठी से इस नकली चरित्र में रूपान्तरित हुआ है, एक-एक शब्द हिन्दी में बोलता है, वाक्य भी उच्च और कई बार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में बोलता है। ऐसा करके वह अपनी पत्नी के जीजा जी को परेशान किया करता है, आखिर क्लायमेक्स में रहस्य खुलता है और मजे-मजे में फिल्म खत्म हो जाती है। चलते-चलते हम शुद्ध हिन्दी में लिखा फिल्म हम, तुम और वह का एक गाना भी याद करते हैं, प्रिय प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें........................
    10/21 साउथ टी.टी. नगर, भोपाल-3, मध्यप्रदेश

फाल्गुनी मुक्तक - अरविन्द कुमार 'साहू'


अरविन्द कुमार 'साहू'
खत्री मोहल्ला, ऊंचाहार
राय बरेली - 229404

फाल्गुनी मुक्तक

(1)
कहीं अपना सा लगे ,कहीं पराया फागुन ।
आम के बौर सा फिर झूम के आया फागुन ।
काग की अनसुनी है ,कन्त नहीं लौटा है,
विरह के अश्रु में विरहिन का नहाया फागुन ।।
(2)
फूल टेसू के हुए आग ,जब आया फागुन ।
holi greetings shabdankan 2013 २०१३ होली की शुभकामनायें शब्दांकन किसी विरहिन के जगे भाग जब आया फागुन ।
फिर किसी राधा को कान्हा की आस जागी है,
मधुर मिलन के छिडे राग जब आया फागुन ।।
(3)
मिठास घोल कर रिश्तों में ,ले आता फागुन ।
भेद अपने - पराये का भी मिटाता फागुन ।
भूल कर लाज - शरम हर कोई बौराया है,
गोरी की उँगली पर ,बाबा को नचाता फागुन ।।

कहानी : रेप मार्किट (अगला भाग)- गुलज़ार #Gulzar Story final part

gulzar story kahani rape market shabdankan कहानी : रेप मार्किट - गुलज़ार #Gulzar शब्दांकन #Shabdank

पहला भाग

दूसरा भाग

        वो स्टेशन पर उतरते ही ऐसे उठा ली गई जैसे कोई फुटपाथ पर पड़ा सिक्का उठा ले!       ट्रेन रुकी ही थी कि एक आदमी ने बिना जान-पहचान के आगे बढ़कर ट्रंकी हाथ से ले ली. प्लेटफार्म पर रखी और बोला:
      “रजि़या की बहन हो?”
“हूं!” उसे कुछ ठीक नहीं लगा फिर भी गर्दन हिला दी. “हां”
      “छोटू बीमार है, अबुल. इस लिए नहीं आ सकी.”
      “और भाईजान...?”
      आदमी ने एक लंबी आह ली और बोला: “घर चल कर देख लेना.”
      ये कह के उसने ट्रंकी उठा ली. एक पोटली ज़किया के हाथ में दी और खुद आगे-आगे चल दिया. उसने फिर पूछा–
      “क्या हुआ है भाईजान को?”
      “उन्हें तो चार महीने हुए रजि़या को छोड़े. एक दूसरी के साथ रह रहे हैं. वो भी उसी चाली में! चल...”और पता नहीं किस बरते पर उसने हाथ से पकड़ के टैक्सी में बिठाया और उड़ गया. गुम हो गया बंबई शहर में
      उसकी रिपोर्ट इंस्पेक्टर चितले (रघुवंश चितले) के पास आई थी तो उसने तस्वीर देखते ही कह दिया था:
      “इसे तो मैं ढूंढ़ लूंगा. ये माल बड़ी जल्दी मार्किट में बिक जाने वाला है– कहां बिकेगा ये भी जानता हूं.”
      “कैसे मालूम?”...उसके जूनियर ने पूछा था.
      “अरे भाई पूरे महाराष्ट्र में दिन के दो सौ साठ रेप होते हैं. एवरेज है हर पांच मिनट में दो और कभी-कभी ढाई.” वो हंसा, “कम से कम डेढ़ सौ की रिपोर्ट मेरी नज़रों से रोज़ गुज़रती है. ‘रेप मार्किट’ हम से अच्छा कौन समझेगा?”
      फिर जोर से हंसा–”ज़रा पता लगवाओ, ये तस्वीर छपवाई किसने है?”
      ये बात सिर्फ़ ड्राइवर और कंडेक्टर को मालूम थी कि पीछे से चैथी सीट पर बैठी अकेली सवारी एक महिला थी, जो सबसे आखि़र में उतरेगी. उसे शिवड़ी पहुंचना था. और वो ‘धानू रोड’ से चलने के बाद दिन में कई बार पूछ चुकी थी कि बस शाम को कितने बजे ‘दहेसर’ पहुंचेगी. क्योंकि वहां से बस बदल कर शहर बंबई में जाना था. उसका बेटा और शौहर वहीं बंबई की किसी फैक्ट्री में काम करते थे. रात
को देर हो गई तो कहां भटकेगी टैक्सी लेकर. उधर तो आटो भी नहीं चलता. “और भाई मेरे पास इतने पैसे नहीं है...टैक्सी के!”




      चौथी बार जब महिला ने ये बात दोहराई तो शाम हो चुकी थी. अंधेरा उगने लग गया
      गाड़ी अभी अपनी मंजि़ल से बहुत दूर थी. सिर्फ़ एक पसेंजर और था, और वो भी अपनी खिड़की में सर दिए ऊंघ रहा था.
      कंडेक्टर महिला के पास ही बैठ गया और बोला:
      “तू क्यों फि़क्र करती है बाई, बंबई तो सारी रात जगमगाती रहती है. तू खोएगी नहीं!...और बंबई तो अजीब बस्ती है, कोई खो जाए तो बंबई ख़ुद उसे ढूंढ़ के मंजि़ल पर पहुंचा देती है.”
बाई की कुछ समझ में नहीं आया. ज़रा-सी मुस्करा दी...बस!
      ड्राइवर ने आंख मारी. कंडेक्टर पास आया तो बोला:
      “बाई में नमक है...!”
      “हाथ-पांव टाइट हैं अभी तक.”
      “वो दूसरा कुंभकरण कहां उतरेगा?”
      अचानक खिड़की में सोया मुसाफि़र जाग गया.
      “विरार निकल गया क्या?”
      “हां...कब का...!”




      “अरे-अरे...रोको!”
      ड्राइवर ने फिर आंख मारी और गाड़ी रोक दी. जल्दी-जल्दी मुसाफि़र ने अपने थैले-बैग संभाले और उतर गया. इस बार कंडेक्टर ने आंख मारी.
      “साले को विरार से पहले ही उतार दिया.”
      एक ख़ामोश से हाथ पे हाथ मारा दोनों ने. आंखें कुछ और ही कह रही थीं. बाई अब अकेली थी बस में और वो भी कुछ-कुछ ऊंघ रही थी. अंधेरा बढ़ गया था. ड्राइवर ने ऊपर का आईना घुमा कर बाई के हाथ-पांव देखे, और ‘दहेसर’ से पहले ही एक वीरान-सी सड़क पर बस उतार दी.
      “मैडम-मैडम...मेम साहब!” इफ़ती ने उचक-उचक के उस जर्मन लड़की को अपनी तरफ़ रागि़ब कर लिया. वो होटल से निकली ही थी, इफ़ती फ़ौरन अपनी टैक्सी घुमा के पहुंच गया.
“इफ़टी!” मुस्करा के वो लड़की टैक्सी में घुस गई, और गर्दन उसके कान के पास लाकर बोली,
      “आई वांट टु वेयर बेंगल्ज़.”
      “व्हाट? व्हाट?” इफ़ती को थोड़े ही से अंगे्रज़ी के लफ़्ज़ आते थे. वो भी उसने इसी होटल से टूरिस्ट पकड़-पकड़ के सीख लिए थे. उस जर्मन लड़की ने अपनी बांहें दिखा कर समझाया, चूडि़यां! वो चूडि़यां पहनना चाहती थी. इफ़ती ख़ुश हो गया. कोलाबा से भिंडी बाज़ार! अच्छा भाड़ा बनेगा और तक़रीबन आधे दिन की सवारी तो पक्की हुई.
      “यस-यस...यस-यस.”
      उसके बाद पता नहीं वो गोरी कलाइयां घुमा के क्या-क्या कहती रही. साइज़ की बात कर रही थी या रंग की–लेकिन वो “यस-यस!” ही कहता रहा.
      “फ़ार!...वैरी फ़ार... !” उसने बांह झुला कर उंगलियों से तर्जुमा कर दिया. लड़की की मुस्कराहट और गर्दन ने रज़ामंदी दे दी. कई जगह पर वो इशारों से कुछ-कुछ पूछ लेती थी, और अगर यस-नो से काम नहीं चलता तो वो किसी भी बि¯ल्डग की तरफ़ इशारा करके नाम ले देता.
      “हाईकोर्ट...हाईकोर्ट...ब्लैक होरस, काला घोड़ा...काला घोड़ा वैरी फ़ेमस! मशहूर है! बहुत!” कहते हुए हाथ सर से ऊपर तक उठा देता.
      एक बात बड़ी ख़राब थी उस लड़की में, एक तो सिगरेट बहुत पीती थी, दूसरे हंसती बहुत थी और बात-बात पर ताली बजाने लगती थी. “गुड-गुड!”–बस इतना ही समझ आता था उसे. कभी-कभी आगे आकर उसके कंधों पर हाथ रखके जब कुछ पूछती तो होंठ उसके कानों को छू जाते थे. हटाना मुश्किल हो जाता.
      “अरे लोग देख रहे हैं यार. पीछे हट कर बात कर ना.”
      “व्हाट?” वो पूछती.
      “सिटडाउन...माई व्हील...बैलेंस नहीं रहता यार.”




      वो स्टैरिंग व्हील दाएं-बाएं झुला कर बताता.
      “यस...यस...!” वो कहती. चूडि़यां पहन कर वो लड़की बहुत खुश हुई. बार-बार उसकी आंखों के सामने बजाती और खिलखिला के हंस पड़ती. मुश्किल हो गई जब टैक्सी तक जाते-जाते उसने इफ़ती की बांह में हाथ डाल लिया था. सब देख रहे थे. फुटपाथ पर भीड़ थी, दूकानें थीं, और टैक्सी काफ़ी दूर खड़ा करके आना पड़ा था. उस पर एक और आफ़त आन पड़ी. एक बुकऱ्ापोश औरत नक़ाब उलटे, कुछ ख़रीद रही थी, उसके हाथ पकड़ लिए उसने.
      “इफ़टी...व्हाट इज़ दिस?...आई वांट दिस.”
      घबरा के औरत ने हाथ अंदर कर लिए. और वो उसके हाथ पकड़ के बाहर निकालने की जि़द करने लगी.
“शो मी...शो मी...प्लीज़.”
      “मैडम...दैट इज़ मेहंदी...मेहंदी...अब यहां से चलो, मैं लगवा दूंगा. कम...कम नाव!”
      अब इफ़ती की बारी थी. उसे हाथ से, कमर से, बांह से खींच के लाना पड़ा. सारा रास्ता वो रूठी रही.
      उसके बाद इफ़ती का भी मन ही नहीं किया कि टैक्सी निकाले. होटल के सामने ही गाड़ी लगा के सो गया...वो भी शाम को बाहर नहीं निकली. इफ़ती भी कहीं नहीं गया.
      अगली सुबह चार या पांच बजे का वक़्त होगा. आसमान अभी खुला नहीं था. इफ़ती की आंख खुल गई. वो जर्मन लड़की होटल से निकल रही थी. वो भी शायद रात भर जागी थी, या नाचती रही थी. हमेशा की तरह रात देर तक होटल में बैंड बजता रहा था. ज़्यादातर फि़रंगी रात को पी के नाचते रहते हैं. फिर देर तक सोते हैं. लेकिन हैलेन पता नहीं क्यों जल्दी उठ गई थी. उसने ख़ुद ही एक नाम दे दिया था उस जर्मन लड़की को.
      गेट पर खड़े हो के हैलेन ने इधर-उधर देखा तो इफ़ती ने हाथ हिला दिया. वो चिल्लाई, “हाये ए...”
      जब तक इफ़ती टैक्सी स्टार्ट करता वो आकर सामने की सीट पर उसके साथ ही बैठ गई.
      “लेट अस गो.”
      “किधर?...व्हैर...? मेहंदी के लिए बहुत जल्दी है.”
      “उसने घड़ी दिखाई और हथेली का इशारा किया.
      “ओह नो...सिली! चलो...मार्निग वाक इन टैक्सी.” फिर वही हंसी और ताली बजा कर बोली. “गेट वे इंडिया... चलो.”
      बहुत दूर नहीं था. वो कोलाबा में ही थे. इफ़ती चल तो दिया लेकिन वो ऐसी सट के बैठी थी उसके साथ–और स्कर्ट भी इतनी पतली कि बार-बार नज़र हटानी पड़ती थी.
      ‘गेटवे’ पर इतनी सुबह कोई था नहीं, लेकिन दो-तीन मोटरबोट वाले जाग रहे थे. ऐलीफें़टा की सवारी अक्सर पौ फटे मिल जाती थी. और अब रात भी हल्की होने लगी थी. उन लोगों ने इफ़ती को पहुंचते देखा था. एक ने दूर से आवाज़ भी दी थी–
      “ऐलीफेंटा–मैडम?”
      “नहीं-नहीं–यूंही घूमने आए हैं.”

अगला भाग

इफ़ती ने जवाब दिया था. हैलेन उतर के टहलती हुई समंदर के किनारे तक चली गई थी...और दीवार पे बैठ के सिगरेट जला दिया. इफ़ती ने झाड़न निकाला और गाड़ी साफ़ करने लगा. ज़रा देर में मोटरबोट वालों में से एक लड़का टहलता हुआ लड़की के पास से गुज़रा और सिगरेट मांगी. ‘‘सिगरेट...मैडम–गिव मी वन सिगरेट.’’
     ‘‘आफ़कोर्स!’’ मुस्करा के उसने एक सिगरेट निकाला. इफ़ती को हैलेन गै़र महफूज़ लगी तो वो अपनी गाड़ी से बाहर निकला. पर उसे दूसरे ने धकेल के वापस बिठा दिया.
     ‘‘बैठ नां श्याने! तेरा क्या ले रहा है? एक सिगरेट ही तो मांगा है. ये सब फि़रंगी साले गंजेड़ी होते हैं.’’
     ‘‘लेकिन वो गांजा-वांजा कुछ नहीं लेती.’’
     ‘‘तुझे क्या मालूम?’’ वो ऐसे खड़ा हो गया था उसके सामने कि इफ़ती उधर न देख सके.
     ‘‘सफ़ेदा पीते हैं सब. हशिश कहते हैं ये लोग...और गोविंदा तो चाल देखकर सूंघ लेता है.’’
     ‘‘गोविंदा कौन?’’ ‘‘वही, जो सिगरेट ले रहा है. चुटकी में भर देगा. पीती होगी तो मान जाएगी. नहीं पीती तो ना सही. घूमने निकली है, ना, मोटरबोट पे घुमा के ले आएगा.’’
     ‘‘वो जाएगी तब ना...कोई ज़बरदस्ती है?’’
     उसने बड़ी सख़्ती से इफ़ती का चेहरा अपनी उंगलियों में दबाया, ‘‘ज़बरदस्ती तो तू कर रहा है साले. शादी बनाने चला है क्या?’’
     इफ़ती ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की. आंखों से पानी निकल आया. लेकिन वो ज़्यादा तगड़ा था. उसी वक़्त गोविंदा की आवाज़ आई:
     ‘‘अबे पट गई बे हरी. चलेगा मोटरबोट में?’’
     ‘‘हरी ने धक्का दिया उसे और भाग गया. इफ़ती खड़ा हुआ तो देखा वो मोटरबोट में जाने के लिए सीढि़यां उतर रही थी. वहीं से आवाज़ दी–




     ‘‘इफ़टी... वेट फार मी...कमिंग.’’
     गोविंदा ने हाथ पकड़ के उसे मोटरबोट में ले लिया. हरी कूद के दाखिल हो गया, और फटफटाती हुई मोटरबोट बीच समंदर की तरफ चल दी. इफ़ती अपनी आंखें पोंछता हुआ देर तक उसकी तरफ देखता रहा. अंधेरे में मोटरबोट की आवाज़ दूर जा रही थी.
 
     सात सालों में छह औलादों ने निचोड़ के रख दिया जमीला को. और ज़हूर मियां की शहवत किसी तरह कम न हुई थी... .इत्ती भी शर्म न करते थे.
     ‘‘अल्लाह मियां की बरकत है. वो दे तो हम ना कहने वाले कौन?’’
     दोस्त-यार आस-पड़ोस वाले ताने देते थे, ‘‘बस करो मियां तुमने तो मशीन लगा रखी है. अरे इस बेचारी का भी ख्याल करो...!’’
     बड़ी शैतानी नज़र आती उनकी हंसी में जब कहते, ‘‘कोई बात नहीं, थक जाएगी तो दूसरी ले आएंगे.’’
     बस इसी बात से डरती थी जमीला! कहीं किसी दिन ये मसखरी सच न साबित हो जाए. पुरानी सी बस्ती में पुराने दिनों के किरायेदार थे. तीन मंजिला बिल्डिंग की तीसरी मंजिल पर तीन कमरों का घर था. ...और नौ जने रहते थे. छह औलादें, एक जमीला की बूढ़ी मां और दो वो खुद मियां बीवी!
     ज़हूर मियां जिस्म के तगड़े थे, और मेहनत कश भी. सारा दिन हाथगाड़ी में सामान ढोते थे. दूकान से गोदाम तक और गोदाम से दूकान तक. सेठ खुश था. अच्छा खासा कमा लेते थे. बच्चों के कपड़े लत्ते के लिए तो थान के थान ही ले आया करते थे. गली में खेलते अपने बच्चों को उनके कपड़ों ही से पहचान लेते थे. नाम याद थे. उंगलियों पर गिन सकते थे. उन्हें देख के नाम नहीं बता सकते थे. सब एक ही फैक्ट्री से निकले लगते थे. और जमीला से कह भी रखा था, ‘‘एक वक्त में एक ही थान के कपड़े पहनाया करो. वरना कोई भी लौंडा साला अब्बा-अब्बा कह के जेब में हाथ डालता है और पैसे ले जाता है.’’
     अम्मी के मना करने पर भी उनके लिए महीने दो महीने में कोई न कोई जोड़ा ले आया करते थे. और जमीला के लिए तो हमेशा इफरात ही रही. किसी तरह की कमी न होने दी. बहुत मुहब्बत करते थे बीवी से. इस मुहब्बत ही का नतीजा था कि सात सालों में छह औलादें पैदा कर दीं.
     मर्दों की निस्बत औरतें आपस में ज्यादा बेबाकी से बात कर लेती हैं. जमीला को भी आसपड़ोस वालियां समझाती थीं, ‘‘बीवी, उसकी नसबंदी कराओ या अपनी कोख निकलवा दो. वो तो बाज़ नहीं आने वाले.’’
     ‘‘पिंड छुड़ाना भी तो सीखो. दूसरी लाना है तो ले आए. कुछ दिन उसे भी ये पेट गाड़ी खींचने दो.’’
     औरतें हंस देतीं. लेकिन जमीला का मुंह सूख जाता. एक ने भली राय दी, ‘‘बच्चों में सोया करो. पास आए तो चुटकी काट के जगा दिया करो. अपने आप झाग बैठ जाएगी...’’ और फुसफुसा के हंस दी. जमीला से कुछ भी न हुआ.
     उस रोज जब वो देर तक नहीं आया तो अम्मा को शक हो गया. वो लक्षण समझती थी. इशारे से बेटी को तंबिह कर दी.
      ‘‘दोस्तों यारों में कहीं पीने पिलाने बैठ गया होगा. तू बच्चों में जाकर सो जाना.’’
      ‘‘और भूखे लौटे तो?’’
      ‘‘भूखा तो आएगा, पर तुझे खाएगा आके. उल्टा तेरा पेट भर देगा.’’
     जमीला समझ तो गई पर मां के सामने ये कह के अंदर चली गई:
     ‘‘खाना भर के रख देती हूं चूल्हे के पास. गर्म रहेगा.’’
     और वही हुआ. ज़हूर मियां कि़माम भरा पान चबाते हुए घर में दाखिल हुए. हलकी-सी लग़जि़श थी कदमों में. जूते उतार के दबे पांव कमरे में दाखिल हुए तो जमीला को दो बच्चों के बीच सोता पाया. गला दबा के आवाज़ दी–‘‘जमीला...’’
     वो हिली नहीं. ज़हूर मियां ने एक बगल के बच्चे को उठा कर पलंग वाले बच्चों में डाल दिया और जमीला के पास आकर लेट गए. मुंह अपनी तरफ किया तो वो उठ के बैठ गई.
     ‘‘क्या करते हो?...खाना रखा है जाके खालो ना.’’ वो इतने ज़ोर से बोली थी कि ज़हूर मियां ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया.
     ‘‘आहिस्ता बोलो–बच्चे जाग जाएंगे.’’
     अम्मा पहले ही से जाग रही थी. एक बार जी चाहा कि उठकर चली जाए कमरे में और कह दे कि बे-मौत मत मार जमीला को. लेकिन उसे याद था कि एक बार नसीहतन कुछ कहा था तो ज़हूर मियां ने मुंहतोड़ सुना दी थी, ‘‘बीच में मत बोला करो अम्मां. भूलो मत तुमने ग्यारह औलादें जनी थीं और ये नवीं थी–जमीला!’’
     अम्मां बिस्तर पे उठके बैठ गई. कुछ देर तक सरगोशियों की आवाज़ें आती रहीं और फिर एक थप्पड़ की आवाज आई. डरते-डरते अम्मां उठके दरवाज़े तक गई तो देखा ज़हूर मियां जमीला के मुंह में कपड़ा ठूंसे उसे सीढि़यों से छत की तरफ घसीटता हुआ ले जा रहा था.
 
     इंस्पेक्टर वागले सोच रहा था लड़की बड़ी चिकनी है. आंसू बहते चले जा रहे हैं और गालों पे रुकते भी नहीं. बीच-बीच में वो पोंछती तो उसे डर लगता कहीं गाल का तिल भी न धुल जाए. जो कह रही थी उसकी तरफ वागले का कोई ध्यान नहीं था. रोज़मर्रा का किस्सा है. स्कूल से भाग के एक दोस्त के साथ नेशनल पार्क में घूमने गई थी. वहां तीन-चार गुंडों ने चाकू दिखा के धर लिया. लड़के को पीट घसीट के दूर ले गए और एक ने उसकी...क्या कहते हैं....इज्ज़त उतारने की कोशिश की. लड़की थी कम उम्र की, लेकिन लगती नहीं थी. पक चुकी थी. वरना स्कूल से भाग के नेशनल पार्क में घूमने क्यूं गई थी. वो भी दोपहर में!
     ‘‘क्या उम्र है तुम्हारी....?’’ उसने अचानक पूछ लिया.
     ‘‘फ़ोरटीन...!’’ ‘‘फ़ोरटीन क्या...?’’ उसकी आवाज़ में धमक थी.
      ‘‘चैदह साल.’’ ‘‘नेशनल पार्क में क्या करने गई थी?’’ ‘‘यूंही...घूमने...ज्येन्ती के साथ...मेरा दोस्त...’’
     ‘‘स्कूल से भाग के?’’




     वो चुप रही. ‘‘मां-बाप को मालूम है?’’
     ‘‘नहीं!’’
     ‘‘ख़बर करूं...? नंबर क्या है घर का?...’’
     आंसू अभी-अभी पोंछे थे–फिर बहने लगे. लड़की ने सहम के हाथ जोड़ लिए.
     ‘‘उन्हें मत बताइए–प्लीज़!...ज्येन्ती को बचाइए.
     वो लोग मार डालने की धमकी दे रहे थे.’’
     इस बार वागले उठके उसके साथ वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया और अपने हाथ से गाल का तिल पोंछ के देखा–वो मिटा नहीं.
     लड़की को हाथ से पकड़ के थाने के पीछे एक खोली में ले गया. ‘‘तू बैठ यहीं. मैं राउंड मार के आता हूं. मिला तो उसे भी लेकर आता हूं. और किसी हवलदार से बात नहीं करने का–क्या?’’
     जाते हुए बाहर से कुंडी मार दी. हवलदार से कह दिया, ‘‘देखना शोर नहीं करे!’’
     मोटरसाइकिल पर पार्क का राउंड मारते हुए वागले ने कोई चेहरा नहीं देखा. सिर्फ़ उसी चिकनी का चेहरा नज़र में घूमता रहा. ज़्यादा देर करना भी ठीक नहीं था और बहुत जल्दी लौटने में भी बात बिगड़ जाती. रानों में मोटरसाइकिल दबाए वो दो राउंड मार गया. घंटे भर के बाद लौटा तो सीधा दफ़्तर में गया. रजिस्टर उठाया और हवलदार से कहा:
     ‘‘ख़्याल रखना मैं लड़की का स्टेटमेंट लेने जा रहा हूं.’’
     हवलदार ने खड़े-खड़े करवट ली. ‘‘उधर मत जाइए साहब, बड़े साहब आए हैं.’’
     ‘‘कौन?...चितले?...’’
     ‘‘जी! वहीं खोली में हैं.’’ वागले ने मां की गाली दी.
     ‘‘वहां क्या कर रहा है?’’
     हवलदार के होंठों तले एक डरी-सी मुस्कराहट कसमसा रही थी:
     ‘‘स्टेटमेंट ले रहे हैं. आधा घंटा हो गया. दरवाज़ा अंदर से बंद है.’’
     
साभार हंस फरवरी २०१३

हैदराबाद , खुफिया तंत्र की नाकामी - जनसत्ता

jansatta editorial, जनसत्ता, सम्पादकीय    हैदराबाद में बीते गुरुवार को हुए धमाकों पर स्वाभाविक ही विपक्ष ने सरकार को आड़े हाथों लिया और संसद के दोनों सदनों में खुफिया तंत्र की नाकामी पर सवाल उठाए। लेकिन चाहे गृहमंत्री का बयान हो या विपक्ष की टिप्पणियां, उनमें समस्या की तह में जाने की दिलचस्पी नजर नहीं आई। जबकि इस चर्चा की सार्थकता इसी बात में हो सकती थी कि आतंकवाद से लड़ने का मजबूत राष्ट्रीय संकल्प प्रतिबिंबित हो और उसके लिए एक समन्वित नजरिया दिखे। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दोनों सदनों में वही दोहराया जो वे पहले मीडिया के सामने कह चुके थे, वह यह कि सरकार को पहले से अंदेशा था कि आतंकवादी घटना हो सकती है और इस बारे में चेतावनी जारी कर दी गई थी। पर जब यह सवाल उठा कि खुफिया सूचना होने के बावजूद हमले को नाकाम क्यों नहीं किया जा सका, तो शिंदे ने स्वीकार किया कि यह एक सामान्य चेतावनी थी। यानी खतरे की निशानदेही करने लायक सूचना सरकार के पास नहीं थी। यह सच है कि इतने बड़े देश में चप्पे-चप्पे पर नजर रखना बहुत मुश्किल है। मगर हैदराबाद के दिलसुखनगर में इससे पहले, 2002 और फिर 2007 में, आतंकवाद की बड़ी घटनाएं हो चुकी थीं। लिहाजा, वहां निगरानी रखने में कसर क्यों रह गई? दूसरा सवाल यह उठता है कि चेतावनी के मद्देनजर राज्य सरकार ने क्या कदम उठाए; हैदराबाद पुलिस पर्याप्त सतर्क क्यों नहीं थी?
   दहशतगर्दी का यह वाकया खुफिया तंत्र की नाकामी है या खतरे की सूचना होने के बावजूद एहतियाती कदम न उठाने का नतीजा है? इस हमले ने एक बार फिर यह साफ कर दिया है कि केंद्र और राज्यों के समन्वित प्रयासों से ही आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है। पुलिस तंत्र राज्यों के अधीन है, और पुलिस की तत्परता के बगैर कोई भी खुफिया जानकारी मददगार साबित नहीं हो सकती। हैदराबाद में हुए आतंकी हमले पर विरोध जताने के लिए भाजपा ने आंध्र प्रदेश में बंद आयोजित किया और लोकसभा में बहस के दौरान विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कहा कि यह जांच होनी चाहिए कि एमआइएम नेता अकबरुद्दीन ओवैसी के कुछ दिन पहले दिए भड़काऊ भाषणों से तो इस त्रासदी का संबंध नहीं था। इस तरह की टिप्पणियों से जो भी सियासी हित सधता हो, पर उनसे आतंकवाद की जटिल चुनौती को समझने में कोई मदद नहीं मिलती। अंदेशे की खुफिया सूचना के बावजूद हमले को रोका नहीं जा सका, इससे केंद्र और राज्यों के बीच रणनीतिक समन्वय का अभाव ही जाहिर होता है।
   चूंकि केंद्र के साथ-साथ आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार है, इसलिए विपक्ष के लिए निशाना साधना आसान है। पर एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र का गठन क्यों अधर में लटका हुआ है? जबकि नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद से ही ऐसे तंत्र की जरूरत शिद््दत से महसूस की जाती रही है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी अपना काम कर रही है। अलबत्ता नेटग्रिड यानी खुफिया सूचनाओं के नेटवर्क का काम सुस्त गति से चल रहा है। पर एनसीटीसी का गठन तो राज्यों के एतराज के कारण ही अब तक नहीं हो पाया है। एनसीटीसी पर विरोध जताने वालों में विपक्ष के अलावा कांग्रेस की भी कई राज्य सरकारें शामिल थीं। उनकी दलील थी कि एनसीटीसी को छापा डालने, गिरफ्तार करने जैसे पुलिस के अधिकार देने से राज्यों के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होगा और इस तरह संघीय ढांचे को ठेस पहुंचेगी। उनकी आपत्तियों के मद्देनजर एनसीटीसी के स्वरूप में केंद्र सरकार ने फेरबदल किया। फिर भी, कोई नहीं जानता कि उसका गठन कब होगा। यह बेहद अफसोस की बात है कि संसद में आंतरिक सुरक्षा की खामियों को चिह्नित करने के बजाय परस्पर दोषारोपण की प्रवृत्ति और एक दूसरे को घेरने की फिक्र अधिक नजर आई।

चार कविता - रश्मि प्रभा

रश्मि प्रभा Rashmi Prabhaएक नाम से बढ़कर जीवन अनुभव होता है
एक ही नाम तो कितनों के होते हैं
नाम की सार्थकता सकारात्मक जीवन के मनोबल से होती है
हवाओं का रूख जो बदले सार्थक परिणाम के लिए
असली परिचय वही होता है ...
पर मांगते हैं सब सांसारिक परिचय
यह है - एक छोटा सा परिचय मेरा आपके बीच

रश्मि प्रभा


बेहतर है मुझे भूल जाओ !!!

मैं बुद्ध
असत्य, मोह, भोग, दुःख
Jeanne Hebuterne: Amedeo Modigliani मेरा महाभिनिष्क्रमण बना
राजकुल से था
इस आसक्ति से विरक्त
एक तलाश में
मैं भिक्षाटन पर निकला
वह सूक्ष्म केंद्र
जो विराट के मध्य है
मेरा लक्ष्य बना
अपने ध्यानावस्थित क्षणों में
मैं उस सूक्ष्म की परिक्रमा करता रहा
तब तक ......... जब तक मैं स्वयं से अलग नहीं हो गया
........
शनैः शनैः एक उच्चारण शोर बन गया
'बुद्धं शरणम् गच्छामि'
मेरे स्वरुप को असत्य, मोह और भोग का मार्ग बना दिया गया
Cypress Trees And Houses: Amedeo Modigliani मेरे सौन्दर्य को मुखर किया
अपने प्रश्नों से मुक्त होने के लिए
मुझे माध्यम बना लिया !!!
.....
मैं लुप्त हो गया
अपनी आत्मा के परिवेश से भी
विराट में स्थित सूक्ष्म से
मैं बुद्ध
तुम सबों की सजावट से मुक्ति मांग रहा हूँ
सूक्ष्म का विराट विस्फोट हो
उससे पूर्व

बेहतर है मुझे भूल जाओ !!!

तुम वह फूल हो जो सूखकर खंज़र बन जाता है

हमारे पास देने को शब्द ही सही
है तो...
तुम्हारे पास तो सिर्फ नफरत है
जिसे तुम किसी को दे नहीं सकते
हाँ- अपनी विकृति को उजागर करने में
तुम उसे सरेआम कर सकते हो !
तुम क्या जानोगे रिश्तों की परिभाषा
या उनकी मर्यादा
तुमने तो सबके प्यार के बदले
केवल अपना विरोध ही दिया है .
तुम नहीं जानते
जान ही नहीं सकते
कि प्यार करनेवाले
आशीष देनेवाले
ऐसी दुर्गंधों की परवाह नहीं करते
क्योंकि सब दिन होत न एक समान...
तुम्हारी नफरत
तुम्हारी चाह
तुम्हारी वे दबी भावनाएं है
जिनकी चिंगारियां
Tree and Houses: Amedeo Modigliani धीरे धीरे तुम्हें अकेला कर रही हैं !
ऊँगली उठाना-सबसे आसान तरीका है
यह इतना आसान है
कि बिना चाहे तुम भी इसके निशाने पर हो सकते हो !
तैश में यह कहना भी आसान है कि 'परवाह नहीं'
पर यह समझना मुश्किल है
कि बेपरवाही देखकर
कोई तुम्हारी तरह गुर्राता नहीं...
तुम क्या किसी की इज्ज़त करोगे ?
इक आह के साथ
ईश्वर ने तुमको इस सुख से वंचित कर दिया है
क्योंकि तुम वह फूल हो
जो सूखकर खंज़र बन जाता है
और स्नेहिल रिश्तों पर प्रहार करता है ...!

भक्ति और प्रेम

भक्ति और प्रेम
Portrait of a Girl: Amedeo Modigliani प्रेम और भक्ति-
यूँ तो है अन्योनाश्रय संबंध
पर है कहीं सूक्ष्म बंध !
भक्त के लिए हरि अनंत
प्रेम के लिए हरि सर्वस्व
अनंत में भक्त क्ष्रद्धा से झुका होता है
एकाग्र भाव लिए
प्रेम में प्रेम एकाकार होता है
जीवन की हर दिशाओं में मिश्रित
सृष्टि का विम्ब होता है
भक्त का रूप एक
प्रेम में जीवन के सारे तत्व
और रस
भक्त रास के आगे नतमस्तक
प्रेम रास में लीन
भक्ति अवस्था
प्रेम सार
भक्त भवसागर से मुक्त
Modigliani Boy: Amedeo Modigliani प्रेम संगम सा समाहित
भक्त अकिंचन
प्रेम समर्पण ....
भक्ति मीरा
प्रेम राधा
बात एक ही
फर्क है फिर भी ....

कुछ लोग लिखते नहीं

कुछ लोग लिखते नहीं
नुकीले फाल से
सोच की मिट्टी मुलायम करते हैं
शब्द बीजों को परखते हैं
फिर बड़े अपनत्व से उनको मिट्टी से जोड़ते हैं
उम्मीदों की हरियाली लिए
रोज उन्हें सींचते हैं
Bearded Man: Amedeo Modigliani एक अंकुरण पर सजग हो
पंछियों का आह्वान करते हैं
पर नुकसान पहुँचानेवाले पंछियों को उड़ा देते हैं
कुछ लोग -
प्रथम रश्मियों से सुगबुगाते कलरव से शब्द लेते हैं
ब्रह्ममुहूर्त के अर्घ्य से उसे पूर्णता दे
जीवन की उपासना में
उसे नैवेद्य बना अर्पित करते हैं
.....
कुछ लोग लिखते नहीं
शब्दों के करघे पर
भावों के सूत से
ज़िन्दगी का परिधान बनाते हैं
जिनमें रंगों का आकर्षण तो होता ही है
बेरंग सूत भी भावों के संग मिलकर
एक नया रंग दे जाती है
रेत पर उगे क़दमों के निशां जैसे !...
चित्र: बीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध चित्रकार अमेदेओ मोदिल्यानी

कविता में कवि-मन दिखाई देना चाहिए- लीलाधर मंडलोई

    24 फरवरी, 2013, नयी दिल्ली - विनोद पाराशर
dialogue    सिरीफोर्ट आडिटोरियम के नजदीक वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर की ’एकेडमी आफ फाइन आर्ट एण्ड लिटरेचर' में 'डायलाग्स' कार्यक्रम के अन्तर्गत, 23 फरवरी की शाम, एक कवि-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में प्रतिष्ठित व नवोदित 30 से अधिक कवि व कवियित्रियों ने ’बेटियों’ पर केन्द्रित अपनी कविताएं पढ़ी।
    कार्यक्रम की अध्यक्षता-आल इंडिया रेडियो के महानिदेशक श्री लीलाधर मंडलोई ने की। उन्होंने इस अवसर पर महाकवि निराला जी की भाव-पूर्ण रचना ’सरोज-स्मृति’ के कुछ अंश पढकर सुनाये। कार्यक्रम के संयोजक श्री मिथिलेश श्रीवास्तव ने कहा कि समकालीन कविता में’बेटियों’ने अपनी जगह कैसे बनाई है?आज हमें यह देखना है। ‘ईश्वर’ शीर्षक से उन्होंने अपनी कविता भी पढ़ी। मंच-संचालन का उत्तरदायित्व संभाला,दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर सुधा उपाध्याय ने ।उन्होंने बेटियों के प्रति अपने भाव,कविता में इस प्रकार प्रकट किये -
बेटियां स्वयं शुभकामनाएं होती हैं
     घर के श्वेत श्याम आंगन को
     फागुन में बदल देती हैं

     पढी गयी कविताओं के भाव में बेटियों के प्रति प्रेम, भय, शंका, उनके पालन-पोषण के प्रति लोगों की दोहरी मानसिकता तथा उनके उज्जवल भविष्य की कामना, सराहनीय था। कुछ नवोदित कवि/कवियित्रियों की कविताओं के भाव तो अच्छे थे, लेकिन कविता-पाठ की कला से अनजान होने के कारण, वे अपनी कविता के मर्म को श्रोताओं तक नहीं पहुँचा पाये। फिर भी,उनके प्रयास की सराहना तो की ही जानी चाहिए-ताकि उनका मनोबल बढ सके और वे कविता के प्रस्तुतीकरण में भी सुधार ला सकें। इस बात को नवोदित रचनाकारों को समझना होगा।
     लीलाधर मंडलोई ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में-पढी गयी कविता पर,टिप्पणी करते हुए कहा कि - कविता लिखना और उसे पढना-दोनों अलग-अलग बाते हैं। हमें कविता लिखने के साथ-साथ,उसके पाठ का भी अभ्यास करना चाहिए। कविता से प्रेम करिये,उसके मन को भी पढिये। उन्होंने कहा कि अखबार की खबर और कविता में फ़र्क होता है। पढी गयी कुछ कविताओं में आवेश तो था, लेकिन तरलता नहीं थी। कविता में कवि-मन दिखाई देना चाहिए।
     जिन कवि/कवियित्रियों ने इस कार्यक्रम में अपनी कविताएं पढीं,उनमें से कुछ के नाम हैं- विभा मिश्रा,अंजू शर्मा, रुपा सिंह, शोभा मिश्रा, शैलेश श्रीवास्तव, वंदना गुप्ता, कोमल, विपिन चौधरी, ममता किरन, संगीता शर्मा, अर्चना त्रिपाठी, शौभना, अर्चना गुप्ता, विनोद पाराशर, भरत तिवारी 'शजर', अजय ’अज्ञात’, लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, उपेन्द्र कुमार, शाहिद, श्री कान्त सक्सेना, राजेश्वर वशिष्ठ, गोकुमार मिश्रा,  देवेश त्रिपाठी
    फोटो: भरत तिवारी

शिशु और शव का मिटता फर्क - प्रेम भारद्वाज

शिशु और शव का मिटता फर्क
     दोस्तोएवस्की ने कहा था कि अगली शताब्दी में नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं होगी। गुलजार के सिनेमाई गीतों पर आधारित पुस्तक ‘उम्र से लंबी सड़कों पर’ के लोकार्पण समारोह में केदारनाथ सिंह ने कहा कि यह भूलने का दौर है। पुण्य प्रसून वाजपेयी अगाह करते हैं कि यह दौर जुल्फ संवारने और तितलियां पकड़ने का नहीं है। युवा नई लीक खींचते हुए उद्घोष करते हैं कि जनाब! यह गंभीरता को संदेहास्पद, घृणास्पद और हास्यास्पद मानते हुए मजा लेने का दौर है। सूचनाओं की बमबारी--- सभ्यताओं के संघर्ष, विखडंनवाद, बाजारवाद, भूमंडलीकरण--- बड़ा कंफ्रयूजन है--- यह दौर है कौन सा? क्या सचमुच में यह कंबल ओढ़कर चुपचाप घी पी लेने का दौर है। क्या कुछ भी बोलने-कहने का दौर नहीं है यह। युद्ध और शांति, शव और शिशु, प्रेम और हिंसा, शूल और फूल, मन और मंत्र, सत्ता और संघर्ष, तंत्र और देह, सभ्यता और बर्बरता, आदिम और आधुनिक, मॉल और मेला--- सब कुछ गड्डमड्ड है। और साहिब ऐसे में हम निकल पड़े हैं इस दौर को समझने के लिए, जरा हमारी हिमाकत तो देखिए। चलिए इसी बहाने उस घर का जरा सा मुआयना कर लिया जाए जिसमें हम रहते हैं। घर यानी हमारा ‘दौर’। क्या है इसका पता? कैसा है इसका चेहरा?
     जर्मन दार्शनिक जीमेल मौजूदा दौर को समझने में थोड़े मायूस दिखाई देते हैं, मगर सूत्र दे देते हैं। वे शहरों के जरिए दौर को समझने की कोशिश करते हैं। उनकी राय में ‘बड़े शहरों या महानगरों में आंखों के सामने चीजें बड़ी तेजी के साथ आती हैं कि धीरे-धीरे उनका प्रभाव कम होने लगता है।’ फुटपाथ पर बासी रोटी तोड़ता बूढ़ा भिखारी, एक मीटर के फासले से एक करोड़ की गाड़ी से गुजरता कोई सेठ--- बगीचे में दरख्तों के साए में आलिंगनबद्ध प्रेमी युगल--- सड़क पर प्रेमिका के चेहरे पर तेजाब फेंकता युवक--- स्वागत में पुष्प गुच्छ लिए लोग--- और वे लोग भी जो शव पर फूल चढ़ा रहे हैं--- सिंहासन पर बैठे राजा (प्रधानमंत्री)--- तो शमशान में लेटा मुर्दा--- धीरे-धीरे उन दो भिन्न भाव-दशाओं को जगाने वाले दृश्य के प्रभाव में फर्क कम होने लगता है। और हम एक दिन उस मोड़ पर पहुंच जाते हैं जहां हम किसी के रोने और हंसने, शव और शिशु में फर्क ही नहीं कर पाते। यह इसी दौर का एक तल्ख सच है जिससे हम लगातार बावस्ता होते हैं, लेकिन उसे स्वीकारने को हम तैयार नहीं होते। यह अच्छा ही है, क्योंकि यह हिचक हमें जिंदा रखे हुए है। जिस दिन यह ‘हिचक’ खत्म, हमारे भीतर की संवेदना का आखिरी अवयव भी खल्लास।
     अब केदार जी की बात--- यह दौर भूलने का है। मतलब स्मृतिविहीनता। स्मृति और विस्मृति को लेकर इन दिनों पूरी दुनिया में कई तरह की चिंताएं चल रही हैं। मिलान कुंदेरा इस बात को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि ‘विस्मृति के राष्ट्रपति के नेतृत्व में एक पूरा राष्ट्र मृत्यु की ओर अग्रसर है। हम स्मृति के खात्मे के बाद खुद को भी खो देते हैं--- बिना स्मृति के हम मरे हुए हैं। विस्मृति के राष्ट्रपति की तरह इस देश में भी विस्मृति की सत्ता है।’ हमारी स्मृति का अपहरण किया जा रहा है। इसे छीनने की विश्व स्तर पर कोशिशें जारी हैं। चालें चली जा रही हैं--- हमें स्मृतिहीन बनाने पर आमादा हैं अदृश्य शक्तियां। हमें बताया जा रहा है, तुम वही देखो जो हम दिखाना चाहते हैं--- तुम वही सोचो जिससे हमें असुविधा न हो--- तुम ‘तुम’ नहीं एक क्लोन हो- -- एक भीड़ हो--- तुम बस उपभोक्ता हो--- या बैंक की एक खाता संख्या भर हो--- ट्रेन या प्लेन की सवारी--- अमुक नंबर कोठी-फ्रलैट के बाशिंदे--- तुम महज एक पैन कार्ड, वोटर आईडी भर हो--- कि तुम इंसान नहीं रोबोट हो--- मशीन की तरह चलो, मशीन की तरह दौड़ो और थको बिलकुल नहीं--- सोचो नहीं--- समझो नहीं--- मजे लो और डांस करो---। और खबरदार अगर कहीं कुछ अपने भीतर बचाकर रखा तो। परंपरा को दीवारों पर फ्रेम में मढ़वाकर उस पर माला मत चढ़ाओ--- उसे नदी नहीं, किसी तेज बहते नाले में फेंक आओ--- आज नदी से ज्यादा गंदे नालों में पानी है और प्रवाह भी---। यह नदी नहीं, नालों का युग है। रही बात स्मृति की तो मेमोरी कार्ड है न, गूगल बाबा हैं--- क्या जरूरत है दिमाग में कचरा जमा करने की। ज्यादा चीजें याद रखनी हो तो मेमोरी कार्ड की जीबी बढ़ा लो मेरे भाई। टेंशन क्यों लेते हो?
     जिस स्मृति पर चौतरफे हमले हो रहे हैं, वह स्मृति ही सृजन का मूल स्रोत है। लेकिन हमारी स्मृति संपदा निरंतर दरिद्र हो रही है। स्मृति एक तरह की आवाज, एक प्रतिरोध है और उससे उपजी हर कृति एक चीख। और यह चीख सत्ता को सुहाती नहीं। इसलिए रचना को जन्म देने वाली स्मृति की कोख में ही भ्रूण हत्या करने का ताना-बाना रचा जा रहा है। जड़ों को फुनगी से अलग होने के बाद फुनगी का सूखना, उसका नष्ट होना तय है--- सावधान--- हम उसी सूखेपन की ओर हौले-हौले नहीं बल्कि बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। जहां स्मृति, रचना, विचार का कोई दरख्त बचा नहीं रह सकता- --।
     स्मृतियों को नष्ट करने में सबसे ज्यादा अहम काम सूचनाओं की बमबारी का है। अन्सर्ट फिशर के अनुसार ‘सूचनाओं की बाढ़ सत्य के बारे में हमें जानकार नहीं बनाती बल्कि सत्य को अपने साथ बहा ले जाती है। जब सूचनाएं एक नहीं, अनगिनत, बेशुमार रास्तों, माध्यमों से आने लगती हैं, तब वे सूचनाएं किसी एक सच या तथ्य को मजबूत नहीं करती अलबत्ता एक दूसरे को काटती-खारिज करती हैं। ऐसे में जिस आदमी के पास सबसे ज्यादा एक दूसरे को काटने वाली सूचनाएं आती हैं, वह आदमी सबसे ज्यादा ‘कन्फ्रयूज’ या भ्रमित रहता है।’ हम ऐसे ही सूचनाओं की बमबारी से फैले भ्रम के दौर में जीने को अभिशप्त है।
     बेशक भ्रम तो है और उसे कई अवधारणाओं से जबरन रचा भी जा रहा है। बर्बरता, नफरत और हिंसा के बीच गंभीर शब्दों के जरिए नया फलसफा गढ़ा जा रहा है। अमेरिका के जाने-माने राजनीतिक चिंतक सैमुअल हटिगंटन ने अपनी पुस्तक ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ के जरिए दो धर्मों के संघर्ष को सभ्यताओं के संघर्ष का नाम दिया और अमेरिका ने जब 9/11 हमले के जवाब में अफगानिस्तान या इराक पर हमला बोला तो इसी फलसफे को अपनी ढाल बनाया। यह लेख अमेरिकी विदेश नीति का आधार पत्र बन गया। विचारधाराओं के संघर्ष का स्थान सभ्यताओं और उसकी आड़ में मजहब के संघर्ष ने ले लिया। वे कहीं नहीं बताते कि सभ्यता से उनका आशय क्या है? वे नाम लेते हैं सभ्यता का मगर उनका अभिप्राय धर्म ही है और वह भी इंसानियत बनाम इस्लाम। कुल मिलाकर भ्रम फैलाने की साजिश, स्वार्थ और वर्चस्व की लड़ाई। सभ्यता की आड़ में बंदूक दागने का अधिकार। लाशें बिछाने, बिछी लाशों वाली जमीन में दबे खजाने पर अपना झंडा गाड़ने का हक। असली लड़ाई तो इस पृथ्वी पर अमीर-गरीब, ताकतवर और कमजोर के बीच ही रही है और आगे भी रहेगी। सभ्यताएं तो हमेशा से ही बर्बरताओं की मुठभेड़ में फंसी लहूलुहान कराहती रहती हैं और हममें से बहुत कम उसकी कराह सुनते हैं।
     तो क्या यह मान लिया जाए कि हम उस जमाने में जी रहे हैं जब दुनिया भर की अधिकांश ‘स्मृतियों’ और ‘अस्मिताओं’ का निर्माण फासिस्ट ताकतें कर रही हैं। यह नई संस्कृति की नई परिभाषा गढ़ने, नई दावेदारियों के इंदराज का वक्त है-मदहोशी, मदमस्ती और लूट का। काफ्रका के समय से हम कितना आगे बढ़ पाए हैं जो कहते थे कि ‘हमारे समय में न कुछ पाप है, न कोई ईश्वर प्राप्ति की इच्छा। हर व्यक्ति दुनियावी और उपयोगितावादी हो गया है। ईश्वर हमारे अस्तित्व की परिधि से बाहर है। इसलिए हम एक विश्वव्यापी अस्तित्व पक्षाघात से ग्रस्त हैं---। हम परस्पर काटती हुई रेखाओं और भ्रमों से लदे समय में जी रहे हैं--- यहां दैत्याकार घटनाएं घटती हैं, जहां पत्रकार मनोरंजन के लहजे में लाखों-करोड़ों को मार दिए जाने के समाचार को ऐसे परोसते हैं, जैसे वे कोई कीड़े हो-- - हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें शैतानों का वर्चस्व है- -- हम न्याय और अच्छाई के काम छुपाकर ही कर सकते हैं, जैसे कि यह कोई अपराध हो---।’ दिल पर हाथ रखकर कहिए दशकों पहले लिखी या कही गई काफ्रका की इन पंक्तियों के आईने में क्या आज के जमाने का अक्स दिखाई नहीं देता है। कितने बदले हैं हमारे हालात?
     1950 के बाद दुनिया भर में समय को समझने की कोशिशें तेज हुई। यहां समय का आशय दौर से है। सबका जिक्र संभव नहीं। ज्यादा सूचनाएं भ्रम पैदा कर सकती हैं। मगर फ्रैड्रिक जेमसन की बात ज्यादा मददगार मालूम पड़ती है। वे कहते हैं कि मौजूदा दौर में चीजों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही जाना और समझा जा सकता है, उसे समग्रता में समझना बहुत मुश्किल है। इससे जो हमारी राय बनेगी वह भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही बनेगी।
     बहुत मुश्किल है। क्या हम वहां पहुंच गए हैं जहां लोक कहावत के अनुसार हाथी को जैसे कुछ अंधों ने टटोलने की कोशिश की और जिसके हाथ जो लगा उसने हाथी की कल्पना उसी आधार पर की। यानी न सूंड सच है, न पूंछ सच है, न दांत, न कान, न पैर। हाथी तो समग्रता में है। इसी प्रकार समय भी समग्रता में है--- अगर हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं तो यह हमारी अपनी सामर्थ्य और सीमा है। इसके लिए मौजूदा दौर को दोष देना ठीक नहीं।
     असल में गलती हमारी ही है जो हमने सिद्धांतों-विचारों, अवधारणाओं-स्थापनाओं के सहारे समय को समझने की कोशिश की। गलत तरीका है यह। समय को समझना या जानना है तो विचारों को छोड़ उसमें गहरा धंसना होगा। फिर जो महसूस होगा वही सच के ज्यादा करीब होगा। चलिए वही करके देखते हैं--- किसी को समझना एक खोज ही तो है। इस यात्र में कई दृश्य, कई मोड़, कई पड़ाव मिलेंगे।
     स्मृति और कैद का फर्क मिटने लगा है। दोनों ने ही अपने अर्थ का अतिक्रमण किया है। दिल पर दिमाग हावी। दिमाग पर तकनीक। लोग चीजों को लम्हों को याद रखने से ज्यादा कैद करना चाहते हैं। यह तकनीक की उपलब्धता भी है और यही उसकी सीमा भी बन जाती है। याद रखने के लिए न दिमाग पर जोर, न दिल को तकलीफ। हर हाथ में कैमरा है, जिसमें रील की सीमा नहीं। चाहे जितना क्लिक करो। कैमरा नहीं तो मोबाइल हाजिर है। जो भी अच्छा लगे उसे कैद कर लो, अपना बना लो--- अपनी जागीर। यह स्वकेंद्रित होने का समय है। व्यक्तिवादी कहना पुराने ढंग का हो जाएगा। बस अपने लिए जीना है। इस तरह के जीने में--- दोस्त आ जाएं, दादी मां आ जाएं, संगीत, सिनेमा, नदी, पहाड़, शराब, शबाब, स्वार्थ, संन्यास, ध्यान, भोग--- कुछ भी हो वह साधन भर है। यहां मामला सरोकार का भी हो सकता है--- इंडिया गेट पर किसी सामाजिक मुद्दे को लेकर मोमबत्तियां जलाने का भी-- - यह सब अपने ढंग से जीने की जद में ही समाया हुआ है- -- यह कुछ लोगों के लिए बुरा भी हो सकता है, खुद के लिए अच्छा भी। मगर है यह नए जमाने का नया यथार्थ ही। मुझको केवल अर्ज यह करना है दोस्त कि यह वक्त तस्वीर खींचने से ज्यादा तस्वीर बदलने का है, क्योंकि माहौल भयावह होता जा रहा है और हम उसकी हू-ब-हू तस्वीर उतारने वाले एक फोटोग्राफर की भूमिका में कब तक सीमित रहेंगे।
     जब मैं भयावह समय कह रहा हूं तो आपको इस बात का पूरा हक है कि आप इससे असहमत हो जाएं। मगर जरा ठहरें। पहले इन पर गौर फरमाइए---। इस देश में स्कूलों-अस्पतालों से ज्यादा मंदिर-मस्जिद हैं। मंदिरों में भीड़ है--- लेकिन यह आध्यात्मिक समय नहीं है, न ही देश धार्मिक हो गया है--- वहां भीड़ में खड़े भक्त ‘नशे’ में हैं। किसी तरह आगे निकल, पीछे वाले को कोहनी मार दर्शन कर तर जाने का लोभ लिए देवता के आगे एक मांग पिछली दफे भी रखी थी--- इस दफा दो और रखेंगे--- अगर लोभ-लालच ही धर्म है तो मान लीजिए खुद को, इस वक्त को धार्मिक---। पहाड़ों के रमणीक स्थलों पर भीड़ है--- और यह उनका प्राकृतिक प्रेम भी नहीं है--- थोड़े सुकून की खोज, थोड़ा चेंज और ज्यादा मस्ती है--- पहाड़ के जंगल के बीच डीजे का तेज शोर और शराब के नशे में चीखना अगर प्रकृति प्रेम है तो तय मानिए महानगरों के क्लबों में भी ऐसे प्रेमियों की कमी नहीं।
     मनुष्य और इस सृष्टि के दो ही महाभाव हैं-प्रेम और हिंसा। बाकी सारी भाव दशाएं इसकी ही शाखाएं हैं। हिंसक कोई कहलाना नहीं चाहता। प्रेम में होने का गुमान कइयों को हो जाता है। जिंदगी के सबसे हसीन पल और एहसास से बावस्ता हो रहे प्रेमी युगल को जो एक दूसरे की हथेली को सहलाते हुए बहुत कम सोच पाते हैं कि दुनिया को भी इसी तरह सुंदर होना चाहिए--- हनीमून पर गए दंपत्ति को जो देह को ही प्रेम समझ लेते हैं--- देह का आकर्षण है जो चांद की तरह धीरे-धीरे खत्म होता है--- फिर अगले चांद की चाह में वह शुरू होता है। एक तिलिस्म है जो देह की झुर्रियों और खाल के ढीलेपन के साथ टूटता है--- ठीक है मान लेते हैं प्यार है, इलू-इलू है--- मगर मेरा, तेरा भी तो है--- मेरा और तेरा के बीच एक फांक है, उस फांक में फंसे प्रेम को छटपटाते-तड़पते, अगर आप उसके दर्द को महसूस कर सकें तो यह सच है कि आप प्रेम में हैं--- आप प्रेम के लिए हैं।
     विकास एक चिकनी-चौड़ी सड़क का नाम है और आधुनिकता वह नई तकनीक वाली गाड़ी है जिसमें आप बैठे दौड़ रहे हैं--- भाग रहे हैं। नैतिकता मरे हुए उल्लू की तरह उलटी लटकी है। सियारों की तरह ईमानदारी की हुआं-हुआं अब कहीं सुनने को नहीं मिलती--- सच्चाई स्वार्थ के खेल में खड़ा बिजूका है--- प्राणविहीन। अब सोचना यह है कि इसकी प्रासंगिकता क्या कुछ भी बची रह गई है। यह जीवन भागने के लिए है। हम भाग रहे हैं। बगैर यह समझे कि हम किस इलाके में हैं, किस प्रदेश से गुजर रहे हैं--- हमें जाना कहां है- -- पाना क्या है?
     जिन्होंने ठाना था-वे प्रार्थना के शिल्प में कुछ भी नहीं कहेंगे--- मक्का-मदीना की जगह प्रेम पत्र बचाएंगे--- किसी तवायफ के घुंघरू की तरह उनके संकल्प भी टूट गए। एक्टिविज्म अब सड़कों से फेसबुक में सिमट आया है--- संघर्ष का माध्यम तो हो सकती है ये नई तकनीकें, लेकिन यही सत्य हो जाएं तो चिंता की बात है। हर आदमी बौद्धिक होने के मुगालते में है। हर पाठक अब लेखक है और लेखक ही पाठक है। लेखक पढ़ता कम फतवे ज्यादा जारी करता है। लेखकों को बनाया और गिराया जा रहा है। कविता या रचना एक प्रोडक्ट बन चुकी है। थोड़ी सी इमोशनल, थोड़ी सी कॉमिकल, थोड़ी सी सोच, थोड़ी सी इधर की, थोड़ी सी उधर की--- और शिल्प का तड़का--- कंटेंट की पैकेजिंग--- लो हो गई रचना तैयार।
     समझदारी हर जगह है। कदम-कदम पर गणित। समीकरण। निदा फाजली साहब सही कहते हैं-’सोच-समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला---’ इस दुनिया और आदमीयत को कोई सिद्धांत या वाद नहीं बचाएगा। यह अपनी नादानी और दीवानेपन से ही बची है और आगे भी बचेगी। जुनूनी लोग हर दौर में रहे हैं, आज भी होंगे, वे गिनती में कम हैं, मगर हैं जरूर---।
     बहरहाल इस दौर के बारे में कुछ भी निष्कर्ष निकालना जजमेंटल होना है। शब्द अर्थ खोने लगे हैं, दर्शन फानी है, मुहावरे मरे-मरे से। भय तो इस बात का है कि इन पंक्तियों के आप तक पहुंचने से पहले इनका संदर्भ या मायने न बदल जाएं। जो मैंने कहना चाहा वह उसी मूल अर्थ में आप तक पहुंच जाए तो यह बड़ी बात है।
    

आयोजन: बंगीय हिन्दी परिषद्‍ -स्थापना दिवस

    १५ फरवरी, कोलकाता
    ‘निराला’, ‘सुकुल’ जयन्ती का आयोजन कोलकाता की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था बंगीय हिन्दी परिषद्‍ में वाणी के प्राकट्य दिवस "बंगीय हिन्दी परिषद्‍ :स्थापना दिवस" के पावन अवसर पर माँ भारती एवं ‘निराला’, ‘सुकुल’ जयन्ती समारोह का भव्य आयोजन किया गया।
     समारोह की अध्यक्षता हिन्दी के मूर्धन्य कहानीकार एवं कवि श्री उदयप्रकाश ने की। मुख्य अतिथि के रूप में श्री विजय मोहन शर्मा एव प्रधान वक्ता के रूप में डॉ .प्रेमशंकर त्रिपाठी ने अपनी उपस्थिति से आयोजन को समृद्ध बनाया।
     उक्त अवसर पर डॉ.राजेन्द्र नाथ त्रिपाठी की पुस्तक ‘भारतेन्दु के साहित्य में आधुनिकता बोध’ का श्री उदय प्रकाश जी कर –कमलों के द्वारा विमोचन भी किया गया। बंगीय हिन्दी परिषद् द्वारा समय-समय पर उत्कृष्ट पुस्तकों का प्रकाशन किया जाता रहा है।उक्त पुस्तक उसी परंपरा को समृद्ध करती है।कार्यक्रम का आरम्भ करते हुए परिषद् के मन्त्री डॉ. राजेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने परिषद् के विविध कार्यक्रमों का विवरण दिया। श्री उदयप्रकाश जी ने निराला, डॉ.रामविलास शर्मा एवं भारतेन्दु पर अपना सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत किया।
     उसी क्रम में देवी सरस्वती एवं विधाता ब्रह्मा का ज़िक्र करते हुए उदयप्रकाश जी ने कहा कि सर्जक को कठिन चुनौतियों का सामना करता है और समाज द्वारा वह उपेक्षित और लांछित भी होता है। श्री विजय मोहन शर्मा जी ने अपने पिता डॉ. रामविलास शर्मा एवं ‘निराला’ जी से जुड़े कुछ रोचक संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया। प्रधान वक्ता के रूप में बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक डॉ. प्रेमशंकर त्रिपाठी ने आचार्य ललिता प्रसाद ‘सुकुल’ एवं ‘निराला’ जी के बारे में अपना गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया और कहा कि ‘निराला’ का सम्यक् मूल्यांकन होना अभी शेष है।
     उक्त अवसर पर परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. शंभुनाथ ने ‘निराला’ एवं अचार्य ललिता प्रसाद ‘सुकुल’ से जुड़े कतिपय प्रसंगों की चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन श्री प्रियंकर पालीवाल ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ.रामनाथ तिवारी ने किया। उक्त कार्यक्रम में सर्वश्री डॉ. ब्रजेश कुमार सिंह, पृथ्वी नाथ राय, आर.बी शुक्ल, नीलकमल, मनीष पाण्डेय,जतिन कुमार शुक्ल, प्रदीप कुमार धानुक, प्रमोद वर्मा, पीयूष मुरारका, धर्मेन्द्र राय, रविप्रताप सिंह, श्रीमोहन तिवारी, शिवशंकर सिंह, सुरेन्द्र नाथ शर्मा, संजय जायसवाल,ओमप्रकाश सिंह, विनय कुमार आर्य, सेराज़ खान बातिश, अशोक कुमार सिंह, विद्यासागर तिवारी, रंजीत कुमार, जीवन सिंह, तथा अन्वेश तिवारी आदि उपस्थित थे।
सचिव- राजेन्द्र नाथ त्रिपाठी

सिनेमा के सौ साल की अनकथ कथा - डॉ. सुनीता

samsamyik srijan review shabdankan by dr sunita समसामयिक सृजन समीक्षा डॉ. सुनीता      सिनेमा के सौ साल पूरे होने की ख़ुशी में हो रहे आयोजनों में हिंदी पत्र पत्रिकाएं भी अपनी जिम्मेवारी से दूर नहीं हैं, हाँ कुछ पत्रिकाओं ने इसे बहुत संजीदगी से निभाया है जिनमें महेंद्र प्रजापति के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली 'समसामयिक सृजन' का नाम प्रमुख है. डॉ. सुनीता ने इसे एक शिक्षक की नज़र से पढ़ा और अपने विचार हम तक भेजे. शब्दांकन महेद्र को साधुवाद देता है और डॉ. सुनीता को धन्यवाद   - प्रस्तुत समीक्षा के लिए.

     हाल ही में भारतीय सिनेमा सौ साल की उम्र पूरा किया है. इस सफ़र को सिनेमा में करियर बनाने और इसको प्रचारित-प्रसारित करने वाले अपने-अपने अंदाज़ में सिनेमाई जश्न मनाये. सिनेमा गासिप पर ज़िन्दा बहुतेरे फ़िल्मी-कला-संस्कृति की पत्र-पत्रिकाओं भी इसका गुन गया.
     इसके इतर युवा साहित्यिक-संस्कृतिकर्मी महेंद्र प्रजापति के संपादन में प्रकाशित पत्रिका ‘समसामयिक सृजन’ (अक्तूबर-मार्च 2012-013) का अंक हिंदी सिनेमा के 100 साल पर केंद्रित है.
     यह पत्रिका न केवल सिनेमा के सौ साल के जीवन की अनकथ कथा कहती है,बल्कि इसके उतार-चढ़ाव की गवाह भी बनती दिखती है.
     पत्रिका में फ़िल्मी दुनिया से लगायत मीडिया, समाज, साहित्य-संस्कृति, कला, मनोविज्ञान और मानव विज्ञान पर गहरी पकड़ रखने वाले ख्यात लोग सिनेमा के विविध पहलुओं पर प्रकाश डाले हैं.
     पत्रिका में मौजूदा सिनेमा में तकनीकी दख़ल और गिरावट का भी पोस्टमार्टम किया गया है. भारतीय सिनेमा में खूंखार पूँजीवाद का कसता शिकंजा सिनेमाई कला के लिए अवसर और खतरा दोनों लेकर आया है.बहुतेरे लेख इस सवाल को गहराई से उठाते हैं.
     एक दौर था जब खेत-खलिहान, मेहनत, शोषण, देश भक्ति, आज़ादी और सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित फ़िल्में बनती और चलती थीं. जल्दी ही व्यावसायिक सिनेमा ने कला के सरहदों को तोड़ा और मनोरंजन को अपने फायदे को मुख्य लक्ष्य बनाया.
     शिक्षा, सूचना और स्वस्थ्य मनोरंजन का दीवाल डांककर भारतीय सिनेमा धीरे-धीरे शीला की जवानी पर फ़िदा हो गया.जहाँ मुन्नी बदनाम हुई और ‘हलकट जवानी’ बहुतों को लहकट बनाने के लिए प्रेरित करने लगी.
     अब के प्रेम गीतों में ‘चौदहवीं की चाँद’ के मधुर स्वर नहीं सुनाई देते. अतीत की तरह अब न हीरो इंतजार करता है न हिरोइन. अब तो हिरोइन कहती है 'तंदूरी मुर्गी हूँ यार, गटका ले सैंया एलकोहोल से'. यह जल्दबाजी सिनेमा को कहाँ ले जाकर पटकेगी,जानने के लिए 'समसामयिक सृजन' का अवलोकन करना पड़ेगा. सिनेमा का यह अंक न केवल संग्रहणीय है,बल्कि विमर्श की नई जमीन भी तैयार करती है. 
     इसकी बानगी संपादकीय (अपने हिय की बात) में देखने को मिलती है.संस्थापक ने सिनेमा के प्रति अपनी मोहब्बत का बखूबी इज़हार किया है. बीते सौ साल के सिनेमाई सफर को चार पन्नों में बेहद गहराई, खूबसूरती और सूझबूझ के साथ उल्लेखित किया गया है. यह बारीक़ निगाह को भी प्रदर्शित करता है.
     इस अंक में गीत-संगीत, भाषा, समाज, सम्बन्धों, रोग, प्रेम, लोक जीवन, स्त्री आदि सन्दर्भों को जोड़कर देखने का प्रयास है.कृष्ण मोहन मिश्र, शीला झुनझुनवाला, नवल किशोर शर्मा सिनेमा के इतिहास को एक गंभीर निष्कर्ष देते हैं. साथ में सिनेमा का अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ, एनिमेशन, हास्य आदि की भी विस्तार से चर्चा शामिल है.
     निर्देशक आधारित लेख व फिल्म समीक्षा ज्वलंत सवाल उठाते हैं. टाइटल विशेष लेख के अंतर्गत आये सभी लेख सिनेमा को पैनी नजर और गहरी से समझाने में मदद करते हैं.जितेश कुमार व कुलदीप सिन्हा का लेख प्रमुख है.
     ‘विरासत’ शीर्षक के मध्यम से विगत पुरोधाओं के स्मृतियों को सहेजने का सफल प्रयास है.जिसमें ‘कमलेश्वर का हिन्दी सिने लेखन’ साहित्य अनुभव के जरिये सिनेमाई दुनिया को अंगुली पकड़कर बताता है.
प्रति ना प्राप्त हो रही हो तो हमें लिखें - संपादक sampadak@shabdankan.com
     सिनेमा से जुड़ी हस्तियों मसलन श्याम बेनेगल, अमिताभ बच्चन, प्रसून जोशी, चन्द्र प्रकाश दिवेदी, इरफ़ान खान सरीखे लोगों का साक्षात्कार पत्रिका को दस्तावेज में तब्दील करते हैं.चित्रों के माध्यम से विषय को नयी दृष्टि मिलती है.
     हर सिक्के के दो पहलू होते हैं.इसके दूसरे पहलू पर गौर करना आवश्यक है. साहित्य के बिना सिनेमा की कल्पना और बेहतर सिनेमा की चाह बेमानी लगती है.इसी कारण पत्रिका में सिनेप्रेमी साहित्यकारों की अनुस्पस्थिति कुछ खलती है.
     बावजूद इसके ‘समसामयिक सृजन’ सिनेमा के सौ साल के सृजन का दस्तावेज है.सिनेमा में गहरी रूचि और दृष्टि रखने वाले सिनेप्रेमियों, शिक्षकों छात्रों और शोधार्थियों के लिए काफी सहयोगी और उपयोगी साबित होगी.
dr sunita kavita डॉ. सुनीता .
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डॉ. सुनीता 

"वे हमें बदल रहे हैं..." राजेन्द्र यादव | बलवन्त कौर

    बीते दिनों राजधानी के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में राजेन्द्र यादव जी के लेखों के नए संकलन है 'वे हमें बदल रहे हैं ...' का विमोचन हुआ ।'वे हमें बदल रहे हैं ...' को संकलित व सम्पादित किया है बलवन्त कौर ने और प्रकाशक है महेश भारद्वाज (सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली)
     राजेन्द्र यादव जी की हर सम्पादकीय वो दस्तावेज़ हैं, जो इतिहास में दर्ज़ हो रही हैं। ये वो किताब है जो उनके चाहने वाले और ना चाह कर भी चाहने वालों के पास होनी ज़रूरी है। बलवन्त कौर को इस संकलन को हम तक लाने का धन्यवाद, अधिक जानकारी के लिए आप शब्दांकन से sampadak@shabdankan.com पर संपर्क कर सकते हैं।

     लीजिये अब पढ़िए 'वे हमें बदल रहे हैं ...' की बलवन्त कौर लिखित "भूमिका"...


     'वे हमें बदल रहे हैं . . .' राजेन्द्र यादव के लेखों का नया संकलन है। ये सभी लेख हंस के सम्पादकीयों के रूप में 2007 से 2011के बीच लिखे गए हैं। इससे पूर्व के सम्पादकीय 'काँटे की बात' के बारह खंड़ों तथा 'काश मैं राष्ट्र-द्रोही होता' we hame badal rahe hain rajendra yadav balwinder kour samayik prakashan Mahesh Bhardwaj shabdankan वे हमें बदल रहे हैं राजेन्द्र यादव बलवन्त कौर शब्दांकन #Shabdan में पहले ही संकलित हो चुके हैं। ये सभी लेख हंस की वैचारिक नीतियों को समझने में जितने मददगार है, उससे कहीं ज्यादा राजेन्द्र यादव की सोच व नजरिये से परिचित होने का माध्यम भी हैं। इस रूप में ये सिर्फ सम्पादकीय ही नहीं राजेन्द्र यादव की वे मान्यताएँ हैं जिन पर वह बज़िद अड़े हुए है और अक्सर यह ज़िद विवादों का कारण भी बनती रही है। वैसे भी विवादों और राजेन्द्र यादव का पूराना दोस्ताना है। और यह दोस्ताना यहाँ भी देखा जा सकता है। चाहे वह नया ज्ञानोदय पत्रिका का 'छिनाल' प्रसंग हो या फिर 'हिन्दू देवी देवताओं' पर की जा रही टिप्पणियाँ हो, राजेन्द्र जी हर बार अपनी टिप्पणियों से कुछ ना कुछ विवाद खड़ा करने में माहिर हैं। यह जानते हुए भी कि "कल को यह सब उनके ख़िलाफ ही इस्तेमाल होगा" वह ज़रा भी विचलित नही होते। बल्कि ये विवाद, ये हंगामें उन्हें नयी ऊर्जा ही देते हैं।
संकलन में प्रभाष जोशी की मृत्यु पर लिखे बेहद आत्मीय लेख 'कागद कोरे…:' भी शामिल किया गया है,
     इस संकलन में मुख्यत: पिछले पाँच सालों के सम्पादकीयों को ही संकलित किया गया है। जिसमें राजेन्द्र जी साम्प्रदायिकता, स्त्री विमर्श, प्रवासी साहित्य, समकालीन युवा कहानी, विचारधारा और साहित्य, रचना और विचार के सम्बन्धों से जूझते, उन पर सवाल उठाते नज़र आए हैं। इन मुद्दों पर वे पहले भी लिखते रहे हैं और इन विषयों पर उनके वैचारिक परिवर्तन या यूँ कहें वैचारिक विकास या वैचारिक विचलन को यहाँ परखा जा सकता है, लेकिन इन सम्पादकीयों में एक स्वर ऐसा भी आ जुड़ा है जो इस तरह पहले नहीं सुनाई पड़ा था। यह स्वर है- स्वप्नहीनता और संभवत: उसी से उत्पन्न व्यर्थताबोध का। राजेन्द्र जी अपने भीतर जिस स्वप्नहीनता और व्यर्थताबोध से जूझ रहे हैं, उसका साक्षात्कार भी यहाँ होता है। संकलन में प्रभाष जोशी की मृत्यु पर लिखे बेहद आत्मीय लेख 'कागद कोरे…:' भी शामिल किया गया है, क्योंकि उसमें राजेन्द्र जी ने प्रभाष जोशी के बहाने साहित्यिक पत्रकारिता की यात्रा का मूल्यांकन किया है। इस के साथ ही संकलन में पाठकों को एक ही विषय से सम्बंधित एकाधिक लेख भी पढ़ने को मिलेंगे। जो अलग-अलग समय व सन्दर्भों में लिखे गए हैं। दोहराव तो इनमें है ही ,लेकिन फिर भी इन्हें एक साथ रखा गया है ताकि राजेन्द्र यादव के चिन्तन को मुक्कमल तौर पर समझा जा सके।
     'बेबाकी और संवादधर्मिता' इन सम्पादकीयों की विशेषता है। और सवाल उठाना उनकी प्रवृति। बेबाकी का तो ये आलम है जब हिन्दुस्तान के सारे साहित्य प्रेमी जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल का एक सुर से गुणगान कर रहे थे, तब राजेन्द्र यादव उस के भीतर छिपे भाषायी वर्चस्व, आयोजन में इस्तेमाल पूंजी, आदि पर भी सवाल उठाने से भी परहेज़ नहीं करते। इसी प्रकार प्रसार-भारती में सत्ता का हस्तक्षेप, मीडिया की भूमिका यहाँ तक कि अन्ना हजारे के आन्दोलन को लेकर भी उनके भीतर का विचारक तुरन्त उंगली उठा देता है। दरअसल राजेन्द्र यादव अपनी राहें खुद बनाने में विश्‍वास करते रहे हैं इसलिए लीक पर चलना या लीक पर चलने वाले लोग उन्हें कभी पसन्द नहीं आते। दरअसल राजेन्द्र यादव की यह वैचारिक यात्रा "साधारण से विशिष्ट" बनने की यात्रा है। यह जानते हुए भी कि' विशिष्ट' होने का मतलब कहीं अकेला पड़ जाना भी है। इसके बावजूद वह निरंतर अपने वैचारिक लेखन के जरिये एक नया लोकतांत्रिक समाज गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
     संकलन का बनना असंभव था यदि, वीना जी, किशन तथा दुर्गाप्रसाद ने इतने कम समय में सारे सम्पादकीय न उपलब्ध करवाए होते। हमेशा मदद के लिए उपस्थित इन तीनों के लिए आभार शब्द बहुत छोटा है। और राजेन्द्रजी द्वारा इस कार्य के लिए चुना जाना मेरे लिए गौरव का विषय है।
    फोटो: भरत तिवारी

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बने साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष

नई दिल्ली, 18 फरवरी।
The famous poet, literary critic and writer Vishwanath Prasad Tiwari is appointed as the new president of the Sahitya Academy. He would be  12th president of Sahitya Academy. It is the first time, when a Hindi author has received this distinction. Vishwanath Tiwari was working as executive chairman after the death of former president Sunil Gangopadhyay .    सुपरिचित कवि और आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को सोमवार को यहां सर्वसम्मति से साहित्य अकादेमी का अध्यक्ष चुना गया। वे अकादेमी के अध्यक्ष बनने वाले हिंदी के पहले साहित्यकार हैं। अध्यक्ष चुने जाने के बाद तिवारी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाएं हैं और सभी भाषाओं के समकालीन साहित्य को अनुवाद के जरिए बढ़ावा दिया जाएगा। उन्होंने कहा, यह जरूरी है कि भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य की पहचान दूर-दूर तक बने।
   सोमवार को हुई साहित्य अकादेमी की सामान्य परिषद की बैठक में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को अकादेमी का 12वां अध्यक्ष चुना गया। इसके अलावा कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक, कवि और फिल्म निर्देशक चंद्रशेखर कंबार अकादेमी के उपाध्यक्ष चुने गए। तिवारी और कंबार का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा। इस मौके पर हिंदी परामर्श मंडल के संयोजक सूर्य प्रसाद दीक्षित चुने गए।
   अकादेमी के रवींद्र भवन सभागार में हुई सामान्य परिषद की 77वीं बैठक में बोर्ड के 86 सदस्यों में से 79 सदस्य उपस्थित थे। उन्होंने तिवारी को निर्विरोध अकादेमी का अध्यक्ष चुना। कंबार भी निर्विरोध चुने गए। साहित्य अकादेमी के पूर्व अध्यक्ष और प्रसिद्ध बांग्ला कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का 23 अक्तूबर 2012 को दक्षिण कोलकाता स्थित उनके आवास पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। इसके बाद से अकादेमी के उस वक्त के उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बतौर कार्यकारी अध्यक्ष काम कर रहे थे। साहित्य अकादेमी की स्थापना 12 मार्च 1954 में की गई थी। इसके पहले अध्यक्ष देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे, जो 1954 से 1964 तक अकादेमी के अध्यक्ष रहे। पहले उपाध्यक्ष डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे, जो 1954 से 1960 तक इस पद पर रहे।
   तिवारी ने अपने कक्ष में मिलने आए पत्रकारों से बड़ी विनम्रता से कहा कि वे साहित्य अकादेमी के अब तक अध्यक्ष रहे तमाम भारतीय भाषाओं के शीर्ष साहित्यकारों के पदचिह्नों पर चलने की कोशिश करेंगे। उन्होंने कहा, उनका प्रयास होगा कि अकादेमी के जरिए पिछड़े और दूरदराज क्षेत्रों की प्रतिभाओं को सामने लाया जाए। इससे पहले अकादेमी के उपाध्यक्ष और उसके पहले हिंदी परामर्श मंडल के सदस्य रहे तिवारी ने अपने कार्यकाल में सारी भाषाओं को साथ लाने के अपने प्रयासों से हिंदी को लेकर फैले भ्रम और शंकाओं को दूर करने की कोशिश की। उनकी कोशिश के सकारात्मक नतीजे सामने आए होंगे, इसका संकेत इस बात से मिलता है कि सामान्य परिषद के 46 सदस्यों ने अध्यक्ष के रूप में उनके नाम का प्रस्ताव किया। हिंदी भाषा का पहला अध्यक्ष बनने पर तिवारी ने कहा कि इससे उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
   कवि-आलोचक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का जन्म 1940 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में हुआ। तिवारी के सात कविता संग्रह, शोध और आलोचना की 11 पुस्तकें, यात्रा संस्मरण, साक्षात्कार आदि की चार पुस्तकें प्रकाशित हैं। ‘दस्तावेज’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका के संपादन के अलावा उन्होंने 14 पुस्तकों का संपादन भी किया है। तिवारी की रचनाओं के अनुवाद ओड़िया, पंजाबी, मलयालम, मराठी, बांग्ला, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, उर्दू के अलावा अंग्रेजी, रूसी और नेपाली भाषा में भी हुए हैं।
   दो जनवरी 1937 को जन्मे चंद्रशेखर कंबार कन्नड़ भाषा के प्रतिष्ठित कवि, नाटककार, फिल्म निर्देशक और लोक-साहित्यविद हैं। ज्ञानपीठ और साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित कंबार कन्नड़ विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति हैं। वे वर्ष 1996 से 2000 तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष भी रहे। कंबार के 25 नाटक, 11 काव्य-संग्रह, पांच उपन्यास और 16 शोध ग्रंथ प्रकाशित हैं।
साभार : जनसत्ता

लघुकथा: "चाबी का गुच्छा" - डॉ अनिता कपूर

"हेलो मैं मेघा बोल रही हूँ"
"अरे तुम फोन पर क्यों बात कर रही? मैं तो घर के बाहर ही खड़ा हूँ"
"पर मैं घर के भीतर नहीं हूँ"
"तो तुम कहाँ हो और कब तक आओगी?"
"मैंने घर छोड़ दिया है”
"मेघा ऐसे मत कहो, तुम वापस आओ, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ या तुम जहां पर भी हो वहाँ का पता दो मैं आता हूँ”
"नहीं तुषार, घर से यहाँ तक के रास्ते से मैं अपने पावों के निशान मिटाती आई हूँ ताकि वापस जाने का रास्ता पहचान न सकूँ, और घबराना नहीं क्योंकि मैं भारत में किसी से इस बात का जिक्र नहीं करूंगी और चाहूँ भी तो शर्म की वजह से कुछ कह भी नहीं पाऊँगी”।
तुषार का द्वार पर लगी घंटी के लिए उठा दायाँ हाथ वैसे ही हवा में लटका रह गया।

फोन बंद करते ही मेधा की नज़रों के सामने परसों रात का पूरा दृश्य जैसे ही घूमा, वो एक बारगी फिर सिहर उठी। जब जैक की पार्टी में मिसेज सिन्हा ने उसे तुषार के साथ देख कर बेशर्मी से हँसते हुए कहा था, “चलो आज देखते हैं कि नया माल किसके पति की सेज सजाएगा”। यह सुन कर वो आश्चर्यचकित तो हुई पर कुछ समझ नहीं पाई कि, उसे ऐसे शब्दों से क्यों बुलाया गया। क्या मिसेज सिन्हा को हमारी शादी के बारे में नहीं पता? कुछ देर में हाल में और भी जोड़े दिखाई देने लगे। मेधा अंदाजा नहीं लगा पा रही थी, कि सब लोग द्वार से अंदर दाखिल होते ही अपनी-अपनी कार की चाभियों को एक बड़े बाउल में क्यों डाल रहे है। समझते ही वो वितृष्णा से भर उठी, जब उसने मिसेज सिन्हा को तुषार के साथ बेडरूम में जाते देखा और मिस्टर सिन्हा उनकी कार का गुच्छा उसके चेहरे के सामने लहराते हुए मुस्करा रहे हैं।

अब खुले आसमान तले खड़ी मेघा दुख और असमंजस में डूबी सोच रही है, कि उसके ही पति ने चाबी के गुच्छे से आपसी विश्वास की दीवार पर न मिट सकने वाली लकीरें खींच दी है।


डॉ. अनीता कपूर - कविताएँ, चोका और लघुकथा

कवितायेँ - डॉ. अनिता कपूर

नहीं चाहिए


अब
तुम्हारे झूठे आश्वासन
मेरे घर के आँगन में फूल नहीं खिला सकते
चाँद नहीं उगा सकते
मेरे घर की दीवार की ईंट भी नहीं बन सकते
अब
तुम्हारे वो सपने
मुझे सतरंगी इंद्रधनुष नहीं दिखा सकते
जिसका न शुरू मालूम है न कोई अंत
अब
तुम मुझे काँच के बुत की तरह
अपने अंदर सजाकर तोड़ नहीं सकते
डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan मैंने तुम्हारे अंदर के अँधेरों को
सूँघ लिया है
टटोल लिया है
उस सच को भी
अपनी सार्थकता को
अपने निजत्व को भी
जान लिया है अपने अर्थों को भी
मुझे पता है अब तुम नहीं लौटोगे
मुझे इस रूप में नहीं सहोगे
तुम्हें तो आदत है
सदियों से चीर हरण करने की
अग्नि परीक्षा लेते रहने की
खूँटे से बँधी मेमनी अब मैं नहीं
बहुत दिखा दिया तुमने
और देख लिया मैंने
मेरे हिस्से के सूरज को
अपनी हथेलियों की ओट से
छुपाए रखा तुमने
मैं तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में
खंडित इतिहास की कोई मूर्त्ति नहीं हूँ
नहीं चाहिए मुझे अपनी आँखों पर
तुम्हारा चश्मा
अब मैं अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाऊँगी
मैंने भी अब
सीख लिया है
शिव के धनुष को
तोड़ना

 

सीधी बात

आज मन में आया है
डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan न बनाऊँ तुम्हें माध्यम
करूँ मैं सीधी बात तुमसे
उस साहचर्य की करूँ बात
रहा है मेरा तुम्हारा
सृष्टि के प्रस्फुटन के
प्रथम क्षण से
उस अंधकार की
उस गहरे जल की
उस एकाकीपन की
जहाँ तुम्हारी साँसों की
ध्वनि को सुना है मैंने
तुमसे सीधी बात करने के लिए
मुझे कभी लय तो कभी स्वर बन
तुमको शब्दों से सहलाना पड़ा
तुमसे सीधी बात करने के लिए
वृन्दावन की गलियों में भी घूमना पड़ा
यौवन की हरियाली को छू
आज रेगिस्तान में हूँ
तुमसे सीधी बात करने के लिए
जड़ जगत, जंगम संसार
सारे रंग देखे है मैंने
ए कविता .........
तुम रही सदैव मेरे साथ
जैसे विशाल आकाश,
जैसे स्नेहिल धरा,
जैसे अथाह सागर,
तुमको महसूस किया मैंने नसों में, रगों में
जैसे तुम हो गयी, मेरा ही प्रतिरूप
शब्दों के मांस वाली जुड़वा बहनें
स्वांत: सुखाय जैसा तुम्हारा सम्पूर्ण प्यार...
इसीलिए
आज मन में अचानक उभर आया यह भाव-
कि बनाऊँ न तुम्हें माध्यम
अब करूँ मैं सीधी बात तुमसे

खामियाज़ा


डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan सुनो
जा रहे हो तो जाओ
पर अपने यह निशां भी
साथ ले ही जाओ
जब दोबारा आओ
तो चाहे, फिर साथ ले लाना
नहीं रखने है मुझे अपने पास
यह करायेंगे मुझे फिर अहसास
मेरे अकेले होने का
पर मुझे जीना है
अकेली हूँ तो क्या
जीना आता है मुझे
लक्ष्मण रेखा के अर्थ जानती हूँ
माँ को बचपन से रामायण पढ़ते देखा है
मेरी रेखाओं को तुम
अपने सोच की रेखाएँ खींच कर
छोटा नहीं कर सकते
युग बदल, मै ईव से शक्ति बन गयी
तुम अभी तक अहम के आदिम अवस्था में ही हो
दोनों को एक जैसी सोच को रखने का
खामियाज़ा तो भुगतना तो पड़ेगा

अलाव

डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से
समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए ?

डॉ. अनीता कपूर - कविताएँ, चोका और लघुकथा

चोका - डॉ. अनिता कपूर

चोका - 1

तुम्हारी याद
डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan की ओस में भीगी मैं
या बादलों का
पसीना भिगो गया
रही मैं प्यासी
तू बन जा नदिया
हुई मैं रेत
तेरा दिल फिसला
हूँ हवा नहीं
खुशबू हूँ तेरी मैं
न कोई खौफ
न डर ज़हर का
तू इश्क मेरा
अनारकली हूँ मैं
तू कृष्ण मेरा
तेरी ही राधा हूँ मैं
जन्मों की गाथा हूँ मैं

चोका -2

डॉ. अनीता  कपूर - कविताएँ,   चोका और लघुकथा kavita choka laghukatha शब्दांकन dr anita kapoor america shabdankan रिश्ते अजीब
कभी इश्क अजीब
न पूरे कैद
हो पाये हैं, और न
पूरे आज़ाद
खिलखिलाते हुए
रो दिये रिश्ते
देख उम्र छोटी पे
कभी उम्र ही
रो दी छोटे रिश्तों पे
दुखी है हवा
दर्द बेबाक बहा
फफक पड़ी
खुद पर लोरियाँ
हंस रही दूरियाँ

डॉ. अनीता कपूर - कविताएँ, चोका और लघुकथा

किसी एक फिल्म का नाम दो - ओम थानवी

     ‘पथेर पांचाली’ (1955) से लेकर ‘आगंतुक’ (1991) तक सत्यजित राय ने पूरे छत्तीस वर्ष काम किया और छत्तीस फिल्में बनाईं. यानी हर साल एक फिल्म. मगर औसतन. किसी वर्ष कोई फिल्म नहीं बनाई. किसी वर्ष एकाधिक बनाईं.
     उनकी छत्तीस फिल्मों में ज्यादातर फीचर फिल्में रहीं. इनके साथ पांच फिल्में वृतचित्र की विधा में बनाईं और दो लघु फिल्मों के रूप में.
     ‘टू’ या ‘दो’ (1964) उनकी पहली लघु फिल्म थी. ‘पीकू’ (1980) दूसरी. ‘दो’ की घोषित अवधि महज पंद्रह मिनट थी, पर फिल्म लगभग बारह मिनट की है. ‘पीकू’ छब्बीस मिनट की. ‘दो’ श्वेत-श्याम थी, जबकि ‘पीकू’ रंगीन. दोनों फिल्में विदेशी प्रस्ताव पर बनाई गईं. ‘पीकू’ के निर्माता फ्रांसिसी आंरी फ्रेज थे. ‘दो’ अमेरिकी प्रतिष्ठान एसो वल्र्ड थियेटर (यूएस पब्लिक टेलीविजन से संबद्ध) ने बनवाई. एसो ने भारत पर तीन छोटी फिल्मों की योजना बनाई थी, जिसमें इस एक का प्रस्ताव उन्होंने राय को दिया. बाकी दो इंगमार बर्गमैन (स्वीडन) और टोनी रिचर्डसन (इंगलैंड) को. निर्माता चाहते थे राय बंगाल की पृष्ठभूमि में कोई लघु फिल्म बनाएं, मगर अंगरेजी में.
     वृत्तचित्रों को छोड़कर राय ने अपनी सभी फिल्में बंगाल की पृष्ठभूमि में ही बनाईं और बांग्ला जुबान में ही. बस प्रेमचंद की कहानियों पर बनीं ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘सद्गति’ छोड़कर, जिन्हें हम अपवाद मान सकते हैं. ये दोनों फिल्में हिंदी में बनाई गई थीं. प्रसंगवश, कुछ लोग ‘सद्गति’ को भी राय की लघु फिल्म मानते हैं—राय की पत्नी विजया भी—लेकिन लगता है उनका यह आग्रह फिल्म की अवधि (पचपन मिनट) की वजह से ज्यादा होगा. यों भी फीचर फिल्म और लघु फिल्म में एक संधि-रेखा मौजूद है, जहां दोनों तरफ निकटता खोजी जा सकती है. ‘सद्गति’ की दिशा मुझे फीचर फिल्म की ओर ले जाती है, जैसे कि ‘पीकू’ की लघु फिल्म की ओर.
     फ्रेंच निर्माता आंरी फ्रेज का राय से दोस्ताना था. उन्होंने सब कुछ राय पर छोड़ा तो ‘पीकू’ भी बांग्ला में बनी. लेकिन अंगरेजी में लघु फिल्म बनाने का अमेरिकी प्रस्ताव राय को शायद जंचा नहीं. ऐसा नहीं कि अंगरेजी में उनका हाथ तंग था. अंगरेजी में वे सिद्धहस्त थे. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में अंगरेज चरित्रों के संवाद (याद करें जनरल आट्रम की भूमिका में रिचर्ड एटेनबरो) उन्होंने खालिस अंगरेजी में ही रखे. हिंदी में वे कमजोर थे, इसलिए दोनों हिंदी फिल्मों की पटकथा पहले अंगरेजी में लिखी. लेकिन अमेरिकी निर्माता का बंगाली पृष्ठभूमि में अंगरेजी में फिल्म बनाने वाला घालमेल उनको शायद जंचा नहीं. और उन्होंने उनके लिए ‘दो’ नाम से संवादहीन फिल्म बना दी. उसे उन्होंने उप-शीर्षक में ‘एक नीतिकथा’ करार दिया था.‘दो’ को अब मूक फिल्मों की विरासत के प्रति —जिसके राय स्वयं सदा कायल थे—उनकी प्रणति (ट्रिब्यूट) समझा जाता है!
     तो इस तरह ‘दो’ उनकी अकेली ‘मूक’ फिल्म है. वह उनकी सबसे छोटी फिल्म है. वह उनकी सबसे कम देखी गई फिल्म भी है—ज्यादातर राय-पुनरवलोकन आयोजनों में उसकी उपेक्षा होती आई है. और उसे कोई पुरस्कार भी नहीं मिला. इसकी वजह यह रही होगी कि भारत में उसका कहीं प्रिंट ही उपलब्ध न था. इसका अंदाजा विजया राय की आत्मकथा (‘मानिक एंड आइ’) से चलता है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘20 अप्रैल (1985) को एसो (अमेरिकी निर्माता) ने हमें ‘दो’ की एक प्रति भेजी. रात निर्मल्य (आचार्य) घर आए और हम सबने मिलकर इस फिल्म को देखा. यह बहुत छोटी फिल्म है, मगर फिल्म ख़त्म होने पर हमारी आंखें नम हो आई थीं.’
    बीस साल बाद निर्देशक को देखने को मिली फिल्म का वह प्रिंट भी पता नहीं कैसा रहा होगा. हो सकता वीएचएस में रहा हो क्योंकि मिलते ही उसे घर पर देखा गया था. अगर 35 एमएम प्रिंट होता तो बाहर देखा जाता. राय के परिवार से बाद में वह प्रिंट कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय स्थित ‘सत्यजित राय फिल्म एंड स्टडी सेंटर’ को भी उपलब्ध हो सकता था. सेंटर ने ही राय की अनेक (अठारह) फिल्मों का उद्धार (रेस्टोरेशन) लास एंजिलिस में आस्कर एकेडमी से करवाया है. ‘दो’ का सुधार सेंटर के प्रयत्नों से हाल के वर्षों में ही हो पाया है. तब, जब अगले साल इस फिल्म को बने पूरे पचास वर्ष होने को हैं. राय स्टडी सेंटर के संस्थापक निदेशक प्रो. दिलीप बसु ने एक पत्रा के जवाब में बताया कि उन्हें कुछ वर्ष पहले फिल्म का एक 35 एमएम प्रिंट फिलेडेलफिया के फिल्म वितरक से मिला था. उनके मुताबिक़, ‘आस्कर एकेडमी में सुधरा प्रिंट फिल्म का एकमात्रा उपलब्ध प्रिंट है.’
    मगर बारह मिनट की वह लघु फिल्म मेरी समझ में सत्यजित राय की सबसे महत्त्वपूर्ण फिल्मों में एक है. उनकी दूसरी लघु फिल्म ‘पीकू’ को भी मैं उनकी सर्वाधिक अहम फिल्मों में शरीक करता हूं. लेकिन संवादहीनता ‘दो’ को अलग खड़ा कर देती है और फिल्म के हर दृश्य में निर्देशक के दृष्टिकोण के साथ संगीत, सन्नाटा और ध्वनि-प्रभाव, अभिनय और सिनेमैटोग्राफर के काम के आयाम देखने का सर्वाधिक अवकाश उपलब्ध कराती है.
    ‘दो’ और ‘पीकू’ दोनों में निर्देशन के अलावा संगीत राय का अपना था. और दोनों की पटकथा भी. मगर कहानी?
    ‘पीकू’ राय की अपनी कहानी ‘पीकूर डायरी’ से प्रेरित थी. इसी तरह सात फीचर फिल्में (कंचनजंघा, नायक, सोनार केल्ला, जय बाबा फेलुनाथ, हीरक राजार देशे, शाखा प्रशाखा और आगंतुक) उनकी अपनी कहानियों पर आधारित थीं. लेकिन ‘दो’? क्या उसमें कोई कहानी है?
    दरअसल ‘दो’ निरी पटकथा है. उसमें कहानी ढूंढ़ी जा सकती है. पर वह कहानी नहीं है. इस तरह अपनी सबसे छोटी फिल्म में ही सही, सत्यजित राय कहानी से फिल्म को मुक्त करने की सफल चेष्टा कर गए हैं. अब तो कई निर्देशक (मसलन मिशेल हानेके) फिल्म की विधा को कहानी से बाहर ले आए हैं, जहां पटकथा ही फिल्म की कहानी होती है. कोई बंधा-बंधाया एकरेखीय कथासूत्रा फिल्म को नहीं हांकता, जहां निर्देशक बस सूत्राबद्ध घटनाक्रम को दृश्यों में पिरोता चला जाए. मानो एक सदियों पुरानी विधा में कही गई बात को नए युग की दृश्य विधा में अनुवाद-भर कर देने की जुगत हो रही हो. यह कहना एक किस्म का सरलीकरण होगा, लेकिन यह सच्चाई है कि कहानी की गिरफ्त से छूटने में सिनेमा ने—प्रयोगधर्मी सिनेमा ने ही सही—बहुत बरस लगाए.
    आम सिनेमा तो अभी भी पहले कथ्य का आसान आधार या फार्मूला—अर्थात कहानी—ढूंढ़ता है. यह सिलसिला मूक फिल्मों के दौर से शुरू हुआ था, जब फिल्में संवादहीनता यानी इशारों में भी कथा-सूत्रा की तलाश और संकेत-पट्ट पर सूत्रा-प्रदर्शन की कोशिश में संलग्न दिखाई देती थीं. बोलती फिल्में शुरू हुईं तो पटकथा अधिकांशतः संवादों में ढल गई. मोटा-मोटी यही सिलसिला आज भी जारी है. उसे तोड़ा जा सकता है, इसके संकेत भी हमें सिनेमा से ही मिले. और सत्यजित राय इसमें आगे रहे. भले संकेत रूप में, अपनी लघुतम फिल्म ‘दो’ में.
    सत्यजित राय को लेकर भी यह सवाल मुझे मथता रहा है कि उन्होंने हमेशा यथार्थवादी और कथापरक फिल्में ही क्यों बनाईं, जबकि दुनिया भर के फिल्म संसार की खबर उनको थी और मौलिक कर दिखाने की प्रतिभा भी. ‘पथेर पांचाली’ में मूल उपन्यास के साथ पूर्ण निष्ठावान बने रहकर उन्होंने निर्देशन धर्म का अनूठा निर्वाह किया. कथा के सहज कथन-निरूपण ने ही फिल्म को महान, करुणा का सच्चा-सरल दस्तावेज बना दिया. आगे भी वे हमेशा बेहतर कथा-सूत्रा की तलाश में रहे. बाहर न मिलने पर खुद की कहानी चुनी—कुशल कथाकार वे थे ही. इसकी सीधी-साफ वजह, मुझे लगता है, आर्थिक रही होगी. विज्ञापन की बंधी-बंधाई आय का जरिया छोड़कर सिनेमा की दुनिया में उन्होंने कदम रखा और वही उनका रोजगार बन गया. वे जमीन-जायदाद वाले धनी परिवार के न थे. वे बांग्ला में ही काम करते थे और सिर्फ बंगाली दर्शक के लिए फिल्म बनाते थे. ऐसे में फिल्म में पैसा फूंकने वाला निर्माता प्रयोगधर्मी फिल्म के लिए कहां अवकाश देगा?
    विजया अपनी आत्मकथा में—जिसे राय की जीवनी की तरह भी पढ़ा जाएगा—बताती हैं कि साल में एक या दो फिल्में बनाने से गुजर नहीं हो पाती थी. लिखकर राय जो अतिरिक्त कमाते, उसके सहारे ही वे घर चला पातीं. कोई संचय न था, न कभी किया. एक दफा गृहस्थी की गाड़ी फंस गई; मैग्सायसाय एवार्ड का धन मिला तो कुछ महीने का सहारा हुआ.
    समझा जा सकता है कि अमेरिकी प्रतिष्ठान ने बंगाली परिवेश में अंगरेजी में लघु फिल्म बनाने को कहा और अपनी शर्त पर राय ने अंगरेजी को ही गोल कर दिया; नितांत प्रयोगधर्मी फिल्म के रूप में उन्होंने ‘दो’ बनाई. ऐसा मौका और मिलता तो—मैं अंदाजा करता हूं—वे और प्रयोग जरूर करते. अपनी ज्यादातर फिल्में—तेईस—उन्होंने ‘दो’ के बाद ही बनाईं, लेकिन ‘दो’ को दोहराया नहीं जा सका. ‘पीकू’ में भी नहीं.
    इसका अर्थ यह न निकाला जाए कि सिनेमा में सूत्राबद्ध कहानियां कहकर राय ने कोई हल्का काम किया. ‘दो’ में उनकी प्रतिभा के जिस पहलू की झलक मिल जाती है, वह बाद में—जाहिरा तौर पर अवसर के अभाव में—फिर नहीं मिलती. ‘पथेर पांचाली’ या ‘चारुलता’ दुबारा नहीं बन सकती. लेकिन हर फिल्म राय की छाप लेकर जरूर आती है. पर मेरी बेचैनी यह है कि वे नायाब कहानियां फिल्म से कहते हैं, ‘दो’ बीच में कहीं पुरानी रील पर किसी धारी या खुरच की तरह आती है और चली जाती है.
     अब देखें कि ‘दो’ क्या है. ‘दो’ दो बच्चों की ‘कहानी’ है. एक अमीर है, दूसरा गरीब. फिल्म में कोई तीसरा दृष्टव्य चरित्रा नहीं है; बस, पहले बच्चे का कार में जाता अदृश्य अभिभावक है. दोनों बच्चों में कथोपकथन नहीं है. बस बारह मिनट का घटना-क्रम है. निश्चय ही उसे आप दोनों बच्चों के बीच संवाद समझ सकते हैं. पर यह संवाद मामूली हरकतों के साथ, देखते-देखते, किस तरह आपसे, समाज से बड़ा संवाद बन जाता है—वह देखने की चीज है.
    यों ‘पीकू’ के केंद्र में भी बच्चा है. लेकिन उसमें उसकी मां है, नौकरीपेशा पिता है, रोगशैया पर दादा हैं, नौकर हैं और मां का प्रेमी है. सब में संवाद है; पीकू जरूर अपेक्षया मौन रहता है. उसका मनोविज्ञान अचानक घर से चल देने वाले पिता, मरणासन्न दादा, हरी मिर्च खाने वाले नौकर और किसी और के साथ अंतरंग संबंधों में खोई मां के सामने लगभग चुप्पियों में उलझ चुका है.
    ‘पीकू’ में हम पीकू के साथ सबको नाम नहीं तो संबंधों से पहचानते हैं. ‘दो’ में आप सिर्फ अनुमान कर सकते हैं कि फिल्म के शुरू में जो गाड़ी घर से बाहर निकलते देखी, उसमें शायद अमीर बच्चे का पिता या माता हो. बच्चे को शायद नीचे गाड़ी की आवाज से ही पता चलता हो कि माता या पिता निकल रहे हैं. अति-स्वस्थ लड़का गर्वोन्मत चाल में कोला की बोतल गटकते बंगले के टैरेस पर आता है, कार की ओर बेमन हाथ हिलाता है. उसकी कलाई पर घड़ी भी है. गौर करने की बात है कि ‘पीकू’ में भी राय ठीक यही दृश्य दोहराते हैं!
    पिता के जाने के बाद ‘दो’ का पहला लड़का पहली मंजिल वाले विशाल कमरे में लौट आता है, जो कई कमरों में खुलता है. छत और जमीन के गुब्बारे देख आप लक्ष्य कर सकते हैं कि लड़के का जन्मदिन मनाया गया होगा. लड़के के सिर पर ऊंचे कानों वाली बागड़बिल्ले-सी टोपी है. कमरपेटी पर नक्काशीदार म्यान में खिलौने वाली तलवार भी टंगी है. उसे खुश दिखना चाहिए. वह दुखी नहीं है, पर खुश भी नहीं दीखता. खाली घर में अकेले बच्चे की बेचैनी हम साफ भांप लेते हैं. बाल को वह अकारण फुटबाल की तरह उछालता है. दियासलाई जलाता-बुझाता है. ऊपर पंखे के साथ गुब्बारे लटके हैं. वह पास पड़ा गुब्बारा उठाता है और उसे तीली दिखा कर उड़ा देता है. एक और तीली और दूसरा गुब्बारा. हमें बेचैन मन का और पता मिलता है.
    चुइंग-गम मुंह में रखता है. दूसरे कमरे में जाता है. फर्श पर लकड़ी के गोलाकार टुकड़ों से बनी मीनार को और ऊंचा करता है. फिर मेज पर सजे खिलौनों की कतार का मुआयना करता है. लेकिन असल बेचैनी से उसका साबका अभी बाकी है. अकेलेपन के बरक्स वह बेचैनी दाखिल होती है कहीं बाहर से आती बांसुरी की एक आवाज के साथ. वह खिड़की पर जाकर नीचे झांकता है. एक गरीब बच्चा खेत में अपनी झोंपड़ी के बाहर टहलते हुए टूटे स्वरों में बांसुरी बजा रहा है.
    राय उन बिरले फिल्मकारों में थे, जिनकी संगीत की समझ बहुत गहरी थी. भारतीय और पाश्चात्य, दोनों तरह के संगीत की. यों तो वे अभिनय को छोड़कर सिनेमा के हर पहलू पर हाथ आजमा सकते थे. मैंने उन्हें जब अपने स्कूल के दिनों में ‘सोनार केल्ला’ का फिल्मांकन करते देखा, वे कैमरा लेकर खुद ट्राली पर बैठे हुए थे. सुब्रत मित्रा—और बाद में सोमेन्दु राय—जैसे सिद्ध छायाकार साथ होते हुए भी अक्सर वे कैमरे पर अपनी पकड़ का प्रमाण देते थे. यह काफी-कुछ निर्देशन के काम का भी हिस्सा होता है. लेकिन संगीत में निर्देशक उस तरह घड़ी-घड़ी खुद मैदान में नहीं आ सकता. इसलिए शुरू में उन्होंने भारतीय संगीत के उस्तादों का सहयोग लिया. मसलन अपू-त्रायी और ‘पारस पाथर’ में पं. रविशंकर, ‘जलसाघर’ में उस्ताद विलायत खां, ‘देवी’ में उस्ताद अली अकबर खां. ‘जलसाघर’ तो चूंकि एक रसिक रईस के (ढलते सही) ठाठ-बाट पर थी, इसलिए उसमें वे विलायत खां साहब के संपर्कों के चलते बिस्मिल्ला खां, वहीद खां, इमरत खां, बेगम अख्तर आदि को भी ले आए थे.
    लेकिन बहुत जल्द, ‘तीन कन्या’ (1961) से, अपनी फिल्मों का संगीत वे खुद तैयार करने लगे. और बगैर कोई शुल्क लिए. एकाध अपवाद (जैसे फिल्म्स डिवीजन के लिए रवींद्रनाथ ठाकुर पर बना वृत्तचित्रा) छोड़ दें, तो कोई चालीस फिल्मों में सत्यजित राय ने खुद संगीत दिया. इनमें कुछ दूसरों की बनाई फिल्में भी शामिल हैं. पर इस पहलू पर जानकार अलग से चर्चा करेंगे. इस प्रसंग को यहां लाने की वजह केवल यह कि फिल्म संगीत को लेकर जल्दी ही राय की अपनी धारणा बन गई. फिल्म का संगीत आम संगीत रचना से अपने प्रयोजन में ही अलग होता है. फिल्म में वह दृश्य का सहारा, या दृश्य की रंगत के अनुकूल प्रभाव पैदा करने वाला, नहीं हो सकता. इससे आगे जाकर फिल्म का संगीत खुद फिल्म का एक पात्रा बन सकता है. मगर उस तरह के संगीत की रचना मंच की दीक्षा वाला संगीतज्ञ हमेशा नहीं कर सकता. उसके लिए अलग तेवर चाहिए. सत्यजित राय इस बात को पुष्ट करने के लिए अनुपम उदाहरण होंगे. और इसकी पुष्टि में आपको लघु फिल्म ‘दो’ भी जरूर शामिल करनी होगी.
    ‘दो’ पाश्चात्य वाद्य ट्रम्पेट की पुकार के साथ शुरू होती है. फिर कुछ बाहर की आवाजें (लड़का अभी टैरेस पर है). कमरे में लौटते ही ट्रम्पेट के साथ एक और पाश्चात्य वाद्य ट्रंबोन की ध्वनि मिल जाती है, पीछे शायद कोई विदेशी लोकवाद्य. संगीत में जैसे सुरीला होने न होने की उधेड़बुन है! खुशगवार है, पर एक धुन की तरह बहता नहीं जाता, सुर आपस में टकराते लगते हैं. इस गड्डमड्ड संयोजन में संगीत ही हमें बच्चे की उलझी हुई मनःस्थिति की भनक दे देता है. फिर बच्चा जब सोफे पर पसर जाता है, दियासलाई जलाता-बुझाता है, गुब्बारे फोड़ता है, तब—जाहिर है—संगीत की जरूरत नहीं रह जाती. कुछ देर के लिए वह अनुपस्थित हो जाता है.
    उठने के साथ ट्रम्पेट-ट्रंबोन की जुगलबंदी में कोई राजस्थानी अलगोजे जैसा लोकवाद्य उभर आता है (सतारा भी हो सकता है). फिर आधुनिक खिलौनों की कतार, जिसका जिक्र मैंने पहले किया. एक दैत्य का मुखौटा, रोबोट, ड्रम और टिंपनी ‘बजाने’ वाले पशु. लड़का वायलिन-धारी बंदर का बटन दबाता है. बंदर की चीं-चीं के बीच सहसा बाहर से आती बांसुरी की आवाज उसके कानों में पड़ती है. मुड़कर खिड़की की ओर देखता है. खिड़की से नीचे झांकता है. खेत में गरीब बच्चा दिखाई देता है.
    यहां यह बता देना मुनासिब होगा कि खेत का बच्चा सचमुच एक झुग्गी वाले का बेटा था. राय ने यह प्रयोग भी—जाहिर है सफलतापूर्वक—साठ के दशक में कर लिया. बहुत बाद में हमने ‘सलाम बाम्बे’ (मीरा नायर) और ‘स्लमडाग मिलियेनर’ (डैनी बायल) में यही प्रयोग देखे, जिनमें झुग्गियों के गरीब बच्चे कलाकार बने.
    खेत के गरीब बच्चे की बांसुरी दरअसल खिलौने वाली बांसुरी है. बच्चा जो बजा रहा है, उसमें कोई धुन नहीं है. पर सुर साधने की कोशिश पूरी है. बंगले में अकेले-उकताए बच्चे को अपने एकरस शोर करने वाले खिलौनों के सामने बांसुरी की यह आवाज आकर्षित करती है. मगर वंचित का अहं शायद आहत होता है. लड़का बांसुरी वाले लड़के को सबक सिखाने की मुद्रा में मुंह बनाता है और अपने खिलौनों में से ट्रम्पेट उठा लाता है. ट्रम्पेट का मुंह खिड़की के बाहर कर बांसुरी के जवाब में ऊंचे स्वर में बार-बार बजाता है. कमोबेश उन्हीं सुरों में, मानो साधनहीन बच्चे को चिढ़ाने के लिए. बांसुरी का स्वर पिट जाता है. बच्चा बांसुरी नीचे कर झोंपड़ी में चला जाता है. मगर जल्दी ही छोटा ढोल बजाते नाचते हुए लौटता है. ऊपर वाला बच्चा फीकी मुस्कान के साथ इसे नई चुनौती की तरह लेता है और भीतर से ड्रम बजाने वाला बंदर उठा लाता है. इस खिलौने की आवाज हाथ से बजते ढोल से भारी नहीं, पर उसकी मशीनी चाल गरीब बच्चे को मायूस कर देती है.
    झोंपड़ी में लौट लड़का शेर का कबीलाई मुखौटा और धनुष-बाण धारण कर आता है, नाचते-कूदते. पीछे हुडुक जैसे लोकवाद्य की चिहुंक. ऊपर के बच्चे का चेहरा क्षण भर के लिए उतर जाता है. अब वह दैत्य का मुखौटा धारण करता है और खिड़की के बाहर तलवार लहराता है. है-है है-है की ध्वनि का उच्चार करता है, जो फिल्म में मानव की अकेली आवाज है. अब वह फिर से ‘हारने’ को तैयार नहीं. फुरती के साथ वह एक-एक कर कई हमलावर खिलौने और वेश आजमाता है: रेड इंडियन बनकर भाला नचाता है, काउबाय होकर पिस्तौल दागता है, सैनिक के टोप में तलवार भांजता है, मुखौटा लगाकर मशीनगन बरसाता है. मुखौटा उतारता है तो अब उसके चेहरे पर पुती ऊपर बल खाती मूंछें भी हैं. गरीब का धनुष और बाण नीचे हो जाते हैं. मुड़ता है और थके कदमों से लौट पड़ता है, हताशा में मुड़कर एक बार फिर खिड़की की ओर देखते हुए.
    राय की और तमाम फिल्मों की तरह ‘दो’ का संपादन भी दुलाल दत्त ने किया था. सीमित अवधि की जद्दोजहद के बावजूद हमें कोई दृश्य अपनी सीमा—या निर्देशक की जरूरत—को लांघता नहीं दिखाई पड़ता. कहीं कोई झोल नहीं. फिल्म कुछ लम्बी भी की जा सकती थी. निर्माता की तरफ से बारह मिनट की बंदिश शायद ही रही हो. लेकिन जिस तरह एक मौके पर अमीर लड़के का बारी-बारी से हमले के रूप बदलने का प्रसंग है, वे रूप इतना जल्दी बदलते हैं कि लड़के की बेचैनी, झुंझलाहट, ईष्र्या और अकुलाहट को बखूबी पुष्ट कर देते हैं. संपादन का ही कमाल मानिए कि उपर्युक्त दृश्यावली जहां घटित होती है, वहां आधी फिल्म बीत चुकी होती है.
     संपादन के साथ फिल्म का छायांकन भी गौरतलब है. सोमेंदु राय ऊपर और नीचे की दूरी, खेत और बंगले को हमेशा एक निश्चित कोण पर रहकर पकड़ते हैं. तीक्ष्ण तकरार की घड़ी में भी कोई आम तौर पर क्लोज-अप नहीं लेते. न कैमरा पैन करते हैं. न बार-बार जूम करते हैं. निर्देशक के साथ छायांकन का काम इस अर्थ में पूर्णतः एकमेव होता है कि सत्यजित राय बच्चों की तकरार को शायद एक मनोवैज्ञानिक दीवार से ज्यादा नहीं दिखाना चाहते.
    यह सही है कि वह तकरार बच्चों के बीच खेल नहीं है; लेकिन आखीर में है वह सिर्फ दो परिवेशों की टकराहट; कोई युद्ध नहीं है, न स्थाई रंजिश है. संपन्न बच्चे की उलझी हुई मनःस्थिति के पीछे आप उसके अभिभावकों की अभिवृत्ति को देखते हैं और रहन-सहन आदि को भी. इसलिए कैमरा उस चेष्टा में अपनी भरपूर ताल देता है, जहां निर्देशक राय घटना-क्रम के बीच संगीत, वाद्य, ध्वनि—या अध्वनि—प्रभाव के जरिए उस लय को हासिल करना चाहते हैं, जो बच्चों को अंततः बच्चा ही रहने दे. इन कोशिशों में राय सफल न होते तो ‘दो’ एक किस्म की हिंसक फिल्म भी बन जा सकती थी.
    यहां दोनों बाल अभिनेताओं की चर्चा भी करनी होगी. बच्चों से फिल्म के चरित्रा के अनुकूल अभिनय करवाना निर्देशक के लिए टेढ़ी खीर होता है. उस अवस्था में आप उन्हें ठीक से समझा नहीं सकते कि फिल्म का कथ्य किस तरह की भावनाओं की संश्लिष्टता को दृश्यों में विन्यस्त करना चाहता है. लेकिन इस मामले में दोनों बच्चों का चुनाव (कास्टिंग) बहुत माकूल है. दोनों का अभिनय बहुत सायास नहीं है. अक्सर वह इतना मासूम है कि फिल्म के लक्ष्य को बखूबी आगे बढ़ाता चलता है. उनके पीछे—और चीजों की तरह—निर्देशक की सफलता तो अपनी जगह है ही.
    बहरहाल, फिल्म के अंतिम हिस्से की ओर आएं. मशीनगन बौछार, मूंछें धरने के बाद ऊपर के बच्चे में अंततः विजय का गुरूर है. अब बागड़बिल्ले वाली टोपी उसके सिर पर नहीं. चुइंग-गम भी त्याग कर उसे रोबोट पर तिलक की तरह चिपका देता है. शुरू का संगीत लौट रहा है. वह फ्रिज खोल कर सेब निकालता है, साबुत खाता है. खाते-खाते खिड़की वाले कमरे में लौटता है तो खिड़की की ओर देख सहम जाता है. बाहर आकाश में एक पतंग अठखेलियां कर रही है. खिड़की से झांकता है. वही गरीबजान एक हाथ में चरखी, दूसरे से पतंग उड़ाने का सुख ले रहा है. पहली बार उसकी आंखों में भरपूर ख़ुशी और होठों पर अनवरत मुस्कान है. पीछे अलगोजे पर पुरसुकून राजस्थानी लोकधुन.
    ऊपर से लड़का कभी आकाश में पतंग को देखता है कभी खुले खेत में हाथ नचाते लड़के को. हमें लगता है फिल्म यहां जरूर पूरी होने के मोड़ पर है. पर तभी खिड़की के भीतर से हाथ उभरता है. हाथ में गुलेल है. अपनी ‘मूंछ’ के साथ लड़का नमूदार होता है. संगीत थम जाता है. लड़का पतंग पर गुलेल तान कर एक के बाद एक विफल निशाने साधता है. उसकी विफलता गरीब बच्चे की मुस्कान है. फिर अलगोजे की तान. उस मुस्कान में गुरूर नहीं है. फिर भी ऊपर यह बरदाश्त नहीं. कमरे में मुड़कर सोचता है. गुब्बारे फोड़ने वाली बड़ी बंदूक दीवार पर टिकी है. कुछ क्षण के लिए संगीत फिर शांत. फिर कुछ बदली हुई ध्वनि. वह बंदूक उठाकर छर्रे भरता है. एकाग्र निशाना. ध्वनि के नाम पर कोरी हवा की सरसराहट. और किसी फड़फड़ाते पक्षी की तरह पतंग जमीन पर. यहां कैमरा ऊपर से नीचे तेजी से जूम होता है.
    इस दफा ऊपर मुस्कान कुछ चौड़ी है. फटी पतंग को फटी कमीज में फटी आंखों से देखता बालक खिड़की की ओर यों देखता है, जैसे अंततः कहना चाह रहा हो कि मैंने ऐसा तो कुछ न बिगाड़ा था! मूंछों वाला लड़का इठला कर जीभ दिखाता है. गरीब अपनी झोंपड़ी को चल देता है. फिल्म के ठीक शुरू वाला संगीत, ट्रम्पेट और ट्रंबोन, जैसे विजय का उद्घोष. लड़का बजने वाले सभी खिलौने एक साथ बजा छोड़ता है. ख़ुशी पूरे घर में पसर रही है. वह रोबोट में चाबी भर उसे फर्श पर छोड़ देता है, ताकि घर नाप आए.
    तभी खिड़की से फिर बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ती है. रोबोट को छोड़ वह खिड़की की ओर ताकने लगता है. यह उसी बांसुरी की आवाज है. साफ लगता है कि उसकी जीत हवा हो गई. खिड़की यों प्रकट होती है जैसे पूरा आकाश हो, जो उसके पास नहीं है. वह उससे जीत नहीं पाएगा. मूंछें ऊपर हैं, पर सिर झुक रहा है. वह मुड़ता है और खिड़की की तरफ पीठ कर बैठ जाता है.
    उधर रोबोट अपनी गति से चलते उस मीनार से टकरा जाता है, जो इसी बालक ने शुरू में जतन से बनाई थी. मीनार ढह जाती है.
     खिड़की के पार बांसुरी का सुर जारी रहता है. उसे अब कोई नहीं रोकेगा. न ऊंची आवाज से दबा पाएगा. क्योंकि साधनहीन बच्चे में जीवट है.

    'दो' हमारा यथार्थ है। हर सू साधनों से भरा घर और ठीक बगल में साधनहीन। पर वह साधन और साधनहीन की लड़ाई नहीं है। न वहां स्थाई रंजिश है। यह दो परिवेशों की टकराहट है। उनके बीच अपनी जगह बनाती हिंसा और अहिंसा की तकरार। व्यापक अर्थ में कह सकते हैं युद्ध और शांति टकराहट।

    अब तक आपने लक्ष्य कर लिया होगा कि ‘दो’ अत्यंत छोटी फिल्म होते हुए भी उतनी छोटी नहीं. मेरी समझ में वह बहुत बड़ी फिल्म है. इस अर्थ में कि वह हमारे समाज के एक बड़े दुराव को बड़ी सहजता से उठाती है. वह दो अकेले बच्चों की तकरार नहीं है. उसमें बच्चों का मनोविज्ञान है, आधुनिक खिलौनों का समाजशास्त्रा है, टूटे हुए परिवारों की झलक है, अकेलेपन की पीड़ा और उसका असर भी है. वह वर्ग-भेद को उजागर करने वाली फिल्म भी है. साधनों के बीच पलती नाखुशी और गरीबी में निश्छल मुस्कान किसी तरह का सामाजिक सरलीकरण नहीं है, सिनेमा की भाषा में वह यथार्थ का सरल चित्रांकन जरूर है.
    पूरी फिल्म में प्रतीक और बिम्ब बिखरे हैं. चाहे खिलौनों के रूप हों, उनकी बेमेल आवाजें, वाद्ययंत्रों के प्रकार, उनकी भौगोलिक और सांस्कृतिक दूरियां, बच्चे की टोपी या गोल मूंछ, दोनों ओर के मुखौटे, घर का सन्नाटा, खेत की सांय-सांय, लम्बे गलियारे, ऊंची दीवारें, दरवाजों में दरवाजे, खेत के बीच बड़ी दीवार, खेत के एक कोने पर झोंपड़ी—बंगले की तरह वहां भी कोई दूसरा प्राणी नहीं है.
    फिल्म कला के छात्र निश्चय ही ऐसी फिल्म से बहुत कुछ सीख सकते हैं. थोड़े में बड़ी बात कहने की कला. सहज और सरल ढंग से. पारम्परिक कथा या संवादों के सहारे के बगैर. ऐसा कब-कब देखने को मिलता है?
    फिल्म देखकर शायद आप भी मेरी बात से इत्तफाक करें.
    अंत में, फिल्म की एक बड़ी खामी: इसमें केवल दो कलाकार हैं. एक अमीर घर का लड़का, दूसरा खेत वाला. लेकिन अभिनय के नाम पर फिल्म में हमें सिर्फ एक नाम पता चलता है, रवि किरण का. उसने अमीर बच्चे की भूमिका की है. लेकिन गरीब बच्चा? ठीक है वह किसी झुग्गी का वासी था, लेकिन उसका भी कोई नाम तो होगा! यह चूक इतने संवेदनशील, बाल-मनोविज्ञान को रूपायित करने वाले सत्यजित राय से हुई या बाद में किसी और से, कहा नहीं जा सकता. लेख पूरा होते वक्त कैलिफोर्निया से प्रो. बसु ने बताया कि रवि किरण आजकल मर्चेंट नेवी में है. हो सकता है सेवा से निवृत्त भी हो गया हो. कुछ वर्ष पहले वह ‘दो’ फिल्म की तलाश में विश्वविद्यालय के राय अध्ययन केंद्र में पहुंच गया था. पूरी होने के बाद उसने कभी फिल्म देखी न थी!
    मैंने कई दफा सोचा है, रवि किरण की तरह हमारा दूसरा अभिनेता बच्चा भी उतना ही बड़ा हो गया होगा. पता नहीं वह क्या बना हो; पर मुझे लगता है अपने अभिनय को परदे पर वह जरूर देखना चाहेगा. शायद उसे अब यह भी खूब समझ आए कि उसने महान सत्यजित राय के निर्देशन में काम किया था.
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