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अक्ल बड़ी या भैंस - ओम थानवी

om thanvi editor jansatta editorial akl badi ya bhains shabdankan ओम थानवी जनसत्ता संपादक सम्पादकीय अक्ल बड़ी या भैंस शब्दांकन
ओम थानवी, जनसत्ता, १७.०३.२०१३

    प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू का कहना है कि मीडिया में योग्य लोगों की कमी है। मैं उनकी बात से पूरी तरह इत्तफाक रखता हूं। लेकिन उनका यह खयाल हास्यास्पद है कि इस क्षेत्र में योग्यता के लिए न्यूनतम अर्हता तय होनी चाहिए। उनका आशय औपचारिक डिग्री से है। डिग्री शिक्षा का पर्याय नहीं होती। उनका सुझाव इतना सरलीकृत है कि उन्हें खुद देश के उन भोले-नादान लोगों की श्रेणी में ला बिठाता है, जिसकी अतिरंजित कल्पना जब-तब वे हमारे समक्ष पेश करते रहते हैं!
    पहले तो उनसे सहमति की बात। अखबारों में श्रेष्ठ प्रतिभाएं सचमुच बहुत कम दिखाई देती हैं। टीवी-रेडियो मनोरंजन अधिक करते हैं। सोशल मीडिया- ब्लॉग आदि- अपने चरित्र में ही खुला-खेल-फर्रुखाबादी है।
    अखबारों में सबसे बड़ी समस्या है, समझ और संवेदनशीलता की कमी। इसके कारण सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि का उनमें अभाव दीखता है। राजनीतिक उठापटक, खासकर राजनेताओं के बयान और परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों की खबरें मीडिया में छाई रहती हैं। फिर अपराध, मनोरंजन, सिनेमा, व्यापार, खेल (क्रिकेट), फैशन, भूत-प्रेत, ज्योतिष आदि आ जाते हैं। छपाई के बेहतर साधन मिल जाने के बाद बड़ी-बड़ी रंगीन तस्वीरें भी। प्रादेशिक अखबारों की रंगीनी देखकर गुमान होता है जैसे अखबार नहीं, कैलेंडर देख रहे हों; पठनीय से ज्यादा चाक्षुष होकर वे मानो टीवी से होड़ लेने की कोशिश करते हैं।
    न पत्र-पत्रिकाओं में, न हमारे टीवी चैनलों से इसका प्रमाण मिलता है कि अखबार का संपादक (वह कहां है?) और टीवी चैनल (जहां संपादक होता है और नहीं भी होता) का नियंता देश की अर्थनीति, कूटनीति, गरीबी, अशिक्षा, अकाल, सूखा, बाढ़, कुपोषण, खेती, असंगठित मजूरी, बाल-शोषण, स्त्री-उत्पीड़न, जातिप्रथा, सांप्रदायिकता, पर्यावरण, मानव-अधिकार, विज्ञान, साहित्य, कला-संस्कृति के बारे में सरोकार रखता है या नहीं।
    टीवी निरक्षर और अर्द्धशिक्षित समाज में सबसे असरदार माध्यम होता है। मगर हमारे यहां दिन में तोते उड़ाने (मनोरंजन करने) और रात को कव्वे लड़ाने (‘बहस’ पेश करने) में ज्यादा मशगूल दिखाई देता है। देश की अन्य भाषाओं के अखबारों के बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं, पर हिंदी के अखबार धीमे-धीमे हिंदी का दामन ही छोड़ रहे हैं। खबरों की आम भाषा में अंगरेजी हिंदी पर बेतरह हावी है। अगर हमारा बुनियादी उपकरण- भाषा; अगर हम उसे हथियार न भी कहना चाहें- भोथरा जाए तो कहे-सुने की धार कहां से अर्जित होगी?
पेज़ १

    अखबार हों चाहे टीवी-रेडियो, बाजारवाद के चकाचौंध वाले दौर में सबसे बड़ा झटका विचार को लगा है। विचार का जैसे लोप हो गया है। कभी संपादकीय पन्ना संपादक की ही नहीं, पूरे अखबार की समझ का प्रमाण होता था। अब मुख्य लेख का आकार सिकुड़ चला है, संपादकीय टिप्पणियों की संख्या घट गई है, पाठकों की सीधी भागीदारी- संपादक के नाम पत्र- की जगह कम हुई है और संपादकीय पन्ने पर मनोरंजन-धर्म आदि प्रवेश पा गए हैं- बौद्धिक विमर्श के रूप में नहीं, गंभीर सामग्री के बीच हल्की-फुल्की हवा छोड़ने के लिए।
    हिंदी अखबारों में समाचार-विश्लेषण छपने कम हो गए हैं। पहले खबरों के पीछे- खासकर सप्ताहांत में, जब संसद आदि उठ चुके होते हैं और खबरों का दबाव कम रहता है- समाचारों के विश्लेषण की परंपरा थी। संपादकीय पन्ने पर भी साहित्य-विज्ञान-अर्थनीति जैसे गंभीर विवेचन के साथ राजनीतिक गतिविधियों पर केंद्रित लेख नियमित छपते थे। अब उनकी जगह बेहद छीज गई है। प्रादेशिक हिंदी अखबारों में हिंदी के लेखकों से ज्यादा अंगरेजी के ‘ब्रांड’ बन चुके लेखकों को तरजीह दी जाती है। संपादकीय पन्ने पर छपने वाले इनके ‘लेखों’ में गपशप-किस्से ही नहीं, आपको अश्लील लतीफे भी पढ़ने को मिल सकते हैं।
    लेकिन इन चीजों का, यानी मीडिया के दाय में गुणवत्ता की गिरावट का, निराकरण क्या एक विश्वविद्यालय की स्नातक डिग्री, किसी मीडिया संस्थान के डिप्लोमा या वहां की स्नातकोत्तर डिग्री से हो सकता है? कहना न होगा, न्यायमूर्ति काटजू का ध्यान ऐसी डिग्रियों की तरफ ही है। ‘न्यूनतम अर्हता’ की कोई और अवधारणा क्या हो सकती है? बुधवार शाम दूरदर्शन पर इसी मुद्दे पर एक बहस में काटजू साहब के साथ मैं भी मौजूद था। बार-बार वे एक बात कहते थे- अरे, चपरासी के लिए भी न्यूनतम अर्हता अनिवार्य है।
    न्यायमूर्ति सर्वोच्च अदालत से आते हैं, प्रेस परिषद के अध्यक्ष हैं। वे साहित्य के भी गुण-ग्राहक हैं- मिर्जा गालिब को भारत रत्न देने की मांग तक उठा चुके हैं! उनकी शान में पूरी गरिमा कायम रखते हुए मैंने उस रोज यही कहा कि हालांकि साहित्य और पत्रकारिता पूरी तरह दो जुदा चीजें हैं; मगर साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्र, भाषा और विवेक के मामले में सृजनात्मक वृत्ति की अपेक्षा रखते हैं- साहित्य तो है ही पूर्णतया सृजन- तो क्या वे साहित्य में गिरावट देखकर वहां भी किसी डिग्री की जरूरत पर बल देंगे? या साहित्य की समस्या- जो हमारे यहां तो पत्रकारिता से ज्यादा विकट निकलेगी- का निराकरण साहित्य जगत के भीतर खोजने की कोशिश करेंगे?
    वे हर बार ‘चपरासी’ वाली दलील के साथ ही सम पर आते थे। मुझे लगता है मीडिया की जिस समस्या को उन्होंने लक्ष्य किया है, उसका निस्तार न चपरासी वाली दलील में है न साहित्य सृजन की मिसाल में। लेकिन साहित्य के उद्धार के लिए डिग्री की वकालत करना, एक स्तर पर, वैसा ही कदम होगा जिसका सुझाव न्यायमूर्ति मीडिया का स्तर ऊंचा करने के लिए दे रहे हैं।
पेज़ २

    यहां अपने अनुभव से यह बताना चाहता हूं कि मीडिया में नौकरी के लिए आवेदन करने वालों में अब कमोबेश सब स्नातक या मीडिया-डिग्री के धारक ही होते हैं। हालांकि इनमें ऊंची श्रेणी पाए लोग कम होते हैं। लेकिन जनसत्ता में मैंने हिंदी में पीएच-डी किए अभ्यर्थी भी देखे हैं, जिनकी अर्जी में दस-बीस अशुद्धियां देखकर उन्हें कभी साक्षात्कार के लिए ही नहीं बुलाया।
    सामान्य या न्यूनतम औपचारिक शिक्षा की अपनी जगह होती है। लेकिन पत्रकारिता या मीडिया के काम में बुनियादी तौर पर जरूरी हैं खबर को भांपने के लिए समाज और समय की समझ, हरदम विवेक और सरल-सटीक भाषा। किस डिग्री से ये चीजें मिल सकतीं हैं? खास डिग्रियों के बूते पर शिक्षक नियुक्त होते ही हैं। क्या हम नहीं जानते कि हिंदी का ‘विद्वान’ शिक्षक हिंदी पढ़ाते हुए सहज हिंदी से दूर, देश में कैसी जमात तैयार कर रहा है।
    मेरे पिताजी- शिक्षाविद् शिवरतन थानवी- साठ-सत्तर के दशक में शिक्षा की दो पत्रिकाओं (शिविरा पत्रिका और टीचर टुडे) का संपादन करते थे। तब उन्होंने शिक्षा पद्धति में पाठ्य-पुस्तकों की निरर्थकता पर हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिख कर चौंकाया था- ‘कैन वी एबोलिश टैक्स्ट-बुक्स?’ (शिक्षा में पाठ्य-पुस्तकों की जरूरत क्या है?) फिर उन्होंने अध्यापन के प्रशिक्षण (एसटीसी-बीएड-एमएड) पर भी सवाल उठाए। कल मैंने काटजू साहब की चिंता के संदर्भ में पिताजी से पूछा कि शिक्षण-प्रशिक्षण के बारे में क्या अब भी वे वैसा ही सोचते हैं?
    उन्होंने कहा- अब तो हाल और बुरा है। जिस वक्त मैंने विरोध किया, तब शिक्षकों को प्रशिक्षण मुफ्त दिया जाता था। कुछ समय पहले तक भी राजस्थान में सिर्फ दो सरकारी और आठ निजी शिक्षण प्रशिक्षण कॉलेज थे। अब अकेले इस राज्य में करीब आठ सौ निजी कॉलेज हैं और करीब अस्सी हजार शिक्षार्थी! शिक्षा का स्तर और गिर गया है। बेरोजगार शिक्षकों की फौज भी खड़ी हो
    रही है। शिक्षण-प्रशिक्षण महज पैसा बनाने और झूठी उम्मीदें पैदा करने का ठिकाना बन गया है।
    उन्होंने बताया कि शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों की जरूरत के पीछे तब भी मेडिकल शिक्षा की दलील दी गई थी। संसद की मंजूरी से राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के गठन के बाद शिक्षण-प्रशिक्षण के संस्थान इतने पनपे कि परिषद उन्हें काबू न कर सकी।
    क्या पत्रकारिता की ‘शिक्षा’ भी उसी रास्ते पर नहीं जा रही? मुझे लगता है, प्रेस परिषद की कोशिशें अगर सफल हुर्इं और डिग्री-डिप्लोमा कानूनन जरूरी हो गए तो ‘पत्रकार’ बनाने वाली दुकानें कुकुरमुत्तों की तरह पसर जाएंगी। उनमें से काम के पत्रकार कम ही निकलेंगे। बाकी लोग क्या करेंगे, इसका हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। तब पत्रकारिता का हाल शिक्षा से भी बुरा होगा, क्योंकि मीडिया में तो उसका परिणाम फौरन- टीवी-रेडियो पर हाथोहाथ और अखबारों में अगले रोज- सामने आ जाता है! जो इन माध्यमों में नौकरी पाने में सफल नहीं होंगे, वे अपने अखबार/ टीवी खुद चलाएंगे (उसके लिए कोई न्यूनतम अर्हता की जरूरत अब तक सामने नहीं आई है गो कि वह ज्यादा अहम है!)। क्या हैरानी कि तब पेड न्यूज, मेड न्यूज, लेड न्यूज के सारे भेद खत्म हो जाएं!
पेज़ ३

    आपने भी उन लोगों को देखा होगा जिन्होंने पत्रकारिता में डिग्री ली, किताबें लिखीं और विश्वविद्यालयों या मीडिया संस्थानों में शिक्षक बन गए। वे पत्रकारिता पढ़ाते हैं, यानी पत्रकार तैयार करते हैं। मैं दावे से कह सकता हूं कि उनमें ज्यादातर खुद पत्रकारिता करने के काबिल न होंगे। वे कैसे पत्रकार तैयार कर रहे होंगे? मेडिकल शिक्षा मेडिकल काउंसिल की देखरेख में डॉक्टर खुद देते हैं। पत्रकारिता की शिक्षा गैर-पत्रकार कैसे देते हैं? किस नियामक संस्था की देखरेख में देते हैं? क्या चिकित्सकों की तरह पत्रकारों के लिए दोनों काम- पत्रकारिता और शिक्षण- नियमित रूप से एक साथ करना संभव है?
    दरअसल, मेडिकल शिक्षा और मीडिया शिक्षा की तुलना ही असंगत है। मेडिकल शिक्षा में शरीर संरचना की बारीकियां बुनियादी अध्ययन हैं। लेकिन पत्रकारिता के लिए जरूरी भाषा और शैली का संस्कार किसी पाठ्यक्रम से अर्जित नहीं किया जा सकता, उसकी सैद्धांतिक जानकारी ही पाई जा सकती है।
    इसमें हैरानी न हो कि डिग्रियों पर जरूरत से ज्यादा जोर देने का काम काटजू साहब के प्रेस परिषद में आने से पहले से शुरू है। उसी का नतीजा है कि गली-मुहल्लों में ‘मीडिया संस्थान’ खुल गए हैं। अच्छी-खासी फीस लेकर वे पत्रकार बनने के ख्वाहिशमंद छात्रों को सुनहरे सपने दिखाते हैं। काटजू साहब की चली तो ऐसे छात्रों की और बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी।
    शिक्षा के मैं खिलाफ नहीं। न प्रशिक्षण को निरर्थक मानता हूं। वे जीवन भर चलते हैं। लेकिन औपचारिक शिक्षा पद्धति सारी दुनिया में कुछ क्षेत्रों में लगभग निरर्थक साबित हुई है। भरती में उसे बंदिश बनाना सेवापूर्व की उपयोगी शिक्षा या प्रशिक्षण मान लेना है, जो कि वह सामान्यतया नहीं होता। सबमें न एक-सी प्रतिभा होती है, न योग्यता। औपचारिक शिक्षा प्रणाली सबको एक तरह हांकती है। हर शिक्षण और प्रशिक्षण में। पाउलो फ्रेरे और इवान इलिच औपचारिक शिक्षा के जंजाल पर बहुत कुछ लिख गए हैं।
    औपचारिक डिग्री अच्छी पत्रकारिता की गारंटी नहीं हो सकती, इसका एकाध उदाहरण दूं। मीडिया में राजनेताओं की गोद में जा बैठने की प्रवृत्ति पनप रही है। बेईमानी बढ़ रही है। अच्छे वेतन पाने वाले पत्रकारों को भी सरकारी घरों में रहने की चाह सताती है। राज्य सरकारें रियायती दरों पर उन्हें भूखंड देती हैं। रहने के लिए नहीं, मानो व्यवसाय करने के लिए। पत्रकार एक के बाद दूसरा भूखंड लेते देखे जाते हैं और उन्हें आगे बेचते हुए भी। क्या मीडियाकर्मी को ईमानदारी के पाठ के लिए किसी डिग्री की दरकार होगी? डिग्री किस तरह उसके ईमानदार होने का प्रमाण होगी?
    कोई भी डिग्री पत्रकार को अच्छी भाषा, सम्यक विवेक और आदर्शों के पालन की सीख की गारंटी नहीं दे सकती। ये चीजें पाठ याद कर अच्छे नंबर लाने से हासिल नहीं हो सकतीं। इन गुणों को अर्जित करना होता है। वे कुछ गुणों से हासिल होते हैं, कुछ व्यवहार और अभ्यास से। अच्छा होता, प्रेस परिषद के अध्यक्ष डिग्री के बजाय इन चीजों के अर्जन पर जोर देते।
पेज़ ४

    अनेक पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने बड़ा काम किया है, नाम भी कमाया है। लेकिन वे किसी अहम डिग्री के धारक नहीं थे। राजस्थान पत्रिका के संस्थापक-संपादक कर्पूरचंद्र कुलिश शायद मैट्रिक भी नहीं थे। वे पत्रकारिता ही नहीं, उसके व्यवसाय में भी इतिहास रच गए हैं। जनसत्ता के संस्थापक-संपादक प्रभाष जोशी भी स्नातक नहीं हो सके। हिंदी के श्रेष्ठ कवि मंगलेश डबराल कुशल पत्रकार भी हैं- आलेख को संवारने-मांजने (कॉपी-एडिटिंग) का जो सलीका मैंने उनमें देखा, वह दुर्लभ है। वे भी स्नातक नहीं हैं। आउटलुक के संस्थापक-संपादक विनोद मेहता भी खुद को डिग्रियों के सौभाग्य से वंचित बताते हैं। आप कह सकते हैं कि वह दौर ही ऐसा था। पर जनाब उस दौर में ही तो डिग्रियों की कीमत थी, आज तो रिक्शा चालक भी डिग्री मढ़ाकर दौड़ता है!
    लगे हाथ अपना एक दिलचस्प वाकया सुनाऊं, हालांकि अपनी योग्यता को लेकर मुझे खुद सदा संदेह है! मैंने वाणिज्य संकाय में व्यवसाय प्रशासन की स्नातकोत्तर की डिग्री ली। इतवारी पत्रिका (राजस्थान पत्रिका का साप्ताहिक) में ‘रंग-बहुरंग’ स्तंभ लिखता था। उसे पढ़कर कुलिशजी ने नौकरी का प्रस्ताव किया। नौ साल बाद प्रभाषजी ने जनसत्ता, चंडीगढ़ का। चंडीगढ़ में मुझे किसी घड़ी खयाल आया कि विश्वविद्यालय की डिग्री मैंने कॉलेज से अब तक उठाई ही नहीं। बाद में वह कॉलेज के संबंधित बाबू के घर सुरक्षित मिल गई। बताइए, अब वह क्या काम आई, या आएगी?
    वे दिन हवा हुए, जब डिग्री का मोल था। स्टूडियो में काला लबादा ओढ़कर डिग्री हाथ में ले हमारे पूर्वज फोटो खिंचवाते थे। अब कोरे पढ़े हुए नहीं, अर्जित व्यावहारिक ज्ञान का जमाना है। डिग्री मांगने पर तो बाहर अनंत भीड़ आ खड़ी होती है। हम अपनी निर्धारित परीक्षा और अपने मानकों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। उस पर थोड़े ही लोग खरे उतर पाते हैं। खोटे लोग भी आते होंगे। लेकिन काटजू साहब यह न समझें कि योग्यता की कोई परीक्षा मीडिया में है ही नहीं।
    जाहिर है, न्यूनतम अर्हता महज शिगूफा है। काटजू उस पर जोर दें, मुझे कोई शिकवा नहीं। लेकिन मीडिया में जो खामियां और विचलन हैं- ऊपर मैं अनेक गिनवा चुका- उनसे निपटने के लिए दूसरे उपाय खोजने होंगे। हम चाहें तो योग्यता के नए मानक खड़े करें, कौशल परिष्कार के प्रयास करें। आदर्श और आचार-संहिता के कायदे देश-प्रदेश के मीडिया पर लागू करें। लेकिन चपरासी की भरती की न्यूनतम योग्यता का तर्क देकर भटके हुए मीडिया को रास्ते पर लाने का प्रपंच सफल नहीं होगा। आखिर आप किसी दफ्तर के चपरासी की नहीं, देश भर में नए पत्रकारों की पेशकदमी की बात कर रहे हैं, न्यायमूर्ति!
    चलते-न-चलते: जनसत्ता के पूर्व संपादक और मेरे मित्र राहुल देव ने एक दिलचस्प व्यंग्यचित्र भेजा है, जो ऊपर प्रकाशित है। व्यंग्य के पीछे अल्बर्ट आइंस्टाइन की यह मशहूर उक्ति है: ‘‘हर व्यक्ति में मेधा होती है। लेकिन अगर आप किसी मछली की योग्यता इससे तय करें कि वह पेड़ पर चढ़ सकती है या नहीं, तो वह जीवन भर यही मानती मर जाएगी कि वह घोर अयोग्य थी।’’
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पेज़ ५

लोकार्पण : व्यंग्यऋषि शरद जोशी - डॉ वागीश सारस्वत

मानवीय सरोकारों के रचनाकार थे शरद जोशी-डॉ हांडे

Vageesh_Saraswat vyangrishi-sharad-joshi book cover    मुंबई, 14 मार्च 2013
     मुंबई विश्वविद्यालय बी.सी.यु.डी. के निदेशक डॉ राजपाल हांडे ने "व्यंग्यऋषि शरद जोशी" पुस्तक के लोकार्पण के उपरांत कहा कि डॉ वागीश सारस्वत ने यह पुस्तक लिखकर साबित कर दिया है कि व्यंग्यकार शरद जोशी मानवीय सरोकारों के रचनाकार थे। डॉ हांडे ने इस पुस्तक को विद्यार्थियों के लिए उपयोगी बताते हुए कहा कि मुंबई विश्वविद्यालय व उसका हिंदी विभाग हमेशा से ऐसे कार्यों को प्रोत्साहित करता रहा है।
     मुंबई विश्वविद्यालय के फिरोजशाह मेहता सभागार में मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग व लोकमंगल के संयुक्त तत्वावधान में डॉ वागीश सारस्वत की समीक्षा कृति व्यंग्यऋषि शरद जोशी का लोकार्पण समारोह आयोजित किया गया। इसके मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डॉ राजपाल हांडे ने शरद जोशी को जीवन की कड़वी अनुभूतियों का सच्चा रचनाकार बताया।
     अभिनेता व कवि शैलेश लोढा ने शरद जोशी के विषय चयन, विस्तार और गहराई को अपने रचनाकर्म में उभारने की दक्षता को रेखांकित करते हुए कहा कि वे आम जीवन के सजग रचनाकार थे। सामान्य बात से शुरू होकर बड़ी बात तक अपने व्यंग्य को ले जाना शरद जोशी का कौशल था। लोढा के मुताबिक डॉ वागीश सारस्वत ने शरद जोशी के व्यक्तित्व व् कृतित्व का खूबसूरत चित्रण किया हैं और यह पुस्तक लिखकर उन्होंने सिद्ध किया है कि व्यंग्य लिखना आसान नहीं है। दिल्ली से इस कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से पधारे व्यंग्य यात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने इस समरोह को व्यंग्य यात्रा के शरद जोशी विशेषांक का लौन्चिंग पैड बताते हुए वागीश सारस्वत की कृति की प्रशंसा की।
Dr. Madhaw Pandit Karuna Shankar upadhayaya rajpal hande vageesh saraswat vishwanth sachdev dr. ramji tiwari kanhaiyalal saraf prem janmejay rita gupta bala chouhan shabdankan vyangrishi sharad joshi
     नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने शरद जोशी के छोटे वाक्यों की सरचना का जिक्र करते हुए वागीश के समीक्षा कर्म की सराहना की। व्यंग्यकार डॉ सूर्यबाला ने इस पुस्तक को व्यंग्य पर एक गंभीर पुस्तक माना और कहा कि इस पुस्तक के बाद संभव है कि लोग व्यंग्य विधा को गंभीरता से लेने लगे। डॉ रामजी तिवारी ने पुस्तक पर विस्तार से चर्चा करते हुए व्यंग्यऋषि शरद जोशी नाम की सार्थकता को परिभाषित किया और कहा कि वागीश ने पुस्तक को यह शीर्षक देकर ही शरद जोशी के लेखन के महत्त्व का संकेत कर दिया है।
Dr vageesh saraswat sailesh lodha suryabala shabdankan vyangrishi sharad joshi
    मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष करुणाशंकर उपाध्याय ने अतिथियों का परिचय देते हुए बीज वक्तव्य दिया। कार्यक्रम का संचालन डॉ माधव पंडित ने किया। गोपाल शर्मा, डॉ दयानंद तिवारीडॉ सीमा भूतड़ा ने पुस्तक पर समीक्षात्मक वक्तव्य प्रस्तुत किया। डॉ अनंत श्रीमालीसंजीव निगम ने शरद जोशी की व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया। इसके अलावा महाराष्ट्र नव निर्माण महिला सेना की उपाध्यक्ष रीटा गुप्ता, प्रख्यात कवियत्री माया गोविन्द, कथाकार सुमन सारस्वत, मनमोहन सरल, ओमप्रकाश तिवारी, अनुराग त्रिपाठी, सुरेश शुक्ला आदि उपस्थित थे। अतिथियों का स्वागत सोनम गुप्ता, संगीता जैसवाल, अपूर्वा कदम और प्रियंका काम्बले ने पुष्प गुच्छ देकर किया। लोकमंगल के उपाध्यक्ष कन्हैयालाल शराफ ने व्यंग्यात्मक शैली में अतिथियों का आभार व्यक्त किया।

सन्धिकाल में स्‍त्री व अन्य कवितायेँ : मायामृग

माया मृग बोधि प्रकाशन जयपुर jaipur hindi poet poetry maya mrig bodhi prakashan मायामृग

जन्म - अगस्त २६,१९६५
जन्म स्थान - हनुमानगढ़, राजस्‍थान
शिक्षा -एम ए, बीएड, एम फिल (हिन्‍दी साहित्‍य)
सम्प्रति- बोधि प्रकाशन              ... विस्तृत परिचय



जो टूट गया


jo toot gaya kavita maya mrig कविता माया मृग जो टूट गया सधे हाथों से
थाप थाप कर देता है आकार
गढ़ता है घड़ा
गढ़ता है तो पकाता है
पकाता है तो सजाता है
सज जाता है जो....वह काम आता है....।।

हर थाप के साथ
खतरा उठाते हुए
थपते हुए
गढ़ते हुए
रचते हुए
पकाते हुए
टूट जाता है जो....वह टूट जाता है...।।

जो काम आया....उसकी कहानी आप जानते हैं
जो टूट गया, मैं तो उसके लिए लिखता हूं कविता.....।।


अंतिम संस्‍कार से पहले


मर तो उसी दिन गई थी
जब दाई ने अफसोस से सूचना दी थी मां को
और बधाई नहीं मांगी ....
मां ने भीगी आंखें लिए मुंह दूसरी ओर कर लिया था
मुंह बिसूरा दादी ने और
पिता ने सिर को झटका बाएं से दाएं......।

मर तो गई थी उस दिन
पहली बार कदम रखा जब बाहर
नजरें तुम्‍हारी जाने क्‍या खोजती रहीं देह के आवरण चीरकर
कन्‍धे से कन्‍धा रगड़कर निकलते तुम
मेरी हत्‍या के पहले प्रयास में भागीदार थे....।

मर गई मैं तुम्‍हारे कठोर हाथ लगते ही
पहले मेरा नाम मरा
(किसने रखा मेरा नाम 'पीडि़ता')
उसके बाद मौत ने जाने कितने रुप बदले
सपनों की ठंडी लाश का अंतिम संस्‍कार नहीं हो सका....।

antim sanskaar se pahle kavita maya mrig कविता माया मृग अंतिम संस्‍कार से पहले
नहीं डर नहीं रही मौत से
मरने से डरती तो जीती कैसे
हर मौत के बाद जिन्‍दा हुई मैं
यह मौत उनसे अलग तो नहीं.....
लो, जा रही हूं मैं
तुम तुम्‍हारे संस्‍कार पूरे करो
मेरा कोई संस्‍कार, अंतिम नहीं होगा.....।



सन्धिकाल में स्‍त्री

sandhikaal me stri kavita maya mrig कविता माया मृग सन्धिकाल में स्‍त्री


तुम्‍हारे लौटने की खबर के बाद
झाड़ डाले सारे जाले दीवार और छत्त की संधियों से
चमकने लगी सब सन्धियां
जहां अक्‍सर फंस जाती थीं मकडि़यां
अपने ही बनाए जाले में....

जरा मुश्किल से पहुंचे हाथ...पर
इतना भी मुश्किल नहीं जाले झाड़ डालना
यह आज जाना तुम्‍हारे आने की खबर के बाद....

साफ साफ है कोना कोना....
अभी अभी घर साफ करके गई बाई के बाद
फिर से पौंछ डाला सारा फर्श
शीशे की आलमारी की हर पटटी को
नरम कपड़े से पोंछा....तब एक बार कट गया था तुम्‍हारा हाथ
इन्‍हीं के तीखे कोनों से.....

पुराने परदों की उधड़ी तुरपाई के सीने का
सबसे सही समय यही लगा
यही अच्‍छा था कि आज ही धो डालें जाएं
कांसे के सब पुराने बर्तन...इमली के पानी से
जिनमें जम गया है हरापन....
जमा हुआ तो हरापन भी बुरा....।

सब जमा दिया है करीने से
पुराने अखबार से लेकर फट चुकी किताबों तक
तुम्‍हारा लौटना पुरानी किताबों में अधफटे पन्‍नों पर से
अधमिटे शब्‍दों को
अपने अर्थ देते हुए अनुमान से पढ़ना है......
और अनुमान में अर्थ कभी अनर्थ नहीं करते....।

बदल दी चादर बिस्‍तर की जो आज सुबह ही बिछाई थी
पुरानी सब तहाई चादरों को रख दिया पिछवाड़े के कबाड़खाने में
यह समझना नयों को शायद ही आए...
पुराना अगर नया हो जाता है तो नया भी पुराना होता ही है....

पुराने अचार को नए मर्तबान में डाल दिया
पापड़ के पुराने पीपे खोलकर खंगाल लिए
अमृतसरी बडि़यों की तीखी गंध को हवा में फैला दिया डिब्‍बा खोलकर
हवा नए पुराने का भेद नहीं करती
उसमें बनी ही रहती है गंध....जरा सा खुलने भर से
तुम्‍हारे आना से ही जानना था आज ये भी तो.....जान लिया

तुम्‍हारा लौटना ....जान लेने जैसा है, कह देने जैसा नहीं
कहना वो था तुमसे....कि जिसे शब्‍दों में कहा जा सकता होता
तो वे दुनिया के सबसे खूबसूरत शब्‍द होते......


किचन की कब्र में स्‍त्री


यह सच है कि कब्रगाह है किचन
पर कब्र से ज्‍यादा सुकून मिलता भी कहां है
सोचती है स्‍त्री......

पहचानती है स्‍त्री
विद्रोह और विरोध के सब हथियार
जो उसके अपने हैं,
किचन में बीतने वाला वक्‍त...जो उसका अपना है....
दरअसल द्रोहकाल है....

चूल्‍हे में आग जलाते हुए
वह नहीं भूलती आग की आंच
इसीलिए गरम पतीला उतारते हुए भी
नहीं जलते उसके हाथ.....
किचन की कब्र में स्‍त्री kavita maya mrig कविता माया मृग kitchen ki qabr me stri
उबलती हुई सब्‍जी के साथ
उबलते हैं सवाल, जिन्‍हें वह पका नहीं सकी
सवालों का कच्‍चापन
बात का कच्‍चा होना नहीं था पर
पके हुए जवाबों ने कच्‍चे सवालों को उबलते छोड़ दिया.....

इतनी गोल ही होती है हमेशा रोटी
नहीं सीखी अभी वह परिधियां तोड़ना
चौरस्‍ते पर आकर....
टेढ़े मेढ़े रास्‍तों के बारे में वह सिर्फ सोचती है
उन पर चलने की नहीं सोचती.....

सोचते हुए सब करती है वह
करते हुए सब सोचती है वह
जिस बात का जवाब नहीं देती
उसके हाथ देते हैं, बरतनों पर भनभनाते हुए....

आंखें बोलती हैं, प्रेम में कहा था उससे किसी ने
जानती है वह
आंखें बोलती हैं,
अक्‍सर नीचे कर लेती है आंखें, बात करते हुए
शब्‍दों से ज्‍यादा खतरा नहीं, वे उतना ही कहेंगे, जितना कहा जाएगा.....

यह सच है कि उसमें वही सब है जो
कहा उससे उसके पिता ने, भाई ने, प्रेमी ने और पति ने
बस उनके अर्थ
ना पिता को पता थे
ना भाई को
ना प्रेमी को
ना पति को........।

साहित्य मज़ाक नहीं

    सच बोलना अच्छी बात है – हम सब ये जानते हैं.

    अधिकतर हम ये मान कर चलते हैं कि हमसे जो बात कही जा रही है वो सच ही है, लेकिन इसका नाजायज़ फायदा ना उठाया जाए ये भी हमें ही देखना होता है.

    पिछले दिनों एक पुस्तक के विमोचन और उससे जुड़ी गतिविधियों व लोगों पर जिस तरह से रिपोर्टिंग हुई और जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, वो शर्मनाक रहा.

    कोई भी कार्यक्रम उस में शिरकत करने वाले हर इंसान को पसंद आये ऐसा हमेशा संभव नहीं है. मगर क्या इसका ये अर्थ निकलना सही है ? कि वो कार्यक्रम किसी को भी पसंद नहीं आया होगा. मेरी समझ में ये गलत है, आप अपनी राय दें !!

    अब क्योंकि मैं खुद इस समारोह में उपस्थित था, इसलिए पढ़ कर आश्चर्य हुआ, ये सोच कर अजीब लगा कि – जो उस रिपोर्ट को पढ़ेगा, उसे आदतन सच ही मानेगा. आखिर क्या वजह है कि उसे बातों को तोड़ मरोड़ कर, अनावश्यक रूप से सनसनीखेज बनाकर बताया जाए.

    साहित्य को इस तरह के ओछे तरीकों से दूर रखना हमारा कर्तव्य है अन्यथा आने वाले कल को जवाब देना मुश्किल होगा .

    साहित्य मजाक नहीं है और ना ही साहित्यकार या अन्य कोई भी इंसान. हमें ये हक नहीं है कि हम किसी फ़िल्मी गाने को, जो द्विअर्थी हो उसके साथ किसी व्यक्ति-विशेष का नाम जोड़कर संवाद करें ... क्या ये संवाद का तरीका है? जवाब दें !!

    आगे बढ़ने के लिए मेहनत करना बहुत अच्छी बात होती है, लेकिन दिशा का ध्यान रखना उस मेहनत से भी ज्यादा ज़रूरी है. आपस में मतभेद होना एक साधारण बात है लेकिन क्या उस मतभेद को अनावश्यक तूल देना उचित है ? जवाब दें !!

    यदि कोई गलत राह पर जा रहा हो और आप उसे प्रोत्साहित करें, क्या ये मित्रता की निशानी है ? जवाब दें !!

    ऐसे प्रकरण ही हैं जो साहित्य से लोगों को दूर कर रहे हैं ... क्योंकि साहित्य का सौन्दर्य और आकर्षण साहित्यिक रूप में ही है, ना कि किसी सस्ते खबरी अख़बार या टीवी चैनल के रूप में .

    ये सारे विचार उस दिन से ज़ेहन को शांत नहीं होने दे रहे हैं, जब से ये विवाद उठा है ... और कारण ये है कि इससे जुड़े सारे ही लोग प्रिय हैं और सबको अभी बहुत लम्बा सफ़र तय करना है...

    सफर साथ मिलकर ख़ुशी से तय किया जाए तो मंजिल पर पहुँच कर मिलने वाली ख़ुशी चौगुनी होगी... वर्ना अकेले में क्या कोई ख़ुशी मनाई जाती है ?

संजीव की रचनाओं में है आम आदमी की पीड़ा : विभूति नारायण राय

हिंदी विवि में ‘राइटर-इन रेजीडेंस’ संजीव को दी गई विदाई 

वर्धा, 13 मार्च, 2013
     - संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के फैकल्‍टी एण्‍ड ऑफीसर्स क्‍लब में आयोजित एक भव्‍य समारोह में कुलपति विभूति नारायण राय ने ‘राइटर-इन-रेजीडेंससंजीव को चरखा, प्रतीक चिन्‍ह आदि प्रदान कर विदाई दी। विदाई समारोह में विवि के प्रतिकुलपति प्रो.ए.अरविंदाक्षन, ‘राइटर इन रेजीडेंस’ विजय मोहन सिंह मंचस्‍थ थे।


- संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,     अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में कुलपति विभूति नारायण राय ने संजीव के स्‍वस्‍थ व दीर्घायु होने की कामना करते हुए कहा कि वह एक ऐसे रचनाकार हैं, जो अनुसंधानात्‍मक प्रवृति से एक ठोस कार्य करते हैं। उनकी कथनी और करनी में कहीं भी कोई फांक नहीं दिखता है। उनकी रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा और दुख-दर्द परिलक्षित होता है। वे निरन्‍तर समय और समाज के यथार्थ को सामने लाते हैं। उन्‍होंने कहा कि विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापक और विद्यार्थी इनसे लगातार संवाद कर लाभान्वित होते रहे हैं।
    विश्‍वविद्यालय में एक वर्ष बिताए पलों को साझा करते हुए संजीव ने कहा कि यहां के वातावरण को देखकर मैं अभिभूत हूँ। यहां निरंतर विद्वानों से संवाद करने और किसानों की आत्‍महत्‍या के कारणों को देख सका। उन्‍होंने कहा कि अनुसंधान की प्रवृति ने ही मुझे रचनाकार बनाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभायी है
- संजीव, - Sanjeev, : खबर, : News, ~ वर्धा, ~ Wardha, ~  Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, ~ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, उन्‍होंने बताया कि मैं सुबह के उजालों को देखने के लिए रात की गहरे अंधकार में उतरता हूँ और सोचता रहता हूँ कि कैसे यह अंधेरा हमारी जिंदगी से भी छंटता है और उस अंधेरे में अपने पात्रों से रू-ब-रू होता हूँ।
    साहित्‍य विद्यापीठ के विभागाध्‍यक्ष प्रो.के.के.सिंह ने स्‍वागत वक्‍तव्‍य में संजीव की रचनाधर्मिता को रेखांकित करते हुए कहा कि वे एक ऐसे कहानीकार हैं, जिन्‍हें भारतीय लोकजीवन से सच्‍ची मोहब्‍बत है। लेखक का सम्‍मान पुरस्‍कार नहीं अपितु उनको पढ़ा जाना है। उन्‍होंने कहा कि ‘अपराध’ ‘सर्कस’, ‘सावधान नीचे आग है’, ‘सूत्रधार’, ‘जंगल जहॉं शुरू होता है’, ‘प्रेरणास्‍त्रोत’, ‘रह गईं दिशाऍं इसी पार’ जैसी रचनाएं हिंदी जगत में पढ़ी जाती हैं। उनकी ‘पॉंव तले की दूब’ उपन्‍यास को पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि इनकी रचनात्‍मकता जमीन से जुड़ी दूब जैसी है।
    क्‍लब के सचिव अमरेन्‍द्र कुमार शर्मा ने कार्यक्रम का संचालन किया। इस मौके पर राजकिशोर, प्रो.आर.पी.सक्‍सेना, प्रो.हनुमान प्रसाद शुक्‍ल, जय प्रकाश ‘धूमकेतु’, अशोक मिश्र, अनिर्बाण घोष, डॉ. हरीश हुनगुन्‍द, अमित विश्‍वास सहित बड़ी संख्‍या में क्‍लब के सदस्‍य उपस्थित थे।

पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश


पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश दस्तावेज़ pairon ke viruddh Kumar Avdhesh Nigam      आज से करीब ३५ वर्ष पहले जब साहित्य अकादमी अध्यक्ष श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 'दस्तावेज़' के संपादक थे उस वक्त अवधेश निगम जी, कुमार अवधेश की नाम से अपनी कवितायेँ लिखते थे.

     गए दिनों जब विश्वनाथ जी के अध्यक्ष बनने की खबर 'शब्दांकन' पर प्रकाशित हुई, उसे पढ़ कर अवधेश जी ने बातों बातों में ज़िक्र किया कि उनकी कविता, उस समय श्री तिवारी जी ने 'दस्तावेज़' में प्रकशित करी थी -

     मेरे आग्रह पर अवधेश निगम जी ने वह कविता हम कविता प्रेमियों के लिए भेजी इसका उन्हें धन्यवाद.

आगे कविता -


पैरों के विरूद्ध


पैरों के विरूद्ध

बच्चा खेलता रहा

पैरों के विरूद्ध - कुमार अवधेश दस्तावेज़ pairon ke viruddh Kumar Avdhesh Nigam खिलौनों से

तुम सपनो से |

तुम्हे मालूम न था

टूट जाते हैं और फिर खरीदे नहीं जाते

सपने खिलौने नहीं होते |

तुम्हें भी खिलौनों से खेलना था

टूटते, खरीद लाते

इस तरह तुम टूटने से बच जाते |

घुटनों के बल

चलते हुए

जब जब तुमने

अपने पैरों पर चलने की बात सोची

हर बार तुम्हारी आँखों में

एक सपना ठूंस दिया गया

सपना एक साजिश है

वयस्क होने की संभावनाओं और

पैरों के विरूद्ध |

पितृसत्ता धोखा है, धक्का मारो मौका है

पितृसत्ता का पिता या पुरुष से सम्बन्ध

राजेश शर्मा

     "पितृसत्ता धोखा है, धक्का मारो मौका है" पिछले दिनों यह जुमला सोशल मिडिया मे बहुत लोकप्रिय रहा। जहाँ कई लोगो ने इसका खूब इस्तेमाल किया वहीँ कुछ लोग पितृसत्ता को धक्का मारने के प्रस्ताव का विरोध करते भी दिखे। दरअसल पिता की सत्ता को ये लोग चुनौती देना नहीं चाहते। यक़ीनन हिन्दुस्तानी संस्कृति मे पिता का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन जब हम बात पितृसत्ता की करते है तो उसका मतलब सिर्फ पिता से नहीं होता। सतही सोच रखने वाले दोनों पक्षों के लोग पितृसत्ता की बात आते ही पिता को लेकर बहस करने लगते है जबकि यह लड़ाई पिता या पुरुष के साथ कम और उस सोच के साथ ज्यादा है जो सदियों से समाज की एक परम्परा बनी हुई है।

Rajesh Sharma Writer Poet राजेश शर्मा कवि लेखक पितृसत्ता का पिता या पुरुष से सम्बन्ध    पितृसत्ता का अर्थ समझने की जरुरत है। दरअसल पितृसत्ता एक असंतुलन की स्थिति है जिसमे परिवार का कोई पुरुष परिवार व परिवार के सभी सदस्यों के बारे मे निर्णय लेता है और इस प्रक्रिया मे स्त्री या स्त्री भावनाओं की कोई भूमिका नहीं होती। क्योंकि परिवार और समाज मे केवल पुरुष ही नहीं, स्त्री भी एक पक्ष है इसलिए उस पक्ष को नजरंदाज करने से ये असंतुलन पैदा होता है। क्योंकि निर्णय लेने वाला पुरुष अधिकतर एक पिता होता है इसलिए इस व्यवस्था को पितृसत्ता कहा जाता है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है की ये व्यवस्था समाज मे इतनी रच बस गई है की यदि परिवार की भाग-दौड़ किसी स्त्री के हाथ मे भी आ जाती है तो उसके निर्णय भी इसी व्यवस्था से प्रभावित होते है। स्वयं स्त्री होकर भी वह स्त्री भावनाओं के साथ न्याय नहीं कर पाती। घर के सभी निर्णय लेने वाली स्त्री भी जब शिक्षा, संपत्ति, व्यापार आदि का बराबर बंटवारा न कर अपने पुत्र के पक्ष मे जाती है तो भले ही सत्ता माता के हाथ मे हो लेकिन यह पितृसत्ता का ही एक उदहारण है। लेकिन दूसरी तरफ ऐसे भी परिवार है जहाँ परिवार की भाग-दौड़ भले ही पुरुष के हाथ मे हो परन्तु स्त्री पक्ष को नज़रंदाज़ नहीं किया जाता बल्कि परस्पर सहमती से निर्णय लिए जाते है। इस प्रकार के कुछ एक परिवार पितृसत्ता नामक व्यवस्था से बाहर है।

    परिवर्तन की यह लड़ाई वास्तव मे सत्ता परिवर्तन से नहीं बल्कि संतुलन स्थापित करने से सफल होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि घर की भाग-दौड़ चाहे जिस भी पक्ष के हाथ मे हो, वह दूसरे की भावनाओं को नज़रंदाज़ न करें। परिवारों से ही समाज का निर्माण होता है। परन्तु परिवारों का निर्माण व्यक्तियों से होता है। और व्यक्तियों के पास मिल-जुल कर रहने के सिवा कोई चारा नहीं है, इसलिए पितृसत्ता को धक्का मारना ही होगा।

Rajesh Sharma Writer Poet राजेश शर्मा कवि लेखक

राजेश शर्मा

स्नातक (कला)
21.11.1983
जन्म - अमृतसर (पंजाब)
डी-05, आजाद कालोनी, बुद्ध विहार, दिल्ली
संपर्क : 09711949635
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद् मे सहायक लिपिक के पद पर कार्यरत

कविताये नज़में - गीतिका 'वेदिका'


बेहिसाब बारिश
 

तिस पर निर्दयी जाड़ा
जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा

इस कदर बरसा ये बादल
भीग गयी रूह पूरी
निचुड़ गया रोम-रोम
उठ गयी है यूँ फरुरी
डरते कांपते ही बीता
पिछला पूरा ही पखवाड़ा

देखना एक दिन ही
पूरा हमें डूब जाना है
कुछ नहीं जायेगा संग
सब यहीं छूट जाना है
दे रहा देखो बुलावा
काले बादल का नगाड़ा
बेहिसाब बारिश
तिस पर निर्दयी जाड़ा जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा

आजाओ न कभी यूँ ही

आजाओ न कभी यूँ ही
चिट्ठी पत्री से एकदम से

फिर कुछ पूछो न नाम पता
फिर देहरी पर जम ही जाओ
फिर मै थामूं समझ अपना
आखर से आंगन भर जाओ

इक खुशियों भरी सूचना से
घर महका जाओ मद्धम से !

हाँ सबको संबोधन करना
कोई भी अपना छूटे न
स्नेह भी हो आदर भी हो
कोई भी परिजन रूठे न

लेकिन मुझसे ऐसे मिलना
जैसे इक प्रियतम, प्रियतम से !

शत बार प्राण पुकारते


शत बार प्राण पुकारते तेरी राह राह निहारते
जिस देश तेरा द्वार है
उस दिशा दिन भर देखती
मिलता है तम और उजाला
तुम भी मिलोगे सोचकर, ये नयन दवार बुहारते

ये दिन भी ढलता, ढल चुका
सूर्य रथ घर चल चुका
उर कब का जाने गल चुका
तुम इक बार ही देख लो फिर, उम्मीद फिर हम हारते

मेरा द्वार छोड़ के

बिखर गये आखर सारे
सब भाव भावना के मारे
रसहीन हुए सब कवित्त छंद
सुखों के सब द्वार बंद ....!

हंसी बेबसी हुयी
आह से फंसी हुयी
रुदन से कसी हुयी
बड़ी जटिल "आस-फंद"
सुखों के सब द्वार बंद ....!

कौन जी की पीर हरे
क्या लिखे कलम डरे
बिना जिए तुम मरे
मरण तरन का हाये द्वंद
सुखों के सब द्वार बंद ....!

"आओ प्रिये" टेर दी
साँझ दी सबेर दी
चांदनी बिखेर दी
मेरा द्वार छोड़ के
नन्द के हुए आनंद


कि तेरे दिल कि सदा फिर याद आई...


भूल न जाना कि मेरा क्या होगा
कि तेरे दिल कि सदा फिर याद आई

फिर मिलो फिर फिर मिलो मिलते रहो
क्यों ये खांमखां दुआ फिर याद आई

दूर तक संग मेरे फिर वो लौट आना
फिर मुड़े मुझको वफा फिर याद आई

हम गिरे थामा तुम्हारी बांहों ने
वो तेरी कमसिन अदा फिर याद आई

खुद को खूं में तर बतर कर दूँ


कैसे बता तुझे ए दिल मै दिल बदर कर दूँ
ये करूं तो खुद को खूं में तर बतर कर दूँ

फिर नजर फेरूँ तो ये आलम तेरे बिन क्या करूं
अपनी कायनात पर सब कुछ नजर कर दूँ

हाँ बिना तेरे न जीना, साथ भी न जी सकूं
किस तरह ये हाले दिल तुझको खबर कर दूँ

किन गुनाहों के ये बदले दूरियां मुझको मिलीं
क्या करूं कि दूरियों को बेअसर कर दूँ

मै जानूँ या मन ही जान


 
 जनम जनम के तप की मै
कोई बात करूं क्या
सच केवल इतना की
तुमको एक फसल की तरह पाया है

रात रात भर जाग जाग कर
देखा भाला है
हाथों हाथ दिया जल नैनन
और सम्भाला है
मेरा सच की
बोया काटा और उगाया है
तुमको एक फसल की तरह पाया है

आने दिया एक न आंसू
जग न जाने मन की थाहें
मै जानूँ या मन ही जाने
इक छन सौ सौ लाख लाख आँहें
न रोऊँ न मुस्का पाऊं
ऐसे विरहा गया है
तुमको एक फसल की तरह पाया है

पिया अश्रु पूर दिए रस्ते



मैंने पीहर की राह धरी
पिया अश्रु पूर दिए रस्ते
हिलके-सिसके नदियाँ भरभर
फिर फिर से बांहों में कसते...!

हाये कितने सजना भोले
पल पल हंसके पल पल रो ले
चुप चुप रहके पलकें खोले
छन बैरी वियोग डसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!

वापस आना कह हाथ जोड़
ये विनती देती है झंझोड़
मै देश पिया के लौट चली
पिया भर उर कंठ लिए हँसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!


गीतिका 'वेदिका'

शिक्षा - देवी अहिल्या वि.वि. इंदौर से प्रबन्धन स्नातकोत्तर, हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर
जन्मस्थान - टीकमगढ़ ( म.प्र. )
व्यवसाय - स्वतंत्र लेखन
प्रकाशन - विभिन्न समाचार पत्रों में कविता प्रकाशन
पुरस्कार व सम्मान - स्थानीय कवियों द्वारा अनुशंसा
पता - इंदौर ( म.प्र. )
ई मेल - bgitikavedika@gmail.com

अट्ठाईस बरस बाद: कहानी - सुशीला शिवराण ‘शील’

    उसके चेहरे से ही नहीं अंग-अंग से, पोर-पोर से जीत की खुशी छलक रही थी। उसका बरसों का संजोया सपना जो पूरा हुआ था। उसकी दो बरसों की साधना का परिणाम, वह चमचमाती ट्रॉफ़ी उसके हाथों में थी जो उसके चेहरे की चमक को और भी बढ़ा रही थी। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच ट्रॉफ़ी लेते हुए हर्षातिरेक से उसकी आँखें छलक आईं थीं, गला रूँध गया था। टीम की कप्‍तान होने के नाते ट्रॉफ़ी लेने के लिए उसी के नाम की उद्‍घोषणा हुई थी ; किंतु यह जीत उसकी अकेली की नहीं पूरी टीम की जीत थी अत: आँखों-आँखों में कुछ बातें हुईं और अगले ही क्षण पूरी टीम मंच पर मुख्य अतिथि के समक्ष खड़ी थी। ट्रॉफ़ी को ऊँचा उठाए, गर्व और हर्ष से पुलकित टीम दर्शकों के अभिवादन में सर झुका रही थी । पिछले दो बरस किसी चलचित्र की भाँति उसकी आँखों में तैरने लगे। इन दो बरसों में उसने झोंक ही तो दिया था खुद को ! सोते-जागते एक ही खयाल उसे घेरे रहता, बेचैन किए रहता- जीत हमारी है !अर्थशास्‍त्र और लेखा-शास्‍त्र की कक्षा में भी उसे बैलेंसशीट की जगह टूर्नामेण्ट के फ़िक्‍सचर नज़र आते, खाताबही की जगह स्कोर-बोर्ड नज़र आता। उसका सारा प्रबंधन अपनी टीम के प्रबंधन पर आकर केन्द्रित हो जाता। वाणिज्य-स्‍नातक की उपाधि गौण हो चली थी, टूर्नामेण्ट और ट्रॉफ़ी प्रमुख ध्येय। कभी-कभी तो वाणिज्य-स्‍नातक की उपाधि भी लक्ष्‍य-प्राप्‍ति का माध्यम प्रतीत होती।
     वह अकेली नहीं थी जो पिछले दो बरसों से जीत का सपना अपने दिल में पाल रही थी। सौभाग्य से परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर ने भी उसका सपना साझा कर लिया था और वे चारों अपने सपने को साकार करने के लिए जी-जान से जुट गई थीं। चारों ने नेशनल स्टेडियम, दिल्ली में वॉलीबॉल का विधिवत् प्रशिक्षण लेना आरंभ कर दिया था। यूँ तो ज्योति चौधरी स्कूल वॉलीबॉल टीम की भी कप्‍तान रही थी किंतु कॉलेज स्तर पर मुकाबला कड़ा होता है यह जानती थी वह। कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर हुई जान-पहचान दोस्ती में बदली। दिल्ली यूनिवर्सिटी के खेल-मैदान पर एक के बाद एक मिली हार ने उनके दिलों में जीते के सपने का बीज बो दिया था।
पेज़ १

     नेशनल स्टेडियम में मिल रहे प्रशिक्षण से उनका खेल दिन-ब-दिन निखर रहा था। खेल की तकनीक और रणनीति की बारीकियाँ वे बड़े मनोयोग से सीखतीं । परमिंदर और सतीन्द्र का कद लंबा होने के कारण उन्हें आक्रमण, स्मैशिंग का प्रशिक्षण दिया जाने लगा तो ज्योति और जसविन्दर को रक्षा और बूस्टिंग, बॉल बनाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। ज्योति और जसविन्दर के हाथों में ५ किलो की चमड़े की गेंद जिसे मैडिसिन बॉल कहा जाता है, थमा दी गई कि उंगलियों से ही उसे उछाला जाए ताकि उंगलियाँ मज़बूत बनें। चारों सहेलियाँ पूरे जतन से हर पीड़ा को भूल कठोर अभ्यास करतीं।समय के साथ आक्रमण में नई धार आ रही थी और रक्षा और भी सुदृढ हो रही थी।
     प्रशिक्षण के दौरान लगी हर चोट उन्हें मंज़िल के करीब ले जाती प्रतीत होती। पाँच किलो के वज़न की गेंद ने ज्योति की उंगलियों के जोड़ों को मज़बूत ही नहीं कर दिया था उनकी बनावट भी उसे पुरुष की उंगलियों जैसी लगने लगी। जब वह अपने हाथों को देखती तो वे उसे किसी बॉक्‍सर के हाथ नज़र आते किंतु क्षणिक निराशा जीत का खयाल आते ही मन में नई ऊर्जा भर देती और उसके इरादे और मज़बूत हो जाते।
     सुबह ‍६:३० बजे चारों सहेलियाँ दक्षिण दिल्ली स्थित अपने कॉलेज के वॉलीबॉल कोर्ट पर मिलतीं और जी-तोड़ अभ्यास करतीं किंतु वॉलीबॉल में चार नहीं छह खिलाड़ी खेलते हैं। वे चारों तो संकल्पबद्ध थीं; किंतु अन्य दो लड़कियाँ खेल को खेल की मस्ती से ही खेलतीं, गंभीरता से नहीं लेतीं जो कि इन चारों के लिए बड़ी चिंता का कारण था। कहते हैं जहाँ चाह होती है वहाँ राह होती है। सौभाग्यवश इस वर्ष ज्योति विद्‍यार्थी परिषद में चुन ली गई थी अत: कॉलेज की प्राचार्या तक अपनी बात पहुँचाने में उसे किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। टीम की दो खिलाड़ी जो प्रशिक्षण के लिए स्टेडियम नहीं जा पा रही थीं ,उनके लिए प्रशिक्षक की व्यवस्था कॉलेज में ही कर दी गई। अब पूरी टीम सुबह ७ से ९ बजे तक कड़ा अभ्यास करती, अपने लक्ष्य के लिए पसीना बहाती। जैसे-जैसे टूर्नामेण्ट के दिन नज़दीक आते गए उनका संकल्प, उनका अभ्यास और कड़ा होता गया।
    आज जब ज्योति चौधरी अपनी टीम को लेकर मैदान पर उतरी तो एक खिलाड़ी की तरह नहीं एक योद्धा की तरह – करो या मरो वाला ज़ज़्बा लिए। लक्ष्‍य सामने था – मंच पर रखी चमचमाती ट्रॉफ़ी जिस पर उन्हें कब्ज़ा करना था। क्‍वार्टर-फ़ाइनल , सेमिफ़ाइनल के बाद आज फ़ाइनल मैच था और उनकी प्रतिद्वंद्वी टीम में दो राष्‍ट्रीय स्तर की खिलाड़ी थीं। ज्योति, परमिंदर, सतींद्र और जसविंदर तो उनके साथ पहले भी कई मैच खेल चुकी थीं इसलिए इनके ऊपर कोई दबाव न था किंतु मीता और आशा मैच से पहले ही भारी मानसिक दबाव में आ गई थीं और पहले सैट में एक के बाद एक कई चूक करती गईं। टीम को इन गलतियों की भारी कीमत चुकानी पड़ी । पहला सेट २५-१८ से प्रतिद्वंद्वी टीम की झोली में चला गया। सैट की हार के बाद इन चारों ने आशा और मीता का हौंसला बढ़ाया, उनसे स्वाभाविक खेल खेलने को कहा। प्रशिक्षक का अनुभव भी उन दोनों को मानसिक दबाव से उबारने में कारगर रहा। दूसरे सैट में जब टीम मैदान पर उतरी तो पूरे जोश और रणनीति के साथ। प्रतिद्वंद्वी टीम में अनुराधा सबसे कुशल खिलाड़ी थी बाकी खिलाड़ियों का स्तर सामान्य था। प्रशिक्षक ने उन्हें जीत का मंत्र पकड़ा दिया था – गेंद को अनुराधा की पँहुच से दूर रखो। उनकी रणनीति सफ़ल रही और दूसरा सैट २५-२१ से उनके कब्ज़े में था।
पेज़ २

     निर्णायक सैट में दोनों टीमें अपना पूरा दम-खम लगा रही थीं। अनुराधा हर स्मैश में अपनी पूरी ताकत झोंकती किंतु चारों सहेलियाँ फुर्ती से पूरे कोर्ट में बचाव करतीं। अनुराधा की हर रणनीति की काट थी उनके पास। दोनों टीमें अपना सब-कुछ दाँव पर लगाकर खेल रही थी। प्रतिद्वंद्वी टीम तीन बार पिछड़ कर बराबरी पर आ चुकी थी। २३-२३, स्कोर-बोर्ड पर निगाह पड़ते ही दिलों की धड़कनें तेज़ होने लगीं। ज्योति ने टाईम आऊट माँगा और पूरी टीम ने एक वृत्त में खड़े होकर साथी खिलाड़ियों के जोश, ज़ज़्बे और संकल्प को हवा दी और उतर गई मैदान में। गज़ब का संघर्ष था ! परमिंदर की ज़बर्दस्त सर्विस का जवाब अनुराधा ने जानदार स्मैश से दिया ;किंतु ज्योति और परमिंदर ब्लॉक पर तैयार थी और इससे पहले की अनुराधा रिबाउन्ड के लिए सँभलती गेंद उसके पाले में गिर चुकी थी। अब जीत के लिए केवल एक अंक और चाहिए । परमिंदर ने फिर बेहतरीन सर्विस की। इस बार अनुराधा ने नेट के पीछे होकर स्मैश किए। लंबी वॉली चली। ज्योति ने वस्तुस्थिति का जायजा लिया और चतुराई से डोज देते हुए परमिंदर के लिए बॉल ना बना कर विरोधी टीम के पाले में खाली जगह पा गेंद को वहाँ ड्रॉप कर दिया। इसके साथ ही सीटियाँ और तालियाँ बजने लगी और टीम की सभी खिलाड़ी हर्षातिरेक में एक-दूजे से लिपट गईं।
     पारितोषिक समारोह के बाद टीम वैन में सवार हो कॉलेज लौटने लगी। अपने घर सर्वोदय एन्कलेव आने के लिए वह आई.एन.ए. मार्केट पर उतर गई थी। डी.टी.सी की खचाखच भरी बस में उसे बमुश्किल पैर रखने की जगह मिली। किंतु हर बात से बेपरवाह वह मैच के हर क्षण को दुबारा जी रही थी। उसका चेहरा जीत की खुशी से अब भी दमक रहा था। उसकी तंद्रा टूटी, जब एक आशिकमिज़ाज़ युवक ने उसे अश्‍लीलता से स्पर्श करना चाहा। ज्योति ने उस युवक को घूर कर देखा और थोड़ा हट कर खड़े होने के लिए कहा। वह जानती थी कि उस आवारा टाइप युवक पर शायद ही उसकी बात का कोई असर हो, इसलिए वह स्वयं को कठोर शब्दों के लिए तैयार करने लगी । उस दिलफ़ेंक युवक ने जब दुबारा उसे अश्‍लीलता से स्पर्श करना चाहा तो ज्योति ने उसे धमकी भरे अंदाज़ में कहा, “मुझसे बदतमीज़ी की तो ठीक नहीं होगा।” किंतु उस असभ्य युवक पर उन कठोर शव्दों का भी कोई असर न हुआ बल्कि उसने भीड़ की आड़ लेकर ज्योति के वक्ष को छू लिया। ज्योति ने उसे आग्‍नेय नेत्रों से देखा।वह मनचला युवक बड़ी ही ढिठाई और बेशर्मी से मुस्कुरा रहा था। ज्योति ने गुस्से से मुट्‍ठियाँ भींच लीं। तभी एक झटके के साथ ब्रेक लगे और बस युसुफ़ सराय के बस स्टॉप पर रुक गई साथ ही ज्योति के मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई। उस आवारा युवक ने उसके दाएँ उरोज को पूरी ताकत से भींच दिया था। दर्द से ज्यादा वह अपमान से आहत हुई ! यह उसकी आबरू पर हमला था। उसने आव देखा न ताव उस निर्लज्ज युवक की कॉलर पकड़ी और अपनी पूरी ताकत बटोरकर ताबड़तोड़ ४-५ तमाचे उसके मुँह पर जड़ दिए। युवक भौंचक्‍का रह गया। इस तरह की प्रतिक्रिया की तो उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी ! तब तक बस चल दी। उसने कॉलर छुड़ाकर बस से उतरने की चेष्‍टा की। किंतु आज ज्योति ने भी ठान लिया था - और अपमान नहीं। बहुत हो चुका। उसने अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने का निर्णय लिया। उसने भागने की चेष्‍टा करते लड़के की कॉलर पकड़ी और लगभग लटक गई। युवक ने खुद को छुड़ाने की भरपूर कोशिश की। उस उपक्रम में उसकी कमीज़ के २-३ बटन ज़रूर टूटे मगर ज्योति की पकड़ ढीली नहीं पड़ी। युवक का गला घुटने लगा। बस गति पकड़ने ही वाली थी कि वह ज़ोर से चिल्लाया, “बस रोको! मुझे उतरना है।”
पेज़ ३

     ज्योति ने नफ़रत से युवक को धिक्‍कारते हुए कहा, “तुम्हें कहाँ उतरना है ,आज मैं बताऊँगी।” वह ड्राइवर से मुखातिब होकर बोली, “ बस को हौज़खास पुलिस स्टेशन ले चलिए।” तब तक दो-तीन सह्रदय लोग ज्योति की मदद को आ चुके थे। उन्होंने युवक को घेर लिया था। कुछ बस-यात्रियों ने बस को पुलिस-स्टेशन ले जाने का विरोध किया और ड्राइवर से कहा कि जिस को हौज़खास पुलिस स्टेशन जाना है ,उतार दो और बस को अपने रूट पर चलने दो। ज्योति ने गुस्से और हिकारत से उन बस-यात्रियों की ओर देखा और बोली, “ यदि यह युवक आपकी माँ, बीवी और बहन के साथ अश्‍लील हरकत करता तो क्या आप अपनी माँ, बीवी और बहन को सड़क पर उतार कर आगे बढ़ जाते?” ज्योति का यह प्रश्‍न उनके मुँह पर भी सीधा तमाचा था । वे निरुत्तर रह गए ।
     बस चालक ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यात्रियों से कहा, “ भाई लोगो ! जिसनै उतरणा है ,उतर ल्यो बस पुलिस स्टेशन जावगी।” कुछ ने बस से नीचे उतर कर अपनी राह ली और शेष यात्री बस में ही बैठे रहे। बस पुलिस स्टेशन की ओर चल पड़ी। अब युवक का हौंसला पस्त होने लगा। उसने हाथ जोड़ते हुए ज्योति से कहा,” आप मेरी बहन जैसी हैं । मुझसे गलती हो गई। माफ़ कर दो बहन।” किंतु आज ज्योति ने फ़ैसला कर लिया था। वह अपने सम्मान के लिए लड़ेगी। उसे अपमान और हार स्वीकार नहीं, न खेल के मैदान पर और न ज़िंदगी के किसी अन्य क्षेत्र में । अपनी लड़ाई वह स्वयं लड़ेगी ।
     युवक गिड़गिड़ाने लगा, “ दीदी ! मैं आपके पैर पड़ता हूँ। आज छोड़ दो फ़िर कभी किसी लड़की के साथ ऐसा नहीं करूँगा” ज्योति उसका चरित्र देख ही चुकी थी । उसके घड़ियाली आँसुओं का उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज उसने सोच लिया था ऐसे मनचले, आवारा लड़कों को यह बताना ज़रूरी है कि हर लड़की कमज़ोर नहीं होती। कोई उन्हें भी उनके किए की सज़ा दे सकती है यह डर ऐसे आवारा टाइप लड़कों के मन में होना ही चाहिए। वह अश्‍लीलता को दंडित अवश्‍य करेगी।
     बस पुलिस स्टेशन पहुँच गई। उसने निर्भीक हो एफ़.आई. आर दर्ज़ करवाई। पूरी घटना का ब्यौरा लिख कर दिया, जिसे पढ़ते ही थानेदार ने हवलदार से कुछ कहा। सिपाही ने युवक को बंदीगृह में डाला और तीन-चार लातें रसीद कर दीं। बूटों की मार से उसके होंठ के पास से खून बहने लगा और वह ज्योति की ओर याचना की दृष्‍टि से देखने लगा। एक बार तो उसका दिल भी पिघलने को हुआ ;किंतु अब बात दूर जा चुकी थी। वह पुलिस स्टेशन से बाहर आई और तिपहिया पकड़ घर की ओर चल दी।
पेज़ ४

     इस घटना का समाचार उसके घर पहुँचने से पहले ही पहुँच चुका था। पड़ोस का आठवीं में पढ़ने वाला लड़का भी उसी बस में था ,उसी ने भाभी को पूरा वृत्तांत कह सुनाया था। घर में कदम रखते ही भाभी की फ़टकार शुरू हो गई, “ लड़कियों को मार-पीट करना, थाने जाना शोभा देता है क्या? क्या ज़रूरत थी यह सब करने की? लड़कियों को बहुत-कुछ सहना होता है। किस-किस को जवाब देते फ़िरेंगे कि हमारी लड़की थाने क्यों गई? बात आगे वालों तक पहुँच गई तो वे सगाई तोड़ देंगे। एक तो थाने वाली बदनामी और ऊपर से सगाई टूटने की बदनामी ! कौन शादी करेगा तुमसे? तुम्हें खेलने की आज़ादी इसलिए दी थी कि तुम बसों में मार-पीट करने लगो?”
     फ़टकारते-फ़टकारते कर्कशा भाभी की नज़र ज्योति की स्कर्ट पर पड़ी। अब तो वे और भी बरस पड़ीं, “ इस तरह टाँगे दिखाओगी तो कौन नहीं छेड़ेगा? कितनी बार कहा है खेलने के बाद सलवार सूट पहन कर घर आया करो पर तुम्हें कुछ समझ आए तब ना!” ज्योति ने पूछना चाहा कि घुटनों तक लंबी स्कर्ट और स्टॉकिंग में टाँगे कहाँ से नज़र आ रही हैं भला? और जब वह सलवार कमीज़ पहने होती है तो क्या लोलुप आदमियों की कामुक निगाहें उसके वक्ष पर नहीं रेंगतीं? अश्‍लील नज़रें कमीज़ के अंदर शरीर के भराव को छूने की कोशिश नहीं करतीं?
     उसके विचारों की तंद्रा तब टूटी जब बेटे ने पुकारा, “ मॉम ! खाना तैयार हो गया क्या?” सामने दूरदर्शन पर महिलाएँ प्रदर्शन कर रही थीं। हाथों में पोस्टर थे – कपड़े नहीं सोच वदलो। आज अट्ठाईस बरस बाद दुनिया बहुत बदल चुकी है, किंतु नहीं बदली तो सोच ! नहीं बदली तो पुरुषों की मानसिकता, उसकी सामंती सोच जो नारी को केवल जींस, भोग्या मानती है और नारी की आवाज़, उसकी अस्मत को कुचलने के लिए नर पशुता को भी शर्मिंदा कर देता है, बर्बरता की कोई भी सीमा लाँघ सकता है !
     आह दामिनी ! आह निर्भया ! तुम नारी ह्रदय में सदियों से धधकती आग की ज्वाला ही तो थी जो पूरे तेज से जली और बुझ गई ! बिजली की तरह कौंधी और काले बादलों में लुप्‍त हो गई !
पेज़ ५

सुशीला शिवराण ‘शील’
  •  सुशीला शिवराण शील Sushila-Shivran-Sheel २८ नवंबर १९६५ (झुंझुनू , राजस्थान)
  • बी.कॉम.,दिल्ली विश्‍वविद्‍यालय, एम. ए. (अंग्रेज़ी), राजस्थान विश्‍वविद्‍यालय, बी.एड. मुंबई विश्‍वविद्‍यालय ।
  • पेशा : अध्यापन। पिछले बीस वर्षों से मुंबई, कोचीन, पिलानी,राजस्थान और दिल्ली में शिक्षण।वर्तमान समय में सनसिटी वर्ल्ड स्कूल, गुड़गाँव में शिक्षणरत।
  • हिन्दी साहित्य, कविता पठन और लेखन में विशेष रूचि। स्वरचित कविताएँ और हाइकु कई पत्र-पत्रिकाओं – हरियाणा साहित्य अकादमी की “हरिगंधा”, अभिव्यक्‍ति–अनुभूति, नव्या, अपनी माटी, सिंपली जयपुर, कनाडा से निकलने वाली “हिन्दी चेतना”, सृजनगाथा.कॉम, आखर कलश, राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की जागती जोत, हाइकु दर्पण और अमेरिका में प्रकाशित समाचार पत्र “यादें” में प्रकाशित। हाइकु, ताँका और सेदोका संग्रह (रामेश्‍वर कांबोज ’हिमांशु’ जी द्‍वारा संपादित) में भी रचनाएँ प्रकाशित। रश्‍मिप्रभा जी द्‍वारा संपादित काव्य-संग्रह “अरण्‍य” में कविता संकलित।
  • २३ मई २०११ से ब्लॉगिंग में सक्रिय। चिट्‍ठे (वीथी) का लिंक – www.sushilashivran.blogspot.in
  • इसके अतिरिक्‍त खेल और भ्रमण प्रिय। वॉलीबाल में दिल्ली राज्य और दिल्ली विश्‍वविद्‍यालय का प्रतिनिधित्व।
सुशीला शिवराण, हिन्दी विभाग,
सनसिटी वर्ल्ड स्कूल
सनसिटी टाऊनशिप
सेक्‍टर – 54, गुड़गाँव – 122011, दूरभाष – 0124-4845301, 4140765
email – sushilashivran@gmail.com

लघुकथाएं - सुदेश भारद्वाज

खोल

   धारा 144 थी, नई दिल्ली के संवेदन-शील इलाकों के मेट्रो स्टेशन अगली सुचना तक कई दिन से बंद थे । एक बहुत ही संवेदन-शील बाराखम्बा बस-स्टॉप पे सवारियां खड़ी थी। सवारियों का कोई जेंडर-जाति-धर्म नहीं था। खोल से बाहर निकल के वे केवल सवारियां थी। एक छोटा बच्चा काफी देर से अपने उस प्लास्टिक के बोरे को छुटाने की कौशिश कर रहा था जिसमें खाली बोतलें भरी थी। छोटा लड़का किसी अदृश्य तस्वीर को अपनी सुरक्षा के लिए पुकारता रहा - " भाई ! ओ भाई !"
   जितना जोर से वो पुकारता उतना ही जोर से उसे मार और भद्दी गालिया पड़ती। अंततः छोटे बच्चे ने अपनी हिफाजत के लिए बोरे को छोड़ दिया। बोरा छोड़ने के पश्चात भी उस पर मार पड़ती रही। छोटा छुटा कर "भाई ! ओ भाई !" पुकारता वहां से चला गया।
   बड़े लड़के ने बोरे के मुहं को अपनी मुट्ठी से बंद किया और बोरे को जोर से सड़क पर पटका। बोतलें चूर-चूर हो गयी।
   अब वह भुनभुनाता और गलियाँ बकता कनाट-प्लेस सर्कल की और निकल गया। तब भी उसने बोरे के मुहँ को जोर से पकड़ा था। और सड़क पर पटकने का सिलसिला भी बदस्तूर जारी था। नई दिल्ली की संवेदनशीलता में कोई कमी नहीं थी।

   चोर

   हम जब सो के अपनी नींद उठे तो पता चला घर के सब लोग तीन बजे ही उठ गये थे । मैं भी बाबूजी के कमरे में चला गया । आस-पड़ोस के लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था । एक-आध आस-पडोसी तो बाहर गली में जाकर खुसर-पुसर कर रहा था कि चोर को कम्बल दिया गया है, गरमा-गरम चाय पिलाई जा रही है, 100 नंबर पे फोन करते - पर नहीं। चोर आराम से बैठा हुआ है ।
   बाबूजी आने वाले लोगों को बता रहे हैं कि गेट वैसे तो हल्का-सा ढला रहता ही है आज वो रोड़ी-बदरपुर आया था तो चचेरा भाई बता के गया कि ट्रक रित गया है, बस उसकी गलती इतनी-भर रह गयी कि गेट को पूरा सौ-पट खोल के चला गया । बस इसने गेट खुला देखा और ये भीतर आ गया, काफी देर तक ये मेरे पायताने बैठा रहा… मैंने सोचा सुदेश होगा… मैंने इससे पूछा तो इसने कोई जवाब नहीं दिया । फिर मैंने सोचा कि बड़ा होगा पर इसने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया । फिर सोचा कि छोटा होगा तो भी कोई जवाब नहीं मिला । हारकर मैंने लाईट जलाई - ,बस ।
   
   हरेक को बाबूजी इतना ही बता रहे थे । चोर के घर वालों को सूचित किया जा चुका था । दुसरे गाँव से आने में टाइम तो लगता ही है । फिर भी अपने व्हीकल से दस मिनट मुश्किल से लगते हैं पर अब तो आठ बज चुके हैं । सूचित किये हुए भी दो घंटे बीत गये । फिर भी सवा-आठ बजे के आसपास चोर के पिताजी एक-दो आदमी के साथ आन पहुंचे थे । उनकी नजरें नीचे झुकी हुई थी । वे कहे जा रहे थे कि बे-शक इसको जान से मार दो ।
   आखिरकार चोर की स-सम्मान विदाई हुई । उनके जाने के बाद उसका ड्राईविंग लाईसेंस गली में पड़ा मिला । बड़ा भाई जब दिन में देने गया तो चोर पानी-पानी था ।
सुदेश भारद्वाज,
178, रानी खेड़ा, दिल्ली-110081
मोबाइल:- 9999314954

   

कहानी "फिज़ा में फैज़" - प्रेम भारद्वाज

prem bhardwaj editor of pakhi प्रेम भारद्वाज संपादक-पाखी
फिज़ा में फैज़
कथाकार प्रेम भारद्वाज (संपादक पाखी)


    आपमें से किसी ने सुनी है पचहत्तर साल के बूढ़े और तीस साल की जवान लड़की की कहानी। नहीं न! तो सुनिए- .. अर्ज है... कहानी सुनाने से पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि यह एक नहीं, दो ऐसे लोगों का किस्सा है जो आपस में कभी नहीं मिले... दो प्रेमी युगल... दो जीवन... दो पीढ़ियां... दो सोच... उनका अपना रंज-ओ-गम... एक ही वक्त में दो जमानों का अंदाज-ए-मोहब्बत... रेल की दो पटरियां जो आपस में कभी नहीं मिलती... उन्हें जोड़ती है उन पर से गुजरने वाली रेलगाड़ियां... आप उसे वक्त भी मान सकते हैं... हर बार ट्रेन के गुजरने पर पटरियां थरथराती हैं... कुछ देर के लिए दबाव... तनाव... टक्-टक् धड़-धड़... पीछे छूटते समय की नदी... यथार्थ के जंगल... भावुकता के सूखते पोखर-नाले... उपकथाओं और यादों के छोटे-बड़े पुल...
   ऐतिहासिक शहर का एक पुराना मुहल्ला। मुहल्ले की वह तंग और बदबूदार गली... बंद गली का आखिरी मकान... मेरे दाएं बाजू वाले उस जर्जर मकान में अकेले रहता है वह बूढ़ा।
   सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र। न वह मुसलमान है, न मार्क्सवादी, न कोई बाबा... मगर लंबी दाढ़ी न जाने क्या सोचकर रखता है। इस लंबी दाढ़ी की वजह शायद उसका आलस्य रहा होगा। वह आलसी बहुत है। शायद इसी को देखकर ‘स्लोनेस’ उपन्यास लिखा गया होगा।
   मुश्किल यह है कि वह अपने आलस्य को तरह-तरह की दलीलों से जरूरी और उपयोगी साबित करता है। वह अपने आलस्य को पूंजीवाद का विरोधी भी प्रमाणित करता है।
   उसकी तीन रुचियां हैं-ज्यादा पढ़ना, रोडियो सुनना और तीसरी के बारे में उसने किसी को कुछ नहीं बताया। अजीब शख्स है। रुचियां तीन गिनाता है, बताता दो है। कुछ लोग उसे खब्ती और सनकी भी कहते हैं जिसका उस पर कोई असर नहीं पड़ता। वह हमेशा अपनी ही धुन में रहता है।
   एक नौकर है जो उस भुतहे मकान में बूढ़े की देखभाल करता है। खाना बनाने से लेकर उसके लिए बैंक से पैसा लाने का काम उसी के जिम्मे है। उसकी कोई संतान नहीं। उसका बाल विवाह हुआ था। गौने की शुभतिथि पंडित जी ने निकाली थी कि बीच में ही पत्नी चल बसी। उसने अपनी पत्नी को पहली बार चित्ता पर लेटे ही देखा, उसे मुखाग्नि देते वक्त। वह बेहद सुंदर थी। काश! वह औरों की तरह गौने से पहले ही उससे मिल पाता... जी भर कर देख पाता। वह बहुत देर तक हाथ में आग लिए मृत पत्नी को देखता रहा। किसी ने टोका तो वह आग देने के लिए आगे बढ़ा। पत्नी की चिता को आग देते हुए ही उसने मन ही मन संकल्प ले लिया कि वह जीवन में दूसरी शादी नहीं करेगा, चाहे अकेलापन कितना ही कांटेदार क्यों न हो जाए? परिवार और रिश्तेदार के नाम पर उसके यहां किसी को भी आते-जाते किसी ने नहीं देखा। एक रेडियो है जो अक्सर बजता रहता है। यह रेडियो ही उसके अकेलेपन का साथी है। रेडियो ही उसका परिवार, प्यार और समाज है। उसके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता। राज्य सूचना जनसंपर्क के नृत्य विभाग का निदेशक था वह। कथक नृत्य के साथ-साथ ढोलक बजाने में उसका कोई सानी नहीं। कभी-कभी कोई शिष्य उससे मिलने आ जाता हैं। विशेषकर गुरु पूर्णिमा के अवसर पर। इस दिन उसके यहां भीड़ लगी रहती है।
   कमरे में एक तस्वीर टंगी है जो उसके जवानी के दिनों की है। वह युवा है, गले में लटका ढोलक है। सहयोगी कलाकार भी साथ खड़े हैं। इस तस्वीर की खास बात यह है कि उसके साथ देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी खड़े हैं, उसके कंधे पर हाथ रखे। तब वह आज की तरह बूढ़ा नहीं था। आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। 1960 की खिंची तस्वीर है यह। ढोलक नेहरू ने सप्रेम भेंट की था, खुश होकर। वह ढोलक आज भी ससम्मान उसके कमरे में मौजूद है। जब कभी वह बहुत उदास या खुश हो जाता है तो वह उसे घुटनों से दबाकर बजाने लगता है। तब सुबह के चार बज रहे हों या रात के दो, उसको कोई फर्क नहीं पड़ता।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    मोहल्ले के लोग उसकी खुशी और उदासी में फर्क नहीं कर पाते हैं। वह उदास होने पर गंभीर रहता है, यह बात समझ में आती है। लेकिन जब वह भीतर से बहुत खुश हुआ करता है तब भी उसकी मुद्रा गंभीर ही बनी रहती है। इसलिए केवल वही जान पाता है कि वह कब खुश है और कब उदास। शायद दिलीप कुमार की देखी ट्रेजिक फिल्मों का गहरा असर है उस पर।
   उसके घर आने वालों में एक चांदी से बालों वाली पतली लंबी सी औरत है। उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर गजब का तेज है। वह कब आती है, इसका अंदाजा किसी को नहीं। लेकिन दो मौकों पर वह जरूर यहां देखी जाती है। एक तो तब जब यह बूढ़ा बीमार पड़ जाता है, दूसरे 15 सितंबर को। बूढ़े का जन्मदिन। उस दिन नौकर घर पर नहीं रहता। बूढ़ा-बूढ़ी कहीं घूमने नहीं जाते। साथ-साथ खाना बनाते हैं, खाते हैं। केक काटते हैं। मिठाइयां बांटते हैं। बूढ़ा तबले पर थाप देता है और बूढ़ी नृत्य करती है। कथक नृत्य। जन्मदिन का जश्न सिर्फ वे दो जन ही मनाते हैं। ठीक नौ बजे वह औरत अपने घर लौट जाती है। पिछले चालीस सालों से किसी ने उस बूढ़ी औरत को बूढ़े के घर रात को रुकते नहीं देखा, चालीस साल पहले दोनों अधेड़ मगर खूबसूरत थे।
   सचमुच ही चालीस साल पहले वह बेहद खूबसूरत थी। बूढ़े के विभाग में ही नृत्यांगना थी। उसकी सहयोगी कलाकार- -- पहले उसने बूढ़े को गुरु माना... लेकिन गुरु-शिष्य का यह रिश्ता बहुत जल्द दूसरे रिश्ते में बदल गया... दोनों में से किसी ने एक दूसरे को आई लव यू नहीं बोला... कोई खत नहीं लिखा... चांद तारे तोड़ लाने के वादे नहीं किए- -- एक नहर थी जो एक दिल में दूसरे दिल तक बहने लगी... बहती रही... वह दक्षिण भारतीय थी जिसके पिता पटना में बस गए थे... एक बार उसने शादी की बात अपनी मां से की तो उन्होंने कहा-‘अगर तुम सचमुच ही उससे प्रेम करती हो... और चाहती हो प्रेम बना रहे तो उससे कभी शादी मत करना... यह मैं अपने अनुभव से कह रही हूं जब प्रेमी पति बन जाता है तो प्रेम भी अपनी शक्ल बदल लेता है, वह कुछ और हो जाता है... प्रेम नहीं...।’ मां ने उससे शादी नहीं करने के लिए कहा, वह किसी से भी शादी करने की इच्छा को भस्म कर बैठी। बूढ़े ने भी कभी उससे नहीं कहा-‘तुम सबको छोड़कर मेरे पास चली आओ...।’ दोनों एक दूसरे का दर्द समझते थे। घाव सहलाते थे। भाषा कहीं नहीं थी... शब्द तिरोहित थे, सिर्फ भाव... भाव ही।
   बाएं तरफ नया मकान बना है, पुराने मकान को तोड़कर। मकान मालिक ने इसे फ्रलैटनुमा बनाया है, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित। उसके पहली मंजिल पर एक लड़की रहती है। दुबली-पतली। लम्बी। छरहरी। उसके ठीक बगल वाले फ्रलैट में एक लड़का भी रहता है। दोनों एक ही कॉल सेंटर में काम करते हैं। कभी-कभी लगता है वे समय की सीमाओं से परे की चीज हैं। उनके न सोने का समय है, न जागने का। न घर से दफ्रतर जाने और न दफ्रतर से घर लौटने का। उनकी जीवनशैली समय सारणी का अतिक्रमण करती है।
   पड़ोस के लड़के से उसकी दोस्ती हुई। वह फ्रेंड बना। फिर ब्वॉयफ्रेंड। मामला और आगे बढ़ा और दोनों रिलेशनशिप में एक साथ रहने लगे। बिना शादी के पति-पत्नी की तरह। सहजीवन। जीवन के साथ जंजाल से दूर। कितने पास, कितने दूर। दोनों ने एक फ्रलैट खाली कर दिया। वे अब एक ही फ्रलैट में साथ रहने लगे। एक फ्रलैट का किराया बचाया। उन्हें सुख चाहिए था, संतान नहीं। शादी का ताम-झाम भी नहीं। वे सवालों, सरहदों में घिरना और बिंधना नहीं चाहते थे। इसलिए साथ-साथ थे।
   लड़की की तीन रुचियां बड़ी ही झिंगालाला है। एक है मोबाइल से नए गाने सुनना। फेसबुक पर रातों को चैटिंग करना और मॉल में तफरीह करना। उसी दौरान किसी मुर्गे (लड़के) को पटाकर महंगे रेस्टोरेंट में अच्छा खाना या फिल्में देखना। लड़की की एक और खूबी है जो अब उसकी आदत बन गई है और वह है खूबसूरत झूठ बोलना। वह जहां कोई जरूरत नहीं होती वहां भी अपने झूठ बोलने के कला-कौशल का मुजाहिरा किए बिना नहीं रहती।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    उस लड़की ने मान लिया था कि साथ रह रहे लड़के के साथ उसको प्यार हो गया है। वह उसके प्रति समर्पित है, बहुत केयरिंग है। लेकिन साल भर के भीतर लड़के को इस बात का बोध हो गया कि जिस लड़की के साथ वह रह रहा है उसके प्रति आकर्षण के तमाम तत्व समाप्त हो गए हैं। अब उसका साथ ऊब पैदा करता है। जब आकर्षण ही नहीं तो प्यार कैसा? अब लड़की की नजाकत उसका ‘इगो-प्रॉब्लम’ लगने लगा। अब वे दोनों बात-बात पर झगड़ पड़ते। लड़के ने तय कर लिया कि अब लंबे वक्त तक साथ नहीं रहा जा सकता। उसने किनारा कर लिया। वह किसी दूसरी लड़की के साथ रिलेशनशिप में रहने लगा। लड़की को बुरा लगा। सपने को झटका। हालांकि लगना नहीं चाहिए था। जिस रिश्ते की बुनियाद ही इस गणित पर टिकी हो- सुख के लिए साथ। जिस दिन किसी दूसरे से सुख ज्यादा मिला, पुराना रिश्ता खत्म। लेकिन लड़की को बुरा लगा। लड़की थी न। कुछ दिनों तक उदास रही। रोई-धोई। खाना छोड़ा। उसके सभी दोस्त जान गए कि उसका ब्रेकअप हो गया है।
   और उधर दाएं वाले मकान में? जैसा कि मैंने अर्ज किया था बूढ़े को रेडियो सुनने की सनक है। वह किसी गाने को सुनते हुए एक खास दौर में पहुंचकर उसे जीने लगता है।
   रेडियो सुनने का उसका खास स्टाइल था। वह चारपाई पर लेट जाता रेडियो उसके पेट पर पड़ा बजता रहता। कभी वह सिर्फ रेडियो ही सुनता। कभी वह रेडियो सुनते हुए कोई किताब पढ़ रहा होता। कई बार ऐसा होता कि रेडियो उसके लिए लोरी और थपकी का काम करता और वह सो जाता। घंटों सोता रहता। रेडियो का संगीत बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह माहौल रचता। संगीत उसे सपनों की दुनिया में ले जाता।
   विविध भारती के ‘भूले बिसरे गीत’ कार्यक्रम में गीत बज रहा था-‘जब तुम ही चले परदेस, लगाकर ठेस... ओ प्रीतम प्यारे’ बूढ़े को अपना जमाना याद आया। चालीस का दशक... ‘रतन’ फिल्म को देखने के लिए वह अपने गांव से पटना चला गया था। गांव के कुछ दोस्तों के साथ। वहां उसने एलिफिस्टन में यह फिल्म देखी थी। जोहराबाई अंबाले वाली की आवाज ने तब के युवाओं पर जैसे जादू कर दिया था... उस आवाज का दीवाना वह भी था। इसके गाने उसने रेडियो में भी सुने। पचास के दशक में ही विविध भारती शुरू हुआ था... गांव-ज्वार में सबसे पहले उसके यहां ही रेडियो आया था... सामंती परिवार... उसको न जाने क्यों नृत्य सीखने की सनक सवार हो गई... सिखाने वाला कोई उस्ताद नहीं मिला- -- उस्ताद ढूंढ़ने के लिए वह भागकर मद्रास पहुंच गया... चिन्ना स्वामी के यहां। छह महीने तक उन्हीं के यहां रहकर नृत्य सीखा... सेवक बनकर वहां रहा... स्वामी ने ही बताया कि उनके एक शिष्य हैं पटना में मदन मिश्रा। आगे की चीज उनसे सीखो। स्वामी ने बताया कि रियाज जरूरी है... वह घर लौट आया... रियाज के लिए जगह थी नहीं। तब वह गांव से बाहर आम के घने बगीचे में रात को जब सारा गांव सो जाता था, तब वह वहां रियाज करता था... बारह बजे से चार बजे तक, क्योंकि चार बजे के बाद गांव वाले उठ जाते। यह सिलसिला साल भर चला। एक दिन बगीचे से गुजरते हुए किसी ने रात को साढ़े बारह बजे ‘ता थई ता-ता-थई...’ की थाप सुन ली... उसने पूरे गांव वाले को बोल दिया... ‘उस आम के बगीचे में भूत आता है, साला नए डिजाइन का भूत है... कथक करता है...।’ कुछेक वैज्ञानिक किस्म के गंवई लोगों को यकीन नहीं हुआ तो वे सच्चाई को जानने के लिए खुद बगीचे पहुंचे, मगर ता-थई-ता-ता-थई की आवाज सुनकर उनके होश फाख्ता हो गए, लौट गए उल्टे पांव... जान बचाकर...।
   संगीत और नृत्य की बहुत कठिन साधना की उसने। जिस दिन उसने पटना में नृत्य का पहला प्रदर्शन किया था उसी दिन से उसका सामंती परिवार उससे सदा के लिए अलग हो गया। घरनिकाला हो गया। पिता ने कहा-‘दाग लगा दिया खानदान के दामन पर... साला नचनिया हो गया...। अगर मालूम होता कि जवान होकर ता-थैया करेगा तो पैदा होते ही टेटूवा दबा देते...।’
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    पिता का यह आशीर्वाद था उसके ऐतिहासिक प्रदर्शन पर जिसे देखने के लिए राज्य के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू और देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद दोनों उपस्थित थे।
   सुना था, संगीत जोड़ता है। यहां तो संगीत ने संबंधों का तार ही तोड़ दिया। दो में से चुनाव करना था उसे, संगीत और संबंध के बीच। संबंध माने परिवार और समाज। उसने संगीत को चुना। और क्रांतिकारी होने के दंभ से भी अछूता रहा। संगीत के चुनाव ने उसके जीवन को सूनेपन और अकेलेपन की सलीब पर टांग दिया। घर-समाज की नजरों में वह बागी था। उसने कहीं पढ़ा था, उम्र के 35 साल तक हर युवा को बागी ही होना चाहिए। परिवार वालों के लिए वह मर चुका था। केवल मां ही थी जो पटना में डॉक्टर को दिखाने के बहाने मामा के साथ मिलने आतीं। मां उसके लिए खाने को वे तमाम चीजें बनाकर लातीं जो उसे पसंद थीं। अपनी आंखों के सामने खिलातीं और अपलक देखते हुए रोती-सुबकती रहतीं। बोलतीं कुछ भी नहीं... आशीर्वाद देने के अलावा।
   जीवन में आए उस खालीपन को तब रेडियो ने ही भरा था वरना वह पागल हो जाता। पागल वह भी थी... साथ नृत्य करते हुए। तब गजब की सुंदर थी वह। बदन में कमाल का लोच था। वह जहां थी, उससे भी आगे जा सकती थी। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना बनने की प्रतिभा थी उसके भीतर... लेकिन वह उससे दूर नहीं जाना चाहती थी- -- प्रसिद्धि अक्सर अपनों से दूर कर देती है... कई बार खुद से भी... प्रसिद्धि नहीं, प्यार अभीष्ट था उसका। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी ने ही उसे उन मुश्किल दिनों में बचाया। मगर वह दो साल का समय बूढ़े पर बहुत भारी पड़ा था, जब वह सरकारी टूर पर अमेरिका चली गई थी। वह एक पतझड़ था जिसकी अवधि दो साल तेरह दिन की थी। रेडियो और प्यार की जुगलबंदी जैसे कुछ वक्त के लिए ठहर गई हो।... सांसे लेता था, मगर जैसे जिंदा होने का भरम नहीं बचा... आंखों में नींद की जगह इंतजार ने ले ली... वह बिस्तर पर सोने की कोशिश करता तो बेचैनी से भर जल बिन मछली की तरह तड़पने लगता...। तब वह नौकरी में ही था... मंच पर कार्यक्रम देते वक्त एक बार तो गिर पड़ा था... खाना नहीं खाने के कारण बहुत कमजोर हो गया था वह... उस दिन के बाद तो उसने तीन महीने की छुट्टी ही ले ली...। आस-पड़ोस के बच्चे उसे चिढ़ाने भी लगे थे। जब भी वह छत पर उदास बैठा होता, कोई बच्चा दौड़ता हुआ आता और आवाज देता-‘चाचा नीचे चलिए अमेरिका से किसी विजयलक्ष्मी का फोन आया है... होल्ड पर है...।’ तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उसकी उदासी क्षण भर में काफूर हो जाती वह दौड़ा-दौड़ा पड़ोसी के घर जाता, तब पता चलता... बच्चे तो मजाक कर रहे थे, किसी का फोन नहीं आया... विजयलक्ष्मी का तो पिछले दो महीने से नहीं...। बच्चों का मजाक बढ़ता गया... बच्चों की देखा-देखी बड़े भी इस तरह उसके प्यार और प्यार के इंतजार का मजाक उड़ाने लगे... तंग आकर उसने खुद अपने ही घर में फोन लगवा लिया... फोन आए या न आए... वह इस तरह अपमानित होने और मजाक बनने से तो बचेगा...। लेकिन लोग तो लोग हैं... कुछ तो कहेंगे ही... विभाग के लोग आते... वे भी चुस्की लेते... लगता है अब तो विजयलक्ष्मी अमेरिका से शादी कर के ही लौटेगी... अपने साथ किसी अमेरिकी गोरे को पति के रूप में साथ लाएगी... बहुत संभव है... वह लौटे ही नहीं... शादी कर वही सैटल हो जाए... ईमानदारी की बात है कि इन बातों को सुनकर वह विचलित हो जाता... मगर उसे अपने प्यार पर भरोसा था।
   वह लौटी। और अकेले लौटी। बिना शादी किए। और सीधे एयरपोर्ट से उसी के पास पहुंची... लगा कोमा में पड़े किसी आदमी के भीतर जीवन की हलचल लौट आई हो...। पहली बार जाना कि लौटने का सुख असल में होता क्या है? उस दिन वह सुबह की चाय पी रहा था। विविध भारती पर कार्यक्रम ‘संगीत-सरिता’ चल रहा था। गाना... अंखियां संग अंखियन लागे न...।’
   अचानक रेडियो में गाना आना बंद हो गया। उसे लगा प्रसारण में अवरोध है। मगर नहीं... दस मिनट तक रेडियो खामोश रहा। कुछ देर बाद वह उठा, रेडियो के स्विच को घुमाया... ट्यूनिंग भी की... सिर्फ खर-खर की आवाज...। रेडियो में कुछ खराबी आ गई थी। उसका मूड खराब हो गया। रेडियो के बगैर उसका जीवन जैसे ठहर गया। उस दिन उसने नाश्ता भी नहीं किया। नहाया नहीं। दस बजते ही वह एक झोले में रेडियो को लेकर उसे बनवाने बाजार निकल गया। उसके जेहन में जो रेडियो मरम्मत की दुकान थी उसमें मोबाइल बिक रहा था। नए-नए मॉडल के मोबाइल। उसने बहुत ढूंढ़ा। मगर रेडियो ठीक करने वाली दुकान उसे नहीं मिली। पता करने पर एक ने बताया बगल के मुहल्ले में एक बुजुर्ग मियां जी हैं, वे अब भी रेडियो बनाते हैं। उसके पहले लोगों ने समझाया, अब चीजें ठीक नहीं होती, बदल दी जाती हैं। नया रेडियो ले लीजिए। मगर बूढ़े की जिद। उसे रेडियो को बदलना नहीं, ठीक कराना है। जो हमारे पास पहले से है और जो खराब है, उसे ठीक करना है ताकि वह पहले की तरह काम करने लगे। उसे दुःख हुआ कि खराब चीज को ठीक करने वाले कारीगर हमारे समाज से गायब होते जा रहे हैं, गायब हो गए हैं।
   वह मुस्लिम बस्ती थी, शहर के बीचोंबीच। भीड़-भड़ाका। देह से छिलती देह। मानो कोई मेला हो। एक तेज उठती गंध। बुर्कापरस्त मुस्लिम महिलाएं। छतों पर पतंग उड़ाते बच्चे। कबूतरों का झुंड। दुकानों पर फैन, बिस्किट और बेकरी खरीदने वालों की भीड़।
   एक जमाने बाद वह इस मुहल्ले में आया था। बड़ी मुश्किल से फूकन मियां वाली गली मिली, मस्जिद के ठीक सामने। दुकान बंद थी। टूटा-फूटा साईन बोर्ड अब भी लटक रहा था, किसी पुरानी याद की तरह... यहां रेडियो-ट्रांजिस्टर की तसल्लीबख्श मरम्मत की जाती है। फूकन मियां रेडियोसाज...।
   बूढ़े ने सोचा... नमाज का वक्त है? शायद दुकान बंद कर फूकन मियां नमाज पढ़ने गए होंगे? आज है भी तो जुम्मा। इंतजार करते डेढ़ घंटा हो गया। तीन बज गए। दुकान नहीं खुली। नमाज पढ़ने वाले तमाम लोग मस्जिद से बाहर निकल आए थे।
   उसने बगल के बेकरी की दुकान वाले से तफ्रतीश की तो जवाब मिला... ‘अरे फूकन मियां की बात कर रहे हैं... उनकी यह दुकान तो पिछले छह महीने से बंद है।’
   ‘वो मिलेंगे कहां?’
   ‘कब्रिस्तान में बैठे बीड़ी सुड़क रहे होंगे?’
   ‘मतलब?’
   ‘गलत मत समझिए... वो दिन भर वहीं कब्रिस्तान में ही अपनी बेगम की कब्र पर बैठे रहते हैं... अगर उनसे कोई काम है तो एक बंडल गणेश छाप बीड़ी लेते जाइए... खुश हो जाएंगे...’
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    ‘कब्रिस्तान है कहां?’
   ‘इसी गली के अगले मोड़ से दाएं मुड़ जाइए... सौ कदम चलने के बाद बिजली ट्रांसफारमर से बाएं मुड़ते ही सीधे चलते जाना... वह रास्ता कब्रिस्तान को ही जाता है... वहीं मिल जाएंगे बीड़ी फूंकते फूकन मियां...।’
   बूढ़े ने सबसे पहले सामने की गुमटी से एक बंडल बीड़ी का खरीदा... फिर झोला लिए बताए रास्ते पर चल पड़ा। शाम ढलने लगी थी। सूरज ने अपनी दिशा बदल ली थी। कमजोर होती धूप बूढ़े को खुद के जैसी ही लगी पग-पग अवसान की ओर बढ़ती।
   जैसा कि बेकरी वाले ने बताया था, एक सज्जन कब्रिस्तान में दिखाई दिए। सबसे कोने वाली एक कब्र में बीड़ी पी रहे थे।
   वह पास पहुंचा-‘अगर मैं गलत नहीं हूं। तो आप फूकन मियां ही हैं न।’
   ‘जी हूं तो... फरमाइए...।’ कब्र पर बैठे व्यक्ति फूकन मियां ही थे।
   ‘आपकी दुकान गया था... पता चला वह तो महीनों से बंद पड़ी है।’
   ‘पुरानी चीजें बंद हो जाती हैं... उन्हें बंद करना पड़ता है...।’ आवाज में तल्खी थी, क्यों थी मालूम नहीं।
   ‘आप यहां कब्रिस्तान में...’ पुराने जमाने का लुप्त होता प्रचलन है कि काम से पहले सामने वाले का हाल-चाल जरूर पूछते हैं।
   ‘सुकून मिलता है यहां...’ फूफन मियां ने जोर देकर कहा-‘मृत चीजें सुख देती हैं... कोई सवाल नहीं करतीं... शक नहीं- -- न प्रेम, न नफरत... सियासत तो बिल्कुल ही नहीं... इसीलिए सुकून की खोज में हर सुबह यहां चला आता हूं... घर में चार बेटे हैं-बहू है पोते-पोतियां 15 लोगों का कुनबा है मेरा... मगर मैं किसी का नहीं। हमारी बेगम छह महीने पहले हमें छोड़कर चली गई खुदा के पास... तब से हम ज्यादा तन्हा हो गए हैं... जिस कब्र पर बैठकर अभी हम बातें कर रहे हैं... वह हमारी रुखसाना बेगम का है... यहां जब तनहाई ज्यादा ही सताने लगती है तो बेगम से बातें भी कर लेता हूं... उनकी आवाज सिर्फ मुझे ही सुनाई पड़ती है... 56 साल का साथ अचानक खत्म हो जाता है... हम अकेले पड़ जाते हैं... बेबस, उदास... खैर मैं तो अपनी ही कहानी में गुम हो गया... आप बताओ मुझसे मिलने का मकसद। मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कब्रिस्तान पहुंच गए...।’
   ‘मेरा एक बहुत पुराना रेडियो है... वह मुझे बहुत प्रिय है... उसने मेरे जीवन में संगीत भरा था... अचानक उसमें खराबी आ गई है, वह बजता ही नहीं... किसी ने बीस साल पहले गिफ्रट दिया था मुझे। इस शहर में रेडियो ठीक करने वाला कोई बचा नहीं। लोग नया रेडियो लेने की सलाह देते हैं, मगर मैं ऐसा नहीं कर सकता... किसी ने आपका नाम बताया तो आपके पास हाजिर हूं...।’
   ‘मैंने तो काम छोड़ दिया है... दुकान भी बंद हो गई, बेगम के इंतकाल के दूसरे दिन ही...।’
   ‘दुकान बंद हुई है आप तो हैं...।’
   ‘दिखाई कम पड़ता है... मुश्किल है... मैं माफी चाहता हूं... आपकी मदद नहीं कर सकता...’
   ‘आप नाउम्मीद मत कीजिए... मेरी मजबूरियों और इस रेडियो के प्रति मेरी दीवानगी को समझिए...’ यह कहते हुए सज्जन मियां ने बीड़ी का बंडल फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया-‘अगर आपने रेडियो ठीक नहीं किया तो मैं जी नहीं पाऊंगा...।’
   बीड़ी के बंडल पर झपट्टा मारते हुए फूकन मियां के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। उन्होंने कुर्ते की दाहिनी जेब से माचिस निकाल कर तुरंत एक बीड़ी सुलगाई। एक सुट्टा मारते हुए बोले-‘रेडियो कहां हैं?
   बूढ़े ने झोले से रेडियो निकालकर फूकन मियां को सौंप दिया।’
   ‘आइए, मेरे साथ...’ फूकन मियां उठ खड़े हुए।
   वे उसे दुकान ले गए। घर से चाबी मंगवाकर दुकान का शटर खोला। धूल की मोटी पर्तें जमी थी हर चीज पर। साफ करने में ही आधा घंटा लग गया। अगले आधे घंटे में उन्होंने रेडियो ठीक कर दिया। रेडियो पर गीत बज रहा था-‘रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा।’
   ‘इसका बैंड खराब हो गया है रेडियो मिर्ची विविध भारती को बजने नहीं देता... पुराना पार्ट है, नया मिलेगा नहीं... इस कंपनी का बनना ही बंद हो गया... ठीक तो कर दिया है... मगर इसे गिरने से बचाइएगा... नहीं तो नई गड़बड़ी शुरू हो सकती है...।’
   बूढ़ा खुशी-खुशी रेडियो घर ले आया...। रेडियो फिर से बजने लगा था बूढ़े के चेहरे पर रौनक लौट आई। जैसे पतझड़ के बाद वसंत आ गया हो। तपते रेगिस्तान में झमझम बारिश हो गई हो।
   मगर तीसरे दिन ही आंधी आई और रेडियो टेबल से गिर पड़ा। फूकन मियां ने सही भविष्यवाणी की थी, उसमें एक नई बीमारी शुरू हो गई...। रेडियो बज तो रहा था, मगर अपने आप उसका बैंड बदल जाता... विविध भारती बजते-बजते रेडियो मिर्ची लग जाता। बूढ़ा परेशान। गाने स्वतः बदल जाते। विविध भारती पर बज रहा होता-‘जो वादा किया, वो निभाना पडे़गा।’ अचानक बैंड बदल जाता-‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए...। कभी बजता होता-‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम’ बैंड बदलता और गाना बजता-‘आई चिकनी चमेली छुपके अकेली पव्वा चढ़ा के आई...।’ बूढ़े को सिरदर्द होने लगा। वह अगले दिन ही झोले में रेडियो को डालकर फूकन मियां के पास कब्रिस्तान पहुंचा। वह उनके लिए बीड़ी का बंडल लेने गुमटी गया, गणेश छाप था नहीं... न जाने क्या सोचकर उसने सिगरेट ले ली-- -। उसे लगा फूकन मियां खुश हो जाएंगे, बीड़ी पीने वाले को सिगरेट मिल जाए... देसी पीने वाले को व्हिस्की तो वह ज्यादा खुश हो जाता है, ऐसी सोच थी उसकी।
   इस बार कब्रिस्तान में फूकन मियां थे तो अपनी बेगम रुखसाना की कब्र पर ही। लेकिन मुद्रा बदली हुई थी। वह बीड़ी नहीं पी रहे थे... कुछ बुदबुदा रहे थे... पास जाने पर शब्द साफ हुए... ‘आप तो आराम से नीचे सो रही हैं... हमारी फिक्र ही नहीं है... ये मरने के बाद क्या हो गया है आपको... पहले तो आप ऐसी नहीं थीं... संगदिल बेपरवाह... मालूम है बहुएं मुझे खाना देना भूल जाती हैं... दो ही टाइम और दो ही रोटी खाता हूं, वह भी उनसे नहीं दी जाती...। आपकी औलादें हमारे मरने का इंतजार कर रही हैं... हम गैरजरूरी चीज जो हो गए हैं... अपना ही खून गलियां दे रहा हैं, अब आप ही बताइए कैसे जिए हम... एक गुजारिश है... आप अपने पास ही हमें जगह दे दीजिए... बिस्तर पर तो हम सालों साथ सोते रहे... यहां कब्र में भी सो लेंगे...’ कहते हुए फूकन मियां की आंख भर आई... कंधे पर रखे चरखाना अंगोछे से आंसू पोंछे... बाएं कुर्ते से बीड़ी का बंडल और दाएं जेब से माचिस निकाली... एक बीड़ी सुलगाई... इस बात से बेखबर कि पास पहुंचे बूढ़े ने उनकी सारी बातें सुन ली है... और वह उनके सामान्य होने का इंतजार भी कर रहा है- --।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    बूढ़े ने जानबूझकर खांसा ताकि फूकन मियां उसकी ओर मुखातिब हो सके... फूकन मियां की तंद्र टूटी... हड़बड़ाकर बोले... ‘आइए साहब, सब खैरियत तो हैं...?’
   ‘जिंदगी से सांसों का तालमेल गड़बड़ाने को अगर खैरियत कहा जा सकता है तो मान लीजिए कि है...’
   ‘बड़ी गहरी बातें करते हैं...।’
   ‘आपसे ज्यादा नहीं... माफी चाहता हूं मगर अभी मैंने आपकी बातें सुनीं... आपको रोते हुए भी देखा... आप अपनी बेगम से कब्र में पनाह मांग रहे थे... यह जानते हुए भी कि कब्र जिंदों को पनाह नहीं देती...।’
   ‘सारे रास्ते अंत में यही आते हैं... और जब कोई रास्ता नहीं बच जाता तब भी जो पगडंडी बची रह जाती है वह भी यही आती है, कब्रिस्तान में... कब्र की ओर...।’
   ‘एक रास्ता है जो आपकी उस दुकान की ओर जाता है जो महीनों से बंद है...’ बूढ़े ने सिगरेट का डिब्बा फूकन मियां की ओर बढ़ा दिया।
   ‘आप तो सिगरेट ले आए...’
   ‘बीड़ी मिली नहीं...’
   ‘सिगरेट बीड़ी का विकल्प नहीं... बीड़ी को पिछले पचास साल से फूंकते रहने की एक आदत सी पड़ गई... सिगरेट मेरे वजूद से मेल नहीं खाती... हमने दो ही चीजों से प्यार किया बीवी और बीड़ी... बीवी तो छोड़ गई... बीड़ी को कैसे छोड़ दूं... सिगरेट पीना बीड़ी के साथ बेवफाई है हमारी नजरों में, जैसा बीवी के रहते किसी दूसरे औरत को चाहना-छूना और चूमना था... सोना तो बहुत दूर की बात... प्यार तो प्यार है मियां चाहे वह बीवी से हो... बीड़ी से हो या कुछ, ‘तू न सही तो और सही का फलसफा प्यार नहीं’ अÕयाशी है...’
   ‘आपने मेरी बात को नजरअंदाज कर दिया...।’
   ‘कौन सी बात?’
   ‘एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है... कब्र के अंधेरे में गर्क होने की बजाए टेबल लैंप की रोशनी में रेडियो को ठीक करना बेहतर है...।’
   ‘आपका रेडियो तो ठीक बज रहा है न...?’
   ‘बज तो रहा है... मगर मेरे मुताबिक नहीं, वह अपने ढंग से बजने लगा है... उसके भीतर कुछ ऐसा है जो आवाज को बदल देता है... दो जमाने के फर्क क्षण भर में मिट जाते हैं सुरैया से सुनिधि चौहान... सहगल से कमाल खान... मेरे हाथ में कुछ भी नहीं रहा, रेडियो है... स्विच है... मगर उसके भीतर से निकलने वाली आवाज पर मेरा नियंत्रण समाप्त हो गया है...।’
   ‘बैंड खराब हो गया है... कुछ नहीं किया जा सकता। पुराना है...।’
   ‘पुराने तो हम भी हैं... लेकिन अड़े हैं... खड़े हैं... अपनी पसंदों... चाहतों के साथ...।’
   ‘इंसान और मशीन में फर्क होता है...।’
   ‘यही बात तो मैं भी कह रहा हूं... आप इंसान है। मशीन की यह बीमारी आपकी कूवत से बाहर थोड़े ही न है...’
   ‘है...हो गई है, मशीन के आगे हम लाचार हैं... आपको रेडियो में आए बदलाव के साथ समझौता करना पड़ेगा’
   ‘आप हमें मायूस कर रहे हैं...’
   ‘जब सारे रास्ते बंद मालूम होते हैं तो मायूसी का कोहरा छा ही जाता है मैं माफी चाहता हूं, आप कोई नया रेडियो ले लीजिए...’ आपने मायूस कर दिया ‘खैर... मैं जा रहा हूं... लेकिन मेरी एक बात याद रखना... एक रास्ता दुकान की ओर भी जाता है...कब्र के अंधेरों से दूर टेबल लैंप की रोशनी की ओर...’ घर लौटते हुए उदास बूढ़ा सोच में पड़ गया। नया रेडियो, रुचियों को बदलना... उम्र के इस मोड़ पर जमाने के साथ तालमेल बैठाने के लिए खुद को बदलना पड़ेगा। यह कैसी आंधी चली है, जहां चिराग को रोशनी से दूर रहने का पाठ पढ़ाया जा रहा है... ताकि अंधेरा बना रहे।
   अचानक बीच में आ रहे इस अवरोध के लिए क्ष्ामा। दो कहानियों के बीच मैं खुद अपनी साली को लेकर आ रहा हूं। हुआ यूं कि एक दिन मेरी पत्नी ने अपनी बहन की बात मुझसे करवाने यानी उसके जन्मदिन पर विश करने के लिए मुझे मोबाइल पकड़ा दिया।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    अरे याद आया मेरी साली ने भी प्रेम किया था... अपनी रिश्तेदारी में ही... साली चंडीगढ़ जैसे आधुनिक शहर की रहने वाली... पंजाबी तड़का लिए। लड़का बिहार के जंगल नरकटियागंज का बेहद शरीफ... परंपराओं और मूल्यों से फेविकोल के जोड़ की तरह चिपका... लड़के ने प्रेम तो किया मगर जब साली ने शादी का प्रस्ताव रखा तो वह हिम्मत नहीं जुटा पाया... साली ने उसे बहुत ललकारा। ...मगर लड़का संयुक्त परिवार और पूरे शहर में अपनी इज्जत को दांव पर लगाने की हिम्मत नहीं कर सका... प्रेम जब अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाता है तो कई दफा प्रतिशोध में तब्दील हो जाता है... साली ने प्रेम में प्रतिशोध लिया... जिस लड़के से प्रेम करती थी उसी के छोटे भाई को प्रेम में फांस कर उसे बागी बना दिया... साली पर तब टी-वी- पर चल रहे उन धारावाहिकों का असर था... शायद ‘कहानी किस्मत की’ धारावाहिक। वह प्रेमी के छोटे भाई से शादी रचाकर उसी घर में पहुंच गई। दुल्हा के रूप में अब उसका प्रेमी उसका जेठ था... प्रेमी को दुख हुआ। टीस उठी... मगर उसने उफ्रफ तक नहीं की...।
   अब उस घटना को सात-आठ साल हो गए। साली के दो बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। पति सुंदर है पर बेरोजगार है। उसे चंडीगढ़ छोड़कर नरकटियागंज जैसे छोटे और ऊंघते शहर में रहना पड़ रहा है जहां सुविधाओं का टोटा है। वहां
   ऐसा जीवन है जिसकी वह आदी नहीं थी।
   ‘जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामना साली जी...।’
   ‘काहे का शुभ जीजा जी... बस आपने याद कर लिया वही काफी है...।’
   ‘ऐसे क्यों बोल रही हो...’
   ‘अफसोस तो यही कि मैं बोल भी नहीं सकती...।’
   ‘मैं समझा नहीं...।’
   ‘जानते तो आप सब हैं... उसमें समझने जैसी क्या बात है... जो मैंने चाहा वो मिला नहीं... जो मिला, वह मेरी मंजिल नहीं थी...
   ‘मगर इसे तो आपने खुद ही चुना था...’
   ‘वह चुनाव कहां था जीजाजी...’
   ‘क्या था फिर...’
   ‘प्रतिशोध... प्यार में लिया गया प्रतिशोध... न जाने वह कौन सा आवेग था जो मैंने अपने लिए ही कब्रिस्तान खोद लिया ताकि मैं खुद को वहां दफन कर सकूं... उस आग ने सबकुछ जला दिया। अब तो राख ही राख बची है जो फैल गई है मेरी हस्ती पर...’
   ‘कुछ तो बचा जरूर होगा उस राख के भीतर...’
   ‘शायद लहूलुहान, अपाहिज और गूंगी चाहत... जिसका अब कोई मतलब नहीं रह गया...’
   ‘कभी अकेले में सोचना उस बेमतलब में ही कोई मतलब छिपा होगा...।’
    ‘जब जिंदगी बेमानी हो जाए तो किसी भी चीज का मतलब कहां बचा रहता है जीजा जी, अब तो सबकुछ खत्म है- --।’
   ‘खत्म होकर भी... सबकुछ खत्म नहीं हो जाता... महफूज रहता है वह। खैर वह वहां आता है या नहीं...’
   ‘नहीं... मेरी शादी के बाद इस घर तो क्या शहर में भी कदम नहीं रखा... पिछले साल तो उसने पटना में शादी कर ली...’
   ‘गई थी तुम...’
   ‘गई थी...’
   ‘कैसा लगा...’
   ‘उस अहसास से गुजरी जो उसके दिल में तब उठा होगा जब मैंने उसके छोटे भाई से शादी कर रही थी। बेशक वह शादी में नहीं आया मगर अहसासों से गुजरने के लिए सामने की मौजूदगी जरूरी नहीं होती।... मुझसे उसकी शादी देखी नहीं गई... मैं रो पड़ती इसके पहले पेट दर्द का बहाना बनाकर कमरे में बंद हो गई... सब लोग समझ तो गए ही। वह भी, मेरा पति भी। लेकिन मैं सब कुछ समझकर भी सच्चाई का सामना नहीं कर पाने में असमर्थ थी’ वह रोने लगी-
   --
   ‘सॉरी... मैंने तुम्हारे जन्मदिन पर बेवजह ही रुला दिया...’
   ‘एक गुजारिश है जीजाजी...’
   ‘बोलो...’
   ‘आप जब छठ में यहां आएंगे तो उसे साथ जरूर लाइएगा... उसे देखने की बड़ी तमन्ना है... देखूंगी शादी के बाद कैसा लगता है...? लाएंगे न...’
   ‘हां जरूर...’ मैंने फोन रख दिया। मैं सोच सकता था कि वह उसके बाद क्या सोच रही होगी... और यह भी कि निश्चित तौर पर रो रही होगी... प्रेम में आंसुओं की बारिश या आंसुओं की बारिश में भीगता प्रेम।
   बाएं मकान वाली लड़की सोच रही थी... जो चला गया उसके साथ सब कुछ तो नहीं चला जाता... जिंदगी खत्म तो नहीं हो जाती। उसने खुद को रिडिजाइन किया। पर्सनालिटी इम्प्रूवमेंट का कोर्स किया। नौकरी बदली।
   लड़की बदलना चाहती थी। वह बदल रही थी। जितनी बदली थी अब तक, उसके आगे भी बदलने की इच्छा थी। उसका वजूद बन और बिगड़ रहा था। परेशान लड़की मंदिर गई। मन्नतें मांगी। ज्योतिष की दी हुई चमत्कारी अंगूठी पहनी। एक चमत्कारी गुरु की शरण में भी पहुंची। गुरुदेव ने आशीर्वाद दिया-सब मंगलमय होगा। लेकिन दिन शनि के शुरू हो गए।
   लड़की साहसी थी। दुखों से लड़ने का हौसला था उसमें। उसने इस थ्योरी को समझ लिया था कि किसी मोड़ पर जिंदगी का सफर समाप्त नहीं होता सिर्फ सफर का रुख बदल जाता है। उसने अपने मोबाइल में सेब गाने नए सिरे से लोड करवाए... जवां है मोहब्बत हंसी है जमाना, लुटाया है किसी ने खुशी का खजाना...। तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले... अपने भर भरोसा है तो एक दाव लगा लें...
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    क्या जिंदगी जुआ है, जहां खुशियों को दांव पर लगाया जा सकता है। ...जीत हार तकदीर नहीं महज इत्तेफाक है।
   लड़की के पड़ोस में एक नया लड़का आ गया। पढ़ाकू किस्म का। पत्रकार। कहानियां-कविताएं भी लिखता था। उसके हाथ में हमेशा कोई पुस्तक या डायरी होती। वह या तो कुछ पढ़ता या कुछ न कुछ डायरी में लिखता रहता। लड़के ने सबसे पहले लड़की की रुचियों को बदला। उसे अच्छी किताबें दी... क्लासिक फिल्में दिखाई... समझाया कि बारिश में साथ-साथ भीगने और तपते रेगिस्तान पर कदम मिलाते हुए चलने का नाम ही प्रेम है। और हम प्रेम होना चाहते हैं? लड़की-लड़के का कहा मानने लगी। लड़के को लगा लड़की बदल रही है। वह खुश था। लड़की को भी वहम हो गया कि वह बदल रही है। बदलाव के दौर में बिना बदले गुजारा भी कहां था? दोनों खुश। इस बात से बेफिक्र कि हर चीज की एक उम्र होती है-खुशी की भी।
   लड़की ने लड़के को लाइक किया। फिर दोस्ती, फिर प्रपोज किया-आई लव यू बोला। इसमें एसएमएस मोबाइल ने अहम भूमिका निभाई। बहुत जल्द सेक्स तक पहुंच गए। दोनों लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे...। लाइफ में इंज्वॉय। इंज्वॉय ही लाइफ। सब कुछ मस्त-मस्त... वक्त की सांसों में जैसा नशा घुल गया... नशा चढ़ता है तो एक अवधि बाद उतरता भी है... छह महीने में ही लाइक की सासें कमजोर पड़ने लगी। लव की सांसें फूलने लगी... सेक्स भी यंत्रवत होने लगा, पति-पत्नी की तरह। उसमें पहले जैसा आवेग... मजा नहीं रहा... मजावाद के वृत्त में देह बर्फ की मानिंद पिघलती रही, कतरा-कतरा...।
   फिर एक समय ऐसा भी आया कि बाकी बर्फ पूरी तरह पिघल गई। अब सिर्फ पानी की नमी बची रह गई थी। और नमी को सूखने और गर्द बनने में देर ही कितनी लगती है। बूढ़ा बाजार में था। वह दुकान दर दुकान भटक रहा था। वह एक ऐसा नया रेडियो चाहता था जिसने विविध भारती बजे-
   -- बाजार में एफएम वाले रेडियो ही उपलब्ध थे। कुछेक रेडियो मिले जिसके एफएम साफ बजता था, मगर विविध भारती की आवाज घर्र-घर्र के साथ सुनाई देती... दुकानदारों ने उसे समझाया चचा जान, आप एफएम रेडियो ले लो... वह नहीं लेने की जिद दर अड़ा रहा... एक बड़े दुकानदार ने बड़ी विनम्रता के साथ समझाया कि अब विविध भारती सुनता ही कौन है... आपको पुराने गीत सुनने से मतलब है न, आप आईपैड ले लो, हजारों गाने इसमें लोड रहेंगे... इन्हें सुनते रहो... आवाज साफ-सुथरी टनाटन, जब कोई दूसरा विकल्प न हो... रास्ता बचा न हो... आदमी को समझौता करना ही पड़ता है... बिना जरूरत और खरीदार की संवेदना को समझे समान को बेच देना ही बाजार का नया फंडा है... दुकानदार बूढ़े को समझाने में कामयाब हो गया... उसे एक आईपैड खरीदना पड़ा। उसके साथ लीड भी... दोनों कानों में लगाकर सुनने के लिए... उसने दोनों हेडफोन कान में लगा लिया।
prem bhardwaj story kahani pakhi shabdankan कहानी  फिज़ा में फैज़ प्रेम भारद्वाज शब्दांकन    वह गीत सुन रहा था। पता नहीं कौन सा... मगर दूर से दिखाई दे रहा था... उसके चेहरे पर खुशी के भाव थे... उसके जिस्म की जुम्बिश धीरे-धीरे तेज होने लगी... थोड़ी देर बाद वह थिरकने लगा।... यह सिर्फ वह बूढ़ा ही जानता था कि वह कौन सा गीत सुन रहा है... ऐसा पहले नहीं होता था। गीत सुनकर वह खुश और उदास पहले भी होता था... मगर पड़ोस में गीत के बोल सुनाई देते थे... अब नहीं दे रहे थे। मालूम पड़ता था कि वह कोई विक्षिप्त है जो यूं ही विभिन्न मुद्राएं बना रहा है... आईपैड लेकर बूढ़ा फूकन मियां के पास पहुंचा कब्रिस्तान में। वहां वे नहीं मिले। वह दुकान पहुंचा। टेबल लैंप की रोशनी में वह किसी बीमार रेडियो का ऑपरेशन कर रहे थे...। बूढ़े ने गणेश छाप बीड़ी का बंडल उन्हें सौंपते हुए आई पैड दिखाया तो बड़े गंभीर होकर फूकन मियां बोले थे-यह नए जमाने का संगीत है। नया चलन-नई सोच... मेरा है तो मैं ही सुनूं। तुमको भी सुनना है वो जाओ बाजार से दूसरा खरीद लाओ...। एक परिवार में पहले एक रेडियो होता था... अब एक परिवार में जितने सदस्य उतने आईपैड या गानों वाला मोबाइल।
   गाना सुनते-सुनते बूढ़ा अचानक उदास हो गया, शीघ्र ही उसके चेहरे पर उभरी खीझ, गुस्से को दूर से भी देखा जा सकता था। ...न जाने क्या सोचकर उसने हेडफोन को कानों से निकाल दिया... आईपैड को भी जमीन पर पटकर चकना चूर कर दिया। कोई पागलपन का दौर पड़ा था उस पर। वह हंस रहा था, मगर उसकी आंखें नम थी... दिल में क्या भाव थे, यह तो वही जानता था।
   एक सुबह लड़की ने मकान खाली कर दिया। वह कहीं और चली गई... पत्रकार दोस्त से उसका ब्रेकअप हो गया था- -- क्यों हुआ, इसकी सही सही वजह दोनों में से किसी को नहीं मालूम हो सका... जिंदगी में बहुत सी घटनाओं की असली वजह हम नहीं जान पाते... बस, अपनी सुविधा अनुसार किसी कारण का घटना के बरक्स खड़ा कर देते हैं।- --
   लड़की ने वह मकान खाली करते वक्त किसी को कुछ नहीं बताया... मगर जाते वक्त वह रो रही थी... जैसे पुराने जमाने में मायके से ससुराल जाते वक्त बेटियां बिलखती थीं... उसकी शादी तय हो गयी थी...
   जिस दिन बूढ़े ने आईपैड तोड़ा था... उस रात वह सो नहीं पाया... कमरे की बत्तियां नहीं बुझाई... वह पूरी रात बच्चों की तरह फफक-फफक कर रोता रहा था। अगली सुबह वह बूढ़ी औरत आई। सर्दी की धूप में वह उस बूढ़ी की गोद में सिर रख कर रोता रहा, रोते रोते सो गया। रात को सोया भी तो नहीं था, इसलिए गहरी नींद आ गई... बूढ़ी औरत ने उसको जगाया नहीं। उसके बालों को सहलाती रही, पर चार घंटे तक बूढ़ा सोता रहा। उसके भारी सिर के बोझ को वह सहन करती रही... बूढ़ी की जांघ में सूजन आ गई... दर्द भी बेहिसाब हो रहा था। उस रात दोनों ने कोई कसम नहीं खाई, कहीं किसी अनुबंध पत्र पर दस्तखत नहीं किए... रस्म-ओ-रिवाज का कहीं धुंआ नहीं उठा। लेकिन खास बात यह हुई कि उस रात वह बूढ़ी वहां से वापस नहीं गई... और कभी नहीं गई... बूढ़ी ने घर बदल लिया... घर बसा लिया, घर रच लिया...।
   लड़की के घर छोड़ने और बूढ़ी के घर रचने की घटना को काफी अरसा गुजर गया। तकरीबन दो साल। मैं भी उन घटनाओं को भूलने लगा था। एक रात सपने में वह लड़की लौटी अपने पति के साथ। ये उन लड़कों में से नहीं था जिससे वह प्रेम करती थी... लड़की प्रसन्न थी... क्या पता खुश होने का नाटक कर रही हो... लड़का खुश था क्योंकि मालिक था। एक बड़ा बिजनेसमैन उसकी संपति में एक नई प्रॉपर्टी उसकी पत्नी भी दर्ज हो गई थी... वह लड़की पत्रकार दोस्त को उसकी पुस्तक लौटाने आई थी... कहानी संग्रह ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’। लड़के ने उनके स्वागत में समोसे मंगवाए, कोल्ड ड्रिंक, जलेबी तीनों ने मिलकर खाए...
   तीनों उस बूढ़े के पास पहुंचे। बूढ़ा उस वक्त गमलों में पानी डाल रहा था, पानी देने के बाद वह उन पौधों को कुछ इस अंदाज में सहला रहा था, मानो कोई प्रेमी पूरे प्रेम में डूबकर प्रेमिका के अधर पर उंगली फेर रहा हो...।
   पत्रकार ने पहले लड़की को देखा, पास ही खड़ी बूढ़ी की आंखों में झांका, पर फिर पेशेगत अंदाज में पूछा-‘बाबा मैं, आपको पिछले सालों से देख रहा हूं... मुझे लगता है आप प्रेम को जीते हैं-मेरा सवाल उसी से जुड़ा है कि प्यार है क्या...’
   ‘पता नहीं बेटे, उसे ही तो ढूंढ़ रहा हूं...’ बूढ़ा बड़ी मासूमियत से बोला और बूढ़ी की आंखों में डूब गया...।
   ठीक उसी वक्त छत की मुंडेर पर नर-मादा कबूतरों ने चोचें लड़ाई... अपने गुजरे जमाने में चांद की चाहत रखने वाली प्रेमिका और अब वेश्या बन गई, औरत ने अपने बूढ़े ग्राहक के सामने नंगी टांगें फैलाई... भूख से तड़पकर किसान ने आत्महत्या की... अमेरिकी सैनिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक सौ सत्ताइसवें देश में उतरे... आदिवासियों को नक्सली बताकर पुलिस ने ढेर किया... इस देश का प्रधानमंत्री रोबोट में तब्दील हो गया और 15 अगस्त को झंडा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते वक्त उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे... संसद सबसे बड़ी मंडी में तब्दील हो गई... वह सब कुछ हुआ जो नहीं होना चाहिए... और इन सबके बीच प्रेम कहीं दुबका था किसी खरगोश की मानिंद। पास ही कहीं फैज की आवाज फिजा में गूंजी-‘और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा, मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...’
   सपना टूटता है-- अपनी आंख भींचता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल छत पर आ जाता हूं-दाएं वाले मकान में बूढ़ा अब भी पौधों को पानी दे रहा है। बाएं वाले फ्रलैट में पत्रकार लड़का सिगरेट पी रहा है... और मैं सोचने लगता हूं प्रेम के बारे में। एक गौरेया है सदियों से दाना चुन रही है... एक जोड़ा कबूतर खंडहर के मुंडेर पर चोंच लड़ा रहा है-एक मांझी उस पार जाने के लिए पतवार चला रहा है, एक परछाई जो कभी छोटी होती है कभी बड़ी, एक प्रेम जो हकीकत भी उतना ही है जितना फसाना। बेगम अख्तर की आवाज है-‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया।’ घनानंद की पीर-‘अति सुधो स्नेह को मारग है जहां नेक सयानप पर बांक नहीं...’ इन सबके बीच फैज की गुजारिश-मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग...! ’’’