विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।

उषा उथुप की जीवनी ‘उल्लास की नाव’ का लोकार्पण



भारतीय पॉप संगीत की महारानी उषा उथुप की जीवनी ‘उल्लास की नाव’ का लोकार्पण

विकास कुमार झा ने अथक प्रयासों से इस जीवनी को तैयार किया है जिसमें उषा उथुप के जीवन के लगभग हर पहलू को वे सामने ला सके हैं।

(ब्यूरो)

योगिता यादव की कहानी 'नई देह में नए देस में' | #हिंदी #कहानी

योगिता यादव की लेखनी को मैं सदैव कहानी की विषयवस्तु को बिलकुल ताज़ा लिखने वाली मानता हूँ ,'नई देह में नए देस में' उन्होंने मेरी यह धारणा और मजबूत की हैं, उन्हें बधाई देता हूँ.

भरत एस तिवारी




"दो औरतें जब आपस में मिलना चाहती हों तो उन्‍हें मिलने देना चाहिए। किसी को भी फि‍र उनके बीच में नहीं आना चाहिए। एक स्‍त्री की दूसरी स्‍त्री से मुलाकात ही आने वाले भविष्‍य का माहौल तय करती है। वे जब प्‍यार से मिलेंगी तो आने वाली दुनिया प्‍यार की होगी और अगर नफरतों में मिलेंगी तो आने वाली दुनिया नफरतों से भरी होगी।” 

नई देह में नए देस में

— योगिता यादव

ठाकुर साहब संस्‍कृति प्रेमी हैं। ठाकुर साहब कला प्रेमी हैं। ठाकुर साहब पुरातन प्रेमी हैं। अब तो ठाकुर साहब देश की सबसे बड़ी सांस्‍कृतिक संस्‍था के अध्‍यक्ष हो गए हैं। अब वे देश-विदेश के दौरे करेंगे। करते ही रहे हैं। कला, संस्‍कृति और प्रेम सबका उत्‍थान एक साथ होगा।

इसी बीच बेटे का ब्‍याह जुड़ गया । तब..., इससे क्‍या फर्क पड़ता है। वे सबके साथ हैं पर किसी के निजी जीवन में हस्‍तक्षेप नहीं करते । यही वे औरों से भी चाहते हैं कि कोई उनके निजी जीवन में कोई हस्‍तक्षेप न करे। व्‍यवसायिक जीवन में तो और भी नहीं।

पटना: ‘ढूंढ़ोगे अगर मुल्कों मुल्कों’ — पंकज राग


आसमान खुला तो नहीं था उस वक्त भी
लेकिन बचपन की यादों में शायद धुआं नहीं होता

पटना: ढूंढ़ोगे अगर मुल्कों मुल्कों

पंकज राग की कविता

पटना: ‘ढूंढ़ोगे अगर मुल्कों मुल्कों’


देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं — रवीन्द्र कालिया पर कथाकार अखिलेश #जालंधर_से_दिल्ली_वाया_इलाहाबाद (2)


रवींद्र कालिया की कहानियों से मैं चमत्कृत था; उनकी भाषा, उनका यथार्थ के प्रति सुलूक, उनकी मध्यवर्गीय भावुकताविहीनता, उनका खिलंदड़ा अंदाज, इन सब तत्वों ने मुझ पर असर डाला था । दूसरी बात यह कि जब कोई नया लेखक किसी बड़े साहित्यकार के निकट होता है तो वह उसकी श्रेष्ठता को अपनी आइडेंटिटी से जोड़कर देखने लगता है । वह सोचता है कि देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं और वह अपनी निकटता को सार्वजानिक भी करना चाहता है । मेरे साथ यह सब हो रहा था... — कथाकार अखिलेश

देखो मैं इतने बड़े लेखक के करीब हूं 

— कथाकार अखिलेश

जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद ... भाग २


और नहीं तो जाने कैसे अफवाह उड़ा दी गयी कि मैं इतनी कम उम्र में बहुत बड़ा शराबी बन गया हूं । ईश्वर की कसम, उस वक्त तक मैंने महज एक बार कलकत्ते में पौन बोतल बियर पी थी; जबकि अफवाह के मताबिक मेरा दोस्त, कवि बद्री नारायण जो अब देश का नामीगिरामी इतिहासकार, समाज विज्ञानी भी बन चुका है और मैं स्वयं, अपनी अपनी कांखों में मदिरा की बोतल दबाये सिविल लाइन्स में खुलेआम झूमते लहराते चले जा रहे थे । इस गणित से हमारे पास चार बोतलें कांख में दबी होनी थीं लेकिन हकीकत में हम सिविल लाइन्स में मूंगफली खाते हए जा रहे थे; हमारे हाथ मूंगफली फोड़ने और नमक चाटने में व्यस्त थे इसलिए हमने अपने हाथ की किताबें कांखों में दबा ली थीं, उन्हीं किताबों को निष्ठुरतापूर्वक शराब की बोतल में तब्दील कर दिया गया था ।

रवीन्द्र कालिया पर कथाकार अखिलेश का संस्मरण #जालंधर_से_दिल्ली_वाया_इलाहाबाद (1)


अधिकतर ऐसा ही हुआ : कोई कालिया जी से मिला और उनका होकर ही रुखसत हुआ । उनका अत्यंत महत्वपूर्ण लेखक होना, आकर्षक अनोखा व्यक्तित्व, उनका वातावरण में देर तक गूंजते रहने वाला ठहाका, बढ़िया आवाज और कथन में अप्रत्याशितता, चुस्ती, यारबाशी, चुटीलेपन का सम्मिश्रण - ये सब तत्व मिलकर सामने वाले की कालिया जी से मैत्री का पक्का जोड़ लगाते थे। — कथाकार अखिलेश

मेरा मन हो रहा था कि हर्ष के मारे वहीं कूदने लगूं

— कथाकार अखिलेश

जालंधर से दिल्ली वाया इलाहाबाद ... भाग १

नाटक पुनर्व्याख्या की सर्वोत्कृष्ट कला है — मनीष सिसोदिया | #भरतमुनि_रंग_उत्सव



भरतमुनि रंग उत्सव

नई दिल्ली, अक्टूबर 2019: विभिन्न भारतीय कला और संस्कृति को बढ़ावा देने वाले दिल्ली सरकार के कला और संस्कृति विभाग साहित्य कला परिषद एक नए कार्यक्रम भरतमुनि रंग उत्सव  के साथ वापस लौट आया है। उत्सव का आयोजन 21 और 22 अक्टूबर 2019 को कॉपरनिक्स मार्ग स्थित एलटीजी ऑडिटोरियम में किया जाएगा।

साहित्य कला परिषद इस दो दिवसीय कार्यक्रम का आयोजन नाट्य कला के प्रति खो चुकी संवेदनशीलता को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से कर रही है। प्रत्येक दिन 4 एकल / समूह प्रस्तुतियां दी जाएंगी।

मादा देह मुर्गे के एक किलो गोश्त से भी सस्ती — #ये_माताएं_अनब्याही — अमरेंद्र किशोर


टीआरपी के बिसातियों

न प्राइम टाइम में हंगामा मचा और न कोई कवर स्टोरी सामने आयी 

अनब्याही माता होने की पीढ़ीगत परम्परा के अनगिनत महीन और भद्दी वजहों को तलाशता कोई नौकरशाह नहीं मिला, कोई समाजसेवी भी नहीं और कोई पत्रकारनुमा सोशल एक्टिविस्ट भी नहीं दिखा। तब ऐसी खबरें लिखने की आत्मश्लाघा बिलकुल धराशायी हो गई — साफ़ सी बात है कि अख़बारों में चर्चित हुई लुचना टीआरपी के बिसातियों को रास नहीं आयी।
अमरेंद्र किशोर Amarendra Kishore

मादा देह मुर्गे के एक किलो गोश्त से भी सस्ती

— अमरेंद्र किशोर

ये माताएं अनब्याही हैं-1

लुचना जो आज से कोई १८ साल पहले बिनब्याही माँ हो गयी थी। वह मजदूरी करती थी और मेहनताना में उसे रोज ४५ रूपये मिलते थे। जिस रात ठेकेदार उसे रोक लेता था उस दिन उसकी कुल कमाई एक सौ रूपये की होती थी। मतलब एक रात के ५५ रूपये — उन दिनों कालाहांडी में मुर्गे के एक किलो गोश्त की कीमत थी ७० रुपये।


फ़ोटो: अमरेंद्र किशोर


उन दिनों भाषा संवाद एजेंसी से जारी इस खबर को देश भर के हिंदी अखबारों ने प्रकाशित किया था, 'लुचना की देह की कीमत मुर्गे के एक किलो गोश्त से भी कम' — मगर इतना हंगामा-हल्ला-हड़बोंग के बाद भी लुचना को न्याय नहीं मिला। क्योंकि उन अख़बारों की ख़बरों का रसायन अब पहले जैसा प्रभावी और तेजाबी नहीं रहा। तो तंत्र सोया रहा। आयोगों को पता नहीं चला। राज्य में एक नहीं कई लुचनायें यूँ ही एक किलो मुर्गे और दर्जन भर अंडे की कीमत से भी कम रेट पर समझौता करतीं रहीं।

अनब्याही माताओं के हालत से जुडी खबरों के आधार पर इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल साइंस रिसर्च ने ज़मीनी अनुसन्धान के बाद अनुमान लगाया कि राज्य में चालीस हजार से ज्यादा की संख्या में अनब्याही माताएं हैं। लेकिन इसके बाद कुछ खबरें कवर स्टोरी बनकर चीखने लगीं लेकिन तूफ़ान टलने के बाद की ख़ामोशी पसरती चली गयी। फिर न प्राइम टाइम में हंगामा मचा और न कोई कवर स्टोरी सामने आयी। इतना ही नहीं अनब्याही माता होने की पीढ़ीगत परम्परा के अनगिनत महीन और भद्दी वजहों को तलाशता कोई नौकरशाह नहीं मिला, कोई समाजसेवी भी नहीं और कोई पत्रकारनुमा सोशल एक्टिविस्ट भी नहीं दिखा। तब ऐसी खबरें लिखने की आत्मश्लाघा बिलकुल धराशायी हो गई — साफ़ सी बात है कि अख़बारों में चर्चित हुई लुचना टीआरपी के बिसातियों को रास नहीं आयी।

मत दीजिये नारा 'बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ' का श्रीमान। पढ़ने जानेवाली बेटियां या पढ़ने केलिए विद्यालयों के छात्रावास में रहनेवाली बेटियां जिस दरींदेपन की शिकार हो रही हैं, उसे सो कर-गाकर और चिल्लाकर दूर नहीं किया जा सकता। अभी देश दरिंगबाड़ी की नवजात अनब्याही माँ को लेकर चर्चाएं थमीं भी नहीं है कि कालाहाँडी के नारला प्रखंड की एक छात्रा के गर्भवती होने की खबर आयी है। मीडिया ने फिर अपना दोगला रूप दिखाया। खबर आयी कि दलित कन्या मान बन गयी। क्या अनब्याही माँ को जाति के आधार पर देखा और जांचा जाए ? जिज्ञासा है कि ऐसी खबरें उभरतीं तो हैं लेकिन जातीं कहाँ हैं ?

ऐसे में कहना मुनासिब जरूर है कि राजनीति में तटस्थता के साथ ओढ़ा गया मौन-व्रत नवीन बाबू की खासियत हो सकती है लेकिन राज्य में नारी की अस्मिता और नौनिहालों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ का सिलसिला अभी जिस अंदाज में बढ़ता जा रहा है यह ओडिशा को वेलफेयर स्टेट कहे जाने की परम्परा का मजाक है—जैसे सरकार पोस्को अधिनियम लागू करवा पाने में असमर्थ है। लेकिन इस कालातीत मजाक को लेकर राज्य-देश की मीडिया किस हद तक जिम्मेवार है, यह सोचने का वक़्त आ गया है। ऐसे में नौनिहालों को सुरक्षित जिंदगी देने का विज्ञापन महज चोंचलेबाजी के अलावा कुछ भी नहीं है।

चूँकि प्रधानमंत्री दिल्ली में रहते हैं तो मानवाधिकारों से लेकर लोकतान्त्रिक मूल्यों में आयी गिरावट केलिए केवल केंद्र सरकार जिम्मेवार है, इसलिए देश के बाकी मुद्दे गौण है—ऐसे में सरोकार की पत्रकारिता की दुहाई देना श्मशान घाट में अश्लील चुटकुले सुनाने जैसी बात है। आज सवाल पूछने का वक़्त है — जो नाबालिग लडकियां माँ बनतीं है उन्हें पहले बहलाया-फुसलाया और डराया जाता है और उसके बाद उनके साथ सिलसिलेबार रेप होता है। क्योंकि नाबालिग के साथ परस्पर सहमति से सम्बन्ध बनने की दलील बेमानी है। लेकिन सवाल कौन पूछे और किससे पूछे ? काश, मीडिया का कोई मुख्तार चौथे खम्भे पर बैठकर कोई पहल करता।

सवाल पूछता, गुहार लगाता और गुजारिश करता कि बीजू बाबू के लाडले ! राज्य की लुचनाओं का क्या होगा। कृपया कन्यायों को लुचना होने से बचाइए। नवीन बाबू भी चुप और राष्ट्रीय मीडिया भी चुप— इस चुप्पी की कुछ तो वजह होगी ?


अमरेंद्र किशोर तक़रीबन २६ सालों से जन और वन के अन्योन्य रिश्तों की वकालत कर रहे हैं। ग्रामीण विकास, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, जान-सहभागिता की विभिन्न गतिविधियों में संलग्न अमरेंद्र सामाजिक वानिकी, रोजगारपरक तकनीक और स्थानीय स्व-शासन से आम जनता को जोड़ने में अपना ख़ास योगदान दिया है। ओडिशा की अनब्याही माताओं, झारखंड से महानगरों की ओर पलायन करतीं वनपुत्रियों और विकास से उपजे विस्थापन के मुद्दे पर अमरेंद्र किशोर ने इस मुल्क की मीडिया को दिशा दी है। अनब्याही माताओं की समस्याओं पर केंद्रित सेमीनार देश में पहली बार आयोजित करने का श्रेय इन्हें जाता है। 

अमरेंद्र ऊर्जा मंत्रालय, भारत सरकार के प्रस्तावित अल्ट्रा-मेगा पावर प्रोजेक्ट, सुंदरगढ़ (ओडिशा) के कम्युनिटी एडवाइजर भी रह चुके हैं और वनोपजों से जुड़े वन-अधिनयम, बाल-मजदूरी, शिक्षा के अधिकार के मुद्दे पर कई शोध कार्यों से जुड़े रहे हैं। इन दिनों अमरेंद्र विकास और पर्यावरण विषय पर केंद्रित अंगरेजी मासिक 'डेवलपमेंट फाइल्स' के कार्यकारी संपादक हैं।

इनकी सात किताबें 'आजादी और आदिवासी', 'सत्ता-समाज और संस्कृति', 'पानी की आस', 'जंगल-जंगल लूट मची है' (हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा सम्मानित), 'ये माताएं अनब्याही', और बादलों के रंग, हवाओं के संग' (लोकायत-- देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय सम्मान) प्रकाशित हो चुकीं हैं।




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००







दामिनी यादव की कविता—अंडा-करी और आस्था



बाकी बहुत ज़्यादा बातें तो मैं जानती नहीं,
पर जो समझ पाती हूं वो और है
और जो समझाई जाती हूं वो और है...



अंडा-करी और आस्था

दामिनी यादव की कविता

आज वर्जित वार है,
मैंने दिन में अंडा-करी खाई थी
और शाम को दिल चाहा,
इसलिए अपने घर के मंदिर में,
बिना दोबारा नहाए ही जोत भी जलाई थी,
मैंने तुलसी के चौबारे पर भी रख दिया था एक दीया
और प्रेम-श्रद्धा भरी नज़रों से
जोत की जलती लौ को देखते,
उस पल के पल-पल को भरपूर जिया

मुझे नहीं मालूम कि ईश्वर को
मेरी ये श्रद्धा स्वीकार है
या उसे मेरे अंडा-करी खाने
और फिर बिन नहाए जोत जलाने पर
कोई ग़ुस्सा या ऐतराज़ है,

मुझे मालूम है कि धर्म के नाम पर
दुनिया में अधर्म है भरपूर
और मेरी दुनिया रहती है उसके नशे में चूर,
मगर ईश्वर क्या सोचता है इस बारे में?

मैं औरत हूं ये क्या कम आफ़त है,
उस पर मेरे सवाल जान-बूझ के बुलाई शामत हैं,
पर तुम्हें बताती हूं
कि मैं कैसे दीन और दुनिया को मिलाती हूं।

मैं जानती हूं कि देवियां कामाख्या के रूप में
रजस्वला होने पर भी पूजी जाती हैं,
वैष्णवी भी है रूप उन्हीं का,
पर वो कालिका के रूप में बलि भी चढ़वाती हैं,
और जैसा जो कोई कह देता है धरती पर वैसे ही,
वे कई रूपों-नियम-क़ायदों की भरमार से घिर जाती हैं,

पर ये दिल कुछ और कहता है
ये दुनिया कुछ और कहती है,
इसी के पेंडुलम में
मेरी आस्था भी हिलती-डुलती रहती है,
फिर भी मैं नहीं जानती ये बात कि
कौन सी बात मेरे और ईश्वर के बीच आती है।
कौन सी वजह को दुनिया मेरे और ईश्वर के बीच की
दूरी बताती है,

मैं दावे से कहती हूं कि मैंने ईश्वर को देखा है,
वो चिड़ियाघर में बंद चीते सा भी चीख़ता है,
खूंटे से बंधे लाचार कुत्ते सा भी रस्सी खींचता है,
वो केंचुए सा भी घिसटता है मेरे सामने ही कहीं,
और तितली के पंखों के खिले रंगों में भी
कहीं धनक बिखेरता है,
वो मंदिरों के भीतर पूजा जाता भी है
अपने सामने चढ़ावे चढ़वाता भी है
और फिर उसी मंदिर के बाहर की सीढ़ियों पर
किसी भिखारी के रूप में
दो रोटी को गिड़गिड़ाता भी है,
वो बच्चों के रूप में कभी शोर मचाता है
तो कभी किसी शराबी की औरत सा पीटा जाता है,

बाकी बहुत ज़्यादा बातें तो मैं जानती नहीं,
पर जो समझ पाती हूं वो और है
और जो समझाई जाती हूं वो और है,
मेरा ईश्वर तो मेरी आस्था में भी प्रकाश भरता है
पर हकीकत में वो
कीड़े-मकोड़ों, जानवरों के ज्यादा करीब लगता है
मेरा इंसान होना ही
मेरे और मेरे ईश्वर के बीच अड़ंगा बनता है,
और वो हर वक्त
धर्म-जाति-संप्रदाय और ऊंच-नीच के ख़ानों में बंटता है,

चौरासी लाख योनियों का विजेता होने पर भी
मुझे हमेशा आदर्श कथाओं के ज़रिये
यही बताया जाता है कि
ईश्वर से इंसान का डरना ज़रूरी है,
ईश्वर हमारे सवालों से
रूठता-कुढ़ता, खार खाता, प्रकोपित है होता,
और चरण वंदना-स्तुति व चढ़ावे से है पिघलता,

अपनी रचना होने की वजह से ईश्वर को है मुझसे प्यार
फिर भी मेरी की हुई कोई भी आलोचना या सवाल
नहीं होंगे ईश्वर को स्वीकार,
ऐसा ही कुछ ये समाज मुझे
अपनी कथाओं के इतिहास से बताता है।

इसे धर्म के नाम पर छलावा भी चाहिए,
और वरदान पाने को व्रत-उपवासों का बहाना भी चाहिए,
लेकिन मेरी आस्था को आडंबर का झुनझुना मत पकड़ाइए
और मेरे मन में चल रहे सवालों को पहले पार लगाइए,

मेरी ग्रह-दशा ठीक करने वाले ईश्वर को
शायद अपनी सुरक्षा की भी है दरकार,
इसीलिए उसके मंदिरों के लिए
जगह तय करती है मेरी सरकार,
वही तय करती है कि किस ईश्वर को देनी है कौन सी उपाधि
किस जगह वो जन्म लेगा और कहां लेगा जलसमाधि

वो मेरे ही वोट से चुने नेताओं सरीखा
मेरे ही कंधों पर रखकर कुर्सी अपने लिए चंदा जुटवाएगा,
फिर पुजारी के बंद कर दिए गए कपाटों
और उन पर जड़ दिए गए मोटे तालों के बीच
पंडों की ज़ेड प्लस सिक्योरिटी में मुझी से दूर बना
अपनी शुचिता भी बचाएगा!!!

बनिस्पत इसके,
कि मेरे लिए मेरा ईश्वर
सिर्फ़ मंदिरों-मूर्तियों-कर्मकांडों में नहीं,
मेरी सांसों में मेरे साथ बसता-धड़कता है,
वो रोज़ झेलता है मेरे साथ ही
मेरी मनसा-वाचा-कर्मणा की गंदगियां,
और रोज़ मेरे साथ ही धुलता है
अगर खुली आंखों से
अपने ईश्वर को कहीं किसी और नाम,
किसी और रूप में देखना चाहूं उसे
तो उसके नाम पर तो बहुत कुछ दिखता है
बस वही नहीं कहीं मिलता है,

उसका एक रूप मुझे तब भी दिखाया जाता है,
जब कर्म की नीयत को सबसे ऊपर बताया जाता है
लेकिन जब चार रक़ात नमाज़ को
मेरी आस्था-भरी बंधी नीयत से बढ़कर,
मेरी ‘नापाक़ी’ में उसकी नज़दीकी होना कुफ़्र बतलाया जाता है,
मेरे सूखे गले की रोज़ादार प्यास से बढ़कर
उसे मेरे शरीर की ये दशा घिनवाती है
और मेरे जिस्म और आस्था के बीच
यही बात दरार बन जाती है।

मैं औरों की नहीं,
सिर्फ़ अपनी ही बात करती हूं,
जहां भी देखती हूं
हर धर्म की कार्पेट के नीचे फैले हैं
पाखंड के कबाड़ बहुत
इनसे घिरे ईश्वर के पास
उसके रखवालों की है आड़ बहुत।

अंडा-करी ही नहीं, मैं मांस तक खाकर भी
पैदा कर सकती हूं यीशू-सरीखा ईश्वर का बेटा,
पर हाय रे दस्तूर ज़माने का,
ये निज़ाम है कैसा,
कि अपनी ही क़ुदरत, अपनी ही संरचना के ख़िलाफ़,
ईश्वर का बेटा भी
किसी पवित्र प्रेम भरी नज़दीकी से नहीं गढ़ता है,
बल्कि किसी ‘वर्जिन मैरी’ की ही गोद में पलता है।

अगर ये सारे सवाल मैं ज़माने से करूंगी
तो जवाबों में आते पत्थर भी मैं ही अपने माथे पे सहूंगी।
बेशक मेरे पास हैं सवाल बहुत,
पर उसके सही-सुलझे जवाबों का है अकाल बहुत,

तुम कहो कुल्टा मुझे या तुम कहो पाखंडी,
परवाह नहीं,
मैं तो अपने कर्म और मर्म के संतुलन को ही
अपना धर्म बनाऊंगी,
श्रद्धा-प्यार, सवाल और जवाबों के इंतज़ार के बीच,
मैं ईश्वर की आंख से आंख मिलाऊंगी,
और बार-बार अंडा-करी खाकर भी किसी वर्जित वार को ही,
बिन दोबारा नहाए मैं अपने ईश्वर के नाम पर
सिर्फ़ अपने ज़मीर की आवाज़ पर
यूं ही दीया जलाऊंगी।
नहीं आने दूंगी मैं अंडा करी को
अपनी आस्था के रास्ते में,
और जब भी जोत जलाऊंगी,
उसमें दीया नहीं, अपनी आस्था का उजाला फैलाऊंगी...

— दामिनी यादव


दामिनी यादव की कवितायें | Damini Yadav ki Kavityen
damini2050@gmail.com


००००००००००००००००







निधीश त्यागी की भाषा में एक बेहतरीनपन है — तीन कविताएं

कुछ नहीं । सब कुछ — निधीश त्यागी की नई किताब से तीन कविताएं


...
जगह दो थोड़ी सी

   इस वक्त़ की हबड़ातबड़ी में
   इस दुनियादारी के जंजाल में...

निधीश त्यागी की भाषा में एक बेहतरीनपन है,

जो ऐसा है कि हिंदी साहित्य में नए अनुभवों को तलाशने वालों को पसंद आने की पूरी ताकत रखता है. उनके गध्य का प्रशंशक रहा हूँ, 

और अब इन तीन कविताओं के अलग-अलग स्वादों —  पढ़ते समय, पढ़ने के बाद, और अभी —  से ऐसा ही प्रतीत हो रहा है कि वह अपनी कविताओं का मुरीद भी बना ही चुके हैं. निधीश भाई एक बड़े पत्रकार हैं और वर्तमान में नेटवर्क18 के एडिटर (भाषा) हैं. उन्हें उनके नए और पहले कविता संग्रह "कुछ नहीं । सब कुछ" की बधाई.

भरत एस तिवारी / संपादक शब्दांकन

(नोट: संग्रह का विमोचन 10 अक्टूबर को है, यदि शामिल होना चाहें तो स्वागत है, कविताओं के बाद कार्यक्रम का विवरण दिया हुआ है.)

निधीश त्यागी की नई किताब— कुछ नहीं । सब कुछ —से तीन कविताएं 


हर बार हमेशा

स्पर्श करता हूं तुम्हारे बोले शब्द को
उस किताब की थोड़ी फटी जिल्द को
    जिसका चरित्र तुम्हारी तरह मुस्कुराता है
पत्तियों की सबसे महीन शिराओं में
प्रवाहित महानदी को
बारिश भीगी मिट्टी को
मेरे कंधे पर रखी तुम्हारे बालों की खुशबू को

    स्पर्श करता हूं
तुम्हारे होने को
देश काल की अनंत दूरियों दिशाओं से
तुम्हारी परछाइयों के जरिये
स्पर्श करता हूं तुम्हें

हर बार पहली बार
    हर बार हमेशा के लिए




जगह दो

जगह दो थोड़ी सी
अपनी जगह में
अपने सुख में
अपने आनंद में जगह दो

जगह दो थोड़ी सी
   उस तिल की बगल में
   बांह के घेरे में
   उंगलियों की गिरफ्त में
   धड़कनों के नाद
   और सांसों के राग में जगह दो

जगह दो थोड़ी सी
इस वक्त़ की हबड़ातबड़ी में
इस दुनियादारी के जंजाल में
जगह दो कि थोड़ा अकेला हुआ जा सके
जगह दो कि तुम वो हो सको जो हमेशा से थे
और एक लम्बी सांस लेकर
   दर्ज करवा सको
   आंखों में आत्मा की चमक
   और उम्र की झुर्री पर
   एक मुस्कान का आमदरफ्त
जगह
दो




हीजनबर्ग का उसूल

एक पल को जीते वक़्त कहां मुमकिन
उसे पकड़ पाना भी

उसे पकड़ने की कोशिश करना
उस गतिशील अमूर्त को तोड़ना है
    जिसका नाम जीवन है

उस वक्त़ कुछ भी कहना
अमूर्त की, जीवन की, ध्यान, नियति, नक्षत्रों, प्रार्थना
    की बंद मुट्ठी खोल देना है

प्रकृति को, प्रवासी को, उगते फूल को
चलती हवा और बहती नदी को
टोक देना है

फिर किसी खाली पल में पकड़ना
    उस जिये गये पल को
चमत्कृत होना उस पल से इस पल में
उस सुख दुख का हिसाब लेकर
जो जीवन बन कर आया था

— निधीश त्यागी

कुछ नहीं । सब कुछ — निधीश त्यागी की नई किताब से तीन कविताएं

किताबः कुछ नहीं । सब कुछ (कविताएं) | कवि और प्रकाशकः निधीश त्यागी | डिजाइनरः रूबी जागृत | मूल्यः 499/-

[विमोचन 10 अक्टूबर, 2019 शाम 6 बजे, जवाहर भवन, विंडसर प्लेस, नई दिल्ली में है. 
विमोचन  के साथ साथ अशोक वाजपेयी और सीमा कोहली शब्द, चित्र और प्रेम पर अपनी बात भी रखेंगे. 
इसके अलावा ख्यात रेडियो प्रसारक और लेखक नवनीत मिश्र की आवाज़ में चुनींदा कविताओं का पाठ.]



००००००००००००००००







मधु कांकरिया की कहानी — 'उसमें उसको ढूँढने की कोशिश में' | Madhu Kankaria


एक बेहतरीन कहानी जैसे 'आवारा मसीहा' ...

उसमें उसको ढूँढने की कोशिश में

— मधु कांकरिया 



कुछ यादें बड़ी ढीठ होती हैं। अनजाने अनचाहे ही घर बना लेती हैं आपके भीतर और घरवाले की तरह हुकूमत करने लगती है। लाडो की याद भी शायद ऐसी ही थी। पता ही नहीं चला कब घर बना लिया था उसने। पता चला एक नए उभरते दिन जब सुबह की नीलिमा मेरी आत्मा में उतर भी न पाई थी कि फोन घनघना उठा। अम्मा ने काला चोंगा उठाया…दो पल भी ना गुजरे होंगे कि अम्मा चीख उठी – क्या ? कैसे हुआ ?



लाडो ने आत्महत्या कर ली थी!

ओह नो! यह क्या बात हुई भला! धरती की लड़ाई लड़ नहीं पाए तो आसमान हो गए।

कान की लवें सुलग उठीं। अंतिम समय क्या सोचा होगा उसने मेरे लिए…दुनिया के लिए। नजरें अनायास ही घूम गयी पीछे की ओर। एक ख़त्म हो चुकी जिन्दगी की ओर मुड़ कर देखना भी कितना तकलीफदेह है! तब जब कहानी के शुरुआत में ही कुछ ऐसा हो कि इसके अन्दर ही इसका अंत भी छुपा हुआ हो, बस हम ही चूक गए हों।

लगभग साल भर पूर्व मिली थी मुझे उसकी अर्जेन्ट चिट्ठी, उदास धुन में लिपटी हुई। चिट्ठी से छूती वह आवाज़ – हम सच्चाई से डरते रहे हैं इसीलिए उसको कुचलते रहे हैं। संस्कृति के लम्बे इतिहास में सबसे ज्यादा दुर्दशा सत्य की ही हुई है और यह आप जैसों ‘शरीफ लोगों ‘ की बदौलत ही ऐसा हुआ बाईजी कि सच्चाई को कभी उसका ठौर मिला ही नहीं। बहरहाल आप यह सब नहीं समझेंगी बाईजी…यदि कर सकें तो मुझे मदर टेरेसा के आश्रम के बारे में कुछ बता दें, कुछ दिनों के लिए जाना चाहती हूँ वहां।

आज जब समय की धारा में उसके बनने, बदलने और मिटने का इतिहास भी बह गया है तो दिमाग रह रह कर हिसाब कर रहा है कि कितनी वह मेरी पकड़ाई में आई थी और कितनी बाहर रह गयी थी। मेरे भीतर कुंडली मार बैठी बड़ी बहन ने बिना जाने समझे ही अपनी समझावन दे डाली थी उसे – जिस जिन्दगी की तुम बात कर रही हो क्या उस पर सिर्फ तुम्हारा ही हक़ है ? क्या इसकी निर्मिती में तुम्हारे समय, तुम्हारे परिवार, परिजन और परिवेश का कोई योगदान नहीं ?  अपने परिवार के दूध से भरे ग्लास में शक्कर की तरह घुल मिल कर ही तुम अपने लिए खुशियाँ खोज सकती हो इसलिए परिवार के सामूहिक निर्णय का स्वागत करो। अभी जीवन को भोगो, समझो और अनुभव करो लाडो। उम्र के जिस नाजुक दौर से गुजर रही हो तुम…वहां अनचीन्हे—अनजाने रास्तों के अपने खतरे हैं…अपने उद्गम से निकली कोई भी लहर क्या कभी वापस लौट आती है ? आ सकती है ? यह रास्ता तुम्हारा नहीं है लाडो। यह उन्ही मस्तमौला फक्कड़ों और दरवेशों का हो सकता है जिन्हें ईश्वर ने इसी कर्म के लिए धरती पर भेजा है। राजनीति के उत्तुंग शिखर पर बैठे तुम्हारे पिता…कभी भी मुख्य मंत्री बनने की सम्भावना से लबरेज…तुम्हारा जीवन हरी भरी घाटियों, वादियों खुशनुमा रंगों और बहारों से भरपूर। इन्ही रंगों और नूरों के बीच पली बढ़ी तुम। तुम फूफा जी की ही तरह उन्नति के शिखर तक पंहुचने के लिए बनी हो। तुम्हारा मार्ग भी प्रशस्त है। इसलिए फिलहाल अपनी बेकाबू बेचैनियों और भटकते मन को…भीतर उठते तूफानी आवेगों को थोडा विश्राम दो। देखो समय के साथ सबकुछ नहीं तो भी बहुत कुछ सम पर आ ही जाएगा। फिलहाल जीवन को सहज प्रवाह में बहने दो। जीवन का अधिकतम विस्तार होने दो। जीवन जिस रूप में मिले, उसे स्वीकार करके देख लो। उसके बाद भी मदर तुम्हे लुभाए तो बेशक चली जाना वहां। मैं नहीं रोकूंगी।

एक बात और। मदर टेरेसा में जाने से पहले जान लो कि मदर टेरेसा मदर कैसे बनी, क्यों बनी। कैम्पबैल हॉस्पिटल के बाहर एक गली में उन्होंने एक मरती हुई औरत को देखा। उन्होंने उसे उठाया और हॉस्पिटल में ले गयी। लेकिन हॉस्पिटल वालों ने उसे दाखिला देने से इनकार कर दिया क्योंकि वह बहुत गरीब थी। वह वहीँ गली में ही मर गयी। उन्ही जलते पलों उन्हें प्रेरणा मिली कि उन्हें मरते हुए लोगों के लिए आवास बनाना चाहिए। ईश्वर यदि इंसान से कुछ विशेष करवाना चाहता है तो उसे बताने का अपना रास्ता होता है। क्या तुम्हें ऐसी कोई प्रेरणा मिली है?

जवाब में उसकी एक पन्ने की चिट्ठी मिली थी मुझे – आपके पत्र में आपके भीतर बैठी बड़ी बहन बोल रही है। मुझे समझने वाली, मेरी अंतरात्मा को बांचनेवाली मेरी सखी नहीं! गलती मुझसे हुई बाईजी! फिर एक पंक्ति, ‘मैंने आपको बादल समझा और अपनी प्यास दिखा दी ‘ फिर लिखकर काटा लेकिन मैं पढ़ पायी…सितारे अपनी राह अकेले ही चुनते हैं, अपनी सलीब लगता है मुझे खुद ही उठानी पड़ेगी। आप सामान्य तापमान वाले लोग किसी की जिन्दगी के अधूरेपन को भला क्या समझेंगे ? भला क्या समझेंगे कि जिन्दगी के धागे किस प्रकार खुद – ब – खुद उलझते जा रहे हैं। आप ने लिखा जीवन जिस रूप में मिले, मुझे स्वीकार कर लेना चाहिए। ओके…मैं तो स्वीकार कर लूं…पर लोग मुझे ऐसा करने कहाँ दे रहे हैं। आपको लगता है कि मुसीबत का कारण मेरे अन्दर है जबकि मैं जानती हूँ कि मेरा अन्दर मुझे ऐसा ही मिला है। मुसीबत का कारण मेरे बाहर है। बहरहाल आप भी उन्हीं लोगों में हैं बाईजी, जो चाहते हैं कि किसी प्रकार परिवार चलता रहे चाहे व्यक्ति घुट घुट कर मर ही जाए। आपने एक बार बताया था कि चीन और चेकोसलाविया जैसे कई साम्यवादी देशों में फसल की हिफाजत के लिए चिड़ियों को मार डालने का अभियान चलाया जा रहा है। आपने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा था कि क्या चिड़ियों को जीने का अधिकार नहीं? आज अपने उस आक्रोश को याद कीजिये बाईजी! फूल जैसा भी हो उसे खिलने का अधिकार होना चाहिए ना! मेरा अभिप्राय आप समझ ही गयी होंगी।

उसके गोल गोल अक्षरों के बीच जैसे आंसू की बूँदें टपक रहीं थीं।

मुझसे 12 साल छोटी थी वो…मेरी फुफेरी बहन लाडो! मुझसे निकट भी थी और दूर भी। उससे मिलती तो जाने क्यों लगता जैसे उससे नहीं अपनी उदासी से मिल रही हूँ। कभी कभी वो मुझमें अपनी सखी ढूंढती थी इस कारण जबतब अपनी समस्याओं पर पड़े भारी भरकम पर्दों को कुछ समय के लिए हलके से मेरे लिए परे सरका देती थी। कई बार उसने मुझे संकेत देने की, अपने दिल की धड़कन सुनाने की कोशिश भी की, पर मंद बुद्धि मेरी…उसके भीतर उठते भूचाल को मैं कभी समझ ही न पायी। मेरी मोटी बुद्धि में यह महीन ख्याल कभी आ ही नहीं सका कि इतनी दौलत – शोहरत, रूप और सौन्दर्य के समंदर में भी उसकी नौका डावांडोल हो सकती है।

‘वही दाना देना, प्रभु / जिस पर मेरा नाम हो

वहीं बूंद पानी मिले / जिसमें मेरी प्यास हो…’

वे रिश्तों की अमीरी के दिन थे जब पहली बार मिलने जैसा मिलना हुआ था लाडो से। जहाँ भी वह देखती मुझे, लहरों की तरह दौड़ कर आ जाती थी करीब। तब शांत किनारों पर लय ताल में परिवार की डोंगी चल रही थी। इंद्र धनुषी व्यक्तित्व वाले फूफाजी तब राजनीति के आसमान में भारतीय जनसंघ की तरफ से राजस्थान के नेता विपक्ष के रूप में दमक रहे थे। लाडो रही होगी अठारह उन्नीस साल की। मस्त मलंग, थोड़ी अल्हड थोड़ी गुस्सैल…थोड़ी प्यारी, थोड़ी बदमिजाज…लम्बी, छरहरी, हाथी दांत के रंग की सी त्वचा। संघ की सोचवाले फूफाजी ने कभी परिवार नियोजन में विश्वास किया ही नहीं इस कारण जैसे जैसे उनकी राजनीति का ग्राफ ऊपर चढ़ता गया वैसे वैसे उनकी संतानों में भी वृद्धि होती गई और देखते देखते वे एक के बाद एक आधा दर्ज़न संतानों के पिता बन गए। लाडो से बड़ी दोनों बहने इतनी शरीफ थीं कि परिवार के जिस्म पर मामूली खरोंच तक न डाल पाई थी। पढ़ी, शादी हुई और फुर्र उड़ गयी वें। शांत झील से बहते इस परिवार में उजली धूप सी स्वच्छ और निर्द्वन्द लाडो के यौवन की दहलीज पर पाँव धरते ही परिवार के दिमाग की झिल्ली में वो तूफान वरपा की अनुशासन और मर्यादा के समीकरण बिगड़ गए और परिवार का लाड लताड़ में बदलने लगा।

इसका पहला धमाका घर में तब हुआ जब चढ़ती जेठ की एक उतरती शाम, दूरदर्शन के सीरियल के बीच हमारे बेफिक्र कहकहे, एक झन्नाटेदार थप्पड़ और एक करूण क्रन्दन तीनों एक साथ गूंजे।

या इलाही माज़रा क्या है!

भागते हुए और आवाज़ का पीछा करते हम लाडो के कक्ष तक पंहुचे। गुस्से में तमतमाई लाडो अब आसूओं में ढल चुकी थी। क्या हुआ ? मैं कभी लाडो के कक्ष की सफाई करती बाई को देखती तो कभी लाडो को जो प्रिया से कलहप्रिया बनी हुई थी। बाई का नाम था दुखिया जिसका अफ़सोस मिश्रित दुःख दोपहर की धूप की तरह इतना चमकीला था कि साफ़ उसके चेहरे पर चमक रहा था। तभी नज़र फर्श पर पड़े कांच के कुछ टुकड़ों पर गयी। कोई शो पीस था जो शायद सफाई करते वक़्त दुखिया से टूट गया था। मैंने लाडो को समझाना चाहा – इसमें इतना गुस्सा करने का क्या है, शो पीस ही तो था और आ जाएगा। नाक फुला कर ठुनकते बिसुरते कहा उसने,

यह शो पीस मुझे सुहानी ने उपहार में दिया था। उसका इकलौता उपहार। कमरे की सारी चीजों को बेशक यह तोड़ देती मुझे तकलीफ नहीं होती…पर यह…और वह फिर सुबकने लगी। नन्हे शावक सा उसका दुःख जैसे उसकी गिरफ्त से छूट छूट जा रहा था।

पहलीबार हवा में उड़ता एक नाम मेरे कानों से टकराया – सुहानी!

और इत्तफाक कि दूसरे दिन का आगाज़ ही उसके दुर्लभ दर्शन से हुआ। न इण्टरकॉम पर उसके आने की पूर्व सूचना और न ही किसी सिक्यूरिटी गार्ड की ही कोई रोक टोक (फूफा जी के बंगलो पर बिना घरवालों की पूर्व अनुमति के कोई अन्दर आ ही नहीं सकता था )रोशनी की लकीर सी वह सीधी घर के अन्दर घुस आई थी और आते ही उसकी धमाकेदार उपस्थित ने मुझे बिना परिचय करवाए ही उसका परिचय दे दिया था। इतनी आत्मविश्वास से भरी तो वही हो सकती थी। बुआ के इशारे के पूर्व ही मैं समझ चुकी थी और मेरी खुफिया नज़र उस पर गड चुकी थी।

वे सहेलियां थीं कि नयी जिन्दगी की दो नयी कोंपल जिनके एक साथ होने से पूरे घर की रंगत ही बदल गयी थी। दीवारों पर जैसे किसी ने खुशियों को पोत दिया हो। कोने में दुबकी बिल्ली तक मुग्ध भाव से उन्हें ताक रही थी। भरपूर नजरों से देखा उसकी ओर — गोरेपन की ओर उन्मुख सांवली रंगत का नमकीन चेहरा। बाज सी चमकती आँखें। गुदगुदी देह। हाथों में लाल रंग के सुरक्षा धागे। लहर लहर फैलती सुहानी की हंसी देख अपने मन के मधुवन में रमी लाडो के चेहरे से ऐसा नूर बरसने लगा जैसे उगते सूर्य की किरणों ने छू लिया हो उसे।

दोनों पात्रों की मनोदशा के उस एकांत संसार में हमारी ताक झाँक जारी थी। मैं उसी पल को जी रही थी। उसी पल की सोच रही थी इसलिए मुझे सबकुछ सुन्दर और कविता जैसा लग रहा था।

बुआ आने वाले पलों की सोच रही थी इसलिए वह चिंता में बेचैन थी। इसी चिंता में उन्हें एसिडिटी हो गयी थी। खट्टी खट्टी डकार लेते लम्बी लम्बी साँस खींची उन्होंने, सुहानी पर फिर एक नजर डाली। हलके से मुंह बिचकाया। दांत में अटके संतरे के फुस को बाहर निकालते हुए फडफडायी – हर आन्तरे पान्तरे आ धमके है, जाने क्या जादू टोना कर रखा है छोरी ने लाडो पर कि इसकी तो बुद्धि में ही भाटा पड़ गया है, घर भर में इसे तो कोई सूझे ही ना!आज नहीं आती ना तो शाम तक लाडो उसके यहाँ पुग जाती। सोते तक में इसी का नाम बक बकती रहे…कहते कहते बुआ की आँखों में बादल घिर आए थे।

कॉलेज में तो मिलते होंगे ?  मैंने सिर्फ इस प्रसंग में दिलचस्पी दिखाने भर के लिए पूछा। पीछे सर्वेंट क्वाटर से निरंतर आती ढेकियों के चिवड़ा कूटने की आवाज़ के थोडा थम जाने पर विरक्ति से जवाब दिया बुआ ने,

कॉलेज में भी मिले हैं पर सुहानी कॉलेज में ज्यादा बतियाये नहीं…पढ़ाई पर ध्यान देवे, बाप की तो बापरे की छोटी सी किरानी की दूकान ठहरी। मुश्किल से खर्चा पानी निकाल पाए। सुहानी ही सबसे ठाडी है…आगे इसी को देखना है।

फूफा जी बड़े नेता हैं…ऊंची हैसियत के हैं इसी कारण चिपकी रहती होगी लाडो से। मुंडी हिलाते और नाक की हीरे की कणी को घुमाते हुए बोली बुआ,

ना ना!वो ना चिपके है, आ तो लाडो ही है जो बाबली हो रखी है सुहानी के पीछे। महंगा से महंगा ‘गिफट ‘ खरीदेगी। आक्खो घर एक तरफ सुहानी एक तरफ। एक बार बुखार चढ़यो, लाख समझाई मैंने कि डाक्टर न दिखा दे। डाक्टर फूफा जी के चेकअप के लिए आयो भी थो पर ना। उसी दिन दोपहर को सुहानी आई मैंने बतायी सारी बात। म्हारे सामने ही जो डांट लगाई कि तावरे (धूप ) में ही दिखा आई डाक्टर न।

जैसे बुआ के वजूद की चट्टानें हिल गयी हो गहरी सांस ले वे फिर बोली,

जाने कैसा काला जादू कर रखा है छोरी ने! शुरू शुरू में तो जैसे ही वह आती घर में, सारे काम धंधा छोड़ मैं भी खातिरदारी में लग जाती। भई क्यूं न करती, लाडो की ख़ास भायली जो ठहरी। बात घणी कोनी होती, खिल खिल जियादा होती। कदी कदी गुस्सा भी करती, झूठ वाला, बड़ा मजा मिलता, धीरे धीरे जे ही मजा जान की आफत बन गया।

फूफा जी कुछ नहीं कहते? बुझे हुए चाँद सी उदास आँखों से देखा बुआ ने मेरी ओर। फिर उबासी लेते हुए कहा,

उन्ने फुर्सत ही कहाँ है पलिटिक्स से, फाइलों से ? सारे देश, गाँव, पार्टी सबकी चिंता में दुबले होंगे सिवाय घर की चिंता के। वियावर में आनंदी को सांप ने डस लिया। मैं कितना कलपी कि मुझे ले चलो पर नहीं…मर गयी बापरी। आनंदी ?  आनंदी कौन ?  मैं चौंकी। अरे अपनी गैया…दस साल से थी म्हारे साथ, अपने ही प्रवाह में बहती रही बुआ — जबतक आफत सर पर न आ जावे हर आफत को दरी के नीचे सरकाते जावें हैं। उनने तो यह तक नहीं पता कौन टावर (बच्चा )किस में है। मेरी बहन ने पूछा उनसे, राजीव कौन सी ‘ किलास ‘ में है तो ठीक से बता तक नहीं सके। वापस आकर मुझसे पूछा। वे गए तो मैं दांत के दर्द से मरी जा री थी…कल इक्कीस दिन बाद घर आये तो अखबार पढ़ते पढ़ते पूछते हैं अब सर दर्द कैसा है तेरा। यह तो हाल है उनका। एकबार मैंने उनसे लाडो की बात भी छेडी थी तो बोले…दो भायलियों के प्रेम में मैं क्या कर सकता हूँ। घर में कुछ भी हो रहा हो उनकी बला से…सुनेंगे…दो घड़ी सोचेंगे, मुंह बनाएँगे, चिंता चबाएँगे और फिर थूक देंगे।



घर में रहते हुए भी इस घर के दो लोग… सबसे ज्येष्ठ…फूफा जी और सबसे कनिष्ठ लाडो घर के घेरे से बाहर थे। मैं ऐसा ही कुछ देख कर सोच रही थी या सोच कर देख रही थी कि बुआ के दुःख ने फिर बोलना शुरू किया — पर क्या सचमुच यह दो भायलियों का परीत प्रेम ही है ? मुझे तो लगता है सुहानी ने कुछ करवा दिया है। सोने पर मीने की कारीगरी वाली चूड़ियों को ऊपर चढाते हुए एक ठंडी सांस भरी बुआ ने और भौंहे चढाते हुए मुझे कुहनी मारी…देखो देखो नजारा उधर।

बुआ से उकताकर मैं थोड़ी दूर चली आई। पर दिन की डूबती रौशनी में उस दृश्य में जाने कैसा आकर्षण था कि पल पहर थम गए। नजरें वहीँ टिकी रही — जाती हुई सुहानी को भी द्वार पर ही अटकाए हुए थी लाडो जैसे सुहानी के साथ समय नहीं बिता रही थी वरन समय और सृष्टि से परे उन साथ बिताए लम्हों को कविता में ढाल रही थी। लहर लहर फैलती दोनों की हंसी बांसुरी सी बज रही थी। अहिस्ता अहिस्ता आँगन के पार पाँव धरा सुहानी ने। लाडो ने उसके हाथों में लिफाफा जैसा कुछ पकड़ाया जिसे सुहानी ने लौटाया। लाडो ने मुरब्बे सी मीठी मुस्कान के साथ वापस लिफाफे को उसके हाथों में धरा। लगा अमेरिका सोमालिया के आगे सर झुका रहा है ‘तुम रख लो मेरा मान अमर हो जाए…’। फिर हाथ लहराए। जाती हुई सुहानी को यूं देख रही थी लाडो जैसे गोपियाँ भी कृष्ण को क्या देखती होगी। फिर भी जी नहीं भरा उसका तो कमरे की खिड़की से जाते हुए उसे यूं देखने लगी जैसे बच्चे खिड़की से चाँद देखा करते हैं। मैं जादू टोना नहीं मानती पर कहीं न कहीं लाडो बुरी तरह सम्मोहित लगी उससे। मैंने भी झाँका था सुहानी की आँखों में…सांप की तरह सम्मोहित करने वाली थी वे आँखें।

हर रोज मैं लाडो को थोडा थोडा देखती और उसके भीतर प्रवेश करने की कोशिश करती और सोचने लगती कि जो प्रेम पहले सुगंध फैला रहा था कैसे प्रदूषण फैलाने लगा वह अब ?  क्या सचमुच ऐसा हो सकता है ? क्या बुआ ठीक कहती है कि लाडो उसके वशीभूत थी ?

पर थी तो भी इसमें इतना भयभीत होने की क्या बात थी। याद आया अपने स्कूल के दिनों मैं और मेरी सहेली भी अपनी एक टीचर के प्रति अनूठी भक्ति रखती थी। उनकी एक झलक के लिए पागल रहती थीं हम। उनको लेकर हम दोनों के बीच इर्ष्या भी पैदा हो जाती थी। हम सभी ही पहले समान सेक्स के प्रति आसक्त होते हैं, बाद में विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण प्रबल होता है। पर वह सब छोटी उम्र में होता है। लाडो अब उतनी छोटी नहीं रही। इसी भादों में बीस पूरे कर चुकी है। हाँ पर जब तक उसके जीवन में कोई सुहानी से बढ़कर नहीं आ जाता तबतक…

अपने ही सवाल और जवाब में डूबी हुई थी कि फिर एक विचित्र बात और देखी मैंने। दुखिया ने सुहानी की झूठी थाली उठानी चाही तो रोक दिया लाडो ने और खुद ही उठाकर ले गयी उसकी थाली को और थोड़ी ही देर बाद मैंने जो पागलपन देखा कि मन हैरानी और हलकी जुगुप्सा से भर गया। अपने लिए खाना भी वह उसी झूठी थाली में लेकर आई। उसके छोड़े गए जूठे खाने को भी उसने बड़ी आत्मीयता से खाया। यूं इसमें कुछ भी आपतिजनक नहीं था यदि यह सामान्य मानसिकता में किया गया होता पर कुछ तो था जो दृश्य में रहते हुए भी पकड़ाई में नहीं आ रहा था। हे परवरदिगार! इस यथार्थ के पीछे का सत्य क्या है? क्या इसके पीछे कोई भक्ति भाव छिपा था, ईष्ट के प्रति किसी एकनिष्ठ योगी सा? या उसकी बुनावट में ही कोई केमिकल लोचा था ?

उसमें उसको ढूँढने की कोशिश में मैं सोचती कि कैसे उसके दिमाग के भीतर घुस जाऊं। पर वह थोड़ी पागल भी थी और एक पागल के दिमाग के भीतर किस तरह घुसा जा सकता था ?

इन्ही बेतुके ख्यालों में बीता वह पूरा दिन और देखते देखते लज्जा में लिपटा एक अजीब सा विषाद हम सबके बीच आ बैठा था। पहली बार हमारे ललाट पर सात सलवटें उभरी थीं और बुआ की आँखों में एक अशांत अपवित्रता भर गयी थी। जैसे भी हो हमें लाडो को सुहानी के पिंजरे से बाहर करना ही था!

बुआ के भीतर २०वी और १८वी सदी एक साथ वर्तमान थी। शाम होते न होते १८वी सदी ने वो जोर मारा कि विचलित बुआ ने राज ज्योतिष को बुलवाया। ये वही राज ज्योतिष थे जिन्होंने ईमेर्जेंसी हटने के बाद फूफा के चुनाव जीतने और बड़े राजयोग पाने की भविष्यवाणी कर दी थी (ईमेर्जेंसी के बाद जो चुनाव हुए उसमें फूफा जी प्रदेश के उप मुख्यमंत्री बने थे )। घर की छत पर झूलते फानूस को देखते हुए राज ज्योतिष ने कुछ गणना की और बताया कि सूर्य, शनि और राहू ये तीनों अलगाववादी ग्रह हैं, जिस घर में बैठते हैं उसे उसके भाव से अलग कर देते हैं। लड़की के पति और पिता दोनों के घर में ये अलगाववादी ग्रह बैठे हुए हैं इसलिए शादी की सफलता में अड़चन रहेगी…बहरहाल ग्रह की शांति के लिए पूजा पाठ और दान का प्रिस्क्रिप्शन लिख कर चलते बने वे।

बुआ की आँखों में अमंगल की छाया कांपी और उसी के प्रतिवाद स्वरूप आनेवाले कल की चिंता में घर के कोने अंतरे में पूजा, मन्त्र, जाप और ईश्वर को स्थापित कर दिया गया था।

उसके अगले दिन सुबह सुबह ही बुआ ने पंडित जी का दिया मारक मन्त्र बुदबुदाया और लाडो के आते ही बीमारी का बहाना कर उसे सुहानी के घर जाने से अटका दिया। बुआ शायद मारक मन्त्र का प्रभाव देखना चाह रही थी। लाडो घर में रुक गयी पर दूर रहकर भी दूर् कहाँ रह पाती थी वह। जहाज के पंक्षी की तरह वह पुन:पुन: जहाज पर। कनखियों से देखा…कॉलेज से आते ही खाना खाते ही वह फिर उससे फोन के जरिये चिपक गयी थी। फिर देखा, सामानों से भरा कोई बैग नौकर के जरिये सुहानी के घर भेजा जा रहा था। नेता फूफा जी के यहाँ तोहफों के ढेर लगे रहते थे उसी भार को उसने हल्का करने की कोशिश की थी। इसबार मैंने हिम्मत कर उससे कहा – अति सर्वत्र वर्जयेत…तीर निशाने पर लगा था। समझ गयी थी वह। रोम रोम में विद्रोह भरा हुआ था उसके। चेहरा कस गया, पलटवार करते हुए उसने मिसाइल चलायी – और जीवन जो अति करता है हमारे साथ उसका क्या ? समय जो घुटन पैदा कर रहा है मेरे भीतर उसका क्या ?

वह एकाएक सयानी हो गयी थी।

बीस से चालीस की हो गयी थी।

क्या मतलब ?

कुछ नहीं…धीरे धीरे बुदबुदायी वह। मुझे लगा इसी पल से एक परायापन उगने लगा था हमारे बीच, इसीलिए स्पष्ट कुछ जवाब नहीं दिया उसने। पर उसके चेहरे का असमंजस…उसकी कशिश…उसकी तपिश…उसकी देह की, उसके अंग अंग की, उसकी आँखों की भाषा मुझसे कुछ कहना चाह रही थी।

जीवन, समय, घुटन, अति…जैसे उसके शब्द मेरी आत्मा की देह को बार बार अपनी नुकीली चोंच से कोंचते रहे। मुझको पहलीबार लगा कि सबकुछ ठीक नहीं, कुछ तो रहस्य है उसकी दुनिया में। कोई तो टीस है जो उसके सीने की परतों में दबी हुई है वरन जो जीवन इस उम्र में स्वप्न और संघर्ष को समर्पित होना चाहिए था वह इस कदर एक सखी के इर्द गिर्द कैसे सिमट सकता है। पर क्या है वह रहस्य ? क्यों कर रही है वह ऐसा व्यवहार ? मैं बस इतना भर समझ पाई कि उसके यथार्थ को शब्दों में नहीं रखा जा सकता था…कि उसको गिराने के चक्कर में खुद मैं भी गिर रही थी। दूसरी शाम फिर उसके पास बैठी भी पर उस दिन वह पूरी तरह सजग थी…खुद में थी। ऋषि भाव में थी। मैंने फिर पूछने की हिमाकत की,

क्या तुम्हे नहीं लगता कि उधार की ख़ुशी से भर रही हो तुम अपने खाली मन को। सिर्फ एक पर अपने को पूरा का पूरा खर्च कर रही हो…देखना वो कभी भी किसी भी दिन अपनी डोर वापस खींच लेगी।

मेरी अशुभ बात पर अपनी बात लादते हुए कहा उसने,

जो अपनी ही काट पीट में लगा है, खुद से ही खुद को बचा रहा है। वह खुद को दूसरे पर क्या खर्च करेगा बाईजी। जिसके पास अपना आप ही नहीं उसकी डोर कोई क्या खींचेगा…फिर यह सवाल तो आपको उनसे पूछना चाहिए जिन्होंने मुझे तन मन और आत्मा दी। यदि मैं दूसरों से अलग हूँ तो उसमें क्या मेरा कसूर है ?  उसने कहा मुझसे नहीं खुद से। मैंने पूछा,

क्या मतलब ?

उसकें गले में एक अस्पष्ट सी घरघराहट हुई। वह नहीं बोली कुछ। उसकी पलकों की झालर भींगने वाली थी ही कि मुंह घुमा लिया उसने। मैं चली आई। ऐसा कई बार हुआ, जब जब मैंने उसके अंतरतम तक पंहुचकर सत्य जानने की कोशिश की, जाने क्या कमी रही मेरी कोशिश में कि दरवाज़ा पूरा कभी खुला ही नहीं।

लाडो को उसके मन का पाखी उडाता रहा और हम सब अपनी अपनी पतंगे उड़ाते रहे। हम सबके दिलो दिमाग में एक ही चीज केंचुए सी रेंगती रही…सुहानी। बुआ को लगता कि सुहानी ने उसपर कुछ करवा कर उसके दिमाग में इस कदर गोबर भर दिया है कि उसे और कोई न दीखता है न सुनता है। दोनों बहनों और भाइयों को यह टीनएज आकर्षण जैसा कुछ लगता…यद्यपि वह टीन ऐज को साल भर पहले ही पीछे छोड़ चुकी थी। राजनीती के तालाब में छप छप डुबकी लगाते संघी मनसिकता वाले फूफाजी इसे अनुशासनहीनता और पागलपन से जोड़कर देखते।

सूखे सूखे दिन। न कोई बादल न कोई हवा…न पत्तों पर गिरता बारिश का संगीत…कुछ भी तो नहीं गुजरा हमारे घर से। धूल मिट्टी के बबंडर से भरे कुछ दिन और वहीँ गुजारकर मैं कोलकता लौट आई। आते वक़्त मन किया भी कि उससे कुछ अन्तरंग बात करूं कि नए सिरे से उसे जानने की कोशिश करूँ पर नहीं जानती कि कैसी दुविधा थी मेरे अन्दर। बिगाड़ का डर या कायरता?  मन के उस टुकड़े को वहीँ छोड़ दिया मैंने पर नहीं छेड़ा उस उदास कविता को। परिचय अपरिचय की देहरी पर ठिठकी खडी रही वह। हम दोनों एक दूसरे के चेहरे से एक दूसरे के दुःख को पढ़ते रहे। फिर उसने ‘धोक ‘ दिया, मैंने पीठ पर हाथ फेरा, दोनों के दुःख मिलते मिलते रह गए।

******

इस बीच…

बुआ के दोनों लड़के पढ़ाई के लिए दिल्ली निकल गए थे। फूफा जी के मुख्य मंत्री बनने की संभावनाएं चमक रही थीं। राजनीति से फुर्सत मिलती उन्हें तो गाँव की बेशुमार प्रॉपर्टी…कुत्ते बिल्ली तक के नाम खरीदी गयी जमीन…इन सबमें समय फुर्र फुर्र उड़ रहा था उनका । घर आए महीनों बीत जाते और आते भी तो बाहर की दुनिया साथ चली आती। इस कारण अब लाडो सुहानी मिलाप निर्विघ्न लहर लहर आगे बढ़ता जा रहा था। समय का फायदा उठा वह अधिकतर कॉलेज से सीधा सुहानी के साथ घूमने निकल जाती। देर रात तक घर आती। सुहानी के चाचा तक की शादी में भी वह बुआ को अकेली छोड़ बरात के साथ भीलवाडा चली गयी थी। उसके चक्कर में घनचक्कर बनी बुआ कछुए सी सिकुड़ती जा रही थी और एक ही गुहार बार बार लगा रही थी मैं किसी प्रकार लाडो के मन से सुहानी का नाम खरोंच दूं। कुछ तो ऐसा कर दूं कि उनके हेत में रेत पड़ जाए।

मैं चाह कर भी लाडो से कुछ कह नहीं पा रही थी। मन उधेड़बुन में लगा रहता…कहूं तो भी क्या कहूं ? गलत लगते हुए भी कुछ भी गलत नहीं लग रहा था। यही हमारी सबसे बड़ी बिडम्बना थी। क्या वह कोई अपराध कर रही थी? एकबार कहा, पढ़ाई पर ध्यान दो तो उसने अपनी मार्क्स शीट मुझे पोस्ट कर दी। मैंने देखा उसके अंक काफी अच्छे थे। उस बड़े बाप की बेटी को यह भी तो नहीं कह सकती थी कि घर के काम में बुआ को मदद करो। उस घर में सरकारी नौकरों की फ़ौज खडी थी।

******

चार साल बाद उतरतें बसंत में जबतक मैं गुलाबी नगरी जयपुर फिर आयी, घर के रंग बदरंग होने शुरू हो गए थे। हालाँकि लाडो ने अच्छे मार्क्स से एम। ए पास किया था और फूफा जी के प्रभाव से एक कॉलेज में लेक्चरर भी नियुक्त हो गयी थी वह। लेकिन अब समस्या यह थी कि पूरी सुबह वह सुहानी की प्री स्कूल में बिताती थी। उसको प्री स्कूल चलाने में मदद करती थी। सुनगुन यह भी थी कि यह प्रीस्कूल भी लाडो के आर्थिक सहयोग से ही खुल पाई थी। एकबार बुआ ने उसके पीछे से उसके कमरे की तलाशी ली तो देखा उसकी चेक बुक खुली पड़ी थी। बुआ ने मुझसे नाम पढवाए तो पता चला कि कई चेक सुहानी की प्री स्कूल के नाम काटे गए थे। इनसब को तो बुआ फिर भी सहने की आदि हो चुकी थी, पर तलाशी के दौरान ही उसकी डायरी मेरे हाथों लग गयी। डायरी का शीर्षक पढ़ते ही जैसे बुआ और मुझे एकसाथ डंक मार गया। जाने किस दुनिया का डर हमारे अंदर दुबका बैठा हुआ था कि डायरी के हाथ लगते ही उस डर ने हमें ही धर दबोचा। जैसे शीर्षक नहीं समय की शिला पर लिखा अपना भवितव्य पढ़ लिया हो हमने। पहले पृष्ठ पर ही लिखा था ‘सुहानी शरणम् गच्छामि ‘ उसके नीचे लिखा था – ‘जिन्दगी, दर्द और प्यास का रिश्ता खुल रहा है धीरे धीरे…अपार अथाह जलाशय मेरे सामने है पर उससे क्या…मुझे तो प्यारी वही बूँद जिसमें हो मेरी प्यास ‘

यानी आगे भी सुहानी के साए में ही चलते रहने का इरादा था उसका! तो सत्य उससे भी ज्यादा था जितनी हमारी आँखें देख पा रही थी।

बुआ के अन्दर जैसे नुकीले चाकू की तरह धंस गयी थी सुहानी।, हाहाकार करती बोली – अब तो समाज में भी इकी अटपटी और उल जलूल हरकता कै चलते जगहंसाई हो री है, लोगों को बैठा बिठाया मिल गया मसाला। छोटी सी बिरादरी, बात छिपी कोनी रहे। काल मंदिर गयी तो लोग फुसफुसा रिया थे। जाने कांई खार जणा था इनै! कुलबोरनी न और कोई मिल्यो ही कोनी!

शाम तक ग़दर मच गयी थी। कपास से उड़ते लाडो के मन को घेरने की पूरी योजना हो चुकी थी। गली में भौंकते कुत्तों और पेड़ों पर बैठे परिंदों की फडफडाहट तक काबू में थी। फूफा जी को अविलम्ब बुलाया गया था। डिटर्जेंट छाप सफ़ेद झक झक कुर्ते में फूफा जी आए। हालचाल जाने और जानते ही उनका बीपी बढ़ा और तीसरा नेत्र खुला। बेटी की शक्ल देखी तो मन अकुलाया। राजनीति ने भीतर से हांक लगायी तो ममता कोने में दुबक गयी। हाथ पीछे बाँध गोल गोल घूमते हुए वे मन ही मन बुदबुदाए – बेटी क्या हुई कश्मीर हो गयी…तुरंत कुछ करना होगा।

और इस तुरंत के अजेंडे में सबसे पहले उन्होंने अपने पितृ प्रेम को फोल्डिंग कुर्सी की तरह समेटा और एक कोने में पटक पारिवारिक  फिदायीन की भूमका में आ गए। तय हुआ लाडो की नजरबंदी। घर…कॉलेज…भीतर — बाहर…सब पर पाबन्दी। पाबन्दी की माकूल व्यवस्था कर फूफा जी अपनी किसी प्रेस कांफ्रेंस में व्यस्त हो गए। सुबह नौ बजे लाडो के रोशन कमरे में मैं जब चाय देने पंहुची तो पंख टूटे पाखी की फडफडाहट उसके कलेजे पर सवार थी। कमरे में टेप चल रहा था ‘आवाज़ दिल की पहचान ले, मैं कौन हूँ…जान ले तू ये… लाडो आँखों में जल और ज्वाला के साथ कमरे की खिड़की से बाहर उमड़ते घुमड़ते काले बादलों की ओर देख रही थी। मैंने पूछा क्या देख रही हो? उसके बुझे हुए चेहरे पर जीवन जैसा कुछ कांपा। निचला जबड़ा अपमान से कंपकंपाता रहा। पहली बार मैंने उसके चमकीले चेहरे से कई रंगों को एक साथ उड़ते देखा।

कुछ बोझिल पल!

पेड़ से झरती पत्तियों की तरह फिर कुछ शब्द गिरे उसके होंठों से – इस समय सुहानी इधर से अपनी स्कूल के लिए गुजरती है…शायद दिख जाए। मैंने धीरे से कहा – कितने बड़े नेता और कितने इज्ज्दार परिवार से हो तुम। मेरा बोलना हुआ कि सारे बाँध भरभरा कर टूट गए। वह भीतर से बाहर निकली और फूट पड़ी – पिता की प्रतिष्ठा का भार मुझसे न ढोया जाएगा बाईजी। मेरे लिए तो मेरे पिता घर में भी विपक्षी नेता ही हैं…मेरी आत्मा के विपक्ष में खड़े जिन्होनें जन्म दिया पर जीवन जीने की आज़ादी छीन ली…बोलते बोलते वह फफक पड़ी। डाल से टूटी टहनी सी उसकी कराह, अपमान की फांस और न समझे जाने का आक्रोश उसकी आँखों से धार धार इस कदर बह रहा था कि लाडो पर लाड उमड़ आया। एकबार मन हुआ कि बुआ से सिफारिश करूँ कि सारी पहरेदारी हटा दे…कि स्वातन्त्र्य में ही चीजें पूरी तरह प्रस्फुटित होकर खिलती है पर घर में छाए तनाव के कुहरे और पोर पोर दुखी बुआ का बुझा हुआ चेहरा देख मुझसे कुछ भी बोलते नहीं बना।

खुल गया दिशाओं का बेचैन आकाश!

फूफाजी बेचैन थे कि उनके पोलिटिकल सलाहकार ने उनसे गलत वक्तव्य दिलवा दिया था। डर था कि सही दिशा में अग्रसर उनकी राजनीती की नाव कहीं डगमगा न जाए। लाडो के दोनों भाई बेचैन थे कि इतनी नाकेबंदी के बावजूद लाडो के इरादों में कोई बदलाव नहीं आ पाया था। हमने शर्त रखी कि वह शादी के लिए तैयार हो जाए। उसने अभी तक हमारी शर्त पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया था। बुआ और मैं…दो विपरीत भावनाओं के प्रवाह में पड़कर छटपटा रहे थे। एक मन करता करने दे लाडो को मनमानी…तो दूसरा सामाजिक संस्कारी मन करता…इसके उज्जवल भविष्य के लिए जरूरी है यह नाकेबंदी।

दूसरे दिन देखा लाडो की मोटी मोटी आँखे जवा फूल की तरह लाल लाल थी। अधिकार सम्पन्नता से भरे फूफाजी ने सुहानी के पिता को जी भर जूतियाया – यदि असल बाप के पूत हो तो रख अपनी बेटी को काबू में, मेरी बेटी का पीछा वो छोड़ दे नहीं तो…। हमारे गुप्तचरों ने खबर दी कि इस ’ नहीं तो’ की धमक और दमक ने अपना काम तुरंत कर दिखाया। कल सुबह जब खेत में झूमती गेहूं की बालियों की तरह झूमते हुए लाडो सुहानी की स्कूल पंहुची तो सुहानी ने उसे बहुत जलील किया था। उसके लाए गिफ्ट पैकेट को भी पूरी ताकत से बाहर उछाल दिया था। पहलीबार उम्मीद का सूरज निकला और हमारे चेहरों पर विजेता के भाव यूं दिप दिपाए जैसे हमने चित्तोड़ फतह कर लिया हो। सुहानी के बड़े भाई संजू ने ओंठों को गोल करते हुए कहा –अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे!



मध्यवर्गीय मर्यादाओं से बेजान और खोखली पड़ी बुआ टुकुर टुकुर ताकती रही अपने कामयाब पति को। राजनीति में ही नहीं घर में भी एक झटके में ही उन्होंने विरोधी दुश्मन को धूल चटा दी थी। अगले कदम के रूप में फूफा जी ने कहा ‘शादी’ और अपने ड्राइंग रूम में लगी ‘लिव एंड लेट लिव’ के फोटो फ्रेम पर नज़र गडाते हुए शर्ट पर लगी अदृश्य धूल को हाथों से झाड़ा। फिर सर्वसम्मति से सोचा गया कि एकबार लाडो के स्वाभिमान और आत्मा के घायल हंस पर शादी की मिट्टी का लेप लग जाए तो इसकी जुबान से तकिये से उतरते मैले गिलाफ की तरह सुहानी का नाम उतर जाएगा। इस ‘प्रस्ताव ‘ के सर्वसम्मति से पास होते ही उसपर एकबार फिर शादी का भरपूर जोर डाला गया, यहाँ तक कि उससे संवाद बंद कर दिया गया जब तक वह शादी के लिए सहमत नहीं हो जाती। सम्बन्धों ने नयी करवट ली और हर निगाह रडार बनी उसकी गतिविधि की टोह लेती रही।

और एक शाम कमाल हो गया। जो लाडो शादी के नाम से ही यूं बिदकती थी जैसे सनातन धर्मी गो मांस के नाम से बिदकते हैं, वही लाडो साथ सिरहाने की डोर को हाथ से छूटती देख कच्ची पड़ी और बिना धमाल मचाए ही हम पर रहम खाते हुए, दिए की लौं सी कांपती आवाज़ में कहा ‘हाँ हाँ SSS ‘। फूफा जी के आलीशान ड्राइंग रूम में उसकी आवाज़ गूंजी और दीवार पर लगे ‘लिव एंड लेट लिव’ का फोटो फ्रेम व्यंग्य से मुस्कुरा पड़ा। उसके हाँ भरते ही एक नन्हीं कामयाबी हमारे होंठों पर चमकी और दूसरे दिन से ही जोर शोर से उसके लिए वर की तलाश में पूरा कुनबा जुट गया। सुन्दर कन्या ऊपर से पिता नेता विपक्ष! दस दिन के भीतर ही डौल बैठ गया वर का बल्कि यूं कहिये कि कतार लग गयी। वरों की कतारों में एक ऐसे वर को उठाया गया जो ठंडी तासीर और थोड़ी कमजोर हैसियत का था। और इसके साथ ही फूफा जी सहित हम सब ने चियर्स की। लक्ष्मी मिष्ठान भण्डार से घेवर और आम का कलाकंद मंगवाया गया। लाडो का भविष्य और फूफाजी का परिवार असुविधाजनक स्थिति में पड़ने से बच गया था।

उस गहराती रात जब नींद के उड़ते पाखी को बुलाते बुलाते थक गयी मैं और पानी पीने के लिये बाहर निकली तो देखा उसके कमरे से हलकी हलकी रौशनी झाँक रही थी। दरवाज़े को हलके से हिलाया तो खुल गया दरवाज़ा। घुसी कमरे में तो झटका खा गयी। नाईट लैंप की झपकती लौं में उसका उदास चेहरा झिलमिला रहा था। उसके हाथ में प्याला था…झन्न सा गिरा कुछ। स्तब्ध –सी आँखें स्थिर हुई तो समझ में आया कि नींद भरी आँखों से झोंके खाते वह पी रही थी। ’यह अंतिम बेहोशी, साकी अंतिम प्याला है…’ मेरे देखने को वह देख भी रही थी। फिर भी न वह सकपकाई और न ही उसने छिपाने या हटाने का कुछ प्रयास ही किया। एक घुटा घुटा डर मेरे अन्दर समा गया। उस नन्हें क्षण, मन में यह भी आया कि इस दुस्साहसी बेलगाम घोड़ी पर लगाम कस फूफा जी ने ठीक ही किया है। (उस पम्परावादी संघी घर में स्त्री तो क्या पुरुष तक नहीं पीते थे )नज़र कुछ और देर उसपर टिकी रही तो उसके प्रति गीली गीली सहानुभूति उगने लगी। राय बदल गयी। गहरी वेदना और आसूओं में डूबा उसका भींगा मासूम सा चेहरा अलग ही कहानी कह रहा था…शायद जीवन की कठोरता को सोमरस में बहाने की असफल चेष्टा स्वरूप ही उसने उठाया था यह कदम। भीतर मेरे भी जाने क्या पिघला कि मैंने उसके सर पर हाथ फेर दिया। वह सुबक सुबक कर रोने लगी थी जैसे मेरे हाथ फेरते ही अपने भीतर के यातना गृह को फिर से देख लिया हो उसने। कोई तो पीड़ा थी जो उसे भीतर ही भीतर कुतर रही थी। फिर मन किया…बात करूँ उससे, पूछूं कि जो लाडो शादी के नाम से ही यूं आतंकित हो जाती थी जैसे कभी यहूदी हिटलर के नाम से हो जाते थे…वो शादी के लिए अचानक राजी कैसे हो गयी ? पर जाने कैसे डर ने…शायद शादी की ताजा ताजा बनी बात के बिगड़ने के डर ने…या इस पीने के दृश्य ने ऐसा आविष्ट कर रखा था मुझे कि शब्द भाग खड़े हुए, बस चुप्पियाँ ही खेलती रहीं हम दोनों के बीच। उस दिन से बल्कि ठीक उसी पल से उसने मुझे विरोधी दल का समझा और ठंडी निस्संगता से मुझे जाते हुए देखती रही।

फूफा जी के पिता-मन पर उनका राजनैतिक मन हावी हो रहा था क्योंकि उनके मुख्य मंत्री बनने की संभावनाएं दिन पर दिन चमक रही थीं। चुनाव अधिक दूर नहीं थे इसकारण उनकी बैठक में दिनभर कार्यकर्ताओं, सरपंच, विधायकों और पटवारियों का ताँता लगा रहता। पोस्टर, बैनर, झंडों और नारों की दुनिया अलग उन्हें खींचती रहती। कार्यकर्ताओं की दारु, जीप, मुर्गा और भत्ता की मांग ने अलग से उन्हें परेशान कर रखा था। ऊपर से बेटी की बला! ऐसे में लाडो की शादी के लिए सहमती!

वे परम पुलकित थे।

लेकिन हम सब भीतर भीतर थोड़े डरे थोड़े सहमें थे। लग रहा था जैसे घर में शादी नहीं श्राद्ध मनाया जाने वाला है। जब हमने कुंवर सा को धों पोंछ सजा धजा उसके सामने खड़ा किया तो उसने आँख तक ऊपर नहीं उठाई। जब जब हमने कुंवर सा को लेकर उससे चुहल करनी चाही उसने चुप्पी ओढ़ ली। हमने चाहा कि वह शादी की खरीददारी में संग चले तो उसने ओंठ गोल कर लिए। जब उसे शादी का घाघरा – ओढनी का सेट दिखाया गया तो उसने आँख मूँद ली। बुआ ने प्यार से कहा भी – अपने घर जा रही हो…ख़ुशी ख़ुशी जाओ तो चुपचाप वह अपने कमरे में चली गयी। उस शाम बुआ सचमुच विचलित थी। आशंकित थी। उसके अन्दर बैठी माँ ने फिर उफान मारी। कलपते हुए पूछा उसने फूफा जी से – क्या हम ठीक कर रिये हैं ?

आत्मविश्वास से दिप—दिप करते फूफा जी ने मूंछ पर ताव दी और गर्दन हिलाते हुए बुआ को समझाया –। तू क्यों कांग्रेस की तरह चिडचिडी हो रही है। तेरे जिगरा नहीं तो मुझ पर छोड़ दे। तू ने तो देखा है एक से एक सूरमाओं को कैसी पटखनी दी है मैंने…याद है वो शेखावत… चला था मुझे बदनाम करने…जमानत जब्त करवा दी गधे की। लाडो की जिन्दगी पटरी पर आ जाएगी…कैसे… यह मुझ पर छोड़ दे। मेढकी आखिर कितना उछल लेगी…कील को तो हथोड़े से ही ठोका जा सकता है। उसके लिए शादी ही सही हथोडा है। अरे शादी ने बड़े से बड़े छुट्टे सांड की नाक में नकेल डाल दी है…हमारी लाडो किस खेत की मूली है? फिर शादी के लिए तो कम मन से ही सही पर हां तो उसने भरी ना! बस उस कम मन को ही पूरे मन में बदल देना है हमें। इसके लिए जरूरी है कि हम सब उससे हल्का सा फासला बनाए रखे जिससे उसके इस अहसास को बल मिलता रहे कि अब इस घर से उसका दाना पानी उठने वाला है। असली घर उसका वही है।

शादी पूर्व की हर रस्म में उपस्थित रहते भी अनुपस्थित रही वह। हम भी उन रस्मों को निभाते ऊपर—ऊपर तैरते रहे। पत्‍ते चुनते रहे।सांस रोके समय को अपने ऊपर गुजरता देखते रहे। जाने किस विपक्ष के किस अदृश्य हाथों ने एक प्रकार की क्रूर निस्संगता को हमारे बीच उगा दी थी।

उस कम मन को पूरे मन में बदलने की धुन में हम देखकर भी नहीं देख पाए कि जैसे जैसे शादी की तिथि करीब आती जा रही थी उसके जीवन से जीवन रिसता जा रहा था। सगाई की रस्म के समय जिन क्षणों उसे हीरे जडित अंगूठी वर को पहनानी थी उसकी उन स्वप्निल निरीह आँखों में जैसे पृथ्वी का सारा आर्तनाद भर आया था! हम सब उसकी इस गहन और महाकाव्यात्मक पीड़ा के गवाह थे पर हम करते भी क्या। हम उसका भला चाहते थे और इस चाहने में पीड़ा का एक अध्याय हमारा भी था। इसलिए हम सब सख्ती का काला चोंगा पहने रहे और दम रोके विवाह के दिन का इंतज़ार करते रहे।

‘अजायबघर से तुम्हारे

जाती हूँ अपनी बेहतर दुनिया में

अलविदा देवताओं, अलविदा…। ’

२५ मई १९९७!

सत्ताईस दिन के भीतर उसके केसरिया बालम हीरे की कलंगी वाले गहरे लाल रंग के साफे और सुनहरी शेरवानी में घोड़ी पर चढ़ हमारे द्वार पधारे। तोरण मारा। रस्म रिवाजों के साथ किसी कुशल बढई की तरह हमने लाडो को शादी के चौखटे में किसी प्रकार फिट किया। सात वचन, सात फेरे और ‘बाबोसा री प्यारी म्हारी बनरी नथ पर मोर नचावै छै… ’ के बीच असली वसरा मोती के जेवर और राजस्थानी घाघरा ओढ़नी में सजाकर कन्या दान कर उसे विदा किया। विदाई ज्यादा ही भावभीनी विदाई थी। हमारी आँखों में नमी के साथ साथ सतर्कता का चश्मा भी चढ़ा हुआ था। उसकी भींगी नम आँखों में दूर दूर तक फैला इंतज़ार था…सुहानी का।

विदा के क्षणों प्रकाश भाईसा (फूफा जी के भाई )के मुंह से ढ़ीली सी आवाज़ में निकल गया था – बेटा, अपने घर जा रही हो। देखो! वहीँ दिल लगाना… वही असली घर!

उसने कुछ जवाब नहीं दिया बस आहत नज़रों से टुकुर टुकुर देखती रही हमें। शादी तय होने के बाद से ही हमारे हर सवाल का जवाब उसने चुप्पी के पत्थर से देना सीख लिया था।

बुआ ने भी कुछ जोड़ा – मैं पाप की माँ…नितीश की माँ तेरी धर्म की माँ…कहते कहते जाने भावनाओं का कैसा तो दौरा पड़ा बुआ पर कि वह फूट फूट कर रो पड़ी। लाडो ने आसक्ति—विरक्ति से बुआ की ओर ताका। उसके ओंठों में हल्का सा कम्पन हुआ। पथराई आँखें दूर दूर तक ताकती रही…काश दिख जाए सुहानी! हमारा दिल धड़का…कहीं आ न धमके…तभी दुल्हे नितीश ने हाथ का सहारा दे फूलों से सजी गाडी में उसे अन्दर ले लिया।

सबकुछ ठीक ठाक निपट गया था इसलिए उम्मीद थी कि विदाई के बाद चमकती हुई धूप खिलेगी पर काले बादल ही छाए रहे हमारे आँगन में। धूप उतरी भी पर तितलियों की तरह क्षण भर अपनी रंग और छटा दिखाकर अदृश्य हो गयी। चूल्हे की राख में आंच दबी थी जिसे हम महसूस नहीं कर पाए। महसूस हुआ ग्यारह दिन बाद ही जब एक रात उसने ट्रंक कॉल पर बताया कि उसके कॉलेज की छुट्टियाँ कुछ दिनों बाद ही ख़त्म हो रही है और उसे वापस जयपुर आना पड़ेगा। कॉलेज ज्वाइन करने के लिए।

घर में फिर पंचायत बैठी। पिता के अवतार पुत्रों ने सलाह दी – क्यों न उसका तबादला वहीँ करवा दिया जाए – न रहे बांस, न बजे बांसूरी। फूफा जी को भी राय जंची। उन्होंने अपनी ऊंची हैसियत का फायदा उठाया और उसके आने के पूर्व ही उसका तबादला वहीँ बड़ौदा करवा दिया।

******

अब चलें बड़ोदा…उसकी ससुराल

दोनों परिवार एक मुद्दत बाद तृप्ति के सागर में आकंठ डूबे…खूब सोए

लेकिन जिन दो जोड़ी बदन की है यह कहानी…वहां,

न दिन चांदनी से हुए, न रात सोने सी हुई,

न जिस्म पर चांदनी बरसी, न गुलाब महका,

न बादल बरसा, न बिजली चमकी,

दोनों सूखे मुड़े तुड़े कमरों के दो छोरों पर पड़े रहे।

मधुमय रात को जैसे ही उमंगित उतावले उन्मत्त दूल्हे राजा ‘बांहों में चंदा सा बदन होगा की ‘ मानसिकता से घुसे, चिर प्रतीक्षित स्वप्न घर में, तो गश खा गए। देखा उनकी स्वप्नों की रानी मुंह उल्टा कर सुबक रही है और पास ही रखी है एक चिट ‘ मुझे अप्रत्याशित पीरियड हो गए हैं…मुझे क्षमा करें…मैं दर्द से बेहाल हूँ ‘

इस अप्रत्याशित पीरियड की अवधि फिर कभी ख़त्म ही नहीं हुई। उस रात से जो विदेह हुई वह कि फिर होती ही चली गयी।

सुख की चिड़िया फिर नहीं लौटी उस आशियाने!

जयपुर वह फिर आई भी एक बार पर सिर्फ अंतिम सांस लेने और अपनी काया की माटी को उसी माटी में सौंप देने जहाँ जिंदगी ने फिर खिलवाड़ किया उसके साथ। उससे न मिलने दिया जो जीने में सहायक थी उसकी और जिससे मिलने की उम्मीद लेकर आयी थी वह। इसी गम में रात के अंतिम पहर में विराट की साक्षी में पंखे से बंधी रस्सी से झूल पंच तत्व में समा गयी वह और थमा गयी हमें एक चिठ्ठी, जो उसके कमरे में उसकी टेबल पर रखे पेपर वेट के नीचे दबी पड़ी थी।

लिखा था — उजासभरी इस मखमली और जीवनदायी चांदनी में जब लोग जी भर जीना चाहें, मैं यदि प्रेयसी की तरह मौत को गले लगा रही हूँ तो सोचियेगा क्यों करना पड़ा मुझे ऐसा?  मैंने सोचा भी कि जिस तेज बहाव में बह रही हूँ उसे रोक दूँ, पर मेरे लिए नामुमकिन था वह, इसलिए खुद को ही जीने से रोक दिया। क्या करती मैं भी ? जब जीवन के सारे रास्ते बंद हो जाए तो कोई कैसे जीए, विशेषकर वह जिसे जीवन ने अपना आप दिया ही नहीं। जिसके अंतर्मन के भीतर कोई विरही पुरुष बैठा हो नारी संसर्ग के लिए छटपटाता, क्या करे वह ?  आपकी आँखें उस सत्य को क्यों नहीं देख पाई जो जी रही थी मैं। शायद हर आँख से बड़ा होता है सत्य! मुझे जाना ही होगा। अपने अंधेरों से घिरा, प्रतिपल जलता एक कमजोर और खंडित इंसान आपकी दुनिया में जीए तो कैसे ?  जीवन के वे ही चंद पल जीए मैंने जो सुहानी के साथ बीते। उन्हीं लम्हों जिंदगी के करीब बैठी मैं जब सुहानी करीब बैठी मेरे। उस मासूम से भी सबको दिक्कत थी। पहले उसके पिता को धमकाया गया फिर उसे। फिर मुझे धमकाया गया शादी के लिए। मैंने भी जाने क्यों यह उम्मीद पाल हाँ भर ली कि शायद पति नामधारी मुझे समझें और अपने संरक्षण में लेकर जिंदगी और मेरे बीच जो विराट फासले आप लोगों ने पैदा कर दिए थे उसे दूर करने में मेरी मदद करें। पर मैं भूल गयी कि जिसकी जणी न हुई उसका धनी भी क्या होगा?  फिर उसे मुझसे मिलना भी क्या था। मैं लौट आयी जयपुर वापस, सुहानी से मिलने की उम्मीद में। पर यहाँ भी धोखा। आपने मुझसे पूछे बिना मेरा तबादला करवा दिया। सुहानी ने मुझसे मिलने से इंकार कर दिया क्योंकि आपने उससे वचन ले लिया था, मुझसे किसी भी प्रकार का संबंध न रखने का। वह अंतिम दरवाज़ा भी बंद करवा दिया आप लोगों ने।क्या कसूर था मेरा?  मेरा एक ही सहारा था जिसे आप ने छीन लिया, बिना सहारे के तो अमरबेल भी नहीं जी पाती।

पुन:श्च : मैं आपके लिए समस्या बनी तो सिर्फ इसलिए कि हम न रिश्तों में जीते हैं न प्रेम में, न करुणा में, न ममता में, न भाव में न भावना में। हम सब सिर्फ ऊपरी खाल में जीते हैं।

आपकी लाडो,

जो न आपकी हो सकी और जिसके न हो सके आप।


--------


००००००००००००००००







बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन


बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन

देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। — अंकिता जैन
देह ही देश नाम से जेएनयू प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया-प्रवास की डायरी के माध्यम से समाज की उस बंद आँख को खोलने की कोशिश की है जो युद्ध में स्त्री को इन्सान नहीं योनि माना जाना देखने ही नहीं देती. अंकिता जैन ने इस चर्चित किताब के बहुत गहरे पाठ के बाद जो बातें कही हैं उन्हें पढ़िए, यदि एक स्त्री के लिए यह किताब ऐसे ज़हरीले सचों को सामने रख सकती है तो पुरुष के लिए इसका पाठ कैसा होगा, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. शुक्रिया अंकिता जैन.  — भरत एस तिवारी/ संपादक शब्दांकन    
 

बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा

'देह ही देश' पर अंकिता जैन 

"देह ही देश" पढ़ना शुरू करते ही यशपाल की झूठा सच का एक दृश्य मेरी आँखों के सामने झूलने लगा। कहानी की मुख्य किरदार तारा जब बमुश्किल हिंदुस्तान वापस लौटती है तो बॉर्डर पार करते ही उसे जश्न मनाते कुछ लोग नज़र आते हैं। वे लोग एक स्त्री को लूट लेने का, मार डालने का और किसी का सब कुछ ख़त्म कर देने का जश्न मना रहे थे। यकीनन वे हिन्दू थे और उनके हाथ में बाँस पर जो नग्न मरा हुआ "स्त्री" लोथड़ा टाँगों के बीच से फंसाया गया था वह एक मुस्लिम का था। यही हाल पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का वह देख-भोगकर आई थी। उसके साथ-साथ जिन औरतों का वहाँ वर्णन है वह काफ़ी दिनों तक मेरे लिए दुःस्वप्न बना रहा। मुझे डरावने सपने आते। हिंदुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे में कितनी स्त्रियों की बलि दी गई इसका हिसाब शायद ही अब तक किसी ने लगाया हो। मज़हब और राजनीतिक बँटवारे में सज़ा किसको मिली?

देह ही देश पढ़ते हुए मुझे बचपन की एक घटना फिर से टीस की तरफ़ चुभने लगी है। यह 1997 की बात है शायद। हम नए-नए गुना में शिफ़्ट हुए थे। मैं 10 साल की थी। एक दूधवाले से दूध बांधा। अक्सर मैं जाया करती। घर से बहुत दूर नहीं था। बस कुछ ही गलियों का फांसला था। रास्ते में एक औरत मिलती। नग्न, सिर्फ एक पतली-सी शर्ट पहने हुए, जिसके आगे के बटन खुले रहते और उसकी छातियाँ दिखतीं। उसके शरीर पर वह शर्ट सिर्फ नाम के लिए होती। उसके पैर में मवेशी बाँधने वाली साँकल बंधी होती जिससे छूटकर वह कई बार सड़क पर भाग आती और किसी के भी चबूतरे पर बैठकर चीखती-चिल्लाती-रोती। अपनी योनि और छातियों को पीटती और फिर रोती। लोग कहते वह पागल थी। पर मुझे बहुत सालों बाद इस आशंका ने घेर लिया कि हो ना हो वह किसी यौनशोषण की शिकार थी। बाईस साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी मेरी स्मृति में यूँ कौंधती है जैसी कल ही की बात हो।

वह मुझे कभी इस किताब की कल्याणी लगती जिसके गाँव की लड़कियों को देह व्यापार ही पेट की भूख मिटाने का आसरा है। और कभी सेम्का, ऐंजिलिना, एमिना या क्रोएशिया की वे तमाम स्त्रियाँ जिन्होंने इसी दुनिया में नरक का दुःख भोगा और जिनके लिए स्त्री पर्याय में जन्म लेना गुनाह हो गया।

कुछ साल पहले एक ख़बर देखी। जिसमें एक स्त्री का बलात्कार किया जाता है और उसी के सामने उसके नन्हे बच्चे को गोद से छीनकर सिर्फ़ इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह बलात्कार में बाधा लग रहा था। मैं उस रात बहुत रोई। जाने क्यों मेरा मन इतना विचलित हो गया था कि मैं डरने लगी थी अकेले अपने नन्हे बच्चे के साथ जाने में। किसी बच्चे को उसकी माँ के सामने मार डालने की पीड़ा क्या होती होगी इसकी कल्पना करने भर से रूह कांप जाती है। ऐसी एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया था। क्रोएशिया में ऐसी अनेकों घटनाएँ हुईं।

बोजैक जिनकी आठ वर्षीय बेटी और पत्नी के साथ सैनिकों ने इस हद तक क्रूरता दिखाई कि बेटी रक्तरंजित हो तड़पती रही और फिर भी सैनिक उसकी देह से खेलते रहे। वह मर गई और पत्नी कुछ समय बाद दिल की बीमारी और सदमे से मर गई। एमिना जिन्हें युद्ध के उपहार के रूप में गहरी शारिरिक और मानसिक पीड़ा के बाद दो जुड़वां बच्चों का गर्भ मिला। एक परिवार से दादी, चार बहुएँ और पाँच पोतियाँ सभी सर्ब सैनिकों के रेप का भाजन बनीं। पुरुषों और बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया। परिवार की मंझली बहू ही एकमात्र पोती के साथ अब तक जीवित है। ऐसे ना जाने कितने मामले जिनका वर्णन इस किताब में पढ़ते हुए मेरी रूह रोती और शरीर थरथरा जाता।

ज़ाग्रेब और क्रोएशिया ने अपनी भूमि को पाने के लिए युद्ध किए और युद्ध के हमले का भाजन भी बने। "युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा, उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी।"

"बोस्निया-हर्ज़ेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ़ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैम्प लगाए थे। क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों से बलात्कार किए गए। बोस्निया और हर्ज़ेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्ज़ा रहा, किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका यौन शोषण या बलात्कार न किया गया हो।"

इस पूरे युध्द काल में स्त्रियों को मानव का दर्जा नहीं मिल पाया। वे बस योनि को ढोने वाली एक ऐसी वस्तु मानी गईं जिनकी इज़्ज़त लूटने से युद्ध की न सिर्फ मुख्य रणनीति तैयार होती बल्कि सैनिकों को भी ख़ुश रखा जाता। सैनिक भी मानसिकता से पूर्णतः पंगु बना दिए गए थे। वे स्त्रियों को तीन हिस्सों में बाँटते। अतिवृद्ध जिन्हें खाना पकाने जैसे काम सौंपे जाते, कमसिन, सुंदर या छोटे बच्चों की माताएँ जिन्हें भोगा और मारा जाता और जिनकी कोख में अपना वीर्य स्थापित कर देना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता और तीसरी गर्भवती जिनके गर्भ को गिराने के लिए पहले उन्हें शारीरिक प्रताड़नाएँ दी जातीं, भोगा जाता और फिर उनके गर्भ में अपने दंभ की पुनर्स्थापना की जाती है।

ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्त्रियाँ बल्कि पुरुष और बच्चों को भी ये दुःख भोगने पड़े लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

इस पूरे दुर्घटना-क्रम में जो बच गईं वे अब सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रही हैं लेकिन यह कितना संभव होगा इसका अनुमान मात्र ही हम लगा सकते हैं। हाँ यांद्रका के बारे में पढ़ते हुए मुझे कुछ सुकून मिला था, जो मानती हैं कि उन्होंने जो भोगा उससे उनका आत्मसम्मान नहीं गया। वे बलात्कारी की आँखों में आँखें डाल देखतीं कि उसे अहसास हो वह क्या कर रहा है। उनका मानना है कि जो हुआ वह शरीर के साथ और अब मैं आत्मा को पुनर्जीवित कर नए साहस के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ हरवातिनेक जैसी भाग्यशाली भी रहीं जिनके पति ने ब्लात्कार के बाद उन्हें छोड़ा नहीं बल्कि पीड़ा को कम करने में हर संभव सहयोग दिया। पीड़ा कम हुई यह कह पाना कठिन है।

इस युद्ध के बाद जो जीवित बच गईं उनमें से कइयों को देह व्यापार में घुसना पड़ा। परिवार या तो नष्ट कर दिया गया था या स्वीकार नहीं कर रहा था। इसके अलावा भी देह व्यापार में क्या और किस तरह स्त्रियों को सब्जी-भाजी की तरह खरीदा-बेचा जाता है और उच्च स्तर पर बैठे तमाशबीन कैसे इसका हिस्सा हैं, यह वर्णन किताब में पढ़कर अब दुनिया का कोई कोना स्त्रियों के लिए अलग दिखाई नहीं देता।

भारत में हर रोज़ एक ख़बर बलात्कार की सुनती हूँ। भारत पाकिस्तान विभाजन हो या बंगाल विभाजन हज़ारों स्त्रियों ने वही दुःख भोगा जो क्रोएशियन स्त्रियों ने। दुनिया में कहीं भी चले जाएं क्या स्त्रियों के दुःख एक ही रहेंगे? क्या उन्हें कभी भोगवस्तु से इतर एक मनुष्य का दर्ज़ा मिलेगा?

इस किताब को पढ़ने के बाद स्त्रीवाद की परिभाषा को फिर से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वर्तमान में आत्मकेंद्रित स्त्रीवाद देख-देख अब सब छल और फ़रेब लगने लगा है। सच कहूँ इस किताब ने भीतर कोई ऐसी चोट की है जिसकी गूँज जाने कितने समय तक सुनाई देती रहेगी और जिसकी टीस जाने कितने समय तक चुभती रहेगी।

मैं जब यह सब पढ़ रही थी मेरी चेतना जवाब देने लगी थी और सुख के मायने बदल गए थे।

भारत में कितनी ही स्त्रियाँ आज देह व्यापार के लिए मजबूर हैं। वे कैसे वहाँ पहुँची, उनकी कहानी क्या थी? यह हम शायद ही कभी सोचते हैं। देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। हम बोलते हैं सब पर? क्या करेंगे बोलकर भी। अख़बार का पन्ना पलटते या स्क्रीन स्क्रोल करते ही वह दुःख एक 'अपडेट' मात्र बन जाती है। ज़्यादा हुआ तो हम दो शब्द लिख लेते हैं। पर यह सब कब बंद होगा? कैसे बंद होगा? इसकी ना सरकार को पड़ी है ना हमें। यह दुनिया स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर है इसका दस्तावेज़ है 'देह ही देश'... जिसे पढ़ते हुए मैं अवसाद में जाने से ख़ुद को हज़ार बदलावों के प्रयोग कर बचा रही हूँ। जिसे पढ़कर अपना हर दुःख झूठा लगने लगता है।

इस किताब को पढ़ने के बाद मेरे मन में यह तीव्र इच्छा पैदा हुई कि मैं किताब की लेखक के साथ किसी ऊँची पहाड़ी के मुहाने पर, उजाड़ से दरख़्त के नीचे बैठ उनसे क्रोएशियाई स्त्रियों के वे बचे रुदन भी सुन लूँ जिन्हें वे किसी भी चाही-अनचाही वजह से किताब में सम्मिलित ना कर पाई हों। जब वे ये रुदन-गीत सुना रही हों तब हमारे सामने बिछी गहरी खाई असीमित बादलों से पटी हो। और रुदन-गीत के ख़त्म होते ही वे बादल छंट जाएँ। मैं और लेखक दोनों साथ उन घनघोर-कारे बादलों के छंटने की और उम्मीद के सूरज के चमकने की ख़ुशी साथ मनाएँ। यह सोचते हुए कि दुनिया स्त्रियों के लिए नरक सही लेकिन कभी तो घर्षण कम होगा या मिटेगा। कभी तो हमें या दूसरों को हराने के लिए हमारे शरीर वस्तु-मात्र नहीं समझे जाएँगे। कभी तो पौरुष का दंभ भरने वाली मनुष्य प्रजाति अपने बल और बुद्धि से युद्धों को जीतेगी न कि स्त्रियों के गुप्तांगों के दम पर।

यह किताब पढ़ने के लिए नहीं बल्कि एक अहम दस्तावेज़ बनाकर हर व्यक्ति को समझने की ज़रूरत है। इसे पढ़े बिना स्त्रीवाद की हर परिभाषा अधूरी है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
००००००००००००००००