पहली ख़बर यह है कि प्रभात भाई ने उपन्यास पूरा कर लिया है। दूसरी यह कि उसका यह दिलचस्प अंश आप पाठकों के लिए, मेरे निवेदन पर उन्होंने मुहय्या किया है। प्रभात रंजन जी को बधाई। अब आप आनंद लीजिए ~ सं०
धीरेन्द्र अस्थाना की पहली प्रकाशित कहानी - लोग/हाशिए पर [1974] | Dhirendra Asthana ki Kahaniyan
जो आनंद पुरानी, अनदेखी, बेहतरीन फ़िल्म को देखने में आता है, वैसा ही धीरेन्द्र जी की 1974 में प्रकाशित पहली कहानी 'लोग/हाशिए पर' को पढ़ते हुए आया। ~ सं०
मनोज पांडेय की कहानी 'खेल' | Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel
अगर गलती करने पर किसी को मारा जा सकता है तो यह बात हर बड़े-छोटे पर समान भाव से लागू होनी चाहिए। ~ मनोज पांडेय
गर शब्द रंग हैं और कागज़ कैनवास तो मनोज पांडेय की कहानी ‘खेल’ बेहतरीन पेंटिंग है...पढ़िए/निहारिए ! ~ सं0
पेचीदा रचना प्रक्रिया है इस कहानी खेल की।जीवन की चुनौतियों को ऐसे ही झेला जा सकता है ~ ममता कालिया
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Manoj Pandey - Hindi Kahani - Khel |
योगिनी, तुम करो अपना आह्वान - रश्मि भारद्वाज की कविताएं | Nav Durga: Rashmi Bhardwaj's Poems
रश्मि भारद्वाज और उनकी कविताओं को किसी परिचय, टिप्पणी आदि की ज़रूरत नहीं है इसलिए, उनका स्वागत करते हुए इतना कहूँगा कि ये नौ कविताएं, वर्तमान में माँ दुर्गा की नौ नवेली और भीतर तक उतरती रचनाएं हैं। ~ सं०
जो भी हो तुम, ख़ुदा की क़सम लाजवाब हो ~ गीताश्री के स्मृतिआँगन में ममता कालिया | Mamta Kalia in GeetaShri's SmritiAangan
ममताजी जैसा मित्र तो, जैसा आप गीताश्री के संस्मरण में पढ़ेंगे, मेरा भी कोई दूजा नहीं है। ममताजी अगर कमाल हैं तो गीताश्री भी अब कमतर नहीं रहीं हैं! आज हिन्दी संसार की प्रिय कथाकार ममता कालिया के जन्मदिन पर उन्हें प्यार भरी बधाई और स्मृतिआँगन के लिए उनपर लिखे इस ज़बरदस्त-जानदार-ज़रूरी आलेख के लिए गीताश्री को आभार ! ~ सं०
मगहर में बुलावे पर या उसके बिना ~ मृदुला गर्ग | With or without invitation in Maghar ~ Mridula Garg
व्यस्त ज़िंदगी के इतवार की सुबह यदि, मृदुला गर्ग अपनी सिग्नचर स्टाइल में मगहर से जुड़ा संस्मरण लिखकर भेज दें तो, आराम को छोड़कर उसे आप तक पहुंचना मेरी ज़िम्मेदारी है ~ सं०
बस थे तो कबीर
~ मृदुला गर्ग
केतन यादव, गीताश्री और अनामिका के साथ जनवरी की जिस ठिठुरती सर्दी में गोरखपुर से अलख सुबह मगहर यात्रा पर गए थे, तब मैं भी गोरखपुर में थी। [पढ़ें: अनामिका व गीताश्री के साथ मगहर ~ केतन यादव] दुपहर में उद्घाटन सत्र में भाषण देने का पाप कर्म मैं ही करने वाली थी। कुछ उसके चलते और कुछ एक ज़रूरत से ज्यादा धाँसू कमरे में ठहराए जाने के कारण, मेरा मगहर जाना मुमकिन न था। छत के कोने पर बने, आर पार होती सर्द हवा के बहाव से असुरक्षित, उस वीवीआईपी कमरे में न हीटर था, न बिजली और न फोन। मुहब्बत में मेरे मोबाइल ने भी ज़िंदगी से रुखसत कर ली थी। लगा कमरा, ख़ास तौर पर 80+ साला जवानों के लिए रिजर्व था! दो-चार कमरे छोड़ कर अनामिका का कमरा था। रात में वहीं शरण लेनी पड़ी थी। पर मैं गोरखपुर पहुंचने से बहुत पहले, करीब बीस साल पहले, मगहर पहुंच चुकी थी। गई नहीं थी, पहुंचाई या बुलाई गई थी।
वह तेज़ गर्मी की दुपहर थी।
दरअसल रेलगाड़ी से हम चार जन, वागीश शुक्ल, मनोहर श्याम जोशी, सुनीता जैन, अशोक वाजपेयी और मैं गोरखपुर जा रहे थे। वहां विश्वविद्यालय में कोई कार्यक्रम था। पर ख़ुदा के फज़ल से गाड़ी बस्ती पर बिगड़ गई। वागीश जी ने, जो वहीं के निवासी थे, कहा, गाड़ी आगे बढ़ने वाली नहीं थी। बेहतर था कि हम वहीं उतर जाएं। तो हम प्रवासी चेले, मय सामान वहीं उतर गए।
अपने स्वभाव के विरुद्ध संयोग से मेरे पास खाने का काफी सामान था। क्यों था, उसकी कहानी फिर कभी। अभी इतना काफी है कि एक निहायत खटारा गाड़ी में ठुंस कर हम लोग, खाते पीते, गोरखपुर की तरफ़ बढ़े। पर… यह खासा बेढ़ब था… होता ही है। तो हम सबके मन में एक ही ख़याल था। शर्तिया हमारे वहां पहुंचने से पहले कार्यक्रम ख़त्म हो चुका होगा। मन में चाहत रही होगी तभी न सबने एक सुर में कहा, कुछ ही देर में मगहर आएगा।
हमने कुछ नहीं किया। गाड़ी खुद ब खुद कबीर के मज़ार पर रुक गई। कैसे न रुकती। बस्ती में रेलगाड़ी खराब ही इसलिए हुई थी की हम गोरखपुर पहुंचने से पहले मगहर पहुंचे। केतन यादव ने मज़ार, समाधि, मंदिर और कुएं का ज़िक्र किया है। सच कहूं, मुझे सिर्फ और सिर्फ कबीर का मज़ार दिखा, फिर और कुछ नहीं दिखा। शायद वहां कोई हिंदू प्रार्थना कर रहा था। किसी ने बतलाया था। शायद न भी कर रहा हो। वह मैं ही रही हूं। प्रार्थना में मर्द औरत का फर्क नहीं रहता। जैसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, जैन का। ईश्वर वहां नहीं था, न खुदा, न बेटा, पिता और होली घोस्ट, और न बुद्ध, ऋषभदेव या महावीर। बस थे तो कबीर, थे जो इनमें और इनसे परे हमारी अंतरात्मा में बसे थे। उस आत्म से साक्षात्कार करने के बाद हम गोरखपुर गए और तमाम ज़मीनी कार्यवाही हुईं। पर उसे सम्पन्न होना नहीं कहा जा सकता था। वे बस हुईं। हमारी आत्मा में तो सबकुछ पहले ही संपन्न हो चुका था।
आप समझ सकते हैं, उसके बाद, दुबारा मैं मगहर कैसे से जा सकती थी।
मृदुला गर्ग
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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अनामिका व गीताश्री के साथ मगहर ~ केतन यादव | Maghar with Anamika and Geeta Shree ~ Ketan Yadav
नए, उभरते लेखकों को पढ़ने का अपना एक अलग मज़ा है। केतन यादव युवा लेखक हैं और अनामिकाजी व गीताश्री के साथ अपनी मगहर यात्रा के संस्मरण को कुछ रोमांचक ढंग से बयान कर रहे हैं। पढ़िए। ~ सं०
मगहर में अमरदेसवा की खोज़
यात्रा-संस्मरण ~ केतन यादव
बी कॉम, हिंदी से एमए एवं नेट / वागर्थ , जानकीपुल, इंद्रधनुष कृतिबहुमत , जनसंदेश टाइम्स , समकाल पत्रिका , समकालीन जनमत, हिंदुस्तान, अमर उजाला आदि पत्रिकाओं, समाचार पत्रों एवं डिजिटल माध्यमों पर कविताएँ प्रकाशित। संपर्क - 208, दिलेजाकपुर, निकट डॉ एस पी अग्रवाल, गोरखपुर -273001 उत्तर प्रदेश / ईमेल - yadavketan61@gmail.com / मो . 8840450668
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासुका, जे चले हमारे साथि।।
इस साल जब जनवरी, 2023 के शुरुआती दिन थे; गोरखपुर लिटरेरी फेस्टिवल में जाना हुआ था। मेरा तो गृह जनपद है गोरखपुर, पर मैं भी इलाहाबाद से एक दिन पहले ही पहुँचा था। वरिष्ठ कथाकार गीताश्री ने मुझसे पहले ही मगहर ट्रिप की बात कही थी। अगले दिन सुबह-सुबह जब हम गुपचुप होटल से निकल ही रहे थे कि यह प्लान प्रिय कवि अनामिका जी को पता चला तो वे भी रोक नहीं पाईं। सुबह के आठ तीस हो रहे थे और हमें बारह बजे उद्घाटन सत्र के पहले वापस लौटना भी था। फिर क्या था हम तीनों अपनी ‘अथाह घुमक्कड़ जिज्ञासा ’ लिए चल दिए।
हमारे दिल्ली के मेहमान कह रहे थे कि यहाँ ठंड वहाँ से ज्यादा है। गोरखपुर नेपाल का तराई मैदानी भू-भाग है लिहाजा मौसम में नमी और अधिक रहती है। ठंडी हवाएँ कान खड़े कर दे रही थीं और पूरा शहर कोहरे में डूबा हुआ था। गाड़ी के आते ही हम बिना देर किए झट से निकल लिए। विडंबना की बात यह थी कि मैं गोरखपुर का होकर भी मगहर पहली बार जा रहा था। इसलिए वहाँ जो कुछ भी हमने महसूस किया वह हम तीनों के लिए नया अनुभव था। कार के शीशे कोहरे के धुंध में शीत की बूँदों से ढ़क जा रहे थे। ड्राइवर वाले भईया ने शारदा सिन्हा के गाने गाड़ी में ऑन कर रखे थे। उनके पास लोकगीतों का बहुत प्यारा कलेक्शन था। ‘ बलम कलकत्ता ’ और ‘ संईया भइलें डुमरी के फुलवा ’ के मादक गीतों के बोल पर हम बैठे-बैठे झूम रहे थे। वैसे “बलम कलकत्ता” की लेखिका गीताश्री भी साथ ही थीं। गोरखपुर और मुजफ्फरपुर की लोक संस्कृति बहुत से बिंदुओं पर एक हो जाती है। ये गीत भी हमें जोड़ रहे थे।
मगहर की पगडंडियाँ चीड़, सागौन और विशेषतः आम के पेड़ों से भरी हुई थीं। हमारी गाड़ी कबीर के शांतिवन के सन्नाटे को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी। कुहासे में पेड़ की झुरमुटों में लुकाए हुए पक्षी बीच-बीच में बोलकर मानो हमारा अभिवादन कर रहे थे। अनामिका शीशे से बाहर झाँकते हुए दृश्य-दर-दृश्य खोते जा रही थीं। गीताश्री गूगल से सर्च करके मगहर से जुड़ी कई ऐसी बातें बता रही थीं जो हमने कभी नहीं सुनी थी। हम सब शायद मन ही मन सोच रहे थे कि कबीर काशी छोड़कर मगहर क्यूँ आए थे? मगहर को क्यूँ चुना था अपने अंतिम समय के लिए? वह स्थान जो सबके लिए उपेक्षित था। वह स्थान जिसके सामने से गुजरने पर बड़े से बड़े कुलशीलों की पवित्रता भ्रष्ट हो जाती थी। जिसके सामने से लोग मुँह और नाक कपड़े से दबाए गुजरते थे। जहाँ समाज के सबसे पिछड़ी जाति का शव फूँका जाता था। जहाँ सदियों से केवल कूड़ा-कचरा फेंका जाता रहा है। इतनी सारी वर्जनाओं के बाद भी इस पगडंडी के तार बुद्ध से जुड़े हैं। पता नहीं यह बात कबीर जानते भी थे या नहीं। जो भी हो कबीर का वहाँ बसना एक बहुत बड़ी क्रांति थी। एक सच्चे लेखक का भी यही काम है, जो समाज में हाशिए पर हो उसका हाथ मजबूती से पकड़ना। गीताश्री की कहानियों उपन्यासों में भी ऐसे पर्याप्त नायक नायिका हैं और अनामिका जी की कविताओं में भी अति सामान्य, मध्यवर्गीय, निम्नवर्गीय स्त्रियां मौजूद रहती है।
कई मोड़ से होते हुए अंतत: हम जब कबीर के दरवाजे पहुँचे तो मानो चारों तरफ सूफी संगीत एक रोमानी वातावरण लिए बज रहा था। आमी नदी का किनारा, जंगल के पेड़ों के मध्य का वह दिव्य स्थान, मेले के खाजे और मिठाइयों की दूकानें, खूब सारा कोहरा और बहुत सारी ठंड। जाड़ा इतना था कि वहाँ केवल स्थानीय दो-चार श्रद्धालु ही दिख रहे थे। कार से बाहर उतरते ही कवि अनामिका एक विहंगम लोक में पाँव धर चुकी थीं। आस-पास के दिव्य वातावरण को वे अपने आँखों के सहारे अपने भीतर उतार रही थीं। चकित नजरों से गीताश्री एक-एक करके आश्रम के चारों दिशाओं की ओर मुड़ कर देख रही थीं। मानो कथाकार को भविष्य का कोई भूला भटका पात्र दिखाई दे दिया हो। जिसका पीछा करते करते मुजफ्फरपुर की कथाकुमारी नोएडा से मगहर आ गई हों। ‘लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल’ वाली आँखों से मैं उस वातावरण और वातावरण में इन दोनों साहित्य साधिकाओं को पुलकते देख रहा था। ‘जित देखूँ तित लाल’ वाली स्थिति थी चारों तरफ। अपने लंबे डग भरते हुए हम सबसे पहले सामने खड़ी कबीर की विशाल प्रतिमा के सामने पहुँचे और फिर वहाँ कुछ देर ठहर कर हम कबीर की समाधि की ओर बढ़ चले। यह अद्भुत समाधि स्थल मगहर में ही हो सकता था। एक ओर कबीर का मजार दूसरी ओर समाधि और मंदिर।
बाहर सीढ़ियों पर जूते उतार कर हम मजार के भीतर प्रवेश किए। कबीर साहब कब्र में पाँव पसारे लेटे हुए थे... नहीं नहीं वो तो फूल बन गये थे। अमन का फूल, सद्भाव का फूल। कब्र से माथा टेक हम समाधि की ओर बढ़ चले। कबीर के कब्र से समाधि तक के चबूतरे को नापते हुए मन ही मन मैं सोच रहा था कि आज कबीर की कितनी आवश्यकता है।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना
साखी सब्दै गावत भूले आतम खबर नहीं जाना
साधो, देखो जग बौराना
इस बौराए जग में हम सब पुरखा कबीर का होना ढूँढ़ रहे थे। समाधि के सामने चबूतरे के बाहर एक गहरा कुआँ था। ऊपर से लोहे के क्षण से ढका हुआ। कुएँ के ऊपर धुँध था जैसे मन के ऊपर। अनामिका जब समाधि के सामने कबीर की मूर्ति देखीं तो भाव विह्वल हो चुकी थीं। गीताश्री एकटक उन्हें देख रही थीं। गीताश्री मठ की दीवारों को इस तरह से स्पर्श कर रही थीं जैसे अमरदेसवा का स्पर्श पा लिया हो। अनूठी कथाकार गीताश्री उस अलौकिकता की मांसल अनुभूति कर रही थीं। एक चुलबुली लड़की उनके भीतर हमेशा रहती है। यह अनुभूति उनके चेहरे पर आए रोमांच में घटित हो रही थी। समाधि के बाहर श्वेत वस्त्रधारी कबीरपंथी कबीर साहेब की बंदगी कर रहे थे। उनकी बानी किसी मंत्र की तरह उचार रहे थे। हमारे चारों ओर कबीर की साखी, सबद, रमैनी के दोहे और पद घूम रहे थे। बचपन से कबीर को अबतक जितना पढ़ा था वे सारे निर्गुण बिना सितार तानपूरे के आस-पास सुनाई दे रहे थे। समाधि को चूमकर अनामिका कबीर के पास ही बैठ गयीं। मानो बहुत से प्रश्न भीतर घुमड़ रहे थे। उनकी आँखें झर-झर-झर बह रही थीं। गीताश्री चौखट के रास्ते कबीर का चेहरा देख रही थीं। मानो उनसे बतिया रही हों। न धूनी थी न कोई चिमटा था फिर भी मन रमा हुआ था। दृश्य से क्षणभर भी विलग हुए बिना हम एक-एक क्षण को पूरी तरह जी रहे थे।
बाहर निकले तो समाधि स्थल की परिक्रमा करते हुए मठ की दीवारों पर चारों तरफ कबीर की बानियों को उकेरे हुए देखा। अनामिका जी बोल पड़ी कि यह तो बहुत चयनित दोहे हैं। यह सब देखते-पढ़ते कबीर के ध्यान वाले छोटे गुफा की ओर बढ़े। साथ में जो कबीरपंथी महंत थे, गीताश्री लगातार उनसे जानकारियाँ जुटा रही थीं। उनकी बातों को फेसबुक लाइव करते हुए अपने फॉलोवर्स और वर्चुअल मित्रों को भी समृद्ध कर रही थीं। गीताश्री एक सतत अन्वेषक हैं। उनके भीतर वह गैर अकादमिक शोधार्थी बैठा हुआ है जिसके संस्कार उन्होंने अपने पत्रकारिता काल की साधना से अर्जित किया है। मैं मन ही मन सोच रहा था कि “राजनटनी” और “आम्बपाली” (उपन्यास) को रचते हुए गीताश्री ऐसे ही खोजबीन कर रही होंगी। जरूर यह सब उनकी कोई भविष्य की कहानी या उपन्यास में जुड़ेगा। कबीर की समाधि के बगल में बहुत से चबूतरे हैं और पुराने पेड़ हैं। वहाँ एक पतली-सी काली नदी बहती है जिसका नाम आमी है। आमी भी पूरी तरह कोहरे में ढकी हुई थी। धुंध के बीच नदी में पड़ी एक पुरानी नाव दिख रही थी। मुझे पता था आमी के लिए कितने आंदोलन हुए हैं। जिस नदी के तट बुद्ध ने अपने राजशाही वस्त्र छोड़े थे अपने केश उतारे थे जिसके किनारे कबीर अपने शिष्यों के साथ धूनी रमाए थे। आमी के किनारे बहुत सारे आम के पेड़ हुआ करते थे, उनसे आम लटक कर नदी में प्रायः गिर जाते थे। जिस कारण नदी का पानी मीठा रहता था और उसे आमी कह के बुलाया जाता था। उसका हाल बेहाल हो चुका था। कितनी सारी लोक मान्यताएं, लोक मिथक जुड़े हुए हैं आमी से। उस अंचल के कितने सारे लोकगीतों में आमी शामिल रही है। उस पवित्र आमी के तट पर बैठकर हम तीनों सुस्ताए और बहुत सारी तस्वीरें लीं। उस पल को हर तरीके से संजो लेने की उत्कंठा थी। सफेद कोहरे में लिपटा हुआ मगहर मानों कबीर की ‘झीनी-झीनी सी चदरिया' ओढ़कर बैठा हुआ हो। ठंडी बहती हवा कानों के पीछे साएँ-साएँ का आवाज़ कर रही थी। कबीरपंथी साधू हमें विदा करके पुन: अपने आसन अपने पाठ की ओर लौट गये थे।
हम अभी भी अनहलक की अनुभूति में थे। कबीर ने मगहर में ही अमरदेसवा बसा लिया था। कबीर की बानियों का शरण ही उस लोक से साक्षात्कार था। अनामिका जी ने कबीर के पदों का भाष्य भी लिया। हम तीनों गाड़ी में बैठे और आश्रम के मुख्यद्वार पर गोरखपुर का प्रसिद्ध बड़ा वाला खाजा (खजली) लिए। ड्राइवर भईया ने पुन: गाड़ी में लोकगीतों की मोहक श्रृंखला चला दी थी। हमने जो महसूस किया शायद उसे ‘सात समुंदर की मसि’ करने के बाद लिख भी लिया जाए लेकिन कुछ न कुछ अधूरा रह जाएगा। जो कुछ शेष बचा रहेगा, अकथ रह जाएगा वही कबीर के अमरदेसवा की सच्ची अनुभूति होगी। गाड़ी धीरे-धीरे वहां की पगडंडियों को पीछे छोड़ रही थी पर हमारा मन उस मगहर में ही अटका रहा।
अब तक मन मगहर–सा अहसास तारी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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चैक एण्ड मेट - कहानी: रीता दास राम | Kahani - Check and Mate - Reeta Das Ram
रीता दास राम के लेखन का प्रवाह अच्छी गति और भाषा के साथ बढ़ रहा है। कहानीकार को बधाई और रचना हमें भेजने का आभार, पढ़िए उनकी नई कहानी 'चैक एण्ड मेट'। ~ सं०
स्मृतिआँगन: वो मसीहा मोहब्बत के मारों का है ~ गीताश्री | Dhirendra Asthana in GeetaShri's SmritiAangan
मुझे हमेशा लगता रहा है कि हम जितना दूसरों के अनुभवों को समझकर जानकार बनते हैं, उतनी आसानी से और किसी तरह नहीं। खुश हूँ कि गीताश्री ने अपनी यादों को हम तक पहुंचाना शुरू किया है, जिसकी पहली कड़ी में वे संपादक साहित्यकार धीरेंद्र अस्थाना को लेकर आई हैं।
हिन्दी दिवस की बधाई के साथ गीताश्री के स्मृतिआँगन में स्वागत है।~ सं०
कहानी: खिड़की! विजयश्री तनवीर की भाषा और तकनीकी उम्दा हैं | Vijayshree Tanveer Hindi Kahani Khidki
बहुत अच्छी कहानी है खिड़की! विजयश्री तनवीर की भाषा और तकनीकी उम्दा हैं। ~ सं०
टॉल्स्टॉय की अन्ना केरेनिना | Anna Karenina of Leo Tolstoy
रवींद्र कालिया संपादित ‘नया ज्ञानोदय’ का प्रेम महाविशेषांक (नवंबर, 2009) के पुनर्प्रकाशन (जिसमें पहले ममता कालिया की कहानी निर्मोही आ चुकी है) में अब विजयमोहन सिंह का ‘अन्ना केरेनिना - टॉल्स्टॉय’ का पुनर्पाठ, गीताश्री की महत्वपूर्ण टिप्पणी के साथ पढ़ें। ~ सं०
बिहार में कविता के पांच अलहदा स्त्री-स्वर -गीताश्री | Bihar me Kavita ke Paanch Alhada stri-svar - GeetaShree
साहित्यकार गीताश्री ने बिहार की पाँच कवयित्रियों - उपासना झा, नताशा, निवेदिता, सौम्या सुमन और पूनम सिंह की कविता पर यह आलेख लिखकर बहुत ज़रूरी काम किया है। कविता की समीक्षा/आलोचना की बातों के बीच उन्होंने कुछ मानी-ख़ेज़ बातें भी कही हैं, मसलन –
बिफिया उर्फ़ लव जिहाद का ग्रह वृहस्पत - पंखुरी सिन्हा की कहानी | Pankhuri Sinha Ki Kahani
पंखुरी सिन्हा कवि तो अच्छी हैं ही एक अच्छी कहानीकार भी बन गई हैं। पढ़िए 'बिफिया उर्फ़ लव जिहाद का ग्रह वृहस्पत' मधुर आंचलिक भाषा और सुंदर दृश्यों से सजी पंखुरी की बिल्कुल नई कहानी, प्रेम कहानी ! ~ सं०
हौलनाक अनुभव ~ मृदुला गर्ग | Distressing Experience - Mridula Garg
वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग ने यहाँ जो अनुभव साझा किया है वह सच में हौलनाक है। नुसरत ग्वालियारी का शेर याद आया -
"रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
सुब्ह के अख़बार में हालात बेहतर हो गए"
हमारा काम आप तक इसे लाना था, मालूम नहीं कि आप कोई प्रतिक्रिया देंगे भी... ~ सं0
झंडेलाल ट्रेनी इंजीनियर | जयंती रंगनाथन के उपन्यास 'मैमराज़ी' का अंश | Excerpt Jayanthi Ranganathan novel Mamrazzi
जयंती रंगनाथन वरिष्ठ पत्रकार हैं, उनके नए उपन्यास मैमराज़ी का प्रस्तुत अंश रोचक है और इशारा है कि उपन्यास मज़ेदार होगा। जयंती जी और प्रकाशक हिन्दी युग्म को बधाई! ~ सं०
रंगीन होते ख़्वाब — रीता दास राम की कहानी | Reeta Das Ram ki Kahani
रीता दास राम अपनी इस ईमानदार कहानी ‘रंगीन होते ख़्वाब’ में लिखती हैं:
कोई झेल पाता है कोई नहीं। बस आत्म-सम्मान ज़िंदा रहे। उसके बिना चलना ज़िंदा मौत है। झेलना तो अपनी ख़ुद की ईमानदार तैयारी पर निर्भर है। रुकावटें कहाँ नहीं आती। व्यक्ति पार पाने की कम से कम कोशिश तो करे। समय अपने आप सामने-सामने रास्ता बताता चलता है।
रीताजी को शब्दांकन के लिए कहानी लिखने का आभार और शुक्रिया। ~ सं०
असल में तो ये एक साहित्यिक विवाह है - भूमिका द्विवेदी अश्क | Bhumika Dwivedi Ashk - Interview
भूमिका द्विवेदी अश्क की साहित्यिक यात्रा का 2023 दशक वर्ष है। उनकी पहली कहानी 2013 में प्रकाशित हुई थी। भूमिका के 'श्रीमती अश्क' यानी श्री उपेंद्रनाथ अश्क जी की पुत्रवधू, नीलाभ अश्क की पत्नी बनने का भी यह दसवाँ साल है। इस अवसर पर पर डॉ अरविंद कुमार से हुई उनकी बातचीत पढ़िए और जानिए, समझिए। ~ सं०
काले साहब - उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानियाँ | Upendranath Ashk Ki Kahaniyan
उन कथाकारों को भी पढ़ता चलूँ जिन्हें अबतक इसलिए नहीं पढ़ पाया क्योंकि, वे मेरे पढ़ना शुरू करने के पहले लिख गए थे। उपेन्द्रनाथ अश्क बड़े लेखक रहे हैं उनकी कहानी ‘काले साहब’ उनके बड़े होने की तस्दीक़ करती है, कहानी लेखन की कला भी सिखाती है। अश्कजी ने अपनी इस कहानी के बारे में लिखा था —
इलाहाबाद आकर पहले दो वर्षों में मैंने कुछ हास्य-व्यंग्य की कहानियां लिखीं । कुछ ऐसी भी जिनके हास्य में गहरी त्रासदी तथा दारुणता निहित थी । 'काले साहब', उनमें मुझे प्रिय है । 'काले साहब की ख्याति विदेश में भी फैली है । दो बार दो विभिन्न अनुवादकों द्वारा अनूदित होकर यह कहानी अमरीकी पत्रिकाओं में छपी है। जर्मन भाषा में भी इस कहानी का अनुवाद हुआ है। — उपेन्द्रनाथ अश्क, 25/4/70, इलाहाबाद
आशा है इस कहानी की प्रस्तुति आपको पसंद आएगी। बताइएगा। ~ सं०
निर्मोही - ममता कालिया की कहानी | Mamta Kalia ki Kahani
रवींद्र कालिया का हिन्दी कहानी को जीवित और प्रफुल्लित रखने में अनमोल योगदान रहा है। हाल ही में उनके द्वारा संपादित ‘नया ज्ञानोदय’ का एक प्रेम महाविशेषांक पढ़ते हुए लगा कि अंक में बहुत कुछ ऐसा है जिसको हम (दुबारा) पढ़ना चाहेंगे। इस पुनर्प्रकाशन में सबसे पहले – ... जब कहानी पढ़ने में उतना ही मज़ा आए जितना तब आता रहा हो जब दादी-नानी कहानी सुनाती थीं, तो चित्त प्रसन्न हो जाता है। ऐसा बहुत कम होता है लेकिन, ममता कालिया की ‘निर्मोही’ पढ़िए, बहुत प्यारी कहानी है। भाषा ने लूट लिया। ~ सं०
जीवन जीने की कथा कहता उपन्यास - अभिषेक मुखर्जी / समीक्षा: क़ैद बाहर (गीताश्री) | Review of Qaid Bahar (Geeta Shri)
विज्ञान में पीएचडी अभिषेक मुखर्जी ने गीताश्री के उपन्यास क़ैद बाहर (राजकमल प्रकाशन) की समीक्षा पूरे हृदय से लिखी और अच्छी हिन्दी से सजाई है। उन्हे और उपन्यासकार को बधाई! ~ सं०
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