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बुरे दिनों के लिए आप अपनी कमर कस लें — मनमोहन सिंह #Demonetization

नोटबंदी पर मनमोहन सिंह: बुरे दिन आने वाले हैं

Making of a Mammoth Tragedy — Manmohan Singh (in The Hindu)

 द हिंदू' में मनमोहन सिंह




पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक लेख के जरिए मोदी सरकार पर बड़ा हमला बोला है.अंग्रेजी अखबार 'द हिंदू' में मनमोहन सिंह के लिखे लेख का हम यहां हिंदी में अनुवाद दे रहे हैं.

कहा जाता है कि ‘इंसान का आत्मविश्वास उसके पैसों से आता है.’ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर की रात एक झटके में देश की सवा सौ करोड़ आबादी का आत्मविश्वास हिला दिया.

पीएम मोदी ने रातों-रात हमारी अर्थव्यवस्था में चल रही 85 फीसदी मुद्रा को बेकार घोषित कर दिया. यह 1000 और 500 रुपए के नोट में थी. देश की जनता को अपनी सुरक्षा और सरकार से संरक्षण मिलने का भरोसा होता है. प्रधानमंत्री के इस एकाएक लिए गए फैसले ने यह भरोसा भी तोड़ दिया.

हमारी अर्थव्यवस्था पहले ही बुरे दौर से गुजर रही है. नोटबंदी इसे और नुकसान पहुंचाएगी.

प्रधानमंत्री ने देश के नाम संदेश में कहा, इतिहास में ऐसे मौके आते हैं, जब देश के विकास के लिए बड़े और निर्णायक फैसले लेने की जरूरत पड़ती है. उन्होंने नोटबंदी लागू करने का दो मुख्य कारण बताए. पहला था, ‘सीमा पार से आतंक को मिल रही मदद और जाली नोट के कारोबार को रोकना.’  दूसरा कारण पीएम ने बताया कि नोटबंदी से कालेधन और भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी.

पीएम के बताए दोनों कारण ठीक हैं. जाली नोट और कालाधन भारत के लिए आतंकवाद और सामाजिक भेदभाव जितने ही गंभीर मसले हैं. इन्हें खत्म करने के लिए पूरी ताकत से लड़ने की जरूरत है.


(पूर्व प्रधानमंत्री का मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

ऐसे फैसलों से आगाह करने के लिए एक मशहूर कहावत है. ‘नर्क का रास्ता नेक इरादों की सड़क से ही गुजरता है.’
हमारे प्रधानमंत्री को यह गलतफहमी है कि नकद का एक-एक रुपया कालाधन है और कालाधान सिर्फ नकद में ही है. 
लेकिन ऐसा नहीं है.


आइए इसे समझते हैं.


भारत में काम करने वाले 90 फीसदी लोगों को नकद में ही उनका पैसा मिलता है. इनमें कंस्ट्रक्शन के कामों मे लगे मजदूरों और खेतीहर मजदूरों  की संख्या सबसे ज्यादा है.

2001 के बाद से भले ही देश के सुदूर इलाकों में बैंक की शाखाएं दोगुनी हो गईं हों लेकिन आज भी 60 करोड़ भारतीयों तक बैंकों की पहुंच नहीं बन पाई है. इन लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी का आधार नकद पैसा ही है.

इनकी बचत भी नकद में ही होती है. अधिकतर बचत 1000 और 500 के नोटों के रूप में ही थी. इस बचत को कालाधन बताकर इनकी जिंदगी को नर्क बना देना, इन्हें बहुत बड़ी आपदा में झोंकने जैसा है.

लाखों-करोड़ों भारतीय नकद में कमाते हैं, नकदी में ही खर्च करते हैं और नकद में ही बचत भी करते हैं. नकदी के साथ उनका यह व्यवहार पूरी तरह जायज है.


नोटबंदी से प्रधानमंत्री ने अपनी इस मूलभूत जिम्मेदारी का मजाक बना दिया है

अपने देश की जनता की रोजी-रोटी को सुरक्षित करना और संरक्षित करना किसी भी सरकार की पहली जिम्मेदारी होती है. लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई एक गणतंत्र की सरकार के लिए तो यह सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. लेकिन नोटबंदी से प्रधानमंत्री ने अपनी इस मूलभूत जिम्मेदारी का मजाक बना दिया है.

न तो घुन पिसा न ही गेहूं

भारत के लिए कालाधन बेशक एक बड़ी समस्या है. काले धन से लोगों ने अपनी अघोषित आय के जरिए अकूत संपत्ति बना ली है. कालाधन जमीन, सोना और विदेशी मुद्रा के रूप में जमा है. गरीबों के पास ये सब नहीं है.

पिछली सरकारों ने आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय के जरिए कालाधन जमा करने वालों की खिलाफ कारवाई करती रही है. अघोषित आय को अपनी इच्छा से घोषित करने की योजना पहले भी लागू की गई थी.

ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि कालाधन पर कारवाई करने के लिए सबको निशाना बनाया गया हो. इन कार्रवाइयों से यह बात साबित हुई कि कालाधन केवल नकद के रुप में नहीं है. नकदी कालेधन का बहुत छोटा सा हिस्सा है.

पीएम का नोटबंदी का फैसला नकद में कमाने वाले ईमानदार भारतीय के भरोसे पर गहरी चोट है. जबकि बेईमानों के लिए यह सिर्फ एक मामूली सी फटकार जैसा है. इस पर सरकार ने कालाधन इकट्ठा करने वालों के लिए 2000 रुपए का नोट निकाल कर और ज्यादा आसानी कर दी है.

नोटबंदी से न तो कालेधन पर पूरी तरह रोक लग पाएगी और न ही कालाधन व्यवस्था से गायब होगा. दुनिया के अधिकतर देशों के लिए यह बहुत बड़ा काम होगा. भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्था में पुरानी मुद्रा को नई से बदलना कोई आसान काम नहीं है. भारत का आकार और विविधता इस काम को और भी ज्यादा मुश्किल कर  देता है.

ईमानदार का भरोसा टूटा

छोटे देश भी रातोंरात अपनी मुद्रा बदलने का जोखिम नहीं उठाते. ऐसा करने के लिए वो थोड़ा वक्त लेते हैं. अर्थव्यवस्था से मुद्रा धीरे-धीरे हटाई जाती है.

जिन लोगों ने अपनी आधी उम्र राशन के लिए दुकानों के बाहर लाइन में लगकर गुजारी है, उन्हें एक बार फिर लाइन में खड़ा देख कर अफसोस होता है. वो भी सिर्फ इसलिए कि जल्दबाजी में एक फैसला हम पर थोप दिया गया. मैंने कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी.

हमारी अर्थव्यवस्था पहले ही बुरे दौर से गुजर रही है. नोटबंदी इसे और नुकसान पहुंचाएगी. यह बात बिलकुल सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में दूसरे मुल्कों की तुलना में नकदी का उपयोग ज्यादा होता है. लेकिन इससे यह भी तो साबित होता है कि हम नकद पर अधिक निर्भर हैं.

अर्थव्यवस्था के लिए इस पर ग्राहकों का भरोसा भी जरूरी होता है. अचानक नोटबंदी लागू होने से इसे भी धक्का लगा है. करोड़ों भारतीयों का भरोसा टूटने से अर्थव्यवस्था भी टूट सकती है. ईमानदार भारतीय के इस भरोसे को वापस हासिल कर पाना आसान नहीं होगा.



सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पर इसका असर तो होगा ही, इसके साथ बेरोजगारी भी बढ़ेगी. वैसे तो आप सभी आने वाले मुश्किल समय के मानसिक रुप से तैयार हो गए होंगे फिर भी मेरी सभी से यह अपील है के बुरे दिनों के लिए आप अपनी कमर कस लें.

कालाधन हमारे समाज के लिए नासूर की तरह है. इसको खत्म कराना भी उतना ही जरूरी है. लेकिन ऐसा करने में हमें करोड़ों ईमानदार भारतीयों पर इसके असर को भी ध्यान में रखना चाहिए. पुरानी सरकारों ने कालेधन पर कुछ नहीं किया और आपके पास ही इसका सबसे अच्छा इलाज है. आप ऐसा सोच सकते हैं लेकिन यह सच नहीं है.

सरकारों और नेताओं को अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए गरीब कमजोर तबके का ध्यान रखना चाहिए. अधिकतर नीतिगत फैसलों के कुछ दुष्परिणाम भी होते हैं. ये फैसले लेने से पहले हमें इनके नफा-नुकसान का विश्लेषण अच्छे से करना चाहिए.

कालेधन के खिलाफ युद्ध छेड़ने का फैसला आपको मनमोहक लग सकता है लेकिन इसमें एक भी ईमानदार भारतीय का मारा जाना अच्छी बात नहीं.

(अनुवाद साभार फर्स्ट पोस्ट)

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मोदी सरकारः सिर्फ एक अंक! — हरि शंकर व्यास #WorldBank #GST

मोदी सरकारः सिर्फ एक अंक! — हरि शंकर व्यास


यह लेख किसी मोदी-विरोधी ने नहीं लिखा है

— ओम थानवी



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धारा के पत्रकार माने जाने वाले हरिशंकर व्यास ने दैनिक 'नया इंडिया' में लिखा है जिसके वे संस्थापक-सम्पादक हैं। वे कहते हैं - "अच्छे दिन के वायदे और भारत को बदलने की उनकी मेहनत के जीरो नतीजे का इससे बड़ा दूसरा खुलासा नहीं हो सकता ... बावजूद इसके उन्हें (मोदी को) जस के तस हालात समझ नहीं आ रहे हैं तो निश्चित ही फिर दिल्ली की सत्ता और उसके अफसरी तिलिस्म के भ्रमजाल में मोदी फंस गए हैं। तभी अठारह घंटे काम करने के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। ... सरकार ढर्रे में बंध गई है। अफसरों को समझ आ गया है कि बौने मंत्रियों की बौनी सरकार को कैसे उल्लू बनाया जाए। प्रारंभ में खौफ, सुधार और कुछ करने की जो ललक थी वह अब तमाशा देखने, टाइम पास करने, शिकायते पालने में बदल चुकी है। कोई आश्चर्य नहीं जो सुधार भी उलटी दिशा में जा रहे हैं।—  ओम थानवी



मोदी सरकारः सिर्फ एक अंक!

हरि शंकर व्यास



विश्व बैंक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आईना दिखाया है। अच्छे दिन के वायदे और भारत को बदलने की उनकी मेहनत के जीरो नतीजे का इससे बड़ा दूसरा खुलासा नहीं हो सकता कि कारोबार की सहूलियत में, इज ऑफ बिजनेश में भारत सिर्फ एक अंक बेहतर हुआ! 190 देशों की लिस्ट में भारत अभी भी 130 वें नंबर पर है। बैंक ने भारत को एक सीढी बेहतर हुआ माना है। हालांकि रैकिंग में पिछले वर्ष भी भारत 130 वें नंबर पर था। विश्व बैंक की माने तो एक वर्ष में इंडोनेशिया, पाकिस्तान, ब्रुनई ने अपने को उल्लेखनीय तौर पर सुधारा। मगर भारत का ऐसा कोई रिपोर्ट कार्ड नहीं। क्यों? आखिर नरेंद्र मोदी ने तो सत्ता संभालने के पहले दिन से ठान रखी है कि भारत को बिजनेश का, मैक इन इंडिया का रोल म़ॉडल बनाना है। बार-बार लगातार दर्जनों बार उन्होंने सचिवों की बैठकें की होगी, आर्थिकी के जिम्मेवार मंत्रियों अरुण जेटली, सीतारमण आदि को कई दफा मोटिवेट किया होगा। दुनिया में जा-जा कर निवेशकों से कहा कि आओ भारत, लगाओं पूंजी, हम कानून-कायदे, तौर-तरीके ऐसे सरल बना दे रहे हैं कि देश बिजनेश का सर्वाधिक सहूलियत वाला गंतव्य बन रहा है।

सोचें, कितनी मेहनत, कितनी बड़ी- बड़ी बाते और अंत नतीजा विश्व बैंक का यह ऐलान कि भारत नहीं सुधरा। बिजनेश लायक नहीं। उससे बेहतर तो पाकिस्तान, ब्रुनई, इंडोनेशिया जैसे देश अच्छे बने हैं। वे सुधरे हैं और वहां धंधा करना ज्यादा सहूलियत पूर्ण है।

संदेह नहीं कि विश्व बैंक की रिपोर्ट देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भन्नाए होंगे। दुखी हुए होंगे। यों भाई लोग विश्व बैंक की रिपोर्ट में खोट निकाल रहे हैं। अंगूर खट्टे बता रहे हैं। कह रहे हैं कि वह तो पक्षपातपूर्ण है। भारत की रियालिटी उसे समझ नहीं आती। प्रधानमंत्री दफ्तर, केबिनेट सचिवालय के अफसरों से लेकर अरुण जेटली, निर्मला सीतारमण, रविशंकर प्रसाद से ले कर श्रम, इंफ्रास्ट्रक्चर मंत्रालयों के तमाम मंत्री अपने-अपने प्रजेंटेशन से फिर नरेंद्र मोदी को झांकी दिखाएंगे कि आप चिंता नहीं करें अगले साल सब ठीक होगा। भारत रैंकिग में सौ से नीचे पहुंच जाएगा।

यह नरेंद्र मोदी की आंखों में, देश की आंखों में धूल झौकना है। अपने को हैरानी यह है कि नरेंद्र मोदी की तासीर गुजराती है। उन्हें धंधे, बिजनेश की जमीनी हकीकत की समझ होनी चाहिए तो फीडबैक भी। बावजूद इसके उन्हें जस के तस हालात समझ नहीं आ रहे हैं तो निश्चित ही फिर दिल्ली की सत्ता और उसके अफसरी तिलिस्म के भ्रमजाल में नरेंद्र मोदी फंस गए हैं। नरेंद्र मोदी का अफसरों पर नहीं बल्कि अफसरों का नरेंद्र मोदी पर कंट्रोल है। तभी 24 घंटे में से अठ्ठारह घंटे काम करने के बावजूद नतीजा ढाक के तीन पांत वाला है।



यह दशा अगले साल भी रहेगी, 2017, 2018 व 2019 में भी रहेगी। भारत को 190 देशों की लिस्ट में 100 तक भी पहुंच पाए, इसके लक्षण अब इसलिए खत्म है क्योंकि सरकार की ताजगी खत्म हो गई है। सरकार ढर्रे में बंध गई है। अफसरों को समझ आ गया है कि बौने मंत्रियों की बौनी सरकार को कैसे उल्लू बनाया जाए। प्रारंभ में खौफ, सुधार और कुछ करने की जो ललक थी वह अब तमाशा देखने, टाइमपास करने, शिकायतें पालने में बदल चुकी है।

तभी कोई आश्चर्य नहीं जो सुधार भी उलटी दिशा में जा रहे हैं। जिस जीएसटी सुधार का हल्ला है वह जनता, व्यापारी, कारोबारी सभी के लिए अगले वर्ष झंझाल बनेगा। इस टैक्स को भी छह –सात स्लैब का बना दिया जा रहा है। टैक्स की रेट भी ज्यादा और उपकर याकि सेस आदि के झंझट भी अलग। व्यापारी को सीए और टैक्स विभाग का मैनेजमेंट करते रहना होगा। मतलब वित्त मंत्रालय ने तैयारी करा दी है कि दुनिया में सर्वाधिक विकृत रूप से जीएसटी भारत में लागू हो। विश्व बैंक की ताजा रपट में जो न्यूजीलैंड आज नंबर एक पर है। वहां जीएसटी है लेकिन वह एक स्लैब और एक रेट के साथ है। रेट भी इतनी कम की दुनिया का हर कारोबारी वहां जा कर फैक्ट्री खोलने, काम करने को भागे! इससे एकदम उलटा भारत में होगा।

क्या ये बाते नरेंद्र मोदी को कोई नहीं बताता होगा? पता नहीं। मगर अफसर, अरुण जेटली, निर्मला सीतारमण निश्चित ही भारत की हकीकत, जरूरतों पर उलटी पट्टी पढ़ाते होंगे। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि नरेंद्र मोदी यदि भाजपा के व्यापारी-सीए सांसदों को भी बुला कर पूछे कि कारोबार में क्या मुश्किल है तो समझ आएगा कि गड़बड़ क्या है? हकीकत आज यह है कि पूरे भारत में व्यापार-बिजनेश का माहौल और जोश पैंदे पर है। व्यापारी-उद्यमी ने यह बात गांठ बांध ली है कि ये पांच साल तो गए। किसी तरह सांस लेते रहो।



मतलब बिजनेश में सहूलियत बढ़ने की बात तो दूर जो कामधंधा कर रहे है उनका जीना और दूभर बना है। इस बात को पिछले दिनों कोझीकोड से लौटते वक्त भाजपा सांसदों ने अरुण जेटली, पीयूष गोयल को भी सांसदों ने बताया बताते है। अपने एक मित्र सांसद ने गपशप करते हुए बताया कि वह भाजपा की कराई चार्टर उड़ान थी। उस चार्टर उड़ान में छह-आठ मंत्री, पार्टी पदाधिकारी और दर्जनों सांसद थे। दो-ढाई घंटे की फ्लाइट में मौका देख सीए-कारोबारी सांसदों ने आगे जा कर अरुण जेटली, पीयूष गोयल से बात की। पूरी यात्रा में अरुण जेटली को समझाया जाता रहा कि आप क्यों कारोबार को चौपट कर दे रहे हैं। कैलाश विजयवर्गी से लेकर कई सांसदों ने नीतियों-टैक्स विभाग की मार की दस तरह की मुश्किलें गिनाई। सांसदों ने चेताया कि बिजनेश और ठप्प हो जाएगा। सोचें, देश की मनोव्यथा की जनप्रतिनिधी जुबानी उस चेतावनी को क्या अरुण जेटली को नरेंद्र मोदी को नहीं बताना था? क्या उन्होंने अपना यह रिपोर्ट कार्ड बताया होगा कि उनके विभाग की रीति-नीति को ले कर सांसदों में ऐसी फीलिंग है?

सो सवाल यह है कि जब अपने सांसदों, देशी उद्ममियों की फीलिंग से ही नरेंद्र मोदी बेखबर हैं तो हकीकत से दो-दो हाथ कर बिजनेश का जीना आसान भला कैसे बना सकते है?

लेख साभार नया इंडिया

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सर्जिकल स्ट्राइक की राजनीतियाँ — अभिसार — @abhisar_sharma #SurgicalStrikePolitics #SurgicalStrike



सर्जिकल स्ट्राइक पर हम पूरी तरह से प्रधानमंत्री का समर्थन करते हैं। उनसे आग्रह करता हूं इसी तरह पाक के गंदे प्रचार का काउंटर करें — अरविंद केजरीवाल


Cartoon courtesy : R Prasad




भारत सरकार को याद रखना होगा कि हमारा प्रस्तावित सुबूत एक ब्रह्मास्त्र है

अभिसार शर्मा


इस गलतफहमी मे मत रहिए कि अरविंद केजरीवाल, सर्जिकल स्ट्राइक के लिए मोदी को सलाम कर रहे हैं । ना । बिल्कुल नहीं । गौर करने लायक उनकी बात का दूसरा हिस्सा है । कि बौखलाए पाकिस्तान के प्रौपगैंडा का मुंहतोड़ जवाब दिया जाए । भारत सरकार भी सुबूत के साथ पाकिस्तान पर फिर सर्जिकल  स्ट्राइक करे । और इसकी बड़ी वजह ये है कि पाकिस्तान इस मनोवैज्ञानिक लड़ाई मे अभी थोड़ी सी बढ़त बनाए हुए है । वो दुनिया भर के मीडिया को पाक के कब्जे वाले कश्मीर मे घुमा रहा है, ये बताने कि लिए कि देखो, कुछ नहीं हुआ । ऊपर से वो संयुक्त राष्ट्र के उस बयान को भी प्रस्तुत कर रहा है जिसमें यूएन ने एलओसी पर हुए सर्जिकल हमले पर संदेह जताया गया है । कांग्रेस नेता संजय निरूपम ने भी कहा है कि भारत सरकार असली सर्जिकल स्ट्राइक करके एलओसी पार सारे टेरर अड्डे बर्बाद करे ।



भारत के पास सुबूत है और उसका मानना है कि वो सही वक्त और समय पर इसे पेश करेगा । ये सही वक्त अगले 6 महीने मे कभी भी हो सकता है । क्योंकि 6 महीने बाद यूपी के चुनाव हैं । बीजेपी को लग रहा है कि सर्जिकल हमले के बाद वो मोदी के 56 इंच के सीने को REBRAND करके फिर पेश कर सकेगा । ऊपर से पार्टी के महान नेता पहले से ही कैराना कैराना कर रहे हैं । उनका मानना है कि मुज्जफरनगर मे तवे की आंच बिल्कुल माकूल है । सिकाई मस्त होगी । वोट छप्पर फाड़ मिलेंगे । अगड़ी जाती को देशभक्ति का डोज मिल गया है और वो खुश है । अब मुसलमान असमंजस मे सपा और बसपा मे दो फाड़ हो जाएगा । दलित और पिछड़ी जाति का वोटर भी सर्जिकल  स्ट्राइक मे बह ही जाएगा । ऐसा वो मान रही है । क्योंकि अच्छे दिन तो आए नहीं । अब अच्छे दिन से तो बीजेपी पिंड छुड़ा रही है क्योंकि नितिन गडकरी जी की माने तो अच्छे दिन भी दरअसल मनमोहन सिंह का आईडिया था । लो कल्लो बात ।



खैर ये बात तो हो गई सियासत की । मगर अब वापस आते हैं सुबूत पर । भारत सरकार को याद रखना होगा कि हमारा प्रस्तावित सुबूत एक ब्रह्मास्त्र है । इसका इस्तेमाल सिर्फ एक बार हो सकता है । हम इसका इस्तेमाल जब भी करे, ऐसा करें कि पाकिस्तानी चारों खाने चित्त । दोहरा दूं, ये एक ब्रह्मास्त्र है और बीजेपी की संजीवनी । मैं जानता हूं आप सोच रहे होगे कि मैं रामायण वक्त के हथियारों का बार बार जिक्र क्यों कर रहा हूं । अब का करें भईया, मौजूदा सरकार और उसके होनहार ये प्रतीक आसानी से समझ जाते हैं । सोचा इन्हीं की भाषा मे बात की जाए । लिहाज़ा आप भी इंतजार कीजिए । सरकार पूरी सोच समझ के साथ ही कुछ करेगी । क्योंकि सच तो ये हैं कि ये सर्जिकल  स्ट्राइक सिर्फ और सिर्फ इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि भारत ने इसको सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है । बस । ऐसे हमले पहले भी हुए हैं, जिसकी तसदीक खुद पूर्व सेना प्रमुख विक्रम सिंह कर चुके हैं । जनरल ने तो जनवरी 2013 का हवाला दिया था जिसमें 2 भारतीय सैनिकों की शहादत के जवाब मे कई पाकिस्तानयों को मारा गया था ।

पत्रकारों का काम है कि वो सवाल पूछें । कि आखिर हमला कितना सफल रहा, निशाने पर कौन था, कितने आतंकी मारे गए । मगर माहौल ऐसा है कि ये सामान्य सवाल पूछने पर लोग देशद्रोही ठहरा देते हैं और वैसे भी अपनी सेना के दावे पर कौन सवाल कर सकता है । ऊपर से मामला पाकिस्तान का भी है । सुबूत का विडियो सामने कब आएगा, ये एक राजनीतिक फैसला भी है । मुझे नहीं लगता कि मोदी सरकार को पाकिस्तान की चिंता है । उनकी निगाह दरअसल पंजाब और यूपी के चुनावों पर होगी और फैसला भी उसी हिसाब से लिया जाएगा । सच तो ये ही कि सर्जिकल  स्ट्राइक को सार्वजनिक करने के पीछे भी यही मंशा है । मोदी एक निर्णायक नेता हैं, ये काल्पनिक नहीं, ये बात देश को समझाना जरूरी हो गया था ।

और हां जरूरी ये भी है कि रक्षा मंत्री मनोहर परिक्कर, मनोहर कहानियां सुनाना बंद करें । आमिर खान के बारे मे उनके बयान तक तो ठीक था, अब वो ये भी कह रहे हैं कि सेना को हनुमान की तरह अपनी ताकत का अंदाज़ा नही था । क्योंकि सेना 2014 से पहले सो रही थी कि अपनी काबिलीयत का अंदाजा उन्हें अब जाकर हुआ, बिल्कुल वैसा ही जैसे लंका दहन करने से पहले हनुमान को जामवंत ने याद दिलाया था कि आपमें असंभव कर गुजरने की काबिलीयत है । सेना हनुमान सही, मगर आप मनोहरजी जामवंत कतई नहीं । रक्षा मंत्री हैं । बने रहें । पाकिस्तानी रक्षा मंत्री के साथ बयानबाजी मे प्रतिस्पर्धा न करें । न भूलें, मौजूदा माहौल मे एक भारतीय सैनिक गलती से सीमा पार कर गया है, उसे वापस भी लाना है ।

Abhisar Sharma

Journalist , ABP News, Author, A hundred lives for you, Edge of the machete and Eye of the Predator. Winner of the Ramnath Goenka Indian Express award.
From Abhisar Sharma's facebook wall

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मोदी ने अभी तक तो सही संतुलन बनाये रखा है लेकिन युद्ध-प्रेमियों को कब तक दरकिनार रख पाएंगे #SurgicalStrike


मोदी का विपक्ष के एक अतिउत्साही नेता से सामरिक संयम के लिए ढांचा तलाशते राजनीतिज्ञ में बदलने की यह प्रक्रिया, एक तरह से, लोकतंत्र की वह शक्ति दर्शाती है, जिसमें एक जटिल समाज पर शासन की चुनौतियां, राजनीतिक उन्माद की धार का पैनापन कम कर देती हैं... — राजदीप सरदेसाई


rajdeep sardesai on modi and surgical strike pakistan

टीवी ने युद्ध के लिए एक बड़ा निर्वाचन क्षेत्र बना दिया है

MODI'S FIRM MESSAGE BUT CAN WAR-MONGERS BE KEPT AT BAY?

इस 24x7 मीडिया के ब्रह्मांड में, छुपने के लिए सचमुच कोई जगह नहीं है। यही वजह है कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री मोदी का वह विडियो वायरल हुआ जिसमें वह गुजरात मुख्यमंत्री के रूप में तब की यूपीए सरकार की पाकिस्तान नीति के ख़िलाफ़ बोलते नज़र आ रहे हैं। वीडियो में मोदी मनमोहन सिंह सरकार का मजाक इसलिए उड़ाते दिखते हैं क्योंकि पाकिस्तान को आतंकवादी हमले करने के लिए करारा जवाब नहीं दिया गया। उन्हें वीडियो में यह कहते हुए सुना जा सकता है "दुनिया से समर्थन के लिए भीख माँगने के बजाय पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर रहे हैं" । पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों पर उड़ी हमले के बाद हड्डीतोड़ हमले (surgical strike) की घोषणा की यही वजह है, यह प्रधानमंत्री के लिए निर्णय की घड़ी है : 2014 के चुनावों के पूर्व किये गए वादे "पाकिस्तान को सबक सिखाना" को पूरा करने के लिए मोदी अब क्या-क्या कदम उठाते हैं।"

मोदी का विपक्ष के एक अतिउत्साही नेता से सामरिक संयम के लिए ढांचा तलाशते राजनीतिज्ञ में बदलने की यह प्रक्रिया, एक तरह से, लोकतंत्र की वह शक्ति दर्शाती है, जिसमें एक जटिल समाज पर शासन की चुनौतियां, राजनीतिक उन्माद की धार का पैनापन कम कर देती हैं। अपने हाल के भाषणों ‘कोझिकोड’ और ‘मन की बात’ में, मोदी ने पाकिस्तान पर अपनी टिप्पणी में एक आश्वासनपूर्ण व्यावहारिकता दिखायी है : जैसा कि पहले दिखाई देता था उसके विपरीत, बगैर लड़ाई के लिए उत्सुक या मिडिया में छाने की कोशिश किये, मोदी ने इस्लामाबाद को एक कड़ा सन्देश दिया। यहाँ तक कि सर्जिकल स्ट्राइक भी एक तरह से पहली चेतावनी की तरह है न कि युद्ध की कोई घोषणा। एक हद तक मोदी की नीति को असंगत के बजाय उपयुक्त प्रतिक्रिया मिली है ।



इसके ठीक विपरीत उनके समर्थकों, जिनमें से बहुतों का मानना है कि मोदी को और बड़े कदम उठाने चाहियें। भाजपा महासचिव राम माधव का कहना है "दाँत के बदले पूरा जबड़ा"। एक टीवी बहस में भाजपा के एक नेता ने अजीब ढंग का दावा किया कि अगले स्वतंत्रता दिवस से इस्लामाबाद के ऊपर भारतीय ध्वज लहरा रहा होगा। सोशल मीडिया पर भाजपा की इंटरनेट सेना "सर्जिकल स्ट्राइक'' की ख़बर से उन्मादित हो और बड़ा, और अधिक होने की आशा दिखा रही है। जबकि सेना ने एक सीमित कार्यवाही की बात कही है, फिर भी टीवी स्टूडियो और कम्प्युटरी संसार में युद्ध घोषित किया जा चुका है।

यह अनियंत्रित अंधराष्ट्रीयता दोबारा आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। "आओ युद्ध करें "... टीवी पर दिखता यह पागलपन न सिर्फ राजनीतिक सरगर्मी बल्कि टीवी कार्यक्रम की टीआरपी को भी बढ़ावा देता है। ‘अच्छे' टीवी के लिए, धुर विरोधी भारतीय और पाकिस्तानी जनरल - ऐसा रूपक तैयार करते हैं जिसमें शोरगुल और हाथापाई-जैसे माहौल के बीच 'भावना' की जगह 'सनसनी' ले पाये। टीवी ने युद्ध के लिए एक बड़ा निर्वाचन क्षेत्र बना दिया है: यहाँ WWE-सरीखी कुश्ती जैसे प्रारूप वाली बहस में संयत, सूक्ष्म विचारों के लिए बहुत कम जगह है।

भाजपा के कट्टर समर्थकों के लिए, जो अभी भी विभाजन को मान्यता नहीं देते, कठोर राष्ट्रवाद जो पाकिस्तान को वह स्थायी 'शत्रु' मानना चाहता है जिसे हर हाल में नष्ट किया जाना चाहिए, उनके अखण्ड भारत के वैश्विक नजरिये से मेल खाता हैं, यह तक़रीबन पाकिस्तान के उन चरमपंथी संगठनों जैसा ही है जो भारत का खून बहते देखना चाहते हैं। भगवा विचारधारा का लम्बे समय से यही मानना है कि कांग्रेस एक कमज़ोर राष्ट्र बन के पाकिस्तान को ज़रूरत से कहीं ज्यादा छूट देती है। उनकी नेहरू के प्रति घृणा और कुछ हद तक महात्मा गांधी के लिए भी, इस आरोप के चलते है कि कांग्रेसी नेताओं ने 1947 से ही कभी पाकिस्तानयों के झांसों को सामने नहीं आने दिया, ख़ासकर कश्मीर के घाव को। और अब चूंकि यहाँ बहुमत से बनी पहली दक्षिणपंथी सरकार है, जिसका नेता ख़ुद ही अपने सीने को छप्पन इंच का बताता है, तो यह अकारण नहीं कि भगवा योद्धाओं को लगता है कि पुरानी गलतियाँ अब दूर हो जाएँगी। न सही पूरा पाकिस्तान लेकिन कम से कम पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में पुनः कब्जा किया जाना चाहिए।

यही वजह है मोदी के कई सबसे प्रबल समर्थक प्रधानमंत्री को इसबात के लिए लगभग उकसा रहे हैं कि रुकिए नहीं , जल्द से जल्द युद्ध का आह्वान कर दें। सरकार की, पाकिस्तान के राजनयिक अलगाव, उसे अलग-थलग करने की कोशिशें, एक लम्बी और कठिन प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में अनेक देशों को अपने साथ लाना होगा। इसके लिए कौशल और संकल्प की ज़रूरत है और इन दोनों से भी अधिक ज़रूरत है 'धैर्य' की ह। इस रास्ते पर चलने की कोशिश मोदी से पहले मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी, जिसके मिश्रित परिणाम आये थे। यहाँ दिक्कत यह है कि मोदी की छवि वास्तविकता से बड़ी एक उस शक्तिवान-राजनीति से तैयार की गयी है , जो उन्हें एक अर्नाल्ड श्वार्जनेगर-सरीखे 'टर्मिनेटर' की तरह देखती है न कि एक ऐसे राजनेता की तरह जिसका मुख्य हथियार कूटनीति होती हो।

rajdeep sardesai on surgical strike and narendra modi


अब सवाल यह उठता है कि क्या मोदी और उनका प्रशासन इस सर्जिकल स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों पर और ठोस हमले करेगा। उत्तर प्रदेश, एक प्रमुख राज्य में चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं और मोदी को पता है कि वह नवाज शरीफ के साथ किसी तरह की 'झप्पी-पप्पी' जैसा आदानप्रदान नहीं कर सकते, यही वजह है कि सार्क शिखर सम्मेलन में जाने से इंकार कर दिया गया। और इसके साथ ही मोदी को इस्लामाबाद पर आतंकियों को शरण देने के लिए भारी आर्थिक दबाव भी डालना है। एलओसी पार किया गया यह सोचा-समझा आक्रमण भले ही एक कठोर सन्देश देगा लेकिन असली सवाल यह है कि मोदी इसे किस हद तक आगे बढ़ाने का जोख़िम उठा सकते हैं, क्योंकि यह भारत के विकास की गाथा को ख़त्म कर सकता है। यह पल समय से पहले उत्सव के बजाय गंभीरता की मांग करता है। अभी तक तो मोदी ने सही संतुलन बनाये रखा है लेकिन युद्ध-प्रेमियों को कब तक दरकिनार रख पाएंगे।

पुनश्च: सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि उनकी सहयोगी सुषमा स्वराज को भी अपनी प्रतिक्रियाओं को लेकर सावधान रहना होगा। 2013 में जब भारतीय सैनिक का गला काटने की घटना हुई थी तब सुषमा ने फौरन एक के बदले 10 पाकिस्तानी सिरों की बात कही थी। अब संयुक्त राष्ट्र में उनके द्वारा दिए गए, अच्छी तरह से तैयार भाषण से पता चलता है कि घरेलू मैदान में खेलना और आतंकवाद के खिलाफ एक वैश्विक गठबंधन बनाना दो बिलकुल अलग काम हैं।

राजदीप सरदेसाई के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद - भरत तिवारी
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इतिहास नरेंद्र मोदी को इस रूप में जाने कि उन्होंने कश्मीर के लोगों का दिल जीता — संतोष भारतीय


प्रधानमंत्री जी, मेरे मन में एक बड़ा सवाल है कि क्या पाकिस्तान इतना बड़ा है कि वहां पत्थर चलाने वाले बच्चों को रोज पांच सौ रुपये दे सकता है और क्या हमारी व्यवस्था इतनी खराब है कि अब तक उस व्यक्ति को नहीं पकड़ पाई, जो वहां पांच-पांच सौ रुपये बांट रहा है
पिछले दिनों  हिंदी साप्ताहिक अखबार चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय , अभय दूबे और अशोक वानखेड़े कश्मीर के हालत की ज़मीनी हकीकत जानने के लिए वहाँ गए थे. वापस  आने के बाद संतोष भारतीय ने देश के प्रधानमंत्री के नाम एक खुला खत लिखा है, जिसमें उन्होंने कश्मीर के वो हालात लिखे हैं जो उन्होंने ख़ुद देखे ... जिसे पढ़ते हुए मेरी आँखे नम होती रहीं, देखिये अब आप... और पढ़ने के बाद अगर दिल कहे तो दुआ कीजियेगा कि इसे माननीय प्रधानमंत्री जी भी पढ़ लें .

भरत तिवारी  




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Editor of Chouthi Duniya, Santosh Bhartiya's open letter to PM...

प्रधानमंत्री जी, ये कश्‍मीर का सच है



प्रिय प्रधानमंत्री जी,

मैं अभी-अभी चार दिन की यात्रा के बाद जम्मू-कश्मीर से लौटा हूं। चारों दिन मैं कश्मीर वादी में रहा और मुझे ये लगा कि मैं आपको वहां के हालात से अवगत कराऊं। हालांकि आपके यहां से पत्र का उत्तर आने की प्रथा समाप्त हो गई है, ऐसा आपके साथियों का कहना है, लेकिन फिर भी इस आशा से मैं ये पत्र भेज रहा हूं कि आप मुझे उत्तर दें या न दें, लेकिन पत्र को पढ़ेंगे अवश्य। इसे पढ़ने के बाद अगर आपको इसमें जरा भी तथ्य लगे, तो आप इसमें उठाए गए बिंदुओं के ऊपर ध्यान देंगे। ये मेरा पूरा विश्‍वास है कि आपके पास जम्मू-कश्मीर को लेकर खासकर कश्मीर घाटी को लेकर जो खबरें पहुंचती हैं, वो सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रायोजित खबरें होती हैं उन खबरों में सच्चाई कम होती है। यदि आपके पास कोई ऐसा तंत्र हो, जो घाटी के लोगों से बातचीत कर आपको सच्चाई से अवगत कराए तो मेरा निश्‍चित मानना है कि आप उन तथ्यों को अनदेखा नहीं कर पाएंगे।
अगर 80 वर्ष के वृद्ध से लेकर 6 वर्ष का बच्चा तक आजादी, आजादी, आजादी कहे, तो मानना चाहिए कि पिछले 60 वर्षों में हमसे बहुत बड़ी चूक हुई है और वो चूकें जान-बूझकर हुई हैं। इन चूकों को सुधारने का काम आज इतिहास ने, समय ने आपको सौंपा है।
मैं घाटी में जाकर विचलित हो गया हूं। जमीन हमारे पास है क्योंकि हमारी सेना वहां पर है, लेकिन कश्मीर के लोग हमारे साथ नहीं हैं। मैं पूरी जिम्मेदारी से ये तथ्य आपके सामने लाना चाहता हूं कि 80 वर्ष की उम्र के व्यक्ति से लेकर 6 वर्ष तक के बच्चे के मन में भारतीय व्यवस्था को लेकर बहुत आक्रोश है। इतना आक्रोश है कि वो भारतीय व्यवस्था से जुड़े किसी भी व्यक्ति से बात नहीं करना चाहते हैं। इतना ज्यादा आक्रोश है कि वो हाथ में पत्थर लेकर इतने बड़े तंत्र का मुकाबला कर रहे हैं। अब वो कोई भी खतरा उठाने के लिए तैयार हैं जिसमें सबसे बड़ा खतरा नरसंहार का है। ये तथ्य मैं आपको इसी उद्देश्य को सामने रखकर लिख रहा हूं कि कश्मीर में होने वाले शताब्दी के सबसे बड़े नरसंहार को बचाने में आपकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। हमारे सुरक्षा बलों में, हमारी सेना में ये भाव पनप रहा है कि जो भी कश्मीर में व्यवस्था के प्रति आवाज उठाता है, उसे अगर समाप्त कर दिया जाए, तो ये अलगाववादी आंदोलन समाप्त हो सकता है। व्यवस्था जिसे अलगाववादी आंदोलन कहती है, दरअसल वो अलगाववादी आंदोलन नहीं है, वो कश्मीर की जनता का आंदोलन है। अगर 80 वर्ष के वृद्ध से लेकर 6 वर्ष का बच्चा तक आजादी, आजादी, आजादी कहे, तो मानना चाहिए कि पिछले 60 वर्षों में हमसे बहुत बड़ी चूक हुई है और वो चूकें जान-बूझकर हुई हैं। इन चूकों को सुधारने का काम आज इतिहास ने, समय ने आपको सौंपा है। आशा है आप कश्मीर की स्थिति को तत्काल नए सिरे से जानकर अपनी सरकार के कदमों का निर्धारण करेंगे। प्रधानमंत्री जी, कश्मीर में पुलिसवालों से लेकर, वहां के व्यापारी, छात्र, सिविल सोसायटी के लोग, लेखक, पत्रकार, राजनीतिक दलों के लोग और सरकारी अधिकारी, वो चाहे कश्मीर के रहने वाले हों या कश्मीर के बाहर के लोग जो कश्मीर में काम कर रहे हैं, सबका ये मानना है कि व्यवस्था से बहुत बड़ी भूल हुई है। इसलिए कश्मीर का हर आदमी भारतीय व्यवस्था के खिलाफ खड़ा हो गया है। जिसके हाथ में पत्थर नहीं है उसके मन में पत्थर है। ये आंदोलन जन आंदोलन बन गया है, ठीक वैसा ही जैसे भारत का सन 42 का आंदोलन था या फिर जयप्रकाश आंदोलन था, जिसमें नेता की भूमिका कम थी, लोगों की भूमिका ज्यादा थी।

कश्मीर में एक पूरी पीढ़ी, जो सन 1952 में पैदा हुई, उसने आज तक लोकतंत्र का नाम ही नहीं सुना, उसने आज तक लोकतंत्र का स्वाद ही नहीं चखा। उसने वहां सेना देखी, पैरामिलिट्री फोर्सेज देखीं, गोलियां देखीं, बारूद देखीं और मौतें देखीं।

कश्मीर में इस बार बकरीद नहीं मनाई गई, किसी ने नए कपड़े नहीं पहने, किसी ने कुर्बानी नहीं दी। किसी के घर में खुशियां नहीं मनीं। क्या ये भारत के उन तमाम लोगों के मुंह पर तमाचा नहीं है, जो लोकतंत्र की कसमें खाते हैं। आखिर ऐसा क्या हो गया कि कश्मीर के लोगों ने त्योहार मनाना बंद कर दिया, ईद-बकरीद मनानी बंद कर दी और इस आंदोलन ने वहां के राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ एक बगावत का रूप धारण कर लिया। जिस कश्मीर में 2014 में हुए चुनाव में लोगों ने वोट डाले, आज उस कश्मीर में कोई भी व्यक्ति भारतीय व्यवस्था के प्रति सहानुभूति का एक शब्द कहने के लिए तैयार नहीं है। मैं आपको स्थितियां इसलिए बता रहा हूं कि पूरे देश का प्रधानमंत्री होने के नाते आप इसका कोई रास्ता निकाल सकें।



कश्मीर के घरों में लोग शाम को एक बल्ब जलाकर रहते हैं। ज्यादातर घरों में ये माना जाता है कि हमारे यहां इतना दुख है, इतनी हत्याएं हो रही हैं, दस हजार से ज्यादा पैलेट गन से लोग घायल हुए हैं, 500 से ज्यादा लोगों की आंखें चली गई हैं, ऐसे समय हम चार बल्ब घर में जलाकर खुशी का इजहार कैसे कर सकते हैं? हम एक बल्ब जलाकर रहेंगे। प्रधानमंत्री जी, मैंने देखा है कि लोग घरों में एक बल्ब जलाकर रह रहे हैं। मैंने ये भी कश्मीर में देखा कि किस तरह सुबह आठ बजे सड़कों पर पत्थर लगा दिए जाते हैं और शाम के 6 बजे अपने आप वही लड़के जिन्होंने पत्थर लगाए हैं, सड़क से पत्थर हटा देते हैं। दिन में वे पत्थर चलाते हैं, शाम को वे अपने घरों में इस दु:शंका में सोते हैं कि उन्हें कब सुरक्षा बल के लोग आकर उठा ले जाएं, फिर वो कभी अपने घर को वापस लौटें या न लौटें। ऐसी स्थिति तो अंग्रजों के शासन काल में भी नहीं थी। ये मानसिकता, जितनी हम इतिहास में पढ़ते हैं, सामान्य जन में इतना डर नहीं था, लेकिन आज कश्मीर का हर आदमी, वह हिंदू हो, मुसलमान हो, सरकारी नौकर हो, छात्र हो, बेकार हो, व्यापारी हो, सब्जी वाला हो, ठेले वाला हो या टैक्सी वाला हो, हर आदमी डरा हुआ है और शायद मुझे विश्‍वास नहीं होता है कि क्या हम उन्हें और डराने या और ज्यादा परेशान करने की रणनीति पर तो नहीं चल रहे हैं

मैं मानता हूं कि हमारे साथी राज्यसभा में जाने या अपना नाम पत्रकारिता के इतिहास में प्रथम श्रेणी में लिखवाने के क्रम में इतना अंधे हो गए हैं कि वो देश की एकता और अखंडता से भी खेल रहे हैं

कश्मीर के लोगों में पिछले साठ वर्षों में व्यवस्था की चूक, लापरवाही या आपराधिक अनदेखी की वजह से लोगों को याद आ गया है कि जब कश्मीर को हिंदुस्तान में शामिल करने का समझौता हुआ था, जिसे वो एकॉर्ड कहते हैं, महाराजा हरि सिंह और भारत सरकार के बीच, जिसके गवाह महाराजा हरि सिंह के बेटे डॉ. कर्ण सिंह अभी जिंदा हैं, उसमें साफ लिखा था कि धारा 370 तब तक रहेगी जब तक कश्मीर के लोग अपने भविष्य को लेकर अंतिम फैसला मत संग्रह के द्वारा नहीं कर देते। कश्मीर के लोग इस जनमत संग्रह को चार-पांच साल में भूल गए थे। शेख अब्दुल्ला वहां सफलतापूर्वक शासन कर रहे थे, लेकिन प्रधानमंत्री जी भारत के पहले प्रधानमंत्री ने जब शेख अब्दुल्ला को जेल में डाला तब से कश्मीर में भारत के प्रति अविश्‍वास पैदा हुआ। 1974 में शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गांधी के बीच एक समझौता हुआ, उसके बाद शेख अब्दुल्ला को दोबारा कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया। शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान भी गए और उन्होंने अपना शासन चलाया, लेकिन उन्होंने सरकार से जिन-जिन चीजों की मांग की, सरकार ने वो नहीं किया और फिर कश्मीर के लोगों के मन में दूसरे घाव लगे।

1982 में पहली बार शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक अब्दुल्ला कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े और वहां उन्हें बहुमत हासिल हुआ। शायद दिल्ली में बैठी कांग्रेस कश्मीर को अपना उपनिवेश समझ बैठी थी और उसने फारूक अब्दुल्ला की सरकार गिरा दी। फारूक अब्दुल्ला की जीत हार में बदल गई और यहां से कश्मीरियों के मन में भारतीय व्यवस्था को लेकर नफरत का भाव पैदा हुआ। आपके प्रधानमंत्री बनने से पहले तक दिल्ली में बैठी तमाम सरकारों ने कश्मीर में लोगों को ये विश्‍वास ही नहीं दिलाया कि वो भी भारतीय व्यवस्था के वैसे ही अंग हैं, जैसे हमारे देश के दूसरे राज्य। कश्मीर में एक पूरी पीढ़ी, जो सन 1952 में पैदा हुई, उसने आज तक लोकतंत्र का नाम ही नहीं सुना, उसने आज तक लोकतंत्र का स्वाद ही नहीं चखा। उसने वहां सेना देखी, पैरामिलिट्री फोर्सेज देखीं, गोलियां देखीं, बारूद देखीं और मौतें देखीं। उसको ये नहीं अंदाज है कि हम दिल्ली में, उत्तर प्रदेश में, बंगाल में, महाराष्ट्र में, गुजरात में किस तरह जीते हैं और किस तरह हम लोकतंत्र की दुहाई देते हुए लोकतंत्र नाम के व्यवस्था का स्वाद चखते हैं। क्या कश्मीर के लोगों का ये हक नहीं है कि वो भी लोकतंत्र का स्वाद चखें, लोकतंत्र की अच्छाइयों के समंदर में तैरें या उनके हिस्से में बंदूकें, टैंक, पैलेट गन्स और फिर संभावित नरसंहार ही आएगा।

प्रधानमंत्री जी, ये बातें मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं कि आपको लोगों ने ये बतला दिया है कि कश्मीर का हर व्यक्ति पाकिस्तानी है। हमें कश्मीर में एक भी आदमी पाकिस्तान की तारीफ करता हुआ नहीं मिला। लेकिन उनका ये जरूर कहना है कि आपने जो हमसे वादा किया था, वह पूरा नहीं किया। आपने हमें रोटी जरूर दी, लेकिन थप्पड़ मारते हुए दी, आपने हमें हिकारत से देखा, आपने हमें बेइज्जत किया, आपने हमारे लिए लोकतंत्र की रोशनी न आने देने की साजिश की और इसलिए पहली बार ये आंदोलन आजादी के बाद कश्मीर के गांव तक फैल गया। हर पेड़ पर, हर मोबाइल टावर के ऊपर हर जगह प्रधानमंत्री जी पाकिस्तानी झंडा है और जब हमने पता किया तो उन्होंने कहा कि नहीं हम पाकिस्तान नहीं जाना चाहते हैं, लेकिन आप पाकिस्तान से चिढ़ते हैं, इसलिए हम पाकिस्तानी झंडा लगाते हैं और ये कहने में कश्मीर के बहुत से लोगों के मन में कोई पश्‍चाताप नहीं था। कश्मीर के लोग भारत की व्ववस्था को, सत्ता को चिढ़ाने के लिए जब भारत की क्रिकेट में हार होती है, तो जश्‍न मनाते हैं वो सिर्फ पाकिस्तान की टीम की जीत पर जश्‍न नहीं मनाते, खुश नहीं होते, अगर हम न्यूजीलैंड से हार जाएं, अगर हम बंाग्लादेश से हार जाएं, अगर हम श्रीलंका से हार जाएं, तब भी वो उसी सुख का अनुभव करते हैं। क्योंकि उन्हें ये लगता है कि हम भारतीय व्यवस्था की किसी भी खुशी को नकार कर अपना विरोध प्रदर्शित कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी, क्या इस मनोविज्ञान को भारत की सरकार को समझने की जरूरत नहीं है। कश्मीर के लोग अगर हमारे साथ नहीं होंगे, तो हम कश्मीर की जमीन लेकर क्या करेंगे। कश्मीर की जमीन में कुछ भी पैदा नहीं होता, फिर वहां पर न टूरिज्म होगा, न वहां मोहब्बत होगी, सिर्फ एक सरकार होगी और हमारी फौज होगी। प्रधानमंत्री जी, कश्मीर के लोग आत्मनिर्णय का अधिकार चाहते हैं, वो कहते हैं कि एक बार आप हमसे ये जरूर पूछिए कि हम भारत के साथ रहना चाहते हैं कि हम पाकिस्तान के साथ रहना चाहते हैं या हम एक आजाद देश बनाना चाहते हैं और उसमें सिर्फ भारत के साथ शामिल हुआ कश्मीर नहीं शामिल है। उसमें वो जनमत संग्रह पाकिस्तान के अधिकार में रहने वाले कश्मीर, गिलगिट, बलटिस्तान ये तीनों के लिए जनमत संग्रह चाहते हैं और इसके लिए वो चाहते हैं कि भारत, पाकिस्तान के साथ बातचीत करे कि अगर भारत यहां ये अधिकार देने को तैयार है, तो वो भी यहां पर वो अधिकार दें।




प्रधानमंत्री जी, ये स्थिति क्यों आई, ये स्थिति इसलिए आई कि अब तक संसद ने चार प्रतिनिधिमंडल कश्मीर में भेजे, उन चारों सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों ने जो संसद का प्रतिनिधित्व करते थे, क्या रिपोर्ट सरकार को दी, वो किसी को नहीं मालूम। लेकिन जो भी रिपोर्ट दी हो, उस पर अमल नहीं हुआ। सरकार ने अपनी तरफ से श्री राम जेठमलानी और श्री केसी पंत को वहां पर दूत के रूप में भेजा और इन लोगों ने वहां बहुत से लोगों से बातचीत की, लेकिन इन लोगों ने सरकार से क्या कहा, ये किसी को नहीं पता। आपके पहले के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इंटरलोकेटर की टीम बनाई थी, जिसमें दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार, एमएम अंसारी थे, इन लोगों ने क्या रिपोर्ट दी, किसी को नहीं पता, उस पर बहुस नहीं हुई, उस पर चर्चा नहीं हुई। जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया कि उन्हें क्या अधिकार चाहिए, उसे कूड़े की टोकरी में फेंक दिया गया। कश्मीर के लोगों को ये लगता है कि हमारा शासन हम नहीं चलाते, दिल्ली में बैठे कुछ अफसर चलाते हैं, इंटेलीजेंस ब्यूरो चलाती है, सेना के लोग चलाते हैं, हम नहीं चलाते। हम तो यहां पर गुलामों की तरह से जी रहे हैं, जिसे रोटी देने की कोशिश तो होती है, लेकिन जीने का कोई रास्ता उसके लिए खुला नहीं है। प्रधानमंत्री जी, कश्मीर के लिए जो पैसा एलॉट होता है वो वहां नहीं पहुंचता, पंचायतों के पास पैसा नहीं पहुंचता, कश्मीर को जितने पैकेज मिले, वो नहीं मिले और आपने 2014 में दिवाली कश्मीर के लोगों के बीच बिताई थी, आपने कहा था कि वहां इतनी बाढ़ आई है, इतना नुकसान हुआ है, इतने हजार करोड़ रुपये का पैकेज कश्मीर को दिया जाएगा। प्रधानमंत्री जी, वो पैकेज नहीं मिला है, उसका कुछ हिस्सा स्व. मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद जब महबूबा मुफ्ती ने थोड़ा दबाव डाला, तो कुछ पैसा रिलीज हुआ। कश्मीर के लोगों को ये मजाक लगता है, अपना अपमान लगता है।

प्रधानमंत्री जी, क्या ये संभव नहीं कि जितने भी संसदीय प्रतिनिधिमंडल अब तक कश्मीर गए, इंटरलोकेटर्स की रिपोर्ट, केसी पंत और श्री राम जेठमलानी के सुझाव तथा और भी जिन लोगों ने कश्मीर के बारे में आपको राय दी हो, आपसे मतलब आपके कार्यालय को अब तक राय दी हो, क्या उन रायों को लेकर हमारे भूतपूर्व प्रधान न्यायाधीशों का एक आठ या दस का ग्रुप बनाकर उनके सामने वो रिपोर्ट नहीं सौंपी जा सकती कि इसमें तत्काल क्या-क्या लागू करना है, उन बिंदुओं को तलाशें। क्या इंटरलोकेटर्स की रिपोर्ट बिना किसी शर्त के लागू कर उस पर अमल नहीं कराया जा सकता, चूंकि ये सारी चीजें नहीं हुईं, इसलिए कश्मीर के लोग अब आजादी चाहते हैं और वो आजादी की भावना इतनी बढ़ गई है प्रधानमंत्री जी, मैं फिर दोहराता हूं, मुझे पुलिस से लेकर, 80 साल के वृद्ध से लेकर, लेखक, पत्रकार, व्यापारी, टैक्सी चलाने वाले, हाउसबोट के लोग और 6 साल का बच्चा तक ये सब आजादी की बात करते दिखाई दिए। एक भी व्यक्ति मुझे ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा हो कि उसे पाकिस्तान जाना है, उसे मालूम है पाकिस्तान की हालत क्या है और जिन हाथों में पत्थर हैं, उन हाथों को ये पत्थर पकड़ने की ताकत अगर किसी ने दी है, तो ये हमारी व्यवस्था ने दी है

प्रधानमंत्री जी, मेरे मन में एक बड़ा सवाल है कि क्या पाकिस्तान इतना बड़ा है कि वहां पत्थर चलाने वाले बच्चों को रोज पांच सौ रुपये दे सकता है और क्या हमारी व्यवस्था इतनी खराब है कि अब तक उस व्यक्ति को नहीं पकड़ पाई, जो वहां पांच-पांच सौ रुपये बांट रहा है। कर्फ्यू है, लोग सड़कों पर नहीं निकल रहे हैं, कौन मोहल्ले में जा रहा है पांच सौ रुपये बांटने के लिए। पाकिस्तान क्या इतना ताकतवर है कि पूरे 60 लाख लोगों को भारत जैसे 125 करोड़ लोगों के देश के खिलाफ खड़ा कर सकता है। मुझे ये मजाक लगता है, कश्मीर के लोगों को भी ये मजाक लगता है। कश्मीर के लोगों को हमारी व्यवस्था के अंग मीडिया से भी बहुत शिकायत है, वो कई चैनलों का नाम लेते हैं जिनको देखकर लगता है कि ये देश में सांप्रदायिक भावना को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। इसमें कुछ महत्वपूर्ण चैनल अंग्रेजी के हैं और कुछ हिंदी के भी हैं। मैं मानता हूं कि हमारे साथी राज्यसभा में जाने या अपना नाम पत्रकारिता के इतिहास में प्रथम श्रेणी में लिखवाने के क्रम में इतना अंधे हो गए हैं कि वो देश की एकता और अखंडता से भी खेल रहे हैं। पर प्रधानमंत्री जी, इतिहास निर्मम होता है, वो ऐसे पत्रकारों को देशप्रेमी नहीं देशद्रोही मानेगा, क्योंकि ऐसे लोग जो पाकिस्तान का नाम लेते हैं या हर चीज में पाकिस्तान का हाथ देखते हैं, वो लोग दरअसल पाकिस्तान के दलाल हैं, वो मानसिक रूप से हिंदुस्तान और कश्मीर के लोगों में ये भावना पैदा कर रहे हैं कि पाकिस्तान एक बड़ा सशक्त, बड़ा समर्थ और बहुत विचारवान देश है। प्रधानमंत्री जी, इन लोगों को जब समझ में आएगा, तब आएगा या नहीं समझ में आए, मुझे उससे चिंता नहीं है। मेरी चिंता भारत के प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर है। नरेंद्र मोदी को इतिहास अगर इस रूप में आंके कि उन्होंने कश्मीर में एक बड़ा नरसंहार करवाकर कश्मीर को भारत के साथ जोड़े रखा, शायद वो आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत दुखद इतिहास होगा। इतिहास नरेंद्र मोदी को इस रूप में जाने कि उन्होंने कश्मीर के लोगों का दिल जीता। उन्हें उन सारे वादों की भरपाई करने का आश्‍वासन दिया, जिन्हें साठ साल से कश्मीरियों को कहा जाता रहा है। कश्मीर के लोग सोना नहीं मांगते, चांदी नहीं मांगते, हीरा नहीं मांगते। कश्मीर के लोग इज्जत मांगते हैं। प्रधानमंत्री जी मैंने जितने वर्गों की बात की, ये सब स्टेक होल्डर हैं।

प्रधानमंत्री जी, ये सारे लोग स्टेक होल्डर हैं और इनमें हुर्रियत के लोग शामिल हैं। हुर्रियत के लोगों का इतना नैतिक दबाव कश्मीर में है कि वो जो कैलेंडर शुक्रवार को वहां जारी करते हैं, वह हर एक के पास पहुंच जाता है। अखबारों में छपा कि हर एक को उसकी जानकारी हो गई और लोग सात दिन उस कैलेंडर के ऊपर काम करते हैं, वो कहते हैं कि 6 बजे तक बाजार बंद रहेंगे, 6 बजे तक बाजार बंद होते हैं और 6 बजे बाजार अपने आप खुल जाते हैं। प्रधानमंत्री जी, वहां तो बैंक भी 6 बजे के बाद खुलने लगे हैं, जो आपके व्यवस्था के अंतर्गत आते हैं, वहां पर हमारे सुरक्षाबलों के लोग 6 बजे के बाद नहीं घूमते, 6 बजे के पहले ही घूमते हैं और इसीलिए हमारा कोर कमांडर सरकार से कहता है कि हमें इस राजनीतिक झगड़े में मत फंसाइए। प्रधानमंत्री जी, ये छोटी चीज नहीं है, हमारी फौज का कमांडर वहां की सरकार से कहता है कि हमें इस राजनीतिक झगड़े में मत फंसाइए। हम सिविलियन के लिए नहीं हैं, हम दुश्मन के लिए हैं।

इसीलिए जहां सेना का सामना होता है, तो वे पत्थर का जवाब गोली से देते हैं। लोगों की मौतें होती हैं, लेकिन सेना की इस भावना को तो समझने की जरूरत है। सेना अपने देश के नागरिकों के खिलाफ कानून-व्यवस्था बनाए रखने की चीज नहीं है। सुरक्षा बल पैलेट गन चलाते हैं, लेकिन उनका निशाना कमर से नीचे नहीं होता है। कमर से ऊपर होता है इसलिए दस हजार लोग घायल पड़े हैं। प्रधानमंत्री जी, मैं कश्मीर के दौरे में अस्पतालों में गया। मुझसे कहा गया कि चार-पांच हजार पुलिसवाले भी घायल हुए हैं। सुरक्षा बलों के लोग घायल हुए हैं। मुझे पत्थरों से घायल लोग तो दिखाई दिए, लेकिन वो संख्या काफी कम थी। ये हजारों की संख्या वाली बात हमारा प्रचार तंत्र कहता है, जिसपर कोई भरोसा नहीं करता और अगर ऐसा है तो हम पत्रकारों को उन जवानों से मिलवाइए जो दो हजार की संख्या में एक हजार की संख्या में घायल कहीं इलाज करा रहे हैं। पर हमने अपनी आंखों से जमीन पर एक-दूसरे से बिस्तर शेयर करते हुए लोगों को देखा, जो घायल थे। हमने बच्चों को देखा जिनकी आंखें चली गईं, जो कभी वापस नहीं आएंगी। इसलिए मैं ये पत्र बड़े विश्‍वास और भावना के साथ लिख रहा हूं और मैं जानता हूं कि आपके पास अगर ये पत्र पहुंचेगा तो आप इसे पढ़ेंगे और हो सकता है कुछ अच्छा भी करें। लेकिन मुझे इसमें शक है कि ये पत्र आपके पास पहुंचेगा इसलिए मैं इसे चौथी दुनिया अखबार में छाप रहा हूं ताकि कोई तो आपको बताए कि सच्चाई ये है।

प्रधानमंत्री जी, एक कमाल की बात आपको बताता हूं। मुझे श्रीनगर में हर आदमी अटल बिहारी वाजपेयी जी की तारीफ करता हुआ मिला। लोगों को सिर्फ एक प्रधानमंत्री का नाम याद है और वो हैं अटल बिहारी वाजपेयी जिन्होंने लाल चौक पर खड़े होकर कहा था कि मैं पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाता हूं। उन्हें कश्मीर के लोग कश्मीर की समस्याओं को हल करने वाले मसीहा की तरह याद करते हैं। उन्हें लगता है कि अटल बिहारी वाजपेयी कश्मीर के लोगों का दुख-दर्द समझते थे और उनका आंसू पोछना चाहते थे। प्रधानमंत्री जी, वो आपसे भी वैसी ही आशा करते हैं, लेकिन उन्हें विश्‍वास नहीं है। उन्हें इसलिए विश्‍वास नहीं है क्योंकि आप सारे विश्‍व में घूम रहे हैं। आप लाओस, चीन, अमेरिका, सऊदी अरब हर जगह जा रहे हैं। दुनिया भर की यात्रा करने वाले आप पहले प्रधानमंत्री बने हैं, पर अपने ही देश के साठ लाख लोग आपसे नाराज हो गए हैं। ये साठ लाख लोग इसलिए नहीं नाराज हुए कि आप भारतीय जनता पार्टी के हैं। इसलिए नाराज हुए कि आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और प्रधानमंत्री के दर्द में अपने ही देश के नाराज लोगों के लिए जितना प्यार होना चाहिए वो प्यार अब नहीं दिखाई दे रहा है। इसलिए मेरा आग्रह है कि आप स्वयं कश्मीर जाएं, वहां के लोगों से मिलें, हालात का जायजा लें और कदम उठाएं। निश्‍चित मानिए कश्मीर के लोग इसे हाथों हाथ लेंगे। लेकिन बात आपको वहां कश्मीर के सभी स्टेक होल्डर से करनी होगी। हुर्रियत से भी।

प्रधानमंत्री जी, मेरे साथ अशोक वानखेड़े, जो मशहूर स्तम्भकार हैं और टेलीविजन पर राजनीतिक विश्‍लेषण करते हैं, प्रोफेसर अभय दूबे, ये भी वरिष्ठ राजनीतिक विश्‍लेषक हैं, जो टेलीविजन पर आते रहते हैं और रिसर्च विशेषज्ञ हैं, ये लोग भी साथ थे। और हम तीनों कई बार कश्मीर की हालत देखकर रोए। हमें लगा कि सारे देश में ये भावना फैलाई गई है, योजनापूर्वक एक ग्रुप ने ये भावना फैलाई है कि कश्मीर का हर आदमी पाकिस्तानी है। कश्मीर का हर आदमी देशद्रोही है और सारे लोग पाकिस्तान जाना चाहते हैं। नहीं प्रधानमंत्री जी, ये सच नहीं है। कश्मीर के लोग अपने लिए रोजी चाहते हैं, रोटी चाहते हैं, लेकिन इज्जत के साथ चाहते हैं। वो चाहते हैं कि उनके साथ वैसा ही व्यवहार हो, जैसा बिहार, बंगाल, असम के साथ होता है। अब प्रधानमंत्री जी, एक चीज और मैंने देखी कि क्या कश्मीर के लोगों को मुंबई के लोगों की तरह, पटना के लोगों की तरह, अहमदाबाद के लोगों की तरह, दिल्ली के लोगों की तरह जीने का या रहने का अधिकार नहीं मिल सकता। हम 370 खत्म करेंगे, 370 खत्म होना चाहिए, इसका प्रचार सारे देश में कर रहे हैं। कश्मीरियों को अमानवीय बनाने का प्रचार कर रहे हैं। लेकिन हम देश के लोगों को ये नहीं बताते कि भारत सरकार का एक निर्णय था कि कश्मीर हमारा कभी अंग नहीं रहा और कश्मीर को जब हमने 47 में अपने साथ मिलाया, तो हमने दो देशों के बीच  एक संधि की थी, समझौता किया था। कश्मीर हमारा संवैधानिक अंग नहीं है, लेकिन हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने आत्मनिर्णय के अधिकार से पहले धारा 370 दी। प्रधानमंत्री जी, क्या ये नहीं कहा जा सकता कि हम कभी 370 के साथ छेड़छाड़ नहीं करेंगे और 370 क्या है? 370 है कि हम कश्मीर पर विदेश नीति, सेना और करैंसी इसके अलावा हम कश्मीर के शासन में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। पर पिछले 65 साल इसके उदाहरण हैं कि हमने, मतलब दिल्ली की सरकार ने, वहां लगातार नाजायज हस्तक्षेप किया। सेना को कहिए कि वो सीमाओं की रक्षा करे। जो सीमा पार करने की कोशिश करे, उसके साथ वैसा ही व्यवहार करे, जैसा एक आतंकवादी या दुश्मन के साथ होता है। लेकिन लोगों के साथ लोगों को तो दुश्मन मत मानिए। देश के कश्मीर के लोगों को इस बात का रंज है, इस बात का दुख है कि इतना बड़ा जाट आंदोलन हुआ, गोली नहीं चली, कोई नहीं मरा। गुजर आंदोलन हुआ, कोई आदमी नहीं मरा, कहीं पुलिस ने गोली नहीं चलाई। अभी कावेरी को लेकर कनार्र्टक में, बेंगलुरू में इतना बड़ा आंदोलन हुआ, पर एक गोली नहीं चली। क्यों कश्मीर में ही गोलियां चलती हैं और क्यों कमर से ऊपर चलती हैं और छह साल के बच्चों पर चलती हैं? छह साल का बच्चा प्रधानमंत्री जी वो क्यों हमारे खिलाफ हो गया? वहां की पुलिस हमारे खिलाफ है।

लोगों का दिल जीतने की जरूरत है और आप इसमें सक्षम हैं। आपने लोगों का दिल जीता इसलिए आप प्रधानमंत्री बने हैं और अकल्पनीय बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने हैं। क्या आप ईश्‍वर द्वारा दी गई, इतिहास द्वारा दी गई, वक्त द्वारा दी गई अपनी इस जिम्मेदारी को निभाएंगे कि कश्मीर के लोगों का भी दिल जीतें और उनके साथ हुए भेदभाव, अमानवीय व्यवहार से निजात दिलाएं। उनके मन में ये भावना भरें कि वो भी विश्‍व के, भारत के किसी भी प्रदेश के वैसे ही सम्माननीय नागरिक हैं, जैसे आप और हम। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप बिना वक्त खोए कश्मीर के लोगों का दिल जीतने के लिए तत्काल कदम उठाएंगे और बिना समय खोए अपने दल के लोगों को अपनी सरकार के लोगों को कश्मीर के बारे में कैसा व्यवहार करना है, इसका निर्देश देंगे। मैं पुन: आपसे अनुरोध करता हूं कि आप हमें उत्तर दें या न दें, लेकिन कश्मीर के लोगों को उनके दुख-दर्द, आंसू कैसे पोंछ सकते हैं, इसके लिए कदम जरूर उठाएं।

(साभार: चौथी दुनिया)
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साहेब को सब पता है - कपिल मिश्रा वाया अमित शाह



साहेब को सब पता है

कपिल मिश्रा वाया अमित शाह









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Kapil Mishra Response to BJP on Sex Scandal | Exposing Amit Shah and PM Modi

आजकल पत्रकार बंधुओं में जिज्ञासा कम होने लगी है — अभिसार @abhisar_sharma


prasad radhakrishnan cartoon

ज़रूर कुछ मजबूरियां रही होंगी, वरना यूँहीं कोई बेवफा नहीं होता... 

— अभिसार

हमारा कर्तव्य है सवाल पूछना, है न ? मगर इस पूरे संदीप कुमार SEX CD प्रकरण में कितने सवाल किये हैं हमने ? क्या हमने पूछा कि ...

१. ये विडियो कितना पुराना है ? क्योंकि इस वक़्त तीन किस्म की चर्चाएँ हैं। सीटी-उद्घोषक यानी whistleblower ओमप्रकाश की मानें तो 2 महीने पुराना है। पीड़ित महिला इसे एक साल पुराना वाकया बताती हैं। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में राज शेखर झा की रिपोर्ट में इस विडियो में पुलिस को 2010 का एक कैलेन्डर दिख रहा है। क्या किसी चैनल ने गंभीरता से ये सवाल किये ? ये बात अलग है कि किसी ने भी संदीप कुमार को बलात्कारी, ब्लैकमेलर और बेवफा जैसे जुमलों से नवाजने में थोडा भी वक़्त नहीं लगाया ? और वो तब जब पीड़ित महिला सामने भी नहीं आई थी ?



२. क्या ये सामान्य सवाल पूछा गया कि संदीप कुमार, जो आजकल सत्ता सुख भोगने के बाद, इतने “हृष्ट पुष्ट” हो गए हैं, इस विडियो में इतने दुब्ले क्यों दिख रहे हैं। ये सवाल तो पूछा जाना चाहिए था न ?

Sandeep Kumar
Sandeep Kumar Photo: http://indiatoday.intoday.in/


३. क्या किसी ने सवाल पूछे कि ये विडियो किसने जारी किया ? इसकी टाइमिंग की क्या एहमियत है ? सेक्स विडियो का प्रसार कानूनन अपराध है और साफ़ है कि इसके प्रसार में उस शख्स का हाथ है जिसने ये विडियो शूट करके सार्वजनिक वितरण के लिए जारी किया। उस शख्स को लेकर खुद पुलिस में असमंजस है। क्या ये सवाल पूछ रहा है कोई ?

४. सवाल ये भी उठ सकता है कि पीड़ित महिला इस विडियो के सार्वजनिक होने के बाद सामने क्यों आई? मगर ये सवाल बेमानी है, क्योंकि आप और हम अपने comfort zone से किसी “बलात्कार पीड़ित” की मनोदशा पे टिप्पणी नहीं कर सकते। बशर्ते वो बलात्कार पीड़ित है।

५. मैं नहीं जानता खुद का सेक्स विडियो बनाने पर कानून क्या कहता है, (वो किसी दिन और) अलबत्ता किसी की सहमति के बगैर, उसे सार्वजनिक तौर पर दिखाना गुनाह ज़रूर है। तो ये सार्वजनिक किया किसने ? ये सवाल पूछा किसी ने ?

६. पूर्व पत्रकार आशुतोष, संदीप कुमार की तुलना अगर गाँधी से करते हैं, तो उससे ज्यादा वाहियात कोई चीज़ नहीं हो सकती, मगर राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा उन्हें ब्लॉग के आधार पर समन भेजना कहाँ तक जायज़ है? क्या ये सवाल भी ज़रूरी नहीं है। हाँ, ये बात अलग है कि कुछ राष्ट्रवादियों ने उन पत्रकारों को नहीं बख्शा जिन्होंने ये सवाल उठाने की हिम्मत की।



मैं जानता हूँ इस वक़्त आपके ज़हन में दो सवाल हैं। पहला, ये जांच करना मीडिया का काम थोड़े ही है। बिलकुल सही कहा आपने। ये काम जांच एजेंसीज का है। मगर मीडिया ये तर्क देने का अधिकार पहले ही खो चुका है। पूछिए आरुषी के माता पिता से। जब प्रतिभाशाली पत्रकारों ने टीवी चैनल्स के परदे पर, और आरुषी के पडौसी के घर में घूम घूम कर इस मामले की पड़ताल की थी।

हाल में हुए शीना बोरा हत्याकांड में जारी हुए मोबाइल फ़ोन कॉल्स के आधार पर, एक चैनल का स्टूडियो, इस मामले की सबसे विश्वसनीय पड़ताल का अखाड़ा बन गया था। तब आपने ज़रूर देखी होगी वो ऊर्जा, वो तेज, मेरी बिरादरी के होनहार के हावभाव में।

और दूसरा सवाल, मैं संदीप कुमार की पैरवी क्यों कर रहा हूँ ? दरअसल ये पैरवी नहीं, ये महज़ जिज्ञासा है। और आजकल पत्रकार बंधुओं में जिज्ञासा कम होने लगी है। मेरी दिक्कत ये है कि पुरानी आदतें जल्दी मरती नहीं। ( Old Habits Die Hard का तर्जुमा ) अब इसमें आप आम आदमी पार्टी से पैसे लेकर लिखने का आरोप भी नहीं लगा सकते, क्यों संदीप कुमार को तो उन्होंने भी त्याग दिया है। उन्हें तो न खुदा ही मिला, न विसाले सनम !

और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर की मानें तो न सिर्फ संदीप कुमार को जल्द बेल मिल जाएगी, अलबत्ता कानूनी कार्यवाही को जारी रखना भी मुश्किल लग रहा है। ये सवाल पहले भी पूछे जा सकते थे। मगर ये ख़ामोशी असमंजस पैदा करती है।

PM Modi’s photo in Reliance Jio ad
Congress, Arvind Kejriwal question PM Modi’s photo in Reliance Jio ad Using the PM’s photograph without proper approval is prohibited. (http://indianexpress.com/)


ऐसा लगता है कि कुछ सवाल पूछने मुश्किल होते जा रहे हैं। मसलन, कितने अखबारों, news चैनल्स ने रिलायंस के नए क्रांतिकारी अभियान में प्रधानमंत्री की तस्वीर इस्तेमाल किये जाने पर सवाल किया ? क्या ये बहस का मुद्दा नहीं ? क्या इसमें कोई conflict of interest नहीं?

उसी हफ्ते देश के 18 करोड़ सरकारी मुलाजिम एक दिन की हड़ताल पर थे, ये मुद्दा भी न जाने क्यों ध्यान से भटक गया। एक हैडलाइन तक नहीं? मुझे याद है, जब मनमोहन प्रधानमन्त्री थे, तब ये मुद्दा ज़ोरों से उठाया जाता था। जगह जगह रिपोर्टर तैनात कर दिए जाते थे। मस्त भौकाल बनता था। वो भी क्या दिन थे।

ज़रूर कुछ मजबूरियां रही होंगी, वरना यूँहीं कोई बेवफा नहीं होता... 

राहुल गांधी की सभा के बाद खाट पर बवाल मचा। वहां आये किसानों ने सभा के बाद, न खटिया छोड़ी, न उसका पाया। मगर उसमे राहुल गांधी की खटिया कैसे खड़ी हो गयी? राहुल गांधी का मज़ाक उड़ाया जाना कितना वाजिब था ?

मेरा ये मानना रहा है कि पत्रकार को विपक्ष के तौर पर काम करना चाहिए। मगर कुछ महीनों से ऐसा लगने लगा है कि बीजेपी, अब भी विपक्ष में है। उनके समर्थक अब भी हम जैसे देशद्रोही पत्रकारों को कांग्रेस, AAP और कुछ मामलों में नितीश कुमार से भी पैसे लेकर काम करने का आरोप लगा चुके हैं। उनका ताना, “ये सब केजरीवाल के 526 करोड़ रुपये का कमाल है” ! वो ये भी कहते हैं, और वो क्या, ये बात तो खुद मोदीजी ने कही है, ”मैंने लोगों की कमाई, जो इतने सालों से चल रही थी, वो बंद करवा दी, तकलीफ तो होगी ही! "



मिसाल के तौर पर मोदीजी की विदेश यात्रा का हवाला दिया जाता है, कि किस तरह से उन्होंने आते ही पत्रकारों का PM के जहाज़ में जाना बंद करवा दिया। इसे मुफ्तखोर पत्रकारों के लिए बड़ा झटका माने जाने लगा। यहाँ तक की एक संघी वेबसाइट में उन पत्रकारों के नाम का खुलासा भी हुआ, जो PM के जहाज़ में “ऐश” करते थे। इस लिस्ट में शामिल होने का सौभाग्य मुझे भी हुआ है। इस खबर की सबसे हैरत में डाल देने वाली बात ये, की इस वेबसाइट के सलाहकार बोर्ड में कुछ ऐसे पत्रकार भी थे, जो अनगिनत बार पूर्व प्रधानमंत्रियों के साथ (कांग्रेसी कार्यकाल में) उनके हवाई जहाज़ में जाते रहे हैं। वो शायद गलती से ये बताना भूल गए कि टिकट के अलावा, एयर इंडिया ONE में जाने वाला पत्रकार, हर चीज़ का पैसा देता है। वो बताना भूल गए कि आपने पत्रकारों को एयर इंडिया वन से नीचे उतार तो दिया, मगर अब उस हिस्से में कोई नहीं बैठता, अब वो खाली जाता है। पत्रकार साथ इसलिए भी जाते थे, क्योंकि हर यात्रा के अंत में, प्रधानमंत्री के साथ औपचारिक तौर पर रूबरू होने का मौका मिलता था। उनसे सवाल पूछने का मौका मिलता था। अब वो सवाल बंद हो गए हैं। क्या करें भाई। अब सारी बातें “मन की बात” में सामने आ जाती हैं। एक प्रजातंत्र में सवाल की आखिर क्या अहमियत ? है न ?

तो गज़ब समा है, न सवाल पूछने की मंशा है, न जवाब देने की इच्छा

बीजेपी सत्ता में आसीन है और उसे सुख विपक्ष में बैठी पार्टी का हासिल है। इसे कहते हैं, दोनों हाथ में लड्डू। न कश्मीर पर सवाल, न पाकिस्तान नीति के असमंजस पर सवाल और न दलित संघर्ष पर बहस। दलित संघर्ष से याद आया, कितनी खूबसूरती से हमने गुजरात के दलित संघर्ष को छिपा दिया था। अब, ये भी कोई खबर हुई भला ? कोई ऐसी खबर कैसे चला सकता है, जिसमें गुजरात मॉडल पे ज़रा भी आंच आये ? सारा खेल ही बिगड़ जाएगा।

पिछले एक साल में कम से कम तीन ऐसे मौके हैं, जब मेरी रिपोर्ट की वजह से मुझे निशाना बनाया गया है। न सिर्फ मुझे बल्कि मेरे परिवार को भी नहीं बख्शा गया है। और ये सिर्फ मेरी बात नहीं। रविश कुमार का लेख पढ़ा होगा आपने। आउटलुक की नेहा दीक्षित पर हमला वाकई सिहरन पैदा करने वाला था। राना अय्यूब, स्वाति चतुर्वेदी, सागोरिका घोष ये सब किसी न किसी वजह से निशाने पर रहे हैं। उनपे किये जाने वाले भद्दे हमले किसी भी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं हो सकते।

Abisar Sharma


पिछले हफ्ते की ही बात बताता हूँ आपको। अपने परिवार के साथ बैठ कर लंच कर रहा था। अचानक मोबाइल पर एक सूचना आई। मुझे “धर्मो रक्षति रक्षित” नाम के एक ग्रुप में शामिल कर लिया गया है, बगैर मेरी अनुमति के। जिज्ञासावश, जब मैंने उसमे झांका, तो पहला सन्देश ही चौंका देने वाला था

“ ये देश देश भक्तों का है, तालिबानियों का नहीं”

बजा फ़रमाया। अब आगे गौर कीजिये :

“ ये शर्मा वाकई ब्राह्मण है?”



“भाई पता करो ज़रा, कहीं मिलावट तो नहीं?”

मैंने बार बार इस ग्रुप से एग्जिट करने का प्रयास किया, मगर मुझे बार बार उसी ग्रुप में शामिल किया जाता रहा।

सदस्यगण लगातार आनंद की प्राप्ति कर रहे थे... गौर कीजिये :

“मेरे को शक है ये भगोड़ा ब्राह्मण हो नहीं सकता”

“ब्राह्मण जैसे काम है नहीं इसके”

NDTV की महिला पत्रकारों के बारे में क्या क्या कहा जा रहा था, उसे मैं यहाँ लिख भी नहीं सकता

मुझे आखिरकार एक एडमिनिस्ट्रेटर को फ़ोन करके उसे चेताना पड़ा कि अगर ये जारी रहा तो मुझे पुलिस में शिकायत करनी पड़ेगी। पूरा रविवार, खुद को उस ग्रुप से डिलीट करते हुए गुज़र गया। बला की बेशर्मी थी इन लोगों में।

और ये पहली बार नहीं है। बिहार चुनावों के दौरान जब मैंने “ऑपरेशन भूमिहार“ किया था, जिसमें दास्ताँ थी १० गाँवों की, जिन्हें 67 साल से वोट नहीं देने दिया गया और ४० साल से स्थानीय नेता जगदीश शर्मा ( जिन्हें बीजेपी का समर्थन हासिल था ) उन्हें वोट नहीं देने दे रहे थे। मेरी रिपोर्ट का नतीजा ये हुआ कि प्रशासन चुस्त हुई और अतिरिक्त बल भेजे गए। नतीजा 80 साल के महतो ने ज़िन्दगी में पहली बार वोट दिया। मतदान के तुरंत बाद मेरे मोबाइल फ़ोन पर अश्लील भद्दे कॉल्स आने लगे। ऑडियो क्लिप्स भेजी गयी। मुझे, मेरी पत्नी, मेरे बाकी परिवार सबके लिए गंदे शब्दों का इस्तेमाल किया गया। पटना में स्थित मेरी दोस्त ज्योत्स्ना के मुताबिक, प्लान ये भी था कि मेरे लाइव शो में मेरे सर पर गरम “टार” उढेला जायेगा। शुक्र है ज्योत्स्ना का जिन्होंने उन्हें समझाया कि ऐसा करने से आप वो भी सही साबित करेंगे, जो अभिसार ने अपनी रिपोर्ट में नहीं भी कहा। मुझे ज़िन्दगी में पहली बार पुलिस सुरक्षा लेनी पड़ी।

कहने का अर्थ ये कि कुछ डरे हुए हैं, कुछ बेबस और जिनकी रीढ़ किसी तरह से तनी हुई है, उसे तोड़ने का प्रयास। सवाल पूछना इसलिए दुर्लभ हो गया है शायद।



मगर एक और श्रेणी भी है। ये हैं बरसाती पत्रकार। ये अचानक राष्ट्रवादी हो गए हैं ये अचानक मोदी समर्थकों को भाने लगे हैं। मेरे मशविरा है तमाम मोदी भक्तों को, कि इनसे बच के रहें। आज मोदीजी हैं। कल कोई और होगा। मगर ये लोग सलामत रहेंगे। क्योंकि इन्हें दूसरी तरफ झुकने में ज़रा सी भी तकलीफ नहीं होगी और वैसे भी सियासत तो चाटुकारिता पर ही चलती है। क्यों?
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Abhisar Sharma
Journalist , ABP News, Author, A hundred lives for you, Edge of the machete and Eye of the Predator. Winner of the Ramnath Goenka Indian Express award.
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प्रधानमंत्री मोदी के नाम अभिसार का खुला ख़त @abhisar_sharma


आपने ज़िक्र किया देश में सामाजिक न्याय का । कमजोरों पर हमले की निंदा की । हालांकि आपने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की तरह खुलकर बात नहीं की, जिसमें उन्होंने ‘असहिष्णुता’ शब्द का इस्तेमाल किया, मगर ठीक है । हम आपकी भावनाएं समझ गए । वैसे ‘असहिष्णुता’ शब्द बीजेपी और आपके पैरोकारों को काफी असहज कर देता है । 


Open Letter to PM Modi 

- Abhisar




माननीय प्रधानमंत्रीजी

आज एक बार फिर, तीसरी बार, लाल किले की प्राचीर आपको सुनने का मौका मिला । तीसरी बार? आपकी बातों में वक़्त कैसे निकल गया पता ही नहीं चला । खैर, सबसे पहले आपको बधाई, कि आपने जिस बेहतरीन तरीके से बलोचिस्तान का ज़िक्र अपने भाषण में किया । मुझे आपके भाषण के इस हिस्से की सबसे अच्छी बात ये लगी कि आपने बड़ी खूबसूरती के साथ, पाकिस्तान को सियासी और कूटनीतिक पटखनी दी । आपने ज़िक्र किया पेशावर के एक स्कूल में आतंकवादियों के हमले का जिसमें कितने मासूम शहीद कर दिये गए । ये पाकिस्तान के इतिहास में दर्द का ऐसा लम्हा था, जिससे भारत में हम सबकी आँखें नम थी । क्यों न हों? बच्चे हमारी विरासत हैं । हमारी मासूमियत का सरमाया हैं । कोई कैसे उन्हें छलनी करने की सोच सकता है ? आपने पाकिस्तान के इस लम्हे का ज़िक्र करते हुए, उसकी कमज़ोर नब्ज, यानी बलोचिस्तान को बेरहमी से रौंध दिया । ये अप्रत्याशित है । भारत के इतिहास में किसी भी प्रधानमंत्री ने बलोचिस्तान शब्द का ज़िक्र नहीं किया । हाँ, एक शर्मिंदगी का लम्हा ज़रूर था, जब पूर्व UPA सरकार ने मिस्र के शर्म अल शेख से जारी हुए भारत पाकिस्तान संयुक्त बयान में बलोचिस्तान को जगह दे दी ।

जब मुख्य न्यायाधीश बेबस हो जाते हैं, अपनी वाजिब मांग को रखने के लिए “अब्रे करम” का दामन थामने लगें, तब ये एक प्रजातांत्रिक देश और सामाजिक न्याय के लिए अच्छी खबर नहीं है ।





पाकिस्तान के नाजायज़ कब्ज़े वाले कश्मीर का आपने जिस “तंज़” नुमा अंदाज़ में बखान किया, उसने हमें 1971 की याद दिला दी, जब अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पे मरहूम इंदिरा गाँधी ने ईस्ट पाकिस्तान यानी बांग्लादेश का ज़िक्र किया था । जब ये प्रण लिया था कि भारत, ईस्ट पाकिस्तान में चल रहे मानवाधिकार हनन को लेकर आँखें नहीं मूँद सकता । नतीजा हम सबके सामने है । पाकिस्तान दो फाड़ हो गया । मगर बलोचिस्तान में हमारे दखल के क्या मायने हैं? क्या भारत अब खुलकर बलोचिस्तान में चल रहे पृथकतावादी आन्दोलन का समर्थन करने जा रहा है? क्या ये समर्थन नैतिक के अलावा सामरिक भी होगा यानी सैनिक साजोसामान भी ? मैं जानता हूँ, आपके कुछ राष्ट्रवादी भक्तों के लिए ये किसी खूबसूरत ख्वाब से कम नहीं । इन राष्ट्रवादियों के लिए पाकिस्तान के चार हिस्सों में बिखर जाने से बेहतर स्थिति आखिर क्या हो सकती हैं । मगर ये बात आप भी समझते होंगे कि ये 1971 नहीं । अब मामला दो परमाणु संपन्न राष्ट्रों के बीच है । अब यक्ष प्रश्न ये भी है कि पाकिस्तान को अस्थिर करना क्या वाकई भारत के हित में है? विकल्पों की बात करें तो इसका सीधा अर्थ पाकिस्तान में प्रजातंत्र का खात्मा, यानी सेना का राज या फिर भयावह स्थिति में पाकिस्तान पर अतिवादियों (तहरीके तालिबान) का कब्ज़ा । या फिर और भी बुरा, ISIS का परचम, जो इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान को आसपास से नोच रहा है । क्या भारत बलोच पृथकतावादियों को समर्थन देकर, दुनिया में पाकिस्तान पर आतंकवाद के मुद्दे पर अपनी नैतिक बढ़त बनाये रखेगा ? दुनिया की नज़रों में, पाकिस्तान इस वक़्त आधिकारिक तौर पर भारत में आतंकवाद का प्रायोजक है । हमें फैसला करना होगा कि बलोच पृथकतावादियों को समर्थन देकर, हम कूटनीतिक तौर पर क्या हासिल करना चाहते हैं और इसमें भारत के क्या हित जुड़े हैं? पाकिस्तान को फिर बिखेरने की रूमानियत पालना बेहद आसान है । मगर हमें ये देखना होगा कि इसमें भारत के क्या हित हैं । मैं बलोचिस्तान में दखल देने या न देने के मायनों, या फिर उसे सही गलत बताने की बहस में नहीं पड़ना चाहता । मेरा हित सिर्फ राष्ट्रहित और मेरे देश की जनता की सुरक्षा है, जिसकी ज़िम्मेदारी आपके कन्धों पर है ।

आपने ज़िक्र किया देश में सामाजिक न्याय का । कमजोरों पर हमले की निंदा की । हालांकि आपने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी की तरह खुलकर बात नहीं की, जिसमें उन्होंने ‘असहिष्णुता’ शब्द का इस्तेमाल किया, मगर ठीक है । हम आपकी भावनाएं समझ गए । वैसे ‘असहिष्णुता’ शब्द बीजेपी और आपके पैरोकारों को काफी असहज कर देता है ।

खैर, हमारे स्टूडियो में मौजूद एक गौरक्षक बेहद व्यथित दिखाई दिए । कहने लगे, 2014 में आपको समर्थन देना हमारी गलती थी । मुझे उम्मीद है कि संघ (RSS), परिवार के अन्दर चल रहे इस संघर्ष को आप वक़्त रहते ज़रूर संबोधित करेगा ।

बहरहाल, वापस आना चाहूँगा सामाजिक न्याय के आपके बयान पर । सवाल ये कि जब हाईकोर्ट में जजों की बहाली नहीं होगी और इस मुद्दे पर आपकी सरकार बार-बार मुख्य न्यायाधीश की आलोचना का सामना करती रहेगी, तब आप देश में न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते है? मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर कह चुके हैं कि व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है । आपके भाषण के बाद उन्होंने फिर कहा कि उन्हें उम्मीद थी कि आप न्यायपालिका में बहालियों पर टिप्पणी ज़रूर करेंगे । आप खामोश रहे ।

...ठाकुर साहब का दर्द वाजिब है और ये आपकी ज्यादती -

गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर (फल) भी / ए अब्रे करम ए बेरे सखा कुछ तो इधर भी

जब मुख्य न्यायाधीश बेबस हो जाते हैं, अपनी वाजिब मांग को रखने के लिए “अब्रे करम” का दामन थामने लगें, तब ये एक प्रजातांत्रिक देश और सामाजिक न्याय के लिए अच्छी खबर नहीं है । ये शर्मनाक है जब मुख्य न्यायाधीश, न्याय के लिए “गुज़ारिश” करता दिखे । जजों की बहाली के लिए मिन्नतें करता दिखे । क्या यह सही है? सोचियेगा ज़रूर ।
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आपने दलितों का ज़िक्र किया, आपने शोषितों का ज़िक्र किया । दलितों के लिए गोली खाने के आपके बयान से मैं अब तक उबर नहीं पाया हूँ । मगर, जब मौका नाम लेने का ही है, तब आप मुसलमान को क्यों भूल गए ? एक ऐसे मौका पर जब उसकी वफ़ा, ईमानदारी पर बार-बार सवाल किये जा रहे हैं । जब दलितों के अलावा, मुसलमान पर भी गौरक्षा के नाम पर हमले किये जा रहे हैं, तब उसके लिए एक भी लफ़्ज़ न कहना, कितना जायज़ है? मैं ये स्पष्ट कर दूँ, कि व्यक्तिगत तौर पर मैं इस सतही तुष्टिकरण के खिलाफ हूँ । मगर अब नाम ले ही लिया तो फिर वो पीछे क्यों? क्योंकि हम उत्तर प्रदेश के चुनावों में प्रवेश कर रहे हैं । आपके कई पार्टी वीर आने वाले दिनों में शर्तिया तौर पर अनापशनाप बयान देंगे और निशाने पर मुसलमान ही होगा । ऊपर से उन्हें आज़म खान जैसे महानुभावों का साथ हासिल होगा । ऐसे में मुसलमान को इस कदर भूल जाना सवाल खड़े करता है । ये बात मैं इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि बार बार ISIS की चुनौती की बात कही जा रही है । ये कहा जा रहा है कि (कम से कम कुछ टीवी चैनलों की मानें तो) कुछ मुस्लिम धर्मगुरु और उनकी संस्थाएं कथित तौर पर भटके हुए नौजवानों को सीरिया तक पहुंचा रहे हैं । तब ये ज़रूरी हो जाता है कि एक स्टेट्समैन के तौर पर आप उसकी आशंकाओं को संबोधित करें ।

आपने भटके हुए नौजवानों को राह पे लाने की बात तो की, मगर आपने माओवाद और आतंकवाद, दोनों को एक पैमाने पर तोल दिया । क्यों भला ? इन दोनों के बीच, इस वक़्त न कोई गठजोड़ है और न कभी बनना चाहिए । क्योंकि माओवाद के नाम पर बीजेपी की छत्तीसगढ़ सरकार संतोष यादव जैसे पत्रकारों पर छत्तीसगढ़ का विवादित CSPSA कानून लगा देती है । फिर उन्हें जेल में पीटा जाता है । पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को नक्सली समर्थक बताकर उन्हें निशाना बनाया जाता है । पत्रकारों, NGO से आपकी पार्टी को क्या बैर है, समझ पाना मुश्किल है । छत्तीसगढ़ के आधा दर्जन पत्रकारों को वहां की सरकार जेल भेज ही चुकी है, ऊपर से आउटलुक की नेहा दीक्षित के खिलाफ बीजेपी के कहने पर दर्ज हुई FIR भी हमारे सामने है ।

यही वजह है कि जब सामाजिक संस्थाओं और पत्रकारों पर ऐसे हमले होंगे तब सामाजिक न्याय की आपकी अपील अधूरी रहेगी और कुछ लोगों के लिए महज एक जुमला !

आपके भाषण में कश्मीर को भी स्थान नहीं मिला । अभिन्न अंग है न हमारा? क्योंकि यहाँ आप कुछ कहते तो बुरहान वानी की पेचीदा सियासत में फँस सकते थे । वैसे भी बीजेपी के लिए महबूबा मुफ़्ती द्वारा दिए गए बयानों को सही ठहराना मुश्किल हो रहा है, जिसमें वो बुरहान वानी की मौत के लिए सुरक्षा एजेंसीयों को कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं । ऊपर से राष्ट्रवादी चैनलों ने भी इस मुद्दे पर खामोशी साध ली है । सच तो ये है मोदीजी, कश्मीर समस्या का समाधान, बलोचिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने के राष्ट्रवादी आह्वान के साथ नहीं किया जा सकता । कश्मीर का मुद्दा पेचीदा है, संवेदनशील है । उसे एक बार फिर “HEALING TOUCH” की ज़रूरत है ।

जब आपने अपने भाषण की शुरुआत की, तब वाकई मुझे लगा कि इस भाषण से देश को दिशा मिलेगी । आपके शब्दों में, मैं अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान नहीं करना चाहता, इसमें एक हफ्ता लग जाएगा । मगर न चाहते हुए भी, आपका पूरा भाषण न सिर्फ आपकी “उपलब्धियों” का बखान था, बल्कि एक चुनावी स्पीच भी । आपने 45 सीटों पर सिमट चुकी कांग्रेस को भी फिर याद किया । आपने हमें बताया कि आपकी सरकार अपेक्षा (उम्मीदों) की सरकार है, पिछली सरकारें आक्षेपों (आरोपों) की सरकार थी । लाल किले की प्राचीर से भी आपने सियासत को आबाद रखा । सच तो ये है कि सियासत से जुदा कुछ भी नहीं । न लम्हा न स्थान । सबसे हास्यास्पद तब लगा जब पार्टी के जुझारू प्रवक्ता संबित पात्रा ने एक टीवी डिबेट में कहा, कि आज के दिन मैं सियासत की बात नहीं करना चाहता, आरोप प्रत्यारोप नहीं करना चाहता । संबित की ये मनोकामना भी पूरी नहीं हुई ।

भारत माता की जय

आपका,
अभिसार


Abhisar Sharma
Journalist , ABP News, Author, A hundred lives for you, Edge of the machete and Eye of the Predator. Winner of the Ramnath Goenka Indian Express award.
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मोदीजी का छद्म दलित दर्द — अभिसार @abhisar_sharma #GauRakshaks


दिल्ली से हैदराबाद जाने वाली गाड़ी, “नागपुर” से होकर गुज़रती है ! और “नागपुर” से बड़ी चिंता क्या हो सकती है 
Attack me if you want, not my Dalit brothers: PM Narendra Modi slams 'fake' gau rakshaks again

बीजेपी में एक बड़ी चिंता ये थी के दलित और मुसलमान लामबंद हो रहा है

— अभिसार



पिक्चर अभी बाकी है दोस्त

कुछ लोगों ने मुझसे पूछा ! प्रधानमंत्री ने गौ-रक्षकों पर इतनी बड़ी बात कह दी! आपने इसपर कोई टिप्पणी नहीं की? कोई ब्लॉग नहीं लिखा ? तो मेरा उनको एक मात्र जवाब होता है । पिक्चर अभी बाकी है दोस्त! अब गौर कीजिये टाउन हॉल में प्रधानमंत्री ने क्या कहा था । उसकी तारीफ मैंने भी की थी । मोदीजी ने साफ़ कहा था के राज्य सरकारों को एक डोसियर तैयार करना चाहिए, ऐसे गौ-रक्षकों पर... और फिर ये भी जोड़ दिया के “सत्तर से अस्सी फीसदी” तथाकथित गौरक्षक ऐसे काम में लगे हैं, जिसकी समाज में कोई जगह नहीं है और अपनी बुराइयों को छुपाने के लिए उन्होंने गौरक्षकों का चोला पहन लिया है। मगर हैदराबाद तक आते आते, अस्सी फीसदी “मुट्ठी भर” में बदल गया । आरएसएस यानी संघ ने भी राहत की सांस ली, क्योंकि संघ को भी टाउन हॉल में प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए आंकड़े पर एतराज़ था । यानी सिर्फ 24 घंटों में प्रधानमंत्री का हृदय परिवर्तन हो गया । तो जैसा मैंने कहा पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान के दौरान प्रधानमंत्री माहौल को देखकर इसमें फिर से संशोधन कर सकते हैं । कहानी में अभी ट्विस्ट आना बाक़ी है।

क्या एक देश का प्रधानमंत्री इतना बेबस हो गया है के गौरक्षा  के नाम पर गुंडागर्दी करने वाले लोगों के सामने अपनी 56 इंच की छाती दिखाकर उसपर गोली दागने की बात करने लगे ?


हैदराबाद में प्रधानमंत्री ने बेहद नाटकीय अंदाज़ में एक बात और कही...

‘वार करना है तो मुझ पर करें, गोली चलानी है तो मुझ पर चलाएं, मेरे दलित भाइयों पर नहीं’ 

मुझे इस बयान की नाटकीयता से ज्यादा इसमें दिखती विवशता पर एतराज़ है । क्या एक देश का प्रधानमंत्री इतना बेबस हो गया है के गौरक्षा  के नाम पर गुंडागर्दी करने वाले लोगों के सामने अपनी 56 इंच की छाती दिखाकर उसपर गोली दागने की बात करने लगे ? गौरक्षा  के नाम पर जिन लोगों को ज़लील किया जा रहा है, वो आपसे सुरक्षा की उम्मीद रखते हैं । जिस बेइज्जती से दलितों को गुज़ारना पड़ा है, उसके लिए उन्हें किसी राजनीतिक स्टंट की नहीं, आपके गंभीर आश्वासन की ज़रूरत है । और ये भी बताएं के “अस्सी फीसदी” कैसे “मुट्ठी भर” में तब्दील हो गया और कैसे टाउन हॉल में दिया गया गंभीर बयान अब सीने पे गोली चलाने वाले फिल्मी संवाद में तब्दील हो गया ।

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के शब्दों में, “लोग भी बड़े निर्दयी हैं। देश के शक्तिमान छप्पनिया प्रधानमंत्री (56 की छाती वाले) के हैदराबादी आर्तनाद को सुनकर पिलपिले डायलॉगबाज़ क़ादर ख़ान की मिसाल दे रहे हैं। नाशुक़्रे कहीं के। “

Om Thanvi on Modi's Dalit Politics


ओम थानवी की बातें सत्ता पक्ष से लेकर तमाम भक्तों को पसंद नहीं आती, लिहाज़ा इनके तंज़ को नज़रंदाज़ किया जा सकता है । मगर एक बात मैं चाहकर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहा । जब बात गोली खाने की हो ही रही है, तो गौरक्षा  के नाम पर तो मुसलमान कम ज़लील नहीं हुआ है । कितनों को मौत के घाट उतार दिया गया है, आप इससे वाकिफ होंगे । मैं ये भी जानता हूँ के ये पढ़कर आपमें से कुछ को यह अच्छा नहीं लग रहा होगा... ज़रूर सोच रहे होंगे, कि ये क्या दलित, मुसलमान का रोना रो रहे हो? पीड़ित सिर्फ पीड़ित होता है! लाश सिर्फ लाश होती है। उसके मज़हब की बात क्यों करना । तो मान्यवर ये न भूलें के भारत के अभिन्न अंग कश्मीर में मृतकों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है । 58 पहुँच चुका है । वाजपेयी की मरहम लगानी वाली नीति तो दूर, जिसका ज़िक्र प्रधानमंत्री मोदी कर चुके हैं, एक बयान तक नहीं आया है । मगर दलितों को नहीं भूले मोदी।



अब इसके पीछे की राजनीति बेहद दिलचस्प है । उना और बाकी जगहों पर जिस तरह दलितों और मुसलमानों को गौरक्षा के नाम पर निशाना बनाया जा रहा था और उसकी जो व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी, उससे बीजेपी में एक बड़ी चिंता ये थी के दलित और मुसलमान लामबंद हो रहा है और अगर ये दो सियासी शक्तियां मिल गयी तो मायावती को लखनऊ पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता । लिहाज़ा कुछ ऐसा किया जाए के ये गठबंधन जुड़ने से पहले बिखर जाए । यही कारण है प्रधानमंत्री ने भावनात्मक अपील की। काश के आपने कहा होता, “गोली मारना है तो मुझे मारो, मेरे दलित और मुसलमान भाइयों को छोड़ दो!” मगर ना ! ऐसा कैसे हो सकता है? उत्तर प्रदेश का तो पूरा सियासी खेल बिगड़ जायेगा । कश्मीर पर आपकी खामोशी की वजह भी शायद यही है । क्योंकि इस वक़्त कश्मीर पे बोलने का अर्थ यानी बुरहान वानी और उससे जुडी सियासत में उलझ जाना, और जो पार्टी सत्ता में रहकर भी बारहमासी चुनावी तेवर में रहती है, उससे हम संवेदनशील मुद्दों पे टिप्पणी की उम्मीद की गुस्ताखी कैसे कर सकते हैं ? क्यों? गलत है न ?

दुःख की बात ये है के हैदराबाद के सांकेतिक मायने भी हैं । यहाँ मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है और ये बात प्रधानमन्त्री भी समझते हैं । दलित सन्दर्भ की बात की जाए तो हैदराबाद को रोहित वेमुला काण्ड से जोड़ कर देखा जाता है, जो बीजेपी के लिए ज़बरदस्त शर्मिंदगी का सबब बनी थी । इसलिए भी शायद मोदीजी ने अपनी दलित संवेदना व्यक्त की... क्योंकि मौके तो आपके पास ढेरों हैं। “मन की बात” की बात से लेकर “संसद सत्र “, इतने मौके... मगर नहीं! संसद के चालू सत्र के बावजूद, आपने हैदराबाद में अपनी बात रखी । इस उम्मीद के साथ कि इसका सन्देश उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात, सब जगह पहुँच जाएगा, बगैर किसी जवाबदेही और सवाल जवाब के । लोकसभा में आप इस पर चर्चा इसलिए नहीं चाहते, क्योंकि कांग्रेस को आपको घेरने का मौका मिल जायेगा। बहनजी तो लोकसभा में हैं नहीं, बीजेपी को आशंका है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर आक्रामक हुई, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी के वोट शेयर पर असर डाल सकती है, क्योंकि मुझे नहीं लगता के दलित वोट, मायावती के अलावा कहीं और जायेगा । सारी कवायद इसी बात की है । मैंने भी पहले यही सोचकर टाउन हॉल में प्रधानमंत्री के बयान की तारीफ की थी, मगर हैदराबाद पहुँचते पहुँचते, उसके मायने बदल गए । अस्सी फीसदी, “ मुट्ठी भर” में तब्दील हो गया । दलितों और मुसलमानों के संभावित सियासी गठजोड़ की भी चिंता थी और हाँ! ये न भूलें, के दिल्ली से हैदराबाद जाने वाली गाड़ी, “नागपुर” से होकर गुज़रती है ! और “नागपुर” से बड़ी चिंता क्या हो सकती है !

“नागपुर” !

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Mihir Sharma on PM Modi — मिहिर शर्मा @mihirssharma



Maaf kijiye Pradhanmantri ji, Desh badal nahi raha filhaal - Mihir Sharma

Maaf kijiye Pradhanmantri ji, Desh badal nahi raha filhaal

- Mihir Sharma

माफ कीजिए प्रधानमंत्री जी, देश बदल नहीं रहा फिलहाल

— मिहिर शर्मा

मुझे इसमें संदेह नहीं है कि 2016 की शुरुआत से ही मोदी सरकार पहले से ज्यादा ऊर्जा के साथ, एक दिशा में और एक मकसद से काम कर रही है। एक विश्वसनीय और भविष्योन्मुखी केंद्रीय बजट अपेक्षाकृत संयत राजकोषीय गणित के साथ पेश किया गया। कंपनियों को दिवालिया घोषित करने के बारे में नया कानून भी पारित किया गया। आधारभूत ढांचे के अवरोधों को दूर करने की दिशा में भी मिली जुली सफलता के साथ काम चल रहा है। बैंकों के एकीकरण और फंसे हुए कर्जों की वसूली की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है। आधारभूत ढांचे पर हुए खर्च और गतिविधियों में आई तेजी ने जमीनी स्तर पर व्यवसाय के लिए कहीं अधिक सकारात्मक माहौल बनाया है। मांग और उत्पादन में आई तेजी के छोटे लेकिन सशक्त संकेतों से भी इसमें मदद मिली।

जलसा अटपटा

सरकार की दूसरी वर्षगांठ पर पत्र सूचना कार्यालय की तरफ से बांटी गई रंगीन पुस्तिकाओं, कभी न थमने वाले ट्वीट संदेश, कैबिनेट मंत्रियों के एक ही समय लिए गए साक्षात्कारों, ट्रांसफॉर्मिग इंडिया के वीडियो और उसके रिंगटोन डाउनलोड की अपील करने वाले फोन संदेशों की भरमार रही। इंडिया गेट पर 5 घंटे तक चले कार्यक्रम के साथ इस जश्न का समापन हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कार्यक्रम को संबोधित किया। लेकिन सरकार की सीमित आकांक्षाओं और उपलब्धियों को देखते हुए इस तरह का जलसा अटपटा लग रहा था।

 वास्तविक बचत Vs संभावित बचत 

अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल को दिए साक्षात्कार में मोदी ने निजीकरण और भूमि एवं श्रम सुधारों को आगे बढ़ाने में अपनी नाकामियों का पुरजोर तरीके से बचाव किया था। उन्होंने कहा कि वह जन-धन योजना जैसी कामयाबियों के 'दर्जनों’ उदाहरण दे सकते हैं। उन्होंने इंडिया गेट पर दिए अपने भाषण में भी कहा कि उनकी सरकार के नाम पर इतनी उपलब्धियां दर्ज हैं कि दूरदर्शन 5 घंटे के बजाय पूरे सप्ताह तक कार्यक्रम दिखा सकता है। अलबत्ता स्क्रॉल नाम की वेबसाइट ने इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री के भाषण में किए गए दावों की सच्चाई का परीक्षण किया। उसका कहना है कि एलपीजी कनेक्शनों में होने वाले रिसाव पर काबू पाने से ही करीब 15 हजार करोड़ रुपये बचाने संबंधी प्रधानमंत्री के दावे के विपरीत असल में 150 करोड़ रुपये की ही बचत हुई। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी कहा है कि यह वास्तविक बचत न होकर संभावित बचत का आंकड़ा है। उन्होंने आर्थिक समीक्षा में इसके 12,700 करोड़ रुपये रहने का अनुमान जताया था। सबसे ज्यादा हैरत भरा मोदी का वह बयान है जिसमें उन्होंने वॉल स्ट्रीट जर्नल से कहा था कि कोई भी विशेषज्ञ उन्हें यह नहीं बता सकता है कि वे किन 'बड़े सुधारों ‘ की उम्मीद कर रहे हैं? हम कुछ देर के लिए मोदी के बयान को सच मान लेते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि अधिकतर विशेषज्ञों की नजर में कौन से 'बड़े सुधार’ बाकी हैं?

पहला सुधार:

सरकार उन व्यवसायों का निजीकरण कर दे जिनमें उसे मौजूद नहीं होना चाहिए। जैसे कि एयर इंडिया, एमटीएनएल और बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनियां करदाताओं के पैसे को डूबोने का ही काम कर रही हैं। अभी तक ये कंपनियां कारोबार के नए तौर-तरीकों को नहीं लागू कर पाई हैं। हो सकता है कि मोदी कुछ सार्वजनिक कंपनियों को राष्ट्रीय विकास के लिए अनिवार्य मानते हों और वाकई में कुछ कंपनियां ऐसी हैं भी, लेकिन कई इस श्रेणी में नहीं आती हैं। फिर उन्हें क्यों नहीं बेच दिया जाता है?

दूसरा सुधार: 

श्रम बाजार को लचीला बनाइए। यह सरकार भी पिछली कई सरकारों की तरह श्रम सुधारों के मामले में वही पुराना राग अलाप रही है कि पहले उसे मजदूर संघों की सहमति लेनी होगी और इसे नियोक्ताओं के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं होना चाहिए।

तीसरा सुधार: 

वास्तविक प्रशासनिक सुधारों को शुरू किया जाए। भारतीय अर्थव्यवस्था को पीछे धकेलने में सबसे बड़ा हाथ सरकार की अक्षमता और नाकामी का रहा है। इसे भी सुधारने और दुरुस्त करने की जरूरत है। प्रशासनिक सुधारों का खाका कई वर्षों से बना हुआ है। मंत्रालयों को नीति-निर्माण के बजाय नियम निर्माण का केंद्र बनाने की जरूरत है। नौकरशाही के हरेक स्तर पर पार्श्व भर्ती और जवाबदेही सुनिश्चित करने की जरूरत है। स्थानीय प्रशासन को भी सशक्त करने और वित्तीय स्वतंत्रता देने की जरूरत है। लेकिन इन सुधारों पर अमल करना तो दूर की बात है, सरकारी बाबुओं के प्रति दोस्ताना रुख रखने वाले प्रशासन के दौर में इसके बारे में सोचा तक नहीं जा रहा है।

चौथा सुधार:

बजट और व्यय की समूची प्रक्रिया में सुधार लाया जाए। केंद्रीय बजट में नकदी आधारित लेखाकार्य के बजाय संग्रहण आधारित लेखांकन का इस्तेमाल किया जाय। इससे पी चिदंबरम जैसे कुछ चतुर वित्तमंत्रियों को व्यय संबंधी आंकड़े छिपाने के मौके नहीं मिल पाएंगे। केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि राज्य सरकारों को दिया गया धन उसी मद में खर्च हो रहा है या नहीं जिसके लिए उन्हें धन दिया गया है। अगर ऐसा होता है तो इसका यह मतलब है कि आप 'प्रतिस्पर्धी सहकारी’ संघवाद के प्रति गंभीर हैं। लेकिन उठाए गए कदमों को देखकर तो लगता है कि वे आगे ले जाने के बजाय पीछे ही ले जा रहे हैं।

दुखद बात यह है कि क्या वाकई में मोदी सरकार वित्तीय समावेशीकरण, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और सबको बिजली आपूर्ति जैसी पिछली सरकारों की योजनाओं को सही तरीके से अमल में लाने का दावा कर सकती है? इसके साथ ही कारगर प्रबंधन और आधारभूत ढांचे के बेहतर प्रदर्शन से भरोसा पैदा होगा और इन पंक्तियों के लेखक समेत बहुत सारे लोग खुलकर मोदी की तारीफ करेंगे। निश्चित रूप से पिछले दो वर्षों में वह भारत को बेहतर बनाने की दिशा में काम करते रहे हैं लेकिन देश के कायाकल्प की बात तो अभी सामने भी नहीं आई है।

बिज़नस स्टैंडर्ड, 6 जून ,2016 से साभार

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