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बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन


बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा — 'देह ही देश' पर अंकिता जैन

देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। — अंकिता जैन
देह ही देश नाम से जेएनयू प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया-प्रवास की डायरी के माध्यम से समाज की उस बंद आँख को खोलने की कोशिश की है जो युद्ध में स्त्री को इन्सान नहीं योनि माना जाना देखने ही नहीं देती. अंकिता जैन ने इस चर्चित किताब के बहुत गहरे पाठ के बाद जो बातें कही हैं उन्हें पढ़िए, यदि एक स्त्री के लिए यह किताब ऐसे ज़हरीले सचों को सामने रख सकती है तो पुरुष के लिए इसका पाठ कैसा होगा, अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. शुक्रिया अंकिता जैन.  — भरत एस तिवारी/ संपादक शब्दांकन    
 

बलात्कार के ख़िलाफ़ आवाज़ में सहूलियत का एजेंडा

'देह ही देश' पर अंकिता जैन 

"देह ही देश" पढ़ना शुरू करते ही यशपाल की झूठा सच का एक दृश्य मेरी आँखों के सामने झूलने लगा। कहानी की मुख्य किरदार तारा जब बमुश्किल हिंदुस्तान वापस लौटती है तो बॉर्डर पार करते ही उसे जश्न मनाते कुछ लोग नज़र आते हैं। वे लोग एक स्त्री को लूट लेने का, मार डालने का और किसी का सब कुछ ख़त्म कर देने का जश्न मना रहे थे। यकीनन वे हिन्दू थे और उनके हाथ में बाँस पर जो नग्न मरा हुआ "स्त्री" लोथड़ा टाँगों के बीच से फंसाया गया था वह एक मुस्लिम का था। यही हाल पाकिस्तान में मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का वह देख-भोगकर आई थी। उसके साथ-साथ जिन औरतों का वहाँ वर्णन है वह काफ़ी दिनों तक मेरे लिए दुःस्वप्न बना रहा। मुझे डरावने सपने आते। हिंदुस्तान पाकिस्तान के बँटवारे में कितनी स्त्रियों की बलि दी गई इसका हिसाब शायद ही अब तक किसी ने लगाया हो। मज़हब और राजनीतिक बँटवारे में सज़ा किसको मिली?

देह ही देश पढ़ते हुए मुझे बचपन की एक घटना फिर से टीस की तरफ़ चुभने लगी है। यह 1997 की बात है शायद। हम नए-नए गुना में शिफ़्ट हुए थे। मैं 10 साल की थी। एक दूधवाले से दूध बांधा। अक्सर मैं जाया करती। घर से बहुत दूर नहीं था। बस कुछ ही गलियों का फांसला था। रास्ते में एक औरत मिलती। नग्न, सिर्फ एक पतली-सी शर्ट पहने हुए, जिसके आगे के बटन खुले रहते और उसकी छातियाँ दिखतीं। उसके शरीर पर वह शर्ट सिर्फ नाम के लिए होती। उसके पैर में मवेशी बाँधने वाली साँकल बंधी होती जिससे छूटकर वह कई बार सड़क पर भाग आती और किसी के भी चबूतरे पर बैठकर चीखती-चिल्लाती-रोती। अपनी योनि और छातियों को पीटती और फिर रोती। लोग कहते वह पागल थी। पर मुझे बहुत सालों बाद इस आशंका ने घेर लिया कि हो ना हो वह किसी यौनशोषण की शिकार थी। बाईस साल बीत चुके हैं लेकिन वह आज भी मेरी स्मृति में यूँ कौंधती है जैसी कल ही की बात हो।

वह मुझे कभी इस किताब की कल्याणी लगती जिसके गाँव की लड़कियों को देह व्यापार ही पेट की भूख मिटाने का आसरा है। और कभी सेम्का, ऐंजिलिना, एमिना या क्रोएशिया की वे तमाम स्त्रियाँ जिन्होंने इसी दुनिया में नरक का दुःख भोगा और जिनके लिए स्त्री पर्याय में जन्म लेना गुनाह हो गया।

कुछ साल पहले एक ख़बर देखी। जिसमें एक स्त्री का बलात्कार किया जाता है और उसी के सामने उसके नन्हे बच्चे को गोद से छीनकर सिर्फ़ इसलिए मार दिया जाता है क्योंकि वह बलात्कार में बाधा लग रहा था। मैं उस रात बहुत रोई। जाने क्यों मेरा मन इतना विचलित हो गया था कि मैं डरने लगी थी अकेले अपने नन्हे बच्चे के साथ जाने में। किसी बच्चे को उसकी माँ के सामने मार डालने की पीड़ा क्या होती होगी इसकी कल्पना करने भर से रूह कांप जाती है। ऐसी एक घटना ने मुझे हिलाकर रख दिया था। क्रोएशिया में ऐसी अनेकों घटनाएँ हुईं।

बोजैक जिनकी आठ वर्षीय बेटी और पत्नी के साथ सैनिकों ने इस हद तक क्रूरता दिखाई कि बेटी रक्तरंजित हो तड़पती रही और फिर भी सैनिक उसकी देह से खेलते रहे। वह मर गई और पत्नी कुछ समय बाद दिल की बीमारी और सदमे से मर गई। एमिना जिन्हें युद्ध के उपहार के रूप में गहरी शारिरिक और मानसिक पीड़ा के बाद दो जुड़वां बच्चों का गर्भ मिला। एक परिवार से दादी, चार बहुएँ और पाँच पोतियाँ सभी सर्ब सैनिकों के रेप का भाजन बनीं। पुरुषों और बच्चों को ज़िंदा जला दिया गया। परिवार की मंझली बहू ही एकमात्र पोती के साथ अब तक जीवित है। ऐसे ना जाने कितने मामले जिनका वर्णन इस किताब में पढ़ते हुए मेरी रूह रोती और शरीर थरथरा जाता।

ज़ाग्रेब और क्रोएशिया ने अपनी भूमि को पाने के लिए युद्ध किए और युद्ध के हमले का भाजन भी बने। "युद्ध में सर्बों ने क्रोआतियों को मारा, उनके घर जला दिए, बदले में क्रोआतियों ने पूरे क्रोएशिया को सर्बविहीन करने की मुहिम छेड़ दी।"

"बोस्निया-हर्ज़ेगोविना, क्रोएशिया के खिलाफ़ युद्ध में सर्बिया ने नागरिक और सैन्य कैदियों के कुल 480 कैम्प लगाए थे। क्रोएशियन और बोस्निया नागरिकों को डराने के लिए उनकी स्त्रियों से बलात्कार किए गए। बोस्निया और हर्ज़ेगोविना पर जब तक सर्बिया का कब्ज़ा रहा, किसी उम्र की स्त्री ऐसी नहीं बची जिसका यौन शोषण या बलात्कार न किया गया हो।"

इस पूरे युध्द काल में स्त्रियों को मानव का दर्जा नहीं मिल पाया। वे बस योनि को ढोने वाली एक ऐसी वस्तु मानी गईं जिनकी इज़्ज़त लूटने से युद्ध की न सिर्फ मुख्य रणनीति तैयार होती बल्कि सैनिकों को भी ख़ुश रखा जाता। सैनिक भी मानसिकता से पूर्णतः पंगु बना दिए गए थे। वे स्त्रियों को तीन हिस्सों में बाँटते। अतिवृद्ध जिन्हें खाना पकाने जैसे काम सौंपे जाते, कमसिन, सुंदर या छोटे बच्चों की माताएँ जिन्हें भोगा और मारा जाता और जिनकी कोख में अपना वीर्य स्थापित कर देना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता और तीसरी गर्भवती जिनके गर्भ को गिराने के लिए पहले उन्हें शारीरिक प्रताड़नाएँ दी जातीं, भोगा जाता और फिर उनके गर्भ में अपने दंभ की पुनर्स्थापना की जाती है।

ऐसा नहीं था कि सिर्फ स्त्रियाँ बल्कि पुरुष और बच्चों को भी ये दुःख भोगने पड़े लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

इस पूरे दुर्घटना-क्रम में जो बच गईं वे अब सामान्य जीवन जीने की कोशिश कर रही हैं लेकिन यह कितना संभव होगा इसका अनुमान मात्र ही हम लगा सकते हैं। हाँ यांद्रका के बारे में पढ़ते हुए मुझे कुछ सुकून मिला था, जो मानती हैं कि उन्होंने जो भोगा उससे उनका आत्मसम्मान नहीं गया। वे बलात्कारी की आँखों में आँखें डाल देखतीं कि उसे अहसास हो वह क्या कर रहा है। उनका मानना है कि जो हुआ वह शरीर के साथ और अब मैं आत्मा को पुनर्जीवित कर नए साहस के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रही हूँ। कुछ हरवातिनेक जैसी भाग्यशाली भी रहीं जिनके पति ने ब्लात्कार के बाद उन्हें छोड़ा नहीं बल्कि पीड़ा को कम करने में हर संभव सहयोग दिया। पीड़ा कम हुई यह कह पाना कठिन है।

इस युद्ध के बाद जो जीवित बच गईं उनमें से कइयों को देह व्यापार में घुसना पड़ा। परिवार या तो नष्ट कर दिया गया था या स्वीकार नहीं कर रहा था। इसके अलावा भी देह व्यापार में क्या और किस तरह स्त्रियों को सब्जी-भाजी की तरह खरीदा-बेचा जाता है और उच्च स्तर पर बैठे तमाशबीन कैसे इसका हिस्सा हैं, यह वर्णन किताब में पढ़कर अब दुनिया का कोई कोना स्त्रियों के लिए अलग दिखाई नहीं देता।

भारत में हर रोज़ एक ख़बर बलात्कार की सुनती हूँ। भारत पाकिस्तान विभाजन हो या बंगाल विभाजन हज़ारों स्त्रियों ने वही दुःख भोगा जो क्रोएशियन स्त्रियों ने। दुनिया में कहीं भी चले जाएं क्या स्त्रियों के दुःख एक ही रहेंगे? क्या उन्हें कभी भोगवस्तु से इतर एक मनुष्य का दर्ज़ा मिलेगा?

इस किताब को पढ़ने के बाद स्त्रीवाद की परिभाषा को फिर से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वर्तमान में आत्मकेंद्रित स्त्रीवाद देख-देख अब सब छल और फ़रेब लगने लगा है। सच कहूँ इस किताब ने भीतर कोई ऐसी चोट की है जिसकी गूँज जाने कितने समय तक सुनाई देती रहेगी और जिसकी टीस जाने कितने समय तक चुभती रहेगी।

मैं जब यह सब पढ़ रही थी मेरी चेतना जवाब देने लगी थी और सुख के मायने बदल गए थे।

भारत में कितनी ही स्त्रियाँ आज देह व्यापार के लिए मजबूर हैं। वे कैसे वहाँ पहुँची, उनकी कहानी क्या थी? यह हम शायद ही कभी सोचते हैं। देह व्यापार हो या बलात्कार, हम हायतौबा भी अपनी सहूलियत और अपने एजेंडा के हिसाब से मचाते हैं। मेरे शहर में कोई बलात्कार हुआ तो मैं दुःखी हो जाऊंगी आपके शहर में कोई हुआ तो आप। इस सत्य को जानते हुए अनदेखी कर जाते हैं कि भारत में हर रोज़ बलात्कार हो रहे हैं। हम बोलते हैं सब पर? क्या करेंगे बोलकर भी। अख़बार का पन्ना पलटते या स्क्रीन स्क्रोल करते ही वह दुःख एक 'अपडेट' मात्र बन जाती है। ज़्यादा हुआ तो हम दो शब्द लिख लेते हैं। पर यह सब कब बंद होगा? कैसे बंद होगा? इसकी ना सरकार को पड़ी है ना हमें। यह दुनिया स्त्रियों के लिए किस हद तक क्रूर है इसका दस्तावेज़ है 'देह ही देश'... जिसे पढ़ते हुए मैं अवसाद में जाने से ख़ुद को हज़ार बदलावों के प्रयोग कर बचा रही हूँ। जिसे पढ़कर अपना हर दुःख झूठा लगने लगता है।

इस किताब को पढ़ने के बाद मेरे मन में यह तीव्र इच्छा पैदा हुई कि मैं किताब की लेखक के साथ किसी ऊँची पहाड़ी के मुहाने पर, उजाड़ से दरख़्त के नीचे बैठ उनसे क्रोएशियाई स्त्रियों के वे बचे रुदन भी सुन लूँ जिन्हें वे किसी भी चाही-अनचाही वजह से किताब में सम्मिलित ना कर पाई हों। जब वे ये रुदन-गीत सुना रही हों तब हमारे सामने बिछी गहरी खाई असीमित बादलों से पटी हो। और रुदन-गीत के ख़त्म होते ही वे बादल छंट जाएँ। मैं और लेखक दोनों साथ उन घनघोर-कारे बादलों के छंटने की और उम्मीद के सूरज के चमकने की ख़ुशी साथ मनाएँ। यह सोचते हुए कि दुनिया स्त्रियों के लिए नरक सही लेकिन कभी तो घर्षण कम होगा या मिटेगा। कभी तो हमें या दूसरों को हराने के लिए हमारे शरीर वस्तु-मात्र नहीं समझे जाएँगे। कभी तो पौरुष का दंभ भरने वाली मनुष्य प्रजाति अपने बल और बुद्धि से युद्धों को जीतेगी न कि स्त्रियों के गुप्तांगों के दम पर।

यह किताब पढ़ने के लिए नहीं बल्कि एक अहम दस्तावेज़ बनाकर हर व्यक्ति को समझने की ज़रूरत है। इसे पढ़े बिना स्त्रीवाद की हर परिभाषा अधूरी है।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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दिव्या विजय की कहानी — यारेग़ार | Divya Vijay Ki Kahani — Yaaregaar


अब अब्बा टीवी नहीं देखते, अख़बार पढ़ना भी इन दिनों छूट गया है। दुकान से लौटकर अम्मी के पास बैठे ज़रूर रहते हैं लेकिन बोलते कुछ नहीं। चुपचाप काली खिडकियों से बाहर न दीखती किसी चीज़ को देखते हैं। कभी-कभी उसे लगता है जैसे वे मन ही मन कुछ कहते हैं जो काँच से टकरा उन तक लौट आता होगा। उन्हें यहाँ कोई डर नहीं है, ज़ाहिर तौर पर तो नहीं, फिर भी वे डरे-से रहते हैं। शायद इसीलिए उन लोगों ने ऊँची आवाज़ में बात करना छोड़ दिया है। उनका घर फुसफुसाहटों से भर गया है। 

दिव्या विजय की कहानी — यारेग़ार  Divya Vijay Ki Kahani Yaaregaar bharat-s-tiwari-photography


इस कहानी को पढ़ना एक रोचक उपन्यास के कुछ बहुत रोचक अंशों का पाठ करना है. पाठक लेखक से उम्मीद रख सकता है और रिक्वेस्ट भी कर सकता है कि इसे जल्दी से पूरा उपन्यास पढ़ाया जाए. मृदुला गर्ग जी के शब्दों का सहारा लेते हुए कहा जा सकता है ‘सच में फंतासी की भरपूर जगह होती है’ और यारेग़ार में दिव्या विजय ने उन जगहों को खोद खोद कर निकाला है और फिर उन सचों को फंतासी में संवेदनशील मानवीय भावनाओं के साथ इतनी बारीकी के साथ रफ़ू किया है कि पढ़ने वाले का दिल हलक में ही अटका रहता है. अफ़गानिस्तान पर तालिबानी त्रासदी के आने और फिर छा जाने के बीच और वहाँ के जीवन का खुले से यकबयक पूरा बंद हो जाने के बीच, कैसा रहा होगा वहाँ का अफ़गानी, यह मार्मिक चित्रण करने में कहानीकार पूर्णतया सफल हुआ है. उर्दू के सटीक शब्दों का उपयोग कहानी के नरेटीव को और सजीव बनाता है. आनंद उठाइए आप भी...


भरत एस तिवारी
संपादक शब्दांकन

यारेग़ार

— दिव्या विजय

चौदह जनवरी का दिन, गुलाबी ठण्ड और गुलाबी शहर। आसमान पतंगों से अटा था और हर तरफ ‘वो काटा, वो मारा’ की आवाज़ें आ रही थीं। मैं और अद्वैत पुराने शहर के बीचोंबीच चौगान स्टेडियम आये थे। चौगान स्टेडियम यानी पतंगबाज़ों का अड्डा। जितने रंग ज़मीन पर, उस से ज़्यादा रंग आसमान में खिलते हैं आज के दिन। हर आकार की सैकड़ों पतंगें इतराती हुईं गुत्थमगुत्था हो रही थीं। पतंगबाज़ी...अद्वैत का पसंदीदा खेल, बचपन से अब तक। जितने दिन देश के बाहर रहे, उतने दिन यही इकलौता त्योहार था जब अद्वैत को उदास घेर लेती। अरसे बाद आज के दिन हम अपने देश में हैं तो यहाँ चले आए। यहाँ हैरान कर देने वाला ख़ूबसूरत नज़ारा था। लक-दक करते रंगीन कपड़ों में लोग, बच्चों से लेकर बड़ों तक के हाथ में अलग आकार की पतंग। जो पतंग उड़ाना नहीं जानते, वे अपने साथी की चरखी पकड़े बराबर उसका साथ दे रहे थे। कुछ ऐसे भी लोग थे जो कटी हुई पतंगें इकट्ठी करने के लिए इधर से उधर भाग रहे थे। वे पतंग लूटने के अभ्यस्त थे। कूदते-फाँदते, भीड़ के बीच जगह बनाकर वे क्षण भर में वहाँ पहुँच जाते जहाँ कटी हुई पतंग जा गिरी होती। कुछ लोग ऐसे भी थे जो कुछ नहीं कर रहे थे। बस आसमान में लड़ी जा रही लड़ाई की निशानदेही कर रहे थे। कौन-सी पतंग को कौन-सी पतंग काटेगी और कौन-सी पतंग पहले धराशायी होगी इसका कयास लगाते हुए टिप्पणी में व्यस्त थे। उनकी सारी इन्द्रियाँ जैसे आँखों में सिमट आई थीं। समय उनकी आँखों में आ ठहर गया था, आसमान उनकी आँखों में आ सिमट गया था।

‘‘देखो निशि, वो मालाधारा पतंग देख रही हो, उसे काटते हैं। तुम बस चरखी ठीक से पकड़ना।‘‘ अद्वैत ने हुलस कर कहा।

मैं आसमान में अद्वैत की बताई पतंग ढूँढ़ने की कोशिश कर रही थी। जिस पतंग के ऊपरी सिरे पर पट्टी बनी हो वह पतंग हुई मालाधारा। पतंगों के ये नाम मुझे अद्वैत ने ही सिखाये थे। जिस पतंग पर जो आकृति, उस से मिलता-जुलता उसका नाम। आँख बनी हो तो आँखधारा, बीच में एक चौखाना हो तो चौपड़धारा।

‘‘अगर आपको उज्र न हो तो आप मेरी बात सुनेंगे?‘‘ भारी मर्दाना आवाज़ सुनाई दी। मैंने पलट कर देखा तो एक लम्बा आदमी अपने कंधों को झुका कर कुछ कह रहा था।

‘‘जी मैं आप ही से मुख़ातिब हूँ।‘‘ उसने अद्वैत की ओर इशारा किया।

‘‘आप उस पतंग पर निशाना साधिये जिस पर चाँद की शक्ल बनी हुई है।‘‘

‘‘चाँदधारा की बात कर रहे हैं आप?‘‘

‘‘जी, आप के यहाँ शायद इसे यही कहते हैं। बात ये है कि हवा का रुख़ इस ओर का है तो जिस पतंग को आप काटना चाह रहे हैं वो ऐन वक़्त पर अपना भार आपकी पतंग पर डाल देगी और आपकी पतंग कट जायेगी।‘‘

मैंने आश्चर्य से आसमान की ओर नज़रें घुमाई। अद्वैत की पतंग, डोर का साथ छोड़ चुकी थी और डगमगाती हुई नीचे आ रही थी। वहाँ इतनी दूर क्या होने वाला है, इस आदमी को सब मालूम है। वह आदमी मुझे भविष्यवक्ता से कम नहीं लगा। मैंने दिलचस्पी से उसको देखा। ख़ालिस सफ़ेद कोट पैंट यहाँ के वातावरण के लिए मुफ़ीद भले ही न हो पर छः फुट लम्बे उस आदमी पर बहुत जँच रहा था। उसके चेहरे की लकीरों का उसके उम्रदराज़ दिखने से कोई रिश्ता नहीं था। वहाँ कुछ और था जिसने उसकी आँखों की रंगत बदल दी थी। हलके हरे रंग की झाईं आँखों से झाँक रही थी।

‘‘वाह, आपको तो बहुत जानकारी है। क्या आप पतंग उड़ाना चाहेंगे?‘‘ कहते हुए अद्वैत ने एक पतंग उसकी ओर बढ़ाई। वह चिहुँक कर दूर हटा जैसे पतंग अस्पृश्य हो।

‘‘नहीं, मैं अब पतंग नहीं उड़ाता।‘‘

मेरी सुई ‘अब’ पर जाकर टिक गयी। मतलब पहले पतंग उड़ाते थे। मैं उनसे कोई प्रश्न कर पाती वह तब तक आगे बढ़ चुके थे। बाक़ी लोगों को सलाह देते हुए वह जैसे किसी समाजसेवा में रत थे।

‘‘चलो, चाय पीकर आते हैं। वापस आकर पतंग उड़ायेंगे।‘‘ एक और पतंग कटवा कर, अद्वैत और मैं स्टॉल की तरफ़ बढ़ चले। रास्ते में वह हमें फिर दिखे। मैदान में बैठे एक छोटे बच्चे को पतंग उड़ाने के गुर सिखाते हुए। बच्चे की आँखें कंचे के भीतरी भाग जैसी चमक रही थीं। लेकिन पतंग को हाथ उन्होंने तब भी नहीं लगाया था।

अद्वैत उन्हें देखते ही ख़ुशमिज़ाजी से बोले, ‘‘चलिए, आपको चाय पिला कर लाते हैं।‘‘

उम्मीद के खिलाफ़ वह एक ही बार में खड़े हो गए। ‘‘चलिए, चाय की तलब तो मुझे भी महसूस हो रही है। बहुत देर हो गयी।‘‘

‘‘आप क्या यहाँ बहुत देर से हैं?‘‘ मैंने सवाल पूछा।

उन्होंने इसका जवाब बहुत दूर कहीं शून्य में देखते हुए गर्दन हिलाकर दिया जिसका मतलब हाँ भी हो सकता था और न भी। मैं ग़ौर से उन्हें देखा। आँखों में अधीरता थी।

‘‘कौन से इलाके में रहते हैं आप?‘‘

‘‘मेरा पक्का ठिकाना नहीं है। कारोबार के सिलसिले में कभी यहाँ तो कभी वहाँ।‘‘

‘‘फिर भी, मूलतः कहाँ से हैं?‘‘

जहाँ से मैं हूँ, वहाँ का अब नहीं रहा।

‘‘.....‘‘

यह कहकर वह चुप हो गए। चुप बाहर से ज़्यादा भीतर बज रही थी। उनकी चुप, चुप भर नहीं थी...एक भरा-पूरा जीवित व्यक्ति थी जिसका एक अंश हमारे सामने बैठा था। देर तक उनकी चुप्पी टंकार करती रही। मैंने देखा उनकी आँखों में दो रंग ओवरलैप होकर एक रंग में बदल रहे थे। पूरी दुनिया को लाँघते हुए वहाँ हिन्दू कुश कोहसार आ खड़ा हुआ। वहीं थी हिन्दू कुश की सबसे ऊँची चोटी…तिरिच मीर। सुफ़ेद बर्फ से ढकी...ऐसा सुफ़ेद जो देखने भर से मैला हो जाए। ऐसा सुफ़ेद जो आँखों पर सुकून के फ़ाहे रख दे। बर्फ़ जो गद्दों से ज़्यादा गदबदी और मोगरे की मानिंद नर्म थी।





****








हिंदू कुश से आ रही काबुल नदी शहर के बीचोंबीच बह रही थी। वहीं थे काबुल के बाज़ार...केसर की मीठी गंध, मसालों की तेज़ महक, पुदीने की कच्ची ख़ुशबू में लिपटे, रेशमी लिबासों की सरसराहट से भरे। ताज़ा माँस, रसीले फलों और उबलती चाय के साथ थी वहाँ पतंगों की फरफराहटें। महल, मस्जिद और बाग़-बगीचे पुराने दिनों की शान-ओ-शौकत की गवाही दे रहे थे।

लेकिन आज...आज पुल-ए-ख़िश्ती पर ये कैसी भगदड़ मची थी! सब जल्द से जल्द घर पहुँच कर अपने घर के औरतों-बच्चों को ख़बर दे देना चाहते थे। हुजूम के हुजूम बसों में लटके हुए इस पर बहस कर रहे थे। राह चलते लोग मुबाहिसों में उलझे थे। आसमान में नारे थे। आवाज़ों को चुप करातीं चीखें थीं।

‘‘हमें घर के अन्दर रहने में तकलीफ़ नहीं है लेकिन बच्चों के पसंदीदा खेल...उन पर रोक लगाकर क्या हासिल होगा।‘‘ एक औरत नाक सुड़कते हुए कह रही थी। नाक...लाल, नुकीली नाक। जैसे सुफ़ेद रंग में लाल गुलाब का अर्क मिला दिया गया हो। मेरी नज़र सामने बैठे आदमी की आँख से होते हुए नाक पर टिक गयी। यह नाक उस नाक की तरह शोख़ नहीं थी। चाय की भाप के साथ यहाँ संजीदगी जमी हुई थी।

‘‘अली और फ़रहाद को समझा देना अफ़शीन। ऊल-जुलूल काम छोड़कर पाँचों वक़्त नमाज़ अदा करने की आदत डाल लें। दिन भर की आवारागर्दी की आदत से निजात पा लें तो उन्हीं के लिए बेहतर होगा।‘‘ आदमी ने खिड़की पर परदे लगाते हुए कहा। उसकी आवाज़ नर्म होते हुए भी लहज़ा सख़्त था।

‘‘हामिद, लेकिन सुनिए तो...‘‘

‘‘ताश, शतरंज, किताबें, फ़िल्में सब एक जगह इकट्ठा कर देना। शाम तक सब ठिकाने लगा दूँगा।‘‘ हामिद नाम का वह आदमी डरा हुआ था और एक ज़िद भी उसकी आवाज़ में झाँक रही थी। नजीबुल्लाह और उसके भाई को गोली मार दी गयी। दो मुर्दा जिस्मों को ट्रक से बाँध कर सरेआम गलियों में घसीटा गया और आज उनके बेजान बदन को नुमाइश के लिए रखा गया। जिन्हें अल्लाह का ख़ौफ़ नहीं, जो इस हद तक जा सकते हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं। वह किसी हालात में अपने अजीज़ों को नहीं खो सकता। अफ़शीन ख़ौफ़ की ज़द में न आ जाए इसलिए हामिद ने असल वजह नहीं कही।

‘‘क्या आप वाकई…?‘‘ अफ़शीन को ताज्जुब हुआ। उसका ख़ाविंद...किताबों और फ़िल्मों का शौकीन। कई दफ़ा वह भी उसकी तवज्जो के लिए झगड़ बैठती थी। वही आज एक एलान से डरकर सब ख़त्म कर रहा है। लेकिन अफ़शीन ने वह नहीं देखा था जो हामिद देख कर आ रहा है। ख़ून में लिथड़े दो मुर्दा जिन्हें एलानिया तौर पर एक खम्भे से लटका दिया गया। बहुत सारे लोग ख़ुश थे लेकिन उसे आने वाले दिनों की दहशत का अंदाज़ा हो चला था। नजीबुल्लाह की नीतियों से बहुत ख़ुश वह भी नहीं था लेकिन आदमी कैसा भी हो मौत के बाद यह बर्ताव वहशियाना है...बेहद वहशियाना। दोनों को नामर्द बना दिया गया था। जिस्मानी अज़ीयत की इन्तेहाँ उनके जिस्म पर नमूदार थी। कितने बदतरीन और बददिमाग़ हैं वे। सोच कर हामिद काँप गया।

‘‘देखो अफ़शीन...मैं कायदे से बाहर नहीं जाना चाहता। तुम लोगों की सलामती से बढ़कर मेरे लिए कुछ नहीं है।‘‘ हामिद का सख़्त लहज़ा सुन अफ़शीन मुड़ गयी थी।

‘‘और हाँ अली-फ़रहाद का पतंग से जुड़ा जो भी सामान हो लेती आना।‘‘

आह! अभी कुछ दिन पहले ही तो हामिद दोनों को पतंगबाज़ी के गुर सिखा रहे थे। पतंग उड़ाना दोनों के लिए तफ़रीह का ज़रिया नहीं है। जान बसती है दोनों की, इस खेल में। घंटों तक भूखे-प्यासे रहकर इस खेल में डूबे रहते हैं दोनों भाई। दोनों का ख़्वाब है कि क़ाबिल पतंगबाज़ बनें। दोनों को इतनी सी उम्र में इस खेल के कितने राज़ मालूम हैं। इस खेल की ढेरों बातें उनकी कॉपी में लिखी हुई हैं। पहले उसे लगता था कि यह सब वक़्त की बर्बादी है लेकिन दोनों की संजीदगी देख उसने रोकना-टोकना बंद कर दिया था। वे सब कुछ छोड़ सकते हैं लेकिन पतंग उड़ाना नहीं। दोनों भाई दो साल छोटे-बड़े पर दोनों को जुदा करना नामुमकिन। एक दूसरे के ऐसे साथी कि अच्छे-अच्छे रश्क कर उठें। पतंग के सिवा उनका कोई तीसरा दोस्त न था।

(उस शख़्स की आँखों में अज़ीयत की परछाई थी।)





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‘‘अलीSS क्या कर रहा है? चरखी ठीक से पकड़। ध्यान कहाँ है तेरा? ढील दे, ढील दे। देख वो पीली वाली पतंग दिख रही है? उसे काटेंगे।‘‘ फ़रहाद की नज़र आसमान में जमी हुई थी। पीछे खड़े अली से बात करते हुए, सैकड़ों मील दूर से पतंग की निगहबानी कर रहा था। पतंग उड़ाने में दोनों का कोई सानी नहीं था। दोनों स्कूल से भागकर पतंग उड़ाने मैदान में चले आते। छुट्टी के बाद घर की छत दोनों का अड्डा बन जाती।

‘‘वो तुक्कन है तुक्कन। उसे सम्भालने के लिए नौ तार का माँझा लगता है। हमारा माँझा कमज़ोर है फ़रहाद। वो हमारे माँझे से नहीं कटेगी।‘‘ अली की नज़र और समझ दोनों तेज़ थीं।

‘‘अब्बा जान से कहकर हम नौ तार का माँझा मँगवाएंगे। सबकी छुट्टी हो जायेगी।‘‘ फ़रहाद ने हिम्मत नहीं हारी थी। लेकिन चील पतंग को पटखनी देने के चक्कर में वो अपनी पतंग कटवा बैठा।

‘‘नहीं भाईजान... बारह तार का मंगवाएंगे। उसके आगे अच्छे-अच्छे पानी भरेंगे।‘‘ अली ने पास पड़े पत्थर पर बैठते हुए कहा। सूरज की रोशनी उसकी पेशानी को चूम रही थी।

‘‘चमन-ए-बबराक चलेंगे इस बार अम्मी-अब्बू के साथ। तू बनेगा चरका गिर और मैं गुड़ीपरन बाज़। जंग होगी जंग।‘‘ फ़रहाद उचक कर मैदान के चबूतरे पर जा चढ़ा।

‘‘ओये, इतना ऊँचा सोचने से पहले अपने मोहल्ले का शर्ती का ख़िताब तो ले लीजिये।‘‘ अली ने उसके पंख कतरे। ‘‘उधर देखिये, फरफरा...उसको काटते हैं।‘‘ कहते हुए अली अफ़गानिस्तान ज़िंदाबाद लिखी पतंग में तंग डालने लगा। ‘‘इस पतंग को नहीं कटने देंगे।‘‘

‘‘छोड़ यार। शुर बाज़ार चलते हैं। नूर चचा से चार पर्चे वाली पतंग लाते हैं।‘‘

‘‘अफ़गानी हैं?‘‘

‘‘नहीं। तेरे पास?‘‘

‘‘मेरे पास भी नहीं। चल घर चलते हैं। वहाँ से चलेंगे।‘‘

दोनों अपना सामान समेट कर घर की तरफ़ चल पड़े। लेकिन आज कुछ अलहदा बातें उनके इंतज़ार में थीं। दुनिया में रहकर भी उस से बेख़बर हों वे थे अली और फ़रहाद। उनकी दुनिया तो आसमान में बसती थी।

(परछाई का रंग रुपहला हो चला था।)





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उन्नीस सौ छियानवे का सितम्बर। सर्दियाँ अभी आई नहीं थीं लेकिन रात की तपिश ज़रा कम हो गयी थी। बन्दूक और बारूद यहाँ की हवा में बरसों से घुले थे लेकिन अब हवा का भारीपन बढ़ गया था। आती हुई घुटन की दस्तक हर गली, हर मोड़ पर थी। साँस लेना मुहाल पहले से था, अब ज़िंदा रहने की तरकीबें करनी थीं। कंधार से चलकर तालिबानी काबुल आ पहुँचे थे। बहुत-से लोगों ने उनका इस्तक़बाल किया था। उन्हें बेहतरी की उम्मीद थी कि कम्युनिस्ट और मुजाहिद्दीनों ने मुल्क का जो बेड़ा ग़र्क़ किया था वो अब ख़ुश दिनों में बदल जायेगा। दिनों के बदलने की शुरुआत हो चुकी थी। गाड़ियाँ पाबंदियों का एलान करती घूमने लगी थीं। वे कहाँ जानते थे जिन लोगों की जड़ें नहीं होतीं वे मुल्क की जड़ों को भी खोखला कर देते हैं।

‘‘अली, फ़रहाद और शीर ध्यान से सुनो। हुकूमत बदली है। नए हुक्मरानों के अपने दस्तूर हैं। हम उन्हें बदल नहीं सकते, उनके खिलाफ़ नहीं जा सकते। शीर तुम अम्मी के काम में हाथ बँटाओगी।‘‘

‘‘लेकिन मेरा स्कूल?‘‘ एक कमज़ोर मगर मीठी आवाज़ गूँजी।

आठ साल से बड़ी लड़कियों को स्कूल भेजना मना हो चुका था। लेकिन हामिद बच्चों के आगे ये नहीं कहना चाहता था। शीर के मन में फ़र्क न आये इसलिए हामिद ने जी सख़्त कर एक और फ़ैसला लिया था। अली और फ़रहाद को स्कूल न भेजने का। यूँ भी ऐसी फ़िज़ाँ में वह अपने बच्चों को आँख के आगे रखना चाहता था।

‘‘अली, फ़रहाद तुम मेरे साथ दुकान पर चलोगे।‘‘ हामिद ने शीर के सवाल को नज़रअंदाज़ करते हुए दोनों लड़कों से कहा।

सुनते ही दोनों के मुँह लटक गए। अब्बा जान के साए तले रहना मतलब सख़्त पहरे में रहना। उन्होंने इल्तिज़ा करती निगाहों से अम्मी को देखा। अफ़शीन ने निगाहों में ही मुस्कुरा गर्दन हिला दी। दोनों मुतमइन हो गए कि चलो अम्मी तो हमारे साथ हैं। लेकिन बेचारी शीर...सिर्फ़ आठ साल की उम्र में उसे घर में बंद हो जाना पड़ेगा। उन्होंने शीर के सर पर हाथ फिराया और उसे दूसरे कमरे में ले जाकर खेलने लगे। उन्हें मालूम था शीर को पढ़ने का कितना शौक़ था। ख़ुद से ज़्यादा उदास वे शीर के लिए थे।

आने वाली शाम उनके घर का बहुत-सा सामान आग के सुपुर्द हो गया। लेकिन अली और हामिद की उम्मीद अभी ख़त्म नहीं हुई थी, उनका शौक अभी बचा था, हसरतें अभी मरी नहीं थीं। अपनी पतंगें, चरखियाँ, माँझे सब उन्होंने अम्मी को यक़ीन में ले छिपा दिए थे।

‘‘हम पतंग उड़ाना जारी रखेंगे। फ़न को बार-बार अमल में नहीं लायेंगे तो फ़न भी हमसे बेपरवाह हो जाएगा।‘‘ फ़रहाद ने अली को सीख दी।

‘‘हाँ, थोड़े दिनों में सब ठीक हो जाएगा। सब ठीक नहीं भी हुआ तो पतंग से कौन हमेशा के लिए दूर रह सकता है। अगले जुम्मे ही देखना...पेंच लड़ने शुरू हो जायेंगे।‘‘ अली न सिर्फ़ अपने भाई पर यक़ीन करता था बल्कि अपने भाई के यक़ीन को और पुख़्ता करता चलता था।

फ़रहाद ने अपने भाई को मुहब्बत से देखा और कहा, ‘‘आमीन।‘‘

अगले से अगला जुम्मा और फिर कई जुम्मे गुज़र गए लेकिन कुछ नहीं बदला। शीर घर का काम सीखते-सीखते अपने स्कूल को याद करती। अली-फ़रहाद ने मन मार कर दुकान का रुख़ कर तो लिया लेकिन पतंगबाज़ी का ख्व़ाब हर लम्हा दोनों के साथ रहता। गोश्त छीलते-काटते दोनों पतंग की बातें करते। पतंग की क़िस्मों से लेकर अहम् तवारीख़ों तक पर तज़किरा होता।

उस रोज़ अम्मी की तबियत नासाज़ थी तो उनका ख़याल रखने के लिए अब्बा जान उन्हें घर छोड़ गए। अम्मी ऐसे हाल में भी उदास-सी ऊन और सलाईयों में उलझी हुई थीं। शीर कहीं से उड़ कर आ गए फटे पन्ने पर छपी कहानी पढ़ने के बाद आगे क्या होगा के क़यास लगा रही थी। दोनों ने आँखों ही आँखों में कुछ इशारा किया और बुखारी में छिपाई पतंग-चरखी ले छत पर जा पहुँचे। पतंग को छूते ही उनके ज़ेहन में ख़ुशी का ऐसा दरिया बहा कि आसमान भी डूब गया। दोनों पतंग को अलग-अलग कोण से छू कर देखते और रोने-हँसने के बीच की कोई आवाज़ दोनों के गले से फूट पड़ती। दोनों पतंग को गले लगा कर देर तक बैठे रहे। हवा ने दोनों के साथ मिलकर जैसे कुछ तय किया और थमी हुई हवा अब चलने लगी। वे पतंग में तंग डालने लगे। अली ने छुट्टी देने के लिए पतंग पकड़ी ही थी कि अफ़शीन ऊपर आ गयी।

‘‘क्या कर रहे हो?‘‘ उनके हाथ में पतंग देख अफ़शीन आशुफ़्तगी से भर गयी।

‘‘कुछ भी तो नहीं अम्मी।‘‘ हँसते हुए फ़रहाद ने कहा। दोनों ने पतंग छिपाने की ज़हमत भी नहीं उठायी थी। उन्हें यक़ीन था अम्मी अभी थोड़ी-सी नसीहत देकर नीचे चली जायेंगी।

हँसते-मुस्काराते लड़कों पर अफ़शीन को एक लम्हे के लिए प्यार आया। फ़रहाद का कद अब उसके कंधे छूने लगा था। कुछ दिनों में ही उस से ऊँचा निकल आएगा। कितने दिनों बाद उसे हँसते देखा है। नहीं तो सारा दिन दुकान के काम में ग़ाफ़िल होकर थके-हारे घर आकर सो जाते हैं। इनकी उम्र ही क्या है भला। उसने हामिद को कहा था शीर न सही, इन दोनों को तो स्कूल भेजे। हामिद मान भी गया था लेकिन मालूम हुआ कि स्कूल ही बंद हो गया। पढ़ाने वाली सब उस्तानियाँ थीं और औरतों के काम करने पर रोक लगा दी गयी थी। जब तक कोई और इंतज़ाम नहीं हो जाता यही हालात रहने वाले हैं। उसने उदासी से दोनों को देखा जो उसकी तरफ़ रोशन निगाहों से देख रहे थे। उसने हाथ बढ़ाया तो लड़कों ने उसे भी अपने खेल में शरीक समझ पतंग उसके हाथ में दे दी। उसने पतंग फाड़ दी। दोनों उसे फटी निगाहों से तब तक देखते रहे जब तक वह उन्हें नीचे आने की ताक़ीद कर ज़ीने में गुम न हो गयीं। अफ़शीन ने पिछले हफ़्ते हामिद के साथ बाज़ार जाते वक़्त दो बच्चों को पतंग उड़ाने के ‘जुर्म’ में बेरहमी से पिटते देखा था। अभी तक सब रोज़मर्रा की क़वायद समझने वाली अफ़शीन को तब मामले की संजीदगी का अहसास हुआ था।

लेकिन अली और फ़रहाद की हैरत चंद लम्हों की मेहमान थी। अम्मी के क़दमों की आहट जैसे ही मद्धम हुई वैसे ही दोनों के मन फिर उड़ने लगे।

‘‘अब क्या करें? ‘‘

‘‘घर में पतंग उड़ाना नामुमकिन है और बाहर जाकर उड़ाना उस से भी मुश्किल।‘‘

‘‘पतंग उड़ाना छोड़ देंगे तो जीतना भूल जायेंगे।‘‘

‘‘मुश्किलों को जो हरा दे उस का नाम है फ़रहाद और उसका साथी कहलाता है अली।‘‘ बॉलीवुड के दीवाने फ़रहाद ने फ़िल्मी अंदाज़ में कहा।

‘‘दुकान के पास एक ख़ाली घर है जिसकी छत बम धमाकों में उड़ गयी थी। कल अब्बा खाना खाने घर आयेंगे तो हम पीछे से वहाँ चलेंगे।‘‘

‘‘और पतंग?‘‘

‘‘नूर चचा हैं न।‘‘


अली का चेहरा खिल उठा। दोनों रात भर मंसूबे बाँधते रहे। अंत में जब नींद आई तो दोनों के ख़्वाब में भी पतंगें ही थीं।

सुबह दोनों ने दुकान की ओर क़दम बढ़ाये तो उन्हें लगा वे पतंग की तरह उड़ रहे हैं। हर पल वे दोपहर का इंतज़ार कर रहे थे। आज की दोपहर बड़े दिनों बाद ख़ुशनुमा होने वाली थी। आख़िरकार खाने का वक़्त हुआ तो हामिद उनको दुकान ठीक से देखने की हिदायत दे निकल गए। इधर हामिद गए, उधर आसिफ़ चचा को दुकान सँभालने को कह वे भी नौ-दो ग्यारह हो गए। वे जितनी तेज़ी से भाग सकते थे, उतनी तेज़ी से भागते हुए नूर अहमद की दुकान पर पहुँचे। पर यह क्या, दुकान तो बंद थी। वे सकते में थे। नूर चचा की दुकान भी बंद हो सकती है, उन्होंने तो सोचा ही नहीं था। थोड़ा आगे जाकर देखा तो शुर बाज़ार की वह पतली तंग गली जो पतंगों से गुलज़ार हुआ करती थी, अब सूनी पड़ी थी।

‘‘चल किसी से पूछते हैं।‘‘ फ़रहाद ने अली को कोहनी से खींचते हुए कहा।

‘‘चचा नूर कहाँ हैं?‘‘ उन्होंने कालीन बेचने वाले एक शख़्स से पूछा।

‘‘होंगे कहाँ? अपने घर होंगे। किसी का कारोबार बंद हो जाए तो वो कहाँ हो सकता है?‘‘ शख़्स ने कालीन पर से धूल झाड़ते हुए कहा।

‘‘क्या?‘‘ दीन-दुनिया एक तरफ और नूर चचा की पतंगें एक तरफ़। दुनिया इधर से उधर हो जाए, यह दुकान बंद नहीं हो सकती।

‘‘अरे मियाँ, कौन सी दुनिया में रहते हो? हुक्म नहीं सुना तुमने?‘‘ एक ख़फा-सी आवाज़ अन्दर से आई।

‘‘सुना तो है।‘‘ बुझे मन से दोनों एक साथ बोले पर उस हुक्म का असर नूर चचा की दूकान पर होगा, दोनों का इसका अंदाज़ा नहीं था। नूर अहमद, नूर अहमद नहीं पतंगों की दुनिया के रहनुमा हैं। हाथ से पतंग बनाने वाले नूर अहमद अच्छी-अच्छी मशीनों को मात देते हैं। ख़ानदानी पेशा है ये उनका जिसकी मशाल अकेले अपने दम पर जला रखी है। बेगम उनकी भरी जवानी में ही मर-खप गयीं। बच्चे जो हुए, बचे नहीं। बचे नूर अहमद और उनकी क़ाबिल पतंगें जो हवा के बोसे के साथ ही आसमान को गले लगा लेती हैं।

‘‘उनके घर चलते हैं।‘‘ फ़रहाद ने झट फैसला लिया। अली पल भर के लिए हिचका लेकिन तुरंत फ़रहाद का हाथ पकड़ कर गली के दूसरे सिरे पर दौड़ लगाने लगा। गली से निकल कर दो सड़क पार कर आएगा नूर चचा का घर। रास्ते में थे ग़श्त लगाते तालिबानी। ज्यादा बड़े तो नहीं लगते। पड़ोस वाले मुस्तफ़ा भाईजान जितने। इनका मन नहीं होता होगा पतंग उड़ाने का। लेकिन उनके चेहरे पत्थर की तरह सख़्त थे। दोनों उन नज़रों की ज़द में आये बिना निकल जाने चाहते थे। उनकी लाल आँखों से उन्हें डर लगा। अगर उन्होंने पूछ लिया कहाँ जा रहे हो तो वे क्या कहेंगे। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप निकल कर नूर के घर तक आ पहुँचे।

नूर अहमद सर झुकाए घर के बाहर बैठे थे। उनका घर एक छोटी कोठरी में समाया था जिसका दरवाज़ा गली में खुलता था। वहीं गली और घर के बीच एक चबूतरे पर बाँस की कुछ खपच्चियों को उँगली में फँसाए बैठे थे। कोई आहट, कोई सरगोशी उन पर असर नहीं कर रही थी। उनके सफ़ेद बाल मुरझा गए थे। उनके हाथों की जिल्द अपनी रौनक खो बेजान सफ़ेद-सी हो चली थी।

‘‘चचा।‘‘ धीरे से फ़रहाद ने कहा। लेकिन वो उसी तरह बैठे रहे।

इस बार अली ने उनके क़रीब जाकर उनके कंधे पर हाथ रख कहा, ‘‘चचा, पतंग चाहिए।‘‘

पतंग शब्द ने जैसे जादू का काम किया। उन्होंने सर झट से ऊपर उठाया। ग़मगीन आँखों में ख़ुशी की सतर चमक उठी और तुरंत बुझ गयी।

‘‘उड़ाओगे कहाँ पतंग छोटे मियाँ?‘‘

‘‘हमें कुछ महफ़ूज़ जगह मालूम हैं। वे इस ज़मीन पर अपना हक़ भले ही जता लें, आसमान को काबू में कर सकते हैं क्या?‘‘ कहीं सुनी हुई बार फ़रहाद ने दोहरा दी। अली ने गर्दन हिलाई जैसे सब समझता हो।

‘‘लेकिन, नज़र तो उनकी आसमान पर भी रहती है बच्चे।‘‘ नूर अहमद ने मुस्कुरा कर कहा।

दोनों पशोपेश में आ गए कि क्या जवाब दें।

‘‘वादा करो कि हिफाज़त से रहोगे। इसी शर्त पर पतंग दूँगा। दुकान का सारा सामान तो कमीनों ने जला दिया लेकिन मैंने नयी पतंगें बनायीं हैं...छिपा कर रखी हैं।‘‘ नूर अहमद सरगोशी करते हुए अपनी कोठरी के भीतर जाने के लिए उठे। उनकी चाल में बच्चों का सा जोश आ गया था।

‘‘हाँ चचा, आप फ़िक्र न कीजिये। हम अपना ख़याल रखेंगे।‘‘ उनके पीछे दोनों क़दम से क़दम मिला कर चल पड़े। दोनों के अन्दर रोमांच और ख़ुशी का सोता फूट रहा था।

नूर अहमद ने अपनी कोठरी की छत पर से सीमेंट का एक टुकड़ा हटाया और टटोल कर करीब आठ-दस पतंगें निकाली। आहा! रंग-बिरंगी पतंगें। गुड्डी, डेढ़ कन्नी, तुक्कल सब उनके सामने थीं। दोनों उन पर ऐसे झपट पड़े जैसे उनके सामने किसी ने शीर ख़ुरमा परोस दिया हो। उन्होंने आधे पर्चे वाली सबसे छोटी तीन पतंगें उठा लीं।

‘‘ये भी ले जाओ।‘‘ बाक़ी पतंगों की ओर उन्होंने इशारा किया।

‘‘हमारे पास इतने अफ़गानी नहीं हैं।‘‘ हसरत से दोनों पतंगें देख रहे थे।

‘‘नहीं अफ़गानी देने की ज़रुरत नहीं है बच्चे, यूँ ही ले जाओ। जितनी भी उम्र बची है उसमें दो समय का खाने लायक अल्लाह ने दे रखा है। ख़ुदा ने चाहा तो वक़्त बदलेगा और ख़ूब पतंगें उडाई जायेंगी।‘‘ उन्होंने ऊपर कहीं देख कर कहा।

दोनों कुछ समझे, कुछ नहीं।

‘‘पेंच किस से लड़ाओगे।‘‘ नूर अहमद ने बात बदली।

दोनों चुप। किस से लड़ायेंगे पेंच भला। नूर अहमद मुस्कुराये।

‘‘तुम दो हो न? आपस में पेंच लड़ाओ। बिना पेंच लड़ाए भला पतंगबाज़ी में क्या मज़ा। जंग नहीं लड़ोगे तो जीतोगे कैसे?‘‘ उन्हें अपनी जवानी के दिन याद आ गए। अब तो जिस्म में इतनी ताक़त ही नहीं बची कि पतंग उड़ा सकें। उन दिनों जब तक चार-पाँच पतंग न काट दें खाना हज़म नहीं होता था। उन्होंने अपना संदूक खोला। ‘‘ये कुछ चरखियाँ ले जाओ। अभी तक तुम में से एक चरकागिर होता होगा। अब से अपनी-अपनी चरखी खुद सँभालना। देखो ऐसे।‘‘ कहते हुए नूर अहमद ने बाएँ हाथ की कोहनी में चरखी दबा कर दिखाई। ये करतब देख दोनों के मुँह से वाह निकल गया। यह तो अब्बा ने बताया ही नहीं था। अब उनमें झगड़ा नहीं होगा कि कौन चरखी पकड़ेगा और कौन पतंग उड़ाएगा। ज़्यादा ख़ुश तो अली था जिसे अक्सर चरकागिर बनना पड़ता था। वह नए सामान को उलट-पलट कर देख ही रहा था कि नूर चचा ने कपड़े का एक बड़ा थैला आगे बढ़ा दिया।

‘‘सारा सामान इसमें रख लो। रास्ते में मत खोलना। किसी महफ़ूज़ जगह जाकर ही खोलना। कोई पूछे तो दिखा मत देना।सीधे भागते हुए घर पहुँच जाना भले ही थैला छोड़ देना पड़े।‘‘

उन्होंने हाँ में गर्दन हिलाई और सोचा थैला तो वे हरगिज़ नहीं छोड़ेंगे।

‘‘तुम नहीं छोड़ोगे तो वे वैसे भी छीन लेंगे।‘‘ नूर अहमद जैसे उनका दिमाग पढ़ रहे थे। ‘‘तुम ख़ुद की हिफाज़त करना। पतंग जाने का ग़म न करना। पतंगें जाती हैं तो जाएँ, मैं और पतंगें बना दूँगा तुम्हारे लिए। मैं न मिलूँ तो तुम्हें मालूम ही हैं कि पतंगें कहाँ से लेनी हैं।‘‘ छत की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा। दोनों ने हाँ कहा और अपनी दूकान की ओर दौड़ चले। जल्द पहुँचना था...अब्बा के आने का समय हो चला था। दोनों बच्चों की पीठ स्याह रात के बीच फ़लक का सितारा थीं और नूर अहमद की आँखें जुगनू हो चली थीं।

वहाँ पहुँचे तो आसिफ़ चचा गोश्त जल्दी-जल्दी दुकान के अन्दर रख, दुकान बंद करने की तैयारी में थे।

‘‘क्या हुआ आसिफ़ चचा।‘‘

‘‘फ़रमान आया है बाज़ार आज बंद रहेगा।‘‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘यूँ ही। तुम लोग सीधे घर जाओ। तुम्हारे अब्बा भी आकर लौट गए हैं।‘‘ क्या कहते कि बदकारी के जुर्म में आज एक औरत पर पथराव होगा। उस औरत का धड़ ज़मीन के नीचे होगा और सर बाहर। सब उस पर तब तक पत्थर फेंकेंगे जब तक वो मर नहीं जाए। ‘‘अल्लाह, कैसे दिन आ गए।‘‘ उन्होंने मन ही मन मरने वाली के लिए फ़ातिहा पढ़ा।

अली और फ़रहाद घर न जाकर सीधे खंडहर हो चुके मकान में जा पहुँचे। सुना था बम गिरने से सोते हुए लोगों के चिथड़े उड़ गए थे। ऊपर की मंज़िलें नीचे वालों पर आ गिरी थीं और आह तक भरने का समय दिए बग़ैर मौत निगल गयी थी उस मकान की हँसी। जो घर किसी की किलकारियों से गुलज़ार रहता था आज एक आहट तक के लिए मुन्तज़िर था। मकान की छतें थी नहीं, फ़र्श दरका हुआ था। जाने कैसे दीवारें बची रह गयी थीं...कुछ निशानों के साथ। उसी मलबे के बीच जगह बनाते हुए फ़रहाद एक जगह आ ठहर गया। यह शायद खुला सहन रहा होगा।

‘‘अली तू उस कमरे से पतंग उड़ाना। मैं इस कमरे से।‘‘ फ़रहाद ने मकान को परखते हुए इशारा किया।

फ़रहाद की बात अली के लिए हुक्म। वो भागा दूसरे कमरे में।

दोनों ने जल्दी-जल्दी तंग डाली, डोर बाँधी और खुला छोड़ दिया पतंग को। वे आज कई दिनों बाद पतंग उड़ा रहे थे। लगता था जैसे पतंग नहीं वे ख़ुद उड़ रहे हों। उस समय उनके चेहरे की ख़ुशी कोई देखता तो दोनों को ढेर सारी दुआएँ दे डालता। कौन लोग हैं जो कहते हैं कि पतंग उड़ाना इस्लाम में गुनाह है, यह तो ख़ुदा के नज़दीक जाता रास्ता है। पतंग आसमान में पहुँचकर डोर की मदद से धूप दोनों के चेहरे पर छिड़क रही है। देखा नहीं...कैसा आईने की मानिंद चेहरा चम-चम चमक रहा है।

दोनों कुछ देर तक पतंग उड़ाते रहे कि एक वहशी शोर ने ख़लल डाला। ज़लज़ले-सा शोर, कानों को फाड़ता हुआ। वे डर गए...शायद कोई आ रहा है। उन्होंने झटपट डोर पतंग से अलग की और बाक़ी सामान उसी बड़े थैले में भरकर एक गड्ढे में डाल मलबे से भर दिया। नूर चचा ने कहा था जब भी ख़तरा महसूस हो यही करना। लालच मत करना...पतंग जाने देना।

पतंग जाने का अफ़सोस तो था पर फ़िलवक़्त ख़ौफ़ उस से बढ़कर था। धीरे-धीरे शोर बढ़ता हुआ उनके कान चीरने लगा। सैकड़ों लोगों की आवाज़ें। क्या ये भीड़ उनके पतंग उड़ाने की वजह से आ जुटी है? क्या उनका गुनाह इतना बड़ा था? भीड़ संगदिल होती है। फ़रहाद ने नन्हे अली को देखा। पहली बार उसे अली ख़ुद से छोटा लगा। उसने सरपरस्त की तरह उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया। अली...उसका प्यारा छोटा भाई। उसे कुछ नहीं होने देगा वो। उसकी आँखों का ख़ौफ़ पानी बनने लगा था। हिम्मत जुटा कर वे दबे पाँव चलते हुए मैदान के ओर वाली दीवार के पास आ गए। इतने लोग! सबके हाथ में पत्थर! सबकी आँखों में ख़ून उतरा था। उनकी नज़रों ने भीड़ की नज़रों का पीछा किया। एक औरत...औरत का चेहरा...ख़ून वहाँ भी था। दोनों जैसे वहीं जम गए। नज़रें फेरना चाहते हुए भी नहीं फेर पाए। भीड़...बेतहाशा भीड़। निगाहें फिसलते हुए कई चेहरों पर अटकी। क्या पहचाने हुए चेहरे भी भीड़ बन जाते हैं? पहला पत्थर एक बच्चे से फिंकवाया गया था। बच्चे ने डरते हुए पत्थर फेंका और हर ओर से पत्थरों की बौछार शुरू हो गयी। दोनों की पीठ में कुछ सरसराया फिर एक लम्हे में सब थम गया। खेल का मैदान मक़तल हो गया था।

फ़रहाद ने गीली आवाज़ में कहा। ‘‘चल।‘‘ एक बार फिर दोनों की हथेलियाँ गुँथी हुई थीं।

सारा रास्ता ख़ामोशी से बीता था। वे दौड़ना चाहते थे अपने घर के सुकून की तरफ़ लेकिन पैरों में जान न थी। एक मन ये भी चाहता था कि लौट कर देखें उस औरत का क्या बना लेकिन डर की ज़ंजीरों ने पैर बाँध लिए।

‘‘हम कभी पकड़े गए तो हमारे साथ क्या सुलूक होगा?‘‘ अली ने रास्ते में पूछा।

‘‘तू अब भी पतंग उड़ाना चाहता है अली?‘‘ फ़रहाद ने उसकी हथेलियाँ कस ली थीं।

‘‘तो हम कभी पतंग नहीं उड़ायेंगे?‘‘ ये सवाल था कि जवाब।

दोनों चुपचाप ख़ाली सड़क पर आगे बढ़ते रहे। घर पहुँचे तो अम्मी परेशान थीं। अब्बा शायद उन्हें ढूँढ़ने जाने के लिए तैयार खड़े थे। शीर अपने खिलौने लिए उनके इंतजार में थी। उन्होंने उस से वादा किया था कि आज उसे एक नया खेल सिखायेंगे।

‘‘कहाँ गए थे बग़ैर बताये? दुकान सँभालने को कहा था न?‘‘ हामिद की आवाज़ में गुस्से के नीचे फ़िक्र दबी थी।

‘‘इतनी देर तक बाहर रहना ठीक नहीं‘‘ अबकी बार अफ़शीन थी। उनकी नर्म अम्मी की आवाज़ ऐसी थी जैसे तलवे जलकर छालेदार हो गए हों।

‘‘माहौल ठीक हो जाए फिर खूब घूमना। जानते हो न कई बातों पर पाबंदी है और पकड़े जाने पर सख़्त सजा।‘‘ हामिद ने बात सीधे न कह घुमा कर कही। अब्बा की यही आदत थी लेकिन वो घुमाई हुई बात भी इतनी साफ़ होती कि सीधी बात भी क्या होती होगी। इन मिली-जुली नसीहतों के बीच वे अभी कुछ देर पहले देखे मंज़र को सोच रहे थे। वे अम्मी-अब्बा से इस बाबत बात करना चाहते थे लेकिन ये जानने पर कि वे दोनों इतनी देर तक कहाँ थे अम्मी-अब्बा बहुत नाराज़ होते। पाबंदियाँ लगतीं सो अलग।

उस रात वे ठीक से सो नहीं पाए। ख़्वाब में बिना धड़ की कोई ख़्वातीन आकर कभी हँसती, कभी रोती, कभी अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए चीखती थी। अगले कई दिनों तक वे गुमसुम रहे। कच्चा मन ज़ख़्म खा गया था।

सारे घर को जैसे एक चुप लग गयी थी। जैसे कोई काला साया सरसराता हुआ अपने मुँह से अँधेरा उगलता हुआ, पूँछ से उजाला पोंछता जाता था। अम्मी-अब्बा ख़ुद के ख़यालों में इतने मसरूफ़ कि उन दोनों की चुप्पी देख कर भी वे नहीं देख पाए। एक शीर थी, उसकी आवाज़ सबको कभी-कभी चौंका जाती।

(परछाई ज़र्द होने लगी थी।)





****







एक दिन नूर चचा दुकान पर आये...गोश्त लेने। वे कुछ और उम्रदराज़ लग रहे थे। उम्र के निशान चेहरे की सिलवटों पर नुमायाँ हो रहे थे। उन दोनों को दुकान पर देख एक मुस्कान उनके चेहरे पर तिर आई...एक पोशीदा मुस्कान। फुसफुसा कर उन्होंने कहा,

‘‘मैंने तुम्हारे लिए नयी पतंगें बनायीं हैं। कब आओगे?‘‘

अली और फ़रहाद ने एक-दूसरे को देखा। अब्बा की नज़रें बचा कर दोनों नूर अहमद के नज़दीक खिसक आये। ‘‘चचा अभी तो पहले वाली ख़त्म नहीं हुईं। मौका ही नहीं मिला।‘‘

‘‘अरे मियाँ, जल्दी करो। पतंग नहीं उड़ाओगे तो पतंगबाज़ी के सिरमौर कैसे बनोगे। तुम्हें क्या लगता है ये दिन हमेशा रहने वाले हैं? अजी नहीं, जल्द ही सब ख़त्म हो जाएगा और काबुल का आसमान पतंगों से भर उठेगा। रियाज़ है ये रियाज़...जारी रखो छोटे मियाँ। हमारी उम्र होती तो हम जाने कितनी पतंगों की कुर्बानी दे चुके होते।‘‘ कहते-कहते उनकी साँस भर आई थी। हामिद ने इधर देखा तो चुप हो गए। चलते-चलते दोनों के कानों में जैसे मन्त्र फूँका, ‘‘सुनहरी बाज़ बना रहा हूँ।‘‘

सुनते ही दोनों के कान खड़े हो गए। बाज़...अफ़गानिस्तान का क़ौमी परिंदा। पतंग के शौकीन दीवानावार इस पतंग को चाहते हैं। बहुत क़ीमती होता है। किसी ख़ास दिन, ख़ास वजह होने पर लोग इसे उड़ाते हैं।

उसी शाम दोनों ने दूर...बहुत दूर, चींटी-सी पतंगें उड़ती देखीं। शायद उनकी तरह कोई ख़ब्त का मारा रहा होगा। उनका डर कुछ खुला। घर लौटते वक़्त दोनों ने उस खंडहर का रुख़ किया। अब्बा की तरफ़ से इन दिनों कुछ ढिलाई थी इसलिए उनकी चिंता न थी। जल्दी-जल्दी मलबा हटाया तो थैले में बंद पतंगें बाहर आने को कसमसाने लगीं। तय तो ये किया था कि एक-दो दिन बाद जब फ़ुरसत होगी तब पतंग उड़ायेंगे लेकिन ढलते सूरज में चम-चम करती पतंग और मद्धम बहती हवा के संगीत ने दोनों को वहीं रोक लिया। पतंग झट रिहा होकर सर्र से आसमान में जाकर रक़्स करने लगी। दोनों की माहिर उँगलियाँ डोर को थामे थीं। इतने दिनों का तनाव बह गया था। दोनों पतंग उड़ाने में इस क़दर डूबे थे कि पास आती बूट की थाप दोनों को सुनाई न दी। वे आज इबादत में जो थे। सच्ची इबादत में कहाँ कुछ ख़लल डाल पाता है। फिर अचानक, इतना अचानक कि न डोर तोड़ने की मोहलत मिली न छिपने की, न भागने की।

‘‘तो ये हैं हुक्मउदूली करने वाले बेअदब बच्चे। पकड़ लो इन्हें।‘‘ तब्दीली के दौर से गुज़र रही एक मोटी आवाज़ बोली।

अली और फ़रहाद दो क़दम पीछे हट गए। ‘‘नमाज़ से वक़्त चुराकर ये बेहूदा काम करते हो।‘‘

किसी ने फ़रहाद के बाल पकड़ कर झटके से उसे आगे घसीट लिया। सर पर एक भारी हाथ पड़ा तो उसका सर घूम गया। वो किसी तरह ज़ब्त किये खड़ा रहा। अबकी बार एक हाथ अली की ओर बढ़ा। अली सहम कर और पीछे हुआ तो एक पैर गड्ढे में चला गया। मीज़ान बिगड़ा और अली पीठ के बल गड्ढे में जा गिरा। उसे सब अपनी पहुँच से दूर और बहुत ऊँचा नज़र आ रहा था। फ़रहाद उसे ऐसे देख आगे बढ़ने को हुआ कि एक तमाचा उसके गाल पर पड़ा। वह वहीं थम गया। अली अन्दर ही अन्दर डर रहा था लेकिन उस डर को उसने ज़ाहिर नहीं होने दिया। वह खड़े होने की कोशिश में था कि मिट्टी का एक रेला उसकी आँखों से आ टकराया...फिर दूसरा और तीसरा भी। उसने आँखों को अपनी छोटी हथेलियों से ढक लिया। मिट्टी के गिरने और उन लोगों के हँसने के बीच किसी एक छोटे से लम्हे में उसने देखा काली पगड़ी पहने मिट्टी फेंकने वाला शायद उम्र में सबसे छोटा रहा होगा। उसे खेल के मैदान में पत्थर फेंकता लड़का याद आया। हाँ, यह वही तो था। वही दोनों मुट्ठी भर उस पर लगातार मिटटी फ़ेंक रहा था। ऐसा करते हुए उसके चेहरे पर वैसी ही मुस्कराहट थी जैसी अली के चेहरे पर शरारत करते वक़्त होती है।

‘‘अल्लाह ने अपने आप सज़ा दे दी तुम्हें।‘‘ हँसते हुए एक आदमी ने अपनी बड़ी मूँछें खुरचते हुए कहा।

‘‘तुम्हारे वालिदैन को मालूम हैं तुम्हारे कारनामे?‘‘ उसने अपने बूट से फ़रहाद के कूल्हे पर निशाना साधा। फ़रहाद आगे की ओर गिरने को हुआ लेकिन सँभल गया। उसकी निगाहें लगातार अली पर जमी हुई थीं। अली के सिसकने की आवाज़ आ रही थी। वह बार-बार अपने मुँह पर से मिट्टी हटाने की कोशिश में और मिट्टी लगा ले रहा था। उसके बाल, कपड़े सब मिट्टी से भर गए थे। मिट्टी फेंकने वाले ने मिट्टी फेंकना बंद कर दिया था। अब उसकी दिलचस्पी फ़रहाद में थी। फ़रहाद के गाल पर हाथ के निशान उभर आये थे। उस गाल को सहलाने की इच्छा होते हुए भी उसने हाथ हिलाया तक नहीं। उसे डर था कि हिलते ही कहीं इन सबको उसका होना याद न आ जाये। लेकिन वे भूले कहाँ थे। मिट्टी फेंकने वाले लड़के ने कुछ क़दम पीछे लिए जैसे एक साँड़ हमला करने से पहले लेता है। फिर तेज़ी से भागते हुए अपना सर फ़रहाद के पेट में घुसा दिया। फ़रहाद का सर एक पत्थर से टकराया। वह दर्द से बिलबिला उठा।

‘‘आआअह्हह्हह‘‘ उसकी चीख से शाम सहम गयी।

अली फ़रहाद के सर से बहता ख़ून देख जोर से रो पड़ा। ‘‘चूज़े चुप हो जा।‘‘ किसी ने उसे गर्दन से पकड़ कर बाहर निकाल कर बेरहमी से पटक दिया। वह फ़रहाद की बगल में जा गिरा। वो होश में नहीं था। उसने फ़रहाद की नाक के आगे हाथ लहराया। साँस चल रही थी। उसकी इस हरकत पर सबसे लम्बा शख़्स हँस पड़ा,

‘‘मौत इतनी आसानी से नहीं आती। बड़ी ज़द्दोज़हद करनी होती है। बहुत दर्द सहना होता है।‘‘ कहते हुए उसने अपने बूट की एड़ी से उसके हाथ की उँगुली दबा दी। अली चिल्ला उठा। लगा जैसे किसी ने ज़िंदा जिस्म में नमक लगे तीर भोंक दिए हों।

‘‘मौत का दर्द इस से कई गुना ज़्यादा होता है।‘‘ कहते हुए उसने दबाव और बढ़ा दिया। रोकते-रोकते भी अली की आह निकल गयी। ‘‘भाई से बहुत मुहब्बत है न? सुबूत दे। कितना भी दर्द हो, आवाज़ नहीं निकालनी चाहिए। इधर तू चिल्लाया उधर उसका सर फाड़ देंगे।‘‘ कहते हुए एक ख़ंजर उसकी आँखों के आगे लहराया। आदमी उँगलियों को बूट की नुकीली नोक से यूँ मथ रहा था जैसे छाछ मथी जा रही हो। अली की कोमल उँगलियाँ छिलने लगीं लेकिन डर से वो चुप रहा। फ़रहाद को कैसे कुछ होने दे सकता है वो। सबकी निगाहें उस पर थीं जैसे किसी मुक़ाबले में खिलाड़ी सबकी निगाहों की ज़द में रहते हैं। वो खिलाड़ी था और मुक़ाबला था दर्द और सब्र का। सबको इस दिल्लगी में मज़ा आ रहा था कि अचानक उस आदमी का सैटेलाइट फ़ोन बज उठा। दूसरी तरफ़ से कुछ कहा जा रहा था। सबकी तवज्जो अब इस ओर थी। आदमी ने अपना पैर उसके हाथ पर से हटा लिया था।

‘‘चलो फ़ौरन निकलना होगा।‘‘ आदमी ने मसरूफ़-सी आवाज़ में कहा।

‘‘और हाँ, तुम दोनों...इस दफ़ा बच गए हो। अगली दफ़ा ऐसी ख़ुशक़िस्मती हो न हो… ख़याल रखना।‘‘ कहते हुए उसने वहीं थूक दिया।

उनके जाते ही अली किसी तरह उठ खड़ा हुआ। अपने दर्द को दरकिनार कर वो फ़रहाद के पास पहुँचा और उसे हिलाने लगा। जब कोई हरकत नहीं हुई तो वो बेलगाम रो उठा।

‘‘फ़रहाद, फ़रहाद...‘‘ उसे अपनी आवाज़, कहीं दूर से आती हुई किसी और की आवाज़ लगी। भीगी, डूबी, लरज़ती आवाज़।

कुछ लम्हों बाद जो जाने कितने लम्बे थे, फ़रहाद ने आँखें खोलीं। अली को रोता देख हाथ बढ़ाकर उसे ख़ुद से लिपटा लिया। दोनों लिपट कर रोये। रोये कि दर्द था, डर था और उन सबसे बढ़कर एक-दूसरे के लिए मुहब्बत थी।



अज़ान सुनाई दी। मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो चला था। दोनों ने एक-दूसरे का सहारा लिया और खड़े हो गए। फ़रहाद के सर पर ख़ून जम चुका था। अली ने पूछा,

‘‘बहुत दर्द है?‘‘

दर्द था लेकिन फ़रहाद ने न में गर्दन हिला दी।

‘‘देर हो गयी। अम्मी-अब्बू इंतज़ार में होंगे।‘‘

अली ने उसके माथे की तरफ़ इशारा किया कि ये साफ़ भी करना है। फ़रहाद की नज़र उसकी उँगलियों पर गयी तो उसे झटका लगा। जिल्द के नीचे से माँस झाँक रहा था। बाकी जगह जिल्द बेरंग होकर लटक रही थी। ओह, इतने छोटे बच्चे पर भी रहम नहीं किया उन लोगों ने। वो अचानक ख़ुद को बड़ा और इन सब बातों के लिए ज़िम्मेदार महसूस करने लगा। उसने रुमाल निकाल कर अली की उँगलियों को उसमें लपेट दिया।

‘‘हम अब पतंग नहीं उड़ायेंगे। वे लोग सच में ख़तरनाक हैं।‘‘ फ़रहाद धीरे से बुदबुदाया। ‘‘जब सब ठीक हो जायेगा, तब देखेंगे।‘‘

‘‘हम नूर चचा को बता देंगे। वे इंतज़ार में होंगे न?‘‘ अली को बूढ़े नूर की चमकदार आँखें याद आयीं।

ये बच्चे किस मिट्टी के बने थे। अब भी इनकी सोच के दायरे में पतंग और नूर चचा ही थे। जहाँ बड़े-बड़े लोग झुक जाते हैं, वहाँ ये गिर कर ऐसे खड़े हो गए जैसे जो गुज़रा वो वहीं दफ़्न हो गया।

तभी बूट की आवाज़ सुनाई दी। आवाज़ सुन कर दोनों छुई-मुई के पौधे की तरह सिमट गए। क्या वे फिर आ रहे हैं? अब वे क्या करेंगे? दोनों के ख़याल अंधी सुरंगों में भटकते इस से पहले उनके सामने वह आ खड़ा हुआ था। वही जिसने अली पर मिट्टी फेंकी थी, फ़रहाद के पेट में सिर घुसा दिया था और जिसकी आँखें शरारती थीं। दोनों को ऐसे खड़ा देख वह फिर मुस्कुराने लगा। उन दोनों को यह दुनिया की सबसे वहशी मुस्कुराहट लगी।



‘‘पतंगों का ख़ज़ाना कहाँ है?‘‘

जिस माहौल में रहते हैं उसका असर आवाज़ों पर भी होता होगा। उसकी आवाज़ आतंक से सनी थी। सुनकर कोई भी ख़ौफ़ खा जाए। छोटा-सा बच्चा और यह तेवर। अली ने फ़रहाद को देखा। फिर उस लड़के को देखा। वह उस लड़के के साथ ठीक वही करना चाहता था जो उसने थोड़ी देर पहले उनके साथ किया था। कुछ कर गुज़रने की हिम्मत वह जुटाता इस से पहले ही ग़ुस्से से भरी उसकी आवाज़ आयी,

‘‘बताते हो या निशाना लगाऊँ?‘‘ उसके हाथ में भारी बन्दूक थी।

फ़रहाद ने उस ओर इशारा कर दिया जहाँ पतंगें छिपायी थीं। पतंगों के जाने का अफ़सोस था पर नूर चचा हैं न। वह लड़का कूदते हुए वहाँ जा पहुँचा। मिट्टी हटायी और पतंगों से भरा थैला उसके हाथ में था। पतंग छूते ही उसके तास्सुरात बदल गए थे। वह एक़दम ही शैतान से इंसान में तब्दील हो गया था। आँखों की सख़्ती, नरमी में बदल गयी थी और वह अचानक बच्चा बन गया था।

‘‘मुझे पतंग उड़ाना सिखाओगे?‘‘ आवाज़ में हुकूमत थी पर इस बार अन्दाज़ डराने वाला न था।

यह सुनकर अली और फ़रहाद बुरी तरह चौंक गए। अभी कुछ लम्हे पहले यही था जो उन्हें इसी बात की सज़ा दे रहा था। इस से ज़्यादा हैरत की बात उनकी ज़िंदगी में दूसरी न हुई होगी। वे ख़ामोशी से उसे देखते रहे जो उम्मीद से उन्हें तक रहा था।

‘‘बोलो, सिखाओगे?‘‘ वह चिल्ला कर पूछ रहा था।

‘‘नमाज़ का वक़्त हो गया। हमें जाना है।‘‘ वे किसी तरह अटकते हुए बोले और बग़ैर पीछे मुड़े भाग लिए। उन्हें उस पर ज़रा यक़ीं नहीं था। उनकी उम्र का है तो क्या, कितनी बेदर्दी से मारा था। अब्बा कहते हैं, दग़ा करने वालों की फ़ितरत दग़ा करना ही होती है। उन पर भरोसा नहीं करते।

मस्जिद में वजू के पानी से हाथ-मुँह धोकर जब दोनों घर पहुँचे तो तारीक़ी दिन का गला घोंट कर ज़ेहन में ही नहीं, गली में भी पाँव पसार चुकी थी। माहौल और मन दोनों ग़मगीन थे। उनका मन चाह रहा था कि यहाँ से किसी ऐसी जगह जाया जा सकता जहाँ ज़िंदगी तरतीब से तह की जा सके। किताबें, रंग, नाच-गाना,...उनकी ज़िन्दगी का भी हिस्सा हो। कहाँ होता होगा ऐसा? उनके लिए ऐसी दुनिया ना-क़ाबिल-ए-तसव्वुर हो चली थी। उनके ख़्वाबों का रंग उस रात से काला हो गया। ख़्वाब आते थे पर उनमें कुछ नज़र न आता।

(मैंने उन आँखों में उतर आये अँधेरे को देखा। बाहर चमकीली धूप थी, पतंगें थीं, ख़ुशी और किलकारियाँ थीं। उसी समय एक जोड़ी आँखें हादसों के पनीले वर्क़ में लिपटी थीं।)





****







उन्हें वह लड़का अब हर जगह दिखाई देता। काली पगड़ी में लिपटा छोटा-सा सिर हिलाते हुए वह दुकान के चारों ओर चक्कर काटता। वे किसी काम से बाहर आते तो उनके पीछे-पीछे चलता। पीछे मुड़ कर देखते तो आँखों से इल्तिज़ा करता। उसे उनके घर का पता भी मालूम हो गया था। काली पुती हुई खिड़कियों की दरारों से अली और फ़रहाद जब झाँकते तब उन्हें वह दिखाई देता। उसकी नज़रें उनको खोजती रहतीं और जब वे उसे दिखते, तवक्क़ो की एक लौ उनमें जल जाती। पतंगों वाला थैला हमेशा उसके बाएँ कंधे पर लटका रहता। हाँ, एक तब्दीली थी। अब उसके पास बन्दूक नहीं दिखाई पड़ती थी। अली और फ़रहाद हैरान-परेशान थे। कभी उनका सामना हो जाता तो वह उनसे पूछता,

‘‘बोलो, पतंग उड़ाना सिखाओगे?‘‘ अब्बू को मालूम हो गया तो वे दोनों मुश्किल में पड़ जाएँगे। गले पड़ गयी इस नयी मुसीबत से दोनों आजिज़ आ गए थे। शुरू दिनों में उसे देख दोनों को ग़ुस्सा आता था। वह ख़ौफ़नाक मंज़र उनकी आँखों में तैर जाता था। उस रोज़ उन दोनों में से किसी को कुछ हो जाता तो...!यह ख़याल दोनों के मन में जितनी बार आया, वे उतनी बार उस लड़के की ओर से निगाहें फेर लेते पर वह था कि पीछा ही नहीं छोड़ रहा था।

‘‘ज़िद्दी कहीं का‘‘ अपने मन में वे सोचते।

काली पगड़ी, काला कुर्ता और काला ही पाजामा वह हमेशा पहने रहता। अली और फ़रहाद को शक था कि वह कभी नहीं नहाता। एक दिन उन्होंने देखा कि उनके घर के पीछे वाली ख़ाली जगह में वह पतंग उड़ाने की कोशिश कर रहा है। पतंग दो-तीन हिचकोले खाकर गिर पड़ती। वह फिर उसे उठाता। इस बीच कई दफ़ा वह ख़ुद भी गिर पड़ा लेकिन पतंग ने उड़ान नहीं भरी। उसका नौसिखियापन देख वे हँस पड़े। कुछ देर उसकी कोशिश देखने के बाद वे उसके पास पहुँचे तो उसका चेहरा खिल गया। उसने अली को डोर पकड़ा दी।यह उन्हीं की पतंग थी। अली ने चुपचाप डोर थामी और समेट दी। उसे ऐसा करते देख वह रोने-रोने को हो आया।

‘‘मुझे पतंग उड़ाना सीखना है। सिखाओगे?‘‘ इस बार उसकी आवाज़ क़ायदे में थी।

‘‘तुमने उस दिन हमें इसीलिए मारा था। याद है कि भूल गए।?‘‘ अली का ग़ुस्सा बाहर आ ही गया। फ़रहाद ने उसका हाथ थाम लिया।

लड़का सिर झुका कर खड़ा हो गया। फिर कुछ सोचने के बाद बोला, ‘‘अच्छा तुम भी मुझे मारो। हिसाब बराबर हो जाएगा। फिर तो सिखाओगे?‘‘

फ़रहाद ने अली की उँगली उसके आगे कर दी। वहाँ अब भी माँस झाँक रहा था। देखकर लड़के के तास्सुर बदल गए। एहसास-ए-जुर्म ने उसको जकड़ लिया। उसने पत्थर उठा कर अली के हाथ में दे दिया। अली ने पत्थर फेंक दिया।

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?‘‘

‘‘मूसा।‘‘ वह धीरे से बोला। क्या यह वही लड़का है जिसका रवैया इतना वहशियाना था!

‘‘मुझे उन लोगों ने बहती नदी में पाया था।‘‘ उसने अपनी ज़िंदगी का ख़ुलासा एक जुमले में कर दिया।

‘‘बहती नदी में!‘‘ अली और फ़रहाद एक साथ बोले। ऐसी बात उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थी।

‘‘हाँ, मैं बहुत छोटा था। मुझे कुछ याद नहीं है। ये बात मुझे उन लोगों ने बतायी है।‘‘ उनको मुतमईन करने के लिए वह फिर बोला,

‘‘उस रोज़ उन्होंने कहा था जितना अच्छा काम अंजाम दोगे उतना अच्छा खाना मिलेगा।‘‘

‘फिर क्या खाने को मिला? ‘‘ वे दोनों उस रोज़ की बात भूल कर दूसरी बातों में दिलचस्पी ले रहे थे।

‘‘खाना तो वही रोज़ वाला था पर उस दिन उन्होंने मुझे मेवे दिए। मैंने तुम्हारे लिए बचा कर रखे हैं।‘‘ उसने थैले में हाथ डाला और मेवे निकल कर उनके सामने कर दिए। अगले ही लम्हे अपने पिटने की एवज़ में दिए गए मेवे वे दोनों मूसा के साथ मिल-बाँट कर खा रहे थे।

‘‘मैं तुम्हें नहीं मारता तो वे मुझे बहुत मारते।‘‘ खाते-खाते वह अचानक बोला। ‘‘मैंने बचपन से अब तक बहुत मार खायी है। देखो...‘‘ कहते हुए उसने अपना कुर्ता उठा दिया। वहाँ ढेर सारे निशान थे। दोनों हैरत से वे निशान देख रहे थे। उनके अब्बा-अम्मी तो उन्हें बहुत प्यार से रखते थे। मूसा ने वे निशान ढँक लिए।

‘तुम्हारी एक छोटी बहन भी है न? मैंने उसे कभी-कभी देखा है।‘‘ मूसा ने बात बदल दी।

‘‘हाँ, है न। तुमसे भी छोटी। तुम कहाँ रहते हो?‘‘

‘‘यह बताने की इजाज़त नहीं है।‘‘ वह किशमिश चाटता हुआ बोला।

‘‘पतंग उड़ाने की इजाज़त है?‘‘

‘‘नहीं, है तो वो भी नहीं पर मुझे पतंगें बहुत अच्छी लगती हैं। इतनी अच्छी कि मैं जब भी उन्हें देखता हूँ उनके साथ उड़ने लगता हूँ।‘‘ मूसा की नज़रें फिर पतंग पर थीं।

‘‘हमें भी अच्छी लगती हैं पर उस दिन हमारा हश्र तुमने देखा था। क्या वे तुम्हें बख़्श देंगे?‘‘ फ़रहाद उस दिन को याद कर काँप गया।

‘‘नहीं, वे किसी को नहीं छोड़ते। ग़द्दारों की सज़ा और भी भयानक होती है।‘‘

‘क्या करते हैं उनके साथ? ‘‘

‘‘मार देते हैं पर उस से पहले भयानक अज़ीयत से गुज़रना पड़ता है।‘‘ मूसा लम्हे भर के लिए बुत बन गया था। ‘‘जानते हो वहाँ बच्चों के खेलने पर सख़्त पाबंदी है। यूँ भी हम लोगों की उम्र नहीं गिनी जाती।‘‘

‘‘तो क्या तुम कभी नहीं खेलते?‘‘

‘‘कभी कोशिश की तो एक निशान बढ़ गया। इसलिए अब नहीं करता।‘‘

‘‘तो फिर पतंग उड़ाने की ज़िद क्यों? अगर पकड़े गए तो?‘‘

‘‘नहीं, इन दिनों वे लोग मसरूफ़ हैं। मैं चुपचाप निकल आता हूँ, नमाज़ का कहकर। वे अब मुझ पर यक़ीन करते हैं। मुझे अकेले आने-जाने की इजाज़त है। अगर कभी पकड़े गए, तब देखेंगे।‘‘



‘‘तुम तो बहुत बहादुर हो।‘‘ अली उस से मुतास्सिर था। ‘‘लेकिन यहाँ इस तरह ख़ुलेआम पतंग उड़ाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है।‘‘ फ़रहाद ने समझदारी दिखायी।

‘‘मुझे कुछ महफ़ूज़ ठिकाने मालूम हैं। वहाँ कोई नहीं आता-जाता। तुम दुकान से जब भी निकल सको हम वहाँ जा सकते हैं।‘‘

‘‘हमने तय किया है कि जब तक पाबंदी नहीं हट जाती तब तक हम पतंग नहीं उड़ाएँगे।‘‘ वह दिन अब भी उनकी याद में ताज़ा था।

‘‘उस रोज़ जो हुआ वह हर बार हो यह क्या ज़रूरी है? फिर तुम मेरे साथ रहोगे तो महफ़ूज़ रहोगे। मैं वायदा करता हूँ तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा। मैं अपनी बन्दूक लेकर आऊँगा। किसी से सामना हुआ तो उसे ऐसे उड़ा दूँगा।‘‘ हाथ का इशारा कर उसने जिस तरह कहा, अली और फ़रहाद हँस पड़े।

(आँखों का शशोपंज मद्धम पड़ गया था।)

***

तीनों हर शाम मिलने लगे। मूसा के पास शहर का नक़्शा था। उसने नक़्शे में उन्हें वे सारी जगहें दिखायीं जहाँ उनके कैम्प थे और जिन जगहों से उन्हें बच कर चलना है। उसने कुछ ऐसी जगहें भी दिखायीं जिन्हें वे लोग बेकार समझते हैं। वे उस तरफ़ कभी नहीं जाते। तीनों यूँ तरकीबें कर रहे थे ज्यों किसी मिशन पर निकलना है। पतंगबाज़ी के लिए उन्होंने पाँच महफ़ूज़ अड्डों की निशानदेही की थी। उन जगहों पर तक पहुँचने के रास्ते, ज़रूरत पड़ने पर वहाँ से जल्द-से-जल्द भागने के रास्ते सब उन्होंने तय किए थे।

अली और फ़रहाद उसकी दानिशमंदी से मुतास्सिर थे। इतनी होशियारी से नक़्शा पढ़ना वे स्कूल में भी नहीं सीख पाए थे जितना मूसा की संगत में सीख गए थे। मूसा ने उन्हें और भी बहुत कुछ सिखाया था। आहटों में फ़र्क़ करना, बच भागने के पैंतरे, छिपने के तरीक़े और बदले में वे मूसा को सिखा रहे थे भले लड़कों की आदतें और पतंग उड़ाना। दो मुख़्तलिफ़ दुनिया मिल गयी थीं, उनके बीच की लकीर मिट गयी थी। वे इस तरह घुल गयी थीं कि एक नयी दुनिया ईजाद हो गयी थी जहाँ मासूमियत थी और मुहब्बत थी और था जज़्बा।

‘‘तुम यह काली पगड़ी उतार नहीं सकते? इस से तुम अलग से पहचान में आ जाते हो?‘‘ एक रोज़ फ़रहाद ने कहा।

‘‘एक बार खोल दी तो वापस कैसे बाँधूँगा? और तुम चिंता क्यों करते हो? यह काली पगड़ी देख लोग कितना डरते हैं। कोई हमसे कुछ नहीं पूछेगा...‘‘ मूसा पगड़ी को छू कर उस छुअन को चूमते हुए बोला।

अली और फ़रहाद का एक मन उन्हें रोकता था और एक मन मूसा की सारी दलीलें मान लेता था। पतंग उड़ाने का जुनून इस हद तक था कि धीरे-धीरे दोनों मन उन्हें मूसा की ओर धकेलने लगे। मूसा भी तो उनमें कितनी दिलचस्पी लेता था। उनके अम्मी-अब्बू की, शीर की, उनके स्कूल की बातें बार-बार पूछा करता। उसका कोई घर न था इसलिए अली और फ़रहाद की बातों में उसने घर ढूँढ़ लिया था। अली और फ़रहाद उस से कुछ भी नहीं छिपाते थे। घर के हालात से लेकर घर में बनने वाले खाने तक हर बात मूसा को मालूम होती। खाना मूसा की कमज़ोरी थी। जिस रोज़ वे दोनों मूसा के लिए घर से कुछ ले आते उस दिन वो बहुत ख़ुश होता। कभी-कभी वो भी फ़रमाइश कर बैठता और अपने दोस्त की फ़रमाइश पूरी करने के लिए वे दोनों कोई कसर नहीं उठा रखते।

तीनों ने सोचा कि हर रोज़ पतंग ले जाने की बजाय एक दिन जाकर पाँचों ठिकानों पर पतंग और उसे से जुड़ा सामान छिपा दिया जाए जिस से हर रोज़ की क़वायद से वे बच जाएँगे। पकड़े जाने का डर भी नहीं रहेगा। तय हुआ नूर चचा से पतंगें ले आयी जाएँ। नूर चचा ने यूँ तो उन्हें पाबंद किया था कि किसी को न बताया जाए वे पतंग कहाँ से लाते हैं लेकिन मूसा तो उनका दोस्त था। उस को बताने में हर्ज़ नहीं था।

‘‘चचा नूर, नूर चचा।‘‘ जाने क्यों वो गली उस रोज़ से भी ज़्यादा ख़ामोश थी। परिंदा भी पर मारता नहीं दीख रहा था। जैसे कोई पोशीदा जिन्न गली पर सवार हो। जिन्न खड़ा हँसता था, गली के होंठ भी हँसी की शक्ल ले लेते। जिन्न चुप था, गली ने चुप्पी इख़्तियार कर ली थी। गली का अपना वजूद गुम गया था।

दरवाज़ा धीरे से धकेला तो खुल गया। अन्दर कोई नहीं था...शायद चचा कहीं नज़दीक ही गए होंगे। दीवार पर कोयले से पतंगों की शक्लें बनी थीं । पतंगों से बचे हुए रंगीन तुड़े-मुड़े नुचे हुए काग़ज़ एक कोने में पड़े थे। छत पर से कुछ धागे लटक रहे थे जिनके सिरे पर ज़रूर पतंगें रही होंगी। शायद बहुत दिनों से सफ़ाई नहीं हुई थी। वे हैरत से उस कोठरी को देख रहे थे जहाँ वे एक बार पहले आ चुके थे। उस रोज़ यहाँ नूर चचा थे तो वे कुछ और कहाँ देख सके थे। नूर चचा के नूर से लबरेज़ थी ये जगह उस रोज़। अपनी आँखों से देखने पर आज सब नया लगा। वे सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए इतने में खाँसते-खँखारते नूर अहमद आ पहुँचे। हाथ में पकड़ा पानी का बर्तन उन्होंने बच्चों की मदद से नीचे रखा। वह पहले से ज़्यादा बूढ़े और बीमार लग रहे थे पर उन्हें देख ख़ुश हो गए।

‘‘कितने दिनों बाद आए हो? मैंने तुम्हारे लिए बहुत-सी पतंगें बनायी हैं।‘‘ कहते हुए पतंगों का एक ज़ख़ीरा उनके आगे रख दिया। रंग-बिरंगी पतंगें धीरे-धीरे फड़फड़ा रही थीं ज्यों आसमान में पहुँचाने वाले हाथों को पहचान कर उनसे बात करने की कोशिश कर रही हों। मूसा बड़े शौक से एक-एक पतंग छू कर देख रहा था। नयी-कोरी पतंगों की ख़ुशबू उसके लिए नयी थी।

‘‘यह कौन है?‘‘ सिमट आयी आँखों से देखने की कोशिश करते हुए चचा ने पूछा।

फ़रहाद ने सारा क़िस्सा बयान कर दिया। चचा एक पल के लिए दोनों के लिए ख़ौफ़ से भर गए। उनके माथे पर बल पड़ गए। दोनों अपने भोलेपन में क्या कर बैठे!। उन्होंने पैनी निगाहों से मूसा को देखा जो पतंगों में डूबा हुआ था। है तो बच्चा पर इसकी तरबियत बहुत अलग है। अच्छा संग भी इसे अंदर से कितना बदल पाया होगा! लेकिन अगले ही पल उन्हें दोनों पर फ़ख़्र हुआ। अपने दुश्मन को दोस्त बना कर बग़लगीर कर लिया। बड़े-बड़े यह काम नहीं कर पाते। उन्होंने दुआ पढ़ी कि इस दोस्ती का एहतराम क़ायम रहे।

‘‘चचा आपकी तबियत नासाज़ लगती है।‘‘ अली ने उनकी बूढ़ी हथेली को सहलाते हुए कहा।

‘‘हाँ, बेटा अब उम्र हो चली है।‘‘ दम नहीं रहा इन हड्डियों में। उन्हें फिर खाँसी का दौरा पड़ा।

‘‘चचा, आपको अस्पताल ले चलें? एक दफ़ा डॉक्टर से मिल लेते हैं।‘‘

‘‘नहीं बेटा, ज़िंदगी भर अस्पताल नहीं गए। अब अस्पताल जाकर क्या करना है। जितना नसीब में लिखा है , उतने जी लेंगे।‘‘

‘‘चचा, आप अस्पताल नहीं जाना चाहते तो न सही, हम आपके लिए यहीं दवा ले आएँगे।‘‘ इतनी देर में मूसा पहली बार बोला। सुनकर चचा मुस्कुरा उठे। बच्चे के अहसास अभी तक मरे नहीं हैं।

‘‘हाँ चचा, मूसा हर काम में माहिर है। वह पलक झपके ही आपके लिए डॉक्टर भी बुला सकता है और दवा भी ला सकता है।‘‘ फ़रहाद भी मूसा का मुरीद हो चला था।

बहरहाल, चचा ने न दवा ली न अस्पताल गए लेकिन तीनों बच्चे रोज़ उनके पास आते रहे। जितनी बन पड़ती, चचा की मदद करते। चचा के घर की सफ़ाई करते, उनके लिए पानी भर कर लाते। खाना बनाना उनके लिए ज़रा मुश्किल था लेकिन मूसा यहाँ भी उनसे दो क़दम आगे था। छोटे-छोटे हाथों से फ़ुर्ती से आटा लगाता और तंदूर वाले से नान सिकवा लाता। तब तक चचा गोश्त तैयार कर लेते। उनकी तबियत इन बच्चों की सोहबत में सुधर गयी थी। नूर अहमद जिनका कोई नहीं था, जिसकी मौत भी उन्हीं की तरह अनाथ रह जाती, तीन छोटे बच्चों ने उस से निस्बत जोड़ कर उनकी बची हुई ज़िंदगी में रंग भर दिए थे। जिसके पीछे उसकी मय्यत उठाने वाला कोई न हो, उसे रोने को कुछ जोड़ी आँखें मिल गयी थीं यह सोचकर चचा की रूह को चैन मिलता था। वह तीनों से एक-सी मुहब्बत करने लगे थे।

एक दिन वे वहाँ पहुँचे तो छोटी-बड़ी कई पतंगों के बीच सुनहरी रंग के डैने फड़फड़ा रहे थे। वे लपक कर उस ओर गए।

‘‘मैंने बताया था न तुम्हारे लिए बाज़ बना रहा हूँ। फिर तबियत बिगड़ गयी थी। बाज़ बन जाएगा तब उड़ाओगे न?‘‘ चचा मुहब्बत से बोले।

‘‘यह भी पूछने की बात है चचा।‘‘ कहते हुए वे तीनों नूर अहमद से लिपट गए।

‘‘अच्छा सुनो, हफ़्ते बाद आकर बाज़ ले जाना। अभी इसमें कुछ काम बचा है। इस बाज़ को आसमान की बड़ी आस है।‘‘

जाते-जाते उन्होंने कहा था। ‘‘हिफ़ाज़त से रहना। किसी का यक़ीन मैला न हो।‘‘ सुनकर तीनों ने मन में ख़ुद से कोई वायदा किया था।

( आँखों में उम्मीद की मशालें थीं।)





****




‘‘तुम्हारी मुमानी जान की तबियत ख़राब है। हम उन्हें देखने जलालाबाद जायेंगे।‘‘ अब्बा जान की ख़ुरदुरी आवाज़ आई।






‘‘शाम तक लौट आयेंगे। तब तक तुम लोग कहीं बाहर मत जाना और शीर का ख़याल रखना।‘‘ एक दिन सुबह-सुबह अफ़शीन ने फ़रहाद को अफ़रा-तफ़री में जगाते हुए कहा। उन्होंने जल्दी-जल्दी दुपट्टा लेकर बुर्क़ा पहना और दुपट्टे का धानी रंग काले के भीतर छिप गया। दिन के इब्तिदाई हिस्से की नींद में डूबते-उतराते उसका मन चाहा अम्मी उसका माथा पहले की तरह चूम लें। पर इधर के कुछ बरसों में अम्मी बदल गयी हैं। उनकी नर्म-सी अम्मी तुर्श हो गयी हैं। एक शोख़ लड़की औरत में तब्दील होकर कई दफ़ा पहचान में नहीं आती। अम्मी का चेहरा ख़ाली कैनवस सा लगता है जिस पर अली रंग भर देना चाहता है। बगैर कोई ख़ाका खींचे बस रंगों की जुगलबंदी हो। वह जानता है उस एक चेहरे के रंगों में पूरा घर नहा जाता है।

अचानक उसे पुराने दिन याद आये। बहुत पुराने जब वो इतना छोटा था कि बातों का मतलब नहीं समझता था। पर उसे याद है कि अम्मी, अब्बा का चश्मा छिपा देती थीं जिस से अब्बा न टीवी देख पायें न अख़बार पढ़ पायें। अम्मी यूँ मासूम चेहरा बनाये रखतीं कि उन पर शक़ ही नहीं जाता। अब्बा फिर अम्मी के पास बैठ जाते और दोनों ख़ूब गप्प लड़ाते। अब्बा ने एक दिन अम्मी को रंगे हाथों पकड़ लिया था और उसे लगा था अब्बा अब अम्मी को ठीक वैसे डांटेंगे जैसे अम्मी कभी-कभी उन्हें डाँटती थीं। पर अम्मी-अब्बा हँसते-हँसते दुहरे हो गए थे और अब्बा ने अम्मी को सीने से लगा लिया था। यह क़िस्सा मूसा उनसे अनगिनत बार सुन चुका था।

अब अब्बा टीवी नहीं देखते, अख़बार पढ़ना भी इन दिनों छूट गया है। दुकान से लौटकर अम्मी के पास बैठे ज़रूर रहते हैं लेकिन बोलते कुछ नहीं। चुपचाप काली खिडकियों से बाहर न दीखती किसी चीज़ को देखते हैं। कभी-कभी उसे लगता है जैसे वे मन ही मन कुछ कहते हैं जो काँच से टकरा उन तक लौट आता होगा। उन्हें यहाँ कोई डर नहीं है, ज़ाहिर तौर पर तो नहीं, फिर भी वे डरे-से रहते हैं। शायद इसीलिए उन लोगों ने ऊँची आवाज़ में बात करना छोड़ दिया है। उनका घर फुसफुसाहटों से भर गया है।

वो अम्मी को, अब्बा को, शीर को बहुत ख़ुश देखना चाहता है। वो अपने वतन को तरक्क़ी करते देखना चाहता है। काश वो फ़रहाद और मूसा के साथ मिलकर सब बदल सकता। फ़रहाद के पास उसके हर सवाल का जवाब होता था पर कुछ बातों का जवाब अब उसके पास भी नहीं मिलता।

‘‘छोटे मियाँ, मुमानअतों से बुज़दिल डरते हैं। तुम तो शेर-ए-अफ़गन हो।‘‘

कभी नूर चचा के कहे गए ये लफ़्ज़ ज़हन में आज भी ताज़ादम थे। अली की नींद अचानक पूरी तरह खुल गयी।

हामिद और अफ़शीन जा चुके थे। जुम्मे का दिन था। मकतब के दिनों में ये छुट्टी का दिन होता था। अब फ़र्क नहीं था लेकिन आज का दिन कुछ अलग था। अरसे बाद वे घर में इस तरह अकेले थे। अकेले होते ही फ़रहाद और अली सर से सर जोड़कर कुछ तय करने लगे। नूर चचा की ख़्वाहिश पूरी करने का दिन आ गया था। कितने दिनों से इंतज़ार था।

‘‘लेकिन शीर...‘‘ सोती हुई शीर का सर सहलाते हुए अली कह रहा था।

‘‘उसे भी साथ ले चलते हैं। कितने दिनों से वो घर से बाहर नहीं निकली है।‘‘ फ़रहाद ने दोनों की ओर प्यार से देखा।

‘‘याद है हम उन दिनों खाना लेकर बाबर के बाग़ जाते थे। वहीं बैठ कर खाना खाते, दौड़ लगाते और पतंग उड़ाते थे।‘‘ अली पुराने दिनों में गोते लगा रहा था।

‘‘हाँ, लेकिन अब वहाँ पतंग उड़ाना नामुमकिन है। आज हम बाला हिसार के पीछे चलेंगे। वहाँ हमें कोई देख भी नहीं पायेगा और जैसे ही कोई आएगा, छिपने और भागने की जगह मिल जायेगी। मूसा ने कहा था वहाँ कोई झाँकता तक नहीं।‘‘

‘‘भाईजान, ख़तरे की बात तो नहीं है? शीर भी हमारे साथ होगी।‘‘

‘‘उनका ध्यान इन दिनों दूसरी तरफ़ है। इतनी अहम् बातों के बीच इस हक़ीर मसले पर कहाँ ध्यान देंगे वे। अभी उस रोज़ दुकान पर मैंने सुना था कि लोग पतंगबाज़ी करने लगे हैं। दबे-छिपे ही सही, लेकिन लोग हिम्मत कर रहे हैं।‘‘ फ़रहाद बड़े इश्तियाक़ से बोला था। ‘‘फिर मूसा भी तो हमारे साथ होगा।‘‘

मूसा के लिए उन्होंने आज बहुत-सी चीज़ें ले ली थीं। अम्मी जो नहीं थी आज देखने के लिए। नन्हें मगर मज़बूत हाथों से तीनों ने खाना बाँधा। ठीक उन दिनों की तरह जिनकी झीनी-सी याद शीर के पास थी। शीर ने जब से बाहर जाने की बाबत सुना था, वो चहक रही थी। अली को लगा जैसे बुलबुलें गा रही हों...उनका घर गुलिस्ताँ हो गया था। अली शीर की चोटी गूँथने में मसरूफ़ था और उधर फ़रहाद पतंगबाज़ी की तैयारी कर रहा था।

मूसा नीचे उनके इंतज़ार में था। जंग थी आज...नूर अहमद की ख़्वाहिश और हुक्मरानों के बीच। मुहब्बतों और नफ़रतों के बीच। एकदम ही सियाह काँच से रोशनी झाँकने लगी।

(आँखों से कोई सरफ़रोश झाँकता था।)





****







मौसम उस रोज़ साफ़ था, आसमान नीला, हवा में ज़ाफरानी महक घुली थी। बाला हिसार अपने सीने पर ज़ख़्म लेकर भी बेबदल खड़ा था। चारों बच्चे उस सुनसान जगह को अपनी किलकारियों से भर रहे थे। आहूचश्म शीर हैरानकुन हो खुली दुनिया से मुख़ातिब थी। उसने बुर्क़ा उतार फेंका और गहरी साँस भरी कि सारी हवा आज पीनी है। अल्हड़ हाथों से गुँथी चोटी हवा का लम्स पा खुल कर लहरा रही थी। फ़रहाद को अपनी बहन किसी किताब में देखे बादबान-सी लगी। मूसा उसे टकटकी लगाए देख रहा था। उसने पहली दफ़ा शीर को नज़दीक से देखा था। उसकी कोई बहन होती तो ऐसी ही होती। भाई होते तो अली और फ़रहाद से कम न होते। और अम्मी-अब्बू, उन्हें कभी न देखा था पर तसव्वुर में हामिद और अफ़शीन का चेहरा ही उभरता। वह कितने एहसासों से भर गया था।

फ़रहाद ने थैला खोला और क़रीने से रखे बाज़ को ज़मीन पर फैला दिया। दो दिन पहले वे तीनों नूर चचा से बाज़ ले आए थे मगर थैला आज ही खोला था। देखते ही चारों ख़ुशगवार हैरत से भर गये। इतना ख़ूबसूरत! बाज़ की आँख जैसे आग की लौ, बाज़ के पंख जैसे परवाज़ भरने को तैयार… कुछ देर में यह वाक़ई फ़लक को चूमने वाला था।

अली और शीर ने चुनी एक आसमानी पतंग। चारों ने ठीक से नाप-जोख कर दोनों पतंगों में तंग डाला। अब पतंगें तैयार थीं।

‘‘हम उस ओर जाते हैं‘‘ अली ने भूरे रंग की एक छोटी चरखी थामी। मूसा के हाथ में बड़ी चरखी थी।

‘‘मूसा, भाई जान के साथ ही रहना। बाज़ बहुत बड़ा है। उन्हें मदद की ज़रुरत होगी।‘‘ पीछे मुड़कर अली चिल्लाया। मूसा ने ख़ुशदिली से उसकी ओर हाथ हिला दिया।

मूसा ने फ़रहाद के साथ चरखी सँभाली और फ़रहाद ने अपनी सारी ताक़त लगा दी बाज़ को आसमान तक पहुँचाने में। पतंग बहुत बड़ी थी इसलिए शुरू में सँभालने में ज़रा मुश्किल आई लेकिन एक दफ़ा वो ऊपर पहुँची तो सारा वज़न डोर ने ले लिया। फ़रहाद की मज़बूत बाज़ुओं को अब पतंग पंख-सी हलकी लग रही थी।

बाज़ आसमान में कुलाँचें भर रहा था। नीचे से अचानक कोई देखे तो वह परी-कथाओं से निकला, आग उगलने वाला, बड़े डैनों वाला पंछी नज़र आता था। सूरज की रोशनी में उसका सुनहरी रंग और गहरा गया था। उसकी शान देख, नीचे खड़े चारों बच्चों की आँखें चुँधिया गयीं। अली और शीन कुछ देर उसे ताकते रहे। फिर सारा ध्यान अपनी पतंग पर लगा दिया। बाज़ के सामने उसकी क्या बिसात। आज तो वो सिर्फ़ रिवायत के लिए पतंग उड़ा रहा है। नूर चचा ने कहा था बिना मुक़ाबले के पतंगबाज़ी यानी शान में बट्टा।

फ़रहाद साजिंदा, डोर साज और पतंग सुर थी। कुछ देर बाज़ आसमान में मौसिक़ी बन तैरता रहा। सबका ध्यान उस ओर ही था। अभी एक-एक कर सबकी बारी आने वाली थी। उनके लिए बाज़ का तर्जुमा होता था उनकी आपसी मज़बूती, उनके वतन की लम्बी ख़ुशहाल ज़िंदगी और उनके दरमियाँ की मुहब्बत।

अचानक हवा का रुख़ बदला कि बाज़ के पंख डूबने लगे। अली हैरान...ये कैसे मुमकिन है। उसने पतंग नहीं काटी, आसमान में कोई और पतंग है नहीं। फिर! क्या भाईजान और मूसा पतंग नहीं सँभाल पाए। वो एक अनजान अहसास से घिर गया। शीर का हाथ थामे वह दूसरी ओर पहुँचा तो दंग रह गया। वे चारों ओर से घिरे हुए थे। इतने छोटे बच्चों के लिए इतनी बड़ी फ़ौज। उसने फ़रहाद को देखा जिसके चेहरे पर बाज़ के जाने का ग़म और पकड़े जाने का डर दोनों थे। वह सिर झुकाए खड़ा था। अली की आँखों में खेल का मैदान तैर गया। उसकी आँखें बाज़ की आँखों से कम नहीं लग रही थी। बाज़ की आँखों की ललाई उन आँखों में नज़र आ रही थी। नहीं, उनके साथ वैसा कुछ नहीं होगा। लेकिन ये लोग यहाँ आए कैसे? मूसा ने तो कहा था यहाँ कोई नहीं आता। क्या मूसा का हिसाब-किताब ग़लत ठहरा था? लेकिन मूसा, मूसा कहाँ है! बाला हिसार के ज़ख़्मों में अभी कुछ और ज़ख़्म जुड़ने बाक़ी थे लेकिन वो बेख़बर आँख बंद किये खड़ा रहा।

अली की आँखें उन लोगों का पीछा करते हुए मूसा पर ठहर गयी। मूसा उन लोगों के साथ खड़ा था। उसकी बन्दूक उसके हाथ में थी। इतने मुश्किल समय में भी अली मुस्कुरा उठा। उनका बहादुर मूसा। इतनी बड़ी फ़ौज के सामने खड़ा है। उन्हें पहला दिन याद आया जब मूसा ने बन्दूक से इशारा करके दिखाया था और वे तीनों हँस पड़े थे। क्या मूसा उनका सामना कर पाएगा? नहीं उन्हें यहाँ से निकलना होगा। कोई जुगत लगानी होगी नहीं तो वे पीट-पीट कर सबको अधमरा कर देंगे। उसे मूसा के जिस्म के निशान याद आए। वे तो फिर भी झेल जाएँगे लेकिन बेचारी शीर... सोचकर उसकी साँस थम गयी। मासूम और नाज़ुक शीर...उसने कस कर शीर को चिपटा लिया।

वह सोच रहा था आगे क्या करना है कि मूसा की चीख सुनाई दी। एक आदमी ने उसे कस कर लात मारी थी। मूसा की बन्दूक उसके हाथ से छूट गयी और वह नीचे गिर पड़ा था। उसकी आँखों में क्या था अली नहीं देख पाया पर मूसा की डरी हुई आवाज़ सुनाई उसे सुनाई दी,

‘‘मैं सच कहता हूँ मैं इन लोगों के साथ नहीं हूँ। मुझे इनके मंसूबों की ख़बर हो गयी थी इसलिए इनका पीछा करते चला आया। मैं ग़द्दार नहीं हूँ।‘‘

सुनकर अली और फ़रहाद के पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गयी। उन्हें यक़ीन नहीं आया कि यह उनका मूसा है। नहीं, नहीं मूसा उन्हें बचाने के लिए ज़रूर कोई चालाकी कर रहा है। उन्होंने मूसा को नज़र भर कर देखा कि कहीं कोई इशारा मिले पर मूसा ने उनसे निगाह नहीं मिलायी थी। वह घुटनों पर गिरा उनसे गुज़ारिश कर रहा था कि इन बद्तमीज़ बच्चों को भरपूर सज़ा मिलनी चाहिए। मूसा के साथ बिताए लम्हे अली और फ़रहाद की निगाह तले दम तोड़ रहे थे। वो सच था कि ये सच है? एक लम्हा दोस्त होकर, दूसरा लम्हा कोई दग़ा कैसे कर सकता है? नहीं, उन्हें उस पर शुबहा नहीं करना चाहिए। आख़िर को उनकी थाली का नमक एक है। मूसा ने कहा था वह मरते दम तक उनका साथ देगा। वो कोई न कोई तरकीब ज़रूर निकाल लेगा। उन्हें अपने दोस्त की मुहब्बत पर अब भी यक़ीन था। अली, फ़रहाद और शीर एक दूसरे से सटे खड़े थे। अगले लम्हे से नावाक़िफ़, यक़ीन और नायक़ीनी के दरमियाँ, फिर भी उम्मीद से भरे। तभी मूसा ने नीचे से बन्दूक उठायी थी और उनकी आँखें पुरसुकून हो गयी थीं। अपनी दोस्ती पर उन्हें नाज़ हो आया था। मूसा उन्हें यहाँ से निकाल ले जाएगा। लेकिन नहीं, यक़ीन मैला हो गया था।

कुछ देर पहले जिन शक्लों में उसने अपने अनदेखे ख़ानदान का तसव्वुर किया था, उसे वो अपने हाथों से मिटाने वाला था। उसकी रूह लम्हे भर को काँपी पर फिर उसने आँखें बंद कर लीं। उसकी बुज़दिली उसे ज़िंदगी भर सज़ा देगी, उसे मालूम नहीं था। वह तमाम ज़िंदगी आईना देखने से घबराएगा, वह कहाँ जानता था। एक जीता-जागता शख़्स अचानक गुम होकर अपने पीछे इस जहान में कितनी वीरानी रख जाता है, वो ज़िंदगी भर महसूस करेगा। बची हुई ज़िंदगी वह पतंग के मेलों में अली और फ़रहाद की सूरत देखने को भटकेगा इसका इलहाम उसे होता तो शायद वह उस दिन जिस्म पर मिलने वाले निशानों से नहीं घबराता। उस अज़ीयत से घबराकर उसने जो फ़ैसला लिया था, उसकी रूह को हमेशा के लिए ज़ख़्मी कर देने वाला था।



पिछली दफ़ा का ईनाम मेवे थे, इस दफ़ा ईनाम में मूसा को ख़ुद की ज़िंदगी मिली।

(आँखें स्याह हो गयी थीं।)





****







मेरे सामने बैठे शख़्स की निगाह दूर कहीं उफ़ुक़ पर अटकी थीं। मैंने उनकी गर्म हथेली को अपनी हथेली में भींच लिया। मेरी आँखों में दर्द का दरिया उफन रहा था लेकिन उनकी आँखों में सिवा तिश्नगी के कुछ नहीं था।

‘‘आप कौन हैं?‘‘

‘‘बरसों हुए मैं अपना नाम नहीं लेता। फिर भी आप चाहें तो मुझे दग़ाबाज़ पुकार सकती हैं।‘‘

उनकी आँखों में दूर कहीं अली और फ़रहाद के कहकहे थे। शीर के लम्बे सुनहरे उड़ते बाल थे। वतन की ख़ुशबू थी। वह मरा हुआ आदमी अपनी आँखों के भीतर कुछ लोगों को ज़िंदा रखे था।



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#पत्र_शब्दांकन | जिस सच में फंतासी की जगह न हो, वह जीने लायक नहीं होता — मृदुला गर्ग



#पत्र_शब्दांकन: मृदुला गर्ग 

नया ज्ञानोदय, सितम्बर २०१९ कथा-कहानी विशेषांक आदि पर

कहते हैं फंतासी को चारों पैरों पर खड़ा होना चाहिए वरना न फंतासी रहती है, न सच...

कहानी 'नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियां')  मैने 'नया ज्ञानोदय' में ही पढ़ ली थी। बहुत ही शानदार कहानी है। सच और फंतासी का ऐसा ज़बरदस्त तालमेल कम ही पढ़ने को मिलता है। मैं यथार्थ नहीं सच कह रही हूं। फुच्चू मा'साब का गांव का फंतासी मिला सच उनकी ज़िंदगी का आधार है क्योंकि जिस सच में फंतासी की जगह न हो, वह जीने लायक नहीं होता बस यथार्थ होता है। शहर का सच जिससे उनका पाला पड़ता है, उनकी कल्पना और गांव के सच दोनों से बीहड़ है। औरों के सच से फ़र्क़ है क्योंकि उसमें दोनों में से किसी की जगह नहीं है। औरों के लिए शायद उनकी फंतासी और चाहत के सच की जगह हो। उनके लिए नहीं है तो वह सच उनकी जान ले कर रहता है। कहानी इतनी संवेदनशीलता से कही गई है, उसमें कोई खलनायक नहीं है कि कैंसर जैसी बीमारी का होना भी अति नहीं लगता।




कहानी 'तीसरे कमरे की छत, पांचवीं सीढ़ी और बारहवां सपना', जिसमें नदी घग्गर के किसी जन्म में एक मिथकीय क्लीशे के अंतर्गत राजकुमारी थी जिसे गरीब गायक से प्यार था और उसे राजा की बिना खाये पिये 15 दिन तक गाते रहने की शर्त पूरी न करने पर मौत की सज़ा दी गई थी, एक आरोपित फंतासी है। आपने उसमें प्रकृति की तकलीफ की बात  कही थी, उसके साथ मुझे दिक्कत यह थी कि प्रकृति की तकलीफ उसमें बनाई गई मिथ भर है। नदी की प्रकृति ,प्रकृति में उस की जगह, मनुष्य के जीवन में उसकी अहमीयत  के बारे में कोई संकेत तक नहीं है।  कहानी जब ऐसी चीज़ों का ज़िक्र करती है जैसे पांचवी सीढ़ी, बारहवा सपना आदि तो वे मात्र चमत्कारिक लगती हैं । उनके वह होने से कोई फर्क नही पड़ता। जैसे सीढ़ी कहा गया कि पांचवी थी। छठी या तीसरी या नवी होती तो क्या फ़र्क़ पड़ता, छत तीसरे कमरे की हो या चौथे की, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता बस ऊँचाई पर छत होनी चाहिये। सपना बारहवां था या ग्यारहवा या तेरहवां क्या अंतर है? कहानी में जब इतनी शिद्दत से गिनती गिनाई गई हो तो कोई तुक होनी चाहिए उनके पीछे वरना महज़ दिखावे का  एक चालू हस्तेक्षेप लगता है। जहाँ तक फेमिनिज़्म का सवाल, वह तो कोई कही भी देख सकता है वरना अविष्कार कर सकता है। उसका कहानी से नहीं पाठक के मन से ताल्लुक है, बस।

कहते हैं फंतासी को चारों पैरों पर खड़ा होना चाहिए वरना न फंतासी रहती है, न सच । जैसा मैंने कहा सच में फंतासी की भरपूर जगह होती है पर जब फंतासी ही कथा का बोझ न उठा पाए तो सच कैसे जन्मेगा भला? पर्यावरण पर सटीक कहानी पढ़नी हो तो इसी अंक में प्रलय में नाव पढ़िए। इधर उधर भटक कर सबकुछ कहने के मोह के बाबजूद कहानी दमदार है ,ऐसी फंतासी जो दरअसल सच पर आधारित है।

दर असल उस विशेषांक में कई यादगार कहानियाँ हैं। दिव्या विजय की यारेगार  भी रोंगटे खड़ी करने वाली
कहानी है पर इतनी निर्मल भाव से कही हुई कि आतंक के भयावह माहौल के बावजूद खलनायक से भी उनसियत हो जाती है। था तो बच्चा ही न? आतंक के बीच पल रहा बच्चा। उस पर बाकी बाद में जब आप उसे शब्दांकन में छापेंगे।


मृदुला गर्ग
२२ सितम्बर २०१९

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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रवीश कुमार के सम्मान से चिढ़ क्यों! — प्रकाश के रे #RavishKumar


आइटी सेल’ मानसिकता का विषाणु उदारवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की पक्षधरता का दावा करनेवाले के मस्तिष्क को भी संक्रमित कर रहा है — प्रकाश के रे

सम्पादकीय

रवीश कुमार के सम्मान से चिढ़ क्यों!

— प्रकाश के रे



पिछले महीने जब रवीश कुमार को पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्रतिष्ठित रेमन मैगसेसे सम्मान देने की घोषणा हुई, तो देश में बड़ी संख्या में लोगों को प्रसन्नता हुई. कई मामलों में उनसे असहमति रखनेवाले लोगों ने भी इसे उचित सम्मान बताया. यह स्वाभाविक ही था कि उनकी निंदा और उनसे अभद्रता करते रहनेवाले समूह ने इस समाचार पर भद्दी टिप्पणियाँ की, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से कुछ ऐसे लोगों ने भी रवीश कुमार को प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर भला-बुरा कहना शुरू कर दिया, जो स्वयं को उदारवादी, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्यायवादी कहते हैं. इनमें लेखक और पत्रकार भी शामिल थे. यह सिलसिला अभी थमा नहीं है. ऐसी टिप्पणियों में रवीश कुमार की पत्रकारिता को ‘सवर्णवादी सत्ता के लिए सेफ़्टी वॉल्व’ की संज्ञा दी गयी. मैगसेसे सम्मान के प्रशस्ति पत्र में रवीश कुमार की पत्रकारिता के लिए उल्लिखित ‘वॉयस ऑफ़ वॉयसलेस’ पर खीझ निकाली गयी और व्यंग्यवाण छोड़े गए. इन सबसे भी मन नहीं भरा, तो तसल्ली के लिए मैगसेसे फ़ाउंडेशन और सम्मान में रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के अनुदानों पर प्रश्न उठाते हुए कहा गया कि ऐसे अनुदानों और सम्मानों के पीछे ‘एजेंडा’ होता है. यह भी कहा गया कि भारत की पत्रकारिता की चिंता छोड़कर फ़िलीपींस अपने यहाँ पत्रकारिता और पत्रकारों पर संकट की परवाह करे.

विनोबा, जयप्रकाश नारायण, आम्टे परिवार, मदर टेरेसा, महाश्वेता देवी, सत्यजीत रे, बीजी वर्गीज़, एमएस सुब्बालक्ष्मी, चण्डी प्रसाद भट्ट, अरुणा रॉय, पी साईनाथ, शांता सिन्हा, बेज़वाड़ा विल्सन, टीएम कृष्णा और इस सम्मान से सम्मानित अन्य कई भारतीयों की तरह रवीश कुमार भी बेहतर भारत बनाने का ‘एजेंडा’ जारी रखें.





फ़ाउंडेशनों, सम्मानों और सम्मान पानेवाले की आलोचना कोई नयी बात भी नहीं है और ऐसा करना अनुचित भी नहीं है. लेकिन, यह सब आलोचना के दायरे में होना चाहिए, न कि कुंठा निकालने या विषवमन करने के लिए. और, ऐसा करते हुए मानदंडों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. हालांकि वर्षों से उनके कार्यक्रमों को देखनेवाले, उनके लेखों को पढ़नेवाले और उनके भाषणों को सुननेवाले अनगिनत लोग इससे भली-भाँति परिचित हैं. पर ऐसी टिप्पणियों का विश्लेषण करने से पहले रवीश कुमार की पत्रकारिता और हमारे समय और इस पेशे के लिए उसके महत्व को यहाँ रेखांकित करना आवश्यक है.


द न्यू रिपब्लिक’ के 08 जून, 1992 के अंक में अमेरिकी पत्रकार कार्ल बर्नस्टीन ने वाटरगेट प्रकरण के बाद की पत्रकारिता पर एक लेख लिखा था. उसका शीर्षक था- ‘द इडियट कल्चर.’
बॉब वुडवार्ड के साथ बर्नस्टीन ने 1972 में ‘द वाशिंग्टन पोस्ट’ के लिए वाटरगेट प्रकरण पर रिपोर्टिंग की थी, जिसके कारण तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के प्रशासन के अधिकारियों के विरुद्ध जाँच-पड़ताल का सिलसिला चला और निक्सन को पद छोड़ना पड़ा था. इस मामले के दो दशक बाद की पत्रकारिता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने उक्त लेख में लिखा था कि इतिहास में पहली बार भयावहता, मूढ़ता और अश्लीलता हमारी सांस्कृतिक मानक, यहाँ तक कि हमारी सांस्कृतिक आदर्श बनती जा रही हैं. व्यापक रूप से पसरी हुई इस संस्कृति की प्रवृत्ति हर तरह के संदेश को मानसिक क्षमता के निम्नतम स्तर तक लाना है.



वर्ष 2008 में राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रोफ़ेसर रणधीर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में बर्नस्टीन के इस लेख और उनकी टिप्पणी का उल्लेख किया था. यह व्याख्यान उसी वर्ष ‘इंडियन पॉलिटिक्स टूडे’ के नाम से पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुआ था. जब 1992 के अमेरिका में बर्नस्टीन और 2008 के भारत में प्रोफ़ेसर सिंह ‘द इडियट कल्चर’ की अवधारणा का प्रयोग कर रहे थे, तब मीडिया का हाल आज की तरह नहीं था और ‘गोदी मीडिया’ नहीं हुआ था, और न ही सोशल मीडिया का क़हर टूटा था. ‘फ़ेक न्यूज़’, ‘ट्रोलिंग’, ‘ऑल्ट फ़ैक्ट’, ‘आइटी सेल’ जैसी अवधारणाओं का जन्म नहीं हुआ था. वे तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोकतंत्र में बढ़ते महत्व तथा सोशल मीडिया की असीम संभावनाओं पर विमर्श के दिन थे.


पिछले साल प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द फ़्री वॉयस’ में रवीश कुमार ने लिखा है कि आइटी सेल किसी दल विशेष की एक इकाई भर नहीं है, बल्कि वह एक मानसिकता है, जो समाज के बड़े हिस्से में घर कर कर गयी है. उन्होंने इस समूची मानसिकता को ही ‘आइटी सेल’ की संज्ञा दी है, जिसने बड़ी संख्या में नागरिकों को ‘ट्रोल’ में बदल दिया है. रवीश कुमार का कहना है कि कई समाचार चैनल भी इस ‘आइटी सेल’ का विस्तार हैं.


बहरहाल, यह ध्यान देने की बात है कि एक भारतीय राजनीति शास्त्री अपने समय के बारे में बताने के लिए एक अमेरीकी पत्रकार की बात का संदर्भ दे रहा है. आज वैश्वीकृत युग में हमारी उपलब्धियाँ और चिंताएँ एक जैसी हैं. बड़बोले, बाहुबली और अहंकारी नेता कई देशों पर राज कर रहे हैं. अधिकतर समाज घृणा, कुंठा, हिंसा और हताशा से ग्रस्त हैं. विषमता और विभाजन से मनुष्यता त्रस्त है. इस कारण कार्ल बर्नस्टीन, प्रोफ़ेसर रणधीर सिंह और रवीश कुमार जैसे लोगों के विश्लेषण एक जैसे हैं. इस चर्चा में 2017 में दिए गए बर्नस्टीन के दो वक्तव्यों का उल्लेख प्रासंगिक होगा. उस वर्ष जनवरी में उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति का झूठ बोलना हमेशा लोगों का सबसे ख़तरनाक दुश्मन होता है तथा प्रेस पर डोनाल्ड ट्रंप का हमला निक्सन के हमलों से भी अधिक विश्वासघाती है. ट्रंप अपने प्रचार अभियान के समय से ही उनकी आलोचना करनेवाली मीडिया को ‘एनेमी ऑफ़ द पीपुल’ कहते रहे हैं. दिसंबर में बर्नस्टीन ने कहा कि समाज में ‘कोल्ड सिविल वार’ को बढ़ावा देने के लिए ट्रंप प्रेस पर हमालावर हैं और ऐसा कर अपने समर्थकों को तुष्ट कर रहे हैं.


क्या यह घृणा, हिंसा और विभाजन पसारता ‘कोल्ड सिविल वार’ हमारे देश में भी जारी नहीं है? क्या यह फ़िलीपींस में नहीं हो रहा है, जहाँ रोड्रिगो दुतेरते बतौर राष्ट्रपति शासन कर रहे हैं? वर्ष 1926 में ही एक लेख में इतिहासकार कार्ल्टन हेज़ ने राष्ट्रवाद को एक धर्म कहा था. अपने इस विचार को उन्होंने 1960 में पुस्तक के रूप में विस्तार भी दिया था. इसका अर्थ यह हुआ कि जो हमारे दौर में घटित हो रहा है, वह कोई नयी परिघटना नहीं है. परंतु, यह भी सच है कि यह नव-राष्ट्रवाद युक्तियों और संसाधनों के मामले में पहले से कहीं अधिक सक्षम और सशक्त है.


ऐसे परिवेश में रवीश कुमार सत्ता से सवाल कर तथा देश और समाज की विभिन्न समस्याओं को उठाकर अपने पेशेवर दायित्व को निभाने का प्रयास कर रहे हैं. उनके कार्यक्रमों में हमारे देश, समाज और समुदायों से जुड़े हर तरह के मसलों को जगह मिली है. ऐसा करते हुए वे कभी यह दावा भी नहीं करते कि वे ऐसा करनेवाले अकेले हैं. उनके कार्यक्रमों की यह भी विशेषता रही है कि वे अनेक पत्रकारों और लेखकों के लेखों, उनकी रिपोर्टों और पुस्तकों का हवाला देते रहते हैं. उनका यह भी दावा नहीं रहा है कि वे क्रांतिकारी हैं. वे तो बस यही कहते हैं कि यह उनका काम है और वे यह कर रहे हैं. वैसे भी क्रांति करना पत्रकार का काम नहीं है, यह राजनीति और समाज का विषय है तथा इसका भार राजनीतिक कार्यकर्ताओं और सामाजिक आंदोलनों पर है. होना तो यह चाहिए था कि इस सम्मान के अवसर पर रवीश कुमार के कार्यक्रमों पर बतकही होती, उनके बोलने, इंटरव्यू करने, रिपोर्ट बनाने पर लिखा जाता, इन सबके अच्छे-कमज़ोर पहलुओं पर बात होती. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ‘आइटी सेल’ मानसिकता का विषाणु उदारवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की पक्षधरता का दावा करनेवाले के मस्तिष्क को भी संक्रमित कर रहा है. ‘इडियट कल्चर’ और उसके ‘सांस्कृतिक आदर्श’ बनते जाने की प्रक्रिया पर चिंता करते हुए इस संक्रमण का संज्ञान भी लिया जाना चाहिए.


लेख के प्रारंभ में जिन निंदात्मक सोशल मीडिया टिप्पणियों का हवाला दिया गया, उनमें एक कमाल यह भी है कि मैगसेसे, रॉकफ़ेलर और फ़ोर्ड फ़ाउंडेशनों पर ‘एजेंडा’ चलाने का आरोप लगाते हुए यह भी कहा गया कि रवीश कुमार से अधिक योग्य तो अलाने जी और फ़लाने जी हैं, उन्हें मिलना चाहिए. उनके हिसाब से मिल जाता, तो क्या इन फ़ाउंडेशनों का ‘एजेंडा’ सही हो जाता? रही बात ‘एजेंडा’ की, तो अच्छा ही है कि विनोबा, जयप्रकाश नारायण, आम्टे परिवार, मदर टेरेसा, महाश्वेता देवी, सत्यजीत रे, बीजी वर्गीज़, एमएस सुब्बालक्ष्मी, चण्डी प्रसाद भट्ट, अरुणा रॉय, पी साईनाथ, शांता सिन्हा, बेज़वाड़ा विल्सन, टीएम कृष्णा और इस सम्मान से सम्मानित अन्य कई भारतीयों की तरह रवीश कुमार भी बेहतर भारत बनाने का ‘एजेंडा’ जारी रखें.



रेमन मैगसेसे का शासन दूध का धुला नहीं था, पर दुनिया के लोकतांत्रिक इतिहास में अक्सर ऐसे शासन गुज़रे हैं. अपना देश भी अपवाद नहीं है. रॉकफ़ेलर परिवार भी कारोबार को लेकर सवालों के घेरे में रहा है, पर उसकी दानशीलता भी अतुलनीय है. उसने फ़िलीपींस में केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किया, जहाँ से लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की बड़ी संख्या निकली. दशकों से जारी मार्कोस की तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन के बड़े केंद्रों में यह संस्थान था. रॉकफ़ेलर परिवार ने अमेरिका में विश्वविद्यालय बनाये और विश्वविद्यालयों को अनुदान दिया. इनमें से एक कोलंबिया विश्वविद्यालय भी है, जहाँ बाबासाहेब आंबेडकर ने पढ़ाई की थी. बाबासाहेब ने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में भी अध्ययन किया था. इस संस्थान को भी रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन से अनुदान मिलता है. ऐसे संस्थानों में और ऐसे फ़ाउंडेशनों के फ़ेलोशिप से देश और दुनिया के अनगिनत भले और बड़े लोगों ने पढ़ाई और शोध की है. अमेरिका समेत दुनियाभर में इस फ़ाउंडेशन ने वैज्ञानिक अनुसंधान करने और सामाजिक विज्ञान व मानविकी की शिक्षा के विस्तार के लिए धन दिया है. अनेक रोगों की दवा खोजने के शोध के लिए भी इसने मदद की. ऐसा ही फ़ोर्ड और कारनेगी फ़ाउंडेशनों के साथ है.


पुराने धनिकों की चैरिटी का मामला अलग था. बीते तीन दशकों में आये नये दानदाता, धनकुबेरों की तरह वे मसीहाई ग्रंथि से पीड़ित नहीं थे. नये ढंग की चैरिटी को ‘फ़िलांथ्रोकैपिटलिज़्म’ कहा गया. यह शब्द सकारात्मकता के साथ गढ़ा गया था, पर अब उचित ही यह आलोचना के लिए इस्तेमाल होता है. अगर हम धनकुबेरों की चैरिटी और उनके एजेंडे को लेकर ईमानदारी से सवाल खड़ा करना चाहते हैं, तो हमें उनसे अधिक कर वसूलने तथा पारदर्शिता बढ़ाने पर बल देना होगा. इस मामले में एक पुस्तक आपकी मदद कर सकती है- आनंद गिरिधरदास द्वारा लिखी गयी ‘विनर्स टेक ऑल: द एलीट शराड ऑफ़ चेंज़िंग द वर्ल्ड.’ इस या उस फुटकर बहाने रवीश कुमार को घेरने का प्रयास और अपने सुथरे होने के दावे से क्या सधेगा! पुरस्कार का महत्व उसके पानेवालों की सूची से बनता जाता है. ऊपर उल्लिखित कुछ नामों से मैगसेसे सम्मान और उसे निर्धारित करनेवाली समिति के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. ऐसी चर्चाओं में हमें उदारवादी लोकतांत्रिक परिवेश की अच्छाइयों, कमियों और सीमाओं का भी ध्यान रखना चाहिए. शुद्धतावादी आग्रह, ग्रंथि पालना, द्वेष रखना और हमेशा क्रोधित या कुंठित रहना कल्याणकारी नहीं है.


निश्चित रूप से फ़िलीपींस में पत्रकारिता के सामने बड़ी चुनौतियाँ रही हैं. वर्तमान राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेरते के तीन वर्षों के शासनकाल में सम्मानित मीडिया संस्था रैपलर और उसकी प्रमुख मारिया रेसा के विरुद्ध 11 मामले दायर किये गये हैं. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा जारी इस वर्ष के ‘वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स’ में 180 देशों में फ़िलीपींस को 134वाँ स्थान मिला है. पिछली सूची की तुलना में वह एक स्थान नीचे आया है. जो लोग उसे अपनी स्थिति की चिंता करने की सलाह दे रहे हैं, उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि इसी सूचकांक में भारत 140वें स्थान पर है, यानी फ़िलीपींस से छह स्थान नीचे. पिछली सूची से भारत दो स्थान नीचे आया है. ‘कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार, 1992 से 2018 के बीच फ़िलीपींस में 82 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. फ़िलीपींस की राजनीति लंबे समय से उथल-पुथल से गुज़रती रही है तथा उसे हिंसक विद्रोहों और गिरोहों का सामना करना पड़ा है. वहाँ तानाशाही भी रही, एक राष्ट्रपति को महाभियोग के द्वारा हटाया गया. एक राष्ट्रपति को भ्रष्टाचार के आरोपों में त्यागपत्र देना पड़ा. तानाशाही के विरुद्ध सफल संघर्ष भी हुआ. क्या इन सब में पत्रकारों और मीडिया की बड़ी भूमिका नहीं रही होगी! वहाँ की पत्रकारिता के बारे में कुछ समझना हो, तो ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की वेबसाइट पर पिछले वर्ष दिसंबर में छपा वरिष्ठ फ़िलीपीनो पत्रकार कार्लोस एच कोंडे का लेख देखा जा सकता है. उन्होंने लिखा है कि फ़िलीपीनो पत्रकार अभी के ख़तरे का सामना उसी दृढ़ निश्चय और साहस से करते रहेंगे, जैसा उन्होंने मार्कोस की तानाशाही के विरुद्ध लड़ते हुए दिखाया था.


सम्मान समारोह से पहले अपने संबोधन के बाद रवीश कुमार जिन लेखक-टिप्पणीकार रिचर्ड हैदरियन से बातचीत कर रहे थे, उन्होंने अपनी बात ही यहाँ से शुरू की कि आपके व्याख्यान से पता चलता है कि आपके यहाँ और फ़िलीपींस में एक जैसी स्थिति है. इतना ही नहीं, वे विश्व के अन्य हिस्सों में पत्रकारिता की समस्याओं को भी वैसा ही पाने की बात कहते हैं. रवीश कुमार के साथ म्यांमार के एक जूझारू पत्रकार को भी सम्मानित किया गया है. आज आवश्यकता स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक-दूसरे का हाथ थामने की है, बड़ी लामबंदी बनाने की है, एक-दूसरे से जानने-समझने और प्रेरित-उत्साहित होने की है. जैसा कि हम जलवायु की आपातस्थिति में वैश्विक एकजुटता के आकांक्षी और आग्रही हैं, वैसे ही हमें मनुष्यता और लोकतंत्र को बचाने-बढ़ाने के लिए एकजुट होना चाहिए. मित्रों, एक संवेदनशील और साहसी पत्रकार या ऐसे और भले लोगों के प्रति हमारा सिनिसिज़्म हमें ही खोखला कर रहा है.

रवीश की तस्वीर: साभार शीबा असलम फ़हमी


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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