कोरिया का जटिल इतिहास — मेटर 2-10 से के-पॉप तक ~ रोहिणी कुमारी | The Complex History of Korea

सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है।

कूपमंडूकता या सबसे-बेहतर-मैं बीमारी से बचने का एक कारगर उपाय उस रोचक लेखन को पढ़ना हो सकता है जो आपसे सीधा न जुड़ा होने के बावजूद आपकी सोच का विस्तार कर सकता हो। अब पढ़िए दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य की जिम्मेवार रोहिणी कुमारी का वह रोचक आलेख जिसकी बानगी आपने ऊपर पढ़ी ~ सं० 


The Complex History of Korea — From Miter 2-10 to K-Pop ~ Rohini Kumari


कोरिया का जटिल इतिहास — मेटर 2-0 से के-पॉप तक

~ रोहिणी कुमारी

जेएनयू से कोरियाई भाषा एवं साहित्य में पीएचडी। रोहिणी अपने विषय में पीएचडी करने वाली भारत की पहली शोधार्थी हैं। वर्तमान में वह दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कोरियाई भाषा एवं साहित्य का अध्यापन करती हैं। इसके अलावा वह विकास सेक्टर की खबरों और काम से जुड़े लेखों को प्रकाशित करने वाले एक मात्र ऑनलाइन मंच इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की हिन्दी टीम में संपादकीय सलाहकार भी हैं। रोहिणी ने मिशेल ओबामा की जीवनी ‘बिकमिंग’, अनुपम खेर की जीवनी ‘लेशंस लाइफ टॉट मी अननोइंग्ली’ गौरांग दास की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ़ हैबिट्स’ जैसी किताबों का हिन्दी अनुवाद भी किया है। 


हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के सप्लीमेंट में एक बड़ी ही मज़ेदार खबर पढ़ी। मुर्शिदाबाद की दो लड़कियाँ बिना किसी साधन-संसाधन के घर से भाग गईं। इनके भागने के पीछे का कारण हैरान करने वाला था, और मुझे तो बिलकुल से हिला देने वाला। इन दोनों लड़कियों की उम्र तेरह और पंद्रह साल बताई गई और दोनों ही आर्थिक रूप से एक सामान्य परिवार से आती हैं। हालाँकि इनके साथ इनका एक भाई भी था और उसकी उम्र भी लगभग इतनी ही थी। इन तीनों को भागकर सपनों के शहर मुंबई जाना था। और अपने-अपने सपने पूरे करने थे। यूँ तो ये कहना भी सही नहीं होगा कि ये बच्चे फ़िल्म और गाने की दुनिया से प्रभावित होकर नहीं भागे थे। लेकिन रुकिए, किसी निष्कर्ष पर मत पहुँच जाइए कि इन्हें फ़िल्मों में हीरो, हीरोइन या फिर निर्देशक या संगीतकार बनना था।

दरअसल, इन बच्चों या कहें कि किशोरों के घर से भागने का कारण आपको चौंका देगा। ये बच्चे भारत या फिर कहें के दुनिया के अधिकांश देशों के इस उम्र के किशोरों की तरह ही के-पॉप (कोरियाई संगीत और गाने) के फैन हैं और ख़ुद को बीटीएस आर्मी का सदस्य मानते हैं। दुनिया के हर कोने में बीटीएस के फैन एक दूसरे को इसी आर्मी का सदस्य मानते हैं और इन्हें आपस में जुड़ने और एक दूसरे के लिए प्रेम महसूस करने के लिए किसी और फ़ैक्टर की ज़रूरत नहीं होती है। चलते-चलते बता दूँ कि बीटीएस जिसे बांगटान सोनयोनडान भी कहा जाता है, 7 दक्षिण कोरियाई लड़कों का एक म्यूजिक बैंड है और केवल दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि दुनिया भर में लोगों को अपना दीवाना बनाया हुआ है। साल 2013 में बीटीएस अपना पहला गाना ‘नो मोर ड्रीम्स’ लेकर दुनिया के सामने आया और वह दिन था और आज का दिन है कि इस ग्रुप और इसके लड़कों के प्रति ना केवल किशोरों बल्कि हर उम्र के लोगों की दीवानगी दिन-बाद दिन बढ़ती ही जा रही है।

इसी ग्रुप के दीवाने मुर्शिदाबाद के वे तीनों बच्चे भी थे जिन्होंने मुर्शिदाबाद वाया मुंबई तो सियोल पहुँचने का सपना संजो रखा था और एक दिन इसी सपने को पूरा करने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे जेब में चंद रुपये लेकर निकल पड़े। हालाँकि घर-परिवार के लोगों को जब उनके घर से भाग जाने की बात पता चली तो उन लोगों ने इन्हें ढूँढने के लिए दिन-रात एक कर दिया और अपने बच्चों को मुंबई पहुँचने से पहले ही वापस ले आए।

कोरियाई भाषा को पढ़ने-पढ़ाने के क्षेत्र से जुड़े होने के कारण जहां एक ओर मुझे इस खबर ने बहुत अधिक उत्तेजित या परेशान उस तरह से नहीं किया जैसे कि किसी आम आदमी को किया होगा या कर सकता है। एक ओर जहां हम इस भाषा के प्रति बढ़ते प्रेम और दीवानगी को देखकर खुश होते हैं, वहीं दूसरी ओर हमें यह सवाल परेशान करता है कि क्या के-पॉप, के-ड्रामा या दूसरे शब्दों में कहें तो हाल्यू के बैनर तले दक्षिण कोरियाई समाज का इतिहास, महज़ लगभग दो दशकों में विकासशील से विकसित देश की सूची में शामिल होने के पीछे के उसके संघर्ष, उसके आधुनिक समाज की स्थिति कहीं छुप तो नहीं जा रही है?

हाल्यू की बदौलत दुनिया भर में अपनी सभ्यता-संस्कृति, खान-पान, गीत-संगीत को पहुँचाने वाले और दुनिया भर के किशोरों (क्या शहरी, क्या ग्रामीण) के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले दक्षिण कोरियाई लोग क्या ख़ुद की यही पहचान चाहते हैं? क्या वे उस संघर्ष को भूल जाना चाहते हैं जो उनके पूर्वजों ने जापान से अपने देश को आज़ाद करवाने के लिए किया था? क्या दक्षिणी कोरियाई आधुनिक समाज ‘कोरियाई युद्ध’ और विभाजन के दर्द को याद नहीं करना चाहता और उसके बारे में अपनी युवा पीढ़ी को बताना नहीं चाहता? हाल्यू को इस कदर दुनिया भर में पहुँचाने का कारण अपने संघर्षों से भरे इतिहास को ढँकने-छुपाने या फिर भुला देने का प्रयास है?

अगर एक शब्द में इन सभी सवालों का जवाब देने को कहा जाए तो मुश्किल होगी। क्योंकि इन सवाल का जवाब केवल हाँ या ना में दिया नहीं जा सकता है।

दरअसल, हाल्यू या के-पॉप, के-ड्रामा, बीटीएस, ब्लैक पिंक जैसे संगीत के ग्रुप दुनिया के सामने दक्षिण कोरिया की छवि को सशक्त करने और दुनिया के शक्तिशाली देशों के बीच अपनी एक अलग छवि बनाने का ज़रिया भर हैं या हो सकते हैं। लेकिन दक्षिण कोरिया का अर्थ केवल के-पॉप या के-ड्रामा नहीं है। उनमें भी वास्तविकता और फ़िक्शन का अनुपात वही होता है जो हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा में बनाए जाने वाले धारावाहिकों और गानों में होता है। 

मैं अपनी इस बात को मज़बूत करने के लिए आपको कोरिया से ही जुड़ी एक दूसरी खबर के बारे में बताती हूँ। पिछले दिनों 11 मार्च 2024 को इंटरनेशनल बुकर प्राइज 2024 का लौंगलिस्ट जारी किया गया। दुनिया भर की 13 किताबों की इस सूची में दक्षिण कोरियाई लेखक ह्वांग सोक-योंग की किताब ‘मेटर 2 -10’ भी शामिल है। 81 वर्षीय ह्वांग सोक-योंग की यह दूसरी किताब है जो इंटरनेशनल बुकर प्राइज के लिए नामित हुई है। इससे पहले ‘एट डस्क’ नाम का उनका उपन्यास साल 2018 की सूची में अपनी स्थान बना चुका है।

कोरियाई यूनिफ़िकेशन के पैरोकार रहे ह्वांग सोक-योंग के इस उपन्यास के केंद्र में सियोल में नौकरी से निकाल दिया गया एक रेल कर्मचारी है। उस कर्मचारी ने शहर की एक सोलह मंज़िला फ़ैक्ट्री की चिमनी पर अपना डेरा जमा लिया है और महीनों तक वहीं रहकर अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ़ धरने पर बैठा रहा है। अपनी इस लंबी और मुश्किल भरी लड़ाई के दौरान अकेली और सर्द रातों में वह अपने से पिछली पीढ़ी के लोगों, अपने पूर्वजों से बातचीत करता है। उसकी इस बातचीत के केंद्र में जीवन का वास्तविक अर्थ, पीढ़ियों से चले आ रहे ज्ञान जैसे विषय हैं। ह्वांग इस उपन्यास के माध्यम से अपने देश को आज़ाद करवाने और कामकाज की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए जापानी और अमेरिकी प्रशासन द्वारा की गई यातनाओं, अन्यायों, हत्याओं और लोगों को जबरन जेल में डाल देनी की घटनाओं को इतनी बारीकी से बुनते हैं, कि उस रेल कर्मचारी में पाठक अपना जीवन देखने लग जाता है।

उस रेल कर्मचारी की तीन पीढ़ियों के जीवन के माध्यम से ह्वांग का यह उपन्यास मेटर 2-10, कोरिया के आम लोगों के जीवन के संघर्षों को बहुत ही स्पष्टता और बारीकी से दिखाने में सफल होता है जो 1910 में जापान का उपनिवेश बनने के बाद से इक्कीसवी सदी के उत्तरार्ध तक जारी रहता है।
यह उपन्यास दरअसल एक समय में उत्पीड़न से मुक्त होने की इच्छा रखने वाले एक देश और उसके लिए लड़ने वाले उसके लोगों की एक कहानी है जिसे लिखने में ह्वांग को लगभग तीस साल का समय लगा।

दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि वैश्विक साहित्यिक दुनिया में कोरियाई प्रायद्वीप के इस जटिल इतिहास की लोकप्रियता देखते हुए मैं एक बार फिर से आपका ध्यान उन सवालों की तरफ़ लेकर जाना चाहती हूं जिनका ज़िक्र इस लेख की शुरुआत में मैंने किया था। 

एक तरफ़ ह्वांग सोक-योंग के उपन्यास की लोकप्रियता और स्वीकृति और दूसरी तरफ़ के-पॉप और के-ड्रामा के फीवर को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोरिया के लोग अपनी नई पहचान बनाने के साथ ही अपने पुराने संघर्षों और मुश्किल वक्त को भी उतनी ही शिद्दत से न केवल याद कर रहे हैं बल्कि उसे अपना रहे हैं और उसका सम्मान भी कर रहे हैं।

इसलिए मुर्शिदाबाद की उन लड़कियों की तरह दुनिया भर में आर्मी के फैन को न केवल जंगकुक के बारे में जानना चाहिए बल्कि अगर दक्षिण कोरिया और उसके गीत-संगीत के प्रति उनकी दीवानगी की यह यात्रा के-पॉप से शुरू होकर ह्वांग सोक-योंग, हान कांग, शीन क्यंग सुक जैसे साहित्यकारों की कृतियों तक भी पहुंचे तो वे कोरियाई संस्कृति और सभ्यता के वास्तविक अर्थ को समग्रता से और सही मायने में अगली पीढ़ी तक ले जाने वाले आर्मी के सदस्य हो सकेंगे, जिनमें ना केवल ब्लैक पिंक और बीटीएस होगा बल्कि कोरिया के गांव में रहने वाली वह माँ भी होगी जो सियोल की चकाचौंध में खो जाती है, वह स्त्री भी होगी जो मुख्य रूप से मांस खाने वाले एक देश में पूरी तरह से शाकाहारी बनना चाहती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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3 टिप्पणियाँ

  1. अच्छा और जरूरी लेख है। हार्दिक बधाई। निःसंदेह आपने The Vegetarian और माँ का ध्यान रखना जैसे उपन्यासों का सही जिक्र किया। हिन्दी में उपलब्ध अच्छे कोरियाई उपन्यासों में यी मुन योल का 'खलनायक ' और Choi In Hin का रंगमंच भी है।
    Unification के लिए बहुत से रचनाकारों ने लिखा बै।कवियों में गो उन का भी नाम है। हालिया और ऐसा रचनात्मक लेखन एक दूसरे के विकल्प में नहीं देखे जाने चाहिए बल्कि एक दूसरे के पूरक के रूप में देखे जाने चाहिए।
    शुभकामनाएँ।
    दिविक रमेश

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  2. बहुत अच्छा आलेख. साउथ कोरिया से मुझे लगाव है. जब मैं इसकी यात्रा पर जा रही थी तब मेरी बेटी ने सिर्फ़ इतना कहा था कि गंगनम जरुर जाना और उस के पॉप स्टार से मिल कर आना. तब तक मैं बहुत ज़्यादा जानती न थी. इतना क्रेज़ देखा है यहाँ बच्चों में. फिर कोरिया का इतिहास तो रोमांचक है ही. कई क़िस्से वहाँ से छान कर लाई हूँ जो प्राचीन भारत से जुड़ते हैं.

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  3. वीणा वत्सल सिंह20 मार्च 2024, 10:06:00 pm

    लेख काफी अच्छा है लेकिन कुछ और भी होना चाहिए था. लेखक से अधिक की उम्मीद है. आशा है वे पूरा करेंगी

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