विरोध तो हिंदुत्व के राजनैतिक षड्यंत्र से है - अशोक गुप्ता

हमारी स-प्रमाण गर्वोक्ति

                                           अशोक गुप्ता

 

इस आलेख के आवेग में वरिष्ट विचारक अजित कुमार एवं अर्चना वर्मा जी द्वारा दिया गया स्पंदन तो है ही, इसमें देश के अनेक लेखक मित्रों के विरोध का स्वर भी  शामिल है जो अध्यादेश को भ्रष्टाचार के सतत क्रम की एक ओर कड़ी मान रहे हैं. सरकार का यह कदम निंदनीय है, जिसकी राष्ट्रपति ने ठीक ही भर्त्सना की है. व्यंग की मार से सत्ता शायद कुछ शर्मसार हो.

...... यानी, यह सिद्ध हो गया कि भारत का पूरा राजनैतिक परिवेश, विधानसभा, राज्यसभा और  लोकसभा के भीतर और बाहर, दलनिरपेक्ष रूप से पूर्णतः, बहुमत का सम्मान करते हुए लोकतान्त्रिक है और अल्पसंख्यकों के हितों के प्रति भी उतना ही आग्रहशील है. यह बात एक अध्यादेश के आलोक में परखी जा सकती है, जो बहुसंख्यक अपराधियों के पक्ष में सामने आया है. सभी निवर्तमान, वर्त्तमान और भावी सत्ताधिपतियों ने तुमुल ध्वनि से इसका समर्थन किया है. 

किसी समय जब मोरारजी देसाई ने राष्ट्रीय स्तर पर शराब बंदी कानून का अभियान शुरू किया था, तब (यथा स्मृति) किन्हीं मेहता जी ने कहा था कि मैं शराब के बिना रह सकता हूँ, लेकिन शराब पीने के अधिकार से वंचित होना नहीं सह सकता. ठीक इसी तरह, वर्तमान लोकतंत्र, मनसा, वाचा, कर्मणा इस पर विश्वास करती है कि जो भी राजनैतिक, बतौर अल्पसंख्यक आज अभी अपराधी नहीं है, उसके लिये भविष्य में अपराधी हो जाने का रास्ता खुला होना चाहिये. वैसे भी, किसी दूसरे व्यक्ति को किसी ऐसे कृत्य में फंसा कर दण्डित करा देने का हुनर भी तो अपराध ही है, अपराधी के समर्थन में हाथ खड़े करना भी तो अपराध ही है. इस दृष्टि से तो वह अल्पसंख्यक वर्ग सिकुड कर और छोटा हो जाता है. लेकिन उससे क्या, हमारा देश, हमारी सरकारें उनके बचाव में भी अपनी प्रतिबद्धता रखती हैं, जिन्हें कभी जेल नहीं होने वाली. मैंने ऐसे कई लोगों को पासपोर्ट बनवाते देखा है जिनकी आर्थिक क्षमता, और किसी भी राह से औकात, अपने शहर कस्बे या गांव से सौ किलोमीटर भर जाने की भी नहीं होती. देखा देखी कितने ही चतुर्थ श्रेणी के सरकारी-गैर सरकारी कर्मचारियों ने भी पैन-कार्ड बनवाए हैं, इसके खूब उदाहरण मिल सकते हैं.हमें कम से कम इस संदर्भ में, अपने देश और लोकतंत्र पर गर्व होना चाहिये. 


विरोध तो हिंदुत्व के राजनैतिक षड्यंत्र से है.

                                                     अशोक गुप्ता 

पता नहीं यह मेरा पुनर्निरीक्षण है या स्पष्टीकरण, लेकिन मेरा उद्वेलन तो है ही. इसलिये इसका बाहर आना ज़रूरी है.

       अपने लेखकीय दायित्व के तहत अपनी प्रतिरोधी अभिव्यक्तियों में मैंने खुद को अक्सर हिंदुत्व और नरेन्द्र मोदी के प्रतिपक्ष में रखा है. मैं मुखर हुआ हूँ और किन्हीं दृष्टान्तों में व्यंगात्मक भी. इससे इतर, अपने निजी जीवन में मैं नास्तिक नहीं हूँ. मंदिर घंटा और अन्य प्रकार के पंचांग निर्धारित आडम्बर भले ही मेरी निष्ठा में स्थान न पाते हों, लेकिन मैं इनकी भर्त्सना भी नहीं करता. पिछले करीब तीन दशकों से हमेशा मेरे घर में एक स्थान ऐसा रहा है जिसे मैं ‘पूजाघर’ की संज्ञा दे सकता हूँ. तीज त्योहारों पर पारिवारिक रूप से पूजा करता ही हूँ. किन्हीं धार्मिक महत्त्व के स्थलों से मेरी आस्था भी जुड़ी हुई है. इसके बावज़ूद, अगर मैं विवेकपूर्वक हिंदुत्व की उस अवधारणा की कठोर निंदा करता हूँ जिसका अभियान नरेन्द्र मोदी या भाजपा चला रही है, तो उसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. मेरा अपने पुनर्निरीक्षण का काम भी इसी क्रम में हो जाएगा, ऐसा मेरा मानना है.

       मैं समझता हूँ कि हिंदुत्व का भाव हिंदू व्यक्ति और समाज के निजी और सांस्कृतिक अंतर्संसार से जुड़ा हुआ प्रसंग है. निजता का स्वातंत्र्य इसमें प्रमुख है और आरोपण निषिद्ध. हिंदुत्व की संरचना में भी कितने ही भेद है, जो एक दूसरे के विरोधी भी हैं. शैव्य और वैष्णव इसका एक उदाहरण है और भक्ति प्रारूप में मतभेद दूसरा. इनमें से किसी के भी पक्ष में अपना विश्वास और अपनी आस्था रखता व्यक्ति हिंदू है, निजता का स्वातंत्र्य अपने में बहुत महत्वपूर्ण है. भक्ति की निर्गुण धारा बहुत से कृत्यों और कर्मकांडों से मुक्त है, लेकिन मूल रूप से हिंदुत्व में इसे भी अपना स्थान मिलता है. कुल मिला कर, हिंदू बोध से मुक्त न होते हुए भी मैं इस तथाकथित हिंदुत्व की पुकार को स्वीकार्य नहीं पाता हूँ.


     कारण बाहर स्पष्ट है. हिंदुत्व के भाव का राजनीतिकरण निजता के स्वातंत्र्य के खिलाफ जाता है. उसमें आरोपण का भीषण आग्रह है. राजनैतिक आग्रह वाला हिंदुत्व उनको शत्रु मानता है जो हिंदू नहीं है. हिंदुओं और गैर हिंदुओं में जहाँ भी हिंसात्मक टकराव हुआ है, वह राजनैतिक आग्रहों के कारण हुआ है. अन्यथा समय के जिस दौर मैं, बहुल संप्रदायों से युक्त समाज शांतिपूर्वक रहता रहा है, वह समय सांप्रदायिक राजनीति से मुक्त रहा है. इस तरह से मैं यह कह सकता हूँ कि हिंद्त्व का राजनीतिकरण हिंसात्मक है और नरेन्द्र मोदी से लेकर ठाकरे जन इसके प्रतिनिधि हैं. ज़ाहिर है मेरी इनसे घोर असहमति है.

       यहां मैं यह भी कहना चाहूँगा कि मेरा यह सोच केवल हिंदुत्व से नहीं जुड़ता. धार्मिक आस्था का जो भी भाव, चाहे वह इस्लामिक हो या इसाईयत का, अगर वह राजनैतिक आधार पर अपना विस्तार चाहता है तो वह मेरे दृष्टिकोण से कलुषित है. सारे इस्लामिक सरकारों वाले राष्ट्र आज सांप्रदायिक राजनीति के कारण आतंकवाद फ़ैलाने का केन्द्र बन रहे हैं और खुद भी आतंकवाद के शिकार हैं. इस तरह वह भी उतने ही निंद्य हैं जितना मोदी का हिंदुत्व.

       साफ़ है, मैं भारत के हिंदू राष्ट्र होने के विचार को मान्यता नहीं देता, क्योंकि तब वह एलानिया अन्य संप्रदायों के नागरिकों को शत्रु मानने लगेगा ( जैसे मोदी और ठाकरे अभी भी मुसलमानों की हत्या को जायज़ मानते हैं ) राष्ट्र की व्यवस्था में एक सामंती सोच पैदा होगा और तानाशाही सत्ता का स्वतः स्वाभाविक चरित्र बन जायेगी. मैं यह स्पष्ट रूप से देख पा रहा हूँ कि राजनैतिक परिप्रेक्ष में हिंदुत्व के पक्षधर, हिंदुओं की सामाजिक आर्थिक दशा के प्रति सचेत नहीं हैं. जगन्नाथ पुरी मेरी प्रिय जगह है और वहां में अब तक तीन बार जा चुका हूँ. वहां मंदिरों के प्रभुत्व ने मंदिर से जुड़े छोटे मोटे धंधे के इतने रास्ते खोले हुए हैं कि उनके कारण शिक्षा किसी की वरीयता में स्थान नहीं पाती है. मंदिरों में निशुल्क प्रसाद एवं लंगरों का प्रावधान है. समुद्र तटीय स्थान होने की वजह से मौसम वहां शरीर ढकने की अनिवार्यता नहीं खड़ी करता. बड़े बड़े मंदिर अपने विपन्न नागरिकों को भक्त होने की शर्त पर छत देता है. इस तरह वह तीनों मूल भूत आवश्यकताएं, जिनके लिये व्यक्ति शिक्षित हो कर खुद को तैयार करे, हिंदुत्व के प्रतीक मंदिरों से पूरी हो रही हैं... लेकिन अधिकाँश जन परिवेश घोर विपन्नता की स्थिति में देखा जा सकता है. हिंदुत्व उन्हें संतोष का पथ पढ़ा कर चुप करा देता है.  हिन्दुत्ववादी राजनैतिक लोग इस से प्रसन्न हैं, क्योंकि उनके मतदाता और समर्थक शिक्षा के आलोक में जाने से बचे हुए हैं. शिक्षा का आलोक उनके षड्यंत्र के लिये खतरनाक है, भले ही जन समुदाय का दीर्घकालिक भला शिक्षा के माध्यम से ही होने वाला है. इसके अतिरिक्त, अगर हम एकरस हिंदू कही जाने वाली संरचना को भी देखें तो, उसकी बहुत सी पर्तें दिख जाएंगी. तब धार्मिक एकरसता के नीचे जातीय फांकें दिखेंगी. ब्राह्मण और ठाकुरों का विद्वेष, सवर्ण और दलितों का विद्वेष और सबसे ऊपर स्त्री और पुरुष का विद्वेष तो रहेगा ही. और साफ़ है कि हिंदुत्व भी इस मामले में समदर्शी नहीं है. वह ब्राह्मण को श्रेष्ठ कह कर, दलित पर अत्याचार को मान्य ठहरता है. इसी तरह स्त्री हिंदू धर्मं की मान्यता के अनुसार पुरुष के सापेक्ष तो निकृष्ट है ही. इस व्यवस्था को राष्ट्र व्यापी स्तर पर कौन विवेकशील नागरिक स्वीकृति देना चाहेगा ?.    

       पूरे विश्व में जहाँ भी साम्प्रदयिक राजनीति और शासन पद्धति लागू है, वहां अशिक्षा, अंधविश्वास और विवेक दारिद्रय का बोलबाला है. वहीँ अतार्किक फतवे अपनी जगह बना पा रहे हैं. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना उसे इसी परिणिति की ओर धकेलना है, भले ही इससे राजनेताओं की यथास्थिति मजबूत बनी रहने की घनी संभावना है.

       अब कहें, मैं क्यों न देश, समाज और व्यक्ति की निजता और स्वातंत्र्य के हित में हिंदुत्व के उस प्रारूप का विरोध करूँ जो अंततः छद्मवेश में राजनैतिक षड्यंत्र की रणनीति है. मैं समझता हूँ कि मुझे इस पर अडिग रहना चाहिये.
अशोक गुप्ता
305 हिमालय टॉवर.
अहिंसा खंड 2.
इंदिरापुरम.
गाज़ियाबाद 201014
मो० 09871187875
ई० ashok267@gmail.com

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