हंस जुलाई 2015 | Hans July 2015 'Sanjay Sahay on Emergency'


हया को त्याग चुकी सरकार

 ~ संजय सहाय

इमरजेंसी के 40 वर्षों बाद उसे अबकी बार व्यापक रूप से ‘मनाया’ जा रहा है. उस वक्त वे एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए. फिर भी प्रधानमंत्री महोदय और उनका शस्त्रधारी हाथ उस दमनकारी काल पर गंभीर चिंतन की मुद्रा में दिखे. ऐसा लग रहा था मानो लोकतंत्र के सबसे बड़े पहरेदार के खिताब के वे ही असली हकदार हैं. आज के जुनूनी माहौल में कुछ भी संभव है

पूर्णांक–345  वर्ष- 29  अंक- 12  जुलाई 2015

संपादकीय आपातकाल का ‘मनाया’ जाना - संजय सहाय
अपना मोर्चा
कहानियां
टनमन ने अपनी खुशी खोज ली - गिरिराज किशोर
निवृत्ति - शैलेन्द्र सागर
मउगा - कमलेश चौधरी
तोता–मैना की आखिरी कहानी - रामकुमार आत्रेय
बिजली घर का देवता - एच.जी. वेल्स (अंग्रेजी से अनूदित) (अनु. अशोक गुप्ता)
आख्यान
बाक़र गंज के सैयद - एक आख्यान–3 - असग़र वजाहत
कविताएं अरुण देव
आत्मकथांश ज़माने में हम - निर्मला जैन
घुसपैठिये
निरूमा - रेखा सिंह
भारतीय मुस्लिम नवजागरण
मौलाना मुहम्मद अली और मुस्लिम नवजागरण - कर्मेन्दु शिशिर
ग़ज़ल बजरंग बिहारी ‘बजरू’

लघुकथा संतोष सुपेकर, जगदीश पन्त ‘कुमुद’

परख
इंसान के चूलों के हिल जाने की 
कथा - रोहिणी अग्रवाल
‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ के लोग - प्रेमकुमार मणि
आह से उपजा गान... - लता शर्मा
बतकही का सुख - भंवरलाल मीणा


शब्दवेधी/शब्दभेदी
मैं कहां हूं ? - तसलीमा नसरीन

रेतघड़ी
सृजन परिक्रमा
समाज विज्ञान की दुरूह पाठशाला - दिनेश कुमार

सब कुछ अपेक्षित उद्देश्यों की तरफ निर्बाध गति से बढ़ रहा था कि अचानक भाजपा के वरिष्ठतम सक्रिय नेता माननीय लालकृष्ण आडवाणी ने इंडियन एक्सप्रेस को एक साक्षात्कार देकर हंगामा मचा दिया. बोले -जो शक्तियां लोकतंत्र को कुचल सकती हैं वह अपेक्षाकृत शक्तिशाली हो गई हैं. . . . मुझे भरोसा नहीं है कि इमरजेंसी दुबारा नहीं लग सकती!. . . उन्होंने राष्ट्रीय नेतृत्व में लोकशाही और लोकतांत्रिक मूल्यों के अभाव पर भी चिंता व्यक्त की. निरंकुश सत्ता को रोक सकने में समर्थ ‘मीडिया’ की भूमिका पर उन्होंने सवाल खड़े किए कि आज अधिक स्वावलंबन के बावजूद क्या मीडिया नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र के लिए सचमुच प्रतिबद्ध है ? न्यायिक संस्थाओं को भी उन्होंने जिम्मेदार ठहराया

मशहूर पत्रकार और लेखक ओम थानवी का मानना है कि माननीय नरेन्द्र मोदी को इस बात का श्रेय तो देना ही चाहिए कि उनकी तुलना में लालकृष्ण आडवाणी भी भले आदमी लगने लगे हैं! जो भी हो जिन कारणों से भी हो -आडवाणी काफी कुछ सच बोल रहे थे. तब, जबकि संपूर्ण सत्ता किसी एक व्यक्ति में निहित हो चुकी हो, अघोषित इमरजेंसी स्वत: प्रभावकारी हो जाती है. अत: ‘लग सकती. . . या नहीं लग सकती. . . . ’ जैसे मूर्खतापूर्ण संशय नहीं पालने चाहिए. वैसे अगर वे सचमुच देखना चाहें तो इस बूढ़े बाज की दृष्टि पैनी है इसमें संदेह नहीं!

देश में लगभग तीस फीसदी लोग भक्तिभाव में आंखें मूंदे एक मजबूत नेतृत्व का मुगालता पाल बैठे हैं. मजबूत नेतृत्व प्रज्ञा और चरित्र की गहराई से आता है, बार-बार सीने का नाप दोहराने से नहीं! इस बिना पर तो दारा सिंह या खली भी योग्य प्रधान साबित हो सकते थे. और इस पैमाने पर उनसे कई गुना अधिक उपयुक्त माताओं और बहनों के नाम भी गिना सकता हूं किंतु मर्यादाओं और स्त्री-सम्मान का ध्यान रखते ऐसा नहीं करूंगा. फिर लाल बहादुर शास्त्री का सीना तो शायद 32 इंच का भी नहीं रहा होगा. यह सब एक सस्ती बाजारू तरक़ीब का हिस्सा है जिसे भारतीय गणराज्य पर लगातार आजमाया जा रहा है -भारी सफलता के साथ. 

एक साल बीत गया है. जनता को बंबइया फिल्मों सरीखे बड़बोले संवादों के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं हो पाया है. वादों के पूरा होने की संभावनाएं रोज़ पीछे खिसकती जा रही हैं -काला धन वापसी से लेकर राजा की खिलौना गाड़ी (बुलेट ट्रेन) तक. . . अर्थव्यवस्था के उद्धार से लेकर गंगा की सफाई तक. 

उधर दूसरे मोर्चों पर भी यह सरकार बेआबरू होती जा रही है. लोकतंत्र की पहली शर्त हया को त्याग चुकी इस सरकार की ईमानदारी और देशहित का नकाब राजकुमारी विजया राजे और सुषमा बहन के सौजन्य से उतर चुका है. इनकी विकृत ललित मोदीय मानवीयता से भी हम वाकिफ हो चुके हैं दंगे-फसाद और हत्याओं में फंसे ‘अपने’ लोगों को क्लीन चिट दिलाना और धंधेबाजों को मदद पहुंचाना इस सरकार की प्राथमिकता बन चुकी है. इस पृष्ठभूमि में आडवाणी द्वारा इंगित स्थिति की भयावहता समझ में आने लगती है. कोने में धकियाई जाती इस निरंकुश अलोकतांत्रिक सत्ता को खुद को बचाए रखने के कुछ ही विकल्प बचते हैं. पहला वह जिसे ब्रिटिश लेखक सैम्युअल जॉनसन ने 7 अप्रैल 1775 को एक विलक्षण क्षण में परिभाषित कर डाला था -‘‘देश-भक्ति लफंगों का अंतिम पनाहगाह होती है’’ सैम्युअल जॉनसन की उपरोक्ति निश्चित रूप से ऐसे निरंकुश और अधिानायकवादी नेताओं के संदर्भ में कही गई थी जो देशभक्ति या राष्ट्रप्रेम का हवाला सिर्फ अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए देते हैं. उनके द्वारा ऐसा विषाक्त माहौल खड़ा किया जाता है जिसमें नेता की हां-में-हां न मिलाने वाले देशद्रोही करार दिए जाते हैं. ईमानदार और निरापद असहमतियां राष्ट्रविरोधी ठहरा दी जाती हैं

बहरहाल, देशभक्ति के दोहन के लिए जंग या जंग की सम्भावना से बेहतर कुछ नहीं होता. 18 सैनिकों के मारे जाने के उपरांत आपने म्यांमार के सहयोग से 7-8 आतंकियों को मार गिराया. सौ से अधिक मारने का झूठा संवेदनहीन दावा किया और किसी विश्व-विजेता की तरह सीना ठोकने लगे. समर्थक मीडिया ने जमकर थाल बजाए और जनता में देशप्रेम का भारी संचार हो गया. लोगों की पूंछें फड़कने लगीं -कानों से धुआं निकलने लगा. वैसे भी जगहंसाई की परवाह किए बगैर फिलहाल ताल ठोकना जरूरी है. असफलताओं के मद्देनजर अगले चुनावों तक जंग की संभावनाएं बढ़ती जाएंगी. क्या पता हो ही जाए. जंग क्या होती है यह सीमांत क्षेत्रों में बसने वालों से पूछना चाहिए. हम बाकियों के लिए युद्ध एक रोमांचक तमाशा भर होता है जिसे हम पापकॉर्न खाते हुए टीवी पर एंजॉय करना चाहते हैं

दूसरा उपाय है सांस्कृतिक गौरव से जोड़कर खेल-तमाशे आयोजित कर जनता का ध्यान बंटाना. इसके भी केन्द्र में जातिगत श्रेष्ठता और राष्ट्रभक्ति का तत्त्व ही होता है. मई 2014 के संपादकीय में मैंने डॉ. लॉरेंस ब्रिट के हवाले से फासिस्ट राज्यों के 14 लक्षण गिनाए थे और यह अनायास नहीं है कि उनमें से एक भी लक्षण ऐसा नहीं है जो वर्तमान सरकार में न दिखाई देता हो. भारत में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस उसी फासीवादी चौपड़ का हिस्सा है. 
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24 जून के ‘द ट्रिब्यून’ में ‘बेंड इट लाइक मोदी’ शीर्षक से छपा हरीश खरे का आलेख बहुत महत्त्वपूर्ण है जिसमें इस सरकार की कार्यशैली को न्यूनतम पारदर्शिता और अधिकतम हस्तक्षेप के विशेषण से नवाजा गया है हरीश खरे कहते हैं -योग दिवस को गर्व और हिंदुत्व से जोड़ दिया गया है. करदाताओं की गाढ़ी कमाई का करोड़ों रुपया सरकार इस तमाशे पर पानी की तरह बहा रही है. एक तरफ भाग न लेने पर संघियों द्वारा अल्पसंख्यकों को धमकाया जा रहा है तो दूसरी तरफ उनके कुछ संतुलित चेहरे उन्हें ‘अपना ही नुकसान करने वाला’ कहकर चिढ़ा रहे हैं. अब से पहले सरकार ने गणतंत्र दिवस के अलावा कभी भी ऐसे सामूहिक प्रदर्शन का आयोजन नहीं किया. यह सरकारी उत्सव हिटलर की न्यूरेमबर्ग रैलियों की या फिर उत्तरी कोरिया के सैन्य-प्रदर्शनों की याद दिलाता है

तीसरा विकल्प उसी दिशा में ले जाता है जहां खुले तौर पर वह हो जाए जिसका आडवाणी को डर है. चौथा और अंतिम विकल्प यह है कि किसी चमत्कार के तहत ‘सरकार’ सचमुच लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष हो जाएं और अंतिम आदमी की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने लगें जिसकी संभावना की कल्पना तक भी नहीं की जा सकती

आस्थाओं के टूटने में और कड़वे सच को स्वीकारने में जनता को काफी वक्त लगता है -खासकर जब बड़ी श्रद्धा से आपने चिलचिलाती धूप में घंटों खड़े होकर उनके लिए वोट डाला हो और आप उनके प्रति उतने ही समर्पित हों जितना कभी कांग्रेसी कांग्रेस-हाईकमान के लिए और भक्तजन आसाराम के लिए हुआ करते थे. फिर भी चीज़ें बदलती हैं इसी उम्मीद के साथ. 


इस बार 31 जुलाई, 2015 को प्रेमचंद जयंती के अवसर पर होने वाली ‘हंस’ की सालाना संगोष्ठी का विषय ‘राजनीति की सांस्कृतिक चेतना’ है. हमें विश्वास है कि हर बार की तरह इस बार भी आप सभी का सहयोग हमें मिलेगा. 

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