शिनाख़्त — महावीर राजी की कहानी | Shinakht - Mahavir Raji ki Kahani

वरिष्ठ कहानीकार महावीर राजी की एक सुंदर कहानी 'शिनाख़्त'  पढ़िए। 



महावीर राजी की कहानी

शिनाख़्त 


फंटुस शर्म से लरजता तेज तेज चल कर कोठरी में आया और दरवाजा उढ़काता बायीं दिवाल से लगे तरेड़ वाले आईने के सामने जा खड़ा हुआ। उत्तेजना से सनसनाती नजरें आईने के भीतर अवतरित हो आये हमशक्ल पर टिक गयीं। हमशक्ल के चेहरे का पोस्टमार्टमी मुआयना करते हुए आक्रोश से नथुने फड़फड़ाने लगे। मुट्ठियाँ भींच आयीं। सांसें तेज तेज चलने लगीं। लगा जैसे आंखों के कोटरों से फुफकारती लपटें हमशक्ल को भस्म ही कर देंगीं। तभी हमशक्ल को परे धकेल कर आईने में ऐश्वर्या भाभी के रूम में अभी अभी हुई चुहल के कोलाज चमकने लगे ...

'फंटुस भैया, बाजार से पैड ला देंगें ? जरूरत आ गयी है।' ऐश्वर्या के भीतर दुबकी हंसी बाहर छलक पड़ने को आतुर हो रही थी।

'पैड ? ये क्या होवे है भाभी ?' फंटुस ने जिज्ञासा में पलकें झपकायीं।

'लो... दुनिया भर की जानकारी है आपको, सिर्फ पैड के बारे में नहीं जानते!' मुग्धा ने ताना कसा।

'अच्छा ठीक है, हम पूछ कर ला देंगे। पैसे दीजिए...' फंटुस किंचित शर्मा गया।

'भाभी, ऐसा करते हैं कि एक दिन 'पैड मैन' दिखा देते हैं फंटुस भैया को लैपटॉप पर। ' मुग्धा ने भाभी को ठहोका लगाया। उसका दुपट्टा ढलक गया था और वक्षों के बीच की गहरी उपत्यका चूजे सी चीं चीं करती ध्यानाकर्षित कर रही थी। फंटुस के भीतर सनसनी के बुलबुले उठने लगे। ऋषि भैया अभी सत्रह के ही हैं। उससे दो साल छोटे! उनके सामने दोनों किस तरह तेजी से आँचल-दुपट्टा ठीक करने लगती हैं। ठहोका से ऐश्वर्या भी हंसी के मारे दोहरी होकर पलंग पर ढह गई।

'हमें ऐसे गंदे मजाक पसंद ना है भाभी...' दोनों की दबी-छुपी मजाकिया हंसीं से फंटुस इतना तो समझ ही गया कि लुगाइयों (औरतों) वाली किसी चीज की बात की गयी है उससे। लज्जा से भर कर किंकियाता रूम से बाहर निकल आया। बाहर निकलते हुए दोनों की बेबाक खिल-खिलाहट के एक मुश्त छींटे पीठ से आ चिपके थे।

आईने में फिर से हमशक्ल उभर आया। कैसा तो छोरियों जैसा चिकना और मासूम चेहरा बनाया है विधाता ने! उन्नीसवां लग गया पर होंठों के ऊपर और ठोढ़ी के नीचे बालों का जरा भी अंकुरण नहीं! हाथ पैर और छाती भी लोमविहीन! अर्द्धनारीश्वर कहते हैं सब उसे! ऋषि भैया के अभी से ही दाढ़ी मूंछ समेत सारे बदन पर रीछ जैसे बाल उग आए हैं। कोठी की बिंदणी (बहू) और छोरियां उन्हें देखते ही सिंग-पूंछ समेट कर भोली दिखने का नाटक करने लगती हैं।

सांसे आवेश में तेज तेज चलने लगीं। हाथ त्वरित गति से देह पर चढ़े कपड़ों की केंचुल को एक एक करके उतारते चले गए। उघाड़े बदन के इंच इंच को खूंख्वार नजरों से घूरता रहा। बाहें मोड़ कर बाजुओं पर उभर आई मछलियों को बारीकी से परखा। बहुत अच्छी नहीं थीं तो खराब भी नहीं थीं मछलियाँ! खाटली के पास बार्बी डॉल रखी थी। मोटी मोटी आंखों और गुलाबी गालों वाली तीन फुटिया बड़ी डॉल। पुरानी हो जाने से रिंकी बेबी ने उसे दे दी थी। आगे बढ़ कर डॉल को उठाया और बांहों के बीच लेकर इतनी जोरों से भींचा कि अगर उसमें जान होती तो दर्द से किंकिया उठती। डॉल को हिकारत से एक ओर फेंक कर फिर से आईने के सामने आ खड़ा हुआ। आंखे छलछला आईं। सिर्फ छोरियों सी स्निग्ध, चिकनी, दाढ़ी-मूंछ विहीन काया की वजह से उससे छोरियों जैसा ब्यवहार करते हैं कोठी के लोग! कैसे बताए कि उसके भीतर भी प्यार-मोहब्वत, वासना-रोमांच जैसी मासूम कामनाओं से उबचुभ एक भरा पूरा मोट्यार (मर्द) बैठा है। किस तरह से प्रमाणित करे उस मोट्यार की शिनाख्त को...किस तरह से! 

फंटुस को गढ़ते समय न जाने ब्रह्माजी को क्या हो गया था! नींद की खुमारी चढ़ी थी अथवा प्रियतमा सरस्वती के सौंदर्य की पिनक में बेसुध थे...भ्रूण को सुंदर कन्या की कोमल स्निग्ध त्वचा का आवरण देकर गर्भ में प्रक्षेपित करने के पूरे नौ महीने बाद... प्रसव के ठीक एक मिनट पहले अचानक ख्याल आया कि ले हलुआ... भ्रूण को छोरा बनाना था, छोरी नहीं! अब क्या हो ? सिर्फ एक मिनट का समय हाथ में! उसके बाद प्रसव का मुहूर्त तय! सुरसती चमारिन प्रसव कराने को चाक चौबंद! देखते देखते साठ में से तीस सेकेंड रेत की तरह फिसल गए। तब भूल सुधारने की हड़बड़ी में विधाता सिर्फ यौनांग भर ही बदल पाए थे उसका कि... प्रसव की घंटी बजी और फंटुस बाबू 'ऊँआ...ऊँआ...' का सिंहनाद करते गर्भ की कोहकाफ़ी दुनिया से बाहर के उजाले में कूद आये! ब्रह्माजी कपाल ठोक कर रह गए।

फंटुस की माँ गिन्नी नेवगिन (नाईन) को एक के बाद दूसरी, चार संतानें हुई। सब की सब एक या दो अथवा ज्यादा से ज्यादा तीन महीने बीतते न बीतते (अ)काल कवलित होतीं चली गईं। हेतराम एक आंख का काना तो था ही, रूप-रंग भी पानी भरे बादलों की तरह मटमैला था। हिवड़ा (हृदय) भी चलनी की मानिंद छेददार...जिसमें प्यार-मनुहार और भावुकता के कण ठहर ही नही पाते! उसे न लुगाई की ललक थी , न बच्चे की बचकानी चाह! 

'बच्चे न जी रहे हों तो न सही, इसमें भला रोने बिसूरने की के बात ह ?' गिन्नी को टसुए बहाते देखता तो क्रोद्ध में दो चार धौल जमा बैठता — ' बालाजी की इच्छा! होवे तो ठीक, ना होवे तो ठीक!' गिन्नी का कलेजा चिथड़े की तरह लीर लीर हो जाता। बच्चा बिना भी कोई जिंदगी है के ? कैसा निर्मम धणी (पति) मिला उसे! अक्सर कोठरी में अकेली होती तो लेटे लेटे अधखुली आंखों की नींद में उतर जाती। फिर नींद से सपने में! सपने के दृश्य बड़े सोहने होते। सपने में उसको बेटा हो जाता। छातियां दूध से लबलबा जातीं। फिर देर तक बच्चे की किलकारियों में किलकती रहती।

एक बेर निपट दोपहरी का वक्त! गम की मारी कोठरी में उदास लेटी थी। पिछली गली से गुजरते ऊंट की किंकियाहट...! किंकियाहट में पड़ोस की हेली (हवेली) के कंगूरे पर बैठे मोर की कुहूक का छौंक! दोनों गड्डमड्ड होकर मीठी लोरी बन कर कान में टपके तो वह खुली आँखों की गहरी नींद में उतर गयी। फिर नींद से सपने में! सपने के सफर में कभी रोमांचित होती तो कभी किलकती... कि तभी उसका जेठूता (जेठ का लड़का) शिबू नजर बचा कर कोठरी में चला आया और उसे बाहों में भर कर चूम बैठा — 'काकी, दुखी ना हो। जल्द ही बालाजी तुझे साची (सच) का बेटा देंगे।' गिन्नी एकबारगी सन्न रह गयी। सतरह-अठारह की उम्र में ही छैल-छबीला मोट्यार (मर्द) सरीखा दिख रहा था शिबू! सपनों के भार से बोझिल पलकों की धुंध को छटने में कुछ पल लगे और इन्ही कुछ पलों के दौरान वह मादक एहसास धमाल मचाता गुजर गया जिससे गिन्नी अभी तक लगभग अनजान थी! 

कुछ दिनों बाद गिन्नी के गर्भ में पांचवे भ्रूण का अंकुरण हुआ तो पड़ोस की मिसरी ताई ने सुझाया — 'मेरी दादी सास कह्या करती कि टाबर (बच्चे) का नाम जो गंदा संदा और अटपटा सा रख दिया जाय तो सारी बुरी बला टल जावे।' गांव से शहर दसेक कोस दूर था। उन दिनों शहर में एक फ़िल्म लगी जिसका हीरो एक सिरफिरे पागल किरदार के रोल में था। फ़िल्म में उस किरदार का नाम था फंटुस। अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए शिबू के सुझाव पर बच्चे का नामकरण पैदा होने के पहले ही कर दिया गया — फंटुस! और फंटुस पूर्ववर्ती टाबरों (बच्चों) की तरह अकाल कवलित होने से सचमुच ही बच गया।

फंटुस सत्यनारायण व्रत कथा की लीलावती-कलावती नायिकाओं की तरह ज्यों ज्यों बड़ा होता गया, उसके भीतर के स्त्रैण भाव मुखर होकर बाहर आने लगे। मां-बापू के रंग से हट कर एक दम गोरी त्वचा! मासूम चेहरे पर मोटी मोटी चंचल आंखें! संतरे की फांक से पतले होंठों पर अल्हड़ छोरी की सी गुलाबी आभा का वर्क! चाल ढाल एवं हाव भाव मे लड़कियों सी लचक। बातचीत के क्रम में आश्चर्य ब्यक्त करना होता तो अनायास ही तर्जनी और अंगूठा ठोढ़ी से जा लगते। सिर्फ नाक नक्श ही नहीं, उसकी रुचियाँ भी स्त्रैण थीं। छोरियों वाले कामों में उसे बड़ा आनंद आता। ग्रहण शक्ति तो इतनी लाजबाब थी कि उम्र के बारह-तेरह साल पार करते करते ही सिलाई-कढ़ाई, मांडना-पिरोना तथा तरह तरह के चटपटे व्यंजन बनाने में पारंगत हो गया।

सीकर से पलसाना के रास्ते बीच मे बसा कस्बाई गांव — पिरतीपुरा! इक्कीसवीं सदी का दूसरा दसक लगते लगते इस घोर 'गँवारू' गांव में भी शहर घुसपैठ करने लगा थ। गांव में लड्ढे, ऊँट और बैलगाड़ियां थीं तो जीप, ट्रेक्टर, बसों व बाइकों का फेरा भी था। कोलतार की काली सड़कें थीं तो इनकी लक्ष्मण रेखा में बंधी कच्चे-पक्के लीकों व पगडंडियों का संजाल भी था! सेठों की ऊंचे झरोखों और कंगूरों वाली हवेलियां थीं तो हवेलियों के दाएं बाएं छोटे घरों और कोठरियों के कुकुरमुत्ते से उगे बोन्साई समूह भी थे। पीछे की ओर ढूंहों, नालों और रेतीले टीलों की श्रृंखला! इनके कंगारू-गोद में ज्वार, बाजरा और मोठ उगाते खेतों के विस्तार! खेतों के सहारे सहारे बिजूखों सी खड़ी ढाणियां!

आठवीं पास करने के बाद फंटुस को शहर के स्कूल में डाल दिया गया। तब वह पंद्रहवें में पग डाल चुका था। चेहरे की लुनाई और बदन की स्त्रियोचित लचक व भंगिमाए और भी निखर उठी थी। दोस्त लोग उसे खूब छेड़ते और मजाक करते ।

'तेरी पतली कमर में है जादू...' बनवारी उसकी कमर में चिकोटी काटता।

'तेरी बाली उमरिया में जादू...' भुदड़ अंतरा जोड़ता हवा में फ्लाइंग किस उड़ाता।

फंटुस को बहुत चिढ़ होती। शर्म से मन ही मन पानी पानी होता रहता। क्षोभ से भरकर दोस्तों को फटकारता — 'देख यारों, ऐसे गंदे मजाक हमें पसंद ना हैं।'

'अरे, ये गंदे मजाक हैं के ? विधाता ने तुझे बनाया ही इतना सोहणा कि हेमामालन भी तेरे सामने पानी भरे है।' और फिर समवेत कहकहों से आकाश गूंज उठता और उस गूंज में फंटुस का विरोध कपूर की तरह न जाने कहाँ बिला जाता। शाम को अक्सर कोठरी के एकांत में मन बैचेनी और पीड़ा से भर जाता तो पूरे बदन का टटोल टटोल कर मुआयना करता वह! सब कुछ सही तो है, ऐसी तैसी दोस्तों के मजाक की! 

जन्माष्टमी पर स्कूल कमेटी की ओर से राधा कृष्ण की रासलीला का कार्यक्रम बना। राधा के रोल के लिए जब सर्वसम्मति से फंटुस का नाम चर्चा में आया तो वह हत्थे से उखड़ गया — ' ना सरजी, हम राधा का रोल ना कर सकेंगे।'

स्कूल कमेटी के पदाधिकारियों के साथ साथ प्रधानाध्यापक एवमं क्लास टीचर को खूब मान मनौव्वल करना पड़ा — ' अरे भैय्ये, इसमें कोई शक ना है कि तू अच्छा खासा मोट्यार है। नाटक में थोड़ी देर के लुगाई के पार्ट से कोई लुगाई थोड़े ही न बन जाता है ? तू रोल करेगा तो राधा के किरदार में चार चांद लग जाएंगे। स्कूल के साथ साथ तेरा भी तो नाम होगा कि नहीं, आयँ ? फिर राधा तो देवी का रूप है बावले, देवी का रोल करने का मौका तकदीर वालों को ही मिलता है!' 

अंतिम वाक्य टन्न से खोपड़ी में बज उठा ... मंदिर की घंटी की तरह! और फंटुस ने तुरंत हामी भर दी। नाटक कंपनी के मेकअप मैन ने अपने फन का जादू फेंका उस पर। घाघरा-आंगी.! फूल की बेणी गुंथी चोटियाँ.! स्नो-पाउडर-लिपिस्टिक की चमकदार परत.! बोड़ला और नथ.! चूड़ियाँ और पायल.! वक्षों के उभार के लिए ब्लाउज के भीतर नकली पैड बैठाए गए। पूरे मेकअप में उसकी धज देख कर सारा स्कूल दंग रह गया। उसे नेपथ्य में एक ओर बैठ कर इंतजार करने को कहा गया क्योंकि स्टेज पर उसकी बारी आने में देर थी। तभी उसे पेशाब की तलब हुई। नेपथ्य से निकल कर पिछवाड़े एकांत तलाशता दूर कीकर की झाड़ियों की ओर चला आया। झाड़ियों की ओट में दो मिनख ठर्रे की बोतल लिए बैठे थे। पूरे सोलह श्रृंगार में खूबसूरत छोरी को निपट अकेली इतने करीब देख कर उनके होश उड़ गए — ' शराब के संग साकी भी.! वाह रामजी, थारी माया भी निराली ह!' फिर आव देखा न ताव, झपट्टा मारा और फंटुस को झाड़ियों के बीच खींच कर रुमाल से उसका मुंह बांध दिया ताकि चींख न सके। सच बता देने की फंटुस की सारी कवायद गों गों में तब्दील होकर रह गयी। फिर उसके कपड़े उतारने को उद्यत हुए तो फंटुस ने पूरी ताकत लगा कर पैरों की इतनी जोर की गूगली चलाई कि दोनों गेंद की तरह लुढ़कते दूर जा गिरे — 'हैं...? कोमल छोरी में इतनी ताकत, हाय रामजी!'

स्कूल में वह अधिक दिन नहीं रहा। पढ़ाई में मन नहीं लगता। सालाना परीक्षा में फेल हुआ तो स्कूल छुड़ा दिया गया। अब वह बाप-काका के संग खेतों में काम करने लगा। डूंगरों की झाड़ियों में बकरियों और ऊंटो को चरा लाता। ब्याह-शादी, जापा-जलवा में शहर के सेठ-साहूकारों को नाई की जरूरत पड़ती। उसे इन घरेलू कामों में जोत देते। पर हर जगह उसकी कायिक बुनावट, लचक,लुनाई और स्त्रैण हाव भाव पर लोग खूब चुटकी लेते और वह मन ही मन कुढ़ कर रह जाता। अक्सर कोठरी के एकांत में दरवाजा बंद करके आईने के सामने खड़ा हो जाता और देह को खूब बारीकी से निरखा करता। आवेश के घेल में हाथ कपड़ों को छिलके की तरह उतारते चले जाते। नजरें देह के अंग अंग को टटोल टटोल कर बारीकी से परखतीं। सब कुछ तो 'ठीक' है। सिर्फ छोरियों सी स्निग्ध त्वचा या उन जैसा चेहरा और लचक होने से ही वह मोट्यार नही रहा ? जे भी कोई बात है ? छोरों वाले मेहनत के सारे काम बखूबी तो कर लेता है! सिलाई-कढ़ाई, व्यंजन कला, मेहंदी वेहन्दी आदि छोरियों के काम की जानकारी होना कोई ऐब है क्या ? जे तो अतिरिक्त गुण होया न। स्कूल की किताब में मैरीकॉम और पी टी ऊषा पर पाठ थे। एक बॉक्सर है तो दूसरी धावक। कड़क वर्जिश और प्रैक्टिस से उनके बदन में लुगाइयों वाली लुनाई और मासूमियत कम हुई होगी... तो क्या वे औरत नही रहीं ? 

पलसाना शहर में खूबचंद चौधरी की हेली (हवेली) थी। खेत थे। दसेक साल पहले उन्होंने कलकत्ते में कपड़े का ब्यवसाय शुरू किया और फिर वहीं बस गए। हवेली की देखभाल पारिवारिक जोशी भुवनेश्वर जी के जिम्मे लगा दिया। खेत बटाई पर उठा दिए। साल छः महीने में एक बार आते। पांच सात दिन रहकर लौट जाते। प्रवास के इन्हीं दिनों कुछ दान पुण्य का काम भी करवा देते। ऐसे कामों के पीछे जनहित से ज्यादा गांव में नाम और ख्याति पाने की लालसा रहा करती। गांव में बड़ा सा जोहड़ (तालाब) और बालाजी का मंदिर इन्हीं की देन थी। हेतराम उनके खेतों में काम करता। गिन्नी खूबचंद के मुंह लगी थी। खूबचन्दजी इस बार 'देश' आये तो गिन्नी ने विनती की — ' हुकम, ये फंटुस... थारा छोरा ...! गांव में बेकार डोल रहा। आठवीं पढ़ते पढ़ते रह गया। इसके नाक नक्श बेशक कुछ अजूबे से हैं, पर भीतर से कड़क मजबूत है। मिहनत के सारे काम कर लेगा।अपने साथ कलकत्ता ले जाओ तो सुसरे की जिंदगी संवर जाएगी।' खूबचन्दजी ने पोस्टमार्टमी नजरों से फंटुस का मुआयना किया। एक दम छोरियों का सा मासूम चेहरा! चाल ढाल, हावभाव भी वैसे ही! उसके बारे में चर्चे तो कानों में पहले ही पड़ चुके थे। आज देखा तो विश्वास हो गया। वहां कोठी में एक नौकर की जरूरत भी है। आजकल विश्वासी और भरोसे के आदमी मिलते कहाँ हैं। घर मे जवान बहू-बेटी है। पत्नी-बच्चे हैं। चोरी चकारी के अलावा और भी कई तरह के खतरे बढ़ गए हैं आजकल। उनके पड़ोस में चैटर्जी बाबू ने एक लड़का रखा था घरेलू काम के लिए। पांच सात महीने सब ठीक रहा। फिर एक रात अलमारी से गहने और पैसे निकाल कर रफू चक्कर हो गया। सिंघानियाजी के यहां तो और बुरा हुआ। गऊ जैसा सीधासाधा भोला युवक! एक दिन दोपहर के एकांत में बारह साल की बिटिया को कमरे में बंद कर बुरी तरह 'नोच खसोट' कर फरार! उनके यहाँ तो तीन तीन जवान औरतें हैं। इन सब वारदातों को देखते हुए अब तो कोठी पर नौकर रखने का साहस ही नहीं हो रहा। ये फंटुस उनकी जगह बिल्कुल ठीक रहेगा। निरापद भी और विश्वसनीय भी! न अर्द्ध है, न ईश्वर है! सुसरा पूरा ही नारी है। जवान छोरियों को किसी भी तरह की जोखिम नहीं रहेगी। 

इस तरह फंटुस कलकत्ते आ गया। कोठी में एक लंबे अरसे के बाद मर्द नौकर आया था। सिंहानियाजी के यहाँ हुए कांड के बाद कोठी में नौकर रखने का सवाल ही नही था। फंटुस की कायिक और चारित्रिक विशेषताओं की भनक उड़ती पड़ती पहले ही कोठी में आ चुकी थी। कुछ ही दिनों में फंटुस के ब्यक्तित्व की स्त्री सुलभ भंगिमाएं मुखर होकर सामने आने लगीं। हाव भाव, नैन नक्श, रुचि व सोच...सभी स्तरों पर स्त्रैण! कोठी के मॉडर्न माहौल में इन स्त्रैण भावों को फूलने-फलने के लिए प्रचुर खाद-पानी मिलने लगा। फंटुस की ग्रहण क्षमता अद्भुत कमाल की थी ही। पत्रिकाओं व टीवी के कार्यक्रमों पर चौकन्नी नजर रखता। कुछ ही दिनों में तरह तरह की कॉन्टिनेंटल रेसिपी, सिलाई कढ़ाई व पहनावे के आधुनिक फैशन की अद्भुत जानकारियाँ हासिल कर बैठा। साड़ी की पटली-पल्लू को किस तरह सेट किया जाय या चूड़ीदार के साथ दुपट्टा कंधे पर किस कलात्मकता से रखा जाय, इन मुद्दों पर वह बिन पूछे ही राय देने लगता और उसकी राय सुनकर सभी चमत्कृत भी रह जाते। पूरी कोहनी तक की मेहंदी तो बेहद ही सुंदर और लुभावनी मांड देता।

शनैः शनैः कोठी में उसकी छवि 'बृहन्नला' की बनती गई। यही बात खूबचन्दजी को सुरक्षात्मक आश्वस्ति का एहसास कराती। कोठी में युवा बहू और युवा बेटी के बीच लड़कियों की तरह खी खी करता डोलते रहता। दोनों युवतियों के साथ सेठानी ने भी मर्द के रूप में उसे तरजीह देने छोड़ दिया। सभी उसके संग ऐसे ऐसे जनाना मजाक करने लगीं जो आमतौर पर अंतरंग सहेलियों के बीच हुआ करता है । 

पर फंटुस भीतर से बैचेन रहता। गांव की जिस जलालत वाले माहौल से पीछा छुड़ाने के लिए शहर आया, वही माहौल यहां भी पूरी मजबूती से खूंटे गाड़ बैठा था। अपने साथ हर वक्त लुगाइयों वाले बात-ब्यवहार और मजाक से जेहन में अपमान व क्षोभ की आग धधकती रहती। किस तरह से साबित करे एक मोट्यार (मर्द) के रूप में अपनी पहचान वह! भगवान ने उसमें लुगाइयों की सी जरा लचक क्या भर दी, चाल ढाल और रूप छोरियों से जरा क्या बना दिये, स्त्री सुलभ कामों की निपुणता जरा क्या दे दी, लोग उसे मोट्यार मानने से ही इनकार कर रहे! लो जी लो! इसमें उसका क्या दोष भला ? बाकि और सब कुछ तो मोट्यारों जैसा है कि ना। उस तरफ किसी की भी निगाह क्यों नहीं जा रही? मुग्धा मजाक करते हुए खिलखिला कर अक्सर उस पर ढह जाती है। उस वक्त उसके भीतर सुरसुरी का गर्म लावा किस तरह उबाल खाने लगता है, वही जानता है। उस लावे को तिरोहित करने के प्रयास में प्रकटतः शरम से पानी पानी होने लगता है । छोरियों के से खुले खुले मजाक.! लापरवाह अस्त ब्यस्त कपड़े...! मन के बेलगाम होते घोड़ों को बड़ी मुश्मिल से ही काबू में कर पाता। कुनमुना कर प्रतिवाद भी करता है — ' हमें ऐसे गंदे मजाक पसंद ना हैं भाभी।' पर उन लोगों पर कोई असर नहीं होता। हंस कर उड़ा देती हैं उसकी बातों को। बस्तुतः कोठी में कोई भी उसे मोट्यार समझना ही नहीं चाहता। न तो लुगाईयां ही, ना चौधरी जी! उसकी पहचान गांव में जैसी रही थी वैसी ही यहां भी बनी हुई है 

कई बार दबी आवाज में चौधरीजी से विनती भी की — ' हुकम, हमें कारखाना में लगा दो न, हम मिहनत वाला काम करना चाहते।' खूबचन्दजी उसे ऊपर से नीचे गहरी नजरों से निहारते ... छोरियों जैसी उन्नीस की मुलायम कद काठी! न मूंछ न दाढ़ी! मर्द वाला काम करेगा, हंह! कारखाना में लगा दें तो कोठी के लिए विश्वासी नौकर कहाँ मिलेगा ? फिर पुचकारते हुए बोलते — ' कारखाना हो या घर, काम कोई भी छोटा नही होता रे। कोठी के भीतर की इतनी बड़ी दुनिया को संभालना कोई मामूली काम है क्या ? इसमें भी मेहनत और बुद्धि दोनों लगती हैं। यहीं मन लगा कर रह, कारखाने की बाद में देखेंगे।' बात आई गयी हो जाती।

कोठी से कुछ आगे जाकर नुक्कड़ की बायीं ओर एक बैद्यजी की दुकान थी। एक दिन आवेश में तिलमिलाता उनके पास चला आया और उनसे पूरी रामकहानी कह बैठा। संयोग से बैद्यजी उसी के गांव के निकले। फंटुस के प्रति सहानुभूति हो आयी। प्यार से बोले — 'एंडोक्राईन ग्रुप के हार्मोन्स ही ब्यक्ति की आंतरिक रुचि व सेक्स इच्छा का निर्धारण करते हैं। एंड्रोजेन एवं टेस्टोस्टोरेन मुख्य हार्मोन्स होते हैं बेटा। संयोग से जब इन दोनों हार्मोन्स का संतुलन बिगड़ता है तब ऐसे केस सामने आते हैं। तेरे भीतर एक भरा पूरा मर्द विद्यमान है, इसमें शक नहीं। थोड़ी मजबूती तुझे दिखानी होगी। लड़कियों जैसे हाव भाव छोड़ने होंगे। कुछ समय लगेगा, पर अभ्यास करते करते सब ठीक हो जाएगा।'

क्या खाक ठीक हो जाएगा ? इस तरह की शर्मिंदगी वाली जिंदगी भी कोई जिंदगी है के ? ना ना ... मोट्यार के रूप में उसे अपनी मर्दानगी इन लोगों पर साबित करनी ही होगी। मगर किस तरह .? इस 'किस तरह ' कोई माकूल उत्तर नही मिलने दिमाग कोफ्त से भर जाता। 

अंत में खूब माथापच्ची और सोच विचार के बाद उसके 'देशी' दिमाग में एक विलक्षण उपाय कौंध ही गया! मोह माया और लोक लाज भूला किसी दिन मौका देखकर मुग्धा को एकांत कमरे में खींच लाएगा और उसे अपने भीतर के 'मोट्यार' का एहसास करा कर ही दम लेगा। बाद में जो होना हो होता रहे! कोठी से भागना पड़े, मंजूर है। पर ये लांछन तो मिटेगा! निर्णय ले लेने के बाद फंटुस का मन हल्का हो गया और आंखों में जीत की चमक भर गई। वह सही मौके के इंतजार में रहने लगा।

तीनेक महीने बीते कि चौधरी के छोटे लड़के हर्ष का ब्याह लग गया। फंटुस का मन भी बारात में जाने का हो रहा था। पर खूबचन्दजी ने पीठ थपथपाते हुए समझाया — ' देख, औरतें बारात में नहीं जा रहीं। कोठी के सारे आदमी जो बारात में चले गए तो इनकी हिफाजत कौन करेगा ? एक विश्वासी मर्द यहाँ चाहिए कि नहीं , बोल!' फंटुस मन मसोस कर रह गया। चौधरी की घनी मूछों के पीछे से झांकते व्यंग्य को खूब समझ रहा था।

बारात प्रस्थान कर गयी। शाम को अंधेरा घिरते ही कोठी के बडे हॉल में 'टुटिया' (नाच गाना व विभिन्न स्वांगों वाला खेल) का आयोजन हुआ। सभी महिलाएं (टूटिया के दौरान सिर्फ महिलाएं ही मौजूद रहा करती हैं, मर्द नहीं) जिनमें पड़ोसिनें भी थीं, गोल घेरा बना कर बैठ गईं। फंटुस हॉल से बाहर जाने लगा तो सेठानी ने उसे रोक लिया — ' तू तो घर का बालक है रे। तेरे यहाँ रहने में कोई हर्ज नहीं।' सभी के होंठों पर अजीब सी मुस्कान खिल आयी।

पहले लतीफों और रसीले संस्मरणों का दौर चला। फिर मिसरानी बुआ ने 'पल्लो लटके...के म्हारो पल्लो लटके...' पर छोटा सा कमर-मटकी पेश किया। उनकी कमर का घेरा काफी बड़ा था, सो मजा नहीं आया।

'मजा नहीं आया...' मुग्धा इठलाई — ' ऐश्वर्या भाभी, क्यों न एक फड़कते हुए मारवाड़ी गीत पर बिंदास डांस हो जाये ?'

ऐश्वर्या तैयार हो गयी। जरी वर्क का भारी घाघरा पहने हुई थी वह। ' थाने काजलियो बना लूं, थाने आंख्या म रमा लूं, पलकां म छुपाय कर राखूंली...' के मधुर संगीत पर उसने जो कमर और हाथ पांव मटकाए तो लोगों में नशा ही छा गया। नाचना शुरू किया ही था कि आँचल ढलक कर नीचे आ गिरा। ब्लाउज में फंसे युगल वक्ष और भी मादक हो उठे। फंटुस की आंखों में लाल डोरे उभरने लगे। ऐश्वर्या के बाद मुग्धा ने 'आगरा को घाघरो मंगा दे बलमा कि म तो मेलो देखन जाऊंगी...' पर नाच प्रस्तुत किया। लगभग डेढ़ घंटे गाने और नृत्य चलते रहे। पड़ोसिनों ने भी अपनी अपनी पारी खेली। समापन का अंतिम चरण आ गया — बींद-बींदणी (दूल्हा दुल्हन) का स्वांग!

'ऐश्वर्या भाभी, आप बींद के रोल में खूब फबेंगी...' मुग्धा ने चुटकी ली तो ऐश्वर्या खिलखिला उठी — ' तब बींदणी आपको बनना होगा बाई सा...।'

'डन...।'

'अरे मेरी प्यारी सहेलियों, बींद बनने के लिए जब हमारे बीच एक नर पुंगव मौजूद है तो क्यों न टूटिये को यथार्थ का रूप दे दिया जाय...?' पारुल का ईशारा फंटुस की ओर था। 

प्रस्ताव सभी को पसंद आ गया। एक क्षण को फंटुस को लगा कि बींद का रोल देकर वे उसके मोट्यार होने की पहचान पर मुहर लगा रहीं हैं, पर दूसरे ही पल उसका चेहरा मुरझा गया। भीतर भट्टी सुलग गयी — बींद बना कर तो सारी लुगाइयाँ उसके भीतर के मोट्यार का मजाक न उड़ा रहीं हैं।

विशाल का कुर्ता-पाजामा फंटुस को फिट आ गया। उसके ब्याह का साफा भी पड़ा था अलमारी में। ऐश्वर्या दौड़ कर निकाल लायी। पारुल का लाल दुपट्टा कमरबंद बन कर कमर पर कस गया। 

'कमरबंद में खोंसने के लिए तलवार ...?' एक टिप्पणी उछली।

'धत्त...! स्त्री विमर्श का लाख ढिंढोरा पीटता रहे हमारा समाज, हम स्त्रियाँ तो जन्म जन्मांतर से पुरुषों की समर्पिता रहीं हैं और ये मिथ निकट भविष्य में तो टूटने वाला नहीं।' 

इसी बीच मुग्धा घाघरा-चोली में बींदणी का मेकअप कर चुकी थी। फंटुस की पूरी देह अजीब सी सनसनी से भरती जा रही थी। मिसरानी ताई ने दोनों पर जल-चावल-रोली छिड़कने का स्वांग किया, अस्फुट अबूझ मंत्र बुदबुदाए, घेरे का एक चक्कर लगवाया और लो जी, हो गया ब्याह! छोरियां ताली बजतीं दोनो को खिंचती हुई ऊपर माले के मुग्धा के कमरे में ले आयीं और भीतर ठेल कर दरवाजा बंद कर दिया — '' लो, अब फस्ट नाईट भी मना लो आप!' नीचे गीत की समवेत पंक्तियां हवा में उड़ती हुईं हॉल के आकाश में मंडरा रहीं थीं — ' हरियालो बन्नो म्हारो ब्यावहने चाल्यो जी...'

कमरा में आते ही मुग्धा ओढ़नी एक ओर उछालते हुए पलंग पर ढह गई। दोनों बाहें जटायु के डैनो की तरह दाएं बाएं फैला कर जोरदार अंगड़ाई ली तो कसी हुई चोली के दो हुक चटक गए । सांचे में ढली गोरी काया! चोली ढीली हुई तो पुष्ट वक्ष और बेपर्द हो उठे — ' ऊफ, कितनी गर्मी है फंटुस ...! बहुत थक गई!' थकान से बोझिल पलकों को ढलकते देर न लगी। फंटुस के भीतर एक लावा खौलने लगा। इतने उद्दाम उद्दीपन और ऐसे नायाब मौके की तो कल्पना भी नहीं की थी!!

जेहन में मादक नशा छाने लगा। भीतर बैठा मोट्यार फुफकारा — ' मौका बढ़िया है। विरोध करने की हालत में भी ना है छोरी। मुझे बाहर आने दे। अपनी शिनाख्त साबित करके ही रहूंगा आज।' मोट्यार मेढक सा फुदक कर बाहर आ गया। सनसनाते हाथ मुग्धा की देह पर रखना ही चाहा था कि भय से पसीना छूटने लगा। कलेजा हदस कर धक धक कर उठा। गांव का गंवई संस्कार कोड़ा फटकारता सामने आ खड़ा हुआ — 'बावला ह के ? किस तरह तेरे पे भरोसा करके बेखबर पड़ी है छोरी। विश्वासघात करेगा तू ? तू तो भाग लेगा यार, पर इस मासूम की जिंदगी पर दाग लग जाएगा कि नहीं!' पलक झपकते सारी उत्तेजना स्खलित हो गयी और मोट्यार दुम दबाता फंटुस के भीतर की अशोक वाटिका में जा दुबका। 

 ज्यों ज्यों दिन बीत रहे थे, फंटुस की बैचेनी भी बढ़ती जा रही थी। कोठी के सारे लोगों का बर्ताव उसको बुरी तरह कचोटता रहता। अपमान की तिलमिलाहट से ऊब कर अक्सर अपनी कोठरी के एकांत में आईने के सामने खड़ा हो जाता और बस्त्र हीन बदन को विभिन्न कोणों से देर तक घूरते रहता।

कुछ समय बाद मुग्धा के सीए के इम्तहान लगे। सेंटर थोड़ी दूर के कस्बाई कॉलेज में पड़ा। अंतिम पेपर वाले दिन गाड़ी खाली नही थी तो फंटुस को साथ लेकर ऑटो से कॉलेज चली गयी। तीन बजे पेपर खत्म हुआ।

'ओह, आज कितना रिलैक्स लग रहा है फंटुस! जैसे सिर पर कोई पहाड़ रखा था, जो उतर गया हो! चलो, टहलते हुए चलते हैं। नुक्कड़ पर आइसक्रीम खाएंगे, ठीक ?' मुग्धा चहकी। कुछ ही आगे नुक्कड़ था। नुक्कड़ पर छोटा सा कस्बाई बाजार चहचहा रहा था। एक गुमटी से कोरोनेट आइस क्रीम खरीदी गई। आइस क्रीम लेकर बाहर निकले ही थे कि दो युवक बायीं ओर से तेजी से पलटे और जानबूझ कर मुग्धा से टकरा गए। टक्कर से दोनों की आइस क्रीम नीचे गिर गयी। 

'अरे अरे ... देख कर ना चाल सको आप ? सारी आइस क्रीम मिट्टी में मिला दी।' फंटुस फनफनाया।

'देख के तुम नेई चला और हमको दोष दे रहा...वंडरफुल!' युवकों के लहजे में शरारत घुली थी।

'लो जी, चोरी भी और सीनाजोरी भी...!'

'ऐ ...चोर किसको बोला रे...? ' एक ने आगे बढ़ कर फंटुस का कॉलर ही पकड़ लिया तो मुग्धा ने बीच बचाव करते हुए कहा — 'चोर नहीं बोला, ये प्रोवर्व है। खैर जाने दें। आइस क्रीम गिर गयी, कोई बात नहीं। चल फंटुस...।'

'नहीं...नहीं...ऐसे कइसे जा सकता।' दूसरा युवक आंखें नचाते हुए बोला — 'थोड़ा दूर पे अमूल का काउंटर आछे। ऊंहा का बढ़िया आइस क्रीम कीन के (खरीद कर) देगा कॉम्पेनसेशन में, ओके ?' बेहिचक मुग्धा की कलाई थाम ली और अपने साथ खींचने लगा। एक दम से कलाई पकड़ लेने के युवक के दुस्साहस पर मुग्धा चकित रह गयी । चींख ही तो पड़ी — 'ये क्या बदतमीजी है ? कलाई छोड़िए।' 

मुग्धा की कसमसाहट पर युवक दांत निपोरते रहे। फंटुस ने झटके से कलाई छुड़ा दी — 'जे कैसा मजाक है ?'

'मजाक नेई, हमसे एक ठो भूल हुआ, उसका पोरिमार्जन (प्रायश्चित) करना मांगता, बस।' युवक ने ढीढतापूर्वक फिर से कलाई थाम ली — ' चलो...।' 

'आप लोग तो बदतमीजी पर उतर रहे।' फंटुस क्रोध से चींखा तो युवक उसे जोर का धक्का देते हुए फुफकारा — ' तुम बेटा बीच में क्यूं टपक रहा बार बार। हम मैडम से बात कर रहा न।' धक्के से फंटुस लड़खड़ाता जमीन पर गिर पड़ा। कोहनियां छिल गयीं, वहां खून रिस आया। मुग्धा घबड़ा गयी। बेबात का फसाद क्यों कर रहे ये लीग ? जोर लगा कर कलाई छुड़ाते हुए घिघियायी — ' थैंक्स, कॉम्पेनसेशन या भूल की क्या बात है! हमें जाने दें।'

'नो... नो... 'कलाई छूटी तो एक ने उसका दुपट्टा खींच लिया — ' आइस क्रीम तो हामरा संग खाना ही होगा मैडम।'

फंटुस तेजी से उठता दोनों की ओर लपका — 'हम कह रहे, दुपट्टा दे दो, नहीं तो ठीक ना होगा।'

'नेई देगा तो क्या कोरेगा रे...? तुम रोकेगा तुम! मऊगा...!' दुश्शासनी खिलखिलाहट!

'मऊगा' शब्द बिजली सा कड़कड़ करता टन्न से फंटुस के भीतर उतर गया। कड़कड़ाहट के झटके से नसें प्रत्यंचा सी तन उठी। आंखों में खून उतर आया। उसने आव देखा न ताव, मुट्ठी बांध कर पूरी ताकत से एक घूँसा युवक के जबड़े पर दे मारा।

'उड़ी बाबा...' दोनों ने इस बार नजर भर कर फंटुस की कायिक बुनावट का मुआयना किया। उसकी ओर से ऐसे औचक प्रहार की उम्मीद नहीं थी। जिसे घूँसा लगा था, वह एक पल के लिए सन्न ही रह गया — ' ई मऊगा में तो दारुण (बहुत) जोर आछे रे मोंटू ।' 

बात पूरी तरह बिगड़ चली थी। मुग्धा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। तभी मोंटू ने पलट वार करते हुए फंटुस की छाती पर दो चार सधी फाइट जमा दिए। फंटुस की चींख निकल गयी। वह फिर से औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा। मुग्धा के मन मे एक आशंका कौंध गयी — किडनैपिंग की तो मंशा नहीं! वह भय से चिल्लाने लगी। इन लोगों की झड़प से आकर्षित होकर वहां एक मजमा जुट गया था। मजमे में मजा लेने वाले तमाशबीन ज्यादा थे। संभवतः दोनों की मस्तान (गुण्डा) वाली छवि आतंक बन कर दर्शकों के जेहन में धुंआ रही होगी। प्रतिरोध का एक भी स्वर नहीं उभरा। मुग्धा फिर से किंकियायी — ' प्लीज, दूसरी आइस क्रीम नहीं चाहिए। जाने दें।'

तभी भीड़ के न जाने किस हिस्से से एक फिकरा हवा में उछला — 'ऐय मोंटू-बापी... इस बार साला दारा सिंह से पल्ला पड़ा तुमलोग का...हाहाहा ...।' फिकरेबाज संभवतः मोंटू-बापी का यार होगा। मोंटू ने पुनः मुग्धा का हाथ पकड़ लिया। होठों पर बेहयाई हंसी! मुग्धा झटके से हाथ छुड़ा कर भीड़ की ओर दौड़ गयी — ' फंटुस, तुम भी भाग आओ।'

पर फंटुस भाग पाता, इसके पहले ही बापी ने उसका कॉलर पकड़ लिया। 'मऊगा' शब्द अभी भी फंटुस के भीतर बिजली सा कड़कड़ कर रहा था। गांव में एक भीम बाबा थे। छोरों को पहलवानी के पैंतरे सिखाते। फंटुस दूर खड़ा देखते रहता। ग्रहण शक्ति तो विलक्षण थी ही। बहुत से पैंतरे जेहन में अंकित हो गए थे । मुट्ठियाँ भींच कर पैंतरा साधते हुए दायीं टांग को इस कलात्मकता से हवा में उछाला कि वह मोंटू की जांघों के संधिस्थल पर पड़ी। मोंटू 'माँ... माँ गो ...' उच्चारता दोनों हाथों से 'संधिस्थल' को ढाँपे उकड़ू ढह गया। तभी बापी के हाथ मे न जाने किधर से निकल कर धारदार छूरा चमक उठा। छूरा देख कर भीड़ को सांप सूंघ गया। मुग्धा भीड़ से युवकों को रोकने की गुहार करती रही। कोई सामने नहीं आया।

 फंटुस के चेहरे पर जरा भी खौफ नहीं था। वह छूरे पर नजर जमाये पैंतरा तौल रहा था। तभी बापी का हाथ लहराया और छूरा फंटुस की बांह और पेट पर गहरा जख्म बना गया। वहां से खून टपकने लगा। पीड़ा से थरथराती चीत्कार फूट गयी कंठ से। वह दांत भींच कर विक्षिप्त की तरह ताबड़तोड़ लात चलाने लगा। उसके सर पर मानो सनक सवार हो गई थी। मुग्धा को युवकों से बचाकर अपने भीतर के मोट्यार की शिनाख्त साबित करने की मासूम सनक! लात युवक को लग भी रही है या नहीं, न तो होश था न ही चिंता। मुग्धा का भरोसा नहीं टूटना चाहिए। वह पूरी ताकत से लात चला रहा था । बेखौफ! 

छूरे का एक वार तभी गले पर आ लगा और ठीक उसी पल फंटुस की लात की एक सटीक गूगली बापी की हथेली पर लगी । छूरा दूर छिटक गया। फंटुस का चेहरा लहूलुहान हो गया। उस पर नीम बेहोशी छाने लगी। लहराता जमीन पर गिर पड़ता, कि मानो बुझते हुए दीपक की लौ भड़क उठी हो, सींकिया जिस्म में पूरी शक्ति बटोर कर ऐसे कलात्मक पैंतरे से टांग उछाला कि बापी किंकियाता दूर मोंटू के पास जा गिरा।

 अचानक पुलिस वैन के सायरन की आवाज माहौल में गूंज गयी। दोनों जन किसी तरह लंगड़ाते उठे और पलक झपकते परिदृश्य से फरार हो गए। उनके जाते ही भीड़ का दायरा चुम्बक सा खिंचता फंटुस के समीप सिमट आया। दिन दहाड़े अराजक छेड़छाड़ और हिंसक वारदात की बढ़ती घटनाओं को केंद्र कर ' च... च... 'नुमा टिप्पणियां हवा में उड़ने लगीं। 

आननफानन मुग्धा ने एक ऑटो रोका। लोगों की सहायता से घायल फंटुस को ऑटो में चढ़ाया । ऑटो बेग से घर की ओर दौड़ पड़ा। मुग्धा की नम किंतु फटी फटी आंखें एक टक रक्त से सने उसके चेहरे पर स्थिर थीं। अगर आज फंटुस न होता तो ... तो ...! परिणाम की कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो गए। बार बार जेहन में उसके बेखौफ रौद्र रूप उसके प्रतिरोधात्मक पैंतरे कौंध रहे थे। अचानक आंसुओं से धुंधलाई नजरों को लगा जैसे स्त्रैण नाक नक्श और लड़कियों सी लुनाई लिए मासूम चेहरा की ओट से कोई कैटरपिलर प्यूपा के ठोस कवच को बेध कर बाहर आ गया हो और अपनी शिनाख्त की दुंदुभि पीट रहा हो।

तभी तेज जरकिंग से मुग्धा की तंद्रा टूटी। दुपट्टा गुड़ी मुड़ी सा गोद मे पड़ा था। न जाने मन मे क्या आया कि अर्द्ध-चेतन फंटुस से नजरें चुराते हुए तेजी से दुपट्टा उठाया और लज्जा से लरज कर उसे वक्ष पर फैलाने का उपक्रम करने लगी।

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