उत्तर आध्यात्मिकता का अतिक्रमण - विजय राय Infraction of Post-Spirituality - Vijay Rai

इधर बहुत तेज़ी से हर वर्ग में मुनाफे का खेल पनपा है, उसने सबसे ज्यादा हमारी संवेदनाओं को नुकसान पहुंचाया है। आज हर वस्तु की कीमत है। मनुष्य भी वस्तु में तब्दील कर दिया गया है और उसका भी मूल्य है।

छठे दशक को यदि हम लघु पत्रिका दशक की संज्ञा दें तो गलत न होगा। उस समय हिन्दी में अनास्था के आसपास की पीढ़ियां अपने-अपने वजूद के लिए मशक्कत कर रही थीं और आलम यह था, कि लघु पत्रिका एक प्रखर आन्दोलन बन चुका था। समकालीन रचनाशीलता को इन छोटी–छोटी साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा अलग–अलग धाराओं, शाखाओं तथा पीढ़ियों के रुप में उभार और अपने–अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर मिल रहा था। नई रचनाशीलता इन लघु पत्रिकाओं में जिस तरह श्रेष्ठता के आधार पर जगह घेरने लगी थी, उसी के नतीजतन ही तेजस्वी प्रतिभाएं सतत सामने आती रही। ये पत्रिकाएं साहित्य में अपने समय को बखूबी दर्ज कर रहीं थीं। अपनी जरूरत, सर्जनात्मक सार्थकता और अवदान को भी वे प्रमाणित कर रहीं थीं। भूमण्डलीकरण के आज के इस प्रतापी दौर में साहित्य और पत्रकारिता को दो अलग अलग अनुशासन मानना ठीक नहीं होगा। दोनों में काफी हद तक साम्य है। फर्क सिर्फ इतना है कि बकौल रघुवीर सहाय पत्रकारिता जल्दबाज़ी में लिखा हुआ साहित्य होता है, जबकि साहित्य में एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि सम्पन्नता के साथ–साथ कुछ खास अर्थों में गहन जीवनावलोकन का एक विहंगम दृश्यांकन होता है, जिसका स्थाई महत्त्व और उपयोगिता होती है। दूसरे शब्दों में यदि यूं कहें तो पत्रकारिता साहित्य रचना की आधार भूमि है। जंगे आज़ादी में जो हमारे पत्रकार थे वे प्राय: साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे। वस्तुत: उस दौर की पत्रकारिता मिशनरी थी, जबकि आज की पत्रकारिता में वैचारिकता और विवेचन के लिये लगातार स्पेस सिकुड़ता जा रहा है। आज हमारे समय की जो उल्लेखनीय और धयातव्य पत्रिकाएं हैं उनमें तद्भव, पहल, समयांतर, वसुधा, वागर्थ, बहुवचन, नया ज्ञानोदय, परिकथा, पांखी आदि हैं, जो पूरी शिद्दत से अपनी सार्थकता गुणवत्ता और हस्तक्षेप को मुतवातिर बनाये हुये हैं। इसके अलावा आज भी साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़े ऐसे जनपक्षधार कलमगीर हैं, जो अपनी सार्थक रचनाधार्मिता के जरिये साहित्य को अविरल सम्पन्न बना रहे हैं।
लोग अपने यहां संयुक्त परिवारों की टूटन का दर्द बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर पाये और अन्तत: समूह में रहने की आदिम प्रवृत्ति के चलते वे अपना ज्यादा से ज्यादा समय जमावड़ों और चैकड़ियों में व्यतीत करने लगे। यह करते हुये उनमें श्रेष्ठता भाव, आत्ममुग्धता और तपस्वी होने का अहसास भी पनपने लगा। 
हमारे यहां आज तक युवा ऊर्जा का सार्थक इस्तेमाल जिस तरह किया जाना चाहिये था, उस रूप से नहीं हो पाया है। इस व्यवहार को एक बहुत बड़ी विडम्बना के रूप में देखा जाना चाहिये। हक़ीकत तो ये है कि हमारी नई पीढ़ी अपने देश से अभी उस स्तर तक शिद्दत से जुड़ नहीं पायी है। किसी भी विकसित या विकासशील देश का अपना राष्ट्रीय चरित्र होता है, साथ ही उसके भावी नागरिकों में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना भी होती है। जिस देश के नागरिकों में सामूहिक जिम्मेदारी की भावना न हो तो वहां बहुतेरे विकार खुद–ब–खुद पनपने लगते हैं। दरअसल जिस तरह से हमारे यहां युवावर्ग में अंतरराष्ट्रीय दृष्टि का विकास हो रहा है, वह शुद्ध बाजारवाद की देन और ग्लोबलाइजेशन के नतीजतन ही है। इधर बहुत तेज़ी से हर वर्ग में मुनाफे का खेल पनपा है, उसने सबसे ज्यादा हमारी संवेदनाओं को नुकसान पहुंचाया है। आज हर वस्तु की कीमत है। मनुष्य भी वस्तु में तब्दील कर दिया गया है और उसका भी मूल्य है। हकीकत तो ये है कि हमारे यहां अनुकरणीय विचारों और अवधारणाओं की विदाई हो चुकी है। एक नई यानी उत्तर आधुनिक आचार संहिता बहुत तेजी से हमारे लोक व्यवहार में लागू की जा चुकी है। विज्ञापन हमारी जरूरतों और संवेदनाओं पर इस कदर हावी होते जा रहे हैं कि हम उनसे संचालित होने के लिए विवश और बाधय हो गये हैं ।

(ADVT)
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अगर आप ग़ौर करें तो पायेंगे, कि हमारे समय में ‘‘बातूनीपन’’ और ‘‘वाचलता’’ भी पर्याप्त मात्र में बढ़ी है, जिसे हमारा मौजूदा समाज उसी वेग से महत्त्व भी दे रहा है। यह प्रवृत्ति वस्तुत: बहुत घातक है, खासकर संजीदा अदब और सार्थक जिन्दगी दोनों के पक्षकारों के लिये। इधर जिस तेजी से जीवन की कठिनाइयों, संघर्ष और अपने दायित्वों से भागे हुये लोग नव आधयामिकता की ओर आकर्षित होकर नितांत वैयक्तिक और रूमानी जिन्दगी की ओर लामबन्द हो रहे हैं क्या वह किसी भी विकसित देश का सपना देखने वाले राष्ट्र के लिए मुनासिब है ? इतिहास गवाह है कि भाई लोग अपने यहां संयुक्त परिवारों की टूटन का दर्द बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर पाये और अन्तत: समूह में रहने की आदिम प्रवृत्ति के चलते वे अपना ज्यादा से ज्यादा समय जमावड़ों और चौकड़ियों में व्यतीत करने लगे। यह करते हुये उनमें श्रेष्ठता भाव, आत्ममुग्धता और तपस्वी होने का अहसास भी पनपने लगा। आम आदमी की जिन्दगी पर जिस तरह उत्तर आध्यात्मिकता ने अतिक्रमण करना शुरू कर दिया है, उससे मनुष्य की उद्यम शक्ति तो प्रभावित हुई ही है, लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान हमारी संवेदनात्मक सम्पत्ति का हुआ है। आम आदमी की जिन्दगी में जिस तरह बुनियादी चीजों की जगह गैरजरूरी और रूमानी चीजें दाखिल होती जा रहीं हैं, वह दरअसल कर्मशून्य जीवन जीने वालों का मौलिक यथार्थ है और नये समाज शास्त्र की बदलती हुई नई अवधारणा की गुप्त प्रस्तावना भी। सच तो यह है कि हमारा युवा वर्ग मोहभंग और अपने निजी सपनों की टूटन के अहसास से क्षत–विक्षत होने के कारण एक स्वरचित छद्म संसार में प्रवेश कर गया है। वह विभ्रम और छद्म के घेराव में एक वैकल्पिक जिन्दगी जीने का अभ्यासी होने की कोशिश में है। हम अपने समय की नई रचनाशीलता का आकलन किन मानदण्डांे और सिद्धांतों के आधार पर करें। अपनी लोकोपयोगिता, सृजनात्मक अवदान और मानवीय प्रदेयों का मूल्यांकन कैसे करें। हमारे युवजन जो प्राय: उत्तर आधुनिकता की सार्वजनिक वास्तविकता से बाबस्ता हैं, वे फौरी सफलता के विभ्रम में अपनी रचनात्मकता की तलाश को नई पहचान देन के लिये आतुर हैं। क्या हम नई दृष्टि, नये प्रश्नों और नई भाषा की नई कसौटी बना पाये हैं ?

आजादी के बाद से हमारे यहां समकालीन साहित्य और पत्रकारिता की दशा–दिशा यानी पूरा का पूरा दृष्टि परिप्रेक्ष्य ही प्राय: संकुचित तथा महाजनी होता गया। बहुविधा सामाजिक दबावों तथा जीवन की विषमताओं, जटिलताओं के बीच से उपजे युवा रचनाकारों ने अपने आसपास के आम आदमी की सारी जद्दोजेहद और संघर्ष को पूरी तल्खी से व्यक्त किया हैं। उनकी दृष्टि ग्लोबल हुई है। उनके सरोकार और चिन्ताएं उनकी रचनाशीलता में बड़ी शिद्दत से व्यक्त होती देखी जा सकती हैं। कृतियों की अंतर्वस्तु और शिल्प की बुनावट दोनों में धार एवं नयेपन का आग्रह स्पष्ट रूप से दिखता है। अपनी पिछली पीढ़ी के मुकाबिल वे ज्यादा सजग और धयानकर्षी हैं। यह हमारे लिये बहुत सुखद है। इधर प्राय: सभी रचनाकारों, जो वय के साथ–साथ लेखन में प्रवेश करने की दृष्टि से भी एकदम नये हैं, ने अपने समय को बखूबी देखा समझा और अक्स किया है। पहचान के स्तर पर वे नये अपरिचित भले हों, लेकिन रचना के स्तर पर उनकी परिपक्वता धयातव्य है।

- विजय राय 

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