योनि का ऐशट्रे : औरत, औरत की देह और बीमार समाज पर कुछ विचार — सुमन केशरी



स्त्रियों द्वारा अपनी अस्मिता का रेखांकन पुरुषों को “स्वभावतः!” बुरा लगता है। — सुमन केशरी

Suman Keshari
Suman Keshari




जब कोई स्त्री पुरुषों की विकृत मानसिकता पर सवाल उठाती है उस समय पुरुष को यह क्यों लगता है कि वह उसपर हमला है? गलत और सही का निर्णय सवाल उठने और उस पर बहस होने से हो तब ही समाज का उत्थान संभव है. सुमन केशरी हमारे स्त्री-समाज की वह बडबोली नहीं हैं जिसका स्टैंड लडखडाता रहता हो, उनकी विचारधारा इधर-उधर डोलने वाली नहीं रही है. स्त्री योनि वाली ऐशट्रे जिसे अमेज़न कुछ दिनों पहले बेच रहा था, को केंद्र में रखते हुए उन्होंने अपने इस लेख में न अपनी विचारधारा पर कायम रहते हुए न सिर्फ बड़े ही वाजिब सवाल उठाये हैं बल्कि उन सवालों के होने के पीछे की मानसिकता को भी चिन्हित किया है. 

एक महत्वपूर्ण लेख जिसे हर समाज के हर उम्र के तबके को पढ़ना चाहिए. 

भरत तिवारी

योनि का ऐशट्रे 

सुमन केशरी 

अगर सिगरेट बुझाने के लिए स्त्री की योनि सामने उपलब्ध हो, तो सच बतलाईए, आपको कैसा लगेगा? उत्तेजना से भर जाएँगे आप? अथवा डर कर काँप जाएँगे अथवा जुगुप्सा से भर जाएँगे आप या इट्स ओके यार! जैसा कुछ मन में आएगा, जिसे सर्वे की भाषा में ‘नो ओपीनियन’ कह कर छुट्टी पाने का प्रयास माना जाएगा, लेकिन वास्तव में यह समाज में व्याप रही वैचारिक निष्क्रियता अथवा इनडिफ़रेंट रवैए का ही प्रतिबिंबन है।


मेरा यह प्रस्ताव कहीं दूर से नहीं आ रहा, बल्कि ऐमेज़ॉन पर बेचे जा रहे एक ऐशट्रे के संदर्भ में है…अब अगर आपने वह विज्ञापन नहीं देखा तो माफ़ करेंगे, मैं सच में किसी जीती जागती हाड़माँस की औरत की योनि में सिगरेट बुझा पाने की आपकी ‘...कल्पना !’ को यहीं लगाम लगाकर विज्ञापन और बाजार के उस संसार में ले जा रही हूँ, जहाँ ऐसे ‘डिज़ाइनर!’ ऐशट्रे बेचे जा रहे हैं, जिसमें एक औरत बाकायदा अपनी योनि उघाड़े आपके होंठ छुए सिगरेट की राख और आग अपने भीतर लेने को उपलब्ध ही नहीं आतुर भी है!
योनि का ऐशट्रे
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आज देह की पवित्रता की अवधारणा भी बदल गई है।  — सुमन केशरी

मनुष्यों के सेक्स की दुनिया बहुत अजब-गजब है। यहाँ आनंद केवल शारीरिक क्रिया तक सीमित नहीं रहता बल्कि वह मानसिक अथवा काल्पनिक क्षेत्रों में भी विचरन करता है और वर्चस्व की धारणा से भी रूपायित होता है। अब तक औरत-मर्द के संबंधों में पुरुषों का वर्चस्व रहा है, परंतु पिछले कुछ दशकों से औरतों ने भी अपना वर्चस्व कायम करने की कोशिशें की हैं। अभी तक सेक्स और सेक्स से मिलने वाले आनंद की बात करना पुरुषों का काम था। स्त्री भी आनंद में सहभागिनी है, यह बात सैद्धांतिक रूप से तो मान्य थी परंतु यह स्त्रीविमर्श का अहम् मुद्दा नहीं बनी थी। औरत को भी सेक्स चाहिए, उस पर खुलेआम बातचीत करने का अवकाश चाहिए, अपने शरीर पर अपना स्वामित्व भी चाहिए और इसीलिए पुरुष की मांग को नकारने का अधिकार भी । आज देह की पवित्रता की अवधारणा भी बदल गई है। विवाहपूर्व सेक्स कम से कम बड़े शहरों के कुछ तबकों में बड़ी बात नहीं रह गई। संबंधों में परस्पर निष्ठा पर अधिक बल है और स्त्री की मांग है कि अगर उसे विवाहेतर संबंध बनाने की छूट नहीं है, तो पुरुष को यह विशेषाधिकार क्यों प्राप्त हो? यह सब आज के समाज की सच्चाई है। और स्त्रियों द्वारा अपने व्यक्तित्व का उग्र रेखांकन इन सब मुद्दों पर दिखाई देता है।


समाज में वर्चस्व जाति, वर्ग, क्षेत्रीय उन्नति आदि कई रूपों में प्रकट होता है, किंतु स्त्री के संदर्भ में हालत बदल जाती है। स्त्री किसी भी जाति, वर्ग, स्थान की हो, हर हालत में उस पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है — उसके अपने धर्म, जाति-वर्ग आदि के पुरुष ही नहीं बल्कि अन्य जाति-वर्ग के पुरुष भी, केवल पुरुष होने के चलते किसी भी स्त्री से स्वयं को श्रेष्ठ मानने का हक पा लेते हैं। ऐसे में स्त्रियों द्वारा अपनी अस्मिता का रेखांकन पुरुषों को “स्वभावतः!” बुरा लगता है।


दरअसल हजारों साल के पितृसत्तात्मक सोच ने पुरुष वर्चस्व के रोजमर्रा की प्रैक्टिस को स्वभाव मान लिया है। जबकि वह सिर्फ़ आदत का हिस्सा भर है, स्वभाव नहीं। यहाँ मैं “स्वभाव” का प्रयोग ऋत के अर्थ में कर रही हूँ। अर्थात् जैसे जल का स्वभाव है बहना और अग्नि का जलाना, ठीक उसी अर्थ में स्त्री पर पुरुष का वर्चस्व समाज का स्वभाव मान लिया गया है। लेकिन सोचने की बात यह है कि क्या यह सचमुच समाज का स्वभाव है अथवा प्रैक्टिस या आदत भर, जो समय के अनुसार बदल सकता है और उसे बदलना भी चाहिए।

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किसी भी समय, समाज में सेक्स का उपयोग हथियार के तौर पर किया गया है। युद्ध में सैनिकों द्वारा परास्त कौम की स्त्रियों का बलात्कार व उनको वेश्या वृत्ति में ढकेल देना, विजेता कौम की परास्त कौम के प्रति घृणा की अभिव्यक्ति है। ऐसे में औरत की देह को कौम के लिए इज्जत का सवाल बना कर पेश किया जाता है और इसीलिए पराजित कौमें भी दूसरे की स्त्री के साथ ऐसा व्यवहार करके चैन पाती हैं। अपने मिथकों को पढ़ें तो द्रौपदी का चीरहरण अथवा रावण द्वारा सीता का हरण वस्तुतः प्रतिद्वंद्वियों को ‘उचित’ शिक्षा देने का उपक्रम हैं। किंतु आज स्त्रियों के विरुद्ध घनघोर हिंसा की जो प्रवृत्ति दिख रही है, उसके मूल में धार्मिक अथवा जातीय द्वेष के साथ साथ स्त्रियों द्वारा अपने व्यक्तित्व के रेखांकन का भी योगदान है। आज स्त्री पुरुष के मुकाबले में खड़ी है, उसकी प्रतिद्वंद्वी बन कर। पुरुषों के मुहावरे में बात करें तो ‘पैर की जूती सिरमौर बनने के चक्कर में है’। ऐसी स्थिति में पुरुष अपने शारीरिक बल का उपयोग कर स्त्री को देह के स्तर पर पराजित करने का उपक्रम करता है और न केवल शारीरिक हिंसा और बलात्कार द्वारा बल्कि कल्पना करके भी वह स्त्री को कष्ट देकर सुख पाना चाहता है। योनि वाले ऐशट्रे का अभिप्राय यही है। यह दरअसल पुरुष तथा पितृसत्ता के जेहन में गहरे में बसी घृणा और कमतरी का भी द्योतक है। घृणा और कमतरी किस बात की?


हम वापस लौटते हैं सेक्स की ओर। यूँ तो पुरुषों के लिए सेक्स अपने साथ शारीरिक तौर पर किसी भी तरह का ‘बर्डन’ (जिम्मेदारी या डर/भार) नहीं लाता, जैसा कि गर्भधारण के चलते स्त्री के लिए दैहिक, सामाजिक- सांस्कृतिक तथा आर्थिक आदि, और इसीलिए आनंद की अबाध संभावनाएँ पुरुषों के लिए मान-समझ ली गईं हैं। किंतु यहीं वह “कैच” है जो पुरुषों को बेचैन करता है। पुरुषों के वीर्यपात को ‘स्खलन’ कहते हैं — माने गिरना। और इसीलिए सभी धर्मों और संस्कृतियों में ब्रह्मचर्य अथवा संयम पर, ‘धातु’ को बचाने पर इतना बल है। जबकि स्त्रियों के लिए वीर्य धारण करना वरैण्य है। स्त्रियों का ‘ऑर्गाज़्म’ और और पुरुषों का ‘स्खलन’ एक बात नहीं है। स्त्रियों को यौनसुख मिले न मिले, गर्भ तो उसी के पास है और इसीलिए मनुष्य प्रजाति अथवा वंशबेलि बढ़ाने का जरिया उसी के पास है। वह एक तरह से ‘अंतिम’ अथवा ‘ उच्चतम’ सुख की स्थिति महज अपनी देह की विशिष्टता के बल पर पा जाती है। और फिर प्रसव पीड़ा जैसी असह्य पीड़ा का सहन कर अपने देह की पीड़ा सहने की विशिष्टता का परिचय सहज ही दे देती है। स्त्री के लिए यह उसके ‘स्वभाव’ अर्थात् ऋत के अन्तर्गत है। पुरुष उस पीड़ की अनुभूति को कभी हिंसा के जरिए तो कभी साहित्य-कला के सृजन के तौर पर पाने की कोशिश करता है। पर सृजन की यह पीड़ा प्रसव-पीड़ा सदृश होती है, स्वयं में पीड़ा नहीं! कभी आपने ध्यान दिया है कि कविता-कहानी रचने, बेलबूटे काढ़ने बनाने आदि सृजन की बेचैनी को स्त्रियाँ कभी प्रसव-सदृश पीड़ा नहीं कहतीं — क्यों कि वे अपने अनुभव के बूते जानती हैं कि जनना क्या होता है!

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तो पुरुष पहले भी अपने को स्त्री की तुलना में ‘मूलभूत’ सृजन के मामले में कमतर पाते थे, और इसीलिए भूमि या मशीन की तरह स्त्री को भी उन्होंने अपनी मिल्कियत मान कर संतान तो अपना नाम दिया। और अब तो स्थितियाँ बहुत बदल गई हैं। स्त्रियाँ हर मामले में — पढ़ाई से लेकर कमाई तक और घर से लेकर युद्ध के मैदान तक पुरुषों को चुनौती दे रही हैं — ऐसे में घृणा का आवेग बढ़कर किन किन रुपों में अभिव्यक्ति पाएगा यह देखने-सोचने का विषय है।


इन दिनों स्त्रियों का बलात्कार कर उन्हें बर्बर तरीके से प्रताड़ित कर मार डालना, उन्हें तेजाब पीने को मजबूर करना या उन पर तेजाब फेंकना आदि बहुत आम बातें हो गई हैं। समाज जिनसे डरता है, घृणा करता है उन्हें ही ऐसे दंडित करता है।


औरतों का पढ़ना — सवाल करना, अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व का रेखांकन करना, अपने को वस्तु नहीं बल्कि व्यक्ति मानना और आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील होना क्या इतना असह्य है कि पितृसत्ता या पुरुषवादी सोच वाले लोग दरिंदगी को अपना ‘स्वभाव’ बना लें…

योनि को ऐशट्रे की तरह इस्तेमाल करने वाली मानसिकता रोगी मानसिकता है — यह तो जानना और मानना ही होगा।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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