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कहानी: ख्वाजा, ओ मेरे पीर! - शिवमूर्ति

पाठक हतप्रभ रह जाता है… पाठक को समझ ही नहीं आ रहा होता कि आखिर कैसे एक-कहानी को पढ़ कर वह उस 'दुनिया' में विचरण कर आया, जो उसके अंतस में थी तो मगर उसको खबर ही ना थी। निःसंदेह यह शिवमूर्ति सरीखे कथाकारों की कहानी-लेखन और कहानी पर किये गए अथक परिश्रम से ही संभव हो पाता होगा, वर्ना ऐसा नहीं हो सकता कि पाठक किसी कहानी को पढ़ते वक़्त ये महसूस करने लगे कि जो वह पढ़ रहा है वो असलियत है और वो उसी परिवेश का ही एक हिस्सा है... ख्वाजा, ओ मेरे पीर! मुझे उसी दुनिया में ले गयी जहाँ कथाकार मुझे भेजना चाहता था.... सशक्त, सम्मोहक कहानी - ख्वाजा, ओ मेरे पीर! 

भरत तिवारी, 6/2/2015, लखनऊ 

कहानी

ख्वाजा, ओ मेरे पीर!

शिवमूर्ति

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       सब दिन बसंत जग थिर न रहै
       आवत पुनि जात चला..... रे......
       पपिहरा प्या......रे...

       

माधोपुर से शिवगढ़ तक सड़क पास हो गयी।

       तो सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिन्दुस्तान का ही हिस्सा है।

       पिछले पचास वरस में कितनी दरखास्तें दी गयीं। दरखास्त देने वाले नौजवान बूढ़े हो चले तब जाकर....

       चलो सुध तो आयी, वरना छ:-सात किमी लम्बी इस पट्‌टी पर आबादी कहाँ है। एक भी गांव अगर होता रास्ते में। विधायक को हजार दो हजार वोट का भी लालच होता। दो जिलों की सीमा होने के चलते भी यह हिस्सा उपेक्षित रह गया। मामा के घर से निकलते ही मामी के जिले की शुरूआत हो जाती है। मामा का घर एक जिले में और सामने के खेतों में से आधे दूसरे जिले में।

       लेकिन पक्की सड़क के लिए चिह्नित यह रास्ता पहले भी कभी राहगीरों से खाली नहीं रहा। टेढ़ी मेढ़ी पगडंडी के रूप में, नाले जंगल और ऊसर के बीच से गुजरते इस रास्ते पर चलते पीढ़ियां गुजर गयीं। बड़ी-बड़ी ऐतिहासिक घटनाएँ इस रास्ते पर घटित हुईं। कभी गौना कराकर ले जायी जा रही दुल्हन जबरन छीन ली गयी कभी कोईं सजीला घुड़सवार जंगल में ऐसा गायब हुआ कि हवा तक नहीं लगी। घंटी टुनटुनाते जा रहे सवार की नयी साइकिल नशे का बताशा खिला कर ठगों ने लूट लिया। बचपन में सुने गये जाने कितने किस्से। अपने इलाके के बाहर की वारदात बता कर दोनों ही थानों की पुलिस रिपोर्ट लिखाने गये भुक्तभोगियों को भगाती रही।

       मैं भी कई बार गया हूँ इस रास्ते पर। मामा के गाँव माधोपुर से मामी के गाँव शिवगढ़ तक। इस राह को भी धूप लगती थी शायद। इसलिए यह ऊसर और जंगल की संधि पर होते हुए भी जंगल में सौ कदम घुस कर चलती थी। नाले के किनारे किनारे झरबेरियों का जंगल और उत्तर तरफ साधू की कुटी की ओर बढ़ने पर पीपल, पाकड़, बरगद और महुए के जहाजी पेड़ों का घटाटोप। कुटी के ठीक सामने का तालाब जिसका पानी अषाढ़-सावन को छोड़ कर सालों साल नीला रहता था। मछलियाँ मारने की मनाही के चलते डेढ़-डेढ़ हाथ की मछलियाँ मूछें फरकाती किनारे तक तैरती थीं। जाड़ा शुरू होने के पहले तक लाल कमल और उसके गाढे़ हरे पत्ते आधे से ज्यादा ताल को घेरे रहते थे। महुए के एक विशालकाय पेड़ की मोटी डाल के नीचे मधुमक्खियों के कई छत्ते लटकते थे। हवा में एक मीठी महक तैरती रहती थी।

       मुझे इस सड़क के निर्माण का सुपरविजन मिला तो अतिरिक्त खुशी हुई। अब मामा-मामी दोनों से मिलने का मौका मिलेगा। जमाना गुजर गया दोनों से मिले हुए। मेरा वश चलता तो मैं इस सड़क का लोकार्पण मामी से करवाता। आखिर मामी से ज्यादा इस रास्ते पर कौन चला होगा। वह भी रात-बिरात, आँधी, तूफान तक में।

       नाना पांच भाई थे और मामा सात। सारे नाना, मामा की संततियों से पूरा एक टोला बस गया था। यह टोला मुख्य गाँव से हट कर पूरबी किनारे पर था। इसके आगे परती जमीन पर कुछ पेड़ थे जिनके नीचे खलिहान लगता था। उसके आगे खेत। फिर बांयी तरफ जंगल और दाहिनी तरफ ऊसर का विस्तार जो पूरब में कई कि.मी. तक चला गया था। मेरी गर्मी की छुटि्‌टयाँ मामा के घर गुजरती थीं। बीच में भी कई बार स्कूल से भाग कर पहुँच जाता था। तब यही मन करता था कि ज्यादा से ज्यादा नानी के पास रहें। नानी की आँखों से, उनकी आवाज और स्पर्श से मानो अमृत बरसता था। शाम को आठ नौ साल तक के बच्चे किस्सा सुनने के लिए नानी के गिर्द बैठ जाते। दालान के एक किनारे जमीन पर बिछे पुआल पर तीन चार कथरियाँ बिछी रहतीं। बच्चे एक-एक करके आते और कथरी पर लेट कर नानी का इंतजार करते। किस्सा चलता रहता और बच्चे एक-एक करके सोते जाते। किस्से का अंत सुनने के लिए शायद ही कोई बच्चा जगा रहता। दूसरी शाम अक्सर वही किस्सा फिर शुरू से चलता।

       सबेरे नानी मट्‌ठा मारने बैठती तो धीरे-धीरे सारे बच्चे कटोरा-कटोरी लेकर कमोरी के चारों तरफ इक्ट्‌ठा होने लगते। छोटे बच्चे, जिन्हें अंदाजा नही रहता कि मट्‌ठा मारने में कितना समय लगता है, उठते ही, एक हाथ से आँख मीजते या नीचे सरकती कच्छी ऊपर सरकाते दूसरे हाथ में कटोरी पकड़े चल पड़ते। नानी झक सफेद बरफ के गोले जैसा नरम नैनू (मक्खन) निकाल कर बच्चों की कटोरी में डालतीं। नैनू के साथ - साथ आँखों से ढेर सारा स्नेह बरसातीं। इतना कि हर बच्चे का अंतरतम भीग जाता।

       नानी बहुत सुन्दर थीं। रंग गोरा और कद काठी लम्बी। बलिष्ठ। आँखे नीली। जब की मुझे याद है, विधवा होने के कारण वे मारकीन की सफेद धोती पहनती थीं लेकिन उस धोती में भी उनकी सुन्दरता और मधुरता अद्‌भुत दिखती थी। अब यूनानी लोगों की कदकाठी और नाक नक्श से परिचित होने पर लगता है कि नानी यूनान से ही आयी थीं। बड़के मामा का कद नानी के बराबर था। आँखें छोटी थीं लेकिन उनका नीलापन नानी जैसा ही था। आवाज इतनी भारी कि फुसफुसाकर बोलना उनके लिए संभव नहीं था। एक बार गर्मी की छुटटी में मैं नानी के घर आया था। शाम को खा पीकर पियारे मामा के साथ खलिहान में सोने पहुँचा। तब रबी की मँड़ाई बैलों से होती थी। गेहूँ की अधसीझी पयार पर हम लोग कथरी बिछाकर लेटे थे। टहटह चाँदनी रात थी। पेड़ की पत्तियों से छन कर हम लोगों के ऊपर चाँदनी के घेरे हिलडुल रहे थे।पियारे मामा भाइयों में सबसे छोटे थे। ननिहाल आने पर मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ-साथ रहता था। अचानक मामा बोले- मै 'मैदान' होकर आता हूँ। तुम लेटो। अकेले डरोगे तो नही?

       तब मैं यह समझने के लिए बहुत छोटा था कि पियारे मामा अपनी नवव्याहता उतराहा मामी से मिलने उनकी कोठरी में जा रहे हैं।

       मैं चित लेटा चाँदनी का जादू देखता रहा। पुरवा बह रही थी। थोड़ी देर में पुरवा पर उड़ कर टूट-टूट कर आती पुरूष कंठ की ध्वनि कानों में पड़ी। बीच-बीच में पतला नारी स्वर। कुछ डर कर और कुछ तात्कालिक प्रतिक्रियावश मैं चिल्लाया- कौ • ∙ न?

       पता नहीं पुरवा के बिपरीत चल कर मेरी आवाज का कितना हिस्सा वहाँ पहुँचा-लेकिन आवाज पहले बंद हुई फिर धीमी होकर आने लगी।

       मुझे नींद आ गयी। पियारे मामा कब लौट कर मेरे बगल में सो गये पता नहीं। सबेरे उन्हें आवाज के बारे में बताया तो बोले- बड़के भइया-भौजी होंगे। भौजी कभी-कभी रात में भइया से मिलने आती हैं।

       फिर पूछा-तुम टोके तो नहीं?

       पिछली बार मामा से तब भेंट हुई थी जब वे आँख खोलाने मेरे पास शहर आये थे।

       मामा के साथ बचपन की स्मृतियाँ जुड़ी थीं। गाँव जाता तो उधर से आने वालों से मामा की हाल खबर पूछता। मामा के गाँव के लोग भी सौदा सुलुफ लेने मेरे घर के पास वाली बाजार में आते थे। मेरा घर रास्ते पड़ता था इसलिए अक्सर छँहाने या पानी पीने के लिए औरतें बच्चे मेरे दरवाजे पर रूकते थे। ऐसे ही एक बार रिश्ते में मामी लगने वाली मामा की पड़ोसन ने कहा- दूर से ही मामा का हाल चाल पूछते हैं। यह नहीं कि कभी चल कर भेंट कर आवें। आपको बहुत याद करते हैं। अब तो मोतियाबिंद भी बिल्कुल पक गया है। दिखायी नहीं देता।

       - दिखायी नहीं देता तो आँखें क्यों नहीं खोलवा लेते?

       - कौन खोलावे?

       - उनका बेटा।

       - बेटा क्यों खोलावेगा? बेटे को इन्होंने पूछा जो बेटा इनको पूछेगा? आप को तो सारी बात पता है।

       - तो भतीजे खोलावें! दर्जन भर हैं।

       - कोई नहीं खोलावेगा। आप ही को खोलाना होगा। एक बार उन्होंने आपके पास खबर भेजी थी। आपने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया। इधर बहुत दिनों से आप गाँव भी नहीं आये। जब भी कोई बाजार से लौट कर जाता है, पूछते हैं खूँटी आये थे कि नहीं?

       - खूँटी मेरा बचपन का नाम था। बहुत दिनों तक मेरी बाढ़ रूकी हुई थी तो लोगों ने नाम रख दिया था - खूँटी।

       मैं बेचैन हो गया। याद आया, एक बार मामा का सन्देश लेकर मंझले मामा के बेटे बैजनाथ भइया गाँव आये थे। माँ ने दस पन्द्रह दिन बाद किसी से मेरे पास मामा का सन्देश भेजा था। मैं कैसे भूल गया? बड़के मामा मुझसे बहुत उम्मीद रखते थे। बचपन में पढ़ने और कुश्ती लड़ने के लिए ललकारते रहते थे। एक बार गर्मी की दोपहरी में कन्धे पर बैठा कर मील भर दूर नाच दिखाने ले गये थे। इसलिए कि गरम रेत में मेरे पाँव न जल जायें। जब भी उनके माचे पर जाता, खाने-पीने की कोई न कोई चीज जरूर देते। मैंने उसी औरत को दो लोगों का शहर तक का किराया देकर कहा - मामा से कहना किसी को साथ लेकर जब भी चाहें मेरे पास आ जायें।

       और तीसरे दिन शाम को ऑफिस से लौटा तो देखा, मामा बरामदे में बिछी चौकी पर लेटे हैं। पता चला कि बैजनाथ भइया दोपहर में पहुँचा गये। आहट सुन कर मामा उठ बैठे। देखा, सत्तर की उम्र में भी मामा की देह की कसावट काफी कुछ बरकार थी। बस गोरा रंग ताँबे का हो गया था और आँखें धोखा दे रही थीं। मैंने मामा की जवानी देखी है। गठी हुई गोलमटोल बलिष्ठ काया। चमकती त्वचा। गोरा रंग। नीली आँखें। जैसे गेंद उछल-उछल कर लुढ़कती है वैसे ही मामा दौड़ने के साथ साथ बीच-बीच में उछलते थे। दौड़ना शुरू करते तो उड़ने लगते। फरी खेलते तो बिना रूके आठ-दस पलटइयाँ खाते। वक्त ने उनके चिकने चमकते माथे पर तीन क्षैतिज लकीरें खींच दी थीं। लेकिन बातचीत करते हुए देखा कि आवाज का जादू और गूँज बरकरार थी।

       मामा को बचपन से गाते गुनगुनाते देखा था। खेत में रहते तो बीच-बीच में कान में उँगली डाल कर दूर राह जाती युवती अथवा कल्पना की नायिका को सम्बोधित करके प्रणय निवदेन करते। घर में होते तो हाथ का काम निबटाते हुए गुनगुनाते रहते। नवसिखुआ गायकों की भूली हुई बिरहा की कड़ी जोड़ देते। मामा की रातें पूरे वर्ष उनके माचे पर ही कटती। माचा, चलायमान था। जाड़े और गर्मी में यह पेड़ के नीचे आ जाता और वर्षा में, जब मक्का और फूट (ककड़ी) खाने का मौसम होता तो ऊचास के खेतों के बीच चला जाता। माचे पर दैनिक जरूरत की सारी चीजों की व्यवस्था रहती। छप्पर में और माचे की मोटी थूनियों के सहारे, चबेना का झोला, मट्‌ठा और पानी वाले मिट्‌टी के बर्तन लटके होते। सुगंधित तम्बाकू की मटकी और हुक्का लटका होता। नीचे बोरसी में आग जिया कर ढंग से ढकी होती। मामी की अनुपस्थिति के चलते मामा ने अपनी गृहस्थी को माचे पर इस तरह व्यवस्थित कर लिया था कि बार-बार घरनी की जरूरत महसूस न हो।

       मामी मायके में रहती थीं।

       बड़के मामा सत्रह-अठारह साल के ही थे जब नानी विधवा हो गयीं। नाना इलाके के नामी लठैत थे। किसी जमीन की बेदखली के लिए जमींदार की ओर से लाठी चलाने गये थे। लाठियों की तड़तड़ाहट के दौरान अपना पक्ष कमजोर जानकर बाकी साथी भाग खडे़ हुए। नाना घिर गये। कई लाठियाँ पड़ीं। डोली खटोली पर लाद कर लाये गये। अँग्रेज का राज था। अस्पताल वगैरह जाने का रिवाज नहीं था। पाँच दिन तक ओसारे में कराहने और हल्दी, माठा पीने के बाद मर गये। मरते समय बड़के मामा का हाथ पकड़कर कहा- सबको तुम्हारे भरोसे छोड़ कर जा रहा हूँ। पार घाट लगाना।

       मामा ने अपने सीने पर नाना का दाहिना हाथ रख कर उन्हे आश्वस्त किया था और उनके बहते आँसुओं को अँगोछे के कोने से धीरे-धीरे पोछा था। तब सबसे छोटे पियारे मामा नानी के गर्भ में थे।

       मामा ने नाना की हर जिम्मेदारी सँभाली। नाना की तरह मामा की लाठी भी सरनाम हुई। जिस भी मेले में जाते, वहाँ से लाठी खरीद कर लाते। आस-पास कहीं कटवासी बांस की कोठ होती तो वहाँ जाकर लाठी लायक पक्का बांस खोजते। फिर कोठ के मालिक से मांग कर या खरीद कर उससे लाठी बनाते। घंटो आग में सेंक-सेंक कर उसे पकाते। महीने में एक बार लाठियों की सफाई करते। उन्हें तेल पिलाते। ऊपर और नीचे की गाँठ के पास लोहार से उन पर लोहे की मुँदरी चढ़वाते। लाल कपड़े में लपेट कर रखते। नागपंचमी के त्योहार पर गाँव में हर साल आने वाले नट से लाठी का मार्शल आर्ट 'बिनवट' सीखते।

       बड़के मामा की प्रसिद्धि आस-पास के गांवों में 'पदी' अर्थात पद या न्याय करने वाले के रूप में फैली। जिस पंचायत में वे पंच होकर जाते उसमें भरसक अन्याय न होने देते। अपने निर्णय को लागू कराने में वे लाठी का सहारा लेने से भी नही हिचकते थे। लेकिन ऐसे न्यायी आदमी को भारी अन्याय झेलना पड़ा। जिस जमींदार की ओर से लाठी चलाने के दौरान नाना की मृत्यु हुयी थी वही जमींदारी उन्मूलन के बाद मामा द्वारा जोते-बोये जा रहे खेतों से उन्हे बेदखल करने लगा।

       अषाढ़ के एक दिन सबेरे-सबेरे मामा को पता लगा- उनके खेतों में दलपतसिंह लम्बरदार के हल चल रहे हैं। सुन कर यकीन नहीं हुआ। दौड़ कर गये। देखा, चार जोड़ी बैल उनके खेतों को जोत रहे हैं। दलपत लम्बरदार सात-आठ लट्‌ठबंद लोगों के साथ मेड़ पर खड़े हैं।

       - यह क्या है ठाकुर? हमारे खेत क्यों जुतवा रहे हैं?

       - तेरे थे कल तक। आज से मेरे हैं।

       - ऐसा अन्याय? मेरे बाप ने आप की आन के लिए अपने दुधमुँहे बच्चों को अनाथ कर दिया था। आप उन्हीं बच्चों का पेट काटने आये हैं? इतनी जल्दी भूल गये?

       - भाग सारे। दलपत सिंह दहाड़े- बड़ा पदी बना फिरता है। आज से इस खेत में पैर रखा तो पैर कटवा लेंगे।

       - लम्बरदार, हम सात भाई हैं। आप पैर नहीं, दो चार के मूंड भी कटवा लेंगे तो दो चार बचे रह जायेगें। लेकिन आप तो अकेले हैं। .........

       - अबे, मुझे धमकाता है? तेरी यह हिम्मत? पकड़ो साले को। उन्होंने अपने आदमियों को ललकारा।

       - ऐसा है लम्बरदार, हम सातों भाई जान छोड़ कर लड़ेंगे तो उन्हें रोकने लिए चौदह लठैत चाहिए। आप के साथ अभी आठ ही हैं और उस तरह जान पर खेलकर दूसरे के लिए मार करने वाले बावले अब नहीं पैदा होते जैसे हमारे बाप थे। आज तो हम निहत्थे हैं इसलिए जा रहे हैं लेकिन दुबारा आने के पहले एक बार फिर सोच लीजिएगा। जाना सबको है। हमको भी आप को भी। खेत यहीं रह जायेगा।

       जमींदार समझ गया। जमींदारी उन्मूलन के साथ-साथ उससे जुड़े रोब रूतबे का भी काफी कुछ उन्मूलन हो चुका था। इसलिए फिर डराने धमकाने या जबरन कब्जा करने का प्रयास तो नहीं किया लेकिन मुकदमा दायर कर दिया। मुकदमेबाजी का अखाड़ा मामा के लिए बिल्कुल अनजाना था। यहाँ के दांवपेंच, पैतरे, पिचाल के बारे में कभी सुना ही नहीं था। बार-बार पटकनी लगी। गाना-बजाना, राग-रंग पहलवानी, अखाड़ा सब भूल गया। उन खेतों को बचाने के लिए मामा बारह बरस मुकदमा लड़े।

       मामा नौ साल के ही थे जब नाना ने उनका विवाह कर दिया था। लेकिन गौना आने को हुआ तो एक पेंच फँस गया। मामी अपने माँ बाप की अकेली संतान थी। शादी के समय उनके पिता ने शर्त लगायी थी की दूल्हे को ससुराल में आकर रहना पडे़गा। नाना ने इस शर्त को मान लिया था क्योकि उस समय तक मामा चार भाई हो चुके थे। खेत कम थे। नाना यह सोच कर खुश हुए थे कि एक बेटे का गुजारा ससुराल में हो जायेगा और मामी के माँ बाप के लिए बुढ़ौती में सहारा भी हो जायेगा। लेकिन नाना के असमय चले जाने के चलते यह समीकरण प्रभावित हो गया।

       मामा का तर्क था- मैंने मृत्यु सेज पर लेटे पिता को बचन दिया है, माँ और छोटे भाइयों के भरण पोषण का। इनको असहाय छोड़ कर ससुराल जाकर बसना अब कैसे हो सकता है?

       मामी का तर्क था- इसी शर्त पर विवाह हुआ है कि जमाई ससुराल आकर बसेंगे। यदि वे अपनी माँ और भाइयों को छोड़ कर नहीं आ सकते तो मैं अपने माँ-बाप को बेसहरा छोड़ कर ससुराल कैसे चली जाऊँ?

       आँख पर हरी पट्‌टी लगाये मामा अस्पताल से लौटे तो मैं शाम को उनके पास बैठने लगा। उनके पास दुनिया जहान की खबरें और किस्से थे। हजारों गीत थे। उनसे बातें करना अच्छा लगता था। मामा की भी शुरू से आदत थी, घर गृहस्थी का काम निबटाने के बाद घँटे दो घँटे अलाव के पास या माचे पर बैठ कर दूसरों की सुनने और अपनी सुनाने की। इसलिए शाम को वे मेरे आने का इन्तजार करते।

       परिवार बढ़ने के साथ-साथ खाने पीने की दिक्कते बढ़ीं। कई दिशाओं से आयी बहुओं में खींचतान और कौआरोर बढ़ा। दो मामा के परदेश चले जाने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं हुई तो मामा खुद भी दो-तीन बार परदेश कमाने गये। शाम को साथ बैठ कर उन दिनों की चर्चा छेड़ने पर मामा कलकत्ता के साथ अमरनेर की चर्चा करते थे। अमरनेर में आमिना नाम की एक स्त्री थी जो रेल इंजन के नीचे गिरा हुआ अधजला कोयला बीन कर बेचती थी। अकेली थी। उसने तीन महीने तक मामा के लिए रोटी सेंकी थी। मामा पास के पेड़ के नीचे सोते थे और अपना आटे, चावल का कनस्तर आमिना की झोपड़ी में रखते थे। वह मामा के कनस्तर से आटा निकाल कर रोटियाँ सेंक कर रख जाती थी। गैंग का मेट मजदूरी मार कर भाग गया तो आमिना ने वापसी का किराया जुटाने में भी मदद की थी। मामा ने उसका गाया एक गीत सुनाया-

       केथुआ से छाया मक्का मदीना,

       केथुआ से छाया अजमेर।

       ख्वाजा ओ मेरे पीर।

       सुनाते-सुनाते उनकी आवाज भर्रा गयी। आँखे सजल हो गयी। आँखों को ढकने वाली हरी पट्‌टी को उठा कर उन्होंने आँखों का पानी पोछा और शून्य में ताकने लगे।

       बड़ी देर बाद बोले - बड़ी अच्छी मेहरारू रही भैने। दुखियारी थी। आदमी खलासी था। कई साल पहले इंजन के नीचे कट गया था। आने लगा तो बहुत रो रही थी.......

       एक शाम मैंने कहा- मामा, आप दो साल कलकत्ता थे। कैसा था कलकत्ता?

       -कलकत्ता शहर का हाल! अच्छा सुनिए।

       मामा ने कलकत्ता शहर का लम्बा और प्रभावी वर्णन सुनाया जिसमें मटियाबुर्ज और बड़े-बड़े जहाजों का भी उल्लेख था। तुरंत न लिखने के चलते अब दो चार पंक्तियाँ ही याद हैं। एक पंक्ति थी-

       - जहाँ दूनों जूनी आवत है जुआर।

       - इसका मतलब?

       मतलब, दोनों टाइम दरियाव का पानी बढ़ जाता है।

       - ओ...ज्वार! समझ गये।

       कलकत्ता शहर की एक और खासियत सुनाया-

       -यहाँ की रंड़ी बड़ी बेशरमी, उनके बस्तर ना देखा।

       - बस्तर?

       - माने कपड़ा।

       - ओ... वस्त्र।

       - हाँ, पीठ भी खुली पेट भी खुला।

       मैं थोड़ी देर तक हिम्मत जुटाता रहा फिर बिना आँख मिलाये पूछा- अच्छा मामा, आप कभी वहाँ कोठे पर गये थे?

       मामा थोड़ी देर चुप रहे। आँख उठाकर मुझे देखा। फिर बोले- एक बार गया था भैने! लेकिन कपड़ा उतारने पर देखा, कितना फोड़ा फुंसी। नीचे देह एकदम सड़ गयी थी। मै भाग खड़ा हुआ। रूपया पहले ही दे चुका था।

       - कितना?

       - डेढ़ रूपया। दो माँग रही थी लेकिन हम डेढ़ ही दिए।

       कितने निर्लिप्त भाव से मामा ने बताया। फिर प्रसंग बदलने के लिए अनाजों के बारे में सुनाने लगे। मकरा की सहनशीलता के सम्बन्ध में बताया-

       - केतनौ कूटा केतनौ पीटा हम खुलुरी मा रहब परा।

       - मकरा कैसा होता था मामा? मैंने कभी मकरा नहीं खाया।

       मकरा सरसों से एक चौथाई छोटा काले रंग का गोल अन्न होता है भैने। अब गेहूँ धान इतना पैदा हो जाता है कि मकरा बोने की जरूरत नहीं रही। पहले जब अन्न की कमी रहती थी तो जल्दी पकने वाले कोदो, काकुन, साँवा आदि भुखमरी में जीवनदाता बनते थे। मकरा दो ढाई महीने में भादों में पक जाता और इसके चलते आधा गाँव उपवास करने से बच जाता था। इसे चाहे जितना कूटिये, पीटिये नम मौसम के कारण इसकी बाली में अन्न के कुछ दाने बचे ही रह जाते थे। फिर इनमें छिपे दानों को वे औरतें निकालती थीं जिनके पास मजदूरी के अलावा जीविका का कोई आधार नहीं होता था। भादों में कोई मजदूरी न मिलने के कारण इनके घर अक्सर उपवास होता था। इन्हें कोई रोकता नहीं था और सेर आध सेर मकरा दो-चार घंटे मेहनत करके ये भी निकाल लेती थीं।

       एक दिन मैंने मामा को याद दिलाया- आपका एक प्रिय 'फगुआ' था। हर होली पर गाते थे। उसकी एक पंक्ति याद रह गयी है -

       गोरी तोहरी नजरिया मा भा .....ला.....
       दिल जानिया जान जिनि मा.....रा.....
       न देशवा उजा.....रा.....

       - इसको सुनाइये।

       - छोड़ो भैने! तब नौजवानी का रंग था। अब ऐसे गीत गाने की उमर थोड़े रह गयी है।

       - अच्छा एक बिरहा जिसे आप अक्सर उदास होकर गाते थे- रतिया आया बिरतिया भाग्या.....

       मामा मेरी ओर देखते रहे। कुछ बोले नहीं।

       - याद नहीं आ रहा?

       - याद है लेकिन अब हम इसे गाते नहीं।

       - क्यों?

       - बस, चित्त से उतर गया।

       मैं चुप हो गया। मन ही मन उस बिरहे को याद करने लगा-

       रतिया आया बिरतिया भाग्या

       कोरवा ना सोया हमार

       एक दिन आवा खड़ी दुपहरिया

       देखी सुरतिया तोहार

       (रात आये और रात बीतने के पहले भाग गये। मेरी गोद में सिर रख कर सो तक न सके। एक दिन खड़ी दोपहरी में आओ ताकि तुम्हारी सूरत देख सकूँ।)

       मामा के चित्त से यह बिरहा उतरा क्यों? तब नहीं समझ पाया।

       एक दिन बोले- अब तो आँख भी गयी समझिए, नहीं तो बड़ा मन था कि देह में जोर रहते एक बार पूरी दुनिया घूम आवें। इस कोने से उस कोने तक। मैंने बताया- देह में जोर हो तब भी यह इतना आसान नहीं है मामा। यह धरती सौ डेढ़ सौ देशों में बँटी हुई है। हर देश की सीमा पर फौज डटी है। घुसने के लिए परमिट चाहिए। वीसा, पासपोर्ट। उसके पीछे हजार झमेले।

       वे चुप होकर मेरा मुँह देखने लगे। फिर बोले- इसका मतलब बिना पूरी दुनिया देखे ही आँखें बंद हो जायेंगी? चारों धाम भी नहीं जा पाये।

       -चारों धाम क्यों नहीं गये?

       -तीन सौ रूपये कम पड़ गये। अर्जुनपुर के जगन्नाथ दोनों परानी जा रहे थे। बोले- भगत तुम भी चलो। आधा खर्चा हम उठा लेंगे। लेकिन हम आधा भी नही जुटा पाये।

       -मुझसे क्यों नही कहा?

       -चाहे तो बहुत लेकिन तुम्हारे पास भेजने के लिए कोई सन्देसिया ही नहीं मिल पाया।

       सेक्सटेंट के व्यू-फाइन्डर में देखता हूँ तो निर्माणाधीन सड़क पर मुझे तेज कदमों से चल कर आती मामी का चेहरा दिखायी देता है। जट काली मामी के चेहरे पर जड़ी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। लम्बी पतली काठी। महीन धीमी आवाज। शीतल पवित्र और पतली मुस्कराहट। मैं उन्हे देख कर सोचता कि माँ ऐसी ही होनी चाहिए। शायद ही इन्हें कभी गुस्सा आता होगा।

       अपने दाम्पत्य को भी धैर्य और मुस्कान से सँभाल लिया मामी ने। माँ बाप की सेवा भी जरूरी थी और पति का सानिध्य तथा संतति वृद्धि भी। मामी न किसी जिम्मेदारी से भागना चाहती थीं न किसी जरूरत से वंचित रहना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने अलग राह खोजी। शाम को गाय बैलों को चारा-पानी देकर, माँ बाप को खिला पिला कर पहर रात बीते लाठी लेकर निकलतीं मामी। साँप-बिच्छू और सियार-भेड़ियों को धता बताती आधी रात के पहले-पहले जा पहुँचतीं मामा के माचे पर। पहर डेढ़ पहर का अभिसार और चौथे पहर मायके के लिए वापसी। अँधेरी रात हो या चाँदनी, जाड़े की ठिठुरन हो या बरसात के गरजते-बरसते बादल। मामी के लिए पति की सेज हमेशा डेढ़ दो घंटे की दूरी पर रही। सोचता हूँ, पहली बार पति मिलन के लिए अँधेरी रात के सन्नाटे में अकेले निकलने के पहले कितने ऊहापोह से गुजरी होंगी मामी। क्या उन्होंने पहली बार अपने आने की पूर्व सूचना मामा को दी होगी। यदि नहीं तो पहली बार मामा के माचे पर चढ़ कर फों-फों करके सोते मामा की नाक दबा कर जगाया होगा तो मामा की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? जरूर उनका हाथ सबसे पहले अपनी लाठी पर गया होगा।

       मामी की जो भावमूर्ति उभर कर मेरे मन में आ रही है वह पैंतीस-चालीस साल पुरानी है। मैं गारापुर से लौट रहा था। गुरू बाबा की कुटी से। मामी का मायका शिवगढ़ बीच रास्ते में पड़ता था। चैत का महीना था। धूप चढ़ गयी थी। सोचा मामी का हाल चाल लेते चलें। दूध या मट्‌ठा भी पीने को मिल जायेगा क्योंकि मामी के घर कोई न कोई गाय भैंस बारहोंमास लगती थी।

       मामी बेटी के साथ गड़ही से गीली मिट्‌टी ढो रही थीं। पुरानी दालान गिर गयी थी। उसी की जगह नयी दालान खड़ी हो रही थी। एक मिस्त्री दीवार के ऊपर बैठा ताजी रखी गयी मिट्‌टी की कटाई -चिनाई कर रहा था। मेरी पैलगी के उत्तर में आशीष देती हुई मामी घर के अंदर गयीं और मउनी में लाई, गुड़ तथा लोटे में मट्‌ठा लेकर लौटीं। हालचाल पूछा, फिर बोलीं- दोपहर तक सारी गीली मिट्‌टी ढो लेना है नहीं तो सूख जायेगी। तुम आराम करो। खाना खाकर दोपहर बाद जाना।

       -छोटे कहाँ हैं?

       -जानवरों को चराने ले गये हैं।

       -तो चलिए, पलरी में मिट्‌टी मैं भर देता हूँ। काम जल्दी खतम हो जायेगा।

       -नहीं-नहीं! भैने से कहीं काम कराया जाता है। तुम थक गये होगे। आराम करो।

       -तब मामा को क्यों नहीं बुलवा लिया। अकेले खट रहीं हैं।

       -तुम्हारे मामा को अपने भाई भतीजों से फुरसत मिले तब न।

       उनके बड़े बेटे स्वामीनाथ डेढ साल पहले एक दिन गायब हो गये। पता नहीं कहाँ हैं? स्वामीनाथ मेरे समौरी (हमउम्र) थे। पिता का नियंत्रण न होने के चलते वे कभी माँ के पास अपनी ननिहाल में रहते। कभी पिता के पास माधोपुर में। एक जगह ज्यादा दिन नहीं टिकते थे। मामा के घर ही उनसे मुलाकात हुई थी। दो चार दिन में ही हम दोस्त बने और जल्दी ही मैं उनका शागिर्द बन गया। इसी के चलते दर्जा दो की पढ़ाई हमने पाँच स्कूलों से की। कभी मामी के घर से शिवगढ़ या पतीपुर के स्कूल में। कभी मामा के घर से कैभे या केनौरा के स्कूल में। कभी मेरे घर से दुर्गापुर के स्कूल में। जिस भी स्कूल में जाते दोनों लोग साथ-साथ जाते। चार छ: दिन जाते फिर अचानक मास्टर की डाँट या थप्पड़ खा जाते तो बस भागो। कहते- ई सरवा तो बड़ा कसाई है। किसी दिन चढ़ बैठा तो हाथ-गोड़ तोड़ देगा। और उस दिन से वह स्कूल महीने दो महीने के लिए 'ब्लैक लिस्टेड' हो जाता। दूसरे स्कूल की राह पकड़ते। सबेरे खाना खाकर तख्ती बस्ता ले कर समय से निकलते लेकिन स्कूल पहुँचने के लिए समय की पाबंदी न रह पाती। खेत, बाग, जंगल होते, नाले या तालाब में नहाते, मटर, बेर, गोंद, गन्ना, बेल का स्वाद लेते दोपहर तक पहुँचते। इन्टरवल में चबेना चबाते और मन ऊबते ही ऊँघते मास्टर की नजर बचा कर निकल लेते। किसी शाम दोनों लोग मेरे घर, किसी शाम मामा के घर, किसी शाम मामी के घर। क्या पढ़ रहे हैं? कहाँ पढ़ रहे हैं? कोई देखने वाला नहीं। जब तक पिताजी को हमारी सुधि आयी हम दोनों पाँचों स्कूलों में पढ़ कर फेल हो चुके थे।

       उसी उम्र में स्वामीनाथ मान चुके थे कि वे खुद मुख्तार हैं। जब जहाँ चाहें जायें और जो चाहें करें। पिता की सरपरस्ती उनके अंदर पैदा ही नहीं हुई। उस उम्र में ही वे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने नतीजे निकालते, अपने फैसले सुनाते।

       एक बार बोले- भगत की बड़ी दुर्गति होगी।

       -क्यो-?

       -बुढ़ापे में कोई पूँछेगा नहीं।

       मामी मामा को भगत कहती थीं। माँ की देखादेखी उनके बेटे बेटियाँ भी उन्हें भगत कहने लगे। जैसे-भगत आये हैं। भगत बुलाये हैं। बप्पा या बाबूजी जैसे सम्बोधन जैसे जानते ही नहीं थे। सम्बोधित करने का मौका ही कहाँ मिला था। मामी मामा को बुलाने के लिए स्वामीनाथ को भेजतीं। स्वामीनाथ आकर कहते- भगत! अम्मा बुलायी हैं। मामा कहते- चलो! फुरसत मिली तो आयेंगे।

       स्वामीनाथ लौटते हुए रास्ते में कहते- इनकी अकल पर पर्दा पड़ा है। खटिया पर पड़े-पड़े हगना बदा है।

       एक बार बोले- मझली काकी जादूगरनी है। पान सुपारी खिला कर भेंड़ा बना लेती है। उनके हाथ का कभी कुछ मत खाना।

       उस दिन बातचीत करते हुए मैंने पाया कि पति की उदासीनता से प्रभावित न होने वाली मामी जवान हो रहे बेटे के गायब होने से अंदर ही अंदर टूटने लगी हैं।

       स्वामी नाथ अठारह उन्नीस साल के थे जब एक दिन उन्हें पता चला कि गाँव का एक लड़का उनकी 14-15 वर्ष की बहन को छेड़ता है। जिस राह से वह लड़का स्कूल से पढ़ कर लौटता था उसी राह पर एक शाम वे एक अरहर के खेत में बैठ कर उसका इंतजार करने लगे। जैसे ही वह पास आया लपक कर एक डंडा उसकी सायकिल के अगले पहिए में डाल कर गिरा दिया और कमर से चाकू निकाल कर खप-खप-खप! वहाँ से भागे तो किसी को दिखायी नहीं दिए अभी तक। न जिंदा न मुर्दा। तब से कितनी कितनी अफवाहें फैलीं। कभी सुनाई पड़ता कि मारे गये लड़के के बाप और भाइयों ने पकड़ कर जीते जी नाले में गाड़ दिया। कभी सुनायी पड़ता ...... जितने मुँह उतनी बातें।

       दोपहर में खाना खिलाते हुए मामी बोलीं- किस दावे से बुलावें तुम्हारे मामा को भैने। उन्हें हम लोगों से कोई लगाव नहीं है। यह तो गाँठ बँध जाने का धरम है जो निभाते आये हैं।

       -ऐसा क्यों कहती हैं मामी?

       -सही कहते हैं। बिना मरद का परिवार बेसहारा होता है। मुझे सहारे की जरूरत थी। पति का सहारा नहीं मिला तो बेटे के सहारे की आस में अँधेरी उजेली रात में दो कोस बीहड़ पार करके उनके पास पहुँचती रही। अपनी पसंद के किसी भी आदमी से बेटा पाने की राह दुनिया ने रूँध न रखी होती तो मैं उतनी दूर दौड़ कर क्यों जाती?

       थोड़ी देर तक चूल्हे में पड़ी रोटी को सेकते हुए वे चुप रहीं फिर राख झाड़ कर रोटी मेरी थाली में डालते हुए बोलीं- उन्हें मुझसे प्रेम होता तो जिस राह से औरत जात होकर मैं आती-जाती रही वह क्या उनके लिए अनजान थी?

       -चाहिए तो यही था मामी लेकिन यह भी हो सकता है कि वे लाजवश ऐसा न कर पाये हों।

       -अपने परानी के पास आते किस बात की लाज थी भैने?

       मुझे तुंरत कोई जवाब नहीं सूझा। खाना खत्म कर चुका था। हाथ धोने के लिए उठ गया। लेकिन मामी की शिकायत का जिक्र घर आकर मैंने पत्नी से किया- मामी का कहना है कि मामा उनसे प्रेम नहीं करते।

       -बिना प्रेम किए ही तीन-तीन बच्चे हो गये।

       -भाई, बच्चे पैदा होना तो यांत्रिक क्रिया है। बिना प्रेम के भी बच्चे पैदा हो सकते हैं। बलात्कार से भी बच्चे पैदा हो जाते हैं। प्रेम या चाहना तो अलग चीज हुई। मामी कह रही थीं कि जब औरत होकर रात के अँधेरे में मैं उनके पास जा सकती थी तो वे मर्द होकर क्यों न आते, अगर उन्हें गुझसे प्रेम होता।

       -आप नहीं समझेंगे। लेकिन सोचिए, मामा अपने परिवार के मुखिया थे। उनका उस युग में रात के अँधेरे में पत्नी से मिलने ससुराल जाना किसे अच्छा लगता, खास कर उस दशा में जब वे ससुराल में बसने और वहाँ की जिम्मेदारी ओढ़ने से मुकर चुके थे। तुलसीदास का किस्सा नहीं जानते। खुद उनकी पत्नी ने कितना दुत्कारा था।

       -और मामी जो उतनी दूर चल कर आती थीं वो.....

       -वो उनकी बहादुरी थी। वे अपने पति की खुशी के लिए, अपनी चीज को सहेजने के लिए आती थीं। यह मत समझिए कि सिर्फ पुत्र की चाह में या शारीरिक सुख के लिए आती थीं।

       मामा मामी की प्रणयकथा को चैतू ने दंतकथा बना दिया था।

       चैतू मल्लाह कई वर्ष तक उनके अभिसार और मान मनुहार की कहानियाँ सुनाता रहा। महुए के विशाल छतनार पेड़ की छाया में बैठे चरवाहे उसे घेर कर बैठा लेते- बिना किस्सा सुनाये नहीं जाने देंगे।

       -अच्छा तो सुनो। पता है क्या हुआ आज रात.....

       जंगल और ऊसर के बीचोंबीच बहता वह नाला बरसात में छोटी मोटी नदी बन जाता। जाड़े में पानी घटता तो फिर नाला बन जाता फिर गर्मी के चार-पाँच महीने सूख कर 'खोर' हो जाता। लेकिन आसपास के लोग, उसे नाला नहीं कहते थे। नाला कहने से अपमान या तिरस्कार का भाव आता था। वे इसे सम्मान देने के लिए नदी कहते -पियारी नदी।

       बरसात में बैलगाड़ियों का आवागमन रूक जाता। आस पास के लोग पैदल पार करने के लिए इस पर बांस का पुल बना लेते। चार-पांच मोटे लम्बे बांसों को समान्तर रख कर बांधने पर डेढ़-दो फीट चोड़ा रास्ता निकल आता, जिसको नदी में सात-आठ फीट की दूरी पर तीन-चार मोटी थूनियां गाड़ कर बांध दिया जाता।

       चैतू मल्लाह रात में इन्हीं थूनियों के सहारे अपना मछली पकड़ने का पहरा (झाँपी) लगाता। रात के अंधेरे में, जब पुल से आवागमन बन्द हो जाता, मछलियाँ खूब चढ़ती।

       .......मामी के आवागमन का एक मात्र चश्मदीद गवाह चैतू।

       बेटी ने मां बाप को रात का भोजन करा दिया। जानवरों को चारा दे दिया। बर्तन धुल लिए लेकिन माँ के पीने के लिए पानी रखना भूल गयीं। और जब बताने गयीं कि दरवाजे की कुंडी लगा लो, मैं जा रही हूँ तो बिगड़ गयी बुढि़या- कितनी आग लगी है तेरी देह में? मेरा पानी क्या तेरा भतार आके रखेगा? तू ही रोज- रोज दौड़ कर जायेगी? वह क्यों नहीं आता? उसकी गरज नहीं है? इसी दीदे से तू उसे कब्जे में करेगी?

       बेटी पानी-पानी हो गयी।

       उस रात मामा की देह में तेल मालिस करने के बाद छाती पर सिर रखकर लेटी मामी ने कहा- कल से नहीं आऊँगी?

       -क्यों?

       -मैं ही आऊँ हर बार? तुम्हें नहीं आना चहिए?

       -क्यों नहीं?

       -तो इस बार तुम आओ।

       -ठीक है।

       -आओगे?

       -क्यों नहीं आऊँगा?

       -नहीं आओगे। कितनी बार तो वादा किए। कहाँ आये?

       -इस बार हर हाल में आऊँगा। जोगिन तरई (तारा) के एक बांस ऊपर चढ़ते-चढ़ते पहुँच जाऊँगा।

       -घाव में नीम की पत्ती पीस कर बाँध लीजिएगा। माचे से उतरते हुए मामी बोलीं- पहले पता होता तो घर से पीसकर लेती आती।

       जोगिन तरई एक बांस ऊपर चढ़ी, फिर डेढ़ बांस। वे नहीं आये। माख से उनकी आँखों में आँसू आ गये- मैं भी नहीं जाऊँगी।

       जोगिन तरई दो बांस ऊपर चढ़ गयी।

       उस दिन कुदाल लग गयी थी पैर में। मालिस करते समय देह हल्की-हल्की गरम लग रही थी। कहीं बुखार तो नहीं आ गया?

       लेटे नहीं रहा गया। उठीं। आगा पीछा करते मन को समझा कर निकल पड़ीं। बास का पुल पार करने के बाद भादों की चाँदनी में देखा- सामने से आती धुँधली छाया।

       तो इतने दिनों बाद सामने आने की हिम्मत किया मदरहवा के भूत ने। आने दो।

       अरे, यह तो वे हैं।

       -अब आने की जून हुई आपकी? आधी रात के बाद?

       -आँख झपक गयी।

       -झूठ मत बोलो। जब घर में ही पान सुपारी खाने को मिल जाता है तो....

       मामा ने हँसते हुए उन्हें लपक कर बाहों में भर लिया- चलो।

       -उधर नहीं, इधर।

       -दो तिहाई रास्ता तो चल चुकी। वह सामने रहा माचा।

       -उससे क्या? आज तुम्हारी बारी थी। मामी ने झटके से खुद को मुक्त किया और मुड़ चलीं।

       चैतू ने बताया था- देर तक पियारी के किनारे दूर तक मामी के पैरों की 'पयरी' बजती रही। वे आगे-आगे, मामा पीछे-पीछे।

       पकड़ पाये तो मुख, वक्ष और नाभि से लेकर जांघों के मध्य तक चुम्बनों की झड़ी लगा कर देर तक डूबते-उतराते रहे। फिर 'पियारी' के किनारे खादर में उगी ऊँची हरी कास की सेज़ ही उनका रंगमहल बन गई।

       अचानक भूरे बादलों के पहाड़ ने चाँद को ढक लिया। तेज हवा चलने लगी। जंगल हरहराने लगा। मामा ने अलसायी पड़ी मामी को कंधे पर लादा और माचे की ओर लपके। नीचे सिर किए लटकी मामी मामा की पीठ पर मुक्के मारती रहीं।

       लेकिन बादलों को ज्यादा जल्दी थी। मोटी-मोटी बूँदे पड़नी शुरू हुई। फिर झरझरा कर बरसने लगा। माचे तक पहुँचते-पहुँचते दोनों भीग कर गलगल। माचे के चारों तरफ फैले मक्के की हरी लम्बी पत्तियों पर गिरती बूंदों का संगीत देर तक बजता रहा। मामा ने अपने गीले अंगौछे से मामी के गीले बालों को पोंछा। माचे पर रखा सूखा अंगौछा पहनने के लिए दिया। बाहों में उठा कर ऊपर माचे पर चढ़ाया। फिर खुद चढ़े।

       कहानी सुनाने के बाद चैतू कहता है- काले मेघों से घिरा आसमान। धारोधार बरसता पानी। मक्के की फसल से घिरा मांचा और रात का तीसरा पहर। ऐसा 'संजोग' हर गृहस्थ के नसीब में कहाँ?

       -लगता है तुम ससुरे अगम गियानी हो। बूढ़ा मंगरू चिढ़ कर कहता है- कि माचे के नीचे तुम सरऊ छिप कर रात भर बैठे थे?

       -तुम क्या जानों। चैतू उसे चिढ़ाता है- चूतड़ में हल्दी लगी नहीं। 'औरत' का दर्शन पाये नहीं। तुम क्या जानों।

       इस सड़क के निर्माण के सिलसिले में इधर आने का संयोग बना तो खुश हुआ था कि एक दिन, किसी छुट्‌टी के दिन उसी पुरानी राह से मामा के घर से मामी के घर तक पैदल जाऊँगा। देखूँगा कि अब जंगल का क्या हाल हैं? कौन-कौन से पेड़ बचे रह गये हैं, कौन से कट चुके हैं। क्या उन पेड़ों पर मधुमक्खियाँ अब भी छत्ते लगाती हैं? कपड़ो से मुक्त होकर पानी में कूदने का आनंद देने वाला वह ताल किस हाल में है? क्या उस तालाब में अब भी कुंई खिलती है? मामा-मामी किस हाल में होगें?

       ऐसा नहीं कि मामा-मामी का हाल न मिलता रहा हो। जब भी गाँव जाता था, माँ मामा के घर का कोई न कोई समाचार बताती थी। एक बार बताया था कि मामा के घर अलगा-बिलगी हो गयी है। पन्द्रह भतीजों के मध्य कई चूल्हे हो गये हैं। एक बार बताया था कि रामदेव मामा, जो मुझे 'कौरहा' कह कर चिढ़ाते थे और पियारे मामा ट्रैक्टर की ट्राली के नीचे दब कर दिवंगत हो गये हैं। एक बार बताया था कि मँझली मामी को, जिन्हें स्वामीनाथ जादूगरनी कहते थे, कई साल पहले टी.बी. हो गयी थी। बेटे-बहू ने छूत के डर से उनके रहने के लिए बाहर झोपड़ी बना दिया था। एक दिन झोपड़ी के अंदर मरी पायी गयीं थीं।

       बड़की मामी के बारे में बताया था कि छोटे की बहू पूरब की है। बहुत तेज है। सास-पतोहू में ज्यादा दिन नहीं पटी। मामी, बेटे-बहू से अलग हो गयीं हैं।

       यह खबर सुनकर मैनें सोचा था कि जैसे सत्तर साल की उम्र में मामा का मोतियाबिंद पका था मामी का भी पका होगा। मामा का आपरेशन तो मैने करा दिया था। मामी का किसने कराया होगा? मामा के जाने के बाद बहुत दिनों तक मेरे मन में यह उम्मीद थी अब आपरेशन के लिए मामी का संदेशा भी आयेगा। लेकिन नहीं आया।

       अब तो यहाँ का काम भी समाप्ति पर है। क्या इतनी दूर आकर भी बिना मामा-मामी से मिले, किसी दिन किसी और दिशा में चला जाऊँगा? दस मिनट में दोनों के घर पहुँच सकता था। लेकिन साल बीतने को आया और यह दस मिनट नहीं निकल सके। लेकिन अब और विलम्ब नहीं। जो रास्ता मामा के लिए जिंदगी भर काले कोस रहा, उसे तय कराऊँगा। दोनों ही लोग नब्बे पार कर रहे हैं। पता नहीं कितने दिन खाते में बचे हैं। एक बार अपने सामने दोनों लोगों का मिलना देखना चाहता हूँ। वैसे जीवन की संध्या में ही सही, अगर मामा-मामी साथ रहना शुरू कर दें तब तो........

       अगले दिन रविवार था। मैंने ड्राइबर से कहा- सबेरे आठ बजे तक जीप लेकर आ जाओ।

       मामा के घर के लिए निकला तो गुजरे मुहूर्तों की छवियाँ फिर मन के पर्दे पर उभरने लगीं। नहर की पटरी से मामा के घर की ओर मुड़ा तो देखा जहाँ खलिहान लगता था वहाँ के पेड़ो में से एकाध को छोड़कर अब भी सब मौजूद थे। आम का वह पेड़ अभी खड़ा था जिसके नीचे मामा के हीरा-मोती नाम के दोनों कुत्ते दिन में बैठते थे। इन दोनों की ड्‌यूटी थी रात में भेड़ों के रेवड़ की रखवाली करना। शाम का खाना मिलने के बाद बिना किसी के बुलाये या बताए दोनों हवा को सूँघ कर रेवड़ की दिशा पता करते और वहाँ पहुँचते। मझले मामा जैसे बकरों और भेड़ों को बद्धी करते थे उसी तरह जब वह पिल्ले ही थे तो उन दोनों को भी बद्धी कर दिये थे। इसलिए कार्तिक महीने में थोड़ा बहुत आकर्षित करने के अलावा कोई मेनका इनका ईमान नहीं डिगा सकती थी। इस समय उनके बैठने की जगह खाली थी। कब के मर गये होंगे। पेडों की जड़ें मिट्‌टी बह जाने के कारण बाहर निकल आयी थीं। वह पुराना घर जिसके ओसारे और कोठरियों से मेरा परिचय था, खंड़हर हो चुका था। सिर्फ अधगिरी नंगी दीवारें खड़ी थी। अन्दर झाड़ियाँ उग आयी थीं। इस खंडहर के तीनों तरफ आठ दस मिट्‌टी की दीवार वाले खपड़ैल और चार पांच फूस की छाजन और रहठे की टटिया वाले झोपड़े उग आये थे। बीच में दुआर के नाम पर ढाई तीन सौ गज जमीन खाली थी।

       जीप के रूकते ही बच्चों के झुंड ने घेर लिया। औरतें झांक-झांक कर देखने लगी। सामने के बिना टाटी वाले मंड़हे में मामा मूंज की चारपाई पर उघारे लेटे थे। कथरी तह करके तकिया की तरह सिरहाने रखी थी, धोती की सदर-बदर नहीं थी कि क्या खुला है क्या ढका है। मैंने पास पहुँच कर हाथ जोड़ा। धोती ठीक करते हुए वह उठने की कोशिश करने लगे। मैंने सहारा देकर उठाते हुए अपना और अपने गाँव का नाम बताया।

       -अरे,-अरे! आवा भैने। आज कहाँ सूरज पश्चिम से निकरि परा। एक दम्मै भुला दिये। फिर मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले- पता चला कि यही परग भर की दूरी पर सड़क बनवाने आये हो तो किसी दिन हमारी याद भी आयेगी लेकिन...

       मैं लज्जित हो गया। मुझे पहचान कर महिलाएं भी निकल आयीं। तीसरी और सातवीं यानी उतराहा मामी। उनकी बहुएं। बेटियाँ। मैंने दोनों मामियों को पैलगी की। फिर देर तक परिचय होता रहा कि कौन किसकी बेटी है कौन किसका बेटा। बहुओं का मायका। बच्चों के नाम। कोई मर्द नहीं दिख रहा था। काम से गये होंगे।

       मामा बहुत दुर्बल हो गये थे। हडि्‌डयाँ दिख रही थी। बांह, जांघ और पेट की चमड़ी चुचुक कर लटक रही थी। चश्में की एक डंडी टूट गयी थी। उसकी जगह धागा बांध कर कान में लपेटे हुए थे। तीसरी मामी ने अपनी पतोहू के हाथों गुड़ और मठ्‌ठा मँगवाया। मैंने मठ्‌ठे का गिलास पकड़ाते हुए मामा से पूछा- बड़की मामी कैसी हैं मामा?

       -पता नहीं भैने।

       -कितने दिन हुए भेंट किए?

       पोंपले मुँह से बेबस मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले- यह भी अब कहाँ याद है भैने।

       -चलिए आज मामी के घर चलते हैं। मैं आज आप ही दोनों लोगों से मिलने के लिए निकला हूँ।

       -अब कौन सा मुँह लेकर उनसे मिलने चलूँ भैने? जब उनको जरूरत थी तब तो गया नहीं। अब तो मर कर ही मिलेंगे।

       -मरने में तो अभी बहुत दिन हैं मामा। चलिए। खाना-पीना न खाये हों तो खा पी लीजिए।

       पता चला कि मामा अब एक ही जून दोपहर में खाते हैं और उनका भोजन पन्द्रह भतीजों के बीच बँटा हुआ है। इनमें से दो भतीजों, बल्कि कहिए दो भतीजों की बहुओं ने उन्हें खिलाने से मना कर दिया है। इसलिए महीने में पड़ने वाली इन दोनों की दो-दो दिन की ओसरी (पारी) को वे चबेना चबा कर बिताते हैं। बाकी के छब्बीस दिन तेरह चूल्हों में दो-दो दिन करके खाते हैं। चबेना की हाँड़ी मामा की चारपाई के सिरहाने ही छप्पर से बँधी रस्सी से लटकी थी जिसे तीसरी और उतराहा मामी समय-समय पर चबेने से भरती रहती थीं। पता चला कि मामा का माचे पर रहना सात-आठ साल पहले छूट गया। कौन उतनी दूर खाना-पानी पहुँचाता। टूटा-फुटा माचा अब किस कोने में पड़ा है यह भी किसी को याद नहीं। यही हाल हुक्के का था। पता चला उसकी तम्बाकू खतम होने पर महीनों कोई लाता नहीं था। मामा अमल के मारे परेशान हो जाते। हार कर हुक्का पीना ही बंद कर दिया। हुक्का कहाँ है? चिलम कहाँ है? किसी को याद नहीं।

       यह भी पता चला कि आज मामा का चबेना वाला दिन है।

       पता नहीं कैसे यह बात फैल गयी कि बड़के मामा अब ससुराल में बसने जा रहे हैं। सुन कर आस पड़ोस की औरतें इकट्‌ठी होने लगीं। बड़के मामा का ससुराल जाना पूरे परिवार के लिए डूब मरने जैसा था। जिन्दगी भर इन लोगों के लिए खटते-खटते बूढे़ हो गये और अब बुढा़पे में सब मिल कर रोटी नहीं दे पा रहे हैं। यह अफवाह भी फैली की बुढऊ खुद ही संदेश भेज कर भैने को गाड़ी लेकर बुलाये हैं, ससुराल छोड़ने के लिए।

       मैंने मामा के चेहरे की ओर देखा फिर उनका हाथ पकड़ कर मुस्कराते हुए कहा- चलिए। मन लगे तो रूकियेगा नहीं तो लौट आइयेगा। मामी का हालचाल भी तो लेना चाहिए। कोई पैदल थोड़े चलना है।

       मेरी बात सुन कर आसपास फैला तनाव कुछ ढीला पड़ा। एक भतीजे की बहू हँसते हुए बोली- अरे जाइये न बाबा। मोटर पर बैठ कर ससुराल जाने का मजा लीजिए। सब हँसने लगे। मामा के पोपले मुँह से भी मुस्कराहट फूट निकली।

       एक पोती ने दूसरी को आवाज देकर बताया- हई देख रे.... दुलरिया। बड़का बाबा मोटर में बैठ कर ससुराल जा रहे हैं।

       दुविधाग्रस्त मामा ने एक बार सारे हँसते हुए चेहरों की ओर देखा फिर बोले- अच्छा मेरी लाठी उठाइये। मेरा लोटा।

       उन्होंने अंगौछा कन्धे पर रखा।

       -अरे, मेरा कुर्ता कहाँ गया?

       पता चला कि कल शाम खाते समय उस पर दाल गिर गयी थी। सिरहाने रखकर सोये थे तो कुतिया के दोनों पिल्ले खींचते-खेलते लेकर पिछवाडे़ चले गये। वहाँ मिला। एक लड़की झाड़ते हुए लेकर आयी। बताया कि थोड़ा सा फाड़ दिए हैं।

       -चलिए अब इसे ससुराल में पतोहू सिलेगी धुलेगी। उसे भी तो सेवा का मौका मिलना चाहिए।

       मामा चलने को हुए तो तीसरी मामी ने अपनी तेज तर्रार बहू को इशारा किया। वह घूंघट निकाल कर आगे आयी- बाबा यहाँ क्या दुख है जो बुढायी दाव वहाँ जा रहे हैं?

       तीसरी मामी ने तुरन्त अपनी बहू की बात काटी- धत्‌! मिलजुल कर कुछ दिन मे लौट आयेंगे कि..... फिर बड़के मामा की ओर मुड़ कर बोली- दस-पंद्रह दिन में बेटे को भेजूँगी। चले आइयेगा।

       मामा की आँखें और स्वर आर्द्र हो गया। कम्पित स्वर में बोले- ठीक है। जल्दी ही आऊँगा। यह तो भैने मसखरी पर उतर आये हैं तो चला जा रहा हूँ।

       इस बीच मैं उतराहा मामी को देख रहा था। वे अब भी सुन्दर थीं। शहरी स्त्रियाँ उम्र बढ़ने के साथ भारी हो जातीं हैं। वे देहात की उम्रदराज स्त्रियों की भाँति हल्की हो गयी थीं। ननिहाल आने पर बचपन में यही मामी मुझसे ज्यादा मजाक करती थीं। रोक लेतीं। घुटनों के बल बैठ जातीं और मेरा गाल मीजते हुए कहती- हमको भी पढ़ा दो भैने एक दो किताब। कब पढ़ाओगे? दिन में कि रात में? कहाँ पढ़ाओगे? उर्दे में कि अरहरी में? ऐसा करो, एक किताब उर्द (के खेत) में पढ़ा दो, एक अरहरी (के खेत) में।

       मामी को पता चल गया कि मैं उन्हें ही देख रहा हूँ। कुछ सकुचायीं। आँचल ठीक करने लगीं।

       मैंने कहा- आपकी बहुत याद आती थी मामी।

       -तभी तो इतनी जल्दी मिलने आ गये भैने। और बिना हालचाल पूछे चल भी दिए।

       मामी ठीक कह रही हैं। इस जीवन में मनुष्य को जहाँ होना चाहिए वहाँ नहीं होता और जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ धक्के खाता रहता है। इस बीच मामा के दो तीन पोते आ गये। एक ने जीप के अंदर मामा की लाठी व्यवस्थित की दूसरे ने उन्हें गोद में उठा कर आगे सीट पर बैठा दिया। भतीजे, भतीजियाँ, बहुएँ उनका पैर छूने लगीं। मैं पिछली सीट पर मामा के पीछे बैठ गया।

       जीप चलने के पहले एक लड़का उनकी सूखी कीचड़ सनी पनहिया चिथडे़ से झाड़ता हुआ लाया।

       बीसों हाथ बिदा में हिलने लगे।

       मामा कभी सड़क के बांये देखते कभी दांये। चैती की पकी अधपकी पीली फसल खेतों मे खड़ी थी। मटर, चना और सरसों कट चुकी थी, उनके खेत खाली थे। केवल गन्ने के खेत हरे भरे थे। एक जमाने में बीघे भर के विस्तार में बहने वाला नाला सिमट कर एक मोहड़ी वाले पुल के पेट में समा गया था। नई आबादी के नाम पर पुल के दक्षिण, नाले के पश्चिमी घाट पर दस पन्द्रह झोपड़िया बसी थीं, बाकी हर तरफ खेत ही खेत।

       एक पतला खड़ंजा गाँव में घुस रहा था। लगभग सारे कच्चे-पक्के घरों पर डी.टी.एच की डिस लगी थी। गाँव के रास्ते बदल गये थे। असंख्य झोपड़ियां उग आई थीं। कुत्तों का झुण्ड गाँव के बाहर से ही भौंकते हुए जीप के पीछे लग गया। खड़ंजे पर कहीं बकरी बंधी थी, कहीं खूंटा गड़ा था। घर के सामने के मड़हे में दो चारपाइयां बिछी थीं। बांई तरफ वहीं दालान थी जिसको बनाने के लिए उस बार मामी मिट्‌टी ढोते हुए मिली थीं।

       एक हड्‌डही सफेद गाय खूटे से बंधी चक्कर लगाते हुए रम्भा रही थी। शायद प्यासी थी। उसके सामने भूसे चारे की कोई नाद या झौवा पलरी नहीं थी। मामी के दरवाजे पर हमेशा बंधे रहने वाले दूधारू जानवरों की जगह अब इस हड्‌डही गाय ने ले लिया था।

       मामा और जीप के दोहरे आकर्षण से मामी के दरवाजे पर भीड़ लग गई। ससुर को पहचान कर बहू ने मड़हे मे बिछी चारपाई पर चादर डाल दिया। मैंने मामा को उतार कर सहारा देकर चारपाई पर बैठाया पतोहू ने मामा के पैर छुए और अपनी बड़ी बेटी को पैर छूने का इशारा किया। वह शरमा कर पीछे हट गई।

       -अरे बाबा हैं! बहू ने आँखे तरेर कर बेटी को डपटा। तो उसने भी आगे बढ़ कर पैर छू लिया।

       दालान के आधे बांये हिस्से में टाटी बांध कर भूसा रखा गया था और दाहिने हिस्से में एक चारपाई बिछी थी। उसके पीछे कोने में चूल्हे से धुँआ उठ रहा था। मामी चूल्हे में फूँक मार कर आग जलाने का प्रयास कर रही थीं लेकिन दाँत न होने से फूँक सध नहीं रही थी। एक रोटी तवे पर थी, दूसरी मामी की हथेली पर। थाली खाली थी।

       थोड़ी दूर पर कुछ सूखी पतली टहनियाँ पड़ी थी। चारपाई पर पुरानी धोतियों को सिलकर बनायी गयी कथरी बिछी थी। मुझे यह तो पता था कि मामी बहू बेटे से अलग रह रही हैं लेकिन यह अनुमान नहीं था कि छोटे ने उन्हें घर के अंदर नहीं बल्कि बाहर दालान के कोने में जगह दी है।

       बहू अंदर से चाय बना लायी। इस बीच मामी की रोटियाँ पक गयीं। वे थाली में हाथ धोने लगी तो बहू ने बेटी से कहा- जाकर दादी को बता दे कि माधोपुर से बाबा आये हैं।

       पता नहीं वे समझ नहीं रही थीं या उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कई बार बताने पर समझीं तो रोटी ढक कर सिर का आंचल ठीक करते डंडा टेकते हुए धीरे-धीरे आयीं। कमर झुक गयी थी, शरीर जर्जर था, झुर्रिया लटक रही थीं। पहनी गई धोती बदरंग और अंशत: पारदर्शी हो गई थी। जैसे एक्सरे प्लेट में हडि्‌डयां झलकती हैं उसी तरह टागों का धुंधला अक्स झलक रहा था। लम्बी सूखी लटकती छातियां पुराने ढीले पड़ गये ब्लाउज की निचली सीमा लांघ कर थोड़ा बाहर निकल आई थीं। वे मामा की चारपाई के आगे थोड़ी दूर पर डंडा रख कर जमीन पर बैठ गयीं। मैने पैर छूकर अपना नाम गाँव बताया तो देर तक असीसती रहीं फिर मामा को देखने की कोशिश करते हुए पूछा- केस अहा? (कैसे हैं?)

       -भले अही! (ठीक हैं)

       - मुंड़वा कै पिरबवा बंद भा कि नाही?
       (सिर दर्द बंद हुआ कि नही?)

       पता चला चार पाँच महीने से मामा का सिर दर्द कर रहा है। मामी को कैसे पता लगा होगा?

       -अब ऊ मरेन पै बंद होये।
       (अब वह मरने पर ही बंद होगा।)

       थोड़ी देर बाद मामा ने पूछा- तू भले अहा?

       -जियरा जियत बा। (जी रहे हैं।)

       -चला, दूनो जने एक-एक रोटी खाइल्या। मामी ने कहा।

       पतोहू ने कहा- इन लोगों का खाना इधर बन रहा है। आप खा लीजिए।

       लेकिन मामी बैठी रहीं। मुझसे माँ का, बच्चों का, पत्नी का हाल पूछती रहीं। हम लोग खाना खाने के लिए अंदर गये तो वे भी उठीं।

       मामा के आने की खबर पाकर अड़ोस पड़ोस के कई लोग आ गये थे। वे मामा को लेकर गाँव घुमाने चले। मामा लाठी टेकते उत्साह के साथ चल पडे़। मैं उनके पीछे-पीछे। एक-एक दरवाजे पर रूकते। दुआ, बंदगी, राम जोहार करते, हाल-चाल लेते। कौन-कौन मर गये? कौन विस्तर पकड़ लिए हैं?

       अँधकार होने लगा। मामा थक गये तो एक दरवाजे पर तीन चार चारपाइयाँ बिछायी गयीं। मर्द चारपाइयों पर और औरतें कुँए की जगत पर बैठीं। अँधेरा घिर जाने के बाद भी कोई दिया या लालटेन नहीं जली। अँधेरे में केवल बातचीत की आवाजें......

       मैंने पूछा- दिया बाती नहीं करेंगे क्या? साँझ हो गयी।

       -दिया बाती का रिवाज खत्म हो गया।

       -अरे क्यों?

       -मिटटी का तेल ही नहीं मिलता। मील भर दूर का कोटेदार है। जब तक पता चले कि बंट रहा है, पहुँचिए, तब तक कह देता है कि खतम हो गया। कभी मौके से पहुँच गये तो दिनभर का अकाज करने के बाद लीटर आध लीटर देता है, वह भी दो महीने में एक बार। तो मिट्‌टी का तेल लोग देशी घी से ज्यादा सँभाल कर खर्च करते हैं। खाते समय जरा देर के लिए जलाते हैं फिर बुझा देते हैं।

       -तो बच्चे पढ़ते कैसे हैं? बिजली आती है?

       -बिजली के खम्बे तो गड़ गये हैं। एक बार पाँच छ: दिन के लिए आयी भी थी लेकिन तार ही चोर काट ले गये।

       -तब?

       -तब क्या? पढ़ने वाले हैं ही कौन हैं?

       -क्यों? बच्चों को स्कूल नहीं भेजते?

       -स्कूल तो तब जायें जब कोई पढ़ाने वाला हो। एक ही मास्टर है। उसे अपनी आटा चक्की चलाने से ही फुरसत नहीं है। महीने में तीन-चार दिन आता है।

       ऐसा? तो उसकी शिकायत नहीं किए?

       -जब परधान को पाँच सौ रूपया महीना देता है तो शिकायत करके क्या उखाड़ लेंगे?

       -अरे, ठीक ही है। दूसरी आवाज आयी- क्या करेंगे पढ़ लिख कर? नौकरी चाकरी तो कहीं मिलनी नहीं। शहर चले जाते हैं। चौदह-पन्द्रह साल की उमर में सौ रूपया रोज दिहाड़ी कमा कर ला रहे हैं। घर का खर्चा चल रहा है।

       थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गर्इ तो औरतों को मामी की पतोहू की शिकायत का मौका मिल गया- मर मर कर अकेले दम पर घर दुआर बनाया बुआ ने। सबको पाला और पतोहू आयी तो साल दो साल भी सबर नहीं हुआ। आये दिन लड़ाई, आये दिन टंटा। आखिर अलग ही होना पड़ा बुआ को।

       -क्या करतीं बुआ। उसके बेटे-बेटियाँ जगह-जगह गन्दगी करते थे। सफाई करती नहीं थी। मक्खियाँ भिनकती रहती थीं। बुआ सफाई के लिए टोकतीं तो काटने दौड़ती। आये दिन की खिट-खिट। आखिर कसम ही धरा दिया- मेरा छुआ खाओ तो अपने भतार का माँस खाओ। तब क्या करतीं बुआ? झख मार कर अलग पकाना खाना शुरू किया।

       -असली बात वह नहीं है। असली बात यह कि साथ रहती तो उसे मालिकाना कैसे मिलता।

       -और अलग भी किया तो घर में तो हिस्सा देती। दालान में देशनिकाला दे दिया जहाँ जाड़ा-गर्मी दोनों मौसमों की मार ज्यादा पड़ती है।

       -कितना तो कहा सबने लेकिन कहाँ मानी। कहती थी कि घर में घुसने दे और बुढि़या उसका राशन पताई बेच दे, या दरवाजा खुला छोड़ दे, चोरी चकारी हो जाय तो कौन जिम्मेदार होगा?

       -अरे, ऊँच गाँव की लड़की व्याह कर लायीं तो नहीं जानती थीं कि उस गाँव की लड़कियाँ कितनी लड़ाका होती हैं। वे तो डंके की चोट पर कहती हैं कि साल भर के अंदर एक चूल्हे को दो नहीं कर दिया तो ऊँच गाँव की बेटी नहीं।

       -लेकिन छोटे को तो देखना चाहिए था। माँ के गुजारे के लिए उसरहवा खेत दे दिया जिसमें चार महीने के खाने भर का भी नहीं होता।

       -छोटे को तो उसने भेड़ा बना कर रख दिया है। वै क्या बोलेंगे?

       -बहुत अच्छा हुआ कि आप आ गये। चार जन के साथ बैठकर सब बात साफ-साफ फरियाइये। बुआ को दिखाई नहीं देता। वे रोटी पानी कैसे करेंगी? छोटे तो बेटे को लेकर दिहाड़ी कमाने चले जाते हैं बुआ आटा पिसाने के लिए इस उस लड़के की चिरौरी करती हैं। एक बाल्टी पानी भरने के लिए घंटों पोती को आवाज लगाती हैं।

       -बूढ़ी को अपनी रोटी सेंकना पहाड़ है। खुद के लिए तो कच्ची पक्की किसी तरह सेंक भी लें। लेकिन आपके लिए कैसे और कब तक सेकेंगी? अब छोटे दोनों परानी कमा पका कर खिलावें और इंकार करते हैं तो खेतीबारी का बंटवारा करके रिश्ते नाते से किसी की लड़की ले आइये। उसके ब्याह- गौने का जिम्मा ले लीजिए। वह खुशी-खुशी पका कर दोनों लोगों को खिलायेगी।

       लगता है औरतों ने यह सब पहले से सोच रखा था। मामा चुपचाप सुन रहे थे। थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा गई फिर एक स्त्री स्वर ने कहा- अच्छा यह सब कल के लिए छोड़िये। बुआ तो एक ही टाइम खाती हैं। आप लोगों के लिए खाना तैयार है।। आइए दो-दो रोटी आज मेरी रसोई में ही खा लीजिए।

       -बहू ने तो बनाया होगा वहाँ? मैंने कहा।

       -बहू ने एक जून मेहमानी में खिला दिया अब उससे उम्मीद मत करिए। वह अपने बेटे-बेटियों को लेकर सो गयी होगी।

       - मैं तो अब वापस जाकर ही खाऊँगा। मामा को खिलाइए।

       मामा ने बताया की वे भी एक ही जून दोपहर में खाते हैं।

       उठान हो गया। लौट कर देखा, बहू के घर का दरवाजा सचमुच बंद हो गया था। ओसारे में एक ढिबरी जल रही थी। उसकी टिमटिमाती लौ अँधेरे से लड़ रही थी। मामी की चारपाई पर साफ कथरी बिछा कर मामा के सोने का इंतजाम किया गया था। थोड़ी दूर जमीन पर मामी ने अपने सोने के लिए कथरी बिछाई थी। उस पर मामी के साथ पड़ोस की दो औरतें बैठी थीं। उनमें से जो प्रौढ़ा थीं वे पड़ोसी रमेसर की दुलहिन थीं। उन्हें मैं पहचानता था। दूसरी जो युवा थी और घूंघट में थी वह उनकी पतोहू होगी।

       मैंने मामा को सहारा देकर चारपाई पर बैठा दिया। ओढ़ने के लिए सिराहने एक कमरी रखी थी, मामी के बिस्तर पर एक सूती चादर रखी थी। शायद मामी के पास यही एक कमरी है जो उन्होंने मामा को ओढ़ने के लिए दे दि है। फागुन की भोर में हल्की ठंड लगेगी।

       -लेटिये! मैंने मामा से कहा और सहारा देकर लिटा दिया।

       थोड़ी देर बाद मैंने मामा से कहा- मामा, मैं चलना चाहता हूँ। सबेरे ऑफिस जाना होगा।

       मामा कुछ बोले नहीं। आँख बंद करके लेटे रहे।

       मैंने मामी की ओर देखा। रमेसर की दुलहिन बोली- इस कुबेला में क्यों जायेंगे? सबेरे चले जाइयेगा।

       -नहीं। गाड़ी है, निकल जाऊँगा। मैं उठ कर मामी का पैर छूने लगा। मामी कुछ बुदबुदायीं।

       मामा ने अपना एक हाथ ऊपर उठा कर बैठाने का इशारा किया और बोले- ऐसा है भैने, यहाँ का हालचाल, राजीखुशी मिल गया। अब मैं भी चलूँगा।

       -अरे, आप इतनी जल्दी कैसे चले जायेंगे ननदोई? रमेसर की दुलहिन ने आवाज में मिठास भरकर ठनगन किया- बिना नेग चार लिए-दिये चले जायेंगे?

       -चलो, नेग में तुम्हीं को लेकर चलते हैं। मामा ने भी अपनी आवाज में मिठास भरा और चारपाई के नीचे हाथ बढ़ा कर अपनी लाठी खोजने लगे।

       -चुप रहिए। हमीं फालतू हैं लबार आदमी के साथ जाने के लिए? जिसको दिया गया था उसको तो संभाल नहीं पाये, फिर घूँघट वाली स्त्री के कान में कुछ कहा। घूँघट वाली उठ कर अँधेरे में कहीं चली गई।

       मैनें लाठी उठाकर मामा के हाथ में पकड़ायी। मामा उठे तो मामी और रमेसर की दुलहिन भी उठ कर खड़ी हो गयीं। मामा ने एक क्षण मामी की ओर देखा फिर बोले- चलत अही! (चल रहे हैं।)

       मामी झुकी कमर को लाठी के सहारे टेके खड़ी थीं। उनके ओंठ थरथराये लेकिन आवाज नहीं निकली।

       आगे-आगे मामा पीछे-पीछे हम तीनों लोग।

       जीप के परदे पर हम सबकी परछांइयां हिल-डुल रही थीं। मामा के बैठने के लिए जीप का गेट खोल ही रहा था कि रमेसर की दुलहिन ने युवती के हाथ से लेकर एक लोटा रंग मामा के सिर और कुर्ते पर डाल दिया फिर हंसते हुए बोली- फागुन में ससुराल आये हैं तो बिना होली खेले कैसे चले जायेंगे?

       मामा के मटमैले कुर्ते पर रंगीन धारियाँ बन गयीं। सफेद बाल गुलाबी हो गये। मामा के मुख पर खुशी की छाया तैरी और उन्होंने पद में सलहज लगने वाली रमेसर की दुलहिन को एक मीठी गाली देकर कृतार्थ किया।

       जीप चल पड़ी। मैनें पीछे मुड़ कर देखा- ढिबरी की कांपती रोशनी में तीनों मूर्तियां खड़ी हमारी ओर देख रहीं थीं।

       सड़क पर आकर सोचने लगा कि मैं मामा को लेकर यहाँ क्यों आया? इस यात्रा से किसको क्या हासिल हुआ? यह मेरी नादानी नहीं तो और क्या है?

       नाले के पुल की चढ़ाई पर जीप की गति धीमी हुई और पुल पर आते-आते रूक गई। मैंने ड्राइवर की ओर देखा। वह नीचे उतर कर जीप के पीछे से टिन का डिब्बा निकालते हुए बोला- रेडिएटर लीक कर रहा था। पानी चू गया। मैं नीचे नाले से लेकर आता हूँ।

       मैं भी जीप से नीचे उतर आया। मामा ने पूछा- क्या हुआ? मैंने बताया- थोड़ा रूकना पडे़गा। उन्होंने लघुशंका की इच्छा व्यक्त की। मैंने उन्हें भी नीचे उतार लिया।

       पूरब से लगभग तीन चौथाई चाँद निकल आया था। मद्धिम चाँदनी फैली हुई थी। नाले के पश्चिम की झोपड़ियों से मन्द-मन्द बहती पछुआ पर उड़ कर ढोलक की थाप और गाने की आवाज आ रही थी। मामा ने निवृत्त होते हुए कान लगा कर सुना और उठ कर पास आये तो पूछा- होली पास आ गयी क्या भैने? यह तो 'फगुआ' की धुन है।

       मामा का सिर उस धुन पर धीरे-धीरे डोलने लगा।

       -हाँ मामा। चार दिन बाद होलिका जलेगी। फिर बोला- आप भी तो बहुत अच्छा फगुआ गाते थे मामा। एकाध कड़ी सुनाइये।

       -अब हम क्या सुनायेंगे भैने? अपनी ही याद नहीं रह गयी तो फगुआ क्या याद रहेगा?

       -याद कर लीजिए। आज के बाद फिर पता नहीं कब मौका मिले आप से सुनने का?

       मैंने सोचा मामा को उनके प्रिय फगुआ की याद दिलाऊँ- गोरी तोहरी नजरिया मा भाला .......

       मामा कुछ देर शून्य में देखते रहे। खंखार कर गला साफ किया फिर कांपते स्वर में कहा अच्छा एक डेढ़ेताल सुनों.....

       सब दिन बसंत जग थिर न रहै
       आवत पुनि जात चला..... रे......
       पपिहरा प्या......रे...
       (ऐ पपीहे, हमेशा नहीं रहता बसंत। आता है और चला जाता है।)

       धन धरती बन बाग हबेली।
       चंचल नयन नारि अलबेली।।
       भवसागर के जल धुलि जइहैं।
       तोरे मनवा के रंग दिल वा.....रे....
       पपिहरा प्या.......रे......

       गाने के बाद मामा थोड़ी देर चाँद को देखते रहे फिर बोले- छिनरी ने पूरा भिगो दिया। ठंड लग रही है।

       ड्राइवर ने आकर इंजन स्टार्ट किया और रेडिएटर में पानी डालते हुए बोला- बैठिये।

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कहानी: कसूर - मेहरीन जाफरी

कहानी

कसूर

मेहरीन जाफरी

कहानी: कसूर - मेहरीन जाफरी hindi kahani hindikahani by mehreen jafri

‘तुम मेरी पसंद हो और मरते दम तक रहोगी पर मां की पसंद का क्या करूं? उन्हें जींस पहनने वाली। सिर पर गागल्स चढ़ाए, हाथ में स्मार्टफोन लहराती हुई आज़ाद ख्याल लड़कियां फूटी आंख नहीं भातीं’। यार बात को समझने की कोशिश करो अगर उनकी पसंद की लड़की से शादी नहीं की तो जायदाद से बेदखल कर दिया जाऊगा। वे तो सलवार कमीज़ पहनने वाली सिर पर दुपट्टा रखने वाली, सीधी-सादी लड़कियों में ही अपनी भावी आदर्श बहू तलाशती हैं। मुझे शादी वहीं करनी होगी जहां वह चाहती हैं......!!! साहिल के किसी दूसरी लड़की से शादी करने के ये तर्क सुनकर वह कुछ देर तो अवाक रह गई फिर कुछ क्षण के बाद उसके चेहरे पर एक दर्दभरी तीखी मुस्कुराहट तैर गई। उसने बिना समय गवाएं टेबिल से अपना हैण्डबैग झपटकर उठाया और रेस्टोरेंट से बाहर निकल गई। अरे राहिला...... यार..... सुनो…. तो..... !!! साहिल पीछे से उसे पुकारता रहा पर उसने पलटकर नहीं देखा।

राहिला अपने बेडरूम में डबल-बेड पर औंधे मुंह लेटी आंसू बहा रही थी। कमरे के सन्नाटे में उसकी सिसकियां भी दीवार घड़ी की टिकटिक का साथ दे रही थीं। साहिल के साथ गुज़ारा लम्हा-लम्हा वह याद करती और मिनट-मिनट पर आंखों से दो-चार आंसू बहकर तकिए पर लुढ़क जाते। तकिया गीला हो चुका था, पर सिसकियां जारी थीं। राहिला को याद आ रहा था कि कैसे साहिल ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं। उसे याद आ रहा था वह दिन जब उन दोनों के बीच नज़दीकियां कुछ इस क़दर बढ़ गई थीं कि दोनों ही खुद को तन और मन से एक दूसरे का होने से नहीं रोक पाए थे। हालांकि वह शादी से पहले संबंध बनाने को लेकर बहुत झिझक रही थी लेकिन साहिल ने ही उसको समझाया कि प्यार की कोई सीमा नहीं होती। यह भी कि ज़माना बहुत बदल गया है। दो प्यार करने वालों के लिए मन के साथ तन का मिलन कोई इशू नहीं रहा। यह भरोसा भी दिया कि उन्हें एक न एक दिन तो शादी करनी ही है।

राहिला को याद आ रहा था कि किस तरह वह साहिल की दलीलों पर कंनवेंस हो गई थी और उसने खुद को उसके हवाले कर दिया था। अचानक राहिला को खुद से नफरत होने लगी। वह मन ही मन अपने आप को कोसने लगी। ग़म के साथ उसका गुस्सा भी उबाल पर था। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि कैसे वह साहिल के भोले-भाले चेहरे के पीछे छिपे खुदगर्ज़ और मौका परस्त शख्स को पहचान न सकी। राहिला अभी इन ख्यालों में गुम ही थी कि सामने पड़ा उसका मोबाईल घनघना उठा। काल साहिल की थी। राहिला का मन तो हुआ फोन कट कर दे पर हिम्मत करके रिसीव कर लिया। ‘राहिला यार देखो हम तो नए ज़माने के लोग हैं। पढ़ी-लिखी हो तुम। शादी जैसे इतने छोटे से इशू पर इतनी नाराज़गी। मैं शादी किसी भी लड़की से करू पर प्यार तो सिर्फ और सिर्फ तुमसे ही करता हू न? हम पहले की तरह मिलते रहेंगे। इस शादी से हमारे रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ेगा। राहिला.... राहिला...... तुम सुन रही हो न? साहिल की बातें सुनकर राहिला के दिल-दिमाग़ में आंधियां सी उठ रही थीं। उसने कोई जवाब नहीं दिया और फोन काट दिया। साथ ही साहिल को भी अपनी जि़ंदगी से हमेशा-हमेशा के लिए।


लखनऊ की मेहरीन जाफरी स्वतंत्र पत्रकार हैं। 2 सितंबर 1984 को जन्मीं मेहरीन जाफरी, महिला पीजी कालेज से अंग्रेजी साहित्य व समाजशास्त्र विषयों से स्नातक हैं व लखनऊ विश्वविद्यालय से ‘मीडिया लेखन‘ में पीजी डिप्लोमा किया है। लेख, फीचर, व कहानी लेखन में रूचि रखती हैं और हिंदी समाचारपत्र "हिन्दुस्तान" के लखनऊ संस्करण में बतौर संवाददाता 2007-2012 काम करती रही हैं।  
‘शीमा रिजवी वेलफेयर सोसायटी‘ की ओर से 'वुमन आफ सब्सटैंस अवार्ड-2011' से सम्मानित मेहरीन के लिखे फीचर व लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित होते रहे हैं और 'घरेलू हिंसा' के खिलाफ लिखी उनकी पहली कहानी   'डोरबेल'  मासिक पत्रिका 'दस्तक टाइम्स' में  प्रकाशित हो चुकी है।

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आज असद के स्कूल में स्पोट्र्स-डे था। राहिला जल्दी-जल्दी तैयार हो रही थी ताकि टाइम से स्कूल पहंुच सके। सात साल का उसका बेटा असद रेस में भाग लेने वाला था। इतनी छोटी सी उम्र में पूरे मोहल्ले के बच्चों से रेस लगाता था वह। तेज़ भागने में चैंपियन था। राहिला ठीक आधे घंटे बाद असद के स्कूल में थी। बच्चे रेस के लिए ग्राउंड में तैयार खड़े थे। उनके बीच असद भी। स्पोट्र्स टीचर ने सीटी बजाई और सभी बच्चे पूरे दमखम से दौड़ पड़े। देखते ही देखते असद सबसे आगे निकल गया। वह रेस में प्रथम आया। दो घण्टे तक चले प्रोग्राम के बाद बारी थी पुरस्कार वितरण की.......। 

‘अब हमारे मुख्य अतिथि माननीय ‘मेयर‘ साहब प्रतियोगिताओं के विजेता बच्चों को मेडल देकर उनका उत्साहवर्धन करेंगे‘। कृपया मिस्टर ‘साहिल कुरैशी‘ साहब का तालियों से स्वागत कीजिए। राहिला के कानों में जैसे ही उद्घोषक की यह आवाज़ पड़ी, उसने चौंककर मंच की ओर देखा। मंचासीन लोगों के बीच वह बड़ी शान से बैठा मुस्कुरा रहा था। राहिला ने थोड़ी सी कोशिश के बाद उसे पहचान लिया क्योंकि पहले वह क्लीन शेव रहा करता था अब चेहरे पर फ्रेंच दाढ़ी थी। राहिला को कुछ पल के लिए होश नहीं रहा। वह 10 साल बाद एक बार फिर फ्लैश-बैक में थी। प्रोग्राम खत्म हो गया। असद मेडल ले आया। राहिला स्तब्ध खड़ी थी। असद के शाना हिलाने पर वह होश में आई। ‘अम्मी मैं इत्ती तेज भागा। मेडल भी लाया पर आज आपने मुझे किस्सी क्यों नहीं दी’? अं....हां। राहिला अभी भी बेदम थी। उसने बेपरवाही से असद का माथा चूमा और उसे साथ लेकर स्कूल की पार्किंग की ओर बढ़ गई। 

अब राहिला जल्द से जल्द वहां से भाग जाना चाहती थी। तेज़-तेज़ कदमों से बढ़ ही रही थी कि उसे किसी ने आवाज़ दी। बेहद जानी-पहचानी आवाज़ वही जिसे भविष्य में कभी न सुनने का फैसला उसने 10 साल पहले ही कर लिया था। राहिला ने पलटकर देखा। ये साहिल ही था। राहिला ने असद को थोड़ी देर स्कूल के मेनगेट पर इंतज़ार करने को कहा फिर साहिल की तरफ मुखातिब हुई। जी कहिए? ‘कितने सालों बाद देख रहा हूँ तुम्हें। बिल्कुल नहीं बदलीं, आज भी वैसी ही हो। बेहद खूबसूरत और दिलकश’। साहिल ने मुस्कुराते हुए कहा। ‘पर तुम बहुत बदसूरत नज़र आते हो अब! राहिला ने जवाब दिया। ‘हा हा हा। आई लाइक इट, मुझे तुमसे इसी जवाब की उम्मीद थी। तो शादी कर ली तुमने भी? इतनी आसानी से भुला दिया मुझे? कुछ बताओगी नहीं, पूछोगी नहीं’? हां सिर्फ एक बात अगर सचमुच सच बोलना चाहते हो तो! क्या वाकई मसला सिर्फ मेरे जींस पहनने और आज़ाद ख्याल होने का था? हम्ममम.....!!! साहिल ने राहिला का सवाल सुनकर गहरी सांस ली और फिर कहा-‘इतने सालों बाद मिल रही हो झूठ नहीं बोलूगा। दरअस्ल नहीं। न जींस का, न तुम्हारे आज़ाद ख्याल होने का और न ही मां की पसंद का। मेरे ही दिमाग़ में फितूर था कि जो लड़की शादी से पहले अपनी ‘वर्जिनिटी’-कौमार्य खो सकती है वह मेरे खानदान के लायक नहीं। राहिला कुछ देर के लिए जैसे सुन्न हो गई। फिर एक ही पल में उसमें इतनी ताक़त न जाने कहां से आ गई कि ज़ोरदार थप्पड़ साहिल के गाल पर जड़ दिया। मेयर साहब सकते में थे। चोर नज़रों से इधर-उधर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा और गाल पर रुमाल रखकर, चुपचाप वहां से चले गए।

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कहानी: पाप, तर्क और प्रायश्चित - प्रज्ञा

कहानी 

पाप, तर्क और प्रायश्चित

प्रज्ञा


‘‘सुनो, तुम मीनू को जानते हो?...वही जो तुम्हारे भैया के पास पढ़ती थी।’’

‘‘ न... नहीं तो।’’

‘‘अरे काफी समय से पढ़ रही थी उनसे और तुम्हें तो अच्छी तरह जानती है। शायद देखा हो तुमने कभी। पतली-दुबली सी लड़की है। कद ठीक-ठाक ही है, हां सांवली है और बात-बेबात हंसती रहती है। और वो न...’’

‘‘अरे भैया के पास कितने बच्चे आते हैं ट्यूशन पढ़ने, मेरे पास सबका रिकार्ड है क्या? और जहां तक मेरी बात है तो भैया ने बताया होगा कभी मेरे बारे में या देखा होगा उसने कभी जब मैं घर गया हूंगा।’’

‘‘जानते हो आज उसका पहला दिन था कॉलेज में और मुझे देखते ही बोली-‘आप संजय सर की छोटी बहू हो न?’...मुझे अच्छा नहीं लगा। पहली ही मुलाकात में इतना बेतकल्लुफ हो जाना उसका।’’

‘‘इसका मतलब तो ये हुआ कि उसने मुझे ही नहीं तुम्हें भी देखा है घर में। और फिर भैया ने कह दिया होगा कि हमारी बहू है, पढ़ाती है कॉलेज में। पर तुम्हें बुरा क्या लग रहा है- उसका बेतकल्लुफ होना या उसका भैया की छोटी बहू कहना?’’

मानस की बात तीर की तरह मेरे कलेजे में जा लगी। दरअसल बात तो यही थी कि मेरे वर्कप्लेस पर एक अजनबी लड़की पहली ही बार में मुझसे इतनी लिबर्टी लेकर मुझे टीचर नहीं बल्कि अपने टीचर की बहू कह रही थी। उसके एक वाक्य ने मेरा सारा वजूद हिलाकर रख दिया था। मैं डॉ. सहज त्रिपाठी, एक लंबा अनुभव है मेरा इस संस्थान में। कितने ही छात्र पढ़ाए। एक रूतबा है मेरा और मात्र बारहवीं पास एक लड़की ने मुझे मेरे ही गढ़ में चित्त कर दिया। देखा जाए तो कुछ गलत तो नहीं था उसके कहने में पर उसका परिचय की कड़ी जोड़ने का अंदाज़ ही मुझे न भाया। उसके चंद शब्दों ने मेरी पहचान को सीमित कर दिया और उसकी बेसाख्ता हंसी मुझे इसलिए नापसंद हो गयी कि शायद परिचय के घेरे का लाभ उठाकर वो क्या मुझे एक मामूली औरत समझ रही है ? और फिर अब तीन साल इसे पढ़ाना है। अपनी क्लास के बच्चों पर भी मुझे जानने का रौब गांठेगी और मेरा परिचय एक बहू के रूप में ही देगी। दिमाग में अटके उसके शब्दों ने जब बहुत तूफान मचा दिया तो मैंने उसे संभालने के लिए गर्दन को तेजी से झटका। अगले दिन पढ़ाए जाने वाली क्लास की सभी तैयारियों के साथ मैंने मीनू को भी दुरूस्त करने के कुछ तरीके सोच लिए। 

अगले दिन सबसे पहले उसकी बेतकल्लुफ हंसी को अपनी गंभीर नजर जो अपरिचय की हद पार कर रही थी, उसीके रिमोट से मैंने कंट्रोल करने की कोशिश की। पर उसे तो जैसे फर्क ही नहीं पड़ा। कॉलेज के माहौल ने उसकी हंसी को नए पंख दे दिए थे शायद। वो वैसे ही बिंदास हंस रही थी। क्लास शुरू होने पर नए बच्चों में मैंने अतिरिक्त दिलचस्पी लेकर उसे नियंत्रित करने का नया तरीका ईजाद किया पर फिर भी कोई फर्क नहीं। तब मैंने अपने तरकश का अचूक तीर निकाला। विषय पर आने से पहले बच्चों से सवाल-जवाब का। पर यहां भी मेरा अंदाज़ा गलत निकला। उसकी हंसी से मुझे लगा था कि पढ़ने-लिखने में औसत या उससे कम ही ठहरेगी पर दिमाग से पैदल नहीं निकली मीनू और ऐसे लोगों की कद्र करना मेरे स्वभाव में था। पर मैंने ये बात जाहिर नहीं होने दी। मेरी मुद्रा काफी अरसे तक उसके प्रति अतिरिक्त रूप से गंभीर और सचेत ही बनी रही। उसने पहली ही मुलाकात में मुझे असहज कर दिया था इसलिए उसका असर आसानी से जाने वाला नहीं था।

प्रज्ञा

शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएच.डी ।

 प्रकाशित किताबें 
 ‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से  नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’ । एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा ‘तारा की अलवर यात्रा’ । सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक ‘आईने के सामने’ स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित।

 कहानी-लेखन

 कथादेश, परिकथा, जनसत्ता, बनासजन, पक्षधर, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।

 पुरस्कार - सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा ’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरीशचंद्र पुरस्कार।

 जनसंचार माध्यमों में भागीदारी

 जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, नयी दुनिया जैसे राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित लेखन।

 संचार माध्यमों से बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनके कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।

 रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।

सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।

सम्पर्क: ई-112, आस्था कुंज, सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110089 | दूरभाष (mobile) : 09811585399 | ईमेल (email) : pragya3k@gmail.com

मेरी नज़र सख्त बने रहने के बावजूद उसका पीछा किया करती। अक्सर देखती कॉरीडोर उसकी हंसी से झूमता मिलता। कुछ ही दिनों में सीनियर्स से भी अच्छी दोस्ती गांठ ली उसने। उसे देखकर कोई कह नहीं सकता था कि ये फर्स्ट ईयर की लड़की है, यूनिवर्सिटी की शब्दावली में कहें तो ‘फच्चा’ है। वह तो अपने अलमस्त स्वभाव से ऐसी लगती थी कि बरसों से इस कॉलेज के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है। क्लास में आते-जाते मैं कनखियों से उसे निहारने का कोई मौका न चूकती। ऐसा लगता जैसे मेरी सारी इंद्रियां अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे सुनने-सूंघने की क्रिया में प्राणपण से जुट गईं हों। बात-बात पर ताली मार कर उसका हंसना, गलियारों में भागना, तेज़ स्वर में उसकी तीखी आवाज़ का गूंजना, गलियारों में भागते-दौड़ते परांठों का रोल बनाकर खाना या जबरन लोगों को खिलाना या फिर घर की सी उन्मुक्तता महसूस करते हुए अचार की चूस-चूसकर पतली कर दी गई झिल्ली जैसी परत का भी उसके धूमिल होने की हद तक लुत्फ उठाए चलना --सब उसकी आदतों में शुमार था। और फिर बात-बात में उसके ‘चल जा ना ’ या ‘हट भई हवा आने दे’- जैसे जुमलों की मैं आदि होती जा रही थी। ऐसे ही उसकी हरकतों को अपनी जासूस निगाहों से टोहते हुए मैंने जाना लोग उसे नाम की बजाय ‘जैनी या जैन साब’ पुकारने लगे थे। इसका राज़ बाद में फाश हुआ। दरअसल इसके भी दो कारण थे। एक सामान्य कारण ये कि क्लास में दो मीनू होने के कारण पहचान की सुविधा के लिए सरनेम का सहारा एक सरल उपाय था और दूसरा विशिष्ट कारण था कि अक्सर कॉलेज में अधिक घनिष्ठ संबंध होने या दूसरों से खास होने वाले को ये बच्चे ऐसे नाम अपनेपन और प्यार से दे दिया करते थे। 

मुझे शुरू से ही ऐसे मस्तमौला बच्चे पसंद थे पर मीनू उस दायरे में होकर भी बाहर थी। उससे पहली मुलाकात का असर अब तक कायम था। हालांकि ये असहजता मुझे अक्सर परेशान भी करती। खांमखां मैंने उससे दूरी बना ली है। आखिर कब तक ? और एक दिन पुरानी बातों पर खाक डालने की बात सोचकर और कड़ा निश्चय करके मैं कॉलेज आई थी तो सामने पड़ते ही मीनू बोली,

‘‘ कल आपके ससुराल गई थी मैं। मैंने बताया सर को कि आप हमें पढ़ाते हो।’’ 

सहज-सरल से इस वाक्य ने एक बार फिर मुझे घायल कर दिया । अपनी पीड़ा को छुपाकर और अपने गुस्से को जताकर मैंने दो-टूक कहा ‘‘देखो मीनू, ये कॉलेज है और मैं नहीं चाहती कि तुम मेरे घर-परिवार से जुड़ी कोई चर्चा मुझसे या किसी और से करो।’’ उसकी चेहरे पर नासमझी के भाव की परत मुझे भली लगी। हालांकि बाद में ठंडे मन से सोचा तो पाया कि क्या गलत कहा था उसने ऐसा। पर मुझे हर बार क्यों चुभती है उसकी बात? क्यों ये लड़की मुझे बार-बार मेरे कर्म के दायरे से धकेलकर घर में बंद कर देती है? क्या उसकी नज़र में मैं केवल एक पत्नी, बहू ,मां ही हूं ? अब तक शिक्षक का मेरा स्वतंत्र अस्तित्व उसकी नज़र में कुछ भी नहीं है क्या ? पता नहीं वो इस बात को समझी कि नहीं पर उस दिन का असर ये हुआ कि मीनू ने फिर मेरे परिवार से जुड़ी बातों का ज़िक्र नहीं छेड़ा। फिर जैसे-जैसे उसने मेरे परिवार से जोड़कर मुझे देखना बंद किया वैसे-वैसे वो और बच्चों की तरह मेरे करीब होती चली गई।

उस दिन बच्चों की फ्रेशर्स पार्टी थी। नए बच्चों के लिए आयोजित प्रतियोगिता को जांचने वाले तीन लोगों के निर्णायक-मंडल में मैं भी एक थी। जैसे ही मीनू का नाम पुकारा गया एक शोर-सा उठा। ये शोर यों ही नहीं उठा था, हरदिलअजीज़ मीनू के लिए उठने वाला शोर था, जिस पर कई टीचर्स ने उसकी लोकप्रियता के कारणों को मुस्कुराते हुए मौन समर्थन दिया। सबकी निगाहें उसी पर जमी थीं। निहायत सलीके से अपना परिचय देते हुए जब उसने कोई शेर कहा तो दाद देने वालों की तालियां न थमीं। पहले रांउड में अपने गजब के आत्मविश्वास से उसने बाज़ी मार ली थी अब पार्टी के सेकेंड रांउड की तरफ सबकी आंखें लगीं थीं। उसके नाम की पर्ची में उसे डांस करके दिखाना था। बेधड़क आवाज़ में बोली 

‘‘म्यूज़िक....फुल वॉल्यूम ।’’

और ये क्या वो तो गाना शुरू होते ही फिरकी की तरह नाचने लगी। करीना पर फिल्माए किसी पॉपुलर गाने पर उसका ठुमका लगाकर थिरकना कभी भूल सकती हूं क्या? बिना किसी बेढंगेपन के, लय के अनुकूल नाचना और तेज और धीमे संगीत के मुताबिक अंग-संचालन। पांच मिनट तक बिना हांफे पूरी गरिमा के साथ वो नाची और मैं सोच रही थी कि करीना ने कितने री-टेक दिए होंगे इसमें और कितना टच-अप कराया होगा मेकअप का। वो दिन मीनू अपने नाम लिखवाकर ले गई। बिना कोई हिचक सबने उसे मिस-फ्रेशर चुन लिया। यही नहीं मिस टैलेंट का खिताब भी उसे साथ में मिल गया। पहले से बढ़ रही उसकी ख्याति और भी महक उठी। सबसे अच्छी बात तो ये थी कि उसका व्यक्तित्व इतना निराला था कि वो जलनप्रूफ और ईर्ष्याप्रूफ था। फिर लोग भी उसके सरल स्वभाव और साफगोई पर जान छिड़कते थे। वो लड़ती-झगड़ती रहती तो भी कोई उसका दुश्मन नहीं था और पीठ पीछे भी कोई उसे बुरा न कहता था।

‘‘जैन साहब इलैक्शन लड़ लो इस बार।’’ पूरे विभाग की राय यही बन रही थी और सीट भी काफी सुरक्षित थी- ‘लैंगुएज रिप्रेज़नटेटिव’ की। मीनू ने हामी भी भर दी। नामांकन दाखिल करने की औपचारिकताओं से जुड़ा पहलू उसके दोस्तों ने संभाल लिया। सभी टीचर्स भी इस निर्णय पर संतुष्ट थे। सब जानते थे अपने स्वभाव और प्रभाव से जीतने पर कुछ बेहतर कर दिखाएगी मीनू। पर उसका सीनियर अनिल झा पिछले साल से इस सीट के लिए मन बनाए हुए था। दिक्कत उसके सामने ये भी थी कि अनिल के आने से सारा खेल उतना आसान नहीं रह जाता जितना मीनू के लिए था। उसे टक्कर देने वालों की कमी नहीं थी। मीनू के असर से संकोच के दरवाजों में कैद हो गई उसकी इच्छा न जाने किस खुली रह गई खिड़की से मीनू के पास तक जा पहुंची।

‘‘अरे सर आपने बताया क्यों नहीं मुझे? जानती होती तो ये सब होता ही न। आपका हक पहला है, वो तो अच्छा हुआ कि नॉमीनेशन फाइल नहीं किया था। इस बार आप ही आंएगे और जीत की गारंटी मेरी।’’

मीनू ने न केवल सीट अनिल के नाम कर दी बल्कि सारे वोट भी उधर खिसका दिए। और उम्मीदवार न होते हुए भी सबके दिल पर उसकी उम्मीदवारी तय हो गई। उसके खुलेपन और दोस्ताना रवैये ने उसे सबकी चहेती बना दिया था। उसे देखकर लगता था कि मानो ये अक्षय ऊर्जा का कोई स्रोत है। जब देखो -किसी पहर देखो, आंखों में वही चमक, आवाज़ में वही खनक। मन कहता ‘‘थकती नहीं है ये लड़की? हर काम को करने में गजब का उत्साह।’’ ऐसे बच्चे पूरे माहौल को ताज़गी से भर देते हैं। सालाना उत्सव में निबंध लेखन प्रतियोगिता से लेकर लोकगीत प्रतियोगिता तक सबमें उसकी काबिल- ए- तारीफ प्रस्तुति। उसी दिन लोकगीत की अदायगी से मैंने जाना कि मीनू राजस्थान से संबंध रखती है। कितना बढ़िया गीत गाया था उसने। 

‘‘मैडम आपके घर के पास आ गई हूं मैं। यहीं पास में नवज्योति अपार्टमेंट्स में किराए का फ्लैट लिया है पापा ने। कभी आओ न घर आप।’’

‘‘हां ज़रूर कभी।’’ बच्चों की इस फरमाइश की आदत लगभग हर टीचर को होती है इसीलिए ‘फिर कभी’ जैसे शब्दों से एक अनिश्चयात्मक स्थिति रचकर अपना निश्चयात्मक रूख दिखाना हर टीचर को बखूबी आता है। सो मैंने भी वही किया। सोचा दो-एक बार कहेगी फिर सच जानकर कहना छोड़ देगी पर मीनू तो धुन की पक्की थी। अड़ गई और मुझे घर बुलाकर ही मानी। और एक तरह से अच्छा ही हुआ। मैंने देख लिया कि उसका परिवार काफी धार्मिक है। चार भाई-बहनों में मीनू तीसरे नम्बर पर थी और सबसे छोटा था भाई। एक बहन की शादी जल्दी ही होने वाली थी। मीनू के स्वभाव के प्रतिकूल घर बेहद शांत था। जगह-जगह उनके किन्हीं गुरु जी के चित्र लगे थे। घर क्या था मंदिर था। जूते बाहर ही उतारने पड़े थे। घर में कोई चप्पल भूले से भी नहीं दिख रही थी। बड़े संयमित ढंग का परिवार था और फर्नीचर भी सादा और बेहद कम। उसकी मां ने ही बताया कि साल में दो-तीन बार राजस्थान अपने गुरुजी के आश्रम में उनका जाना बरसों से जारी है। पिता छोटा-मोटा कोई व्यवसाय करते हैं। अकेले कमाने वाले हैं और कमाई ज्यादा नहीं है पर धर्मपरायण वो भी बहुत हैं। इसीके चलते खर्चे ज़्यादा भी थे, ऐसा उसकी मां ने ही बताया। हालांकि दूसरे नम्बर वाली बहन गणित में होशियार होने के कारण ट्यूशन भी पढ़ाती है। तीनों लड़कियां गुरुजी के आदेशों का पालन करती हैं। इसके अलावा पता नहीं कौन-कौन से व्रत-त्यौहार की जानकारी वो मुझे दे रहीं थीं जिनसे मैं आत्मा की गहराई तक ऊब रही थी। 

‘‘आइये आपको अपना पार्क दिखाती हूं।’’ मुझे बचाने का अच्छा बहाना बनाया उसने। जान बची तो लाखों पाए की तर्ज पर मैंने मुग्धभाव से जूते पहनते हुए उसे देखा। पार्क घुमाते हुए उसकी मस्ती फिर से तारी हो गई और मुझे लगा कि जाने किस कैद से छूटकर आए हैं हम दोनों। हैरत की बात तो ये थी कि मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि मीनू इसी परिवार की लड़की है या गोद ली गई है? कई फिल्मों में जन्म के वक्त बच्चों की अदला-बदली के दृश्यों को देखने के बाद मुझे लगने लगा कि मीनू भी शायद वही बदला हुआ बच्चा है। पर कमाल की बात है अपने चुप्पा भाई-बहनों के बीच भी वो अपनी लय में ही जीती थी।

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देखते-देखते मीनू बेहद अच्छे नम्बरों से पास होकर दूसरे साल में आ गई। दरअसल उसके जीवन में घटनाओं की उथल-पुथल यहीं से शुरू हुई जिसके कारण कुछ भी सामान्य न रहा, न उसके जीवन में और न ही उससे जुड़े लोगों के जीवन में। नया सत्र शुरू ही हुआ था और मीनू लंबे समय तक कॉलेज नहीं आई। ‘‘मैडम फोन ही नहीं उठाती क्या करें?’’ बच्चों से पूछने पर पता चला।

मैं अतिरिक्त रूचि नहीं लेती तो पता ही न चलता। क्लास का कोई भी बच्चा उसके घर के बारे में कुछ नहीं जानता था। अपने घर की कोई बात नहीं करती थी कॉलेज में। वो तो एम.ए. में पढ़ने वाली साक्षी ही अकेली लड़की थी जो मीनू के घर आती-जाती थी शायद किसी पुरानी पहचान के कारण, उसीने बताया-

‘‘ मैडम बीमार है वो।...उनके यहां कोई कठिन व्रत होता है वही रखा था उसने।’’

‘‘ एक दिन के व्रत में ऐसा क्या हो गया उसे?’’

‘‘ एक दिन नहीं मैडम एक महीने का व्रत था। बेहद कठिन, चातुर्मास करके कुछ। कहीं आ-जा नहीं सकते और गरमी में भी गरम पानी पीना है। पूजा-पाठ और बुरे कामों से मुक्ति का संकल्प जैसा भी कुछ होता है इसमें। तीनों बहनों ने रखा था।’’

‘‘मीनू और उसकी बहनों ने ऐसे क्या बुरे काम कर दिए? बड़ी ही प्यारी बच्चियां हैं वो तो?’’

मेरी बात पर गौर किए बिना ही साक्षी बोलती गई,‘‘ पर व्रत के अंतिम दिन काफी खुश थी वो कि अब कॉलेज जा सकेगी। मुझे बुलाया था उसने, मेंहदी लगवाने जा रही थी।’’

‘‘वो किसलिए?’’

‘‘पता नहीं मैडम, रिवाज सा है उनके यहां, कन्याएं व्रत के अंतिम दिन खूब सजती हैं या खुशी मनाती हैं, ऐसा ही कुछ। और उस दिन अपने करीबी लोगों से मिलती भी हैं। बस मैं तो इसी करके चली गई थी उसके घर। उसकी दोनों बहनों ने भी व्रत रखा था पर ये कितनी दुबली है पहले ही, सह नहीं पाई। कई दिन हॉस्पिटल में रही है। अब घर आ गई है। उसका हीमोग्लोबिन काफी कम है।’’

तो ये थे मीनू के गुरु जी के बताए नियम-कायदे, जिनकी कसौटी पर खरा उतरना था उसे और उसकी बहनों को। वो बीमार न पड़ती तो शायद इस रहस्य से पर्दा ही न उठता? या अगर साक्षी भी उसके घर न आती-जाती तो कुछ भी पता न चलता। बहरहाल कुछ दिन बाद मीनू लौटी। बीमारी की बात तो उसने बताई पर कारण गोल कर गई। मुझे लगा वो मुझे वास्तविकता बताने से कतरा रही है। उसकी व्रत-कथा पर पर्दा ही पड़ा रहा। पर अब मीनू में पहले जैसी ऊर्जा नहीं रह गई थी। 

‘‘भाई भगा न मुझे, सांस भूलती है मेरी। ले मान ली मैंने हार अपनी।’’ क्लास के बाहर गलियारे में मीनू की ये बात सुनकर जहां उसका साथी जीत की खुशी में इतराने लगा, मेरा मन किसी आशंका से भर गया। क्या हुआ मीनू की हिम्मत को? हारना तो उसका स्वभाव ही नहीं था।

नए बच्चों के स्वागत की तैयारियां चल रहीं थीं। सभी टीचर्स चाहते थे कि शुरूआत मीनू के डांस से ही हो। उसने भी खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। पर हैरानी की बात ये थी उसका ये कहना-

‘‘ दो दिन के लिए कॉलेज में ही रिहर्सल की व्यवस्था करा दें आप। घर में पॉसिबल नहीं। ’’

बात अजीब तो नहीं थी पर लगा शायद घर में उसे नाचने-गाने की अनुमति नहीं है। मैंने व्यवस्था तो करा दी पर घर के बारे में पूछने पर उसने बेहद नपे-तुले शब्दों में इतना ही कहा-‘‘बस ऐसे ही। पापा को पसंद नहीं।’’ मेरे मन ने प्रतिवाद किया, क्या ज़रूरत है पापा को बताने की? कौनसा वह सारे दिन घर में रहते हैं? और आखिर नाचने में ऐसी कौनसी बुराई है जिसे छोड़ा जाना चाहिए। क्या उसके पापा ने देखा है कभी उसका नाचना? शायद नहीं ,इसीलिए तो वे जान ही नहीं सके कि नाचते हुए उसकी खुशी सातवें आसमान पर होती है। बात करना चाहती थी मैं उससे खुलकर। चलकर समझाना चाहती थी उसके पापा को पर उसके कसकर भिंचे होंठो ने एक सीमा रेखा खींच दी थी जिसके पार जाने की अनुमति मुझे नहीं थी। 

‘‘ जल्दी चलिए मैडम, मीनू बेहोश हो गई है।’’ 

अगले दिन डांस की तैयारी के दौरान बच्चे बदहवास भागे आए। डॉक्टर ने बताया कि उसके शरीर में खून कम है और कम पोषण के चलते जान भी नहीं है। बच्चों ने एक और बात का भी खुलासा किया कि एन.एस.एस की ओर से लगे ब्लड डोनेशन कैंप से डॉक्टर ने इसे ब्लड डोनेट करने से मना कर दिया था। उस दिन ग्लूकोज़ चढ़वाकर मीनू को उसके घर लेकर गई । बाहर के गेट पर ही उतरते हुए बोली-

‘‘ मैं खुद चली जाऊंगी और प्लीज़ मेरे घर में कभी किसी को न बताएं कि मेरे साथ क्या हुआ। आप चलेंगी तो... कल तक ठीक रही तो डांस ज़रूर करूंगी।’’ 

आज सवाल उठा कि ये वही मीनू है जो मुझे घर बुलाने पर अड़ गई थी? दूसरे ही पल मैं कांप गई क्या मुझे घर बुलाने का कोई और मकसद तो नहीं था। उसके घर का धार्मिक अनुशासन और मेरी बातों में धर्म की रूढ़ियों का तार्किक खंडन। तो क्या मीनू इसलिए मुझे...ओह ! हां,शायद इसीलिए। वैसे भी बच्चों के सामने डॉ. सहज त्रिपाठी का जीवन खुली किताब ही तो था जिसने जीवन अपनी शर्तों पर जिया और किसी भी तरह की रूढ़ि और पूर्वाग्रहों को कभी नहीं माना। पढ़ाई के विषय से लेकर जीवनसाथी के चुनाव तक का निर्णय उसका अपना रहा। इसीलिए मुझसे प्यार करती थी मीनू तो अब क्यों उसने अपने घर और मन के दरवाजे बंद कर लिए?

मेरा दिमाग उसके घर के रहस्य को खोलने में लगा था पर जुबान से यही निकला ‘‘ ठीक है और तुम कल की चिंता न करो अपना ध्यान रखो बस।’’ इस घटना के बाद कॉलेज में मीनू का डांस छूट गया। अब कभी-कभी गाना गा देती थी। बड़ी टीस-सी उठा करती थी मेरे भीतर और सवालों के जंगल में उलझते-दौड़ते जब लड़खड़ाती तो मैं खुद से सवाल करती आखिर क्या है ये- हरदम मीनू, मीनू? मीनू के अलावा और भी तो बहुत कुछ है न ज़िंदगी में। होते हैं कई बच्चों के अपने सवाल ज़िंदगी के। हम किस- किसके सवालात हल करते फिरें आखिर? और हल तो तब करें न जब कोई शामिल करे अपनी परेशानी में। 

इधर कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि जो मीनू हंसना-खिलखिलाना भूलती जा रही थी, उसकी हंसी फिर लौट रही है। शरीर से कमज़ोर होने के बावजूद मन से मजबूत हो रही थी। उसकी चंचलता, चुलबुलापन फिर से गलियारों में गूंज रहा था। पर ये क्या, अब एक नई मुसीबत। वो क्लास में अक्सर गायब रहने लगी। खोजने पर भी कारण नहीं मिला तो अपनी आदत के मुताबिक एक दिन क्लास से पूछ ही लिया-

‘‘मीनू नहीं आई क्या आज?’’

‘‘मैडम वो तो रोज़़ आती है पर...।’’ इस अधूरे जवाब के साथ कुछ दबी ध्वनियां भी क्लास में गूंजी जिन्होंने मुझे बेचैन कर दिया। कुछ चेहरों पर शरारती मुस्कुराहट, आंखों-आंखों में बच्चों का एक-दूसरे को देखना और फिर वो दबे से शब्द में प्रशांत का व्यंग्यात्मक धुन में गुनगुनाया गीत बहुत कुछ बयां कर गए - ‘‘आजकल पांव ज़मीं पर नहीं टिकते उसके। ’’ पर मन ने माना ,हो सकता है ये बच्चों की खामाख्याली हो फिर ये मीनू का निजी मसला था और कॉलेज में ऐसा बहुत कुछ होता ही रहता है। दरअसल मेरी चिंता वो नहीं थी , चिंता इस बात की थी कि मीनू पढ़ाई के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? उसके घर का माहौल फिर घर की माली हालत और मीनू का रवैया, सब कुछ परेशान करने वाला था। मीनू मिलती भी तो मैं उसे क्लास में आने के लिए ही कह सकती थी उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकती थी। 

‘‘आप मुझे पूछ रहे थे, मैडम़...कल ,क्लास में?’’

अचानक अगले दिन वो खुद मेरे सामने मेरे सभी सवालों का जवाब बनकर हाज़िर थी।

‘‘हां भई, कहां हो तुम?’’

‘‘ फिल्म देखने गई थी...मैं और इमरान थे साथ में.....उसका जन्मदिन था न।’’ शुरूआती संकोच से निकले उसके बेधड़क शब्दों ने बहुत कुछ कह दिया।

‘‘ दोस्तों का जन्मदिन मनाओ पर रो़ज-रोज क्लास से कैसी नाराज़गी?’’ 

बहुत सारे सवाल होते हुए भी संयमित रहना वक्त की ज़रूरत थी। और मीनू मुस्कुराकर चली गई। मामले की भनक तो लग गई थी मुझे पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी मुश्किल था। मीनू ने मेरी क्लास में आना दोबारा शुरू कर दिया पर बाकी लोगों के यहां वो गैरहाज़िर थी, दूसरे क्लास में वो इमरान के साथ ही बैठती। इमरान भले घर का अच्छा लड़का था और मीनू तो थी ही अच्छी पर ऐसा क्या था जो मुझे परेशान किए जा रहा था। वो शायद समय ही था जो उनके कच्चे मन पर भारी दस्तक दे रहा था जिसकी आवाज़ मेरे कानों में भी अपनी धमक के साथ गूंज रही थी। मेरे ही क्या कई कानों में गूंज रही थी और सबका मन यही कह रहा था-‘‘ ये कोई उम्र है भला?’’ पर बात कुछ और भी थी-‘‘क्या मीनू का परिवार इमरान को देख पाएगा मीनू के जीवन साथी के रूप में?’’ सवाल जटिल था पर बार-बार इसका जवाब बड़ी सरलता से मेरे सामने अपनी नन्हीं सी मुद्रा में आता-‘‘नहीं’’। दिक्कत एक ये भी थी कि मीनू इस सारे मामले को अपने तक ही सीमित रखना चाहती थी। अपने किसी दोस्त को भी उसने अपने प्रेम का राज़दार नहीं बनाया था, साक्षी को भी नहीं। 

इधर इमरान-मीनू प्रेम-प्रसंग ने कॉलेज में नई हलचल भर दी थी। कुछ तो उसके बोल्ड स्टैप को भावी प्रेरणा की तरह पा रहे थे तो कुछ की प्रतिक्रिया बेहद साम्प्रदायिक और घृणा से भरी भी थी। 

‘‘ अरे ये ट्रेंड चल निकला है। लव-जेहाद के बारे में जानते हो क्या? अरे सोची-समझी साजिश है। ये लड़के ऐसे ही हमारी लड़कियों को बरगलाते हैं और उन्हें अपने धर्म में शामिल कर लेते हैं। अभी घर पर फोन खड़का दूं मीनू के तो सही रस्ते पर आ जाएगी।’’

प्रशांत के अशांत मन में चल रही बातों का खुलासा कुछ बच्चे मुझसे कर गए। पीठ पीछे प्रशांत के तीखे-तल्ख जुमलों और भद्दे शब्दों से इमरान-मीनू दोनों ही आहत थे। एक दिन दोनों के सामने ही क्लास के दौरान प्रकारांतर से मैंने धर्मनिरपेक्षता और समतामूलक समाज की नींव में धार्मिक संकीर्णता की बाधा और इस दिशा में अंतर्जातीय-अंतर्धार्मिक विवाहों की ज़रूरत पर बात की। हमेशा की तरह बहुत से सहमत हुए और कुछ उदासीन ही रहे। पर प्रशांत जैसे बच्चे आक्रामक होकर बहस करने लगे। मैंने कई बार उन्हें तर्क के रास्ते लाने की कोशिश की पर वे लकीर के फकीर की तरह बोले-

‘‘ ये तो गलत होगा। हमारा धर्म तो सदियों से श्रेष्ठ रहा है। सबसे ऊपर, सबसे अच्छा। सब उन्नति का मूल। हमारी संस्कृति तो आधार है मैडम, इसे कैसे, क्यों और किनके लिए हिला दें? धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द सुनने में मधुर हैं, फैशनेबल हैं, वोट मिलते हैं इनसे पर इनके चक्कर में अपना धर्म नहीं छोड़ा जाता। मैडम ‘जाति कभी नहीं जाती’-सुना तो होगा आपने।’’

जिसने जीवन में इन बातों की परवाह नहीं की उसे ये बच्चे शायद जबरन समझाने की कोशिश कर रहे थे। यही नहीं एक दिन क्लास में घुसते हुए खौलते लावे जैसे शब्द भी कान में तैर गए-‘‘ ये सब साले पाकिस्तानी। खायेंगे यहां की और...। हम क्या चुप बैठे रहेंगे, पानी नहीं है खून दौड़ता है अंदर, दिखा देंगे।’’

फिर अचानक कॉलेज फेस्ट के दौरान किसी बात पर लड़कों ने इमरान को बुरी तरह पीट दिया। धक्का-मुक्की में मीनू को भी चोट आई और मौके का फायदा उठाकर उससे छेड़छाड़ भी की गई थी 

शायद। कुछ बच्चों का कहना था कि नाचते समय इमरान किसी से टकरा गया और कहते-सुनते बात बढ़ गई। कुछ का कहना था मीनू के साथ बद्तमीज़ी का विरोध करने पर ऐसा हुआ तो कुछ ने बताया इमरान को पीटने वाले लड़के कह रहे थे- ‘मार के गाड़ दो साले को देख लेंगे सब बाद में।’ मैडम, दोनों को पहले से दी जा रही धमकियां कोरी गीदड़ भभकी नहीं थीं।’’ थोड़े दिन बाद स्थितियां शांत हुईं और निष्कर्ष निकला ‘‘फेस्ट-वेस्ट में तो ऐसा हो ही जाता है। शान मारने के लिए लड़के ये सब किया ही करते हैं।’’ पर इस सबके बीच उन दोनों के प्रसंग को बड़े ही वाहियात तरीके से हवा दी गई। आग की चिंगारी मीनू के घर तक पहुंच गई। अब मीनू क्लास से गायब रहने लगी और ठीक होने के बाद कॉलेज आया इमरान मुझे अकेला बैठा मिलता। उदास और परेशान। कोई नहीं जानता था आखिर हुआ क्या? इमरान ने बेहद संकोच भरे शब्दों में यही कहा ‘‘मैडम उसका फोन बंद है। मैं कुछ नहीं जानता। शायद वो बात ही नहीं करना चाहती मुझसे। ’’

पहले तो मुझे लगा कि कुछ दिन मीनू का न आना ही ठीक है पर जब कई दिन बीत गए तो मेरा माथा ठनका। इस मसले पर अपने एक सीनियर साथी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कहा- 

‘‘ बी प्रैक्टीकल सहज। क्यों पड़ती हो इन चक्करों में नौकरी करो और खुश रहो। परिवार देखो अपना। किन झंझटों में फंस रही हो। ये बच्चे किसके सगे हैं?’’ 

सच ही तो कहा उन्होंने नौकरी करो और खुश रहो। हां नौकरी करने ही तो आते हैं हम। पर मन ने तुरंत प्रतिवाद किया क्या केवल नौकरी ही करने आते हैं हम? क्या हम भी किसी मंडी में बैठे हैं कि बस सामान को जल्दी से जल्दी बेचना और हर हाल में ग्राहक को खुश करते हुए उससे लाभ कमाना ही हमारा पेशा है। ऐसे ही गढ़ने हैं हमें ‘आदम के सांचे?’

‘‘मैडम मीनू दिल्ली में है ही नहीं, उसके पापा को बड़ा झटका लगा है बिज़नेस में। सब लोग दिल्ली छोड़कर राजस्थान चले गए।’’ 

साक्षी से सारा हाल मालूम होते ही मैं बौखला गई-

‘‘ऐसे कैसे? अब उसकी पढ़ाई? थर्ड ईयर है आखिर।’’

‘‘ वो तो इमरान की बात के बाद ही खतम हो गई थी, मैडम। घर में मार पड़ी सो अलग। बहुत रोई थी मैडम वो। बहुत गिड़गिड़ाई कि पढ़ाई मत छुड़वाओ। रिश्ते की चाची के यहां रहकर पढ़ाई पूरी करने की भीख तक मांगी उसने पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। ऊपर से उसके पापा ने कहा ‘पाप किया है तूने अब प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा।’ पता नहीं मैडम क्या-क्या हुआ होगा? फोन भी छीन लिया उसका। न कोई नम्बर है न कोई पता। ’’

लोगों से भरी इस दुनिया से मीनू एकदम गायब कर दी गई। बिना पते और बिना फोन नम्बर के कहां ढूंढे उसे? मेरी तड़प यही थी कि काश मैं उसके माता-पिता को समझा पाती और किसी तरह मीनू बी.ए. पूरा कर लेती। सपनों से भरी एक लड़की अपने ही घर के आईने की किरचों में कहीं लहूलुहान पड़ी थी। उसके सपनों और उम्मीदों के पर नोंच डाले गए होंगे अब तक। उसका ख्याल मुझे किसी करवट चैन न लेने देता। परेशानी से भरे उन दिनों में एक मानस ही थे जो मुझे हौसला देते और दूसरी साक्षी थी जिसके होने से उम्मीद बंधती कि कभी न कभी तो साक्षी से उसकी बात होगी ही। 

आज थर्ड ईयर का फेयरवेल था, मीनू की क्लास का। पर मीनू नहीं थी और इमरान ने आना लगभग बंद-सा ही कर दिया था। उस आयोजन में कहीं किसी ने उसका ज़िक्र भर किया था और अब इसके बाद उसका ज़िक्र भी हमेशा के लिए खत्म होने वाला था। दुखी मन से कॉलेज से निकल रही थी कि साक्षी मिल गई। ‘‘आपको चलना होगा मैडम मेरे साथ। अभी इसी समय।’’

‘‘कहां और किसलिए ?’’

‘‘मीनू आई है मैडम। दिल्ली में रहेगी कुछ दिन।’’

घबराहट में मेरे गले की सारी नसें तन गईं। अपनी सारी शक्ति समेटकर मैंने कहा,‘‘कहां है? जल्दी चलो। मम्मी-पापा को बिना बताए कुछ समय के लिए ही आई होगी न, हमसे मिलने। क्या इमरान भी पहुंच रहा है?’’

‘‘ नहीं वो नहीं आ रहा। अब मीनू को किसी से छिपने-बचने की ज़रूरत नहीं है मैडम, उसे दीक्षा दिला दी गई है मैडम।’’ 

दुखी स्वर में निकले साक्षी के शब्द किसी वज़नी हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में पड़े। जीवन से भरी, उमंगों में झूमती, सपनों के गीत गुनगुनाती, फिरकी की तरह नाचती, प्रेम के पंख लगाकर उड़ने वाली मीनू और दीक्षा धारण करने वाली साध्वी मीनाक्षी - दोनों में कौनसा सच था, पहचान जटिल थी। क्या यही था मीनू का फेयरवेल?

आज सोचती हूं तो लगता है कि साक्षी से सच जानने के बाद मैं क्यों गई उससे मिलने? क्या बदल दिया मैंने? और क्या जान लिया नया ही कुछ? जितना उसका सच था साक्षी ने बता तो दिया ही था। फिर ऐसा क्या मिलने वाला था उसे देखकर? क्या साक्षी के कथन का जीता-जागता सबूत लेने गई थी मैं? साध्वियों की तरह सफेद साड़ी में लिपटी, शांत मीनू ने तो मेरी मीनू के वजूद को ध्वस्त कर दिया था। उस सत्संग में नन्हीं, किशोरी, जवान और वृद्ध साध्वियों की पंक्ति में बैठी मीनू को पहचान लेना आसान बात नहीं थी। थोड़ी देर का समय निकालकर मीनू हमारे साथ बैठी। 

‘‘कैसी हैं आप?’’

भला अपनी मीनू को मरते देख क्या खुश होंगी मैं? कैसा सवाल है? उसके चेहरे में अपनी मीनू की पहचान का कोई अवशेष ढूंढने की कोशिश में मेरे अधूरे से शब्द बाहर आए-‘‘क्यों मीनू?...ये सब किसलिए?’’ 

‘‘सब हमारे कर्म का खेल है और क्या? भाग में लिखा था।’’ सरलता से कही उसकी बात मुझे बड़ी ही बनावटी और थोथी जान पड़ी। चीखना चाहती थी उसपर, एक तमाचा मारना चाहती थी उसे पर उसकी बात खत्म नहीं हुई थी-

‘‘ परिवार के दुख का कारण बन गई थी। पढ़ाई छुड़वा दी गई, घर की हालत तो आप जानती ही थीं। उस घटना के साथ ही पापा का बिज़नेस भी डूबा, इसे कोई अनिष्ट मानकर पापा ने संकल्प लिया कि एक बेटी धर्म की राह पर जाएगी। फिर मुझे पाप का प्रायश्चित भी तो करना था।’’ 

उसके आखिरी शब्दों ने खुद को संयत रखने की भरपूर कोशिश के बाद भी व्यंग्य की रेखाएं और रंगों को उभार दिया। 

‘‘ पर क्या यही रास्ता था?’’ मैं रोक न सकी किसी तरह अपने सवाल का तीर।

‘‘ क्या करती बीच रास्ते में पढ़ाई छोड़ बैठी एक परनिर्भर, बेरोज़गार, कलंकित लड़की? मेरी तो कोई भी साध पूरी होनी ही नहीं थी इस हालत में, पर पापा की तो हो ही सकती थी न। धर्म भी रह गया और दीक्षा ने बाकी खर्चे और झंझट भी बचा दिए। पुण्य मिला सो अलग। अब कोई परेशान नहीं, सब खुश हैं...आप ही कहा करती थीं न तर्क से सिद्ध करो अपनी बात। है न मेरी दीक्षा में गहरा तर्क। अकारण कुछ भी नहीं है।’’

तार्किक होते हुए भी उसकी बातें क्यों मुझे भावुक कर रही थीं। भीतर के आवेग को रोकते हुए मेरा एक आखिरी सवाल अपनी पूरी उत्तेजना और जिज्ञासा में फूट पड़ा-

‘‘इतनी छोटी उम्र और इतना कठिन संकल्प?’’

आज मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास-‘‘ जो सबसे सरल लगता था जीवन में वही कठिन था मेरे लिए। इस जीवन में कैसी कठिनाई? देखिए न, यहां तो चार साल की बच्चियां भी ये कठिन संकल्प लिए हुए हैं और साठ-सत्तर साल की औरतें भी। फिर मेरे जैसी लड़की के लिए क्या मुश्किल है? ’’

बेहद नाटकीय होते हुए भी यही मीनू की ज़िंदगी की हकीकत थी। और क्या गलत कह रही थी वो, चार साल की अबोध बच्चियां और साठ-सत्तर साल की अशक्त औरतें सभी तो थीं उसके साथ। फिर मीनू न तो अबोध थी न अशक्त। सफेद साड़ियों में लिपटी ये बच्चियां, जवान और वृद्धाएं -इनमें से कितनी ही होंगी मीनू की तरह अपने अरमानों की गठरी में गिरफ्त, खुद ही अपनी इच्छाओं और जीवंत अतीत पर कसकर गांठ बांधने वाली। औरों के लिए सबाब कमाने वाली बेजान गठरियां ही तो दिख रही थीं सब। 

इस घटना के बाद बहुत कुछ बदल गया। मीनू से तो किसी मुलाकात की अब कोई उम्मीद थी नहीं पर एक नया परिवर्तन मेरे जीवन में ये आया कि साध्वियों से जुड़ी खबरों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से जाने लगा। कभी झाबुबा में लंबे व्रत के कारण किसी साध्वी की मौत की खबर मुझे परेशान करती तो कभी महाराष्ट्र में बाल संन्सासिनों पर चलने वाले विवाद और कई न्यायिक मोड़ो पर, कभी देश के किसी भी इलाके में सम्पन्न हुई दीक्षा के भव्य आयोजन पर तो कभी साध्वियों के अपहरण और उनसे मार-पीट की वारदातों पर। शायद मैं इन सब में मीनू को ही खोजा करती थी। जैसे इन सबमें मीनू ही बसती थी? ऐसे ही एक दिन राजस्थान की किसी साध्वी के साथ बदसलूकी की खबर पर मेरी नज़र गई और मन ने तुरंत कहा-

‘‘कहीं ये मीनू तो नहीं है?’’

खबर ने उसकी उम्र बारह साल बताकर मुझे गलत ठहरा दिया। कुछ पल के संतोष के बाद मीनू का ध्यान मुझे फिर से एक गहरे असंतोष से भर गया। काश! ये खबर मीनू की ही होती। कम से कम अर्से से उसके साथ हो रही बदसलूकी की खबर तो आज सब तक पहुंच जाती। मन भी कितना अजीब है न...
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'शिवमूर्ति' पर केन्द्रित 'मंच' का विशेषांक (download)

'शिवमूर्ति' पर केन्द्रित 

'मंच' का विशेषांक  


उत्तर भारत के ग्रामीण जनजीवन, किसानों, मजदूरों, स्त्रिायों तथा दलितों की दयनीय स्थिति, शोषण एवं दमन को प्रभावित ढंग से चित्रित करने वाले कथाकार शिवमूर्ति का जन्म अयोध्या और प्रयाग से बराबर की दूरी बनाकर बसे गांव कुरंग, जिला सुल्तानपुर (उ. प्र.) में 11 मार्च 1950 को एक सीमांत किसान परिवार में हुआ। वहीं से बी. ए. तक की शिक्षा। बचपन में सबसे अप्रियकार्य स्कूल जाना लगता था जिसके चलते बार-बार घर से भागते रहे। ज्यादातर नानी के घर और यदाकदा लक्ष्यहीन भटकन के रूप में। पिता के कठोर शारीरिक दंड के चलते रास्ते पर आए तो पिता ही साधु का चोला ग्रहण करके पलायन कर गए। इसके चलते 13-14 वर्ष की उम्र में ही घर के मुखिया बनने तथा आर्थिक संकट व जान की असुरक्षा से दो-चार होने का अवसर मिला। आजीविका जुटाने के लिए जियावन दर्जी से सिलाई सीखी, बीड़ी बनाई, कैलेंडर बेचा, बकरियां पालीं, ट्यूशन पढ़ाया, मजमा लगाया और नरेश डाकू के गिरोह में शामिल होते-होते बचे। पिता को घर वापस लाने के प्रयास में गुरुबाबा की कुटी पर आते-जाते खंजड़ी बजाना सीखा जो आज भी उनका सबसे प्रिय वाद्ययंत्र है।

कुछ समय तक अध्यापन और रेलवे की नौकरी करने के बाद उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग से चयनित होकर 1977 में बिक्री-कर अधिकारी के रूप में स्थायी जीविकोपार्जन से लगे तथा मार्च 2010 में एडिशनल कमिश्नर के पद से अवकाश प्राप्त।

साहित्य से परिचय स्कूल जाने से भी पहले पिता के मुख से सुने गए रामचरित मानस के अंश, कवितावली, विनयपत्रिका, हनुमान बाहुक तथा कबीर के पदों के रूप में हुआ। बचपन में देखे गए नाटक व नौटंकी के संवाद और उसकी कथा के रोमांच ने कहानी विधा की ओर आकृष्ट किया।

पहली कहानी बीकानेर से प्रकाशित ‘वातायान’ में ‘पानफूल’ नाम से 1968 या 69 में। फिर 72 तक दो-तीन कहानियां। 1976 में दिनमान द्वारा आयोजित, अपढ़ संवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाने से पुनः लेखन की ओर झुकाव। जनवरी 80 में धर्मयुग में ‘कसाईबाड़ा’ प्रकाशित।

‘केशर-कस्तूरी’ नाम से 1991 में राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली से कहानी-संग्रह तथा 1995 व 2004 में राजकमल प्रकाशन से क्रमशः ‘त्रिशूल’ व ‘तर्पण’ उपन्यास प्रकाशित। नया ज्ञानोदय, जनवरी 08 में प्रकाशित उपन्यास ‘आखिरी छलांग’ पुस्तकरूप में प्रकाश्य।

कहानियां बांगला, पंजाबी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़ आदि में, ‘त्रिशूल’ उर्दू व पंजाबी में, ‘तर्पण’ कन्नड़ तथा जर्मन में अनूदित। ‘भरतनाट्यम’, ‘कसाईबाड़ा’ व ‘तिरिया चरित्तर’ पर फिल्में बनीं।

‘तर्पण’ पर फिल्म निर्माण प्रस्तावित। ‘कसाईबाड़ा’ तथा ‘तिरिया चरित्तर’ के हजारों मंचन।

‘तिरिया चरित्तर’ पर ‘हंस’ का प्रथम पुरस्कार तथा 2002 के लिए ‘आनंद सागर स्मृति कथाक्रम पुरस्कार’ से सम्मानित।

संप्रति अधूरे उपन्यासों ‘लाठीतंत्र’, ‘पगडंडियां’ तथा एक अनाम उपन्यास को पूरा करने में प्रवृत्त। बीच-बीच में यायावरी।


कहानी: आज शाम है बहुत उदास - अंजू शर्मा

कहानी: आज शाम है बहुत उदास - अंजू शर्मा


कहानी

आज शाम है बहुत उदास 

अंजू शर्मा

लोहामंडी.....कृषि कुंज......इंदरपुरी......टोडापुर .....ठक ठक ठक.........खटारा ब्लू लाइन के कंडक्टर ने खिड़की से एक हाथ बाहर निकाल बस के टीन को पीटते हुये ज़ोर से गला फाड़कर आवाज़ लगाई, मानो सवारियों के घर-दफ्तरों तक से उन्हें खींच लाने का मंसूबा हो! उस ठक-ठक में आस्था अक्सर टीन का रुदन सुना करती थी, उस दिन भी सुना! जिस बेरहमी से उसे पीटा जाता था, आस्था को उसका रुदन एक वाजिब हरकत जान पड़ती थी! इस तरह बस की बॉडी को पीटने से डिस्टर्ब हुये एक यात्री ने एक भद्दी-सी गली खिड़की से बाहर फेंकी और फिर से ऊँघने का प्रयत्न करने लगा और कुछ मिनट के बाद बस चल पड़ी! 853 नंबर रूट की यह बस इस समय पायल सिनेमा से लोहामंडी की ओर बढ़ रही थी! यह वह दौर था जब दिल्ली में मेट्रो की आहट तो छोड़िए, किसी के ख़्वाब-ख़्याल में भी भविष्य में इसकी आमद का कोई विचार जन्म तक नहीं ले पाया था! दिल्ली में सड़कों पर दौड़ती बसें, कारें, ऑटो और उनमें भरी बेतहाशा भीड़ रेड-लाइट आते ही सहम जाती थी! रेड लाइट पर ये अंतहीन जाम तब भी जीवन का हिस्सा था पर उससे कोई निजात दूर-दूर तक नज़र नहीं आती थी और न ही कामकाजी लड़कियों के लिए मेट्रो जैसा संकटमोचक उस जाम से बचकर वक़्त पर घर पहुँच जाने का सपना दिखाता था! फ़्लाई ओवरों का यह जाल अपने शुरुआती दौर में नन्हे शिशु की भांति सब में उम्मीद जरूर जगा रहा था पर उस उम्मीद को पंख लगना अभी बाकी था!

उत्तम नगर से शुरू होकर चलने वाली बस ठसाठस भरी हुई थी क्योंकि यह ऑफिस टाइम था! उस भीड़ से भी ड्राइवर और कंडक्टर की टीम को संतोष नहीं था! टीम इसलिए कि बस में कंडक्टर के साथ 1-2 सहायक भी थे जो आगे पीछे बिखरे हुये थे! 17 से 25 साल तक के इन सब लड़कों की टीम का एक ही एजेंडा था किसी तरह पीछे आ रही एक अन्य इसी नंबर और रूट की बस के आने से पहले ज्यादा से ज्यादा सवारियाँ बस में भर लेना! इस पूरी कवायद में वे सफल भी रहे क्योंकि बस की स्थिति उस तकिये जैसी हो गई थी जिसमें जरूरत से ज्यादा रूई भर दी गई हो! बस पिछले कई सालों में इतना चल चुकी थी उसमें तेज़ हॉर्न की आवाज़ के साथ-साथ लगभग हर हिस्से से आवाज़ आती थी! बॉडी में यहाँ-वहाँ से उखड़ी टीन की परतें उसे और भी कुरूप बना रहे थे! वैसे बस मालिकों के लिए ऐसी पुरानी बसें उस दुधारू गाय की तरह होती थीं जो बुढ़ापे में भी लगातार दुहे जाने को अभिशप्त थी जब तक उसमें दूध की एक बूंद भी बाकी हो! सच तो यह था कि जब मन चाहे, अड़ियल घोड़े-सी अड़कर, आगे जाने से इंकार कर देने वाली इन बसों में बैठना जोख़िम का काम था पर डेली सवारियों के आगे और कोई चारा भी तो नहीं था! शाम के उस धुंधलके के घिरते ही घर वह जन्नत हो जाता है कि दिन भर की थकान से झुके कंधों का बोझ ढोते लोग, उसके आगोश में छुप जाने की तमन्ना में चुंबक की तरह चले जाते हैं, तब ऐसे में खटारा, दम-तोड़ती 'किलर' बसें भी बेहद अपनी सी लगा करती थीं!

यह नवम्बर 1994 की एक गहराती शाम थी! पूरे दिन अपनी रोशनी और गर्माहट से धरती को नवाजता सूरज अब थककर डूबने का मंसूबा बांध चुका था और धीरे-धीरे क्षितिज पर लाली फैल कर दिवस के अवसान की घोषणा कर रही थी! पिछले कई दिनों से दिवाली की आपाधापी के कारण रोज देर हो जाती थी! फ़ैक्टरी के कामगारों की सैलरी, दिवाली का बोनस और एडवांस सब एक साथ निपटाने में पूरा स्टाफ बिज़ी था! ऑफिस में सब कुछ अभी हाल ही में कम्प्यूटराइज़्ड़ होने का खामियाजा आस्था को भुगतना पड़ रहा था! तकनीक का जन्म मनुष्य का जीवन आसान करने के लिए हुआ वहीं तकनीक का दामन थामना कभी-कभी मुसीबत का सबब बन जाता है! यूं भी उन दिनों उसके ऑफिस में कम्प्यूटर एक अजूबा था और पूरे ऑफिस में वह अकेली कम्प्यूटर ऑपरेट करने में सक्षम थी तो लिहाजा उसके पास काम जैसे द्रौपदी का अक्षय-पात्र बन गया था, कभी खत्म ही नहीं होता था! कई दिन से लेट हो रही थी तो जल्दी घर पहुँचने के लिए ऑटो लेना पड़ता था! घड़ी में समय देखा, बमुश्किल आज समय पर ऑफिस से निकल पायी थी! हैरत थी कि पार करते समय सड़क भी खाली मिली और उसकी नज़रें उस पार से आने वाली बसों पर जमी थी और कोई एक मिनट बाद वह बस स्टैंड पर थी!

बस में चढ़ते ही रोज़ की तरह उसने खाली सीट तलाशनी चाही पर कहीं कोई सीट खाली नहीं थी! वह बस की नियमित सवारी थी और यह कंडक्टर लड़का उसे सीट दिलाने के लिए कुछ ज्यादा ही इच्छुक रहा करता था! उस रोज़ भी वह उसे देखकर खड़ा हो गया और अनकहे ही अपनी सीट उसने आस्था के लिए छोड़ दी! वह रोज़ इसी बस में आती थी और जानती थी कि अब पीछे आ रही बस को संभालने के लिए उस लड़के ने कमर कस ली है, तो उसे सीट की जरूरत नहीं है, ऐसे में आस्था पर सीट कुर्बान करने का मौका वह नहीं छोडने वाला था!

उस दिल घबरा देने वाली भीड़ और ठसाठस भरी बस में चढ़ते ही सीट मिलना सुखद लगा! मन ही मन कंडक्टर लड़के को धन्यवाद देते और उस पर एक आभार भरी मुस्कान फेंकने के बाद उसने जल्दी से सीट पर काबिज होना उचित समझा, क्योंकि एक अनार और सौ बीमार वाली कहावत यहाँ इतनी सटीक बैठती थी कि उसे डर था कि कोई अगल-बगल से निकलकर सीट पर कब्जा कर उसे उस भीड़ में धक्के खाने के लिए न छोड़ दे!

बस चलने के साथ ही ठंडी हवा के एक झोंके ने उसे छुआ और अनायास ही उसे अनिकेत की याद आ गई! एक हल्की सी मुस्कान चोरी-छुपे उसके होंठों पर तैर गई, जिसे उसने आस-पास देखते हुये बड़ी आसानी से चेहरे पर झूल गई एक लट को ठीक करते हुये छिपा लिया! इन मेहनतकश, बोर रूटीन वाले दिनों और इस भीडभरी बस में अनिकेत के ख्याल ने उसे ताजादम कर दिया था!



"उफ़्फ़ ये भीड़, यू नो अनिकेत, तुम्हारी बाहें दुनिया की सबसे महफ़ूज़ जगह है, इनमें छुपकर खो जाने को जी चाहता है ..." वह धीमे से उसके कान में फुसफुसाती!

"एंड यू डोंट नो आस्था, तुम्हारी आँखें सबसे ख़तरनाक, इनमें डूबकर जीने नहीं मर जाने को दिल चाहता है...."

वह उसे छेड़ते हुए उसकी ओर झुकता ...........

"हाहाहा, यू नॉटी .....स्टॉप देयर"

और वह उसे रोककर, झूठ-मूठ गुस्सा होते हुये, लोगों की ओर इशारा करती, आंखे दिखाती!

अनिकेत उसका मंगेतर था! उन दोनों का विवाह तय हो चुका था और इसके लिए उन्होंने लंबी प्रतीक्षा की थी! प्रेम के विवाह में बदलने की प्रतीक्षा के पलों को काटने के लिए वे अक्सर मिला करते थे! हफ्ते में दो-तीन बार अनिकेत को उसके ऑफिस के समीप ही ऑडिटिंग के लिए आना होता था! कई बार अनिकेत उसे वही बस-स्टॉप पर इंतज़ार करता मिलता और दोनों साथ-साथ घर लौटते, वहाँ तक जहां से दोनों के रास्ते अलग हो जाते, वे लम्हा-लम्हा एक दूसरे से अपने दिन भर के अनुभव बांटकर एक-दूसरे के सान्निध्य को महसूसते! लेकिन आस्था की व्यस्तता के कारण पिछले दस दिनों से उनकी मुलाक़ात नहीं हुई थी! मौसम में हल्की सी सर्दी घुलने लगी थी और अनिकेत के ख्याल ने उसे एक गर्माहट भरे एहसास के साथ अपने आगोश में ले लिया! वह बड़ी शिद्दत से उसके साथ को मिस कर रही थी! जाने क्यों उसे लगा कि एक मुकाम, एक मंज़िल तय हो जाने के बाद प्रतीक्षा जानलेवा हो जाती है! कहीं पढ़ा हुआ याद आने लगा कि समय उनके लिए सबसे धीमी गति से चलता है जो इंतज़ार में होते हैं! उफ़्फ़, ये इंतज़ार, अनिकेत यहाँ होता तो उससे कहती, मेरी आंखें नहीं इंतज़ार में होना, दुनिया में सबसे ख़तरनाक है! प्रतीक्षा का एक नया दौर शुरू हो चुका था, अब वह सर को धीमे से झटकते हुये इस ख्याल से दूर जाने का इंतज़ार करने लगी!

बैठने के बाद उसने पाया कि साथ वाली सीट पर खिड़की के पास एक कद्दावर बुज़ुर्ग सरदारजी पहले से बैठे हुये थे! अक्सर उस लंबे सफर में वह अपने बैग में कुछ किताबें या पत्रिकाएँ साथ रखा करती थी! अगर वह संभव न हो तो चुपचाप खिड़की से बाहर पीछे की छूटते पेड़ों, इमारतों और बस स्टॉप पर खड़े लोगों को देखने में अपना वक़्त खर्च किया करती थी! उस दिन ऐसी कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि वह खिड़की के पास नहीं बैठी थी! सिखों को लेकर मन के किसी कोने में एक विचित्र-से अपनेपन का अहसास, एक सॉफ्ट कोर्नर आस्था हमेशा से महसूस करती आई थी, इसका राज उसकी परवरिश और परिवेश से जुड़ी माज़ी की यादों में कैद था! अचानक 'राजी' की याद धीमे-धीमे हवा की नमी में घुलते हुये उसे सहलाने लगी! राजी यानि रंजीत कौर, उसके बचपन की सबसे प्यारी दोस्त, अब उससे दूर, कहीं बहुत दूर थी! राजी की याद अकेले नहीं आती थी, जब आती थी तो अपने साथ जाने कितनी खट्टी-मीठी यादों को भी लाती थी! कहीं कुछ था उनसे यादों से जुड़ा कि आस्था एकाएक असहज हो जाती और यादें धीरे-धीरे एक भयावह अतीत के एक काले एपिसोड में बदल जातीं! स्मृतियों के पुल का दूसरा सिरा खो चुका था और उस होकर गुजरने वाले लम्हे बेमकसद यूं ही हवा में लहराते एक भयावह कोलाज बना रहे थे! दंगाई.... किरपाण....चीखे.... जलते टायर.... बिखरी हुई चीज़ें, जली हुई लाशें और कई जागती रातें! वे रातें जो राजी को उससे हमेशा के लिए जुदा-कर अपने साथ ले गईं, कभी न लौटने देने के लिए! उस सुहाने मौसम में भी एकाएक कनपटियों पर पसीने की कुछ बूंदे चू आई! एक सिहरन उसकी रीढ़ की हड्डी से उतरती हुई उसके पूरे वजूद को हिला गई! अजीब सी बेचैनी महसूस हुई तो उसने बैग से अपना रुमाल निकाला और यूं ही बेमकसद सामने की सीट की ओर देखने लगी!

उसके ठीक सामने वाली सीट पर एक महिला अपनी बेटी के साथ बैठी थी! बार-बार सीट पर गिरते उस शराबी शोहदे से बचाकर बेटी को तो खिड़की के पास बैठा दिया था, जो गाड़ी में चलते एक चलताऊ गाने पर झूम रहा था और खुद सिमटते हुये, बार-बार बेचैनी से पहलू बदल रही थी! अपने पौरुषीय प्रतीक को बार-बार उसके कंधे पर चस्पा करते उस इंसान रूपी जानवर को देखकर, आस्था दिल चाहा ज़ोर से झापड़ रसीद कर उसे बस से नीचे धकेल दे कि तभी कुछ लोग सरककर बीच में आकर खड़े हो गए और उसका खौलता खून भी आदतन शांत होने लगा! यूं भी ऐसे दृश्य बस में आम थे, बसों में भीड़ के साथ ऐसे लोगों को भी झेलना महिलाओं का नसीब था! बस तेज़ी से मंतव्य की ओर दौड़ रही थी! यह कंडक्टर के लिए रिजर्व सीट थी और बस में सबसे आगे थी! इसके ठीक बाद उतरने का दरवाजा था और उसे बाद एक खुला केबिन जिसमें ड्राईवर के साथ बैठे लोग ज़ोर से कहकहे लगा रहे थे, 'चक्कर अच्छा गया था' और साथ वाली बस काफी पीछे छूट चुकी थी! अमूमन इस दौर में सड़कों पर खासकर इस रूट पर ब्लू लाइन और रेड लाइन बसों का राज था! हालांकि कुछ डीटीसी की बसें भी खानापूर्ति करती नज़र आ जाया करती थीं! उत्तमनगर से बनकर चली यह बस और इस रूट की तमाम बसें मायापुरी और नारायणा जैसे इंडस्ट्रियल एरिया से गुजरते हुये उन तमाम कामगारों के लिए वरदान साबित होती थी जो साइकिल से एक कदम आगे बढ़कर बस की सवारी अफोर्ड कर सकते थे! वहीं इंदरपुरी से लेकर पूसा, रजिन्दर प्लेस से लेकर देव नगर (खालसा कॉलेज) तक यह ऑफिस में काम करने वाली सवारियों का भी बड़ा सहारा थी जो अपने कपड़ों की क्रीज़ संभालते हुये रोजी-रोटी कमाने इस विशालकाय मानवीय समुद्र में खो जाने के लिए रोज़ घर से निकलते थे!

बस इस समय लोहामंडी से आगे कृषि-कुंज पहुंचने ही वाली थी कि अचानक ज़ोर से ब्रेक लगा और बस में चीखपुकार मच गई! वह ऐसे 'झटकों' की अभ्यस्त थी और खुद को संभाल गई पर सरदारजी के साथ कहीं कुछ हुआ था जिस पर उसका ध्यान ही नहीं गया! हुआ यूं कि ड्राईवर, कंडक्टर टीम की सारी आशंकाओं को सच साबित करते हुये पीछे आ रही इसी नंबर की दूसरी ब्लूलाइन एकाएक इसे ओवरटेक करते हुये स्टैंड पर इसके ठीक आगे खड़ी हो गई, लिहाजा उसके इस अप्रत्याशित कदम से इस बस के ड्राईवर को एकाएक ब्रेक लगाने पड़े! नतीजन बस को तेज झटका लगा और कितनी ही सवारियाँ आगे की ओर गिर पड़ी! हालांकि यह पहली सीट थी पर आस्था जैसी नियमित सवारियों के लिए यह बेहद मामूली बात थी तो वे संभल भी गए! झटके से संभलकर उसने देखा, साथ बैठे सरदारजी के सिर से खून बह रहा है! असल में जब बस ज़ोर से रुकी तो वे खुद को संभाल नहीं पाये और उनका सिर आगे डंडे से जा टकराया! उस खटारा बस में जगह से बस की बॉडी में निकले हुये लोहे के किसी पतरे से उनके सिर के टकराने पर माथे पर 'कट' पड़ा और खून बह निकला! उसने ज़ोर से कंडक्टर को पुकारा और 'फ़र्स्ट एड बॉक्स' लाने को कहा! और कुछ पास न होने पर उसने अपने रुमाल को उनके माथे से लगा दिया!

शायद सिर टकराने से उन्हे हल्की मूर्छा भी आ गई थी! यह सब बस कुछ सेकंडों में ही घटित हुआ और धीरे-धीरे वे होश में आने लगे! आस्था खड़ी हो गई थी, और एक हाथ उनके कंधे पर रखे हुए, दूसरे से उनके सिर पर रुमाल लगाए हुये थी! उनकी आँखें खुली कुछ ही क्षणों में वे सारा माजरा समझ गए थे! अनुभव बिना पूछे ही सिलसिलेवार रहस्य की सारी परते खोल देता है! सारी सवारियाँ अपनी अपनी राय देने लगीं और कंडक्टर फ़र्स्ट एड बॉक्स ढूँढने का अभिनय कर रहा था! हालांकि वह जानती थी कहीं कोई फ़र्स्ट एड बॉक्स होता तो उसके हाथ में सौंप दिया जाता! उसने एक हाथ से जल्दी से अपने बैग से छोटी पानी की बोतल निकाली और बेहद तेज़ी से उस रुमाल को खिड़की से बाहर धोकर, गीला कर उसे पलट कर फिर से उनके माथे पर लगा दिया! खून अब शायद रुक गया था और अचानक उस तक एक एंटी सेप्टिक क्रीम पहुंचाई गई जो पता नहीं कंडक्टर ने दी थी या किसी सवारी के बैग से निकली थी! थोड़ी क्रीम सरदारजी के माथे से लगाते हुये उसने चैन की सांस ली! खून सचमुच बंद हो गया था! सरदारजी ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखते हुये बैठने का इशारा किया! उनके भारी-भरकम हाथ ने अनायास उसे घर से कुछ दूर खड़े विशाल, बूढ़े बरगद की याद दिला दी थी, जिसके साये में खेलते हुये वह हमेशा खुद को महफूज महसूस करती थी! एक अजीब से अहसास ने उसे घेर लिया था! जीवन में पिता का मौजूद होना शायद ऐसे ही बरगद की छांव में होने जैसा सुख देता होगा, वह सोच रही थी! उनके इस इशारे का तात्पर्य था कि वे ठीक महसूस कर रहे थे और अब वह वापस अपनी सीट पर बैठ सकती थी!

उसने एक भरपूर नज़र सरदारजी पर डाली तो पाया करीब वे 70-75 साल की आयु के मजबूत कदकाठी के बुज़ुर्ग थे! ठीक उसके दादाजी के उम्र के, करीब छ्ह फुट का कद, जो शायद अपने समय में बहुत शानदार लगता होगा! चौड़े कंधे, जो अब कुछ झुके हुये प्रतीत होते थे और बड़ी बड़ी लाल आँखें थीं! वृक्ष के वलकयों से यदि उसकी आयु का पता चलता है तो चेहरे पर पड़ी हर झुर्री भी उम्र और अनुभव के सारे राज आपके सामने रख देती है! हल्के क्रीम कलर का पठानी सूट और हल्के पीले रंग की पगड़ी पहने हुये वे बहुत आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक नज़र आते थे! उनका चेहरा खुशमिजाज़ था और चेहरे पर अब हल्की सी मुस्कान थी किन्तु बड़ी-बड़ी उदास आंखे एक अजीब सा खालीपन लिए विरोधाभास उत्पन्न करती थी, यह विरोधाभास हौले से उसे कचोट गया!

बस अब राजेन्द्र प्लेस पहुँचने वाली थी! तभी उसे अपनी बगल की सीट से एक रोबदार आवाज़ सुनाई दी -

"तै कित्थे जाणा, कुड़े?" .... पंजाब में लड़की को कुड़ी या कुड़े कहा जाता है! ठेठ पंजाब में बोली जाने वाली पंजाबी में वे पूछ रहे थे, उसे कहाँ जाना है!

 वह थोड़ी पंजाबी जानती थी, उसने जवाब दिया , "जी, मैं ते एत्थे ही थोड़ा अग्गे, देव नगर उतरना ए!"

इससे पहले वह बात करते हुये हिचकिचा रही पर देर से कुछ शब्द उसके जेहन को मथ रहे थे और बाहर आने को बेकाबू थे! जाने क्यों उनके सवाल ने उसे हौंसला दिया और किसी सम्बोधन की तलाश में खोने से पहले ही वह कह बैठी, "त्वानू टिटनेस दा इंजेक्शन लवाना जरूरी है! तुसी एस उमर विच कल्ले आया-जाया न करो!"

सरदारजी ने उसकी ओर देखा, कुछ पल वे यूं ही देखते हुये कुछ कहने का प्रयास करते रहे! एकाएक उनकी उदास लाल आँखें डबडबा आई और रुँधे गले से बमुश्किल कुछ शब्द रेंगकर आस्था तक पहुँच पाये, "पुत्तरजी, कोई नई है नाल आन-जाण वाला! चौरासी विच.... बेटे ....पोते.....सब....." इसके बाद उन्होने आंसुओं से भरा चेहरा खिड़की की ओर घुमा दिया और उसकी आँखें भी कुछ क्षण कुछ देखने में असमर्थ हो गईं! वह जानती थी उन डबडबाई आँखों में यादों के कितने ही मंज़र एक-एक डूब रहे होंगे! अपने आँसू पूछते हुये उसने उनके कंधे पर अपना हाथ रख दिया! इसके बाद के कुछ पलों में वे दोनों कुछ कहने-सुनने की स्थिति में नहीं थे और मन ही मन अपने अपने घावों को सहलाते रहे! उन्हे अपनी गिरफ्त में लिए हुए, दर्द का एक लावा सा बहता रहा, और कुछ देर वे उसमें बहते रहने के अतिरिक्त कुछ न कर सके!

ओह, चौरासी यानि साल चौरासी यानि उन्नीस सौ चौरासी मानो ऐसी ट्रेन बन गया था जो आज फिर, सालों बाद उसकी स्मृतियों में से होकर धड़ाधड़ पटरी बनाते हुये गुजरने लगा और इस अंतहीन यात्रा में वह एक ऐसा मुसाफिर थी जिसे हाथ-पाँव बांध कर उस ट्रेन में बैठने को अभिशप्त किया गया था! जिसके पहिये भी उसकी ही अंतरात्मा को रौंदते हुये उसके चिथड़े उड़ाते हुये लगातार चले जा रहे थे! अब वह ही सवार, वह ही पटरी और वह ही सफर थी, एक दर्दीला सफर जिसके रास्ते में आने वाले स्टेशन भी असहाय से बस बुत बने उसे चलते हुये देखने को विवश थे! उसके कल में छुपी थी अतीत की तमाम कड़वी यादें जिनसे छुटकारा पाने के प्रयास विफल रहे थे!

अंजू शर्मा

संपर्क:
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इंद्रलोक मेट्रो स्टेशन के सामने
दिल्ली 110035
मोबाईल : 09873893119
ईमेल: anjuvsharma2011@gmail.com
आज चौरासी का खौफनाक प्रेत, वक़्त की बोतल से निकल कर एक बार फिर उसकी सोच पर वेताल की तरह सवार हो गया था! नहीं जानती थी, जाने अब कितने घंटे, कितने दिन और कितने साल और उसे इसे ढोते रहना था! देव नगर आने वाला था, बस अब काफी खाली हो गई थी! उसने सरदार जी ओर देखा, सांत्वना का एक लम्हा, सफर कर इन आँखों से उन आँखों तक पहुंचा! उन लाल आँखों ने उसे आश्वस्त करने वाली एक नज़र से देखा और अनबोले ही उसने उनसे विदा ले ली! बस रुकने पर चुपचाप रेड लाइट पर नीचे उतर कर अगली बस पकड़ने के लिए बस स्टैंड की ओर पैदल चल पड़ी! एक अनजाने, अदृश्य बोझ से उसके कदम बोझिल हो चुके थे, मानो एक एक पैर कई मन का हो गया था और अचानक उसे लगने लगा, जैसे वह खुद को ढोते हुये चल रही है! लगभग घिसटते हुये वह सड़क पर भीड़ के एक रेले में समा गई थी हालांकि वह जानती थी दो लाल आँखें और एक उदास शाम अब भी उसका पीछा कर रही थीं!

कवि की पंक्तियाँ अब किताब से निकलकर उसके जेहन पर काबिज हो रही थी!
    'जीवन रेंग रहा है लेकर
       सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
           और डूबती हुई अमा में
            आज शाम है बहुत उदास ।'

समय को समझने की कुछ और कोशिशें - प्रियदर्शन (hindi kavita sangrah)

समय को समझने की कुछ और कोशिशें

प्रियदर्शन की कवितायेँ


एक

समय वह अदृश्य झरना है जो हमारे आंसुओं से बनता है
बेआवाज वह अनुपस्थिति जिसकी चहलकदमी सबसे ज़्यादा महसूस होती है
ये उसकी सड़कें नहीं, हमारे सीने हैं
             जिन पर वह पांव धरता है
यह धरती उसकी बेडौल स्लेट है जिस पर किसी नटखट शिशु सा वह खेलता है।
हम वे अक्षर हैं जिन्हें वह लिखता है
हम वे इबारतें हैं जिन्हें वह मिटाता है
वह पहाड़ों से उतरता नदियों में मुंह धोता
सूरज के आईने में अपनी बेआकार सुंदरता को निहारता है
वह जो हमसे ले जाता है, वह सुख है
वह जो हमें दे जाता है, वह दुख है
वह बीत जाता है हम रीत जाते हैं
हम बीता हुआ, रीता हुआ समय हो जाते हैं
      जो हमें याद करता है, दरअसल उस समय को याद करता है।

दो

समय को पकड़ने की कोशिश कोई कैसे करे
वह कल्पनाओं की बड़ी से बड़ी मुट्ठी में नहीं आता
वह यादों की बड़ी से बडी संदूक में नहीं समाता
कभी वह इतना सूक्ष्म हो जाता है कि दिखाई नहीं पड़ता
कभी इतना विराट कि मापा नहीं जाता
वह कभी इतना ठहरा हुआ लगता है कि
                     बर्फ की झील मालूम पड़े
और कभी इतने उद्दाम वेग से भरा
  कि सूनामियां शरमाएं-सिहर जाएं
यह समय जैसे कोई मायावी है
कभी उसका एक पल युगों जैसा लगता है
कभी-कभी कई युग पलक झपकते बीत गए लगते हैं
वह कभी हमारे जिस्मों में बैठा मालूम होता है
हमारे पुर्जे घिसता हुआ और उनकी एक्सपायरी डेट देखता हुआ
कभी वह जिस्मों से बाहर दुनिया के सारे कोलाहल में व्याप्त नज़र आता है
इस समय के साथ हमारा रिश्ता बड़ा अजीब है
जो जितनी तेजी से बीतता है, हम उसके उतने ही ठहरे रहने की कामना करते हैं
जो बिल्कुल ठहर जाता है, उसके किसी तरह बीत जाने की प्रार्थना करते हैं
समय के साथ यह लुकाछिपी खेलते, कभी उसे बदलते, कभी उसके हिसाब से बदलते
कहां तक चली आई है मनुष्यता।
सोचा है यह कभी?

तीन

वह बहुत बड़ा वैज्ञानिक और गणितज्ञ रहा होगा
जिसने पहली बार पहचाना होगा कि
सूरज के उगने और डूबने का समय बिल्कुल एक है
उसकी निठल्ली एकाग्रता की कल्पना भी मुश्किल है
जिसने एक-एक लम्हे को गिनते हुए जोड़ा होगा कि सूरज सिर तक आने में और फिर उतर कर विलीन हो जाने में
कितना समय लेता है
उसका साहस भी अनूठा होगा
जिसने देखा होगा कि रात भी दिन की सहेली है
दोनों मिलकर आते-जाते बनाते हैं जीवन का वह सिलसिला
जो अब तक की सबसे बड़ी पहेली है
और उसकी तो कल्पना करो
जिसने मौसमों का हिसाब लगाया होगा
सर्दियों में कांपते हुए, बौछारों में तर-बतर और
गर्मियों में बिल्कुल लाल भभूका पाया होगा
कि मौसम लौट कर आते हैं और ऋतुओं की भी लय होती है
जिन्हें ठीक से समझ जाएं तो आने वाले दिनों का स्वभाव समझा जा सकता है
बेशक, ये सब एक दिन में नहीं हुए होंगे
न जाने कितने अछोर बरस-दशक खप गए होंगे
हो सकता है कुछ सदियां भी बह-बिला गई होंगी
लेकिन यह इंसान होने का जुनून और करिश्मा न होता
तो एक अनंत-अछोर, बेसिलसिला स्मृतिविहीनता में क्या डोलती नहीं रहती यह दुनिया?
समय की बहुत परवाह न करने वाले इस समय में 
एक सलाम उनको करने का जी चाहता है
जिन्होंने काल के चक्के को रोक कर उसकी धुरियां गिनीं
और सभ्यता के सफ़र का ठीक-ठीक हिसाब लगा डाला। ​

चार

लेकिन हर समय एक सा नहीं होता
हमारी स्मृति मे न जाने कितने लहूलुहान समय दर्ज हैं
जो सिर्फ हमें ही नहीं, हमारी पूरी सभ्यता को टीसते रहेंगे।
लेकिन उनके मुक़ाबले में एक स्मृति उन समयों की भी होगी
जब प्रतिरोध ने मानवीय गरिमा को नए मानी दिए होंगे
दरअसल हम सब इस समय में हैं- इस समय की संतानें हैं
हम इस समय में ही बोते हैं, इस समय में ही काटते हैं
हम इस समय में ही पुकारते हैं, इस समय में ही हारते हैं
शुक्र है कि हम इस समय में जीतते भी हैं और जीतते हुए
अपना भरोसा भी जीतते हैं।
न जाने कितने तूफ़ान हमारे ऊपर से गुजर गए
न जाने कितने जलजलों ने हमारे नीचे की धरती खिसका डाली
न जाने कैसे-कैसे सैलाब हमें बहा कर ले गए
लेकिन समय में हमने अपना भरोसा बनाए रखा।
इन दिनों भी हम जैसे एक सैलाब के सामने हैं
बस इस उम्मीद की डोर थामे
कि एक दिन समय इस सैलाब को भी अपने साथ बहा ले जाएगा।

पांच

समय को लेकर बुजुर्गों ने न जाने कितने मुहावरे गढ़े
सलाह दी कि समय बहुत बलवान होता है, उससे डरो
समझाया कि समय बहुत क़ीमती होता है, उसे बरबाद न करो
ताक़ीद की कि समय का सम्मान करना सीखो
वह हमेशा एक जैसा नहीं होता
असमय बेसमय कुसमय कुछ करने, न करने के नियम बनाए
शुभ समय निकालने के ढेर सारे तरीक़े खोजे
लेकिन समय से संग्राम जैसे चलता रहा
अच्छे समयों में बुरी ख़बरें आती रहीं
बुरे समयों में उम्मीदें माथा सहलाती रहीं
यह भी सुना कि समय पंख लगाकर उड़ता है
जब कभी ऐसा हुआ, तब पता ही नहीं चला
कि वह समय था जो चला गया।
हमें तो ज़्यादातर वह कटे पंखों के साथ धरती पर गिरा मिला।
इसी से समझ में आया
समय कई तरह के होते हैंp
समय के विरुद्ध भी होता है एक समय
अच्छे समय के पीछे हमेशा लगा रहता है बुरा समय
हालांकि जिन्होंने समय की बहुत ज़्यादा परवाह की
वे भी ठीक से जी नहीं पाए
संपर्क:

प्रियदर्शन

ई-4, जनसत्ता, सेक्टर नौ, वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
मोबाईल: 09811901398
ईमेल: priyadarshan.parag@gmail.com
और जिन्होंने समय को बहुत ज़्यादा साधना चाहा
उन्होंने हासिल तो बहुत किया, लेकिन सुखों को महसूस करना भूल गए
जो समय से बेपरवाह रहे, उन्होंने बहुत सारे दुख उठाए
जो समय से आगे रहे, उन्होंने जमाने के हाथों बहुत सारे ज़ख़्म खाए
लेकिन यह सच है कि दुनिया उन्होंने ही बनाई
जिन्होंने समय को अपनी तरह से दी चुनौती
उसको अपनी तरह से जिया
और जीते-जीते नए सिरे से परिभाषित कर दिया।